चित्र - देवप्रकाश चौधरी
घुग्घू
बद्री सिंह भाटिया
रतना अब बढ़ोह गांव जाना नहीं चाहती। क्यार के रास्ते तो बिल्कुल भी नहीं। बढ़ोह जाने के नाम से ही वह सिहर उठती है। मगर रिश्तेदारी, बिरादरी की अदृश्य डोरों से बन्धी अनिवार्यताओं के दृष्टिगत उसे कभी-कभार जाना ही पड़ता है। बढ़ोह जाने का दूसरा रास्ता भी था। छोटा परन्तु विकट। लगभग एक किलोमीटर लम्बी धार के एक ओर की ढलान पर घना जंगल था। किसी ने न जाने कब इसके बीच से वह रास्ता खोजा होगा। उस रास्ते से जाने के लिए पहले नाला, फिर बड़ी खड्ड और तब घनी झाडि़यों के बीच से गुजरती संकरी पगडण्डी से एक किलोमीटर चढ़ कर उपर धार पर पीपल की छाँव में सुस्ताए और फिर वहाँ से आधा किलोमीटर उतराई। क्रोन्दे और दाड़ू के कान्टेदार बौने पेड़ हरवक्त एक एहसास दिलाते कि जरा सी चूक, किसी गोल, बेडौल पत्थर पर पैर रखने से बिगड़ा सन्तुलन गिराएगा नहीं तो हाथ में कांटे जरूर चुभो देगा। और कहीं रीछ, लक्कड़बग्घा मिल गया तो और खतरा। अब यह रास्ता रहा ही नहीं, न रहा वह पीपल का पेड़। सब समा गये पत्थरखोर कम्पनी के पेट में।
हुआ यह कि इलाके में सड़क आने पर सरकार को पता चला कि इस धार में सीमेन्ट का उच्च कोटि का पत्थर है। इस पर इसके उपयोग का विचार बना। सारी खोजबीन और परीक्षणों के बाद विश्वव्यापी निविदाएँ दी गईं और देश की सबसे बड़ी सीमेन्ट उत्पादन कम्पनी को ठेका मिल गया। कम्पनी ने जमीन का अधिग्रहण किया और खदान शुरू। बढ़ोह को धार से होता रास्ता बंद। धार धीरे-धीरे नीचे उतरने लगी। रास्ता बचा तो क्यार वाला। बहुत लम्बा। धार की तराई में धान के खेत, अर्ध गोलाकार में फैले हुए। इन खेतों के उपर से विकर्णाकार पगडण्डी एक हद तक और फिर लम्ब की तरह चढ़ाई। किसी ने एक तिर्यक रास्ता भी बनाया है, परन्तु वह भी कंटीला है।
कभी यह रास्ता खूब चलता था-इसकी चैड़ाई भी ठीक थी। मगर कम्पनी के आने और आवागमन के दूसरे तरीके निकलने से इस रास्ते का रूप बदला गया। दूसरा कारण यह भी कि इस रास्ते कभी-कभार धार पर से पत्थर लुढ़कते रहते हैं- सो जीवन को खतरा बना रहता है। कम्पनी कब ब्लास्ट कर दे। पहाड़ हिले और पत्थर लुढ़कने लगे। ऊपर पहाड़ पर चल रही जे.सी.बी., बुलडोजर भी पत्थर गिराते रहते हैं। कभी-कभार आने-जाने वालों को खतरा ही खतरा। और यदि आना-जाना ही हो तो प्रतिदिन होने वाले धमाके के बाद या तब जब मशीनें धार के दूसरे खण्ड में कार्यरत हों।
उस दिन बढ़ोह में रतना के एक निकट रिश्तेदार की मृत्यु होने पर उसे शोक सभा में जाना अनिवार्य हो गया। पहले इस प्रकार के कार्य पति निपटा दिया करता था। मगर जब से वह नहीं रहा, समाज के ये सारे कर्म उसके सिर पर आ गये थे- उस दिन उसने गाँव की दो औरतों, अपने देवर, देवरानी को साथ चलने को कहा। वे राजी हो गए थे।
