हम और हमारा समय
क्या कर सकती है भीड़!
रूपसिंह चन्देल
बात जुलाई, १९७० से
फरवरी, १९७३ के दिनों की है. ये दिन कानपुर में मेरे सड़क नापने के थे. योग्यता के नाम
पर मात्र हाईस्कूल का प्रमाणपत्र और उसके साथ नत्थी था आई.टी.आई. का एक वर्ष के प्रशिक्षण का डिप्लोमा. प्रतिदिन सुबह दस बजे घर से निकलता और प्रायः किदवई नगर की ओर साइकिल मुड़
जाती. मेरे साथ मेरा हम उम्र मित्र इकरामुर्रहमान हाशमी भी होता. उसने इंटरमीडिएट किया
हुआ था. उसकी साइकिल आगे चलती और मैं पीछे.
हम अपनी योग्यता के अनुसार नौकरी खोजने निकलते. हमारा यह सिलसिला लंबे समय तक चला था.
इस विषय पर हाशमी पर लिखे अपने संस्मरण में काफी कुछ कह चुका हूं.
किदवई नगर चौराहे पर
हम रुकते…दिशाएं तय करते और “शाम को मिलते हैं” कहकर आगे बढ़ जाते. लेकिन आगे बढ़ने से
पहले मैं भरपूर एक नज़र चौराहे पर खड़े उस भीड़ पर डालना नहीं भूलता जो वहां सुबह पांच
बजे के बाद से ही जुटना शुरू हो जाती थी. वह
भीड़ दिहाड़ी मजदूरों की होती. किसी के हाथ में सफेदी करने के लिए डिब्बा-कूंची होता
(उन दिनों कूंची अधिक प्रचलन में थी) तो किसी के हाथ में बढ़ई का सामान---कोई कन्नी-छेनी-हथौड़े
के साथ होता और कोई खाली हाथ. कुछ को काम मिलता तो अधिकांश दोपहर बाद तक खाली बैठे
रहते इस आशा में कि शायद उन पर किसी की नज़र पड़ेगी और पूरे न सही आधे दिन की ही दिहाड़ी
उन्हें मिल जाएगी. ऎसी ही भीड़ कानपुर के अन्य
चौराहों में भी मुझे दिखाई देती…और दो वर्ष पहले जब कानपुर जाना हुआ तब भी वैसी ही
भीड़ वहां मुझे दिखाई दी थी.
जब दिल्ली आया तो यहां
घण्टाघर के पास वैसी ही भीड़ देखी और वही भीड़़ इस शहर के अन्य चौराहों में भी दिखी.अर्थात
यह भीड़ किसी एक शहर और किसी एक चौराहे तक सीमित नहीं थी. भीड़ बढ़ी --- भीड़ निरन्तर बढ़ी.
यह बेकारों—भूखों की भीड़ है—यह राजनैतिक साजिश का शिकार लोगों की भीड़ है. यह भीड़ राजनीतिज्ञों
में दहशत पैदा नहीं करती. चुनावी उत्सव में यह भीड़ उनके बहुत काम की साबित होती है.
चंद टुकड़ों में वह उनके पीछे दौड़ने लगती है. उनकी गाड़ी के पीछे भागती भीड़ हमें सामन्ती
युग की याद दिलाती है---अपने सामन्तों से घिरे किसी निरंकुश राजा की सवारी के पीछे
उसकी जय-जयकार करती भीड़. यह भीड़ उसके मुख से
निकले हर वचन को सत्य मानकर उसे सत्ता तक पहुंचाती है. वे जानते हैं उनके सत्ता पर
पहुंचने के बाद भीड़ को उन्हें उनके वचनों की याद दिलाने की फुर्सत नहीं होगी, क्योंकि
उत्सव के बाद भीड़ फिर चौराहों की ओर मुड़ जाएगी, एक दिन की दिहाड़ी के लिए.
