हम और हमारा
समय
समीक्षा : कल और आज
रूपसिंह
चन्देल
’कथाबिंब’ कहानी विशेषांक के संबन्ध
में दो दिन पूर्व एक वरिष्ठ आलोचक मित्र का फोन आया. कहानियों पर लंबी चर्चा हुई. बात आलोचना और समीक्षा पर आ टिकी. उन्होंने
स्वीकार किया कि आज दोनों ही चीजें मुंहदेखी हो चुकी हैं. हिन्दी का साहित्यकार गुटों
में विभक्त हो गया है और हर गुट केवल और केवल अपने गुट के रचनाकारों की ही चर्चा करता
है. दूसरे गुट को या तो पूरी तरह खारिज करता
है या चुप्पी साध लेता है. ऎसा एक दिन में
नहीं हुआ. उनके अनुसार आज जो कुछ हम देख रहे हैं उसके बीज नई कहानी के दौरान ही पड़
चुके थे. नई कहानी-त्रयी ने अपनों को स्थापित करने के लिए योजनाबद्ध रूप से कितने ही
प्रतिभाशाली कहानीकारों को उभरने नहीं दिया. हताश वे या तो हाशिए पर चले गए या उन्होंने
लिखना ही छोड़ दिया.
नई कहानी के दौर में एक और कथाधारा का
आविर्भाव हुआ था, जिसे आंचलिक कहानी कहा गया. नई कहानीकारों ने उसकी धार कुंद करने
के लिए वह सब किया जो वे कर सकते थे, लेकिन इस धारा के लेखक उनसे कहीं अधिक प्रतिभा
के धनी थे और जिद्दी भी कि वे सशक्त योद्धा की भांति अड़े रहे और नई कहानीकारों के वार
ही कुंद हो गए.
मैंने उन्हें टोका, “अपनों की पुस्तकों
पर अनुकूल समीक्षा तो सदैव लिखी जाती रही..”
उन्होंने कहा, ” यह सही है, लेकिन आज जैसी
अराजकता नहीं थी. हंस ने इस स्थिति को पर्याप्त बढ़ावा दिया. जिस दौर में हंस का सम्पादन
राजेन्द्र यादव ने संभाला वह वह काल था जब साहित्यिक पत्रिकाएं बंद हो रही थीं. राजेन्द्र
यादव अपनी आदत से विवश थे. नई कहानी दौर में उन्होंने जो किया था उन्होंने उसे दोहराना
शुरू कर दिया था.”
मैंने उन्हें टोका, “डॉ. साहब, हंस के
शुरूआती दौर में राजेन्द्र जी ने कितने ही युवा कथाकारों को प्रोत्साहित किया. मैं
स्वयं इसका उदाहरण हूं.” वह बोले, “आप ठीक कह रहे हैं. बाद में भी वह नए कथाकारों को
प्रोत्साहित करते रहे, लेकिन मैं समीक्षा की बात कर रहा हूं. हंस में कुछ समय पश्चात
उन्होंने अपने मन-चाहे लोगों को जो अवसर प्रदान किए उसने एक अलग तरह की राजनीति को
जन्म दिया. राजेन्द्र यादव को प्रसन्न करने के लिए आज के कई वरिष्ठ कथाकार और समीक्षक
उनके मनपसंद कथाकार की पुस्तकों पर लट्टू होकर लिखते थे. बताने की आवश्यकता नहीं कि
हंस में किस प्रकार यह सब होता था.” कुछ देर की चुप्पी के बाद उन्होंने कहा, “स्थिति
बहुत विद्रूप है.और बात केवल समीक्षा की ही क्यों, टोटल हिन्दी साहित्य की स्थिति अच्छी
नहीं.”
मैं बीच में ही बोला, “अपने एक मित्र से लेव तोलस्तोय ने कहा था कि आलोचकों की परवाह
नहीं करना चाहिए. पाठक सबसे बड़ा निर्णायक होता है. केवल पाठक का ही खयाल रखना चाहिए.”
