रविवार, 31 जनवरी 2010

कहानी

बाहरी
कृष्णबिहारी

धूप तेज थी. जुलाई का उतार था. बारिश के बाद की धूप कुआर के तेज घाम की तरह लग रही थी. ऊपर से मौसम में जो उमस थी वह लिजलिजी चिपचिपाहट से जिस्म को पसीने से लिथाड रही थी. सवेरे नौ बजे ही इतनी तेज धूप और इतनी उमस. पसीने से लथ-पथ देह. सुबह चाय और टोस्ट के साथ ली गईं एलोपैथिक दवाओं की नाकाबिलेबरदाश्त महक उस पसीने में बदबू बनकर अलग से समाई हुई थी. मुगलसराय रेलवे स्टेशन से बाहर निकलकर उसने बनारस जाने वाली बस पकडने के लिए रिक्शा लिया. दोस्त ने चिट्ठी में लिखा था कि बस का रास्ता चालीस मिनट का है. पानी की टंकी मशहूर जगह है. वहीं उतर कर रिक्शा करके ईश्वरगंगी के उसके निवास पर पहुंचने में कोई दिक्कत नहीं होगी ।
मुगल सराय तक पहुंचने में कोई कठिनाई नहीं हुई थी. रात की ट्रेन में आरक्षण था. सुबह लगभग पौने नौ बजे ट्रेन वहां पहुंची थी.किसी नई जगह के लिए वह ऐसी ही ट्रेन चाहता है जो उसे सुबह या दिन में पहुंचाए ताकि नई जगह से होने वाले अपरिचय के संकट से गुजरना न पडे।
एक सप्ताह बनारस में ठहरने के कार्यक्रम के अनुसार उसने जो बैगेज बनाया था वह उसकी बेवकूफी की वजह से भारी हो गया था. दो पैंट और दो शर्ट में भी सात दिन कट सकते थे. कपडे ग़न्दे होने पर उन्हें धुलना ही तो होता. उसने सोचा कि अगली यात्राओं मे वह कम से कम सामान लेकर ही चलेगा। क़पडे ही ढोना है तो घर में बैठना अच्छा। हालांकि आधी अटैची गिफ्ट आइटम से ही भर गई थी।
रिक्शे पर अटैची और हैण्ड बैग रखने के बाद जो जगह बची उसमें अपने पैरों को टिकाकर बैठते हुए उसने कंधे पर लटकते कैमरे के बैग को सीट पर ही रख लिया।
उसने पूछा, '' क्या लोगे बस अड्डे का? बनारस के लिए बस पकडनी है।''
''बस साहब समझ के दे दिया जाए…”
'' चलो …''
सुबह से दोपहर की ओर बढती धूप के आलम में उसने अपने चारो तरफ एक भरपूर नजर डाली. काला चश्मा आंखों पर होने के बावजूद लगा कि धूप की किरचें आंखों को छील देंगी. लेकिन वो जो उसने सुना था कि शामे अवध और सुबहे बनारस का दृश्य अपने आप में अद्भुत् होता है. वह दूर से ही दिख रहा था. रांड, सांड और सन्यासी के अलावा हवाओं में गेरूआ रंग तैर रहा था. वही गहमागहमी जो हर रेलवे स्टेशन के पास दिखाई देती है, वहां भी थी. कार, मोटर सायकिल, ट्रक और थ्री ह्वीलर के हॉर्न उस भीड भरी सडक़ पर एक विचित्र किस्म की चिल्ल-पों मचाए हुए थे. सायकिल पर चलने वाले भी घंटियां बजाते चल रहे थे. सडक़ पर यातायात बिना नियम चल रहा था. कई दूधिए थे जो एक जगह रूककर अलग दुनिया में खोए हुए थे. उनके पास अनगिनत मक्खियों की भिनभिनाती भींड भी थी. जहां दूधिए खडे थे वहां बरसात का पानी सडक़र बजबजा रहा था. सडक़ की उसी भीड में एक मुर्दे को ले जाते और राम-नाम सत्य है, बोलते लोग भी दिखे. शायद बनारस ले जा रहे थे. मुर्दे ने जिन्दा रहते इच्छा व्यक्त की होगी कि स्थायी मुक्ति दिलवाने के लिए उसे बनारस में ही निपटाया जाए… ग़ंगा मिल जाएगी. क्या पता उसने कुछ भी न कहा हो और उसके परिजनों ने ही सोचा हो कि बार- बार भवसागर के इस आवागमन के चक्कर से उसे हमेशा के लिए मुक्ति दिलवा दी जाए… निर्वाण…क़ैवल्य…