वे यह भी जानते हैं
कि भीड़ इतनी अबोध है कि विपक्षियों पर छोड़े जाने वाले उनके तीरों की गहराई पर वह कभी
नहीं जा पाएगी. वे यह भी जानते हैं कि भीड़ न इनके दामाद को जानती है न उनके दामाद को,
उसके लिए पेट महत्वपूर्ण है. उसके पेट के लिए उनके पास वायदों का खजाना है. अपने उन
वायदों से भीड़ को खुश करना वे जानते हैं. भीड़ अपने को ठगा जाता हुआ नहीं जान पाती..
लेकिन कब तक?
वे भूल गए हैं कि इसी
भीड़ ने एक दिन रूस के जार का तख्त पलट दिया था…और उसके साथ क्या हुआ था----!
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इस बार वातायन में
प्रसुत है युवा कवयित्री और पत्रकार अंजना बख्शी का आत्मकथ्य और कविताएं. उनकी कविताओं
के विषय में वरिष्ठ कवि और आलोचक अशोक बाजपेई
का कहना है :
“अगर कविता का एक जरूरी काम हमें वह दिखाना बल्कि
देखने पर विवश करना है जिसे हम अक्सर अनदेखा करते हैं तो अंजना बख्शी की कविताएं हमें
ऎसे चरित्रों से रूबरू करती हैं जो हमारे आसपास हैं पर जिनके जीने की विभीषिका हम प्रायः
नहीं देख पाते. उनकी काव्य-भाषा में जब-तब बुंदेलखंडी बोलती है जो उसे स्थानीयता की
चमक देती, उसकी प्रामाणिकता बढ़ाती है.”
(अशोक
बाजपेई)
किताबें हमें बनाती हैं, किताबें हमें गढ़ती हैं
अंजना बख्शी
आह को चाहिए एक उम्र
असर होने तक
कौन जीता है तेरी जुल्फ़
के सर होने तक.
मेरी सारी ज़िन्दगी
ग़ालिब के ही शेर की तरह गुजरी, पैदा होते ही अंधेरे घर में जैसे दुआएं गुम हो गई थीं.
बहुत अंधेरा था. होश संभालने वाली लड़की खरगोश-सी मासूम की तरह तो थी लेकिन उसे इस अंधेरे
से डर भी लग रहा है. ’मम्मा’ (मां) कितना अंधेरा है?’ नन्हीं-सी बच्ची की बातें मां
की आवाज़ों में गुम हो जातीं.
’अंधेरा है तो क्या
हुआ. लड़कियां इसी अंधेरे में रास्ता बनाती
हैं. इसी अंधेरे में एक दिन ताड़ के पेड़ की तरह लंबी हो जाती हैं… अंधेरा तब भी रहता
है.एक परिवार के बंटते हुए भी वे इस अंधेरे के तक्सीम से गुजरती रहती हैं’---
मां की आंखों में एक
दर्द सिमटा होता. तभी सोच लिया था मुझे अंधेरे का हिस्सा नहीं बनना. तभी से बिगड़ने
लगी थी मैं. हर वो काम करना चाहती थी जिसके बारे में कहा जाता था कि ये काम लड़कियों
को नहीं करना चाहिए. मैं उड़ना चाहती थी, खिलखिलाना चाहती थी, चमकते हुए जुगुनुओं को
हाथों में कैद करना चाहती थी, चपेटे खेलना या रस्सी फलागना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं
था. मुझे तो हर उल्टे-सीधे काम पसम्द थे. लड़कों
की तरह पेड़ पर चढ़ जाना, पत्थर लेकर आम के कच्चे-कच्चे
बौरों पर फेकना, इमलियां और बेर तोड़ते हुए एक सुखद-सी अनुभूति होती थी मुझे. थोड़ा आगे
बढ़ी तो आम के बौरों से रिश्ता टूट गया. इमलियां अब कुछ ज्यादा ही खट्टी लगने लगीं.
मन ग़ालिब के शेरों की तरह कुछ और चाहने लगा.
मां तब भी अंधेरा दिखाकर कहा करती—’ ये रास्ता तेरा नहीं है अनु, इन रास्तों
पर तो केवल लड़के चलते हैं. तब पहली बार कहीं प्रेमचन्द की ’पांच फूल’ मिल गई थी मुझे.