हवाघाटी पार करते ही उसकी नजर ढलान मे नीचे अपने क्यार पर पड़ी। आस-पास के सभी खेतों में गेहूं की फसल लहलहा रही थी। खड्ड से बहते पानी का शोर उपर घाटी तक आ रहा था। इन्हीं खेतों के बीच तीन छोटे सीढ़ीनुमा क्षत-विक्षत खेत सूखी घास से चमक रहे थे। भूरे-भूरे। खेतों की टूटी दीवारों, उनमें पड़े पत्थरों के ढेर देख वह ठिठक गई। उसे वह दिन याद हो आया जब इन खेतों की मेंडें टूटी थीं। कितने खेत तहस नहस हो गये थे। उस दिन तो वह यह देख ही नहीं पाई थी। यह सब बाद में पता चला था.....उस दिन तो उसकी दुनिया ही उजड़ गई थी।
वह खड़ी सोचती रही। लोगों ने अपने खेतों की टूटी दिवारों को चिन कर फिर से खेत तैयार कर फसल लगानी शुरु कर दी और उसने यहाँ आना ही छोड़ दिया।
उसके साथी हवाघाटी के उस ओर सुस्ताने को बैठ गये। यह सोच कि उसने कहीं शौचादि के लिए किसी ओट में बैठना होगा। एक स्त्री ने कहा भी-‘कहीं ऐसे बैठना जहां उपर से पत्थर न आए।’ आज घुग्घु भी नहीं सुनाई दिया।’ वह उपर धार देखने लगी थी। यह आभास पाने कि कम्पनी का बुलडोजर, शॉवल और सुरंग छेदने की मशीन की आवाज तो नहीं आ रही। उनका क्या, कभी भी कहीं भी काम करने लग जाते हैं। अब सारी धार उनकी है, तराई तक। इन पारम्परिक रास्तों के उपभोक्ता चलें अपने जोखिम पर। कम्पनी वाले तो ब्लास्ट के समय मात्र घुग्घु बजा देते हैं...। एक हल। रतना ने मन ही मन कहा-‘उसे गाँव से चलते मशीनों को देख लेना चाहिए था। पर अब क्या हो सकता है। पहाड़ पर जहाँ काम चल रहा है बहुत उपर है। यहाँ से तो काम का छोर भी पता नहीं चलता।
और रतना की आँखों में वह दिन उतर आया था। धान लगाने का समय गुजर रहा था। पति अपने दौरे से नहीं लौटा था। उसकी तकलीफ यह थी कि जब वह घर से निकलता तो कई दिनों के बाद ही लौटता। वह टोकती-‘ऐसा क्यों करते हो? घर की सुध ही नहीं रहती।’ तब वह हंसकर कहता-’रतना पेट की खातिर। तेरे लिए, इन दो बच्चों के लिए और बूढ़े माता-पिता के लिए। ... पैसा कमाना आसान नहीं होता। तू बोल....।’ वह कहती-‘क्या बोलूं, फसल लगाने का समय हो गया है। नीचे क्यार में....।’
‘ अरे! क्यार में जाना तो छोड़ देना चाहिए। साला कब चट्टाने आ जाएँ पता नहीं चलता। कम्पनी का डेंजर जोन है यह।‘
‘तो क्या, दूसरे लोग भी तो काश्त करते हैं। हर वक्त पत्थर थोड़े ही आते रहते हैं।’
‘पिछली बार देखा कितने पत्थर आए थे। खेत भर गये थे।’
‘वो तो नीचे वालों के थे-हमारे खेतों में तो एक भी कंकर नहीं आया था।’
‘सो तो है।’
और इस ’सो तो है’, की धारणा पर अगले रविवार को धान लगाने के लिए खेत तैयार करने चले गये। इससे पहले रतना बच्चों के साथ वहाँ जाकर सारी कंटीली झाडि़याँ साफ कर आई थीं। उसके तीनों खेत उजले दिख रहे थे। दूसरे खेतों में घास काटती औरतों ने कहा भी था।- रतना चान्दी बना देती है। ‘बीड़’ में क्या ‘माश’ लगाने है?’
