गुरुवार, 6 सितंबर 2012

बातचीत










                                                                 सूरजप्रकाश से मधु की बातचीत
आपके लिये सृजन क्‍या है?
 दरअसल सवाल इस तरह से होना चाहिये कि सृजन मेरे लिए क्‍या नहीं है। सृजन सब कुछ है। बेहतर तरीके से, अर्थपूर्ण तरीके से जीवन जीने का सिलसिला, अपने आपको अभिव्‍यक्‍त करने का सबसे सशक्‍त माध्‍यम। अपनी बात कहने का, सामने रखने का और अपने आपको कह कर हलका करने का माध्‍यम। मैं पहले भी कह चुका हूं कि जब लिखना चाहता था और लिख नहीं पाता था तो मैं बयान नहीं कर सकता कि उस वक्‍त कितनी छटपटाहट होती थी। मैं कई बार सोचता हूं कि जिनके पास अपने आपको अभिव्‍यक्‍त करने का कोई माध्‍यम या मंच नहीं होता, वे कैसा महसूस करते होंगे।
    हमारे जीवन की तीन स्‍टेज होती हैं - एक्जिस्‍टैंस यानी जीने के लिए जीना। इस स्‍टेज में सारी मारामारी रोजी-रोटी तक ही सीमित होती है। दूसरी स्‍टेज होती है एक्‍सप्रेशन यानी अपने आपको अभिव्‍यक्‍त कर पाने की छटपटाहट और इच्‍छा और तीसरी स्‍टेज इससे आगे की होती है। वह है रिक्‍गनीशन। यानी जो कुछ कर रहे हैं, उसे मान्‍यता भी मिले। यह संतोष परम संतोष होता है। कई बार समाज खुद देता है और कई बार लोग इसके लिए भी छटपटाते हैं। अपने हाथ जगन्‍नाथ वाला तरीका अपनाते हैं। यानी अपने किये गये काम की खुद मार्केटिंग। साहित्‍य में इसे पुरस्‍कार, सम्‍मान, मंच, अनुवाद, समीक्षा, चर्चा वगैरह-वगैरह की तरह देखा जाता है।
     मुझे इस बात का संतोष है कि मैं एक्जिस्‍टैंस से आगे वाली स्‍टेज यानी एक्‍सप्रेशन की श्रेणी में आता हूं और इस बात का भी संतोष है कि मैं अपने किये धरे की बहुत ज्‍यादा मार्केटिंग करने के गुर नहीं जानता, कर ही नहीं पाता। बेशक इस वज़ह से नुक्‍सान भी होते रहे हों। परवाह नहीं। मेरे पास जेनुइन पाठक हैं, वही मेरे काम का सबसे बड़ा रिक्‍गनीशन है।
 ·         आप अपने शुरूआती लेख1न के विषय में कुछ बताएं।
          सातवीं-आठवीं में पहली बार तुकबंदी की होगी। कविता की कोई समझ तो थी नहीं। बेशक पढ़ने का शौक था और हम भाई लोग देहरादून की इकलौती लाइब्रेरी, खुशी राम पब्लिक लाइब्रेरी में पढ़ने के लिए जाते थे, लेकिन तब यह पढ़ना चंदामामा, राजाभैया या बात भारती तक ही सीमित था। बहुत हुआ तो प्रेम चंद की बाल कथाओं की कोई किताब ले ली। तो इसी तरह तुकबंदी शुरू हुई जो बहुत दिनों तक चलती रही। देहरादून के अखबारों में छपती रहीं ये बचकानी कविताएं। हां, तब तक बीए तक आते आते देहरादून के कई साहित्‍यकारों से परिचय हो चुका था। 
       मैं 1978 में दिल्ली आया। दिल्ली आकर नई नौकरी करने के दौरान बेशक लेखकों के बीच उठना-बैठना होता रहा लेकिन कुछ भी लिखा नहीं जाता था। बहुत घुटन होती थी लेकिन शब्द नहीं सूझते थे। न लिख पाने के कारण हमेशा मन पर दबाव रहता। ज़िंदगी निरर्थक-सी लगने लगती। समझ में नहीं आता था कि क्या और कैसे किया जाये। ढेरों अनुभव थे लेकिन उन्हें सिलसिलेवार कह पाना या लिख पाना ही नहीं होता था।
      इस बीच मुंबई से रिज़र्व बैंक से नौकरी का ऑफर आ चुका था। 1981 में मुंबई की राह पकड़ी। बंबई के शुरू के दिन बेहद तकलीफ भरे गुजरे। मार्च 1981 में यहां आया था और जून 1983 के आसपास सिंगल रूम में शिफ्ट किया था। भयंकर अकेलापन, ऑफिस का दमघोंटू माहौल और रहने की दिक्‍कतें, सारी चीज़ें बुरी तरह से निराश करती थीं।

