मंगलवार, 30 मार्च 2010

वातायन - अप्रैल, २०१०



हम और हमारा समय

पुरस्कारों का घमासान

रूपसिंह चन्देल

भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कारों के अतिरिक्त सभी सरकारी-गैर सरकारी पुरस्कारों (साहित्य अकादमी सहित) की घोषणा के उपरांत उन पर वाद-विवाद होता रहा और होता रहेगा. इसका कारण उनके चयन की विश्वसनीयता और उन्हें प्राप्त करने वाले साहित्यकारों की पात्रता होती है. पिछले दिनों साहित्य अकादमी बहुदेशीय कारोबारी कंपनी सामसुंग के सहयोग से प्रदान किये गये पुरस्कार के कारण विवाद में घिरी और दुर्भाग्यपूर्णरूप से उस पुरस्कार के साथ रवीन्द्रनाथ टैगोर का नाम जोड़ा गया. वरिष्ठ कवि विष्णु खरे ने जनसत्ता में इस मुद्दे को उठाया, जिसके पक्ष और विपक्ष में अनेक लेखकों ने अपने मत व्यक्त किए. वह विवाद अभी चल ही रहा था कि हिन्दी अकादमी दिल्ली का वर्ष २००८-०९ का शलाका सम्मान सम्बन्धी विवाद उठ खड़ा हुआ. इस सम्मान का निर्णय कार्यकारिणी समिति ने वरिष्ठतम कथाकार कृष्ण बलदेव के पक्ष में किया था. हिन्दी अकादमी के पुरस्कारों का निर्णयन कार्यकारिणी समिति ही करती है. बाद में अकादमी की अध्यक्ष (दिल्ली की मुख्य मंत्री) की अध्यक्षता में संचालन समिति उसे अंतिमरूप से स्वीकृति प्रदान करती है. इस पुरस्कार को भी मार्च २००९ में स्वीकृत किया गया और स्पष्ट है कि अकादमी की अध्यक्ष शीला दीक्षित जी ने इस पर अपनी अंतिम मोहर लगा दी, लेकिन २००८-०९ और २००९-१० के पुरस्कारों की घोषणा के समय २००८-०९ के शलाका सम्मान को छोड़कर ( जो वैद जी के लिए तय किया गया था) शेष सभी को यथावत घोषित किया गया. कहते हैं ऎसा कांग्रेसी नेता पुरुषोत्तम गोयल द्वारा कृष्ण बलदेव वैद की कृतियों में अश्लीलता के आरोप के कारण किया गया. लेकिन अपुष्ट समाचार के अनुसार इसके पीछे एक बड़े साहित्यकार का हाथ था, क्योंकि अकादमी अध्यक्ष को गोयल जी ने ३१.०३.२००९ को जो पत्र लिखा , उसकी भाषा इस बात का स्पष्ट संकेत देती है कि पुरुषोत्तम गोयल ने शायद ही वैद जी की कोई कृति पढ़ी होगी. पत्र में गोयल साहब ने लेखक के उपन्यास ’नसरीन’ से एक पृष्ठ की सामग्री उद्धृत की जिसमें मां की गाली का प्रयोग किया गया है. इसी पत्र में वैद जी के प्रति असम्मानजनक भाषा का प्रयोग करते हुए वह आगे लिखते हैं -- " इस आदमी ने श्री अशोक बाजपेयी की शराब संस्कृति के सम्बन्धों के चलते इस पुरस्कार की सिफारिश करवा ली..... "
गोयल साहब के आरोपों से महत्वपूर्ण उनके पत्र का वह अंतिम अंश है जिसमें वह शीला जी को लिखते हैं --"उपन्यास अंश की जांच किसी निष्पक्ष और स्वतंत्र विशेषज्ञ से करवा लें ." और पत्र का यही वह अंश है जो यह संदेश उत्पन्न करता है कि क्या गोयल जी ने ’नसरीन’ पढ़ा था ? और अध्यक्ष ने गोयल जी की सिफारिश मानकर क्या किसी ’निष्पक्ष और स्वतंत्र विशेषज्ञ’ से उसकी जांच करवायी थी ? अध्यक्ष स्वयं साहित्य मर्मज्ञ हैं. कम से कम वह स्वयं ही उन अंशों पर दृष्टिपात कर सकती थीं. संभव है उन्होंने अकादमी के विद्वान उपाध्यक्ष को यह कार्य सौंपा हो, जिनके ’च्यौं रे चम्पू’ का लोकार्पण करते समय उन्होंने उसे हिन्दी साहित्य की महानतम रचना बताया था और उससे प्रभावित महात्मा गांधी के ’हिन्द स्वराज’ को अकादमी के उपाध्यक्ष अशोक चक्रधर की कृति बता दी . राजनीतिज्ञों से ऎसी भूल-चूक होती रहती हैं. अपने प्रिय व्यक्ति के पक्ष में की गई भूल-चूक के परिहार की आवश्यकता भी उन्हें नहीं होती. और हो भी क्यों ? चक्रधर कोई मामूली व्यक्ति नहीं हैं ? ’हिन्दी अकादमी’ (दिल्ली) और ’केन्द्रीय हिन्दी संस्थान’ (आगरा) के बोझ संभालने वाला व्यक्ति साधारण नहीं हो सकता . फिर यदि सत्ता की ताकत उसके साथ हो तब उसकी शक्ति का अनुमान लगाया जा सकता है. ऎसा असाधारण व्यक्ति ही वैद प्रकरण में अकादमी के पक्ष में खड़ा होकर कह सकता है कि उस पुरस्कार की जब घोषणा ही नहीं हुई तब वैद जी का अपमान कैसा ?
लेकिन कुछ लेखकों को वैद जी का अपमान सम्पूर्ण हिन्दी लेखक समुदाय का अपमान लगा और उन्होंने अपने स्वीकृत पुरस्कारों को अस्वीकार करने की घोषणाएं कर दीं. केदारनाथ सिंह जी को वर्ष २००९-१० का शलाका सम्मान घोषित हुआ था ---- वैद जी के अपमान से आहत उन्होंने उसे लेने से इंकार कर दिया. पुरुषोत्त्तम अग्रवाल, पंकज सिंह, रेखा जैन, गगन गिल, और विमल कुमार ने भी अपने द्वारा स्वीकृत पुरस्कार लेने से इंकार कर दिया. इस कड़ी में वरिष्ठ कथाकार अशोक गुप्ता का नाम भी शामिल हो चुका है, जिनका पत्र मुझे इन पंक्तियों को टाइप करते समय प्राप्त हुआ है. निश्चित ही इन साहित्यकारों का निर्णय श्लाघनीय हैं. लेकिन अकादमी से सम्बद्ध वरिष्ठ कथाकार असगर वज़ाहत का यह कथन समझ से परे है कि एक बार स्वीकार करने के बाद पुरस्कार लौटाना नहीं चाहिए था. क्या असगर भाई ने वैद जी के अपमान की पीड़ा अनुभव नहीं की ? केदार जी और पुरुषोत्तम अग्रवाल ने स्पष्ट करते हुए कहा कि उन्हें पता ही नहीं था कि वैद जी के नाम पर मोहर लगने के बाद उन्हें इंकार किया गया. जब ज्ञात हुआ उन्होंने पुरस्कार लौटा दिए. पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकारों के साथ भी ऎसा ही हुआ होगा.
बात कुछ भी हो , वास्तविकता यही है कि यह वैद जी का ही अपमान नहीं , सम्पूर्ण हिन्दी लेखक समुदाय का अपमान है और जिन साहित्यकारों ने अभी तक पुरस्कार नहीं लौटाए उन्हें भी विरोधस्वरूप पुरस्कार अस्वीकृत कर देना चाहिए , जिससे राजनीतिज्ञों और उनके तलवे चाटने वालों को यह संदेश जा सके कि साहित्यकार कोई कमजोर जीव नहीं और न ही पुरस्कार उससे बड़ा होता है. उन्हें आलू के बोरे (सात्र के शब्दों में ) की जरूरत नहीं. हालांकि भीड़ में कुछ लोग ही शहीद हुआ करते हैं और इतिहास उनसे ही बनता है.
अब कुछ बातें कार्यकारिणी समिति की निर्णायक स्थिति पर भी . निर्णायक समिति के पास दिल्ली या राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के साहित्यकारों की वरिष्ठता-क्रमानुसार तैयार कोई सूची नहीं है. यही कारण है कि पिछले वर्षों में एक-दो पुस्तकों के लेखकों को भी साहित्यकार पुरस्कार से नवाजा जाता रहा. अपुष्ट समाचारों के अनुसार इसमें अकादमी के उपाध्यक्ष और सचिव की अहम भूमिका होती है. अर्थात वे कार्यकारिणी समिति के अन्य सदस्यों पर भारी पड़ते रहे हैं. यदि रचनात्मक योगदान के आधार पर वरिष्ठता सूची तैयार होती तब ’वाह कैंप’ और ’धुव सत्य’ जैसे उल्लेखनीय उपन्यासों के लेखक पचहत्तर वर्षीय द्रोणवीर कोहली का नाम २००८-०९ की सूची में शामिल न होता. उन्हें अंतिम दशक में ही यह पुरस्कार मिल जाना चाहिए था. ’विष्णुगुप्त चाणक्य’ जैसा कालजयी उपन्यास लिखने वाले ८३ वर्षीय वीरेन्द्र कुमार गुप्त को तो शायद कार्यकारिणी के सदस्य जानते ही न होंगे, लेकिन उन्हें जैनेन्द्र कुमार की पुस्तक -’समय और हम’ की याद अवश्य होगी. यह साक्षात्कारों की विश्व की सबसे बड़ी पुस्तक है, जिसके साक्षात्कर्ता वीरेन्द्र कुमार गुप्त थे. दुर्भाग्य से जैनेन्द्र जी के छल के कारण वह पुस्तक उनके नाम से नहीं जैनेन्द्र जी के नाम से प्रकाशित हुई थी. यदि वीरेन्द्र कुमार गुप्त के प्रश्न न होते तब जैनेन्द्र जी के उत्तर कैसे हो सकते थे. इन वरिष्ठ लेखकों की ओर से कार्यकारिणी समितियां अपना पल्ला नहीं झाड़ सकतीं. उनकी जवाबदेही इतिहास के पन्नों में दर्ज होगी. यदि अकादमी वरिष्ठता-क्रम सूची तैयार कर ले और उसे तैयार करने में निष्पक्षता और पारदर्शिता का परिचय दिया जाए तब शायद अकादमी के विरुद्ध उठने वाली उंगलियों की संख्या कम होगी----- हालांकि तब भी पुरस्कार हड़पने के जुगाड़ु़ओं और चाटुकारों से अकादमी अपने को कैसे बचा पाएगी यही उसके लिए चुनौती होगी और इसीसे उसकी सफलता -असफलता निर्धारित होगी.
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वातायन के अप्रैल अंक में प्रस्तुत हैं वरिष्ठ कथाकार, आलोचक और पत्रकार महेश दर्पण के यात्रा संस्मरण पुस्तक ’पुश्किन के देस में’ से एक महत्वपूर्ण अंश, वरिष्ठ कवि अशोक आंद्रे की कविताएं और वरिष्ठ कथाकार बलराम अग्रवाल की कहानी . आशा आपको अंक पसंद आएगा. आपकी महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी.

