मंगलवार, 30 मार्च 2010

वातायन - अप्रैल, २०१०



हम और हमारा समय

पुरस्कारों का घमासान

रूपसिंह चन्देल

भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कारों के अतिरिक्त सभी सरकारी-गैर सरकारी पुरस्कारों (साहित्य अकादमी सहित) की घोषणा के उपरांत उन पर वाद-विवाद होता रहा और होता रहेगा. इसका कारण उनके चयन की विश्वसनीयता और उन्हें प्राप्त करने वाले साहित्यकारों की पात्रता होती है. पिछले दिनों साहित्य अकादमी बहुदेशीय कारोबारी कंपनी सामसुंग के सहयोग से प्रदान किये गये पुरस्कार के कारण विवाद में घिरी और दुर्भाग्यपूर्णरूप से उस पुरस्कार के साथ रवीन्द्रनाथ टैगोर का नाम जोड़ा गया. वरिष्ठ कवि विष्णु खरे ने जनसत्ता में इस मुद्दे को उठाया, जिसके पक्ष और विपक्ष में अनेक लेखकों ने अपने मत व्यक्त किए. वह विवाद अभी चल ही रहा था कि हिन्दी अकादमी दिल्ली का वर्ष २००८-०९ का शलाका सम्मान सम्बन्धी विवाद उठ खड़ा हुआ. इस सम्मान का निर्णय कार्यकारिणी समिति ने वरिष्ठतम कथाकार कृष्ण बलदेव के पक्ष में किया था. हिन्दी अकादमी के पुरस्कारों का निर्णयन कार्यकारिणी समिति ही करती है. बाद में अकादमी की अध्यक्ष (दिल्ली की मुख्य मंत्री) की अध्यक्षता में संचालन समिति उसे अंतिमरूप से स्वीकृति प्रदान करती है. इस पुरस्कार को भी मार्च २००९ में स्वीकृत किया गया और स्पष्ट है कि अकादमी की अध्यक्ष शीला दीक्षित जी ने इस पर अपनी अंतिम मोहर लगा दी, लेकिन २००८-०९ और २००९-१० के पुरस्कारों की घोषणा के समय २००८-०९ के शलाका सम्मान को छोड़कर ( जो वैद जी के लिए तय किया गया था) शेष सभी को यथावत घोषित किया गया. कहते हैं ऎसा कांग्रेसी नेता पुरुषोत्तम गोयल द्वारा कृष्ण बलदेव वैद की कृतियों में अश्लीलता के आरोप के कारण किया गया. लेकिन अपुष्ट समाचार के अनुसार इसके पीछे एक बड़े साहित्यकार का हाथ था, क्योंकि अकादमी अध्यक्ष को गोयल जी ने ३१.०३.२००९ को जो पत्र लिखा , उसकी भाषा इस बात का स्पष्ट संकेत देती है कि पुरुषोत्तम गोयल ने शायद ही वैद जी की कोई कृति पढ़ी होगी. पत्र में गोयल साहब ने लेखक के उपन्यास ’नसरीन’ से एक पृष्ठ की सामग्री उद्धृत की जिसमें मां की गाली का प्रयोग किया गया है. इसी पत्र में वैद जी के प्रति असम्मानजनक भाषा का प्रयोग करते हुए वह आगे लिखते हैं -- " इस आदमी ने श्री अशोक बाजपेयी की शराब संस्कृति के सम्बन्धों के चलते इस पुरस्कार की सिफारिश करवा ली..... "