·         शायद रहने की इन तकलीफों के कारण ही आपकी कहानियों में घर बार-बार आता है।

       हां, शायद ये बात सही है। अकेलेपन को भी मैंने बहुत भोगा है और घर, यानी रहने की जगह की तकलीफें भी मेरे हिस्‍से में ज्‍यादा आयी हैं। इसी वजह से घर को ले कर तरह-तरह के बिम्ब मेरी अलग-अलग कहानियों में आये हैं और अभी भी बहुत कुछ ऐसा है जो घर के जरिये मुझे कहना है। हालांकि मेरी पिछली कई रचनाओं और उपन्यास में भी घर बहुत शिद्दत से उभर कर आया है। कई कहानियों के नाम भी घर से जुड़े हुए है और थीम भी घर से मोह ही है। घर बेघर, छूटे हुए घर, खो जाते हैं घर, देस बिराना, मर्द नहीं रोते, सही पते पर, फैसले, छोटे नवाब बड़े नवाब तथा मेरी लम्बी कहानी देश, आजादी की पचासवीं वर्षगांठ तथा एक मामूली-सी प्रेम कहानी, इन सबमें घर ही है जो बार-बार हांट करता है और कुछ नये अर्थ दे जाता है।

·         हां, तो आप लिखना शुरू करने की बात कर रहे थे।

       हां, मुंबई के शुरुआती दिनों में ऑफिस का माहौल बेहद तनाव भरा था और वहां गुटबाजी थी। नये आदमी को वैसे भी एडजस्ट करने में कुछ समय तो लगता ही है। कई बार सब कुछ छोड़-छाड़ कर वापिस भाग जाने का दिल करता। एकाध बार इस्तीफा भी लिख कर दिया। यह नया शहर जहां सिर्फ अकेलापन और अकेलापन था, मुझे रास नहीं आया था। आखिर आप कितने दिन और कब तक मैरीन ड्राइव की मुंडेर पर बैठ कर वक्त गुजार सकते हैं। वह भी अकेले। बाद में धीरे-धीरे शहर के कुछ लिखने-पढ़ने वालों से थोड़ा-बहुत परिचय हुआ, कुछ यार-दोस्त बने तो हम लोग खाली वक्त में मुंबई युनिवर्सिटी के लॉन में बैठने लगे। वहीं तो तुमसे परिचय हुआ, आगे बढ़ा और इस जिंदगी के अकेलेपन का हमेशा के लिए खात्मा हुआ।
        शादी के बाद भी लिखने की कई बार कोशिश की लेकिन बात नहीं बन पाती थी। लिखता और फाड़ देता। कोई गाइड करने वाला था नहीं। 1987 तक आते-आते यानी 35 साल की उम्र तक प्रकाशित रचनाओं के नाम पर मेरी कुल जमा पूंजी सारिका में दो-तीन लघुकथाएं और एकाध अनुवाद ही था। यहां तक आते-आते लिखने की चाह और न लिख पाने की तकलीफ बहुत सालने लगी थी। तय कर लिया कि अगर कोई नहीं बताता तो खुद सीखना है। कुछ न कुछ लिखता रहा। 1986 में यानी 36 बरस की उम्र में पहली कहानी नवभारत टाइम्स में छपी और दूसरी कहानी 1987 में वरिष्ठ रचनाकार सोहन शर्मा ने अपने कथा संकलन में शामिल की। देर से ही सही, शुरूआत तो हुई। हिम्मत बढ़ी और अपने जीवन की महत्वपूर्ण कहानी अधूरी तस्वीर 1988 में लिखी जो धर्मयुग में छपी। अब तक लिखने की मेज पर बैठने का संस्कार मिल रहा था और तनाव कम होने लगे थे। एक बार शुरू हो गया लिखना तो फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा।
आपकी कहानियों में आपका शहर देहरादून बार-बार आता है, स्‍वयं को दोहराता है, आखि़र क्‍यों?
 हर बार तो नहीं, लेकिन दो एक कहानियों में, संस्‍मरण में और उपन्‍यास देस बिराना में देहरादून जरूर आया है। दरअसल जिस मोहल्‍ले में, शहर में और माहौल में आपने जीवन के बीस-बाइस बरस गुजारे हों, सारे अच्‍छे-बुरे संस्‍कार जिस शहर ने आपको दिये हों, वह चेतन अवचेतन में तो रहेगा ही और रचनाओं में आयेगा ही। अब ये तो हो नहीं सकता कि जिस शहर को बिल्‍कुल भी न जानता होऊं, उसे अपने कहानी किस्‍से के केन्‍द्र में रखूं। ये बेईमानी होगी। अब इसी बात को लें कि देस‍ बिराना उपन्‍यास शुरू करने में मुझे बहुत देर लग रही थी क्‍योंकि कथानायक, जिस पर यह उपन्‍यास लिखा जाना था, पिथौरागढ़ का रहने वाला था और उसके बचपन के पचास-साठ पेज लिखने के लिए मुझे कोई शहर चाहिये था। पिथौरागढ़ कभी गया नहीं था सो उसे कथानायक का शहर कैसे चुनता। अब यही तरीका बचता था कि अपने देखे-भाले शहर देहरादून को ही कथानायक के बचपन का शहर बनाता। वही किया। इस तरह‍ से मैं ज्‍यादा ईमानदारी से अपनी बात कह पाया। मेरे देखे दूसरे शहर – हैदराबाद, दिल्‍ली, अहमदाबाद, पुणे भी मेरी रचनाओं में आये ही हैं। मुंबई तो खैर ज्‍यादातर रचनाओं में है।