पांच फूलों जैसी कहानियां---- इन कहानियों में एक अजीब-सी दुनिया थी. अब दुनिया आबाद
थी…लगा ये तो मेरी दुनिया है. लेखक ने कैसे लिखा होगा इस दुनिया को. इस बार कमरे में
गई तो वहां अंधेरा नहीं था, वहां मेज पर किताबें थीं. तब से किताबें दोस्त बनती चली
गईं…या दूसरे शब्दों में कहूं तो मुझे गढ़ती चली गईं.
कभी-कभी इन कहानियों
को पढ़ते हुए बहुत जोर से रोना आता मुझे खासकर
उस ज़मानें में मंटो की कहानियां पढ़ते हुए. मां ने बंटवारे की इतनी कहानियां सुन रखी
थीं. मां ने कहानियां दादा-दादी के मार्फत सुनी थीं. उन्होंने बंटवारे को बहुत करीब
से अपनी आंखों से देखा था, जलती हुई ट्रेनों को भी… जब इंसानी लाशों से भरी ट्रेनें
आया करती थीं. सगे-संबन्धियों को करीब से मरते हुए देखा---वो लोग तक्सीम के वक्त रावलपिण्डी
से हिन्दुस्तान आए थे. मैं इन किस्से कहानियों को सुनती हुई बड़ी हुई थी.
बंटवारा एक नासूर की
तरह मुझे सीलता रहा था. फिर मंटो ने ऎसी-ऎसी कहानियां लिखी थीं कि इन्हें पढ़ते हुए
मेरी आंखें भीग-भीग जातीं. इन कहानियों में मर्दों का एक क्रूर चेहरा भी होता---जहां
औरत कसाबखाने में टगें गोश्त के लोथड़ों से ज्यादा नहीं थी. सब उसे खोल-खोल कर देखा
चाहते थे. ’खोल दो’ पढ़ते हुए मैं चीख पड़ी थी.
नहीं प्लीज शलवार का नाड़ा मत खोलना सकीना.. ’धुंआ’ और ’ठंडे गोश्’ ने मर्द-औरत के अलग-अलग
मनोविज्ञान को चित्रित किया था. आप विश्वास करें, मंटो की इन कहानियों को पढ़ते हुए मैं इतनी भयभीत
हो जाती कि कभी-कभी दरवाजा बंद कर चीखने-चिल्लाने का जी करता और फिर आइने के सामने
खड़े होकर खुद को देखकर फिर जोर से चीख पड़ती. मुझे लगता मेरे चारों ओर दंगे भड़क रहे
हैं और मंटॊ के खतरनाक चरित्रों ने मुझे चारों ओर से घेर लिया है. मैं लंबी-गहरी सांसे
ले रही होती. उसी ज़माने में मंटो के साथ-साथ इस्मत चुगताई, कृश्नचंदर, बेदी ---इन साहित्यकारों
को पढ़ने का इत्तेफ़ाक हुआ. अब मुझे पढ़ने की लत लग गई थी. इस्मत के ’लिहाफ’ में हाथी
फुदक रहे थे..तौबा-तौबा. मुझे इन हाथियों से वहशत हो रही थी, लेकिन लिहाफ की बेगम आपा
से मुझे पूरी-पूरी हमदर्दी थी. मुझे नवाब साहब पर गुस्सा आता कि वो सारा दिन और सारी
रात लोडे-लापड़ों में घिरे होते और उन्हें बेगम साहबा की मजबूरियों का जरा भी अहसास
न होता. इस्मत चुगताई की इस कहानी ने मुझे गहराई में उतरकर सोचने पर मजबूर किया. दुनिया
को इस्मत की नजरों से बोल्ड बनकर देखने की कोशिश करने लगी थी.