‘हाँ! करना पड़ता है, वर्ना चूहे खेत को नुक्सान पहुँचाते हैं।’
‘अरे! अभी तो पानी है... पानी में थोड़े भी आता है चूहा।’
‘बरसात के बाद भी तो आता है, जब क्यार का पानी सूख जाता है-
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रविवार की सुबह वे हल, जुआ, सुहागा लेकर खेत में पहुँचे। खेत पानी से भरे थे। दूसरे खेतों में लोग हल चलाने लग गये थे। अपने देर से पहुँचने पर वह बुदबुदाई-‘उठी तो वह तड़के थी। सोचा था कि सबसे पहले पहुँचेगी पर ये लोग... मुए जाने यहीं सोये थे। उसने एक खेतवाली को आवाज दे ही दी-‘ यहीं सोई थी क्या? रात भी खुलने नहीं दी ।’ खेतों की मेंड़ों से छर-छर करते पानी और खड्ड के शोर के बीच उसने सुना-‘भई अब काम डर के करना पड़ता है -कम्पनी कब क्या कर दे किसको पता।’
उसका मानना था कि दोपहर तक खेत में हल चलाकर फारिग हो जाएँगे। जितने में कम्पनी के ब्लास्ट का समय होगा; वे खेत खाली कर घर निकल जाएँगे। दोपहर को आराम करेंगे। कुछ काम बचेगा तो शाम की पारी में कर लेंगे।
रतना जब भी इन खेतों में काम करने आती उसके मन में कई सवाल उठते। वह मानवीय प्रकृति के बारे में ज्यादा सोचती। वह उन लोगों को दोषी ठहराती है जिन्होंने बिचौलिए बन लोगों की भूमि का सौदा कराया। उसे जमीन अधिग्रहण से लेकर वर्तमान समय तक याद हो आता। उनके ये खेत भी दफा-चार की अधिसूचना में थे। अब वे इस जमीन के मालिक थे तो ऐतराज करना तो लाजिमी था। कम्पनी भूसे से भी सस्ते भाव जमीन खरीद रही थी-उन्हें कल करोड़ों का लाभ होगा पर वे तो भूमिहीन हो जाएँगे। इसकी किसी को फिक्र ही नहीं थी। सो अपना पक्ष सरकार के आगे रखा। संभवतः यह उस प्रतिवेदन का प्रभाव हुआ होगा कि जब दफा-छः के नोटिस आए तो उनकी यह जमीन और उपर का सारा ढलुआँ क्षेत्र अधिग्रहण की सूचना में नहीं था। एक बार तो वह खुश हुई। अपनी खुशी पति से बाँटी तो उसे पता चला कि यह जमीन जानबूझ कर छोड़ी गई है। इस ओर के आपत्तिकर्ता काफी तेज हैं। उनकी वजह से अधिग्रहण की प्रक्रिया में अन्तर आएगा। सो काट दी। अब ये लोग वार्ता और अधिग्रहण प्रक्रिया में शामिल नहीं होंगे। कम्पनी कल इनमें डर पैदा करेगी और फिर प्रेशर बनाकर या कोई हाथकण्डा अपना कर या मजबूरी पैदा कर जमीन ले ही लेगी। यह भी हो सकता है कि इन लोगों ने ही कम्पनी के साथ गुप्त समझौता किया हो कि बाद में थोड़ा अधिक दाम ले कर इस ढलान को उसके नाम कर दिया जायेगा....पति ने यह भी बताया कि इस समय जाने कितने लोग कम्पनी ने अपने पक्ष में कर लिए हैं। अनेक तरीके अपनाए जा रहे हैं। वे कम्पनी से अनेक लाभ उठा रहे हैं और कम्पनी के गुण गा रहे हैं। देर-सवेर ये खेत कभी भी कम्पनी के समझो।
कालान्तर में अधिग्रहण हुआ तो खेतों के उपर के प्लाट धारकों के साथ अलग समझौता हुआ। उन्हें औरों से अधिक पैसे दिए गये हैं।....अब जमीन कम्पनी की हो गई है तो धार पर बुलडोजर जेसीबी आदि मजे से चलने लगे।
