शुक्रवार, 11 मार्च 2011

वातायन - मार्च,२०११


हम और हमारा समय

सड़कें, शिकारी और महिलाएं

रूपसिंह चन्देल

साफ़-चौड़ी सड़कें, सड़कों पर दौड़ते वाहन और भागती जिन्दगी--- जिन्दगी इतनी व्यस्त कि उसके आस-पास क्या हो रहा है, क्या हो चुका है इस ओर ध्यान देने का वक्त नहीं है उसके पास और यदि वक्त है भी तो वह इतनी खुदगर्ज हो चुकी है कि सारा वक्त केवल अपने लिए ही सुरक्षित रखना चाहती है. यह तस्वीर है आज की उस दिल्ली की, जहां संसद है, संसद में देश के भाग्य विधाता बैठते हैं, जिनमें से कितनों ही की गाढ़ी कमाई के हजारों करोड़ डॉलर विदेशी बैंकों में जमा है और मज़ाल है किसीकी कि उस पर चर्चा करने का साहस कर सके. साहस करने वालों को ही कटघरे में खड़ा कर देते हैं ये लोग. इसी दिल्ली में चमचमाती सरकारी कारों में घूमते हैं ब्यूरेक्रेट्स, जिनमें हर दूसरा भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है.

इसी दिल्ली में दौड़ती हैं कालेरंग की स्क्रीन चढ़ी कारें और उन कारों के अंदर बैठे होते हैं अपराधी. अपराधी केवल ऎसी कारों में ही नहीं घूमते, वे सड़कों पर खुले सांड़ की भांति घूमते रहते हैं और उनके समक्ष विवश है दिल्ली पुलिस, जिसे देश की सर्वश्रेष्ठ पुलिस होने का गौरव प्राप्त है. देश की राजधानी में अपराधों का ग्राफ तेजी से बढ़ा है और उनमें सर्वाधिक अपराध बढ़े हैं महिलाओं के विरुद्ध. यद्यपि दिल्ली पुलिस का दावा है कि पिछले वर्ष की अपेक्षा इस वर्ष महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में कमी आई है . पिछले वर्ष के अंतिम दो माह में जहां ७७ बलात्कार के मामले प्रकाश में आए थे, वहीं बीते दो माह में ४४, लेकिन एक सर्वेक्षणकर्ता के अनुसार यह ग्राफ सही नहीं है, क्योंकि ग्राफ कम दिखाने के लिए पुलिस अनेक मामले दर्ज ही नहीं करती.

बात दिल्ली की ही नहीं, पूरे देश में अपराधों में वृद्धि हुई है. आज की दिल्ली में दिन दहाड़े किसी लड़की को काले रंग की स्क्रीन चढ़ी कार में अपराधी घसीट लेते हैं और सड़क पर दौड़ती उस कारे में उसके साथ बलात्कार होता रहता है--- दिल्ली पुलिस मुस्तैद रहती है और अपराधी अपने काले कारनामों को अंजाम देते रहते हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय के साउथ कैम्पस के पास रिंग रोड पर बने फुट ओवर ब्रिज पर सरे आम पचास-साठ लोगों की उपस्थिति में एक अपराधी युवक राधिका तंवर को गोली मारकर निश्चिन्तता के साथ निकल जाता है और जिन्दगी ठहर कर यह भी नहीं देखती कि खून से लथपथ मृत्यु से जूझती वह लड़की थी कौन? ’हर समय आपके साथ’ रहने का दावा करने वाली दिल्ली पुलिस अपने ही एक सिपाही द्वारा लगातार भेजे गए संदेशों के बावजूद घटनास्थल पर विलंब से पहुंचती है और अस्पताल पहुंचने से पूर्व ही राधिका अपनी अंतिम सांस ले चुकी होती है.

दिल्ली में महिलाएं किस कदर असुरक्षित हैं इसका अनुमान दिल्ली में बारह वर्षों से एक-छत्र राज करने वाली मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के उस वक्तव्य से लगाया जा सकता है, जब वे कहती हैं कि वह भी अपने को असुरक्षित अनुभव करती हैं. वह जब यह कहती हैं कि अपराधियों के विरुद्ध जनता को भी जागरूक होने की आवश्यकता है, तब मीडिया उनकी इस सलाह की धज्जियां उड़ाने लगता है, लेकिन हमें सब कुछ पुलिस पर ही नहीं छोड़ देना चाहिए. डेढ़ करोड़ की आबादी वाली इस दिल्ली में लोग इतना खुदगर्ज और संवेदशून्य हो गए हैं कि सड़क पर तड़प रहे दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को तड़पता छोड़ लोग उसके पास से गुजरते रहते हैं. राजौरीगार्डन के पास रिंगरोड पर दुर्घटनाग्रस्त सड़क पर पड़ी एक महिला को रौंदती कितनी ही कारें गुजरती रहीं और मानवता कराहती और शर्मसार होती रही. तो यह है आज की दिल्ली.