गोयल साहब के आरोपों से महत्वपूर्ण उनके पत्र का वह अंतिम अंश है जिसमें वह शीला जी को लिखते हैं --"उपन्यास अंश की जांच किसी निष्पक्ष और स्वतंत्र विशेषज्ञ से करवा लें ." और पत्र का यही वह अंश है जो यह संदेश उत्पन्न करता है कि क्या गोयल जी ने ’नसरीन’ पढ़ा था ? और अध्यक्ष ने गोयल जी की सिफारिश मानकर क्या किसी ’निष्पक्ष और स्वतंत्र विशेषज्ञ’ से उसकी जांच करवायी थी ? अध्यक्ष स्वयं साहित्य मर्मज्ञ हैं. कम से कम वह स्वयं ही उन अंशों पर दृष्टिपात कर सकती थीं. संभव है उन्होंने अकादमी के विद्वान उपाध्यक्ष को यह कार्य सौंपा हो, जिनके ’च्यौं रे चम्पू’ का लोकार्पण करते समय उन्होंने उसे हिन्दी साहित्य की महानतम रचना बताया था और उससे प्रभावित महात्मा गांधी के ’हिन्द स्वराज’ को अकादमी के उपाध्यक्ष अशोक चक्रधर की कृति बता दी . राजनीतिज्ञों से ऎसी भूल-चूक होती रहती हैं. अपने प्रिय व्यक्ति के पक्ष में की गई भूल-चूक के परिहार की आवश्यकता भी उन्हें नहीं होती. और हो भी क्यों ? चक्रधर कोई मामूली व्यक्ति नहीं हैं ? ’हिन्दी अकादमी’ (दिल्ली) और ’केन्द्रीय हिन्दी संस्थान’ (आगरा) के बोझ संभालने वाला व्यक्ति साधारण नहीं हो सकता . फिर यदि सत्ता की ताकत उसके साथ हो तब उसकी शक्ति का अनुमान लगाया जा सकता है. ऎसा असाधारण व्यक्ति ही वैद प्रकरण में अकादमी के पक्ष में खड़ा होकर कह सकता है कि उस पुरस्कार की जब घोषणा ही नहीं हुई तब वैद जी का अपमान कैसा ?
लेकिन कुछ लेखकों को वैद जी का अपमान सम्पूर्ण हिन्दी लेखक समुदाय का अपमान लगा और उन्होंने अपने स्वीकृत पुरस्कारों को अस्वीकार करने की घोषणाएं कर दीं. केदारनाथ सिंह जी को वर्ष २००९-१० का शलाका सम्मान घोषित हुआ था ---- वैद जी के अपमान से आहत उन्होंने उसे लेने से इंकार कर दिया. पुरुषोत्त्तम अग्रवाल, पंकज सिंह, रेखा जैन, गगन गिल, और विमल कुमार ने भी अपने द्वारा स्वीकृत पुरस्कार लेने से इंकार कर दिया. इस कड़ी में वरिष्ठ कथाकार अशोक गुप्ता का नाम भी शामिल हो चुका है, जिनका पत्र मुझे इन पंक्तियों को टाइप करते समय प्राप्त हुआ है. निश्चित ही इन साहित्यकारों का निर्णय श्लाघनीय हैं. लेकिन अकादमी से सम्बद्ध वरिष्ठ कथाकार असगर वज़ाहत का यह कथन समझ से परे है कि एक बार स्वीकार करने के बाद पुरस्कार लौटाना नहीं चाहिए था. क्या असगर भाई ने वैद जी के अपमान की पीड़ा अनुभव नहीं की ? केदार जी और पुरुषोत्तम अग्रवाल ने स्पष्ट करते हुए कहा कि उन्हें पता ही नहीं था कि वैद जी के नाम पर मोहर लगने के बाद उन्हें इंकार किया गया. जब ज्ञात हुआ उन्होंने पुरस्कार लौटा दिए. पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकारों के साथ भी ऎसा ही हुआ होगा.