एक दिन रतना की पड़ौसिन अपने प्लाट में पशु चरा रही थी। कि उपर से चट्टानें लुढ़कने की आवाज सुनाई दी। खड्ड से दूसरी तरफ की ढलान में काम कर रहे लोगों ने उसे अगाह किया भी मगर तब भागने का कोई अवसर नहीं था। छोटी-बड़ी, जाने कितनी चट्टाने नीचे लुढ़क रही थीं। वह इस आशा में थी कि आज मर तो जाना ही है एक दाड़ूदाने की झाड़ी के नीचे आंखें बन्द कर बैठ गई। भाग्य अच्छा था कि उसकी ओर छोटे पत्थर आए और झाड़ी में उलझ गये। मगर दो विशाल चट्टाने पास से भारी वेग के साथ लुढ़क कर नीचे चली गईं। एक का वेग तो इतना था कि वह काफी चैड़ी खड्ड पार कर दूसरी ओर के खेतों में जा पड़ी। फसल का काफी नुक्सान हुआ। उसने जब आँखें खोली तो दिल धक-धक कर भारी गति से चल रहा था। उसकी नजर पशुओं की ओर गई। वे ढलान की दूसरी तरफ दौड़ कर चले गये थे और चरने लग पड़े थे। उसने प्रभु का आभार व्यक्त किया और धीरे-धीरे पशुओं की ओर बढ़ी। दिल की धड़कन अभी शान्त नहीं हुई थी।
ढलान से पत्थर लुढ़कने की खबर गाँव में पहुँची । पड़ौसिन के वहाँ पशुओं के साथ होने का भी पता चला। वे दौड़े आये। उसे सुरक्षित पा वे आश्वस्त हुए। वे कम्पनी पर नाराज हो गालियाँ बकने लगे। सबकी जुबान पर एक ही बात कि बिना चेतावनी के ब्लास्ट क्यों किया । ये तो शुक्र मनाओ कि रास्ते में कोई चल नहीं रहा था। पर यह औरत तो थी। पशु थे। चेतावनी देते तो यह समय पर वहाँ से निकल जाती। यह तो कम्पनी की ज्यादती है।’ फिर किसी प्रत्यक्षदर्शी ने बताया कि वे तो धार पर मशीन के लिए जगह बना रहे थे। एक पत्थर को जेसीबी का धक्का लगा, चालक उसे नहीं सम्भाल पाया और...। शाम को गाँव में वार्ता हुई और अगले दिन लोग कम्पनी के खनन अधिकारी के पास शिकायत कर अपना रोष प्रकट कर आये। अधिकारी ने घटना पर अफसोस प्रकट किया और आगे को सजग रहने का आश्वासन दिया।
इस प्रकार दो-तीन बार और पत्थर आए। एक बार रतना के खेतों की ओर भी लुढ़के। आस-पास के गाँव के लोगों ने कम्पनी से फिर बात की कि इन खेतों का अधिग्रहण कर लोगों को खतरे से बचाया जाए। तब कहीं यह तय हुआ कि कम्पनी द्वारा बाउण्डरी के साथ लगते क्षेत्र को डेंजर जोन बना दिया जाएगा। इस प्रकार लोग अपनी फसल का मुआवजा ले सकते हैं। यह भी कि इन खेतों को बंजर छोड़ दिया जाए। लोगों ने बात मान ली।
डेंजर जोन बनने के बाद लोग फिर भी खेतों में काश्त करते रहे। यह सोच कि रोज तो उस ओर पत्थर आते नहीं। फिर काम अभी काफी उपर है-छः हजार बीघा की इस धार पर कभी काम इस ओर तो कभी उस ओर होता है। एक बैड उतरते समय तो लगता है-सो खेत क्यों उजाड़ छोड़े जाएँ ? दोहरा लाभ है- फसल भी और मुआवजा भी।
काम की गति से खनन क्षेत्र में रोज धमाके होते। इससे कभी ढलान से पत्थर गिरते कभी नहीं। कभी ब्लास्ट से दूर तक भी जाते। इससे चलते लोगों को तंगी होने लगी। वार्ता फिर चली और तय हुआ कि धमाके से आधा घण्टा पहले घुग्घु बजाया जाएगा, ताकि तराई में बनी पगडण्डियों पर चलने वाले, घासनियों से घास लाने वाले और खेतों में काम करने वाले लोग सुरक्षित स्थान पर चले जाएँ।
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अब घुग्घू कभी धार के इस छोर पर बजता कभी उस छोर पर। घुग्घू बजते ही धार-नाल घुग्घु की आवाज से गूँज जाते। जिससे धार के दोनों तरफ के लोग चौंक जाते। जो घरों के भीतर होते वे कच्चे घरों में हिल्लण के साथ स्लेटों और टीन का बजना महसूस करते।
घुग्घू बजने से पूर्व हुए धमाकों के भारी वेग के कारण जाने कितने कच्चे-पक्के घरों की दीवारें, लैन्टल दो फाड़ हो गये थे। इससे क्षुब्ध लोग कम्पनी तक गए, फलस्वरूप अब कम वेग का ब्लास्ट होने लगा। मगर धरती के अन्दर ही अन्दर फिर भी हिलने से घरों में धागे की मोटाई की दरारें फिर भी आ रहीं जो पक्के घरों और आँगनों में देखी जा सकती है। लोग कम्पनी प्रबन्धको को सूचित करते हैं मगर उनके कारिन्दे इन दरारों को घरों की बनावट का ठीक न होना बताकर कन्नी काट जाते हैं।