“लेकिन आलोचक और समीक्षक की भूमिका से
इंकार नहीं किया जा सकता. समीक्षक लेखक की पुस्तक को पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से पाठक
तक पहुंचाता है. दोनों के बीच वह सेतु का काम
करता है. लेकिन यह भी सच है कि आज जिस प्रकार से समीक्षाएं लिखी जा रही हैं उससे पाठकों
के मध्य समीक्षक की छवि खराब हो रही है. कितने ही पाठकों को कहते सुना कि अमुक पुस्तक
की प्रशंसापूर्ण समीक्षा से प्रेरित होकर उसने पुस्तक खरीदी और अपने को ठगा हुआ अनुभव
किया.” क्षणिक विराम के बाद उन्होंने आगे कहा, “लेकिन आज भी कुछ समीक्षक ईमानदारी से
अपना समीक्षा कर्म कर रहे हैं और मित्रता निर्वाह से ऊपर उठ वह पुस्तक के बारे में
वही लिख रहे हैं जो पुस्तक की वास्तविकता होती है.”
-0-0-0-
और इस बार वातायन में ऎसे ही समीक्षकों की समीक्षाएं
प्रकाशित की जा रही हैं जिन्होंने बेलाग भाव से समीक्षाएं लिखी हैं. साथ में प्रस्तुत
है कथाबिंब कहानी विशेषांक लोकार्पण समारोह की रपट.
-0-0-0-
छः पुस्तकों
पर समीक्षाएं
प्रवासी
होने का दर्द’
डॉ.
मधु संधु
प्रवासी साहित्यकारों और विशेषतः ब्रिटेन
के प्रवासी साहित्यकारों में प्राण शर्मा एक लोकप्रिय एवं जाना पहचाना नाम है।
1965 से वे लंदन प्रवास कर रहे हैं। गज़ल कहता हूँ और सुराही काव्य रचनाओं तथा गज़ल पर
आलोचनात्मक आलेखों के बाद उनका छोटी बड़ी कहानियों का संकलन पराया देश हाल ही में प्रकाशित
हुआ है। इसमें उनकी 6 कहानियां और 46 लघुकथाएं संकलित हैं।
प्रवासी का दर्द इन कहानियों में यहां
वहां बिखरा पड़ा है। उसके दर्द के कई पहलू हैं…. कि पराए देश में वह सारी समताओं के
बावजूद न0 दो की हैसियत से जीने के लिए अभिशप्त है… कि वहां भारत के पिछड़े इलाकों की
गरीबी दिखाकर नई पीढ़ी के अंदर हीन भाव भरा जाता है……कि रंगभेद की सोच ने उन्हें सिर्फ
ब्लैक बास्टर्ड और पाकी बना कर रख दिया है…..कि वह भारत लौट भी आए तो बेकारी, गरीबी
और रिश्वतखोरी के भयंकर दैत्यों से वह लड़ नहीं पाएगा। उनकी पराया शहर का गणित
का अध्यापक सोलह साल पहले ब्रिटेन आया था। आज वह यहां बस ड्राईवर है। दो बच्चे और पत्नी
है। आर्थिक सम्पन्नता है, लेकिन नसलवादी सोच से मिलने वाला अपमान उसे क्षत विक्षत किए
है। सोचता है-जहां मान नहीं, इज्जत नहीं, वहां रहना ही क्यों….. पराए देश में सुख और
आराम से जीने से अपने देश में गरीबी में और भूखे रहना कहीं अच्छा है। (पृ. 10)
प्रवासी कभी लौट कर अपने देश में स्थायी
तौर पर नहीं आता। कभी पत्नी के कारण, कभी बच्चों की पढ़ाई के कारण, कभी वहां की सम्पन्नता
के कारण, कभी भारत की बेकारी, रिश्वतखोरी , कभी प्रवास में मिली सम्पन्नता और
सुविधाओं के स्तर पर पुनः स्थापित हो पाने- न हो पानेे की आशंकाओं आदि के कारण वह वहां
रहने के लिए अभिशप्त है।
प्रवास में मिली सम्पन्नता का अंकन ख्वाहिश