शब्दों के लिबास को
पहना तो अंजना नई होती गयी. ये वो ज़माना था जब पहली बार कितने ही नए नामों को पढ़ने
का इत्तेफाक हुआ---रसूल हमज़ातोव की ’मेरा दागिस्तान’ पढ़ डाली. रूसी एवं अन्य साहित्यकारों
से तोस्ती बढ़ी. तोलस्तोय, दॉस्तोएव्स्की, गोर्की, चेखव, शेक्शपियर, चॉम्स्की, स्टीवेन्सन,
रस्किन बॉण्ड…
मेरे जिस्म में बरसात
के फूल खिलने लगे थे---हवा मदहोश थी---अब कविताओं के अंकुर नए सिरे से फूट रहे थे.
बदली थी मेरी आंखें---जीवन को देखने और जीने की समूची दृष्टि में परिवर्तन आया था.
मैं रसूल हमज़ातोव को
धन्यवाद देती थी…
“मैं
हर बार उड़कर तुम्हारे पास पहुंच जाती हूं रसूल
तुम
कैसे बुनते हो इंसानी आत्मा से एक देह या देह से
एक इंसानी
आत्मा,
तुम
दृष्टि को लिबास पहनाने का हुनर,
कैसे
सीख पाए.
मैं
देह-आत्मा से गुजरती
अक्सर तुम्हें छूने के प्रयास में,
जख्मी हो जाती हूं रसूल.
मेरे पंख काट दिए गए
और मैं
उड़ना भूल चुकी
लेकिन
अब वापस लेना चाहती हूं
तुमसे
अपनी उड़ान. “
यहीं पहली बार पाब्लो
नेरूदा को पढ़ने का इत्तेफ़ाक हुआ. मेरी कायनात बदली थी. एक तीसरी आंख खुली थी. सत्य
की निर्गम वादियों से गुजरने को हौसला जागा था. मैं बड़ी
हो रही थी. कठिन होता है लड़की में उड़ते पंखों का जागना. उन्हीं दिनों अमृता प्रीतम,
सारा शगुफ़्ता और परवीन को पढ़ने बैठ गई. मुहब्बत में कैद औरतें---अमृता से सारा और परवीन
तक हसीन कायनात. सारा ने आत्म-हत्या कर ली---परवीन भरी जवानी में मोहब्बत के ताप के
साथ जग को अलविदा कह गई---अमृता सारा जीवन साहिर की यादों के साथ बसर कर गयीं. …कहीं
एक बूंद शेष है …मैं अपने भीतर उस बूंद को ढूंढ़ रही थी---जीवन के सारांश में उलझी उस
बूंद को जो मुझको कह रही थी अंजना मत तलाश करो…
साहित्य केवल बहना
सिखाता है जहां जख्म रिसते हैं. पराए ज़ख्मों
को अपना कहते हुए हम खुद को लहूलुहान कर बैठते हैं---मैंने खुद को देखा तो चौंक गई.
साहित्य की कितनी डगर से गुजरती हुई---मैं सचमुच लहू-लुहान थी, लेकिन यहीं मुझे अपने
लिए विचारों का एक नया बसेरा भी आबाद करना था.
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युवा कवयित्री अंजना बख्शी की कविताएं
कविता
कविता मुझे लिखती है
या, मैं कविता को
समझ नहीं पाती
जब भी उमड़ती है
भीतर की सुगबुगाहट
कविता गढ़ती है शब्द
और शब्द गध़्अते हैं कविता
जैसे चोपाल से संसद तक
गढ़ी जाती हैं जुल्म की
अनगिनत कहानियां,
वैसे ही,
मुट्ठीभर शब्दों से
गढ़ दी जाती है
कागज़ों पर अनगिनत
कविताएं और कविताओं में
अनगिनत नक्श, नुकीले,
चपटे और घुमावदार
जो नहीं होते सीधे
सपाट व सहज वर्णमाला
की तरह!!
यादें
यादें बेहद खतरनाक होती हैं
अमीना अक्सर कहा करती थी
आप नहीं जानती आपा
उन लम्हों को, जो अब अम्मी
के लिए यादें हैं..
ईशा की नमाज़ के वक्त
अक्सर अम्मी रोया करतीं
और मांगतीं ढेरों दुआएं
बिछड़ गए थे जो सरहद पर,
सैंतालीस के वक्त उनके कलेजे के
टुकड़े.