उसने सिगरेट सुलगा ली. राम-नाम सत्य है. होगा सत्य. न होता तो लोग क्यों बोलते ? धुंए का एक गुबार उगलते हुए उसे रमानाथ अवस्थी के मशहूर गीत की पंक्ति याद आई, चाहे हवन का हो या कफन का हो, धुंए का रंग एक है….तभी उसे सडक़ के किनारे एक सायकिल के टायर का टुकडा जलता हुआ दिखा और अचानक ही यह सूझा कि धुंए का रंग भले ही एक हो मगर धुंए की गंध एक-सी नहीं होती. उसे यह भी लगा कि कभी-कभी तो धुंए का रंग भी एक-सा नहीं होता… साला धुंआ…कितनी बडी हकीक़त है धुंआ. सब कुछ धुंआ-धुंआ ही तो होना है. सिर झटकते हुए उसने खुद को दार्शनिक होने से उबारा. उसने रिक्शाचालक से पूछा, '' कितनी दूर है बस अड्डा ?''
''नए हो का… अ …अ …?'' उसने पूछा.
''नहीं तो…, यहीं का हूं… लेकिन कई साल बाद आया हूं …''
''कई साल बाद आने वाला का अपने शहर का बस अड्डा भी भूल जाता है? ''
वह चुप ही रहा. रिक्शेवाले भी कम घाघ नहीं होते. नया आदमी जान लें तो दिल्ली के ऑटो वालों की तरह एक ही जगह चकरघिन्नी की तरह घुमाते हुए अपना मीटर घुमाते रहें. बैठे-बिठाए जेब कट जाती है. कुछ दे बाद ही रिक्शा उस जगह पहुंच गया जहां बनारस जाने के लिए बस खुलने को तैयार खडी थी।
''कितना हुआ?''
''जो उचित समझें दें।'' रिक्शेवाले ने गेंद उसके पाले में डाल दी. उसने उसे पांच का नोट दिया.
''यह का सॉब… पांच रूपये में आज मिलता का है…? दस रूपये हुए.''
''क्यों हुज्जत करते हो… तुम लोगों की यही आदत तो खराब है. पहले तय नहीं करते हो और बाद में लडने को आमादा हो जाते हो ….''
''लड क़हां रहे हम … आप बाहरी हो सॉब … आपको पता ही नहीं कि हालत का है… चार रूपये में तो एक कप चाहो नहीं मिलता … चिन्नी अठारह रूपया किलो है… ज़माने में आगी लगा है…''
महंगाई बहुत बढी हुई थी. भला यही लगा कि रिक्शे वाले को वह दस रूपये देकर बस में बैठ ले. बस भी रेंग रही थी. लगा कि चलने वाली है. लेकिन वह चल नहीं रही थी. रेंग-रेंग कर रूक रही थी और कण्डक्टर चिल्ला-चिल्लाकर यात्रियों को पुकारते हुए इस भ्रम में रख रहा था कि बस अब चली. कण्डक्टर को सवारियां ठूंसना था. जब वह बस में घुसा तो वह लगभग भर चुकी थी और मुसाफिर भुनभुना रहे थे, 'आदत है इनकी,,, क़हेंगे कि बस अब चल रही है…बस अब चलेगी…लेकिन जब तक ठूंस नहीं लेंगे तब तक आदमी पर आदमी ठूंस नही लेंग, चलेंगे नहीं. 'उनकी भुनभुनाहटों को सुनते हुए उसने अपना सामान खिडक़ी से सटी हुई सीट के पास जमाया और ड्रॉइवर से कहा, ''पानी की टंकी के सामने रोकना…मुझे वहीं उतरना है…'' बस में मुसाफिर अब भी आ रहे थे।
ड्रॉइवर हट्टा- कट्टा और मुच्छड था. उसकी आंखें लाल-लाल थीं. एक नजर में लगा कि रात उसने बहुत पी रखी होगी. ड्रॉइवर ने उसे एक नजर ऊपर से नीचे तक घूरा और कहा, ''रोक दूंगा।'' क़ण्डक्टर सींकिया पहलवान-सा था मगर बडी क़डक़ती आवाज में बस के दरवाजे से लटका लहर-लहरकर मुसाफिरों को आवाज लगा रहा था…सुपर फॉस्ट… नान इसटाप…लो चल पडी नान इसटाप…एक्सप्रेस … अरे, उडन तश्तरी में बैठो और फ़र्राटे से चलो… क़ण्डक्टर कुछ नया नहीं कर रहा था. यह उसकी आदत रही होगी. लोग बस में घुसते जरूर मगर बैठने की जगह न पाकर उतर जाते. लेकिन कुछ लोग जो इस बस को छोडना नहीं चाहते थे वे सीटों की जगह के बीच के पैसेज में खडे हो रहे थे. उन्हें शायद कम दूरी की यात्रा करनी थी या अपने गन्तव्य पर जल्दी पहुंचना था. इस बीच झडते बालों को गिरने से रोकने का शर्तिया ईलाज क़े नाम पर तेल की शीशी बेचने वाला अपना रटा -रटाया रिकॉर्ड बजाकर उतर गया था. किसी ने भी एक शीशी नहीं खरीदी।