दिल्ली में अपराधों में वृद्धि का कारण पुलिस और राजनीतिज्ञों में व्याप्त भ्रष्टाचार भी है. कितने ही अपराधी वहां संरक्षण पाते हैं और क्यों पाते हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं . अपराधियों के हौसले इसलिए भी बुलंद हैं क्योंकि न्याय प्रणाली लचर है. बलात्कारियों को फांसी की मांग करने वाले लालकृष्ण आडवाणी गृहमंत्री बनते ही अपने इस मुद्दे को भूल बैठे थे. बलात्कारियों को मृत्युदंड से कम सजा नहीं दी जानी चाहिए. महिलाओं के प्रति अन्य अपराधों के लिए भी कठोरतम दंड का विधान किया जाना चाहिए--- संविधान को बदला जाना चाहिए. तभी महिलाओं के शिकार के लिए घूमने वाले अपराधियों के हौसले ही नहीं पस्त होंगे, घरों और दफ्तरों में भी उनके प्रति कुदृष्टि रखने वालों पर अंकुश लगेगा.
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वातायन के मार्च अंक में प्रस्तुत है ले-मिज़ेराबल के इटैलियन—रूपांतर के प्रकाशक एम.डाएल्ली के नाम विक्तोर ह्यूगो का पर, कामिल बुल्के पर चर्चित कथाकार और कवयित्री इला प्रसाद का संस्मरण और वरिष्ठ हिन्दी और सिन्धी कवयित्री देवी नागरानी की कविता और गज़ल.

दस्तावेज


’ले - मिज़ेराबल’ के इटैलियन रूपांतर के प्रकाशक
एम.डाएल्ली के नाम विक्तोर ह्यूगो का पत्र

’ले-मिज़ेराबल’ वह आईना है----’

महोदय,

आपका यह कहना बिल्कुल ठीक है कि ’ले-मिज़ेराबल’ दुनिया के सभी देशों के लिए लिखा गया है. मैं नहीं जानता कि दुनिया के सभी लोग इसे पढ़ेंगे या नहीं, पर लिखा तो मैंने इसे निश्चित ही दुनिया के सभी लोगों के लिए है. यदि एक ओर यह संबोधित किया गया है इंग्लैंड को तो दूसरी ओर स्पेन को भी; एक ओर इटली को तो दूसरी ओर फ्रांस को भी; एक ओर जर्मनी को तो दूसरी ओर आयरलैंड को भी; एक ओर गुलामी से बजबजाते लोकतत्रों को तो दूसरी ओर बेगारी बजानेवाले बेमुंह के लोगों के धनी साम्राज्यों को भी. सामाजिक समस्याएं देशों की सीमाओं से नहीं बंधतीं. मानव-जाति के नासूर पूरे ग्लोब पर रिस रहे हैं. वे नक्शों पर खिंची लाल या नीली रेखाओं पर आकर रुक या ठहर जाने वाले नहीं. आज जहां भी आदमी जाहिल है, निराश है, टूटा हुआ है; आज जहां भी औरत पेट की रोटी के लिए अपना सौदा करती है; और, आज जहां भी किसी बच्चे के पास लिखने-पढ़ने को किताबें और तापने को चूल्हे की आग नहीं है, वहीं ’ले-मिज़ेराबल’ दरवाजे़ पर दस्तक देता है और कहता है ---’दरवाज़ा खोलो, मैं हूं---- तुम्हारे लिए ही तो यहां तक आया हूं.’

आज हम सभ्यता के जिस दौर से गुज़र रहे हैं, उसका आगे का रास्ता काफ़ी घुंधला है; और इस यात्रा के इस मोड़ पर ’मिज़ेराबल’ का नाम आदमी है, इंसान है. यह आदमी, यह इंसान आज हर हवा-पानी में दर्द पर दर्द सह रहा है और हर भाषा में कराह रहा है.

मैंने माना कि हमारा फ्रांस संकटों का शिकार है, पर आपका इटली भी इससे मुक्त नहीं. आप जिस इटली की इतनी प्रशंसा और सराहना करते हैं, उसके तो चेहरे पर ही जाने कितने दुख-दर्दों के दाग और झुर्रियां हैं. क्या आपके पहाड़ी इलाक़े, ग़रीबी की और भी गई---बीती स्थिति, लूटमार के अजायबघर नहीं? कॉन्वेंटों (महिला-मठों) के जिस औंधे फोड़े के अंदर मैंने झांकने की चेष्टा की है, उसने जितना ज़हर इटली के बदन में घोला है, उतना ज़हर शायद ही दुनिया के और देशों के शरीर में घोला हो. आपके पास रोम,मिलान, नेपिल्स, पालेरमो, तूसि, फ्लोरेंस, सियेन्ना, पीसा, मंतुआ, वोलोगना, फेरारा, जेनोआ और वेनिस हैं; आपके पास पराक्रमों से भरा इतिहास, आपके पास लाजवाब, शानदार खंडहर हैं; और, आपके पास दर्शनीय नगर हैं, पर इन सभी बातों के बावजूद आप बिल्कुल हमारे जैसे हैं—दीन-हीन. आप चमत्कारों, करिश्मों और ज़हरीलें कीड़ों से घिरे औरे ढंके हुए हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि इटली का सूरज इटली का सूरज होता है, पर इटली के आसमान के धुले, नीले बादल आदमी के शरीर पर झूलते चिथड़े, झटके से हटा कर दूर नहीं कर सकते.