बात कुछ भी हो , वास्तविकता यही है कि यह वैद जी का ही अपमान नहीं , सम्पूर्ण हिन्दी लेखक समुदाय का अपमान है और जिन साहित्यकारों ने अभी तक पुरस्कार नहीं लौटाए उन्हें भी विरोधस्वरूप पुरस्कार अस्वीकृत कर देना चाहिए , जिससे राजनीतिज्ञों और उनके तलवे चाटने वालों को यह संदेश जा सके कि साहित्यकार कोई कमजोर जीव नहीं और न ही पुरस्कार उससे बड़ा होता है. उन्हें आलू के बोरे (सात्र के शब्दों में ) की जरूरत नहीं. हालांकि भीड़ में कुछ लोग ही शहीद हुआ करते हैं और इतिहास उनसे ही बनता है.
अब कुछ बातें कार्यकारिणी समिति की निर्णायक स्थिति पर भी . निर्णायक समिति के पास दिल्ली या राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के साहित्यकारों की वरिष्ठता-क्रमानुसार तैयार कोई सूची नहीं है. यही कारण है कि पिछले वर्षों में एक-दो पुस्तकों के लेखकों को भी साहित्यकार पुरस्कार से नवाजा जाता रहा. अपुष्ट समाचारों के अनुसार इसमें अकादमी के उपाध्यक्ष और सचिव की अहम भूमिका होती है. अर्थात वे कार्यकारिणी समिति के अन्य सदस्यों पर भारी पड़ते रहे हैं. यदि रचनात्मक योगदान के आधार पर वरिष्ठता सूची तैयार होती तब ’वाह कैंप’ और ’धुव सत्य’ जैसे उल्लेखनीय उपन्यासों के लेखक पचहत्तर वर्षीय द्रोणवीर कोहली का नाम २००८-०९ की सूची में शामिल न होता. उन्हें अंतिम दशक में ही यह पुरस्कार मिल जाना चाहिए था. ’विष्णुगुप्त चाणक्य’ जैसा कालजयी उपन्यास लिखने वाले ८३ वर्षीय वीरेन्द्र कुमार गुप्त को तो शायद कार्यकारिणी के सदस्य जानते ही न होंगे, लेकिन उन्हें जैनेन्द्र कुमार की पुस्तक -’समय और हम’ की याद अवश्य होगी. यह साक्षात्कारों की विश्व की सबसे बड़ी पुस्तक है, जिसके साक्षात्कर्ता वीरेन्द्र कुमार गुप्त थे. दुर्भाग्य से जैनेन्द्र जी के छल के कारण वह पुस्तक उनके नाम से नहीं जैनेन्द्र जी के नाम से प्रकाशित हुई थी. यदि वीरेन्द्र कुमार गुप्त के प्रश्न न होते तब जैनेन्द्र जी के उत्तर कैसे हो सकते थे. इन वरिष्ठ लेखकों की ओर से कार्यकारिणी समितियां अपना पल्ला नहीं झाड़ सकतीं. उनकी जवाबदेही इतिहास के पन्नों में दर्ज होगी. यदि अकादमी वरिष्ठता-क्रम सूची तैयार कर ले और उसे तैयार करने में निष्पक्षता और पारदर्शिता का परिचय दिया जाए तब शायद अकादमी के विरुद्ध उठने वाली उंगलियों की संख्या कम होगी----- हालांकि तब भी पुरस्कार हड़पने के जुगाड़ु़ओं और चाटुकारों से अकादमी अपने को कैसे बचा पाएगी यही उसके लिए चुनौती होगी और इसीसे उसकी सफलता -असफलता निर्धारित होगी.
****
वातायन के अप्रैल अंक में प्रस्तुत हैं वरिष्ठ कथाकार, आलोचक और पत्रकार महेश दर्पण के यात्रा संस्मरण पुस्तक ’पुश्किन के देस में’ से एक महत्वपूर्ण अंश, वरिष्ठ कवि अशोक आंद्रे की कविताएं और वरिष्ठ कथाकार बलराम अग्रवाल की कहानी . आशा आपको अंक पसंद आएगा. आपकी महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी.