बस रेंगती हुई चल रही थी. जब चल पडी और कई लोगों ने सामने लिखे नियम को धता बताते हुए सिगरेट सुलगा ली तो उसने भी सुलगाई. बस न उडन तश्तरी थी न नॉन स्टॉप. वह हर सौ –दो सौ मीटर पर रूक रही थी और पूरी भरी होने बाद भी सवारियों को ठूंस रही थी. उसका चलना और रूकना कोई मायने नहीं रखता था ।
बस बमुश्किल दस मिनट ही रूकते -चलते चली होगी कि फिर किसी स्टॉप पर रूकी. एक आदमी जो उसके पास ही अगली सीट पर बैठा था उतरने के लिए खडा हुआ और उससे बोला, “उतरिए, पानी की टंकिए पर न उतरना हय…हम पहुंचा देंगे…पास ही हय…''
''रास्ता तो चालीस मिनट का है…''
''चालीस मिनट का कहां है…उतरिए।'' बोलते हुए वह आदमी दरवाजे तक बढा और बस से उतर गया. बस फिर चली और चार – पांच मिनट चलने के बाद अगले स्टॉप पर रूकी. दो मुसाफिर सवार हुए. उनके बस में घुसने के बाद एक आदमी उतरने के लिए उठ खडा हुआ. उस आदमी ने भी उसे ही देखते हुए कहा , “पानी की टंकिए पर उतरिएगा, एहीं उतरिए … बस पासे में हय टंकी।'' उसे बस से नीचे उतरने के लिए कहते हुए वह आदमी भी दरवाजे तक पहुंचकर यह देखने के लिए पलटा कि उसकी बात का कितना असर हुआ है. उसके लिए यह अजीब स्थिति थी. उसने पिछले स्टॉप पर उतरने वाले या इस जगह उतरने वाले दोनो आदमियों में से किसी से कोई बात तक नहीं की थी. किसी तरह की कोई सहायता भी नहीं मांगी थी इसके बावजूद दोनों ही सहायता करने पर तुले हुए दिखे. उसे अच्छा लगा कि हालात कितने भी बुरे क्यों न हो जाएं. आदमी और आदमी के बीच अविश्वास कितना भी गहरा क्यों न हो जाए फिर भी दुनिया में अच्छे और सहयोगी लोगों की कमी नहीं है. शायद इन लोगों ने उसे ड्रॉइवर से यह कहते सुना होगा कि पानी की टंकी पर रोकना. बस के गेट पर उतरने की कोशिश में लटकते आदमी से जब उसकी आंखें मिलीं तो वह भी आंखों ही आंखों में आश्वासन देते हुए उठ खडा हुआ कि उतर रहा है. अपरिचित आदमी तब तक नीचे उतर गया था. उसने अपना सूटकेस उठाया. कैमरा संभाला और सीट से उठकर उतरने के लिए खडा होकर अभी आगे बढने ही वाला था कि बस ड्रॉइवर के सामने लगे शीशे में उसकी आंखें ड्रॉइवर की घूरती आंखों से टकरा गईं. ड़्रॉइवर ने उसे आंख मारी. वह अचकचाया और फिर ठमककर रूक गया. बस फिर चल पडी ।
बस के चलते ही ड्रॉइवर ने उसे शीशे में देखते हुए कहा, “ आप बेवकूफे हो का ? ई सारे इस्टेशन से ही आपके पीछे लगे हंय अवर आप हो कि लुटने को तय्यार खडे हो… दुबई से आए हो न राजू !”
“नहीं तो।'' वह चौंका, ड्रॉइवर ने कैसे जाना कि वह दुबई से आया है।