·         बीस बरस से ज्‍यादा के लेखन में आपने उपन्‍यास, कहानी, व्‍यंग्‍य, अनुवाद, संस्‍मरण, संपादन सभी पर हाथ आजमाया है। अपने आपको किस विधा में ज्‍यादा सहज महसूस करते हैं।

      महत्‍वपूर्ण अभिव्‍यक्ति होती है। विधा नहीं। दरअसल रचना खुद ही तय करती है कि उसे किस विधा में लिखा जाना है। कई छोटे-छोटे बिम्‍ब होते हैं जिन्‍हें किसी बड़ी रचना में शामिल किये जाने तक का इंतज़ार नहीं किया जा सकता या कई अनुभव या बिम्‍ब अपने आप में मुक्‍कमल होते हैं और तुरंत अभिव्‍यक्ति चाहते हैं। इन्‍हें तब लघु कथाओं या दूसरे तरीकों से ही लिखा जाना होता है। बेशक मन तो उपन्‍यास जैसी रचना में ही रमता है लेकिन उपन्‍यास एक के बाद एक नहीं लिखे जा सकते। कोई भी बड़ी रचना लेखक को पूरी तरह से खाली कर देती है। दूसरी बड़ी रचना के लिए खुद को तैयार करने में समय तो लगता ही है। तो ऐसे में अनुवाद करना या संस्‍मरण लिख लेना या कुछ और लिख लेना बहुत बड़ा सहारा होता है।

·         आपने आत्‍मकथाओं के अनुवाद ज्‍यादा किये हैं। कोई खास वजह ? 

