मित्रो,
अनेक व्यस्तताओं के कारण वातायन का प्रकाशन
नियमित नहीं हो पाने का खेद है. मेरा प्रयास होगा कि पहले की ही भांति इसका प्रकाशन
नियमित हो सके. वातायन एक ब्लॉग पत्रिका के
रूप में सदैव आप तक पहुंचता रहा है और विश्वास है कि भविष्य में भी उसी रूप में इसका
प्रकाशन हो सकेगा.
वातायन के इस अंक में युवा कवयित्री और लेखिका
सुश्री शशि काण्डपाल का संस्मरण ’डाक्टर यादव’
और उनकी कविता- ’बूंदों की ख्वाहिश’ प्रस्तुत है. सुश्री काण्डपाल प्रखर प्रतिभा की धनी
हैं, जिनके पास आकर्षक शिल्प, सक्षम भाषा और सूक्ष्म दृष्टि है. भविष्य में भी आप उनकी
अन्य रचनाएं यहां पढ़ सकेंगे.
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संस्मरण
(डाक्टर दिवस (०८-०७-१७) पर विशेष)
डाक्टर यादव
शशि काण्डपाल
डाक्टर----आप पढ़ लिख कर जी जान एक करते है ताकि हमारे
रोगों और परेशानियों का निदान कर सके और शायद अपने जीवन भर की नींद और आराम गवां बैठते
है ..इसके लिए मैं सभी का आभार मानती हू..
डॉक्टर बोलते ही मुझे अपने भाई बहनों,पड़ोसियों,मोहल्ले
और एरिया के लोगो को सँभालते "डॉ यादव " होम्योपैथ याद आ जाते है|
कद छह फुट से थोडा कम,छरहरा शरीर,परिवार के एकलौते बेटे,अविवाहित
और उनकी बड़ी सी कोठी!
पहले पहल घर में क्लिनिक खोला और मेरे पापा अक्सर हमें
वहाँ ले जाते..कभी मिलने कभी दवाई लेने | मेरी दादी को दवाई देने
वो घर तक आ जाते और लगता हमारा पूरा घर स्वस्थ हो गया ...उनकी छोटी छोटी
टिप्स बहुत अमूल्य हो उठती|
अलग तरह के इंसान,जिन्हें समाज को सस्ती दवाइयां उपलब्ध करानी
थीं ,बच्चो के मुँह पर मुस्कान लानी थी ,, हम उन्हें भगवान् सा मानते, ना इंजेक्शन
ना कड़वी दवाई देने वाले डॉक्टर!
उन्होंने अपने घर के पीछे, एक बड़े से कमरे को अपनी
कार्य स्थली बनाया,वो या तो पढ़ते रहते या लकड़ी की बनी ,दवाई की शीशियो को सजा कर रखने
वाली, चौकोर और छोटे छोटे खानों वाली ट्रे से गोलियां मिक्स कर रहे होते,पुडिया
बना रहे होते....
उनके कमरे तक पहुँचने के लिए पूरी कोठी को गोलाई में पार
कर उन तक पहुँचना होता जो की एक अलग अनुभव होता और उससे भी
विशेष आकर्षण होता उनके दरवाजे पर लगी पीतल की घंटी जिसे डोर से खींचकर बजा सकते
थे लेकिन मैं जब भी जाती वो व्यस्त मिलते और मैं देहरी पर खड़ी
उनके बुलाये जाने का इंतजार करती...जब थकान से पैर उठाने ,बदलने लगती तब वो गर्दन
उठा कर इजाजत देते और कहते तुम बोलोगी नहीं तो दुनिया सुनेगी नहीं ..किसे क्या पड़ी
है जो तुम्हारा मौन समझे??
मैं कुछ समझ ना पाती लेकिन आज जानती हूँ कि
वो तो पहले ही मुझे अपनी बड़ी बड़ी
खिडकियों से आते हुए देख चुके होते
थे बस मेरे दब्बू पन का इलाज कर
रहे होते थे! लेकिन डॉक्टर साहब ये भूल
जाते थे जन्मजात बिमारिया कम ठीक होती है |
मरीज बढ़ते गए,नाम बढ़ चला और कोठी गन्दी
होती गई सो बाहर बाजार में एक कमरा जो की कल्लू हलवाई
के बगल में था , रोगियों का अस्पताल बना|
कोई भी पेटदर्द बताता तो उनका पहला प्रश्न होता कल्लू की
मिठाई खायी थी क्या?
कल्लू भी सुनता और डॉक्टर
भी मिठाई खाते और एक दूसरे की सहायता
ही करते|
अब मेरा आकर्षण दुगुना था क्योंकि मीठी
दवाईयों में ,छनती जलेबियों की खुशबू भी समा गई थी ...खौलता दूध
और औटता खोया घर जाने की याद बिसरा देता..
डॉक्टर सिर्फ एक रुपया लेते,और दो चार घंटे में एक स्तूप
बन जाता और गिनने के लिए मेरे मत्थे पड़ता, रेजगारी कल्लू के हवाले करने पड़ती| वो कभी
सिक्के या रुपये पर हाथ ना लगाते, अगर ज्यादा रूपये दिए है तो बाकी खुद उठा लो क्योंकि
दवाई देते समय वो कुछ ना छूते ..