रतना ठण्डी निःश्वास छोड़ती है। बुदबुदाई,‘भाग्य ने इस जमीन के बारे और यहाँ के लोगों के बारे जाने क्या लिखा है।’ ...घुग्घु बजने के साथ राह में चलते लोग तेज कदम चलकर माइन के एरिया से बाहर होने की कोशिश करते हैं, डर यह कि क्या पता कहाँ से पत्थर लुढ़क कर आ जाए और बचना मुश्किल हो या कोई सुरंग के फटने से उछल कर उन पर न गिर जाए। आखिर जान तो सभी को प्यारी होती है। इधर-उधर खेतों, घासनी या कहीं दूर राह में चलने वाले धार की ओर कान कर लेते हैं कि जब धमाका होगा तो वे पत्थरों की वर्षा और धूल के गुब्बार को देखेंगे- डेंजर जोन में काम करने वाले लोग भी दूर हटने की तैयारी करते-पूरे वातावरण में एक डर सा व्याप्त हो जाता। घुग्घू बजने के बाद पहाड़ पर घूंऽ, घर्र करती मशीनें भी रुक जातीं और जब ब्लास्ट होता तो एक धूल का गुब्बार बरगद के वृक्ष का सा आकार बनाता उपर उठता। उसके साथ छोटे बड़े पत्थर अपने-अपने वेग के साथ इधर-उधर बिखर जाते। धूल हवा के साथ कभी खेतों की ओर तो कभी खनन क्षेत्र में ही विलीन हो जाती। कुछ देर बाद धार फिर मशीनों की आवाज से सराबोर हो जाती। घाटी में जीवन फिर चलने लगता।
एक बार धार पर एक स्थान पर लिपाई की मिट्टी निकली थी। रतना गांव की अन्य औरतों के साथ मिट्टी लाने चली गई थी। वह हैरान रह गई थी। नुकीली धार पर अब लम्बे चैड़े मैदान बने हैं। मैदानों से उपर लम्बे खेत से भी थे जिन पर गाडि़यों के टायरों के निशान थे। धार काफी नीचे उतर गई थी। घर आकर उसने पति को सारा वृतांत बताया- पति ने बताया कि यह नियोजित खनन है। एक बैड के बाद दूसरा बनाया जाता है। पहले सबसे उपर वाला खेत भी लम्बा चैड़ा मैदान था। कम्पनी का एक सिस्टम है। वह चरणबद्ध ढँग से पहाड़ कुतर रही है। उसने यह भी बताया कि उसकी योजना है कि जब पहाड़ डेंजर जोन तक खनन में आ जायेगा और कम्पनी यहाँ काम करना बन्द करने वाली होगी तो वह यहाँ एक झील बनाने का प्रस्ताव करेगा। एक लम्बी झील जिसमें तरह-तरह की मछलियां हों, उसमें साईबेरिया के पक्षी आएँ और..... इससे यहाँ के जलवायु पर भी प्रभाव पड़ेगा..।
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रतना यादों के समन्दर से बाहर आई। रास्ते में आगे बढ़ी। परन्तु उसकी नजर रह-रह कर अपने उजाड़ खेतों की ओर उठती रही। वे ऐसे ही गिरे, बिगड़े थे जैसे उस दिन बिगड़े थे। आस-पास के खेतों में लोगों ने फसल लगाई हुई थी। दुःख की बात यह कि उस दिन के बाद इस ओर ऐसी चट्टानें कभी नहीं आईं। मगर इधर के जोन में जो खेत हैं वहां घुग्घू डर का प्रतीक बन गया है। उपर घुग्घू बजा कि लोगों ने बैल खोलने शुरू कर दिए। खेत जितना कात हुआ उतना छोड़ना पड़ता। क्या पता कौन सा पत्थर उनकी ओर आ जाये। कहीं उनकी गति भी रतना के पति की तरह न हो। रतना का पति एक उदाहरण बन गया है.... वे जल्दी-जल्दी नाला पार निकलने की कोशिश करते। कई बार वे काम छोड़ घर ही आ जाते.... बाद में जब फिर आते तो आधे कात खेत में दुबारा बीज डालना पड़ता क्योंकि तब तक पहले का बीज चिडि़यों का भोजन बना होता.....