में भी है। यहां पैंसठ साल की उम्र में रिटायर होकर फिर से नौकरी ज्वायन करने वाले
ड्राइवर चेतन बाबू का अंकन है। भारत का यह अंग्रेजी का प्राध्यापक ब्रिटेन में बस कंडक्टरी
और ओवर टाइम से इतना कमा लेता है कि उसके पास महल जैसा घर, गाड़ी और लाखों पाउंड
का बैंक बैलेंस है। बेटे सैटल्ड हैं।
यह उस वेलफेयर स्टेट की कहानियां हैं
जहां लोग अनएम्प्लायमेंट बेनेफिट की रकम से भी गुजारा कर सकते हैं। पैंनशनरों के लिए
बस का किराया सिर्फ एक पैनी हे।प्रवासी होने के अभिमान, तमाम आधुनिकता, अर्थ सम्पन्नता
और आभिजात्य के बावजूद जब शादी की बात आती है तो प्रवासी बच्चों की शादी अपने देश के
लड़के लड़की से ही करना चाहते हैं। पंडित जी में पिता पंडित जी आयरिश लड़के से बेटी की
शादी करने से तो मर जाना बेहतर मानता है।
प्रवासी की वेदना का एक पक्ष यह है कि
भारत आने पर सभी दूर नजदीक के संबंधी लूटने लग जाते हैं। भारत यात्रा में दूर की बहन
और भांजे नायक को चंडीगढ़ बुला कर उसके कोट पतलून और कमीज की सारी जेबें खाली करने में
जुटे हैं।
प्रवासी को उस देश की अच्छी -बुरी संस्कृति
को स्वीकारना ही है जहां वह रह रहा है। हिदायत में चाचा ब्रिटेन में आए भानजे को हिदायत
देता है कि यहां न अखबार सांझा करते हैं, न चाय।
पराया देश में बहुत सी कहानियां भारतीय पृष्ठभूमि की हैं और कुछ ऐसी बातें भी हैं, जो दोनों देशों में समान है। एक थैली के चट्टे बट्टे में शिक्षाधिकारी आनंद संपादक उदयनाथ के बेटे की नौकरी लगवाते हैं और उदयनाथ उनके नाम पर किताब लिखवा छपवा देते हैं। ख्वाहिश के चेतन बाबू ब्रिटेन की धरती पर ओवर टाइम के लिए शराब की बोतल या सिगरेट के पैकेट उपहार में दिया करते हैं। इसे वे बुरा नहीं समझते। क्योंकि लेना देना तो आदि काल से चला आ रहा है।आस्था- अनास्था के बीच की स्थितियां और जैनेन्द्र कुमार की कहानियों जैसी दार्शनिकता भी इन कहानियों में मिलती हैं।
पराया देश में बहुत सी कहानियां भारतीय पृष्ठभूमि की हैं और कुछ ऐसी बातें भी हैं, जो दोनों देशों में समान है। एक थैली के चट्टे बट्टे में शिक्षाधिकारी आनंद संपादक उदयनाथ के बेटे की नौकरी लगवाते हैं और उदयनाथ उनके नाम पर किताब लिखवा छपवा देते हैं। ख्वाहिश के चेतन बाबू ब्रिटेन की धरती पर ओवर टाइम के लिए शराब की बोतल या सिगरेट के पैकेट उपहार में दिया करते हैं। इसे वे बुरा नहीं समझते। क्योंकि लेना देना तो आदि काल से चला आ रहा है।आस्था- अनास्था के बीच की स्थितियां और जैनेन्द्र कुमार की कहानियों जैसी दार्शनिकता भी इन कहानियों में मिलती हैं।
इस ब्रह्मंड का रचयिता अगर ईश्वर है तो उसका रचयिता भी तो कोई होगा। वह कौन है ? वह दिखाई क्यों नहीं देता है ?(पृ. 43)
छुट्टी और मेरी नैय्या पार लगाओ में
भी आस्था अनास्था के बीच के स्वर मिलते हैं। तीन लंगोटिया यार में गोरे, काले, भूरे