पुस्तक अंश

महेश दर्पण की यात्रा-संस्मरण पुस्तक ’पुश्किन के देस में’ से एक महत्वपूर्ण अंश :
पुश्किन पुरस्कार ग्रहण करने के लिए महेश दर्पण रूस गए. पुरस्कार उन्होंने प्राप्त किया और ’पुश्किन के देस में’ यात्रा पुस्तक हिन्दी पाठकों को प्राप्त हुई. इस महत्वपूर्ण यात्रा पुस्तक में रूस का वर्तमान परिदृश्य ही नहीं उसका अनछुआ अतीत भी उद्घाटित हुआ है. महेश दर्पण हिन्दी के उन कथाकारों में हैं जो रेगिस्तान से भी मोती चुन लाने की क्षमता रखते हैं. कभी शंकरदयाल सिंह की सोवियत संघ की यात्रा के संस्मरण साप्ताहिक हिन्दुस्तान में पढ़े थे और उन दिनों उनकी पर्याप्त चर्चा रही थी. उसके बाद भी कई साहित्यकारों-पत्रकारों ने सोवियत संघ पर यात्रा संस्मरण लिखे, लेकिन ल्युदमीला ख़ख़लोवा (प्लैप) की इस बात से असहमति का कोई कारण नहीं कि -सोवियत संघ के बिखराव के बाद रूस काफी बदल गया है. रूस का जीवन भी अब पहले जैसा नहीं रहा. महेश दर्पण ने इसी बदले हुए जमाने का बेहद आत्मीय, सच्चा और सहज चित्र प्रस्तुत किया है. बदले रूस को जानने के लिए दर्पण की यह पुस्तक एक महत्वपूर्ण दस्तावेज की भांति है. प्रस्तुत है इससे एक महत्वपूर्ण अंश :
मास्को में तोल्स्तोय का संग्रहालय
महेश दर्पण
मास्को स्थित तोल्स्तोय संग्रहालय दरअसल १८६८ में एक लॉज हुआ करता था. यहां तब एक कोस्चवान और सहन की देखभाल करने वाले रहा करते थे. तोल्स्तोय संग्रहालय देखकर लेखक के उन दिनों की कल्पना बखूबी की जा सकती है. मैं और अनिल अचानक ही यहां आ पहुंचे थे.
इसका डाइनिंग रुम देखने लायक है. कहते हैं, यहा सिर्फ मेहमानों को ही वाइन पेश की जाती थी. १८९३ में तात्याना ने बेटी मारिया का जो चित्र बनाया था, वह यहीं रखा हुआ है. उस वक्त की एक जर्मन घड़ी भी सजी हुई है. ठीक सामने एक बड़ी खिड़की है. इसके साथ ही लगे दूसरे कमरे में रहने वाले, परिवार के लोग, बदलते रहते थे. उसी वक्त का खास सामान यहां रखा गया है. लेखक के बेटे सर्गेई की पत्नी का चित्र , तोल्स्तोय की पत्नी का पलंग, पियानो और तमाम दूसरी चीजें यहां देखी जा सकती हैं.
म्यूजियम के बहाने अंतरंग जीवन-कथा भी खुलती है लेखक की. १८८८ से पति-पत्नी का शयन कक्ष तीसरा कमरा हो गया. आखिरी बेटे के जन्म के बाद पलंग अलग कर लिए गए थे. यहीं मेज पर सोफिया पति की रचनाओं के प्रूफ और घर का हिसाब देखा करती थीं. वह कहानियां भी लिखती थीं. संगीत में तो उनकी दिलचस्पी थी ही, वह फोटोग्रफी भी किया करती थीं. ज्यादातर कामकाज उन्हीं के निर्देशन में हुआ करता था. यही वजह है कि यहां मेहमानों की लिस्ट, हिसाब-किताब और बिल आदि भी सहेज कर रखे गए हैं.
तोल्स्तोय के पलंग पर रखा हुआ कंबल कभी खुद पत्नी ने बुना था. किसी खास अवसर के लिए तैयार कराया गया आमंत्रण पत्र भी रखा हुआ है. अपने सबसे छोटे बेटे के साथ सोफिया आंद्रेवना का चित्र भी देखा जा सकता है जो कलाकार गे ने बनाया था.
चौथा कमरा बच्चों का है. पहले तीन बच्चे यहीं रहते थे. दो बेटे और एक बेटी. बाद में अलेक्सांद्रा बड़ी होकर इस कमरे से चली गई. इस कमरे में १३वें बच्चे वान्या का सारा सामान सुरक्षित रखा हुआ है.
वान्या को लेखक खूब प्यार करते थे. उन्हें यकीन था कि छोटा बेटा ही उनका प्रभु सेवा का काम पूरा करेगा. यह कमरा उसकी स्मृतियों को संजोए है. यहां आप सर्गेई की लिखी एक कहानी का संपादित रूप देख सकते हैं. यहां रखे दस्तावेज बताते हैं कि १८९५ में वान्या सात साल का होकर मर गया. दो पलंग हैं जिनमें से एक पर आया और एक पर बच्चा सोया करता था. दरवाजे पर ही झूले के कांटे लगे हुए हैं. एक पक्षी का पिंजरा रखा हुआ है. कई हस्तशिल्प और खिलौने उस समय की कला से परिचित कराते हैं.
एक कमरा बच्चों की पढ़ाई का है. इसे देख कर पता लगता है कि सामान्य पढ़ाई के अलावा यहां विदेशी भाषाएं भी सीखी जाती थीं. अलेक्सांद्रा के अलावा यहां गवर्नेस हमेशा रहा करती थी. वह आमतौर पर जर्मन या फ्रेंच में बोला करती थी. सोफिया भी जर्मन पढ़ा देती थीं. कुर्सी की गद्दियों पर कढ़ाई तोल्स्तोय की पत्नी ने की है. यहां उस वक्त इस्तेमाल होने वाला लकड़ी का संदूक और कुछ बर्तन भी रखे हुए हैं.
इस कमरे को पार कर के आप नौकरानियों के कमरे तक जा पहुंचेंगे. इनका काम हुआ करता था कपड़े धोना, प्रेस करना और जरूरी मरम्मत. खली समय में ये मेज के पास आकर चाय पिया करती थीं. इनमें से एक नौकरानी मरीया ने रसोइए से शादी कर ली थी. इस कमरे की विशेषता यह है कि यहां से आप बाहर भी जा सकते हैं और ऊपर भी. यहीं से खाना लाया जाता था.
सातवें कमरे में दो बेटे आंद्रेई और मिखाइल रहा करते थे. इन लोगों के पलंग अब भी यहीं रखे हैं. ये वॉयलिन और हारमोनियम बजाया करते थे. उनकी मेज भी यहीं रखी हुई है. आठवां कमरा बेटी तात्याना का है. कमरे की खूबसूरती उसके बताए गए मिजाज के अनुरूप ही है. उसने चित्रकारी और कढ़ाई बाकायदा सीखी थी. उसके बारे में कहा जाता है कि वह काफी मिलनसार, दयालु और खुशमिजाज थी. उसे छोटे बच्चों की बड़ी चिंता रहती थी. यही नहीं, जब कभी मां-बाप में तनातनी हो जाती, समझौता भी यही कराती थी. वह गे, रेपिन और कसातकिन जैसे चित्रकारों की मित्र थी. इस कमरे में रखे तात्याना के कई पोट्रेट इन्हीं चित्रकारों के बनाए हैं. इस कमरे की एक मेज पर काला मेजपोश बिछा है. इस पर मेहमानों के हस्ताक्षर मौजूद हैं. उन पर कढ़ाईदार काम भी है.
इसके बाद खाना सर्व करने वाला कमरा आता है. यहां उस जमाने मिट्टी के तेल का एक लैंप रखा हुआ है. यहां दून्या रोज ऑमलेट बनाया करती थी. घर के लोग उससे कॉफी और खिचड़ी भी बनवा लेते थे. शेल्फों में बर्तन सजे हैं.यहीं पास में एक अलमारी में तोल्स्तोय का कोट रखा है. इसका साइज बता है कि वह कितने लंबे-तगड़े थे. (उनके मित्रों के संस्मरणों में यह स्पष्ट मिलता है कि तोल्स्तोय लंबे नहीं --- सामान्य कद के थे - रूपसिंह चन्देल)
नीचे की मंजिल में तोल्स्तोय खुद रहते थे और ऊपर मेहमानों को टिकाते थे. आप जरूर जानना चाहेंगे कि मेहमानों में अक्सर आने वालों में कौन लोग होते थे. इनमें थे : चेखव, लेस्कोव, बूनिन, अस्त्रोवस्की और गोर्की.
ऊपर जाने के लिए, पहले नकली भालू के हाथ में विजिटिग कार्ड रखते थे लोग. ये वे दिन थे जब बिजली नहीं हुआ करती थी. इसीलिए गैलरी में चित्रों के मॉडल रखे हैं.यही थी चित्र बनाने की जगह. यहां घोड़ों के दो चित्र आज भी आप देख सकते हैं. ये हैं : ’ताकत का अंदाजा बुड़ापे में’ और ’ताकत का अंदाजा जवानी में’. ये दोनों चित्र स्वेर्चकोव के हैं. ये उन्होंने तोल्स्तोय को भेंट किए थे.
हॉल में संगमरमर इंप्रेशन का वॉल पेपर लगा है. यहां गोष्ठी और पारिवारिक समारोह हुआ करते थे. इन समाराहों में स्क्रियाबिन, रहमानिनफ, रीम्स्की, कोर्साक, रानेमेव और शल्यापिन जैसे संगीतकार आया करते थे. यहां आप तोल्स्तोय की वह मूर्ति भी देख सकते हैं जो गे ने खुद बना कर उन्हें भेंट की थी. १८५८ में मारे गए रीछ की खाल भी यहां रखी हुई है. कहते हैं, इस रीछ ने लेखक पर हमला कर दिया था.
तोल्स्तोय मेहमानों का जमकर स्वागत करते थे. खासकर ईस्टर के मौके पर. ईस्टर पर्व मनाते हुए कई चित्र यहां उनके साथ विशेष लोगों के देखे जा सकते हैं.एक बड़ी शतरंज भी यहां रखी है. आप चाहें तो रिकार्ड की गई तोल्स्तोय की आवाज भी सुन सकते हैं. इसमें वे गांव के स्कूली बच्चों को संबोधित कर रहे हैं. जो कुछ मैं सुन पाया, उसका आभिप्राय लीन ने मुझे यह बताया : ’शुक्रिया बच्चो कि आप मेरे पास आते हैं. मैं खुश हूं . मुझे मालूम है कि आप में ऎसे बच्चे भी हैं जो पढ़ाई नहीं करते . वे शैतानी करते हैं. बड़े होने पर आप लोग मुझे याद करेंगे.’
वैसे रिकार्ड तो उस म्यूजिक का भी रखा है जो तोल्स्तोय की पोती बजाया करती थी. गेस्ट रूम में कलाकार सोरोव का बनाया सोफिया का खूबसूरत चित्र रखा है. दूसरा चित्र रेपिन का बनाया तात्याना का सजा है. गे का बनाया मरीया का चित्र भी यहां मौजूद है. देखने वाला सोच सकता है कि ये मूल चित्र हैं, लेकिन आप इसे देख कर जब खुश हो रहे हों तो यह भी याद रखिएगा कि तोल्स्तोय खुद इसे बोर मेहमानों का कमरा कहा करते थे.
यहां वह कभी-कभी ही मिलने आया करते थे. यहां अक्सर घर की मालकिन की सहेलियां आकर बैठा करती थीं. यहीं वह छोटी-सी मेज भी है जिस पर बैठ कर सोफिया पति की रचनाओं के प्रूफ देखा करती थी. आखिरी कमरे में यहीं वह पलंग भी रखा हुआ है जिस पर लेखक सोए थे. यहां आपको परिवार के तमाम सदस्यों की तस्वीरें नजर अएंगी. वे उपहार भी बाकायदा सजें हैं जो बच्चों ने लेखक को शादी के ३० बरस पुरे होने पर भेंट किए थे.
इस म्यूजियम में यह गौर करने लायक बात है कि मरीया के कमरे की छत सबसे नीची है. वही पिता की रचनाओं का पुनर्लेखन , उनके पत्रों के उत्तर देने का काम करती और फ्रांसीसी से अनुवाद करती थी. यहां मेज पर बिछे मेजपोश पर परिवार में मेहमान बनकर आए लोगों के हस्ताक्षर नजर आते हैं. वह कबल भी रखा हुआ है जिसे सोफिया ने बनाया था. घर की मैनेजर अवरोतिया थी, जो ३० साल से भी ज्यादा सेवा में रही. कुल दस नौकर थे.
एक कमरे में तोल्स्तोय परिवार की महिलाओं के वस्त्र रखे हुए हैं.
वह कमरा, जहां मुख्य नौकर इल्या सिदोरको खाना लगाता था, उसी तरह से सहेजकर रखने की कोशिश की गई है. उसे लेखक द्वारा बाकायदा मेहमानों के आने की सूचना दी जाती थी. लैंप में तेल वही डाला करता था. वही बच्चों और सोफिया को शहर ले जाता था. सच पूछें, तो यह लेखक का सबसे विश्वस्त नौकर था. शायद इसीलिए अपनी कई किताबें, प्रिय सामान और तस्वीरें लेखक ने उसे भेंट की थी. यहां मौजूद दस्तावेज बताते हैं कि बीमारी के दिनों में तोल्स्तोय की सबसे ज्यादा सेवा इसी ने की थी. हालांकि सच यह भी था कि लेखक को किसी की मदद लेना कतई पसंद नहीं था. इसके पीछे उनकी वह धारणा सबसे ज्यादा काम करती थी कि किसी को नौकर मानना नैतिक रूप से खराब है. इस कमरे में एक फ्रेंच कलाकार का बनाया इसी नौकर का चित्र सजा हुआ है.
लिखने -पढ़ने के कमरे में दीवारें रंगी हुई हैं. जमीन पर चटाई बिछी है. फर्नीचर कम, लेकिन भारी है. तोल्स्तोय नौ से दस बजे के बीच यहीं बैठ कर लिखा करते थे और फिर अंतराल होता था. इसके बाद तीन से चार बजे के चीच लेखन होता था. इसके बाद वह पत्र लिखते थे. यहीं उन्हॊंने ’पुनरुत्थान’, ’फादर सर्गेई’, ’इवान इलिच’, ’जीवित शव’ और ’मुझे क्या करना चाहिए’ जैसी किताबें लिखीं. धर्म से मोह टूटने के बाद धर्म सभा को उत्तर भी उन्होंने यहीं से लिखा. लेखक को कुर्सी की ऊंची टांगें पसंद नहीं थीं. कुर्सी के पैर उन्होंने खुद काटकर छोटे किए थे. ये वे दिन थे जब लेखक की नजर कमजोर हो गई थी. कुर्सी को कम ऊंचा रखने का कारण यही था कि तोल्स्तोय उन दिनों ज्यादा झुकना नहीं चाहते थे. काम करते-करते थक जाते तो खड़े होकर स्टैंड पर लिखने लगते थे. काम के बाद जिन चौड़ी कुर्सियों पर लेखक आराम करते थे, वे भी यहीं रखी हैं. यहीं वह घर आए लेखकों से मुलाकात किया करते थे.
इस कमरे के बाहर लेखक के जूते रखे हुए हैं. उनके कपड़े, साइकिल और खेत में काम करने का जरूरी सामान भी रखा है.
सात बजे उठ कर तोल्स्तोय बाहर के कमरे में नहाया करते थे. कमरों की सफाई वह खुद किया करते थे. सर्दियों में लकड़ी काटना और फिर उन्हें उठा कर लाना उनके लिए रोजमर्रा के कामों में शुमार था. अपने कमरे में भट्टी भी वह खुद ही जलाते थे. दूर से पानी लाने के लिए वह बर्फगाड़ी का इस्तेमाल किया करते थे. इन तमाम कामों से संबद्ध उनकी कई चीजें आज भी वहा रखी हैं. घूमने के बाद अक्सर तोल्स्तोय जूते बनाया करते थे. जूते बनाना उन्होंने मास्को में रहकर ही सीखा था. इस में काम आने वाली चीजें यहीं सहेज कर रखी गई हैं.
तात्याना के पति के लिए १८९९ में लेखक ने यहीं जूता बनाया . यहीं फेत नाम के कवि के लिए भी उन्होंने जूता बनाया. उनका बनाया एक जूता यहां रखा हुआ है. आप यहीं वह साइकिल भी देख सकते हैं जो तोल्स्तोय चलाया करते थे. उन्हें मुग्दर चलाने का शौक तो था ही, कहते हैं लेखक ने ६७ बरस की उम्र में भी साइकिल चलाई. ये तमाम चीजें साहित्य प्रेमियों के लिए प्रदर्शित हैं.
कहते हैं, यह सब लेखक की पत्नी ने सरकार को बेच दिया था. बाद में सरकार ने १९११ में यहां म्यूजियम बना दिया. दुनिया-भर से आए लोग इसे देखने का मोह नहीं छोड़ पाते . इसके रख-रखाव में अब अच्छा-खासा खर्च होता है. शायद यही वजह है कि इस म्यूजियम में प्रवेश के लिए हमें १५० रूबल का टिकट लेना पड़ा. फोटॊ खींचने के लिए १०० रूबल अलग से. हां, आप पिछले दरवाजे के पास या बाहर वाले कमरे का फोटो खींचना चाहें तो बगैर कुछ दिए खींच सकते हैं. म्यूजियम से, हमारे बाहर पहुंचते ही आइसक्रीम वाले लड़के ने कहा : ’गुड मॉर्निंग . अनिल ने उससे ’द्रास्तुइचे’ कहा तो वह शर्मा गया. उसके साथ की सुंदरी भी हंस पड़ी.
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कल्याणी शिक्षा परिषद , ३३२०-२१, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली-११००२२.
मूल्य ३००.०० , पृष्ठ २२४
आवरण : निर्दोष त्यागी
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कुमाऊं मूल के एक सैन्य-परिवार में महेश दर्पण का जन्म १ जुलाई, १९५६ को तोतारानी, धर्मशाला (हि.प्र.) में हुआ. देश के कई शहरों में शिक्षा ग्रहण करते हुए अंततः एम.ए.(हिन्दी).
*’विश्ववाणी’, ’सूर्या’, ’सारिका’, ’दिनमान’ और ’नवभारत टाइम्स’ के सम्पादन विभाग में जुड़े रहे महेश जी का साहित्यिक पत्रकारिता में महत्वपूर्ण योगदान है. उनकी कहानियां भीड़ से एकदम अलग आत्मीय आकर्षण लिए हैं जिन्हें आप ’अपने साथ’, ’चेहरे’, ’मिट्टी की औलाद’, ’वर्तमान में भविष्य’, ’जाल’, ’इक्कीस कहानियां’, और ’ एक चिड़िया की उड़ान’ में पढ़ सकते हैं. उनका साहित्य चिंतन झलकता है ’रचना परिवेश’ और ’कथन-उपकथन में’. वह हिन्दी कहानी के एक तटस्थ सम्पादक हैं, जिसकी पहचान उनके द्वारा सम्पादित ’बीसवी शताब्दी की हिन्दी कहानियां’, ’स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कहानी कोश’, ’प्रेम कहानियां’, ’राजधानी की कथायात्रा’, ’प्रेमचन्द की चर्चित कहानियां’, ’जयशंकर प्रसाद की चर्चित कहानियां’, ’रमाकांत का संग्रह, ’जिन्दगी भर का झूठ’ ’अवधनारायण मुद्गल समग्र’ जैसी स्थायी महत्व की पुस्तकों से की जा सकती है. ’पुश्किन सम्मान’ (रूस), ’साहित्यकार सम्मान’, ’कृति सम्मान’ (हिन्दी अकादमी), ’सुभाष चंद्र बोस सम्मान’, ’पीपुल्स विक्ट्री अवार्ड’ और ’नेपाली सम्मान’ से समानित महेशजी की कहानी ’छल ’ पर अमिताभ श्रीवास्तव द्वारा बनाई गई फिल्म भी प्रशंसित हुई है.
संप्रति : टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के सांध्य टाइम्स में कार्यरत.
संपर्क : सी-३/५१, सादतपुर, दिल्ली-११००९४
ई मेल : darpan.mahesh@gmail.com