उन लम्हों को आज भी
वे जीतीं दो हजार दस में,
वैसे ही जैसे था मंजर
उस वक्त का ख़ौफनाक
भयानक, जैसा कि अब
हो चला है अम्मी का
झुर्रीदार चेहरा, एकदम
भरा सरहद की रेखाओं
जैसी आड़ी-टेढ़ी कई रेखाओं
से, बोसिल, निस्तेज और
ओजहीन !
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गुमनाम गलियों में
सुबह होते-होते
गिर जाता है ग्राफ
ज़िस्म की नुमाइश का
चढ़ने लगता है पारा
सूरज के ढल्ते ही
बाज़ार का,
रामकली की आवाज़
की खुमारी के साथ
शाम की ख़ामोशी में
कतारें हो जाती हैं
लम्बी और---लम्बी
जो बना लेती हैं
एक घेरा अपने
इर्द-गिर्द ज़िस्म की
टकराहटों के लिए
जिसमें महज़ आवाज़ें
नहीं होतीं,
एक ख़ामोश चीख
होती है, भीतर की
तहों में खनकती,
सुराख की गहराई में
सिमटती और खो जाती
इन गुमनाम गलियों में
जहां जिस्म बिकता है,
आवाज़ बिकती है,
और बिका करती है
सोलह साल की कई
रामकली और कलावतियां
आलू-बैगन की तरह होता है
मोलभाव
गिद्ध और भेड़ियों
के चबाने-खाने
और डकार लेने
के लिए!!
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खामोशी
कुछ खामोश शामें और
कमरे में दुबके दिन
हॉस्टल के शोर के बीच
मेरे भीतर एक खामोशी,
अक्सर सोचती हूं
उस छिपकली की लिजलिजी
कटी पूंछ को देखकर
कितनी खामोशी से
अंदर ही अंदर उसकी
ग्रोथ हो रही थी
और एक रोज उसकी
कटी-पूंछ पुनः
अपने वजूद के साथ
मुकम्मल है.
मुकम्मल है.
ज़िन्दगी भी यूं ही
खामोशी से लेती है
गर्दिश के दिनों में
भी खाद-पानी और
फिर,होती रहती है
उसकी ग्रोथ,
गर्दिश के दिनों में
भी खाद-पानी और
फिर,होती रहती है
उसकी ग्रोथ,
भीतर ही
भीतर एक
दुबकी चिड़िया-सी,
जो फिर
फुदकने और खुले
फुदकने और खुले
आसमान में पंख
फैला उड़ने को
तैयार है!!
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प्यार ऎसा होता है?
कितनी बार चाहा ऎनी
तुझे बताना---आज-कल
तुम मेरे सपनों में रोज
ही चली आती हो
अपने ’अक्षरों के साये’
के साथ,
कभी धुंए के छल्ले उड़ाती
तो कभी ’नागमणी’ के पन्ने
पलटती---
वो देखो तुम्हारा अक्स
इन दीवारों पर सजीव हो
उठा है लाल-पीला
और दूधिया रंगो से
आड़ी-तरछी रेखाएं
तुम हवा में बनाने
लगी हो
अमृता,
कभी-कभी सोचती हूं
तुम्हें और ’रसीदी टिकट’ को
क्यों नहीं समझा गया इतना
जितना कि एक सागर की
गहराई को समझा जाना चाहिए!
तुम्हारे भीतर के सागर से
कई सीप निकाले हैं
मैंने और कुछ फूल तुम्हारी
बगियां से चुन लाई हूं मैं.!!
इमरोज़ से मिलकर लगा
उस रोज,
तुम यहीं हो, उसी में ज़िन्दा
तुम्हारी सांसे, उसकी सांसों,
में महक रही हैं
नहीं जानती थी,
प्यार ऎसा होता है.
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जीत मुबारक हो
वक्त,बेवक्त, आ जाया
करते थे अक्सर
मुश्किल होता था
संभालना इनको१
उस रोज,
मैंने बादलों से कहा
बरसो तो वो बरसने
लगे----
मैंने आंसुओं को होले से
बोला मुस्कराते हुए
जीत मुबारक हो!!