बिल्कुल हमारे यहां की तरह ही आपके यहां भी रूढ़ियां हैं. अंधविश्वास हैं, अत्याचार हैं, धार्मिक-उन्माद हैं और अंधे का़नून हैं; और यह सभी मिलकर हाथ मज़बूत करते हैं, बुद्धि और विवेक से शून्य रीति-रिवाज़ों के, रीतियों-नीतियों के. आप अतीत के रंगों के बिना न वर्तमान की कल्पना कर सकते हैं, और न मंगलमय भविष्य का कोई रेखाचित्र तैयार कर सकते हैं. आपके यहां गंवार हैं, साधु-सन्यासी हैं, जंगली जातियों के लोग हैं और अछूत भिखारी-भिकारिनें हैं. सामयिक प्रश्न आपके सामने भी वही हैं जो हमारे सामने. आपके यहां अगर हमारे यहां से कुछ कम लोग भूख से मरते हैं तो हमारे यहां से कहीं अधिक लोग जूड़ी-बुखार से दम तोड़ते हैं. आपके यहां सामाजिक स्वास्थ्य-विज्ञान की स्थिति हमारे यहां से कोई बहुत अधिक बीस नहीं है. जो साये इंग्लैंड में प्रोटेस्टेंट कहे जाते हैं, वही इटली में कैथॉयिक के नाम से पुकारे जाते हैं. वैसे नाम अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन ’वेस्कोवों’ ’बिशप’ का ही दूसरा रूप है; और, इसका मतलब सदा एक होता है, और वह होता है – घनघोर अंधेरा--- इस छोर से उस छोर तक बिछी रात. फ़िर, गुण की दृष्टि से भी इनमें कोई विशेष अंतर नहीं होता. जो व्यक्ति बाइबिल की व्याख्या ढंग से नहीं कर पाएगा, वह पिता-यीशु या उनके शिष्यों के धर्मोंपदेशों को समझने का दावा भी नहीं कर सकेगा.

क्या आवश्यक है कि इस बात पर और अधिक बल दिया ही जाए? क्या इस भयानक समानता को पूरी तरह साबित करना ही होगा? क्या आपके यहां नंगे-भूखे-अपाहिज नहीं हैं? ज़रा नीचे देखिए, क्या आपके यहां दूसरों की ज़िंदगियां चाटकर ख़ुद लंबी-लंबी उम्रों तक जीने वाले नहीं हैं? ज़रा ऊपर निगाह कीजिए. जिस भयानक तराजू के दो पलड़े---परोपजीवन और कंगाली दांत भींच कर आपस में जैसे-तैसे एक-दूसरे को साधे रहते हैं, क्या वह आपके सामने वैसे ही नहीं हिलती रहती, जैसे हमारे सामने? सभ्यता जिस एकमात्र सेना को मान्यता प्रदान करती है, स्कूली मास्टरों की आपकी वह सेना कहां है?

आपके मुफ्त लिखाई-पढ़ाई वाले सारे-के-सारे स्कूल कहां हैं? आपके वे स्कूल कहां हैं, जहां हर एक को अनिवार्य शिक्षा दी जाती है? क्या दांते और माइकेल एंजेलो के देश में हर एक कुछ-न-कुछ लिख-पढ़ सकता है? क्या आप अपनी फ़ौजी बैरकों को आम जनता के स्कूलों में बदल सके हैं? क्या हमारी तरह आपके यहां भी लड़ाई के खर्च का बजट लंबा –चौड़ा और लिखाई-पढ़ाई के ख़र्च का बजट कुछ नहीं सा नहीं होता? क्या आपके यहां भी लोगों को, बिना आह-ऊह का अवसर दिए, इस तरह हुक्म मानना नहीं सिखाया जाता कि होते-होते वे हुक्म बजा लाने के ऎसे आदी हो जाएं, जैसे फौ़जी? उस पर फौज, फौज के क्या कहने हैं! क्या यही फ़ौज क़ानून को रबड़ की तरह खींच-खींचकर वहां नहीं ले जाती, जहां गैरीबाल्डी पर यानी स्वयं इटली के सांस लेते सम्मान पर और स्वयं इटली की जीती-जागती प्रतिष्ठा पर गोली चला दी जाती है? आइए, ज़रा आपकी सामाजिक व्यवस्था को कसौटी पर कसें; उसे वहां ले चलकर खड़ा करें, जहां वह है, और उसे उस हालत में खड़ा करें, जिस हालत में सचमुच वह है. आइए, उसके नंगे कारनामों पर एक उड़ती नज़र डालें. ज़रा मुझे अपने यहां की कोई औरत और अपने यहां का कोई बच्चा दिखलाइए. आप इन दो निर्बल प्राणियों की सुरक्षा की व्यवस्था जिस सीमा तक कर सकेंगे, हम आपको उस सीमा तक सभ्य मानेंगे. क्या नारियों को अपने शरीर बेचते देखकर नेपल्स में कुछ कम कलेजा फटता है, और पेरिस में कुछ ज़्यादा? आपके क़ानूनों से सच्चाई किस सीमा तक उभर कर ऊपर आती है और आपकी अदालतों में कहां तक न्याय होता है. क्या आप ऎसे क़िस्मत वाले हैं कि आम जनता के सामने होने वाले मुक़दमों, क़ानून के काले चेहरों, जेलों-हवालातों, गले में फ़ंदा डालने वाले कसाइयों और जीते जी मौत की सज़ा पाने वाले लोगों, आदि की करुण-कथाएं आपके कानों में न पड़ती हों?--- इटली के लोगों, हमारी तरह आपके लिए भी ’बिस्सारिया’* मर चुका है, और ’फेरिनेस’* ज़िंदा है. यही नहीं, आइए, ज़रा उन कारणॊं पर विचार करें, जो आपके देश की इस स्थिति के मूल में हैं.