''देखो बाबू , इहां रोज हजारों मुसाफिर देखता हूं…ई जो गले में सोने की चेन पहिने हो… बता रही हय कि दुबई का सोना है…हाथ में सी को फाइव की घडी … हर पांच मिनट पर डनहिल फूंक रहे हो… अवर ई केमरा…अ …अ …सब बता रहा हय कि आप बाहरी हो… समझे ! अवर ऊपर से ई बिदेसी अटइची…राजू ई मुगलसराय हय … सुना नाहीं कि सौ चाई पर एक मुगलसराई…अब जो लुटना ही चाहो तो उतर जाओ जहां सारे ई चाई कहें … नहीं तो इन्तजार करो…ज़ब पानी की टंकी पर पहुंचेंगे तो आपको उतार देंगे…अवर उतर के भी खयाल रखना… बसा में अभी कई ठो अवरों हंय…''
वह ड्रॉइवर की बातों से सनसना उठा. ड्रॉइवर ने तो सच ही कहा था. उसकी बेवकूफी सबकुछ उजागर कर रही थी लेकिन इसके बावजूद उसने ड्रॉइवर के सच को एक झूठ से मिटाने की अहमकाना कोशिश की, “ सुनो, मैं अखबार का रिपोर्टर हूं…तुम बस को किसी थाने या पुलिस चौकी के सामने खडा करो … मैं वहां से चला जाऊंगा।''
''राजू ई बनारस हय अवर इहां आदमी पहिचानने में ड्रॉइवर कउनों गलती नहीं करते … बाहरी हो … आप…ज़रा संभल के रहना…आंख से काजल चुरा लेते हैं लोग…अखबार में कभी रहे होगे लेकिन अभी तो दुबईए से ही आए दिखते हो…लो आ गई पुलिस चउकी… अवर सुनो…चउकी वाले भी किसी चाई से कम नहीं हंय…समझे …''
बस के रूकते ही उतरकर सामान संभालता हुआ वह सडक़ पर खडा होकर सोचने लगा कि अपनी मदद के लिए पुलिस चौकी में दाखिल हो या नहीं. उसे लगा कि यह देश ही चाइयों से भरा हुआ है. यह तमगा किसी एक जिले को ही क्यों ? और इन चाइयों के बीच वह एक ऐसा बाहरी आदमी है जो दुबई से न जानें कितनी मुहब्बतें लेकर छुट्टी पर अपनों से मिलने आया है,जिसे एयरपोर्ट से ही लूटा जा रहा है !
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उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जनपद के ग्राम कुंडाभरथ में 29 अगस्त 1954 को जन्म.कानपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में प्रथम श्रेणी में एम.ए.
सन् 1971 में पहली कहानी प्रका”शत , तब से अब तक लगभग सौ कहानियां देश की प्रायः सभी प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित .
‘मेरे गीत तुम्हारे हैं,’ ‘मेरे मुक्तक मेरे गीत’ , ‘मेरी लम्बी कविताएं’.
‘रेखा उर्फ नौलखिया’ , ‘पथराई आंखों वाला यात्री’ , ‘पारदर्शियां’ उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य .
‘दो औरतें’ , ‘पूरी हकीकत पूरा फसाना’ , ‘नातूर’ और ‘एक सिरे से दूसरे सिरे तक’ कहानी-संग्रह’ प्रकाशित.आत्मकथा - ‘सागर के इस पार से , उस पार से’ .
आठ एकांकी नाटकों का लेखन और बिरेन्दर कौर और सुभाष भार्गव के साथ निर्देशन .चर्चित कृतियों की समीक्षाएं , अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद , लेख , संस्मरण , रिपोर्ताज आदि विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित .
खाड़ी के देशों में पढ़ने वाले भारतीय छात्र-छात्राओं के लिए प्रवेशिका से आठवीं कक्षा तक की पाठ्य-पुस्तक ‘पुष्प-माला’ का लेखन . सहयोगी - डॉ. मोती प्रकाश एवं श्रीमती कांता भाटिया .बहुचर्चित कहानी ‘दो औरतें’ का नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा , नई दिल्ली द्वारा श्री देवेन्द्र राज ‘अंकुर’ के निर्देशन में मंचन .
अखबार से जीवन-यापन की शुरूआत , अध्यापन , आल इण्डिया रेडियो गैंगटोक से फिर अखबार में काम .
संप्रति अध्यापनसंपर्क - PO Box - 46492Abu DhabiUAE

