बुधवार, 4 अप्रैल 2012

कविताएं









वरिष्ठ कवियत्री और कथाकार सुधा अरोड़ा की

दो कविताएं


दरवाज़ा - दो कवितायेँ

दरवाज़ा - एक

चाहे नक्काशीदार एंटीक दरवाजा हो
या लकड़ी के चिरे हुए फट्टों से बना
उस पर ख़ूबसूरत हैंडल जड़ा हो
या लोहे का कुंडा !

वह दरवाज़ा ऐसे घर का हो
जहाँ माँ बाप की रजामंदी के बगैर
अपने प्रेमी के साथ भागी हुई बेटी से
माता पिता कह सकें --
'' जानते हैं , तुमने गलत फैसला लिया
फिर भी हमारी यही दुआ है
खुश रहो उसके साथ
जिसे तुमने वरा है !
यह मत भूलना
कभी यह फैसला भारी पड़े
और पाँव लौटने को मुड़ें
तो यह दरवाज़ा खुला है तुम्हारे लिए ! ''

बेटियों को जब सारी दिशाएं
बंद नज़र आएं
कम से कम एक दरवाज़ा

हमेशा खुला रहे उनके लिए !
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(बांए से - मन्नू भंडारी,सुधा अरोड़ा और रूपसिंह चन्देल)






दरवाज़ा -- दो

जरी की पट्रटीदार रेशमी साड़ी पर
अपनी उंगलियां फिराते हुए
इतरा रही है !
राखी बांधकर
दिल्ली से लौट रही है बहन
अपने शहर सहारनपुर !

कितना मान सम्मान देते हैं उसे
कह रहे थे रुकने को
नहीं रुकी
इतने बरसों बाद जाने क्यों
पैबंद सा लगता है अपना आप वहां !

इसी आलीशान कोठी में बीता है बचपन
सांप सीढ़ी के खेल में जान बूझ कर हारती थी वह
हर बार जीतता था भाई
और भाई को फुदकते देख
अपनी हार का जश्न मनाती
उसके गालों पर चिकोटियां काटती
रूठने का अभिनय करती !

इसी कोठी की देहरी से
अपने माल असबाब के साथ
विदा हुई एक दिन
भाई बिलख बिलख कर रोया

इसी कोठी के सबसे बड़े कमरे में
पिता को अचानक दिल का दौरा पड़ा
और मां बेचारी सी
अपने लहीम शहीम पति को
जाते देखती रही

पिता नहीं लिख पाये अपनी वसीयत
नहीं देख पाये
कि दामाद भी उसी साल हादसे का शिकार हो गया
और बेटी अकेली रह गयी
इसी भाई ने की दौड़ धूप
दिलायी एक छत
जहां काट सके वह अपने बचे खुचे दिन !
पर छत के नीचे रहने वाले का पेट भी होता है
यह न भाई को याद रहा , न उसे खुद !

मां ने कहा - इस कोठी में एक हिस्सा तेरा भी है
तू उस हिस्से में रह लेना
सुनकर भाई ने आंखें तरेरीं
भाभी ने मुंह सिकोडा
और दोनों ने मुंह फेर लिया !

बस , उस एक साल भाई ने
न अपनी बेटी की शादी पर बुलाया
न राखी पर आने की इजाज़त दी
वकील ने नोटिस के कागज तैयार किये
उसने न मां की सुनीं ,
न वकील की
सांप सीढ़ी का खेल
नहीं खेलना उसे भाई के साथ
और नोटिस के चार टुकड़े कर डाले !
उसने कहा - नहीं चाहिये मुझे खैरात
मैं जहां हूं , वहीं भली
और अपने रोटी पानी के जुगाड़ में
बच्चों के स्कूल में अपने पैर जमा लिये
तब से वहीं है
अपने शहर सहारनपुर !

अब तो अपना एक कमरा भी कोठी सा लगता है ,
बच्चे खिलखिलाते आते - जाते हैं
कॉपी किताबें छोड़ जाते हैं
जिन्हें सहेजने में सारा दिन निकल जाता है
भाई ने अगले साल राखी पर आने का न्यौता दिया
बच्चे याद करते हैं बुआ को
और अब हर साल बड़े चाव से जाती है ,
उसके बच्चों के लिये
अपनी औकात भर उपहार लेकर !

जितना ले जाती है
उससे कहीं ज्यादा भाभी
उसकी झोली में भर देती है !
अब यह सिल्क की साड़ी ही
तीन चार हज़ार से कम तो क्या होगी ,
वह एहतियात से तह लगा देती है ,
अपनी दूसरी भतीजी की शादी में यही पहनेगी !

कितना अच्छा है राखी का त्यौहार
बिछड़े भाई बहनों को मिला देता है ,
कोठी के एक हिस्से पर

हक़ जताकर क्या वह सुख मिलता
जो भाई की कलाई पर राखी बांध कर मिलता है !
मायके का दरवाज़ा खुला रहने का
मतलब क्या होता है

यह बात सिर्फ वह बहन जानती है जो उम्र के इस पड़ाव पर भी इतनी भोली है

कि बहुत बड़ी कीमत चुका कर

अपने को बड़ा मानती है !

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1 टिप्पणी:

ashok andrey ने कहा…

chandel bhai tumne Sudha jee kii bahut achchhi kavita padvaii hai iske liye aabhar.