क्या आपके यहां ऎसी सरकार है, जो नैतिकता और राजनीति को एक-दूसरे में पिरोती हो? आप तो आज वहां आ गए हैं, जहां आप देश के लिए जान हथेली पर रखने वालों को अपराधी ठहराते और फ़िर उन्हें माफ़ी देकर जेल की दीवारों से बाहर निकालते हैं. ऎसा ही कुछ हमारे यहां फ्रांस में भी हुआ है. तो, सुनिए, आइए इन संकटों पर दृष्टि डालते हुए इनकी बगल में गुज़रें और अपने-अपने कंधे की गरुई गठरी एक जगह खोलें. सचमुच आप भी उतने ही गांठ के पक्के हैं, जितने हम! क्या हमारे यहां की तरह आपके यहां भी दो प्रकार के दंड-विधान नहीं हैं --- यानी, एक तो वह दंड जो धर्म के नाम पर पादरी देता है और दूसरा वह दंड जो समाज के नाम पर जज देता है. ओह, महान देश इटली, तुम अपनी बुनावट और बनावट में महान देश फ्रांस से कितने मिलते-जुलते हो! उफ, मेरे इटेलियन भाइयों, आप भी बिल्कुल हमारी ही तरह हैं---- किस्मत के मारे हैं!


आप अंधेरे की गहराइयों में रहते हैं, और आपको वहां से दूर ईडेन के, आंखों में चकाचौंध पैदा करने वाले, सिंहद्वार कुछ हमसे ज़्यादा साफ़ नहीं टीपते. ग़लत बातें तो महज़ यह पादरी करते हैं. सच तो यह है कि ईडेन के यह पावन-पूत सिंह-द्वार हमारे ऎन सामने हैं, हमारी पीठ के पीछे नहीं.

मैं यह मानकर चलता हूं कि ’ले-मिज़ेराबल’ वह आईना है, जिसमें जितने साफ़ चेहरे हमारे झलकते हैं, उतने ही आपके भी कुछ लोग, कुछ विशेष वर्ग इस कृति का विरोध करते हैं, इसके विरुद्ध विद्रोह का स्वर ऊंचा करते हैं. बात मेरी समझ में आती है, आईने का काम है सच्चाई के ऊपर से पर्दा उठा देना, इसलिए स्वाभाविक है कि लोग उससे घृणा करें, पर इस नफ़रत से कहीं कोई ऎसी रोक तो लगती नहीं कि लोग आईने का इस्तेमाल करना बंद कर दें.

जहां तक मेरा प्रश्न है, मैंने यह उपन्यास सबके लिए लिखा है, पर, इसे लिखते समय भी मेरे मन में अपने देश फ्रांस के लिए अनंत प्यार रहा है. यों ऎसा नहीं हुआ है कि इस रचना-क्रम में मैंने किसी और देश से अधिक महत्व फ्रांस को दिया हो. मैं अपने जीवन-पथ पर ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता गया हूं, त्यों-त्यों अधिक सहज होता गया हूं और मेरे देश-प्रेम की सीमाएं संपूर्ण मानवता के प्रति प्रेम तक लहराती गई हैं.

कहना न होगा कि यह प्रवृत्ति हमारे इस युग की अपनी विशेषता है. दूसरी ओर, फ्रांसीसी-क्रांति से उपलब्ध विवेक का भी अपना एक विधान है. यदि अब साहित्यिक कृतियों को, सभ्यता के विकास के अनुपात में, अपने को व्यापक बनाना होगा, तो वे भविष्य में फ्रेंच, इटेलियन, जर्मन, स्पेनिश या इंगलिश न होकर योरपीय होंगी--- मैं तो इसके एक क़दम आगे जाकर कहना चाहूंगा कि भविष्य में वे संपूर्ण मानव-समाज की होंगी.

यही कारण है कि अब कला की भी अपनी तईं तर्क-विधि होगी और रचना के सुरुचि और भाषा जैसे अपेक्षित तत्वों को, शेष तत्वों की भांति ही, कहीं अधिक विकसित होना होगा, अपना कहीं अधिक विस्तार करना होगा. रचना की यह अपेक्षाएं हर स्थिति पर अपना प्रभाव डालती हैं, पर, खेद का विषय है कि इनकी दृष्टि अब तक बहुत ही संकीर्ण रही है.