5 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

चलो, कहता हूँ,
वातायन के इस अंक के संपादकीय को मैंने अब से चौबीस घंटे पहले ही पढ़ लिया था और इस पर कुछ कहने से खुद को रोक गया था. कारण स्पष्ट है. इस में हिदी अकादमी के पुरस्कार के सन्दर्भ में मेरा जिक्र है जिसमें मेरे द्वारा अकादमी की अध्यक्ष शीला दीक्षित को लिखे गये पत्र और मेरे कृष्ण बलदेव वैद के अपमान के कारण पुरस्कार न लेने की बात कही गयी है. ऐसे में मुझे लगा मेरा सम्पादकीय के पक्ष में कुछ कहना बहुत ठीक नहीं लगेगा. लेकिन अगर रूप को मेरा चुप रहना ठीक नहीं लग रहा है, तो कहता हूँ.

कृष्ण बलदेव वैद के अपमान के विरूद्ध हम लेखक बहुत कुछ कह कर सकते हैं लेकिन मेरे मन में एक बात लगातार चुभ भी रही है. कल अखबार की सुर्खी थी कि जनता के दबाव के आगे सरकार झुकी और गैस की कीमत में गिरावट आने की घोषणा हुई. गैस, नमक, दाल यह सब जनता की दैनिक ज़रूरतों के सामान हैं. जनता इनके साथ अपना सरोकार महसूस करती है. मेरा प्रश्न है कि जनता के लिए हिंदी का साहित्य दाल नमक की श्रेणी में क्यों नहीं आता..? क्यों साहित्य पर हुआ हमला जनता का ध्यान नहीं खींचता. शायद इसलिए कि तमाम दावे के बावजूद हमारा साहित्य जनता को यह आश्वासन नहीं देता कि उसके केंद्र में जनता है. जनता हमारे लिखे हुए में खुद को नहीं देख पाती, वर्ना दबाव तो उसका कारगर है ही.
कृष्ण बलदेव वैद के अपमान के सन्दर्भ में जितनी भी हाय तौबा हुई वह लेखकों की ओर से हुई, उसमें कहीं किसी पाठक, किसी जनता का स्वर नहीं सुनाई पड़ा. मैं समझता हूँ कि हम लेखकों को यह एक चिंताकुल स्थिति लगनी चाहिए.
शायद बंगाल में ऐसा नहीं होता.. किसी बाहरी सत्ता पर उंगली उठाने के साथ साथ हम अपने लेखक से भी पूछताछ करें, यह ज़रूरी है.

सम्पादकीय में हिन्दी अकादमी द्वारा वरिष्ठताक्रमानुसार
लेखकों की सूची तैयार करने की तुम्हारी सलाह महत्वपूर्ण है. एक अच्छे , सुस्पष्ट और सटीक सम्पादकीय के लिए बधाई

अशोक गुप्ता

सुभाष नीरव ने कहा…

मैं यह टिप्पणी इस लिए नहीं कर रहा हूँ कि तुम मेरे दोस्त हो, खास दोस्त या फिर इसलिए कि टिप्पणी कारों में अपना नाम मुझे शामिल करवाने का शौक है। जो चीज मुझे अच्छी लगती है और अपील करती है, वह चाहे मित्र के ब्लॉग पर हो या अनजाने और नए ब्लॉग पर, मैं टिप्पणी छोड़ने की हर संभव कोशिश करता हूँ। तुम्हाहा यह संपादकीय इतना दमदार है और पुरस्कारों और पुरस्कारों के पीछे की राजनीति से जुड़े मुद्दे पर बड़ी गम्भीरता से बात करता है। कभी कभी हम रचना के माध्यम से (मेरा अभिप्राय कहानी, कविता, लघुकथा आदि साहित्य की विधाओं से है) वो बात नहीं कह पाते हैं जो हमें कहनी चाहिए, वह ऐसे लेखों द्वारा आसानी से कही जा सकती है। भाई अशोक गुप्ता जी की टिप्पणी से मैं इत्तेफाक रखता हूँ। पुरस्कारों की राजनीति पर तुम पहले भी लिख चुके हो, पर वर्तमान सन्दर्भ में तुम्हारा यह सम्पादकीय बहुत प्रासंगिक और महत्वपूर्ण हो गया है।