           आत्‍मकथाएं पढ़ना मुझे हमेशा अच्‍छा लगता रहा है। लेखकों, दार्शनिकों, राजनैतिक हस्‍तियों, अभिनेताओं और इतर विभूतियों की आत्‍मकथाएं पढ़ते हुए हमेशा मुझे एक दुर्लभ सुख मिलता रहा है। जब तक कोई आत्‍मकथा पूरी नहीं पढ़ ली जाती, हमेशा ऐसा लगता रहता है, मानो अपने जीवन की संघर्षपूर्ण गाथा लिखने वाले उस दार्शनिक, नेता, अभिनेता या महान आत्‍मा ने हमें अपने जीवन के ऐसे दुर्लभ पलों में झांकने की अनुमति दे दी हो, बीच-बीच हमें अपने साथ चाय पीने के लिए बुला लिया हो या शाम की सैर पर अपने साथ चहल-कदमी करने का न्‍यौता दे दिया हो। लेखक तब पूरी ईमानदारी से, आत्‍मीयता से और अपनी पूरी आस्‍था के साथ अपने जीवन के कुछ दुर्लभ, छुए, अनछुए किस्‍सों और घटनाओं की कहानी हमें खुद सुनाता लगता है। तब हम दोनों के बीच लेखक और पाठक का नाता नहीं रह जाता, बल्कि जैसे दो अंतरंग मित्र अरसे बाद मिल बैठे हों और भूली-बिसरी बातें कर रहे हों। लेखक हमारे साथ अपने अमूल्‍य जीवन के कई अनमोल पल बांटता चलता है और हमें जाने-अनजाने समृद्ध करता चलता है। हमें पता ही नहीं चलता कि आत्‍मकथा के जरिये हम उसके लेखक के घर कई दिन गुज़ार आये हैं। एकाएक हम पहले की तुलना में कई गुना मैच्‍योर, अनुभवी और अमीर हो गये हैं। हम दूसरों से अलग हो गये हैं।
          मैं सचमुच अपने आपको खुशकिस्‍मत मानता हूं कि मैं इसी बहाने से विश्‍व की महान विभूतियों से मिल कर आया हूं और उनके संघर्षों का प्रत्‍यक्षदर्शी रहा हूं, उनके साथ मिल बैठने और बतियाने का असीम सुख पाता रहा हूं।
मुझे ये दुर्लभ सुख भी मिला है कि मैं कुछेक विश्‍व प्रसिद्ध मनीषियों की आत्‍मकथाओं को हिंदी के पाठकों तक ला पाया हूं। मैंने अंग्रेज़ी से हिंदी में मिलेना (जीवनीपरक गाथा), ऐन फ्रैंक की डायरी, चार्ल्‍स चैप्लिन की आत्‍मकथा और चार्ल्‍स डार्विन की आत्‍मकथा के अनुवाद किये हैं और ये हिंदी पाठक वर्ग द्वारा बहुत पसंद किये गये हैं। गांधी जी के बेटे हरिलाल के जीवन पर आधारित दिनकर जोशी के गुजराती उपन्‍यास प्रकाशनो पडछायो का हिंदी अनुवाद उजाले की परछाईं के नाम से मैंने अरसा पहले किया था। पाठकों ने इसे भी बहुत पसंद किया था और कुछ अरसा पहले इस किताब पर गांधी माय फादर के नाम से एक फिल्‍म भी बनी थी।

·         अभी हाल ही में आपने गांधी जी की आत्‍मकथा का अनुवाद किया है?   