मुझे बड़ी प्रसन्नता है कि फ्रांस में कुछ आलोचकों ने काफ़ी बुरा-भला कहा, और मुझ पर आरोप लगाया है कि वे जिसे ’प्रांसीसी अभिरुचि’ कहते हैं, मैंने उसकी मर्यादा-रेखा लांघी है. काश कि उनके इस ’गुणगान’ में सत्व होता! होता तो मुझे हार्दिक सुख और संतोष का अनुभव होता.

संक्षेप में यह कि मैं जो कुछ भी कर सकता हूं, कर रहा हूं. मैं वही यातना और संत्रास झेल रहा हूं, जो दुनिया के तमाम लोग झेल रहे हैं. मैं अपनी यंत्रणा भूलकर उन्हें धीरज बंधाता हूं. मैं उनके दुख-दर्द में हिस्सा बंटाना और उसे कम करना चाहता हूं. मगर, साधन और सामर्थ्य की दृष्टि से मनुष्य बहुत ही बौना होता है, और मैं भी बहुत ही बौना हूं. इसीलिए तो सभी को गुहार रहा हूं कि करो, कृपा कर मेरी सहायता करो.

श्रीमान, मुझे बस यही कहना है, और आपका पत्र पढ़ने के बाद मुझे यह सब कहना पड़ा है. कहा भी मैंने यह सब आपके लिए है, और आपके देश के लिए है. अगर मेरी बात में कहीं कटुता आ गई है तो उसके लिए ज़िम्मेदार आपके पत्र के कुछ वाक्य हैं. आपने लिखा है –“दुनिया में एक देश इटली भी है और इटली के लोगों की गिनती भी ऎसी कुछ कम नहीं है. उनका कहना है – “ले-मिज़ेराबल’ फ्रेंच कृति है. हमारा उससे किसी तरह का कोई संबन्ध नहीं है, इसलिए फ्रांस के लोग उसे इतिहास समझकर पढ़ें, हम तो उसे रोमांस मानकर पढ़ते हैं.’”--- कमाल है! मैं यह बात दुबारा ज़ोर देकर कहना चाहता हूं कि हम चाहे इटैलियन हों और चाहें फ्रांसीसी, विपन्नता-आपदा-विपदा के मारे हम सब हैं. जब से इतिहास लिखा जाने लगा है, और जब से दर्शन ने मध्यस्थता करने का कार्य आरंभ किया है, तब से आज तक मानव-जाति दुख-दारिद्र्य से अपना तन ढंकती रही है. लेकिन, आज आख़िरकार वह क्षण आ गया है, जब हमें इन चिथड़ों को तार-तार कर देना होगा, और इंसानों को अतीत की इन सड़ी-गली धज्जियों से छुटकारा दिला देना होगा. हमें इन तमाम नंग-धंड़ग इंसानों के हाथ-पैरों को ढंकना होगा सुनहरे विहान के रतनारे परिधानों से.

श्रीमंत, यदि आपको मेरा यह पत्र उपयोगी लगे और ऎसा अनुभव हो कि इसे पढ़ने के बाद कुछ लोगों के मनो के भ्रम दूर होंगे, और उनके पूर्वाग्रह कटेंगे, तो आप इसे बिना संकोच के प्रकाशित कर-करा सकते हैं.

अंत में मैं आपको एक बार फ़िर आश्वस्त करना चाहता हूं कि मेरे मन में आपके देश के लिए, आपके देश के लोगों के लिए और आपके लिए अपार स्नेह है. कृपया मेरा आदर-भाव स्वीकार करें.

आपका—

१८ अक्टूबर,१८६२ विक्तोर ह्यूगो
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*बस्सारिया : यह व्यक्ति बहुत विद्वान था तथा उसने अपराध-विज्ञान तथा विधिशास्त्र पर अनेक पुस्तकों की रचना की थी. उसका मत था कि अपराधी को सुधरने का मौक़ा मिलना चाहिए ताकि वह समाज की मुख्य धारा में सम्मिलित हो सके. वह मृत्युदंड दिए जाने के सख़्त ख़िलाफ था.

* फेरीनेस : अत्यंत दीन-हीन व्यक्ति था , जिसके पास तीन बच्चों और ख़ुद को पालने के लिए पर्याप्त साधन नहीं थे. रोटी चुराने के इल्ज़ाम में उसे छह वर्ष का कारावास मिला. उसको भूख बहुत लगती थी तथा खाना पर्याप्त नहीं होता था. जेलर से और खाना मांगने पर हमेशा इंकार ही मिलता. उसकी कोठरी में एक लड़का आया, वह भी चोरी के ही इल्ज़ाम में लाया गया था. लड़का अपने खाने में से आधा फेरीनेस को दे देता. इस तरह दोनों मित्र बन गए. जेलर को यह बर्दाश्त न हुआ. उसने दोनों को अलग-अलग कोठरियों में बंद कर दिया. फेरीनेस फिर भूखा रहने लगा. जेलर से की गई प्रार्थना भी बेकार गई. अंत में फेरीनेस ने तंग आकर जेलर की हत्या करने का निश्चय किया. उसने कपड़ों में जेल के कारखाने से चुरायी एक छोटी कुल्हाड़ी छिपा ली. जेलर के सामने जाकर अत्यंत गंभीर और शांत स्वर में उसने कहा कि यदि उसे उस लड़के के साथ नहीं रखा गया तो वह जेलर की हत्या कर देगा. फेरीनेस की दृढ़ता और संकल्प शक्ति के आगे जेलर को हार माननी पड़ी और अंततः दोनों को पुनः एक ही कोठरी में रख दिया गया.
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अनुवाद : गोपीकृष्ण गोपेश
सम्पादक : आलोक श्रीवास्तव