यादें उसे फिर झिंझोड़ती है। वह सोचती है अपने बारे...। उस रविवार को वे तड़के खेत में आ गये थे। फटाफट हल चलाया जा रहा था। मगर पानी के बीच हल चलाना काफी दक्षता का काम है। इसलिए समय तो लगना ही था। फिर तीन खेत। रतना के पति ने जब दूसरा खेत जोत कर तीसरे की ओर रुख किया तो रतना ने कहा, ‘बस करो अब, शाम को देखेंगे। घुग्घु बजने वाला है-कहीं, पत्थर-वत्थर आ गये तो ठीक नहीं होगा। उसने ब्लास्ट की मशीन धार के इस ओर देखी है। पति ने कहा-’अभी काफी समय है। खेत छोटा है। काम पूरा हो जाएगा” मगर भाग्य-वह अभी आधा खेत ही काश्त कर पाया था कि घुग्घू बजा। रतना ने पति को कहा कि काम बन्द करे। दूसरे खेतों वाले बैल खोल कर खड्ड पार कर घर चले गये हैं- मगर वह छप-छप कर पानी में हल चलाता रहा। यह मान कि अभी आधा घण्टा है, दूसरा घुग्घू बजते ही वह बैल खोल देगा।
दूसरा घुग्घू बजते ही खेत जुत गया था। उसने बैल खोले और जल्दी-जल्दी खतरे की सीमा से बाहर जाने लगे। वे खड्ड पार कर गये थे। तभी ध्यान आया कि बैलों का जुआ वहीं रह गया है। उसने लड़के से कहा कि दौड़ कर जुआ ले आए। और लड़का दौड़ा चला गया। वह भी जुए के पास पहुँचा ही था कि उपर भारी धमाका हुआ। पूरा पहाड़ ही हिल गया। मानो भूकम्प आया हो। यह खड्ड से इधर के लोगों ने भी महसूस किया। कहते हैं कि उस दिन कम्पनी ने पहले से दुगुना ब्लास्ट मैटिरियल डाला था। देखते-देखते ढलान से विभिन्न आकार के सैकड़ों पत्थर नीचे खेतों की ओर लुढ़कने लगे। रतना के पति ने बच्चे को खतरे में देख उस ओर दौड़ लगाई।
उपर से पत्थरों के लुढ़कने का आभास बच्चे को भी हो गया। वह जुआ उठाकर खेतों के एक ओर मेंड के साथ हो लिया। डरा सा। उसे यह ध्यान नहीं रहा कि पिता उसे बचाने के लिए भी दौड़ा है।
तभी उसे एक चीख सुनाई दी। उसकी माँ की खड्ड के पार और इधर पिता की। उनके साथ घर को जाते दूसरे लोगों की भी... हजारों पत्थर उनके खेतों को बीचों-बीच से तोड़ते खड्ड में चले गये थे, पीछे धूल और खेतों का पानी और खेतों की गाद टूटी दीवारों से बहने लगे थे। घर को जाते लोग पीछे हट कर अपने खेतों की दुर्दशा देखने हटने लगे। लड़का मेंड के नीचे से बाहर आया।
रतना ने आवाज लगाई- ‘तेरा पिता कहाँ है?’ बच्चा उस ओर बढ़ा। पिता तीसरे खेत की मेंड़ के पास एक चट्टान के नीचे दबा पड़ा था। बच्चे की चीख निकली और वह चट्टान हटाने लगा। बच्चे की चीख सुन रतना उस ओर दौड़ी दूसरे लोग भी दौड़े। उसने भी चट्टान को धक्का दिया मगर विशाल चट्टान उनके बस की नहीं थी।
थोड़ी देर में इधर-उधर के गाँवों के लोगों का जमघट उनके गिर्द खड़ा हो गया। रतना धान के खेत वाले कीचड़ में लतपथ पहचानी नहीं जा रही थी। वह खूब ऊँचे रो रही थी। साथ में बच्चा भी रो रहा था। लोगों के साथ उसकी लड़की, सास-ससुर भी आ गये थे। मगर अब क्या शेष था। पति जा चुका था। वहाँ तो बस एक लाश थी। लोगों ने झब्बल से किसी तरह मृत शरीर को बाहर निकाला-
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जाने कितनी कार्रवाइयों से गुजरी रतना। उस सब कुछ के बारे में सोचती सिहर जाती है। जब भी कहीं जाती, पति के स्थान पर उसे किसी रिश्तेदार को साथ ले जाना पड़ता। बेशक वह पढ़ी-लिखी थी मगर पति के होते वह निश्चिंत थी-घर के काम के इलावा बाहर के सारे काम वहीं करता था- और अब। पति की मृत्यु पर जिस दिन मुआवजा मिला था-वह बुदबुदाई थी-क्या पैसा आदमी की कमी पूरी कर लेगा-उसके शेष जीवन के खालीपन को भर पायेगा?
मन ही मन एक प्रण ले लिया था- अब इन खेतों में चाहे सोना भी उपजे वह वहाँ नहीं जाएगी। बल्कि उस ओर जाना भी स्थगित कर देगी। भरी जवानी में पति की लाश उठी। वह बच्चे को नहीं खोना चाहती। कल बच्चे को कुछ हो गया तो...