कविता


वरिष्ठ कवि अशोक आंद्रे की दो कविताएं
(१)
घर की तलाश
मुद्दतों के बाद लौटा था वह
अपने घर की ओर,
उस समय के इतिहासिक हो गए घर
के
चिन्हों के खंडहरात
शुन्य की ओर
ताकते दिखे प्रतीक्षारत .
उस काल की तमाम स्मृतियाँ
घुमडती हुई दिखाई दीं ,
हर ईंट पर झूलता हुआ घर
भायं-भायं करता दीखा,
दीखा पेड़ , जिसके नीचे माँ
इन्तजार करती थी
बैठ कर
शाम ढले पूरे परिवार का .
उसी घर के दायें कोने में पड़ी
सांप की केंचुली
चमगादड़ों द्वारा छोडी गयी दुर्गन्ध
स्वागत का दस्तरखान
लगाए मिलीं ,
जबकि दुसरे कोने में
मकड़ी के जालों में उलझी हुई
स्मृतियों के साथ
निष्प्राण आकृतियाँ झूल रही थीं
घर के आलों में
भी काफी हवा भर गयी थी
जिसे मेरी सांसें उनसे पहचान
बनाने की
कोशिश कर रही थीं,
हाँ, घर की टूटी दीवार पर लटकी
छड़ी
बहुत कुछ आश्वस्त कर रही थी
टूटे दरवाजों के पीछे
जहां कुलांचें भरने के प्रयास में
जिन्दगी
उल्टी- पुलटी हो रही थी,
उधर आकाश चट कर रहा था-
उन सारी स्थितियों को
जिन्हें इस घर की चहारदीवारी में
सहेज कर
रख गया था
इड़ा तो मेरे साथ गयी थी
लेकिन उस श्रद्धा का कहीं कोई
निशान दिखाई
नहीं दे रहा था
जिसे छोड़ गया था घर के दरवाज़े
को बंद
करते हुए,
अब हताश, घर के मध्य
ठूंठ पर बैठा हुआ वह
निर्माण के सारे तथ्यों को ढूंढ रहा
था,
जिसका सिरा बाती बना इड़ा के
हाथ पर
जलते दीये में ही दिख रहा था,
बीता हुआ समय कल का अंतर बन
कर
खेत में किसी मचान सा दिख रहा
था
जिस पर बैठ कर
सुबह का इन्तजार कर रहा था वह
ताकि घर को
फिर अच्छी तरह टटोलकर
सहेजा जा सके.
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(२)
सपने
सपने हैं कि पीछा नहीं छोड़ते
हर रोज अजीबोगरीब सपनों का
सहारा लेकर
अनगिनत सीढ़ियों को घुटनों के
बल
विजीत करने की कोशिश करता
है वह,
यह व्यक्ति की फितरत हो सकती है
जो,उसे आकाश में भी सीढ़ियों का
दर्शन करा देती है.
सीढ़ियों पर खड़ा व्यक्ति
अपने से नीचे खड़े व्यक्ति को
उसके शास्त्र से जूझने को कहता है.
एक सीढ़ी, दो सीढ़ी पहाड़ तो नहीं
बन पाती है.
हाँ उसके व्याख्यायित आख्यानों का
विस्तार जरूर होती है.
उसी विस्तार को छूने के लिए
वह भी सपनों को विस्तार देता है
और घुटनों में ताकत देता हुआ
अपने अन्दर ही
छू लेता है उन सपनों को.
******
exploring adventure
अब तक निम्नलिखित कृतियां प्रकाशित :
*फुनगियों पर लटका एहसास अंधेरे के ख़िलाफ (कविता संग्रह) दूसरी मात (कहानी संग्रह) कथा दर्पण (संपादित कहानी संकलन) सतरंगे गीत चूहे का संकट (बाल-गीत संग्रह) नटखट टीपू (बाल कहानी संग्रह). *लगभग सभी राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित.
* 'साहित्य दिशा' साहित्य द्वैमासिक पत्रिका में मानद सलाहकार सम्पादक और 'न्यूज ब्यूरो ऑफ इण्डिया' मे मानद साहित्य सम्पादक के रूप में कार्य किया.
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सोमवार, 29 मार्च 2010