अक्सर एक जमादार जो अपनी दवाई लेने आता जैसे ही सिक्का डालना
चाहता वो डांट देते ..
हटाओ अपना गन्दा सिक्का...मिलाना मत और वो हरिराम खित्त से
हँस देता...
सालों एक सिक्के को दिखा कर
स्वस्थ होता रहा और हर बार डॉक्टर उसका सिक्का लौटाते रहे...असल
में वो उससे दवाई के पैसे नहीं लेना चाहते थे क्योंकि तब एक रूपये
की अच्छी कीमत हुआ करती थी और मैं हैरान होती की आखिर
ये एक तरह की बेइज्जती के बाद भी हँसता क्यों
है? बहुत बाद में समझी कि कुछ दोस्त ऐसे
भी होते है...लेकिन वो उनका अहाता साफ़ रखता और अपनी खुद्दारी भी!
बचपन गया,शादी हुई और डॉक्टर मेरी स्मृतियों में धुधले पड़
गए लेकिन जब सालों बाद शहर वापस आई तो उनसे मिलने की कोशिश में कहाँ कहाँ ना
पता लगाया लेकिन वो कही नहीं मिले.
कल्लू की दूकान कलेवा नाम से प्रसिद्द हो चुकी थी लेकिन
मुझे बिलकुल मीठी नहीं लग रही थी..घर की जगह एक शौपिंग मॉल खड़ा था...
कहाँ गया वो बगीचा? वो बिल्लियाँ? वो तोते और
ढेर सारे कबूतर? मैं अक्सर पूछती क्या ये
सब भी आपकी मीठी दवाई खा सकते है? और वो
मेरी नाक पकड़ कर कुछ सादी गोलियां मेरे मुह में टपका देते
और मैं समझ ना पाती की मेरा मुँह खुद खुलता कैसे
है?? समय ने समझाया कि जब सांसों का एक
रास्ता बंद कर दो तो दूसरा प्रकृति खोल
देती है.....
जिससे भी पूछती वो उन्हें स्मृतियों में जानता
लेकिन वर्तमान में कहाँ है पता ना चला........वो मेरे लिए अनुत्तरित ही रहे....भाई,पापा,पड़ोसी
सबने पता लगाने की कोशिश की लेकिन अपने माँ बाप की मृत्यु के बाद वो
मकान बेच ना जाने कहाँ चले गए? किसी कल्लू, हरिराम और
रोगियों को बताये बिना......
अभी कुछ साल पहले हरिद्वार गई और दिमाग ने कहा ऐसा न हो की
उनकी परोपकारी प्रवृत्ति उन्हें किसी आश्रम या चेरिटी में ले आई हो और अपने सूत्रों
से पता लगाने की कोशिश की लेकिन नाकाम रही.......क्या पता नाम भी बदल लिया हो!
आज भी उनकी उम्र के बुजुर्ग में उन्हें ढूढती हूँ क्या पता
कहीं दिख ही जाये..
कितने भी बदले होंगे तो भी जुगाड़ से पहचान लूंगी उन्हें
और वो मुझे....
आखिर एक मैं ही तो थी जो रोग होने पर उनके सामने बैठ जाती
और वो मुझसे सिमटम्स पूछ के बता रहे होते तुझे
ये हुआ है और सर पे एक चपत
लगा कर मेरा दिया सिक्का अपनी जेब में रख लेते.......
शायद मेरे जीवन के पहले आदर्श जिनसे मेरा मोह कभी भंग
नहीं होगा! सबको स्वस्थ करने वाले डॉक्टर यादव ..
आप जहाँ भी हो कुशल से हो! स्वस्थ हो!
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कविता
बूंदों की ख्वाहिश
शशि काण्डपाल
सुबह हो, बारिशों वाली,
और जाना हो कहीं दूर..
खाली सी सड़के हो,
और सोया सा रास्ता,
हँसते से पेड़ हो,
और ढूढ़ना हो, कोई नया पता...
चले और चले फकत जीने इन रास्तो को ,
जहाँ ये सफ़र हो...
और मंजिल हो लापता,,
ओस आती हो पैरों से लिपटने
और भिगो जाये टखनो तक.
दे जाती हो इक सिहरत,
ताउम्र ना भूल पाने को..
बस चलती रहूं
जियूं उन अहसासों को रात दिन,
जो देते है रवानियत ..
रहूं तेरी ख़ामोशी में..
बस फकत ये याद दिलाने ...
जब जब हो बारिश,
या शरद की गीली घास
भिगोये ये रास्ते, तुझे बार बार ...
छिटकन बन जाए तेरी उलझन और उलझन मुस्कान,,
और याद आये कि पैरों से लिपटती वो बूंदे
...
कही मैं तो नहीं?
झुक के देख खुद के कदमों को,
जिन्हें मैंने भिगोया ओस की बूंदे बन कर,
उठ के देख खुद को,
जिसे मैंने भिगोया याद बन कर..
कर ख़याल और समझ..
ये मैं हूं...
मैं ही तो हूं...
और कौन ............
जो तेरे कदमों से लिपट...
तेरे घर तक जाना चाहे.........
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युवा कवयित्री और लेखिका शशि काण्डपाल
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