और जाने कितने बरस बाद वह इधर से गुजर रही थी। यदि बढ़ोह में उसके रिश्तेदार के यहाँ शोक न हुआ होता और उसका जाना जरूरी न होता तो वह इधर आती ही नहीं। वह सोचती आगे बढ़ती रही। अपने खेतों की सीमा पार करते ही उसके कानां में घुग्घू की आवाज पड़ी। वह चौंकी . आवाज धार पर कहीं दूर से आई थी। वह तेज कदमों से आगे चलने लगी। उसकी साथी औरतें, मर्द आगे निकल गये थे। वह उन्हें पार करती आगे बढ़ी, बोली, घुग्घू बज गया है-दूर हटो, क्या पता आज भी वैसा ही हो... और वह आगे निकल गई, घबराई सी। एक साथिन ने कहा- घुग्घू दूर बोला है। पत्थर इस ओर नहीं आएँगे।
उसके साथियों में से एक ने कहा-’जब भी धार पर घुग्घू बोलता है-रतना बहुत डर जाती है। वह कहीं भी हो, दूर हट जाती है। दूर से तब तक धार ताकती रहती है जब तक धमाका नहीं हो जाता। धमाके के साथ उठते वटवृक्ष की तरह धूल के गुब्बार के साथ उठे पत्थरों को देखती है-कि आज कहाँ-कहाँ गिरे ? बड़ी देर तक डरी सी वहीं रुकी रहती है।’
तभी एक ने बताया- ‘इसको मालूम नहीं कि अब धमाका धरती के भीतर ही होता है-पत्थर नहीं गिरते। बाहर मात्र धूल आती है या छोटे-मोटे पत्थर।’
‘पर हिल्लण से धरती के उपर के पत्थर तो खिसक सकते हैं न?’
‘हां! पर वे कितने होते हैं?’
‘मौत के लिए एक भी काफी है।’
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रतना साथियों की बातों से बेखबर, आगे एक मोड़ पर खड़ी धमाका सुनने की मुद्रा में खड़ी हो गई थी। यहां से बढ़ोह के लिए सीधी चढ़ाई शुरू होती है। खड़े-खड़े रतना को खयाल आया। यदि इस इलाके में सड़क नहीं आती तो उसकी तबाही नहीं होनी थी। न कम्पनी आनी थी न बजना था घुग्घू। उसकी तबाही की जिम्मेवारी यहाँ सड़क लाने वाले परधान पर हैं। वह उसे गाली देती है-‘मुआ, बड़ा आया विकास करने वाला।- मेरा तो भट्ठा ही गुल कर गया।’
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उन्हे बढ़ोह से लौटते देर हो गई थी। रतना घर आई तो मवेशियों के काम में उलझ गई। वह किसी से नहीं मिल पाई। रसोई में आई तो आम दिनों की तरह चाय बनाने लगी। देखा तो पत्ती नहीं है। दुकान जाना पड़ेगा। सोचा उसने। बच्चे पड़ौस में थे। ससुर को भेजना उचित नहीं था। उसने पाकेट में पैसों के लिए हाथ डाला तो पाया कि बीड़ी भी नहीं है। वह उठी और स्वयं दुकान की ओर चली गई। दुकान पर काफी लोग थे। उनमें प्रधान भी था। उसे देख उसका पारा चढ़ गया। मन ही मन उसे गाली दी। फिर उसने उसकी ओर पीठ कर दुकानदार से सौदा माँगा। तभी उसके कानों में हरिये के शब्द पड़े-‘मुए साइरन बजाते तो...ये तो पहले तय है कि...ये गुप्त धमाका करना तो ठीक नहीं ।’ वह मुड़ी। पूछा-‘क्या हुआ?’
‘होना क्या, आज फिर पत्थर आये। ये तो शुक्र मनाओ उस ओर कोई रास्ता नहीं है। सारे पत्थर धान के खेतों में जा पड़े। देविए के तो सारे खेत ही भर गये।’
‘कहाँ?’