’विपदा के मारे’ (ले-मिज़ेराबल) –
हिन्दी अनुवाद : स्व. गोपीकृष्ण गोपेश से साभार
संवाद प्रकाशन,
आई-४९९, शास्त्रीनगर,
मेरठ-२५० ००४
मूल्य : ६५०/-

संस्मरण



बड़े ताऊ जी
इला प्रसाद


वह गर्मियों की एक तपती हुई दोपहर थी।

अपने अध्ययन कक्ष में ठीक पंखे के नीचे कुर्सी डालकर बैठा वह विदेशी पादरी किसी किताब में डूबा हुआ था। कमरे का दरवाजा अधखुला। कुछ यूँ कि दरवाजे पर खड़े होते ही पूरा दृश्य एक बारगी आँखों के सामने आ जाय। सामने बड़ी सी मेज, मेज पर किताबों का ढेर और उनके आगे पेपरवेट से दबे हुए कागज ! मौका मिलते ही नियंत्रण से बाहर निकल भागने को उत्सुक , पंखे की हवा में रह रह कर फ़ड़फ़ड़ाते हुए।

उस लम्बे -चौड़े कमरे में अधिक सामान नहीं था। मेज कुर्सी के अतिरिक्त कुछ अलमारियाँ । और कुर्सी पर बैठा वह - सफ़ेद चोगे में , दरवाजे के फ़्रेम से दाहिनी ओर। श्वेत वसन , गौर वर्ण। छह फ़ुट लम्बी आकृति कुर्सी पर सिमटी हुई। अपनी उपस्थिति की सूचना देती. दरवाजे के फ़्रेम में जड़ी सी।

दरवाजे पर हल्की सी ठक-ठक हुई और एक महीन स्वर उभरा।
"फ़ादर!"
फ़ादर पर कोई असर नहीं हुआ।
इस बार लड़की ने दरवाजा कई बार अपनी पतली उंगलियों से ठोका। ठक-ठक। ठक-ठक। गति और स्वर तेज हो गए।
"फ़ादर .....फ़ादर !

पादरी का ध्यान टूटा। दॄष्टि दरवाजे की ओर मुड़ी। आँखॊं में पहचान के भाव उभर आए और अन्दर आने की स्वीकृति भी। वह लड़की बेझिझक करीब आ कर खड़ी हो गई। कुछ बोलती , इससे पहले ही फ़ादर ने रोका।
"ठहरो , पहले कान लगा लूँ।"

सफ़ेद चोगे के अन्दर हाथ डालकर श्रवण यंत्र का स्विच आन हुआ। फ़िर उसे स्नेह से अपने करीब खींचते हुए वह बोला
"हाँ , अब बोलो।"
"दीदी ने कहा कि आपकी लाइब्रेरी से किताब चाहिए।"
"जाओ , ले लो।"
वह किशोरी इस पुस्तकालय के चक्कर लगा- लगा कर ही बड़ी हुई थी। इसमें कुछ नया नहीं था। सिर्फ़ गर्मी की छुट्टियाँ ही नहीं , बाकी की छुट्टियाँ भी, कोर्स की किताबों को पढ़ने के बाद का बचा बहुत सारा वक्त भी किताबों के सान्निध्य में ही कटता था। सिर्फ़ उसका नहीं , सबका। भाई और बहनें भी इसी तरह आते और किताबें ले जाते। लौटा जाते। लेकिन आज का आना विशिष्ट था।
आज अपने आँसू छुपाने थे। वह बड़ी बहन की डाँट खा कर आई थी। कालेज से घर पहुँची तो दीदी ने किताब मांगी और "भूल गई" कहने पर गुस्सा हो गईं-" घर और कालेज के बीच के रास्ते में ही तो है फ़ादर का घर। मनरेसा हाउस। फ़िर भूल कैसे गई ?" गुस्सा उसे दीदी से ज्यादा आता था। वह भूखी-प्यासी उल्टे पैरों चली आई यहाँ। दीदी ने रोकने की कोशिश की थी लेकिन आहत मन वापस लौट कर ही माना।
फ़ादर की स्वीकृति पाकर वह अभ्यस्त कदमों से बाहर आई और बरामदे से होती हुई अगले कमरे के प्रवेश द्वार से पुस्तकालय में घुस गई।
आँसुओं ने नियंत्रण नही माना अब।
किताब निकालते हुए उसने अपने आँसू भी पोंछे। फ़िर सहज होने का अभिनय करती हुई किताब ले कर मुड़ी।
सामने फ़ादर खड़े थे।
उसने फ़िर एक बार खुद को नियंत्रित किया।
"मिल गई। यह चाहिए थी। "
फ़ादर उसे देखते रहे।
उसने आँखों ही आँखों में अभिवादन कर जाने की स्वीकृति चाही।
मुँह से बोल नहीं फ़ूटे। फ़ादर की नीली आँखें जैसे उसके अन्दर तक देख सकती थीं। यह अहसास उसे पहली बार हुआ था। उसे जैसे भी हो भाग जाना था , वहाँ से अब। जल्द से जल्द। अपनी पकड़ नहीं देनी थी।
फ़ादर ने अपनी गहरी आँखों से कुछ क्षण उसकी थाह ली। समझा और फ़िर सिर हिला दिया।
"जाओ।"
उसने एक बार मुड़ कर देखा और तेज कदमों से आगे बढ़कर सीढियाँ उतर गई । गले में रुलाई घोंटती हुई।
उसे पता था, पीछे से उन नीली आँखों ने हमेशा की तरह उसे असीसा है। हालांकि वे फ़ैली हुई भुजाएँ आज बस फ़ैल कर रह गई थीं, हमेशा की तरह अपनी उस बेटी को समेट नहीं पाई थीं। स्नेह से सहला नहीं पाई थीं।