कहानी



खुले पंजों वाली चील

बलराम अग्रवाल

दोनों आमने-सामने बैठे थे—काले शीशों का परदा आँखों पर डाले बूढ़ा और मुँह में सिगार दबाए, होठों के दाएँ खखोड़ से फुक-फुक धुँआ फेंकता फ्रेंचकट युवा। चेहरे पर अगर सफेद दाढ़ी चस्पाँ कर दी जाती और चश्मे के एक शीशे को हरा पोत दिया जाता तो बूढ़ा ‘अलीबाबा और चालीस चोर’ का सरदार नजर आता। और फ्रेंचकट? लम्बोतरे चेहरे और खिंची हुई भवों के कारण वह चंगेजी-मूल का लगता था।
आकर बैठे हुए दोनों को शायद ज्यादा वक्त नहीं गुजरा था, क्योंकि मेज अभी तक बिल्कुल खाली थी।
बूढ़े ने बैठे-बिठाए एकाएक कोट की दायीं जेब में हाथ घुमाया। कुछ न मिलने पर फिर बायीं को टटोला। फिर एक गहरी साँस छोड़कर सीधा बैठ गया।
“क्या ढूँढ रहे थे?” फ्रेंचकट ने पूछा,“सिगार?”
“नहीं…”
“तब?”
“ऐसे ही…” बूढ़ा बोला, “बीमारी है थोड़ी-थोड़ी देर बाद जेबें टटोल लेने की। अच्छी तरह पता है कि कुछ नहीं मिलेगा, फिर भी…”
इसी बीच बेयरा आया और मेज पर मेन्यू और पानी-भरे दो गिलास टिका गया। अपनी ओर रखे गिलास को उठाकर मेज पर दायीं तरफ सरकाते हुए बूढ़े ने युवक से पूछा, “और सुनाओ…किस वजह से…?”
“सिगार लेंगे?” बूढ़े के सवाल का जवाब न देकर अपनी ओर रखे पानी-भरे गिलास से हल्का-सा सिप लेकर युवक ने पूछा।
“नहीं,” बूढ़ा मुस्कराया,“बिल्कुल पाक-साफ तो नहीं हूँ, लेकिन कुछ चीजें मैं तभी इस्तेमाल करता हूँ जब उन पर मुझे मेरे कब्जे का यकीन हो जाए।”
“ऍज़ यू लाइक।” युवक भी मुस्करा दिया।
“…मैं सिर्फ तीस मिनट ही यहाँ रुक सकता हूँ।” बूढ़ा बोला।
इस बीच ऑर्डर की उम्मीद में बेयरा दो बार उनके आसपास मँडरा गया। उन्होंने उसकी तरफ जैसे कोई तवज्जो ही नहीं दी, अपनी बातों में उलझे रहे।
“मैं तहे-दिल से शुक्र-गुजार हूँ आपका कि एक कॉल पर ही आपने चले आने की कृपा की…।” युवक ने बोलना शुरू किया।
“निबन्ध मत लिखो। काम की बात पर आओ।” बूढ़े ने टोका।
“बात दरअसल यह है कि आपसे एक निवेदन करना है…”
“वह तो तुम मोबाइल पर भी कर सकते थे!”
“नहीं। वह बात न तो आपसे मोबाइल पर की जा सकती थी और न आपके ऑफिस में।” युवक बोला,“यकीन मानिए…मैं बाई-हार्ट आपका मुरीद हूँ…।”
“फिर निबन्ध?”
“क्या ले आऊँ सर?” ऑर्डर के लिए उन्हें पहल न करते देख बेयरा ने इस बार बेशर्मी से पूछा।
“अँ…बताते हैं अभी…दस मिनट बाद आना।” चुटकी बजाकर हाथ के इशारे से उसे टरक जाने को कहते हुए युवक बोला।
“फिलहाल दो कॉफी रख जाओ, फीकी…शुगर क्यूब्स अलग से।” बेयरा की परेशानी को महसूस कर बूढ़े ने ऑर्डर किया।
बेयरा चला गया।
“कॉफी…तो…जहाँ तक मेरा विचार है…आप लेते नहीं हैं!”
“तुम तो ले ही लेते हो।”
“हाँ, लेकिन दो?…आप अपने लिए भी कुछ…।”
“नहीं, मेरी इच्छा नहीं है इस समय कुछ भी लेने की।” बूढ़ा स्वर को रहस्यपूर्ण बनाते हुए बोला,“लेकिन…दो हट्टे-कट्टे मर्द सिंगल कॉफी का ऑर्डर दें, अच्छा नहीं महसूस होता। इन बेचारों को तनख्वाह तो खास मिलती नहीं हैं मालिक लोगों से। टिप के टप्पे पर जमे रहते हैं नौकरी में। यह जो ऑर्डर मैंने किया है, जाहिर है कि बिल-भुगतान के समय कुछ टिप मिल जाने का फायदा भी इसको मिल ही जाएगा।…लेकिन उसकी मदद करने का पुण्य कमाने की नीयत से नहीं दिया है ऑर्डर। वह सेकेण्डरी है। प्रायमरीली तो अपने फायदे के लिए किया है।…”
“अपने फायदे के लिए?” युवक ने बीच में टोका।
“बेशक… कॉफी रख जाएगा तो कुछ समय के लिए हमारे आसपास मँडराना बन्द हो जाएगा इसका। उतनी देर में, मैं समझता हूँ कि तुम्हारा निबन्ध भी पूरा हो जाएगा। अब…काम की बात पर आ जाओ।”
फ्रेंचकट मूलत: राजनीतिक मानसिकता का आदमी था और बूढ़ा अच्छी-खासी साहित्यिक हैसियत का। युवक ने राजनीतिज्ञ तो अनेक देखे थे लेकिन साहित्यिक कम। बूढ़े ने राजनीतिज्ञ भी अनेक झेल रखे थे और साहित्यिक भी। कुछ कर गुजरने का जज्बा लिए युवक राजनीति के साथ-साथ साहित्य के अखाड़े में भी जोर आजमा रहा था। उसके राजनीतिक सम्बन्ध अगर कमजोर रहे होते और वह अगर लेशमात्र भी नजर-अन्दाज होने की हैसियत वाला आदमी होता तो अपना ऑफिस छोड़कर बूढ़ा उसके टेलीफोनिक-आमंत्रण पर एकदम-से चला आने वाला आदमी नहीं था।
“काम की बात यह है कि…आप से एक निवेदन करना था…”
“एक ही बात को बार-बार दोहराकर समय नष्ट न करो…” सरदार वाले मूड में बूढ़ा झुँझलाया।
“आप कल हिन्दी भवन में होने वाले कार्यक्रम में शामिल न होइए, प्लीज।”
“क्यों?” यह पूछते हुए उनकी दायीं आँख चश्मे के फ्रेम पर आ बैठी। काले शीशे के एकदम ऊपर टिकी सफेद आँख। गोलाई में आधा छिलका उतारकर रखी गई ऐसी लीची-सी जिसके गूदे के भीतर से उसकी गुठली हल्की-हल्की झाँक रही हो। उसे देखकर फ्रेंचकट थोड़ा चौंक जरूर गया, लेकिन डरा या सहमा बिल्कुल भी नहीं।
“आ…ऽ…प नहीं होंगे तो जाहिर है कि अध्यक्षता की बागडोर मुझे ही सौंपी जाएगी। इसीलिए, बस…” वह किंचित संकोच के साथ बोला।
“बस! इतनी-सी बात कहने के लिए तुमने मुझे इतनी दूर हैरान किया?” यह कहते हुए बूढ़े की दूसरी आँख भी काले चश्मे के फ्रेम पर आ चढ़ी। पहले जैसी ही—गोलाई में आधी छीलकर रखी दूसरी लीची-सी।
बेयरा इस दौरान कॉफी-भरी थर्मस और कप-प्लेट्स वगैरा रखी ट्रे को मेज पर टिका गया था। युवक ने थर्मस उठाकर एक कप में कॉफी को पलटने का उद्यम करना चाहा।
“नहीं, थर्मस को ऐसे ही रखा रहने दो अभी।” बूढ़े ने धीमे लेकिन आक्रामक आवाज में कहा। वह आवाज फ्रेंचकट को ऐसी लगी जैसे कोई खुले पंजों वाली कोई भूखी चील अपने नाखूनों से उसके नंगे जिस्म को नोंचती-सी निकल गई हो। आशंकित-सी आँखों से उसने बूढ़े की ओर देखा—वह भूखी चील लौटकर कहीं वापस तो उसी ओर नहीं आ रही है? और उसकी आशंका निर्मूल न रही, चील लौटकर आई।
“कार्यक्रम का अध्यक्ष तो मैं अपने होते हुए भी बनवा दूँगा तुम्हें!…” उसी आक्रामक अन्दाज़ में बूढ़ा बोला,“मैं खुद प्रोपोज कर दूँगा।”
“आपकी मुझपर कृपा है, मैं जानता हूँ।” चील से अपने जिस्म को बचाने का प्रयास करते हुए युवक तनिक विश्वास-भरे स्वर में बोला,“महत्वपूर्ण मेरा अध्यक्ष-पद सँभालना नहीं, उस पद से आपको दो-चार गालियाँ सर्व करना होगा।…और वैसा मैं आपकी अनुपस्थिति में ही कर पाऊँगा, उपस्थिति में नहीं।”
उसकी इस बात को सुनकर बूढ़े ने फ्रेम पर आ टिकी दोनों लीचियों को बड़ी सावधानी से उनकी सही जगह पर पहुँचा दिया। चील के घोंसले से माँस चुराने की हिमाकत कर रहा है मादरचोद!—उसने भीतर ही भीतर सोचा। बिना प्रयास के ही प्रसन्नता की एक लहर-सी उसकी शिराओं में दौड़ गई जिसे उसने बाहर नहीं झलकने दिया। बाहरी हाल यह था कि अपनी जगह पर सेट कर दी गईं लीचियाँ एकाएक एक-साथ उछलीं और फ्रेम से उछलकर सफेदी पकड़ चुकी भवों पर जा बैठीं।
“मेरी मौजूदगी में, मुझसे ही अपनी इस वाहियात महत्वाकांक्षा को जाहिर करने की हिम्मत तो तुममें है, लेकिन गालियाँ देने की नहीं!…कमाल है।” बूढ़ा लगभग डाँट पिलाते हुए उससे बोला।
युवक पर लेकिन लीचियों की इस बार की जोरदार उछाल का कोई असर न पड़ा। वह जस का तस बैठा रहा। बोला,“बात को समझने की कोशिश कीजिए प्लीज!…पुराना जमाना गया। यह नए मैनेजमेंट का जमाना है, पॉलिश्ड पॉलीटिकल मैनेजमेंट का। अकॉर्डिंग टु दैट— आजकल दुश्मन वह नहीं जो आपको सरे-बाजार गाली देता फिरे; बल्कि वह है जो वैसा करने से कतराता है…”
