मंगलवार, 1 जुलाई 2008

वातायन - जुलाई, २००८



हम और हमारा समय

मैं क्यों लिखता हूं

रमेश कपूर

समय के साथ दुनिया की हर शै बदलती है. यह प्रक्रिया नश्वरता-अनश्वरता से जुड़ी है. लेखन---- या साहित्य--- या सृजनात्मक लेखन की कसौटियां भी इसी चाल से चलती हैं. तो फिर सांसों की तरह लगातार हमारे बाहर-भीतर होने वाले क्षण-क्षण जन्म लेते और फ़ना हो जाते साहित्य के समक्ष यह प्रश्न क्यों है कि वह लिखा क्यों जाता है ? क्षमा करें, यह प्रश्न कि 'मैं लिखता क्यों हूं ?' से कहीं अधिक यह है कि 'साहित्य लिखा क्यों जाता है ?'

क्योंकि साहित्य हमारे भीतर रहने तक एक निजता है --- अपने एकांतवास, अपने भीतर के एकांतवास से मुक्ति पाने का एक अलौकिक मार्ग. अपने अंतराल में उगे तमाम पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों से मोक्ष प्राप्त करने का एक साधन. जो न जाने किन क्षणों में सूरज की तेज धूप में तप कर अचानक एक साध्य हो जाता है और हम उस 'साध्य' को अपने वशीभूत करने के 'असाध्य' प्रयास में जुट जाते हैं.

मेरा अपना यह मानना है कि हमारे भीतर जो कुछ भी क्षणभंगुर है, साहित्य उस पर विजय पाने का एक हथियार है, जिसे हम यदा -कदा इस्तेमाल में लाते हैं. और अपने इर्द-गिर्द फैली (बाहरी और भीतरी दोनों) विसंगतियों और दुश्वारियों--- और उलझनों से जूझने और पार पाने का प्रयास करते हैं. ---- और जहां कहीं हमारे इस 'मोक्ष प्राप्ति अभियान' में कोई व्यवधान आता है, या जहां हम स्वयं अपनी अक्षमताओं से इन विसंगतियों-दुश्वारियों पर विजय न पाकर उनके समक्ष आत्मरक्षा या आत्मसमर्पण की मुद्रा में आ जाते हैं तो यकीन मानिए वहां हम वास्तव ही में 'न लिखने के कारणों ' की खोज करने लगाते हैं. यह खोज किसी अन्वेषक की खोज नहीं है अपितु यह भी पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों के बीच अपने आप को निपट अकेले पाने--- या जानबूझकर अकेला छोड़ देने की एक स्थिति है. यह स्थिति स्वयं हमारे लिए, हमारे समाज के लिए घातक है. इसी घातक चक्रव्यूह से बच निकलने का रास्ता सुझाता है साहित्य, जो वास्तव में हमारे ही विचारों की एक सार्थक अभिव्यक्ति है और हमारे लेखन की जवाबदेही तय करता है. लेकिन यह जवाबदेही तभी तय होती है जब हमारी निजता बाहर आकर सामाजिकता में रूपांतरित होती है. बेशक निजता से 'सामाजिकता' में रूपांतरित होने की यह प्रक्रिया नितान्त 'स्वान्तः सुखाय' ही सही, लेकिन यही एक ऎसी अनुभूति है, जो हमारे लिखने का सबसे बड़ा कारण बनती है.

इन दिनों 'अहा! जि़न्दगी' में यही प्रश्न उठाया गया है कि 'मैं लिखता क्यों हूं ?' इसी स्तम्भ में लिहते हुए डॉ० महीप सिह कहते हैं कि "लिखना मुझे अच्चा लगता है. मुझे यह नहीं पता कि आध्यात्मिक अनुभूति क्या होती है, किन्तु जब कुछ लिख लेता हूं , तब अन्दर ही अन्दर बहुत अच्छा---अच्छा महसूस करता हूं. सम्भवतः इसी अनुभूति को काव्य -शास्त्रियों ने 'ब्रह्मानंद सहोदर' कहा होगा."