जब राजकमल प्रकाशन के अरुण माहेश्‍वरी जी ने मेरे सामने गांधी जी की आत्‍मकथा के अनुवाद का प्रस्‍ताव रखा तो मैंने लपक लिया। मैं गांधी जी की आत्‍मकथा हिंदी, अंग्रेज़ी और गुजराती में पहले भी पढ़ चुका था और मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं है कि महादेव देसाई द्वारा किया गया इस आत्‍मकथा का अंग्रेज़ी अनुवाद श्रेष्‍ठतम अनुवाद है और पढ़ने में कई जगह तो गुजराती पाठ से भी अधिक आनंद देता है। एक बात और भी है कि चूंकि गांधी जी की आत्‍मकथा का अंग्रेज़ी अनुवाद मूल गुजराती में प्रकाशन के कई बरस बाद किया गया था, इसलिए महादेव देसाई ने गांधी जी से अपनी निकटता और अपने आत्‍मीयता का लाभ उठाते हुए आत्‍मकथा के अंग्रेज़ी संस्‍करण में कुछेक संशोधन भी करवा लिये थे। इस कारण से माइ एक्‍सपेरिमेंट्स विद ट्रुथ मूल गुजराती सत्‍यनो प्रयोगो की तुलना में बेहतर बन पड़ी है।
      लेकिन मैं ये भी कहने की अनुमति चाहूंगा कि गांधी जी की आत्‍मकथा का हिंदी अनुवाद जो सन 1957 में श्री काशिनाथ त्रिवेदी ने किया था, हो सकता है, आज से लगभग 50 बरस पूर्व अपने प्रकाशन के समय अपने हिंदी पाठकों के साथ न्‍याय कर पाया हो, लेकिन तब से अब के बीच हिंदी भाषा ने स्‍वाभाविक रूप से इतने चोले बदले हैं कि यह अनुवाद आज के हिंदी पाठक को रचना का पूरा पठन सुख देने की स्थिति में नहीं रहा है। आप मानेंगे कि उस वक्‍त की हिंदी और आज की हिंदी में हर मायने में बहुत अंतर आये हैं। हर भाषा नित नये तेवर ले कर हमारे सामने आती है और मैं ये बात कहने की अनुमति चाहता हूं कि हर विश्‍व स्‍तरीय कृति का समय-समय पर नये सिरे से अनुवाद किया जाना चाहिये। यह वक्‍त की मांग होती है। हर काल का पाठक किसी भी कृति का अनुवाद अपने वक्‍त की भाषा में पढ़ना चाहता है।
 *आपने कहानियों का एक लंबा संसार देखा है, उनमें आये परिवर्तनों को देखा है, आप इस पर क्‍या कहना चाहेंगे?
 हमारे वक्‍त की कहानी यानी बीस बरस पहले की कहानी की जमीन दूसरी तरह की थी। ठीक उसी तरह जैसे हमसे पहले लिख रही पीढ़ी की कहानी की जमीन हमसे अलग थी। जीवन की आपाधापी, समस्‍याएं, तकलीफें, उन्‍हें झेलने और उनसे निपटने के हथियार दूसरे थे। हमारी पीढ़ी को भावुकता उपहार में मिली थी इसलिए कहानियों के ट्रीटमेंट में ये भावुकता कहीं न कहीं आ ही जाती थी। बेशक हमारी पीढ़ी पर ये आरोप पिछली पीढ़ी लगाती ही थी कि हम गंभीर नहीं है, पढ़ते-लिखते नहीं हैं और हड़बडी में हैं। मज़े की बात ये है कि हम भी आज की पीढ़ी पर ठीक यही आरोप लगा कर अपने कर्तव्‍य पूरे कर लेते हैं। आज की पीढ़ी बिल्‍कुल भी भावुक नहीं है। वह चीज़ों को ज्‍यादा विश्‍लेषणात्‍मक तरीके से देखती-परखती है और अपनी कहानियों का ट्रीटमेंट भी उसी हिसाब से करती है। बेशक नयी पीढ़ी पर यह सदाबहार आरोप तो लगाया ही जा सकता है कि वह नाम और नावां कमाने की हड़बड़ी में है।