“अच्छा मजाक है…।” बूढ़ा हँसा।
“मजाक नहीं, हकीकत है!” युवक आगे बोला,“मैं बचपन से ही आपके आर्टिकल्स पढ़ता और सराहता आ रहा हूँ। मानस-पुत्र हूँ आपका…।”
“फिर फालतू की बातें…”
“देखिए, लोगों के चरित्र में इस सदी में गज़ब की गिरावट आई है। दुनियाभर के साइक्लॉजिस्ट्स ने इस गिरावट को अण्डरलाइन किया है। आप एक मजबूत साहित्यिक हैसियत के आदमी हैं। चौबीसों घण्टे आपके चारों तरफ मँडराने, आपकी जय-जयकार करते रहने वाले आपके प्रशंसकों में कितने लोग मुँह में राम वाले हैं और कितने बगल में छुरी वाले—आप नहीं जान सकते। इस योजना के तहत उक्त अध्यक्ष-पद से मैं आपको ऐसी-ऐसी बढ़िया और इतनी ज्यादा गालियाँ दूँगा…लोगों के अन्तर्मन में दबी आपके खिलाफ वाली भावनाओं को इतना भड़का दूँगा कि खिलाफत की मंशा वाले सारे चूहे बिलों से बाहर आ जाएँगे…मेरे साथ आ मिलेंगे…”
“यानी कि एक पंथ दो काज।” चश्मा बोला,“साँप भी मर जाएगा और…”
“साँप?…मैं आपके बारे में ऐसा नहीं सोच सकता।” युवक ने कहा।
“नहीं सोच सकते तो गालियाँ दिमाग के किस कोने से क्रिएट करोगे?”
“यह सोचना आपका काम नहीं है।”
“अच्छा! यानी कि मुझे यह कहने या जानने का हक भी नहीं है कि मुझे गालियाँ देने की अनुमति मुझसे माँगने वाला शख्स वैसा करने में सक्षम नहीं है।”
“कुछ बातें मौके पर सीधे सिद्ध करके दिखाई जाती हैं, बकी नहीं जातीं।”
“यानी कि खेल में बहुत आगे बढ़ चुके हो!”
“आपके प्रति अपने मन में जमी श्रद्धा की खातिर।”
“तुम्हारे मन में जमी श्रद्धा के सारे मतलब मैं समझ रहा हूँ।” चश्मे ने कहा,“बेटा, मुझे गालियाँ बककर दिल की भड़ास भी निकाल लोगे और मेरी नजरों में भले भी बने रहोगे, क्यों?”
उसके इस आकलन पर चंगेजी-मूल का दिखनेवाले उस युवक को लाल-पीले अन्दाज में उछल पड़ना चाहिए था, या फिर वैसा नाटक तो कम से कम करना ही चाहिए था; लेकिन उसने ये दोनों ही नहीं किए। अविचल बैठा रहा।
बूढ़े ने एकाएक ही दोनों हथेलियों को अपने सीने पर ऊपर-नीचे सरकाकर ऊपर ही ऊपर जेबें टटोल डालीं। टटोलते-टटोलते ही वह खड़ा हो गया और ऊपर ही ऊपर पेंट की जेबों पर भी हथेलियाँ सरकाईं। फिर दायीं जेब से पर्स बाहर निकालते हुए बुदबुदाया,“शुक्र है, यह जेब में चला आया…मेज की दराज में ही छूट नहीं गया।”
“अरे…पर्स क्यों निकाल लिया आपने?” युवक दबी जुबान में लगभग चीखते हुए बोला।
“अब…यह चला आया जेब में तो निकाल लिया।” पर्स को अपने सामने मेज पर रखकर वापस कुर्सी पर बैठते हुए बूढ़ा बोला।
“अब आप इसे वापस जेब के ही हवाले कर दीजिए प्लीज़।” युवक आदेशात्मक शाही अंदाज में फुसफुसाया।
“एक बात कान खोलकर सुन लो…” बूढ़ा कड़े अंदाज़ में बोला,“कितने भी बड़े तीसमार खाँ सही तुम…तुम्हारी किसी भी बात को मानने के लिए मजबूर नहीं हूँ मैं।”
“दिस इज़ अ रिक्वेस्ट, नॉट अन ऑर्डर सर!” युवक ने हाथ जोड़कर कहा।
“तुम्हारी हर रिक्वेस्ट को मान लेने के लिए भी मैं मजबूर नहीं हूँ।” बूढ़ा पूर्व-अंदाज में बुदबुदाया; और युवक कुछ समझता, उससे पहले ही उसने सौ रुपए का एक नोट पर्स से निकालकर कॉफी के बर्तन रखी ट्रे में डाल दिया।
“यह…यह क्या कर रहे हैं आप?” उसके इस कृत्य से चौंककर युवक बोल उठा।
“अब सिर्फ पाँच मिनट बचे हैं तुम्हारे पास।” उसकी बात पर ध्यान दिये बिना वह निर्णायक स्वर में बोला।
“यह ओवर-रेस्पेक्ट का मामला बन गया स्साला…और ओवर-कॉन्फिडेंस का भी।” साफ तौर पर उसे सुनाते हुए बेहद खीझ-भरे स्वर में युवक बुदबुदाया, “बेहतर यह होता कि आपको विश्वास में लेकर काम की शुरूआत करने की बजाय, पहले मैं काम को अंजाम देता और आपके सामने पेश होकर बाद में अपनी सफाई पेश करता। इस समय पता नहीं आप समझ क्यों नहीं पा रहे हैं मेरी योजना को?”
“कैसे समझूँ? मैं राजनीतिक-मैनेजमेंट पढ़ा हुआ नई उम्र का लड़का तो हूँ नहीं, बूढ़ा हूँ अस्सी बरस का! फिर, पॉलिटिकल आदमी नहीं हूँ…लिटरेरी हूँ।” दूर खड़े बेयरे को ट्रे उठा ले जाने का इशारा करते हुए चश्मे ने कहा। बेयरा शायद आगामी ऑर्डर की उम्मीद में इनकी मेज पर नजर रखे था। इशारा पाते ही चला आया और ट्रे को उठाकर ले गया।
“न समझ पाने जैसी तो कोई बात ही इस प्रस्ताव में नहीं है।” युवक बोला,“मूर्ख से मूर्ख…”
“शट-अप…शट-अप। गालियाँ देने की इजाजत मैंने अभी दी नहीं है तुम्हें।”
“ओफ् शिट्!” दोनों हथेलियों में अपने सिर को पकड़कर फ्रेंचकट झुँझलाया,“यह मैं गाली दे रहा हूँ आपको?”
“तुम क्या समझते हो कि मेरी समझ में तुम्हारी यह टुच्ची भाषा बिल्कुल भी नहीं आ रही है?”
“इस समय तो आप मेरे एक-एक शब्द का गलत मतलब पकड़ रहे हैं।” वह दुखी अन्दाज में बोला,“इस स्टेज पर मैं अगर अपनी योजना को ड्रॉप भी कर लूँ तो आपकी नजरों में तो गिर ही गया न…विश्वास तो आपका खो ही बैठा मैं!”
इसी दौरान बेयरा ने ट्रे में बिल, बाकी बचे पैसे और सौंफ-मिश्री आदि लाकर उनकी मेज पर रख दिए।
“ये सब अपनी जेब में रखो बेटे और ट्रे को यहीं छोड़ दो।” बकाया में से पचास रुपए वाला नोट उठाकर अपनी जेब के हवाले करके शेष रकम की ओर इशारा करते हुए बूढ़े ने बेयरा से कहा। एकबारगी तो वह बूढ़े की शक्ल को देखने लगा, लेकिन आज्ञा-पालन में उसने देरी नहीं की।
उसके चले जाने के बाद बूढ़े ने फ्रेंचकट से कहा,“बिल्कुल ठीक कहा। मेरी नजरों में गिरने और मेरा विश्वास खो देने के जिस मकसद को लेकर यह मीटिंग तुमने रखी थी, उसमें तुम कामयाब रहे। मतलब यह कि गालियाँ तो अब सरे-बाजार तुम मुझे दोगे ही।…अब तुम मेरी इस बात को सुनो—यह रिस्क मैं लूँगा। हिंदी भवन वाले कार्यक्रम में मैं नहीं जाऊँगा। अध्यक्ष बन जाने का जुगाड़ तुम कर ही चुके हो और मुझे गालियाँ बककर मेरे कमजोर विरोधियों का नेता बन बैठने का भी;…लेकिन मैं परमिट करता हूँ कि उस कार्यक्रम के अलावा भी, तुम जब चाहो, जहाँ चाहो…और जब तक चाहो मेरे खिलाफ अपनी भड़ास निकालते रह सकते हो।…तुम्हारे खिलाफ किसी भी तरह का कोई बयान मेरी ओर से जारी नहीं होगा। हाँ, दूसरों की जिम्मेदारी मैं नहीं ले सकता।”
“भड़ास नहीं सर, यह हमारी रणनीति का हिस्सा है।” पटा लेने की आश्वस्ति से भरपूर फ्रेंचकट प्रसन्न मुद्रा में बोला।
“हमारी नहीं, सिर्फ तुम्हारी रणनीति का।” चर्चा में बने रहने का एक सफल इन्तजाम हो जाने की आश्वस्ति के साथ बूढ़ा कुर्सी से उठते हुए बोला,“बहरहाल, तुम अपने मकसद में कामयाब रहे…क्योंकि मैं जानता हूँ कि ऐसा न करने के लिए मेरे रोने-गिड़गिड़ाने पर भी तुम अब पीछे हटने वाले नहीं हो।”
युवक ने इस स्तर पर कुछ भी बोलना उचित न समझा। बूढ़ा चलने लगा तो औपचारिकतावश वह उठकर खड़ा तो हुआ, लेकिन बाहर तक उसके साथ नहीं गया। बूढ़े को उससे ऐसी अपेक्षा थी भी नहीं शायद। समझदार लोग मुड़-मुड़कर नहीं देखा करते, सो उसने भी नहीं देखा।
‘खुद ही फँसने चले आते हैं स्साले!’—रेस्तराँ से बाहर कदम रखते हुए उसने मन ही मन सोचा—‘और पैंतरेबाज मुझे बताते हैं।’
बाहर निकलकर वह ऑटो में बैठा और चला गया।
उसके जाते ही फ्रेंचकट जीत का जश्न मनाने की मुद्रा में धम-से कुर्सी पर बैठा और निकट बुलाने के संकेत-स्वरूप उसने बेयरा की ओर चुटकी बजाई। उसकी आँखों में चमक उभर आई थी और चेहरे पर मुस्कान।