‘इधर हवाणी को ओर। सूरतू बता रही थी कि उसने सारा नजारा देखा। एकाएक छोटी-बड़ी चट्टाने ढलान से लुढ़कने लगी। वह तो ऊँध रही थी। पर जब हड़ड़ का शोर उत्तरोत्तर बढ़ने लगा तो चौंकी।’
‘आज घुग्घू नहीं बजा।’
‘बजाया होगा। इधर तो किसी ने नहीं सुना।’
‘मरेंगे लोग। मरेंगे। ये कम्पनी कुछ लालची लोगों की देन है। इनको तो ठेके चाहिए। किसी का घर उजड़े इससे उन्हे क्या?’ उसने प्रधान को इंगित कर कहा।
इधर दुकानदार ने कहा-‘भई नुकसान के लिए कम्पनी को फोन करो। काफी दिन हो गये कम्पनी से बात किए। तुम सीधे लोगों तो कम्पनी ने भगा देना यहाँ से बिना मुआवजा लिए।’
‘नुक्सान तो वे दे देंगे। पर खतरे के बारे में सोचना जरूरी है।’ एक बोला।
दूसरे ने कहा-‘फोन कर दिया है। बोले कल देखेंगे। मैनेजर बड़ी लापरवाही से बोला था। जब जोर से कहा तो बोला-भाई कम्पनी काम कर रही है। पत्थर तो आयेंगे ही। इसी लिए हमने डेंजर जोन बनाया है। आप लोग सेफ्टी बरता करो...’
‘माना डेंजर जोन बनाया है। पर सार्वजनिक रास्ता तो वहीं से गुजरता है।’ दुकानदार बोला।
‘सो तो है। पर अब क्या किया जा सकता है? हमसे पहले ही चूक हो गई है।’ हरिया बोला। चर्चा में दम न देख रतना सौदा लेकर घर आ गई। चलते-चलते उसके भीतर घुग्घू बजने लगा था। सारी आवाजें एक साथ सुनाई देने लगी थी। उन आवाजों के साथ वह घर की ओर बढ़ने लगी। दुकान पर चर्चा जारी थी।
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जीवन वृत्त
बद्री सिंह भाटिया का जन्म 4 जुलाई, 1947 को सोलन जिले की अर्की तहसील के गांव ग्याणा में।
शिक्षाः स्नात्कोत्तर (हिन्दी) तथा लोक सम्पर्क एवं विज्ञापन कला में डिप्लोमा।
प्रकाशित कृतिया: ठिठके हुए पल, मुश्तरका जमीन, छोटा पड़ता आसमान, बावड़ी तथा अन्य कहानियां,यातना शिविर, कवच, और वह गीत हो गई (सभी कहानी संग्रह), पड़ाव(उपन्यास), कंटीली तारों का घेरा(कविता संग्रह), सूत्रगाथा और धन्धा (कहानी संग्रह, सहयोगी सम्पादन)। इसके इलावा अनेक सम्पादित संग्रहों में कहानिया संकलित तथा देश की अनेक पत्रिकाओं में प्रकाशित, कुछ कहानियां अनूदित भी।
* पहली सरकारी नौकरी के समय में मेडिकल कालेज शिमला की कर्मचारी यूनियन की पत्रिका तरु-प्रछाया का सम्पादन, कालान्तर में सूचना एवं जन सम्पर्क विभाग में नौकरी के साथ साप्ताहिक पत्र ’गिरिराज’ और मासिक पत्रिका”हिमप्रस्थ’में सम्पादन सहयोग।
**सम्मानः साहित्यिक यात्रा में हि. प्र. कला,संस्कृति एवं भाषा अकादमी द्वारा पड़ाव (उपन्यास, 1987) तथा कवच (कहानी संग्रह, 2004) पुरस्कृत। हिम साहित्य परिषद मण्डी द्वारा 2001 में साहित्य सम्मान तथा हिमोत्कर्ष साहित्य, संस्कृति एवं जन कल्याण परिषद ऊना द्वारा 2007 में हिमाचल श्री साहित्य पुरस्कार से सम्मानित।
***अन्यः अर्की-धामी ग्राम सुधार समिति और ग्याणा मण्डल विकास संस्था के अध्यक्ष पद पर रहते हुए समाज सेवा तथा विभिन्न कर्मचारी यूनियनो, एसोसिएशनों में अनेक गरिमामय पदों पर सक्रिय भागीदारी।
**** अर्पणा(साहित्यिक एवं वैचारिक मंच) के अध्यक्ष पद पर भी कार्य।सम्प्रतिः हि. प्र. सूचना एवं जन सम्पर्क विभाग, शिमला से सम्पादक पद पर से फरवरी,2005 में सेवा निवृत के पश्चात स्वतंत्र लेखन और पैतृक गांव ग्याण में कृषि कार्य में संलग्न.
सम्पर्कः (1) 2-हरबंस काटेज, संजौली, शिमला-171006।
(2) गांव ग्याणा, डाकधर मांगू, वाया दाड़ला घाट, तहसील अर्की, जिला सोलन, हि. प्र. मोबाइलः 094184-78878
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