5 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

बहुत अच्छी लगी ये कहानी श्रीकृ्ष्ण बिहारी जी को बधाई।

बेनामी ने कहा…

कृष्ण बिहारी को वर्षों से पढ़ रहा हूँ। बतकही की तरह कहानी को उठाते हैँ और थिसिस की तरह चिंतन की एक प्रक्रिया में पाठक को पहुँचा कर अलग हो जाते हैँ. इस कहानी में भी तृतीय पुरूष के माध्यम से वह एक आदमी की हमारे समय के बरक्स खड़ाकरके। नैतिकता के सवालों में उलझा लेते हैँ। एक अच्छी कहानी के लिए बधाई।- प्रदीप मिश्र इन्दौर।

प्रज्ञा पांडेय ने कहा…

पहले की पढ़ी हुई थी कहानी दुबारा फिर से पढ़ गए ! आप की भाषा सम्मोहित करती है जो कम से कम शब्दों में पूरा सजीव वातावरण चित्रित कर देती है और शुरू से आखिर तक पाठक को बाँध कर रखती है! दिल से बधाई !

Pran Sharma ने कहा…

Shri krishna Bihari kee kahani
" Baahri " mun ko nahin chhooye,
aesaa ho hee nahin sakta.kahani
mein bhasha-shailee ,shilp aur
kathavastu mein itnee taazgee aur
anoothapan hai ki main ise koee
rukaavat ke binaa 15 minutes mein
padh gyaa hoon.Shri Roop Singh
Chandel kaa dhanyawad ki unhonne
itnee sashakt kahani padhwaayee
hai.

प्रज्ञा पांडेय ने कहा…

पहले की पढ़ी हुई थी कहानी दुबारा फिर से पढ़ गए ! कृष्ण बिहारी जी की भाषा सम्मोहित करती है जो कम से कम शब्दों में पूरा सजीव वातावरण चित्रित कर देती है और शुरू से आखिर तक पाठक को बाँध कर रखती है! दिलसे बधाई.