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जन्म : 26 नवम्बर, 1952 को उत्तर प्रदेश(भारत) के जिला बुलन्दशहर में जन्म।
शिक्षा : एम ए (हिन्दी), अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा, आयुर्वेद रत्न।
पुस्तकें : प्रकाशित पुस्तकों में कथा-संग्रह ‘सरसों के फूल’(1994), ‘ज़ुबैदा’(2004) तथा ‘चन्ना चरनदास’(2004। ‘दूसरा भीम’(1997) बाल-कहानियों का संग्रह है। ‘संस्कृत नाट्य:चिन्तन परम्परा और समाज’ (अप्रकाशित), ‘समकालीन हिन्दी लघुकथा का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन’ (अप्रकाशित)।सम्पादन व अन्य : मलयालम की चर्चित लघुकथाएँ(1997) के अतिरिक्त प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, बालशौरि रेड्डी आदि वरिष्ठ कथाकारों की कहानियों/उपन्यासों के लगभग 15 संकलनों एवं कुछेक पत्रिकाओं का संपादन/अतिथि संपादन। ‘अण्डमान व निकोबार की लोककथाएँ’ का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद व पुनर्लेखन(2000)। इनके अलावा ‘सहकार संचय’(जुलाई,1997) व ‘आलेख संवाद’(जुलाई,2008) के लघुकथा-विशेषांकों का अतिथि संपादन। अनेक वर्षों तक हिन्दी-रंगमंच से जुड़ाव। कुछेक रंगमंचीय नाटकों हेतु गीत-लेखन भी।
हिन्दी ब्लॉग्स:
जनगाथा(Link:http://www.jangatha.blogspot.com),
कथायात्रा(Link: http://kathayatra.blogspot.com)
लघुकथा-वार्ता(Link: http://wwwlaghukatha-varta.blogspot.com)
सम्प्रति : अध्ययन और लेखन।
संपर्क : एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032 (भारत)
दूरभाष : 011-22323249 मो0 : 09968094431
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रविवार, 7 मार्च 2010

वातायन - मार्च, २०१०



हम और हमारा समय

कब होगा इस गुलामी का अंत !