बलराम अग्रवाल ने कहा…

इसमें दो राय नहीं कि आप पुरस्कार-व्यथा के विशेषज्ञ लेखकों में हैं। आपका आकलन बहुत हद तक तटस्थ रहता आया है। जब से हिन्दी अकादमी, दिल्ली पर अशोक चक्रधर नामक जीव का साया पड़ा है, दिल्ली की साहित्यिक(?) समझी जाने वाली बिरादरी में काफी उबाल है। मुझे लगातार यह लगता रहा है कि अशोक चक्रधर का अकादमी-प्रवेश हिन्दी अकादमी जैसी राजनीतिक साये में पलने वाली संस्था में सत्ता परिवर्त्तन का द्योतक है जिसे उसके पूर्व सत्ताधारी एवं सिम्पेथाइज़र्स पचा नहीं पा रहे हैं। वैद जी तो इस अपच का माध्यमभर हैं। मैं मानता हूँ कि चक्रधर की अपनी कुछ साहित्यिक सीमाएँ अवश्य होंगी। श्रीमती दीक्षित की साहित्यिक समझ तो 'हिन्द स्वराज' ने साफ कर ही दी थी।
वस्तुत: सारा कष्ट 'आशा'यानी उम्मीद का है। लेखकों की एक बिरादरी नि:संदेह ऐसी पनप चुकी है जो सत्तादोहन करते हुए उसे गरियाने को ही प्रगतिवाद मानती है। सत्ता का असली चेहरा किसी को न पता हो यह कैसे हो सकता है। सारी स्थितियों से भिज्ञ होते हुए भी जो लोग(समुदाय मैं इसलिए नहीं कहूँगा कि सभी लेखक इसमें शामिल नहीं रहते) सम्मानप्राप्ति की स्वीकृति देते हैं उनको निर्मल नहीं माना जा सकता। कुछ तो मजबूरियाँ, इच्छाएँ, आकांक्षाएँ रहती ही हैं, कोई यूँ ही 'हाँ' नहीं कह देता। अब मना करना पड़ रहा है--यह भी बाहरी दबाव ही अधिक प्रतीत होता है, भीतरी कम। कितने लोग हैं जो इस भीष्म-प्रतिज्ञा से कि 'वे कभी भी सत्ताश्रित संस्थाओं से सम्मान प्राप्त नहीं करेंगे' गुजरने का साहस अपने अंदर रखते हैं। बहुत-कुछ लिखा जा सकता है। फिल्हाल बस इतना ही।

सुरेश यादव ने कहा…

रुष्कारों और विवादों का एक रिश्ता बन चुका है जो टूटने का नाम ही नहीं लेता है '.विश्वास 'है कि टूटता जा रहा है.चिंताएं यदि बनी रहेंगीं तो विश्वास फिर लौटेगा.चंदेल जी आप के सोच का आधार है .सार्थक बहस बनाये रखिये .धन्यवाद.

PRAN SHARMA ने कहा…

PURASKARON KEE RAJNEETI KE BAARE
MEIN AAPKE VICHAARON SE MAIN
SAHMAT HOON.AAP JAESE KEWAL 5 HEE
KARMATH SAHITYAKAR IS JANG SE LADEN
TO KAAMYABEE HAASIL KEE JAA SAKTEE.
VAESE MAIN JAANTA HOON KI IS KAAM
KE LIYE AAP AKELE HEE SABAL HAIN.
ISKE LIYE JAESAKI SURESH YAADAV NE
KAHAA HAI-SAARTHAK BAHAS BANAAYE
RAKHIYE.