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ज़िन्दगी बेहद खूबसूरत है
कभी ये टमाटरों सी फक्क
लाल हो जाती है,
कभी प्याज-सा रुलाती है
तो कभी मिर्च-सी तीखी और
इमली-सी चटपटी हो जाती है!
ज़िन्दगी बेहद खूबसूर है
कभी ये बच्चों की रंगबिरंगी
फिरकी-सी चलती है गोल-गोल
और कभी ठहर जाती है
पल भर को जैसे,
बचपन में मां ठहर जाया
करतीं थीं कहानी सुनाते वक्त,
और फिर उनका ओजमय
चेहरा बुनता था एक नई
कहानी, उनके अपने संघर्षों की.
ज़िन्दगी बेहद खूबसूरत है
ये बिखेरती है इन्द्रधनुषी छटा
से सात रंग
और कभी-कभी तो हो जाती
है बेरंग,
जैसे बिना देगी मिर्च के मटर-आलू
कभी ज़िन्दगी गौतम बुद्ध-सी
शांत-सौम्य लगती है
तो कभी आतमतायी-सी
दानवीर और कभी-कभी
हो जाया करती है द्रोणाचार्य-सी
निष्ठुर, जो मांग बैठता है
एक्लव्य-से उसका अंगूठा
वैसे ही ज़िन्दगी भी मांगती
है बहुत कुछ
सचमुच ज़िन्दगी बेहद खूबसूरत
है!!
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सेलफोन
(१)
अक्सर बटन दब जाया
करता है इसका और ये
सालेन्स हो जाता है
नहीं देती फिर सुनाई
कोई भी आवाज़ मुझे
तो बोलो कैसे उठाऊं
मैं तुम्हारा फोने बेटी
तुम शिकायत ना किया करो
मैं और फोन, आजकल
एक जैसे ही हो गए हैं!
(२)
मुझे तुम्हारी मौन भाषा
का ज्ञान नहीं,
और ना ही अब है
खामोशी से मुझे प्यार
तमाम उम्र बीत गई
फोन की तरह, अपने को
भी सायलेन्स मोड पर
रखे-रखे---
अब जब वक्त आया
बोलने का और ये कहने
का---तुम रोशनी हो,
कुल का दीपक भी तुम,
लेकिन जब तुमने क्यों
खामोशी चुन ली!!
रहती हो अक्सर अब
तुम फोने के मोड- सी
सालेन्स, और कभी
बात-बात पर बज
उठती है तुम्हारे भीतर की
सोई घंटिया और बाईब्रेण्ट
भी करने लगती हो,
कभी- कभी तुम…!
तुम तो कहती थी मां
हौसला रखो---
दुनिया है तो संघर्ष भी
संघर्ष है तो ज़िन्दगी,
और ज़िन्दगी है तो समझौते
भी और फिर----
मां---सुनो मां---समझौतों से,
संघर्षों से व हौसलों
ज़िन्दगी ज़िन्दगी होती है ना
और फिर तुम खिलखिलाकर
हंसती---जैसे सारी कायनात
से तुम्हें हो मोहब्बत और
ज़िन्दगी से ना कोई
शिकायत!!
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अंजना बख्शी
जवाहरलाल विश्वविद्यालय से हिन्दी
में पी-एच.डी.
0 सागर विश्वविद्यालय से हिन्दी और
मास कम्युनिकेशन एवं जर्नलिज्म में स्नातकोत्तर.
0 कविता, आलेख, समीक्षाएं, फीचर्स
आदि विधाओं में निरन्तर लेखन. लगभग सभी प्रतिष्ठित हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं
प्रकाशित.
0 अनेक पत्र-पत्रिकाओं में सम्पादन
सहयोग.
0 प्रकाशित कृतियां : ’गुलाबी रंगोवाली
वह देह’ (कविता संग्रह)
0 ‘कादम्बनी युवा कविता पुरस्कार’
(२००५)
Email id: anjana_jnu@rediffmail.com
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