रूपसिंह चन्देल
उसने एक स्वप्न देखा और पूरा होने पर उसके ध्वस्त होने की पीड़ा भी झेली थी . अपने स्वप्न को पूरा करने के लिए उसने वह सब कुछ किया जो आवश्यक था. जल्दी सुबह जब उसकी उम्र के युवक गहरी नींद में होते वह बंबे (नहर) की पटरी पर दौड़ रहा होता. लौट कर रात भिगोये चनों के साथ दूध लेता और निश्चित समय पर साइकिल पर बस्ता लटका कॉलेज के लिए निकल लेता. शाम कॉलेज से लौट कसरत और पढ़ाई----दो वर्षों तक अर्थात इण्टर के दोनों वर्षों के दौरान ---उसने घरवालों से काम की छूट ले ली थी और पूरी तरह अपने स्वप्न को साकार करने में जुट गया था. दो वर्षों की कड़ी मेहनत से उसका शरीर खिल उठा था. इंटर में भी उसने अच्छे अंक पाये और एक दिन वह जा पहुंचा था लखनऊ. उसे सफलता मिली और वह एक सैनिक के रूप में भारतीय सेना के लिए चुना गया. लेकिन देश की रक्षा के लिए कुछ कर गुजरने का उसका स्वप्न कुछ समय बाद ही ध्वस्त हो गया, जब उसे एक अधिकारी की सेवा में तैनात किया गया.
उसकी बाद की कहानी उन हजारों जवानों की कहानी है जिन्हें छोटे से लेकर उच्च अधिकारियों तक की सेवा में उनके सहायक के रूप में उनके कपड़े प्रेस करने से लेकर जूते पॉलिश करने, बागवानी से लेकर सब्जी लाने---- साहब के दफ्तर जाने के समय उन्हें जूते पहनाने और दफ्तर से लौटने पर उनके जूते उतारने तक के ही काम नहीं करने होते बल्कि साहब के बीबी बच्चों तक की गुलामी भी करनी होती है. और मज़ाल कि जवान साहब की किसी बात पर एक शब्द भी प्रतिक्रिया दे सके---- साहब तो साहब उसे उसके बीबी बच्चों के हुक्म और डांट-फटकार को किसी गुलाम की भांति सिर झुकाकर सुनना होता है.
एक बार मेरी मुलाकात एक कर्नल साहब से हुई. बातचीत में उन्होंने अपने सहायक के प्रति अपनी उदारता का परिचय देते हुए कहा, " मैं अपने असिस्टैण्ट को बेल्ट से पीटता था और मज़ाल कि वह चूं करता." लेकिन मेरे चेहरे पर आए भावों को पढ़कर उन्होंने तुरंत जोड़ा, "लेकिन मैं उसे प्यार भी करता था."
आजादी के बासठ वर्षों बाद भी भारतीय सेना में औपनिवेशिक गुलाम प्रथा का जारी रहना दुर्भाग्यपूर्ण और आश्चर्यजनक ही कहा जाएगा.
रक्षा मंत्रालय द्वारा सशस्त्र बलों में तनाव प्रबन्धन विषय पर संसद की एक स्थायी समिति का गठन किया गया था, जिसकी रपट समिति ने २००८ में प्रस्तुत की थी , जिसके आधार पर भारतीय वायुसेना और नौसेना ने अपने अफसरों को सहायक मुहैय्या करवाना स्थगित कर दिया जबकि भारतीय सेना इस बात के लिए तैयार नहीं है. वह गुलामी की इस प्रथा को जारी रखना चाहती है . उसका जितना बड़ा अधिकारी उतने ही उसके सहायकों का दल.
बड़े अफसर के तामझाम भी बड़े होते हैं.
संसद की स्थायी समिति की रेपोर्ट पर अफसरों को सहायक उप्लब्ध करवाने की इस गुलाम प्रथा के पक्ष में प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए रक्षा मंत्रालय ने उत्तर देते हुए कहा कि एक सहायक अधिकारियों के लिए कॉमरेड इन आर्म्स होता है जो विश्वास, सम्मान, गर्मजोशी, भरोसे और एक दूसरे पर निर्भरता का प्रतीक है और यह नेतृत्वकर्ता और अनुगामी के बीच सम्बन्धों का मूल सिद्धांत है.
सेना के अफरों के लिए सहायकों की नियुक्ति सरकारी नीति के अनुसार होती है, लेकिन देश का कौन-सा ऎसा सरकारी विभाग है (केन्द्र सरकार या राज्य सरकारों का ) जहां अफसरों के घरों में काम मरने के लिए चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को नहीं जाना पड़ता ? हाल की एक रपट के अनुसार दिल्ली नगर निगम के बाइस हजार चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को वर्षों से वेतन नगर निगम दे रहा है जबकि उनकी सेवाएम अफसरों, निगम पार्षदों और विधायकॊं -मंत्रियों को मिल रही हैं. मेरे नवीनतम उपन्यास - ’गुलाम बादशाह’ का केन्द्रीय विशय ही यह है. इन कर्मचारियों से अफसरों की बीबियां झाड़ू-पोंछे से लेकर कपड़े धुलवाने तक के काम करवाती हैं. उन्हें पानी तक के लिए नहीं पूछा जाता. पानी पीने के लिए वे सड़क किनारे लगे सार्वजनिक नल का उपयोग करते हैं और पानी पीने जाने तक की अवधि की अनुपस्थिति के लिए डांट-फटकार सुनते हैं.
संसद की स्थायी समिति ने रक्षा मंत्रालय से पुनः जोरदार अपील की है कि वह सेना में अफसरों के सहायक के रूप में जवानों को तैनात करने की अपमानजनक व्यवस्था को तत्काल प्रभाव से समाप्त करे, लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारों, स्वायत्तशासी संस्थानों आदि में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को आजाद भारत की इस गुलाम प्रथा से मुक्ति कैसे मिलेगी ? सांसदों की कोई समिति क्या इस बात के अध्ययन और सिफारिश के लिए भी गठित की जाएगी ?
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वातायन के मार्च अंक में प्रस्तुत हैं वरिष्ठ कवि, सम्पादक और पत्रकार आलोक श्रीवास्तव और प्रसिद्ध पंजाबी कवि विशाल की कविताएं और संवाद प्रकाशन द्वारा प्रकाशित ’इज़ाडोरा की प्रेमकथा’ ( अनुवाद : युगांक धीर) से एक महत्वपूर्ण अंश. आशा है अंक आपको पसंद आएगा. आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी.
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आत्मकथा



इज़ाडोरा की आत्मकथा का एक महत्वपूर्ण अंश

पीर्ट्सबर्ग की बर्फ़ीली हवाओं में
अनुवाद : युगांक धीर
संपादक : आलोक श्रीवास्तव
कितना मुश्किल है भाग्य या नियति में विश्वास करना, जब हम सुबह किसी अख़बार में पढ़ते हैं कि ट्रेन दुर्घटना में बीस लोग मारे गए, जिन्होंने एक दिन पहले मृत्यु के बारे में सोचा भी नहीं होगा ;या कि पूरा एक शहर समुद्री लहरों या बाढ़ की चपेट में आकर तहस-नहस हो गया, तो फ़िर क्यों हम इतने अहंवादी हैं कि सोचते हैं कि कोई भाग्य या नियति हमारे छोटे-से अस्तित्व को निर्देशित कर रही है ?
लेकिन मेरी ज़िन्दगी में कई ऎसी अनोखी घटनाएं हुई हैं कि कई बार मुझे नियति पर विश्वास होने लगता है. जैसेकि मेरी ट्रेन बर्फ़ गिरने की वजह से शाम के चार बजे सेंट पीर्ट्सबर्ग पहुंचने की बजाय अगली सुबह चार बजे वहां पहुंची. स्टेशन पर कोई भी मुझे लिवाने नहीं आया था. मैं गाड़ी से नीचे उतरी तो तापमान ज़ीरो से दस डिग्री नीचे था. इतनी ठंड मैंने पहले कभी नहीं देखी थी. रूसी गाड़ीवान दस्तानों में लिपटी अपनी मुट्ठियों को बार-बार अपनी बाहों पर मार रहे थे, ताति उनकी रगों में दौड़ता ख़ून जम न जाए.
मैंने अपनी नौकरानी को सामान के साथ वहीं छोड़ा और एक घोड़ागाड़ी लेकर यूरोपा होटल की ओर चल दी. बर्फ़ और कोहरे में ढंकी वह वीरान-सी रूसी भोर और गाड़ीवान के सथ मैं बिल्कुल अकेली. रास्ते में मुझे जो दृश्य दिखाई दिया वह किसी प्रेत-कथा की फंतासी से कम डरावना न था.
दूर से वह एक लंबा जुलूस लग रहा था. काला और शोक भरा. आदमियों के कधों पर लंबे बक्से थे, जिनके वज़न के कारण वे आगे को झुक कर चल रहे थे. वे कफन थे, एक-के-बाद-एक जाने कितने. गाड़ीवान ने घोड़े की रफ़्तार कम करके चलने की रफ़्तार जितनी कर दी और खुद भी आगे को झुक कर हाथ से क्रॉस का संकेत बनाने लगा. दहशत से सिहर-सी गई मैं. किसी तरह मैंने उससे पूछा कि यह सब क्या है. मुझे रूसी भाषा नहीं आती थी, फिर भी उसने मुझे समझाया कि ये शव उन मज़दूरों के थे जिन्हें पिछले दिन, ५ जनवरी, १९०५ को, विंटर पैलेस के सामने गोलियों से भून डाला गया था---क्योंकि वे ज़ार के पास मदद के लिए गए थे, अपने बीबी-बच्चों के लिए रोटी मांगने. मैंने गाड़ीवान को ठहर जाने के लिए कहा और भीगी पलकों से उस उदास और अनंत लंबे जुलूस को देखती रही. "लेकिन इतने मुंह-अंधेरे उन्हें दफनाने की क्या ज़रूरत थी?" " ताकि दिन में यह सब किया गया तो कहीं क्रान्ति न भड़क उठे." मेरी आंखों में उदासी थी और रगों में एक सिहरन-सी दौड़ रही थी. ट्रेन बारह घंटे लेट न हुई होती तो मैं वह दहला देने वाला मंज़र कभी न देख पाती.
’ओह, अंघेरी शोकाकुल रात
जिसमें भोर का कोई नामोनिशां नहीं है
ओ, चलती-लड़खड़ाती आकृतियों की उदास श्रृंखला
खौफज़दा नम आंखें और मेहनतकश सख़्त हाथ
अपने काले शालों के भीतर अपनी सिसकियां और आहें छिपाए
--दोनों तरफ प्रहरियों के क़दमों की कठोर आवाज़’
अगर मैंने वह दृश्य न देखा होता तो मेरी ज़िंदगी कुछ अलग ही होती. वहीं, उस अनंत लंबे जुलूस के सामने, उस दारुण कथा के सामने , मैंने संकल्प किया कि मैं और मेरी तमाम शक्तियां लोगों और दलितों-दमितों की सेवा को समर्पित होंगी. इसके सामने मेरी खुद की प्रेम-इच्छाएं और पीड़ाएं कितनी छोटी और व्यर्थ प्रतीत हो रही थीं ! और-तो-और मेरी कला भी कितनी व्यर्थ थी, अगर वह इसमें कोई मदद न कर सके. आख़िर उस विशाल और मौन जुलूस का आख़िरी हिस्सा भी हमारी आंखों के आगे से गुज़र गया. गाड़ीवान ने पीछे मुड़कर देखा और आश्चर्य से मेरे आंसुओं को देखता रहा. एक लंबी सांस छोड़ कर उसने फ़िर से हाथ से क्रॉस का निशान बनाया और घोड़े को होटल की तरफ़ दौड़ा दिया.
होटल के अपने आरामदायक कमरे और गर्म बिस्तर में भी मैं बहुत रोने के बाद ही सो सकी. लेकिन उस भोर का वह दुख और पीड़ा भरा मंज़र ज़िंदगी भर मेरे साथ रहने वाला था.
होटल का कमरा बहुत विशाल और ऊंची छत वाला था. खिड़कियां बंद थीं और कभी नहीं खुलती थीं. हवा ऊंचे रोशनदानों के ज़रिए कमरे में आती थी. मेरी बहुत देर से आंख खुली. मैनेजर ने मुझे फूल भिजवाए. फ़िर तो फूलों का तांता ही लग गया.
दो रातों के बाद मैं सेंट पीर्ट्सबर्ग के विशिष्ट वर्ग के सम्मुख प्रस्तुत हुई. भव्य बैले-नृत्य के आदी उन स्त्री-पुरुषों को एक अकेली लड़की का बहुत सादी पोशाक में मात्र एक नीले परदे के सामने शोपेन के संगीत पर नृत्य करना कैसा लगा होगा ! शोपेन की आत्मा को अपनी आत्मा के माध्यम से अभिव्यक्त करना ! पर उस पहले नृत्य का भी तालियों के तूफ़ान से स्वागत हुआ. मेरी आत्मा के दर्द ने, उस मुंह-अंधेरे की उदास शवयात्रा से उपजे मेरे क्रोध मिश्रित आंसुओं के दर्द ने, उन धनी, विलासी और ऎश्वर्य-प्रिय दर्शकों को तालियों की बौछार पर विवश कर दिया था. कितना अजीब था न !
अगले दिन एक नाज़ुक देहयष्टि की बहुत प्यारी और मोहक स्त्री मुझसे मिलने आई. उसके कानों में हीरे झूल रहे थे और गले में मोती लटक रहे थे. मुझे ताज्जुब हुआ जब उसने बताया कि वह महान नर्तकी शिंस्की है. वह रूसी बैले की तरफ़ से मेरा अभिवादन करने आई थी. साथ ही ऑपेरा में अगली रात का एक भव्य प्रदर्शन देखने का निमंत्रण देने. बेरूत में बैले-नर्तकियों का मेरे प्रति बहुत ठंडा और कटु रवैया होता था. कभी-कभी तो वे बाकायदा दुश्मनी पर उतर आती थीं और मुझे हानि पहुंचाने की कोशिश करती थीं. पर यहां उनमें इतनी शिष्टता और स्नेह देख कर मुझे आनंद भरा आश्चर्य हुआ.
अगली शाम एक बहुत भव्य और सुसज्जित वाहन मुझे ऑपेरा लेकर गया. वहां मौजूद दर्शक इतने संपन्न और फैशनेबुल थे कि उन्हें मेरी मामूली पोशाक और सादगी बहुत अटपटी लगी होगी.
मैं बैले की दुश्मन हूं, जो मुझे नकली और आडंबर भरी कला लगती है बल्कि उसे मैं कला मानती ही नहीं. लेकिन मंच पर एक जलपरी की तरह थिरकती शिंस्की की आकृति की सराहना न करना असंभव था. ऎसे लगता था जैसे वह इंसान न हो कर कोई पक्षी या तितली हो और मंच पर इघर-से-उधर हवा में फरफरा रही हो.
मैंने अपने आसपास नज़र दौड़ाई और दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत स्त्रियों को, बहुमूल्य आभूषणों से लदी और एक-से-एक नामी उच्चाधिकारियों के साथ बैठी स्त्रियों को, दर्शक-दीर्घा में देखा. यह ऎश्वर्यभरी संपन्नता उस मुंह-अंधेरे के उदास जुलूस से कितनी भिन्न थी. ये मुस्कराते हुए भाग्यशाली लोग, क्या इनका उन लोगों के साथ कुछ भी संबंध था
? कार्यक्रम के बाद मुझे शिंस्की के महल में भोजन पर आमंत्रित किया गया, जहां मेरी मुलाक़ात ग्रै़ड ड्यूक माइकल से हुई. मैंने उसे नृत्य-स्कूल खोलने के अपने विचार के बारे में बताया तो वह विस्मय से मुझे देखता रह गया. उस भोज में सभी लोग मुझसे बहुत विनम्रता और आदर के साथ मिले.
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इज़ाडोरा की प्रेमकथा
(इज़ाडोरा डंकन की विश्वविख्यात आत्मकथाMy Life का अनुवाद)
पृ. २८३, मूल्य : २०० (पेपर बैक)