वह उसके बाद भी वहाँ जाती रही। सहज सामान्य वह। सहज सामान्य फ़ादर। यह साथ उसके बचपन में शुरू हुआ था , जब वह अपने पिता की उंगली थाम वहाँ जाया करती थी और फ़ादर की गोद में बैठकर उन दोनों का शुद्ध हिन्दी में किया गया वार्तालाप सुनती थी। कुछ समझे बिना। बीच- बीच में दिए गए आदेश " मेरी दाढ़ी से खेलो" की अवहेलना करती हुई। दाढ़ी को हल्के से सहला कर छोड़ देती हुई। उस दाढ़ी के काले केश काले से काले- उजले हुए और फ़िर दुग्ध धवल। वह बच्ची भी बड़ी हुई। अपने पैरों चलकर आने लगी, अपनी मर्जी से किताबें चुनने लगी। अपनी सफ़लताओं की कथा सुनाने लगी और अपनी हर सफ़लता पर फ़ादर से पुरस्कृत होने लगी। लेकिन तब भी एक दूरी बनी रही। फ़ादर बार-बार कहते -"मैं तुम्हारा बड़ा ताऊ हूँ" और ऐसा कहते हुए उनकी आँखें, चेहरा आवेश से भर जाता।
यह सच था। कोश-निर्माण के दिनों में पिता के साथ विचार-विमर्श से शुरु हुआ सम्बन्ध कब गहरे स्नेह में बदल गया, इसका अहसास शायद उन्हें भी नहीं था। उस स्नेह में वह लड़की कई बार भीगी किन्तु तब भी उनके जीवन काल में कभी भी उन्हें ताऊ जी नहीं कह पाई। न उसके भाई-बहन। जुबान को फ़ादर कहने का कुछ यूँ अभ्यास हो गया था।
वह फ़ादर, फ़ादर कामिल बुल्के थे।
वह लड़की मैं थी।
स्वभाषा और संस्कृति से प्रेम का जो बीज पिता ने हमारे मन में बोया, वह फ़ादर ने पिता के साथ मिल कर सींचा था। वे हमारे बड़े ताऊ जी थे! वह चेहरा , वे नीली आँखें, वह आवेश युक्त भाव एक बार फ़िर यह लिखते हुए मेरी आँखों के सामने आ गया है!

उनके जीवन काल में कभी भी उन्हें ताऊ जी का सम्बोधन न दे पाने का दुख बीतते समय के साथ गहराता ही जाता है। मैं अब, जब भी भारत जाती हूँ, मेरे राँची के घर के प्रवेश द्वार पर उनके द्वारा लगाया गया बोगनवेलिया मेरा स्वागत करता है। मैं बोगनवेलिया के फ़ूले हुए, सफ़ेद पराग वाले बड़े-बड़े बैंगनी फ़ूल देखती हूँ और अपने अंतर्मुखी, संकोची , आत्मलीन स्वभाव पर एक बार फ़िर से शर्मिंदा होती हूँ। हमें तो उनसे हमारा प्राप्य मिल गया लेकिन, हम उनकी अपेक्षाओं पर कितने नालायक साबित हुए थे!
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इला प्रसाद :
झारखंड की राजधानी राँची में जन्म। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से सी. एस. आई. आर. की रिसर्च फ़ेलॊशिप के अन्तर्गत भौतिकी(माइक्रोइलेक्ट्रानिक्स) में पी.एच. डी एवं आई आई टी मुम्बई में सी एस आई आर की ही शॊध वृत्ति पर कुछ वर्षों तक शोध कार्य । राष्ट्रीय एवं अन्तर-राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में शोध पत्र प्रकाशित । भौतिकी विषय से जुड़ी राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय कार्यशालाओं/ सम्मेलनों में भागीदारी एवं शोध पत्र का प्रकाशन/प्रस्तुतीकरण।कुछ समय अमेरिका के कालेजों में अध्यापन।
छात्र जीवन में काव्य लेखन की शुरुआत । प्रारम्भ में कालेज पत्रिका एवं आकाशवाणी तक सीमित।"इस कहानी का अन्त नहीं " कहानी , जो जनसत्ता में २००२ में प्रकाशित हुई , से कहानी लेखन की शुरुआत। अबतक देश-विदेश की विभिन्न पत्रिकाओं यथा, वागर्थ, हंस, कादम्बिनी, आधारशिला , हिन्दीजगत, हिन्दी- चेतना, निकट, पुरवाई , स्पाइल, कथाबिंब,शोधदिशा, पाखी आदि पत्रिकाओं तथा अनुभूति- अभिव्यक्ति , हिन्दी नेस्ट, साहित्य कुंज सहित तमाम वेब पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ प्रकाशित। "वर्तमान -साहित्य" और "रचना- समय" के प्रवासी कथाकार विशेषांक में कहानियाँ/कविताएँ संकलित । डा. अन्जना सन्धीर द्वारा सम्पादित "प्रवासिनी के बोल "में कविताएँ एवं "प्रवासी आवाज" में कहानी संकलित। कुछ रचनाओं का हिन्दी से इतर भाषाओं में अनुवाद भी। विश्व हिन्दी सम्मेलन में भागीदारी एवं सम्मेलन की अमेरिका से प्रकाशित स्मारिका में लेख संकलित। कुछ संस्मरण एवं अन्य लेखकों की किताबों की समीक्षा आदि भी लिखी है । हिन्दी में विज्ञान सम्बन्धी लेखों का अनुवाद और स्वतंत्र लेखन। आरम्भिक दिनों में इला नरेन के नाम से भी लेखन।
कृतियाँ : "धूप का टुकड़ा " (कविता संग्रह) एवं "इस कहानी का अंत नहीं", उस स्त्रॊ का नाम ( कहानी- संग्रह) । उपन्यास पर कार्यरत .
लेखन के अतिरिक्त योग, रेकी, बागवानी, पर्यटन एवं पुस्तकें पढ़ने में रुचि।
सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन ।सम्पर्क : 12934, MEADOW RUNHOUSTON, TX-77066USAई मेल ; ila_prasad1@yahoo.com