मुंबई जैसे व्‍यस्‍त शहर में नौकरी और फिर लेखन, इनमें कैसे तालमेल बिठा पाते हैं?
 सीधी सी बात है कि सबके दिन के 24 ही घंटे होते हैं। ये तो आप पर है कि आप इन 24 घंटों का कैसे और किन चीज़ों के लिए इस्‍तेमाल करते हैं। मैं 59 बरस की उम्र में भी 15 घंटे रोज़ काम करने का माद्दा रखता हूं और कई बार खराब स्‍वास्‍थ्‍य के बावजूद इतने घंटे काम करता ही हूं। मेरी कुल जमा 27 या 28 किताबें हैं जिनमें 500 पेज के अनुवाद वाली किताबें भी हैं। इनमें से ज्‍यादातर किताबें मुंबई के व्‍यस्‍त जीवन में से ही निकल कर आयी हैं।
      अभी कुछ दिन पहले मेरे एक 30 वर्षीय जूनियर अधिकारी ने यही सवाल पूछा था तो मैंने यही बताया था कि जिस आदमी के पास कोई काम नहीं होता वही सबसे ज्‍यादा व्‍यस्‍त होता है और जिसे कोई काम करना होता है वह कैसे भी करके वक्‍त चुरा ही लेता है। जब मैंने उससे पूछा कि तुम कितने घंटे काम करते हो या कर सकते हो तो उसका जवाब था कि आठ घंटे की नौकरी ही पूरी तरह निचोड़ लेती है। कुछ और करने के लिए ताकत बचती ही कहां है। बात ताकत की उतनी नहीं होती जितनी इच्‍छा शक्ति की होती है।
    शायद इसमें काम करने के मेरे तरीके ने भी मेरी मदद की हो। मैं हर काम, चाहे ऑफिस का हो, कहानी लिखना हो या अनुवाद करना, एक प्रोजेक्‍ट की तरह करता हूं और उसमें पूरी तरह डूब कर करता हूं। मैं मल्‍टी टास्किंग वाला आदमी हूं यानी एक ही समय में कई कामों को पूरी निष्‍ठा से पूरा कर सकता हूं और करता भी हूं।
 गत छह वर्षों से आपकी कोई रचना पाठकों के सामने नहीं आई है इस साहित्यिक चुप्‍पी का कोई विशेष कारण?
 ये चुप्‍पी मेरी ओर से ओढ़ी हुई नहीं है। हर लेखक के जीवन में एक बार नहीं कई बार ऐसे पल आते हैं जब कुछ भी सार्थक लिखना नहीं हो पाता। बेशक मैंने सात बरस से एक भी कहानी न लिखी हो, इन बरसों में मैंने चार्ली चैप्लिन, चार्ल्‍स डार्विन और महात्‍मा गांधी की आत्‍मकथाओं के अनुवाद किये ही हैं। कुल अनूदित सामग्री ही तेरह चौदह सौ पेज की रही होगी। इसके अलावा ब्‍लॉग के बहाने शब्‍दों से जुड़े रहने की कोशिश करता रहा और संस्‍मरण और यात्रा वृतांत भी लिखे। इनकी किताब भी आयी।
     जहां तक कहानी या उपन्‍यास लिखने की बात है, पहले से हल्‍का़ लिखना नहीं चाहता और पहले से अच्‍छा लिखा नहीं जा रहा तो यही किया जा सकता है कि सही वक्‍त का इंतज़ार करूं। कभी तो मेरे मन माफिक लहर आयेगी।

आपने अपने लिए जीवन के कुछ सिद्धांत तो बनाये होंगे। क्‍या हैं वे?
 बी इन्‍नोवेटिव यानी हर काम को नये नज़रिये से करें, बी क्रियेटिव यानी हर काम को सृजनात्‍मक तरीके से करें, और बी डिफरेंट यानी हर काम को दूसरों से अलग तरीके से करें। कोई वजह नहीं कि आपको अपनी छाप छोड़ने का मौका न मिले।
 एपीजे अब्‍दुल कलाम साहब ने कहा है- 'सपने वो नहीं होते जो हम सोते हुए देखते हैं। सपने तो वे   होते हैं जो हमें सोने नहीं देते'। ये मेरी प्रिय कोटेशन है। इसके अलावा मुझे शास्‍त्रीय संगीत सुनना, घूमना और सच कहूं तो अकेलापन बहुत अच्‍छा लगता है। हैदराबाद, अहमदाबाद, दिल्‍ली और पुणे में मैंने अकेलेपन के लम्‍बे-लम्‍बे दौर गुज़ारे हैं। गिनूं तो अपनी उम्र के 59 बरसों में से 15 बरस तो नितांत अकेलेपन के ही गुजरे होंगे। अहमदाबाद में रहते हुए कितनी बार ये होता था कि शनिवार की दोपहर में घर आने के बाद अगला संवाद सोमवार सुबह ऑफिस जा कर ही बोलता था। लेकिन ये अकेलापन होता था, खालीपन नहीं। अकेलापन आपको भरता है जबकि खालीपन तोड़ता है। तो अभी भी जब भी मौका मिले, अकेलेपन में ही मस्‍त रहता अच्‍छा लगता है। बाकी बच्‍चों का साथ सुख देता है। अच्‍छी किताबें पढ़ना अच्‍छा लगता है।
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मधु अरोड़ा, एच-1/101, रिद्धि गार्डन्स, फिल्‍म सिटी रोड, मालाड (पूर्व), मुंबई-400097       (मोबाईल0 9 8 3 3 9 5 9 2 1 6.)

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