संवाद प्रकाशन
मेरठ कार्यालय : आई-४९९, शास्त्रीनगर,
मेरठ -२५० ००४ (उ.प्र.)

मुम्बई कार्यालय : ए-४, ईडन रोज़,
वृंदावन, एवरशाइन सिटी, वसई रोड (पूर्व), ठाणे,पिन - ४०१ २०८

कविता




सुनो यह विलाप


-आलोक श्रीवास्तव


अवध की एक शाम पुकारती है
लोगो सुनो
लहू में डूबी, वह शाम फैलती जाती है चारो ओर


बिछा दो तुम जाजम
रौशनियां
तुम्हारी कोई होली, कोई दीवाली, कोई ईद
उस मातम को छिपा नहीं पाएगी
जो इस मुल्क के बाशिंदों पर डेढ़ सौ साल से तारी है


पूरा अवध खून में डूबा आज भी पुकारता है
ढही मेहराबों और ऊंचे बुर्जों के पीछे से एक कराह उठती है
गोमती का सूखा पानी
किसी ग़ज़ल में आज भी रोता है


इस लुटे पिटे शहर की वीरानी
क्या रोती है तुम्हारी रात में?
तुम अपने ही शहर के आंसू नहीं देख पाते!


जनरल नील का कत्लेआम
इलाहाबाद की दरख्त घिरी राहों से चलता
देखो दंडकारण्य तक जा पहुंचा है


पद्मा से सोन तक
मेरी प्रिया का वह लहराता आंचल था मेरे ख्वाब में झलकता
खून के धब्बे गाढ़े होते जाते हैं आज उस पर


और हत्यारों को तोपों की सलामी जारी है
तिरंगे की साक्षी में


सुनो अवध का विलाप
फैलता जा रहा है समूचे मुल्क में


मौत की, मातम की
गुलामी की रात तुम्हारे सिरहाने खड़ी है...
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(01 मार्च, 2010)
OOOO


जन्म : 15 अगस्त, 1968 .

उत्तर प्रदेश व मध्यप्रदेश के विभिन्न शहरों-कस्बों में बचपन गुजरा। पिछले 20 वर्षों के मुंबई में, पहले सात साल ‘धर्मयुग’ में बतौर उप-सम्पादक काम किया। फिलहाल आजीविका के लिए पत्रकारिता।



प्रकाशन

कविता संग्रह :
वेरा उन सपनों की कथा कहो ! (1996)
जब भी बसंत के फूल खिलेंगे (2004)
यह धरती हमारा ही स्वप्न है !(2006)
दिखना तुम सांझ तारे को (2010)
दुख का देश और बुद्ध (2010)

अन्य :
अख़बारनामा : पत्रकारिता का साम्राज्यवादी चेहरा(2004)
शहीद भगत सिंह : क्रांति के प्रयोग (2004)
(कुलदीप नैयर द्वारा लिखित भगत सिंह की जीवनी का अनुवाद)
विश्व ग्रंथमाला का संपादन।

संपर्क : ए-4, ईडन रोज़, वृंदावन कॉम्पलेक्स, एवरशाइन सिटी, वसई रोड, पूर्व, ठाणे-401 208(मुंबई)
फोन : 0250-2462469, 09320016684
ई-मेल :
samvad.in@gmail.com

कविता



पंजाबी कविता


विशाल

आज तुम्हें मुखातिब होते समय
मन में बड़ी अजीब सी बातें आ रही हैं
वैसे मैंने इस तरह
पहले कभी भी महसूस नहीं किया था
एक लम्बे अरसे से हम मिलते रहे हैं
एक-दूसरे को सुनते-सुनाते रहे हैं
भागीदार एक दूसरे के दुख के।
मेरे बारे में तुमने कई बार
अपने विचार बदले, बनाए
मेरे चेहरे को
कई तरह के फ्रेमों में बांधा
दिल से नहीं लगाया कई बातों को तुमने
मैं भी भूल गया बहुत कुछ
राह-बेराह मिल गए तो ठीक
न मिले तो भी ठीक
'रावी' सी चल रही थी ज़िन्दगी
जहाँ आदमी मिलता, बरतता है
ऊँच-नीच तो हो ही जाती है
वह भी अच्छा-बुरा सोचती थी मेरे बारे में
लड़ भी पड़ती थी
कई बार तो उसकी बिलकुल भी समझ नहीं पड़ती थी
जिस बात से मैं उसे अच्छा नहीं लगता था
उसी बात पर ही वह पसंद करती थी मुझे।
मन बड़ा अजीब सा हो रहा है आज
कि आख़िर किसलिए
मैंने अपने लिए सब कुछ नियुक्त किया
जिसके लिए मैं कभी भी सहमत नहीं होता था
सारे संस्कार-शिष्टाचार
क्यों बांध लिए अपने पैरों से
मेरा सफ़र तो और था
एक से दूसरा देश
देशों की हदें- सरहदें मेरा प्रवास नहीं था
अर्थों की कब्र पर बैठा
शब्द जन्मता रहा
मेरी चुप का, मेरे शब्दों का
मेरी किसी भी सतर का
हर बार हो जाता रहा गलत अनुवाद
मेरा अपना अस्तित्व कहीं भी सुरक्षित नहीं था
न मुहब्बत में, न नफ़रत में
न जुड़ने में, न टूटने में
तुम आते रहे
मुझे थोड़ा-सा खुरच कर
मेरी ही दहलीज़ों पर फेंक जाते रहे
उस वक्त मेरे अन्दर का शरणार्थी
रिश्तों के अन्दर-बाहर खतरे देखकर
अपने ही पैरों में शरण मांगता था
कोई कितना भर लड़े अपने खिलाफ़
इस लड़ाई में
मैंने बड़े वार खाये
उधर से भी मैं मरता
इधर से भी मैं हारता
थोड़ा कहीं गिरा, थोड़ा कहीं
मेरे में से 'मैं' रिसता रहा
आज तुम्हारे साथ बात करते हुए
मन में बड़ी अजीब सी बातें आ रही हैं
पता नहीं क्यों सोच रहा हूँ ऐसा
कि मैं तो पहले ही
तुम्हारे अहसानों के तले दबा पड़ा हूँ
और यदि तुम कुछ कर सकते हो मेरे लिए
तो इतना ज़रूर करना
मेरी सोच, मेरी किताबें, मेरी कविताएँ... और राख
पोटली में बांध कर जल में प्रवाहित न करना
आकाश की ओर बिखेर देना
मेरा पहला संस्करण
यहीं से तो इसी तरह शुरू होगा।


(हिंदी रूपांतर : सुभाष नीरव)0
पंजाबी के बहु चर्चित कवि।

कविता की अनेक पुस्तकें प्रकाशित।

पिछ्ले कई वर्षों से इटली मे।
सम्पर्क :
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