कविता और गज़ल


देवी नागरानी की कविता और गज़ल
मेरे वतन की खुशबू

बादे-सहर वतन की, चँदन सी आ रही है
यादों के पालने में मुझको झुला रही है.

ये जान कर भी अरमां होते नहीं हैं पूरे
पलकों पे ख़्वाब ‘देवी’ फिर भी सजा रही है.

कोई कमी नहीं है हमको मिला है सब कुछ
दूरी मगर दिलों को क्योंकर रुला रही है.

कैसा सिला दिया है ज़ालिम ने दूरियों का
इक याद आ रही है, इक याद जा रही है.

पत्थर का शहर है ये, पत्थर के आदमी भी
बस ख़ामशी ये रिश्ते, सब से निभा रही है.

शादाब याद दिल में, इक याद है वतन की
तेरी भी याद उसमें, घुलमिल के आ रही है.

‘देवी’ महक है इसमें, मिट्टी की सौंधी सौंधी
मेरे वतन की खुशबू, केसर लुटा रही है.
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गज़ल

भाषा की खुशबू
लोरी सुना रही है हिंदी जुबां की खुशबू
रग
-रग से आ रही है हिन्दोस्तां की खुशबू
 
भारत हमारी माँ है
, भाषा है उसकी ममता
हिन्दोस्तां से आये सारे जहाँ की खुशबू
भाषा अलग
-अलग सी हर प्रांत की है बेशक
पर दास्ताँ से आये उनकी जुबां की खुशबू
 
दुश्मन का भी भरोसा
, जिसने कभी न तोड़ा
ख़ामोश उस ज़बाँ से आये बयाँ की खुशबू
भाषाई शाखों पर
है हर प्राँत के परिंदे
उड़कर जहाँ भी पहुंचे
, पहुंची वहां की खुशबू
दीपक जले है हरसूं भाषा के आज देवी
लोबान सी है आती
कुछ कुछ वहां की खुशबू
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देवी नागरानी
जन्मः ११ मई, १९४१ कराची
शिक्षाः बी.ए अर्ली चाइल्डहुड में, न्यू जर्सी, गणित का भारत व न्यू जर्सी से डिगरी हासिल
सम्प्रतिः शिक्षिका, न्यू जर्सी.यू.एस.ए
क्रुतियां
"ग़म में भींजीं ख़ुशी" सिंधी भाषा में पहला- गज़ल संग्रह २००४
"चरागे-दिल" हिंदी में पहला गज़ल-संग्रह, २००७
"उडुर-पखिअरा" ( सिंधी भजन- संग्रह, २००७)
“ दिल से दिल तक" (हिंदी ग़ज़ल- संग्रह २००८)
" आस की शम्अ" (सिंधी ग़ज़ल -सँग्रह २००८)
" सिंध जी आँऊ जाई आह्याँ" (सिंधी काव्य- संग्रह, २००९) -कराची में छपा
"द जर्नी " (अंग्रेजी काव्य- संग्रह २००९)
कलम तो मात्र इक जरिया है, अपने अँदर की भावनाओं को मन की गहराइयों से सतह पर लाने का. इसे मैं रब की देन मानती हूँ, शायद इसलिये जब हमारे पास कोई नहीं होता है तो यह सहारा लिखने का एक साथी बनकर रहनुमाँ बन जाता है.
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