हालांकि लिखने के कारण उम्र के विभिन्न पड़ावॊं अर अपना रूप परिवर्तित करते रहते हैं और आपकी उंगली पकड़ कर उस प्रस्थान बिन्दु तक घसीट ले जाते हैं, जब हम अपनी पहली रचना लिखते हैं.

समय की सुइयों को यदि पीछे की ओर लौटाना संभव हो तो मुझे याद आता है कि मैंने अपने जीवन की पहली कहानी तब लिखी थी, जब मैं पांचवीं कक्षा में पढ़ता था. फैंटम और मैंड्रेक्स के कॉमिक्स जुनून की हद तक दिमाग पर हावी रहते थे. उन्हीं के प्रभावश कहानी लिखी, जो शायद देवकीनंदन खत्री के उपन्यास की तरह 'ऎय्यारियों', पर आधारित थी.

उसके बाद जासूसी किताबों से होता हुआ पढ़ने का शौक थोड़ा-थोड़ा गंभीर किस्म के साहित्य की ओर मुड़ने लगा. इस तरह पढ़ने से होकर यह शौक लिखने तक आ पहुंचा. कॉलेज की पत्रिका में कविताएं भी प्रकाशित हुईं और कहानियां भी. चंदेक पुरस्कार भी मिले (सिर्फ कविताओं पर). तब लिखने में ऎसा माम्भीर्य नहीं था फिर भी एक अलग पहचान तो बन ही चुकी थी. अपने कॉलेज से लेकर दूसरे कॉलेजों तक भी. यहां तक 'स्वांतः सुखाय' की शुरूआत अभी नहीं हुई थी. बस, एक जिद्द् थी, जो पुरस्कारों की होड़ ने अधिक मजबूत कर दी.

.... और अंततः जब विधिवत लेखन की शुरूआत हुई तो इसका श्रेय भी ' न लिखने के कारण' के लेखक को ही जाता है, जिन्होंने मुझ 'लेखक जैसे गुणों वाले' व्यक्ति को एक लेखक बना दिया.

आज जब लिखते हुए एक अरसा हो गया, यह प्रश्न लगातार पीछा करता रहता है कि आख़िर हम लिखते क्यों है? यदि मैं यह कहूं कि सामाजिक संवेदनाओं से अपने भीतर जो उद्वेलन होता है, वही विचार के रूप में पककर रचना बनता है तो वस्तुतः एक दायित्वबोध की अनुभूति होती है बिना इस ग़लतफहमी को मन में पाले कि हमारे लेखन से समाज में कोई विस्मयकारी बदलाव आएगा.... लेकिन अपने भीतर तो बदलाव आता ही है. जहां कहीं उस दोराहे से भिडंत होती है जिसके दो सिरे दो विभिन्न दिशाओं की ओर मुड़ते हैं और दोनों ही सिरे किन्हीं अन्धेरे कुओं में जाकर गिरते हैं तो लेखन वहां मुझे शक्ति देता है और उन अंधेरे कुओं के अंघेरे गहरेपन में रोशनी की एक किरण (चाहे क्षण भर ही सही) दिखता है तो लगता है कि जीवन अपने आप को सार्थक करता है. और सार्थक कर सकने में सक्षम है---- आसपास के तमाम सख्त हालात के बावजूद.

अभी पिछले दिनों डॉ० कमला प्रसाद से बातचीत में स्वयं महाश्वेता देवी ने यह स्वीकार किया कि ' लिखना एक फैशन नहीं है. लिखना बाहर की तकनीकी चीज़ नहीं है. यह अन्दर से आता है. अंतर्मन से लिखना चाहिए. .. नहीं तो कुछ नहीं है.'

इस दृष्टि से हमारा लेखन भी हमारे अपने अधिकार में कहां रहता है ? वह तो तभी हो पाता है जब कोई 'विचार' हमारे भीतर पनपता है और बार-बार हमारे अंतर्मन को मथने लगता है. मथने की यह प्रक्रिया कभी-कभी बहुत लम्बी चलती है. दिनों-महीनों में. कभी वर्षों में भी.

मेरी अपनी कहानी 'हत्यारे' इसी मंथन-प्रक्रिया में लगभग तीन माह तक फंसी रही---- मात्र अपने अंत को लेकर. और द्वितीय विश्वयुद्ध पर लिखा जा रहा मेरा उपन्यास 'हारा-कीरी (या एक अबूझ एन्काउण्टर) लगभग नौ वर्ष की विचार-प्रक्रिया के पश्चात आरम्भ हो सका है. तो ये चीजें, जो हमारे भीतर प्रवेश कर उथल-पुथल मचाए रहती हैं, हमारा हाथ पकड़ कर हमसे लिखवा ले जाती हैं. और इसी का परिणाम है कि कई बार हम अपना लिखा स्वयं पढ़कर हैरान होते हैं कि क्या यह हमने ही लिखा है ?

लेकिन यह सन्तोष हमेशा मन में बना रहता है कि हम इन क्रूर स्थितियों और सख़्त हालात के बीच भी कुछ अच्छा कर रहे हैं और स्वयं को एक इन्सान बनाए रखने में कामयाब हैं.

मेरी अपनी एक ग़ज़ल की शुरूआती पंक्तियां हैं कि - 'मुझको इन्सान ही रहने दे, मसीहा न बना ! मेरी हस्ती को प्रस्तिश का मुद्दआ न बना !!

यही ताकत है हमारे भीतर, जो हमें एक अच्छा इन्सान बनने को प्रेरित करती है हमारे भीतर-बाहर के तमाम दमघोंटू दबावों के बावजूद. समय का यही दबाव --- और रचना के एक 'ब्रह्म' क्षण का आश्चर्यचकित कर देने वाला यह मायावी तिलिस्म ही हमसे 'रचना' करवा ले जाता है. सौ एकांतिक निर्जन क्षणों में बीच अपने भीतर की उद्वेलित होती भावनाएं ( जैसा कि ग्राहम ग्रीन भी महसूस करते हैं) जब-जब निजी वैचारिक जगत से बाहरी सार्वर्भौमिक सच्चाइयों से टकरा कर सामाजिकता में परिवर्तित होती हैं, तब-तब मैं स्वयं को बहुत विवश पाता हूं और अपने को लिखने से रोक नहीं पाता. यह एक ऎसी अन्तहीन अंतर्यात्रा है, जो स्वयं को -- समाज को -- प्रिस्थितियों को समझने में सहायता करती है और उस लक्ष्य तक पहुंचाती है,जहां आकर स्वयं यह प्रश्न बिल्कुल बेमानी हो जाता है कि मैं लिखता क्यों हूं. क्योंकि ऎसी अवस्था में यह प्रश्न अपना उत्तर स्वयं ही है.

शायद यह अपने वर्तमान-- और अपने भविष्य के प्रति एक अनोखा-- अचीन्हा विश्वास जगाने का एक ज़रिया है, बेशक क्षणभंगुर ही सही . हो सकता है वही 'क्षणभर' का अंतराल एक 'ब्रह्म' की अनुभूति का रूप हो. आखिर रचनात्मकता 'परम सुख' और 'आत्मज्ञान' से बढ़कर है भी क्या !--

रमेश कपूरजन्म: 14 नवम्बर 1957, दिल्लीशिक्षा: दिल्ली विश्वविद्यालय से वाणिज्य स्नातकलेखन: विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में कहानियां, समीक्षाएं व ग़ज़लेंप्रकाशित।संप्रति: व्यवसाय के साथ-साथ स्वतंत्र लेखन भी। इसके अतिरिक्त शीघ्र प्रकाश्य हिन्दी साहित्यिक पत्रिका ‘कथाशिखर’ ( त्रैमासिकी ) का सम्पादन।सम्पर्क:ए–4/14, सैक्टर–18,रोहिणी, दिल्ली–110089। फोन : 011–2785 2324, मोबाइल : 09891252314, 09899641921 ,ईमेल : kathashikhar414@yahoo.com