सबको लगता है कि ईश्वर उन्हीं के रंग का है।
पुरुष सत्ताक समाज की मानसिकता इन कहानियों/लघु कथाओं में यहां-वहां बिखरी पड़ी है। भगवान से संतान के रूप में हमेशा बेटा ही मांगा जाता है, बेटी नहीं। पहला बेटा जन्म ले या तीसरा, हर बार मां बाप की खुशी बढ़ती ही जाती है, जबकि बेटी के संदर्भ में स्थितियां और सामाजिक मानसिकता विपरीत है। वो होता है जो मंजूरे खुदा होता है में बेटी की आकांक्षा रखने वाले पिता के लिए भी तीसरी बेटी का जन्म निराशा, हताशा, बेबसी ही लेकर आता है।
प्राण शर्मा वैयक्तिक जीवन में कुछ देर
फिल्मों से भी जुड़े रहे हैं। ऐसे में उनकी कुछ कहानियों में किसी न किसी रूप में फिल्म
जगत का भी उल्लेख है। फिर मिलेंगे में रंगमंच अभिनेता धीरज अपनी सारी योग्यताओं और
जान पहचान के बावजूद मुंबई में सफल नहीं हो पाता और जब अवसर उसका द्वार क्षटखटाता है
तो बहुत देर हो चुकी होती है। लघुकथा स्टार का धीरज एक हिट फिल्म देने के बाद फ्लाप
ही रहता है। यानी मुंबइया संसार में पांव जमाने और उन्हें बरकरार रखने के चेष्टाओं
की सफलताएं-असफलताएं यहां चित्रित हैं।
पुरुषसत्ताक की आत्मरति, पुरुष मनोविज्ञान
या वृद्धों की लौलुप वृत्ति उनकी तीस साल का संबंध में देखी जा सकती है। यहां
नायक मोहन लाल चौबीस और छब्बीस साल के विवाह योग्य बेटे होने के बावजूद पत्नी की मृत्यु
के दो महीने बाद ही पुनर्विवाह के लिए गर्दन हिलाने लगते हैं। अगर करोड़ों की जायदाद
हो तो आकांक्षा की तरह पैंसठ की उम्र में भी तीस की लड़की मिल जाती है। सच झूठ के युवक
सैर के लिए नहीं, लड़कियों की तांक झांक करने पार्क में आते हैं। बेचारा दीपक का काव्य
प्रेम काव्य से न होकर कवयित्राी के यौवन से है। दुष्कर्मी में सहेली का पिता दीपिका
से दुष्कर्म करता है। मेरी बात और है का पति पत्नी का पड़ौस में जाना भी बर्दाश्त नहीं
कर पाता।
अर्थ का जीवन में विशेष महत्व रहता है।
वाह री लक्ष्मी में पति पत्नी के बीच सदैव तूं तूं मैं मैं इसलिए रहती है कि पति को
लाटरी जुए की लत हैं लेकिन जैसे ही पति की लॉटरी निकलती है, पत्नी की खुशी की सीमा
नहीं रहती। दाता दे दरबार विच के पंडित नरदेव भक्तों से पैसे निकलवाने में माहिर है।
अर्थ छोटे बड़े सब के मन को डांवांडोल कर देता है। कैरोल में वर्षों पुरानी नौकरानी
का मन भी सोने की बालियां देख बेईमान हो जाता है। फीस में शिक्षा का बाजारीकरण चित्रित
है।
राजनीति के बाजारीकरण के चित्रा भी यहां
मिल जाएंगे। सुरक्षाकर्मी में पी. के. शर्मन को सुरक्षाकर्मी इसलिए मिलते हैं कि वे
देश की प्रमुख पार्टी को हर साल करोड़ रूप्ए देते हैं- यही राजनीति कहती है और यही राजनेता
और प्रशासन कहता है, अन्यथा जान की धमकी तो छोटे कर्मचारियों को भी मिलती रहती है।
जननायक में अर्थ के आधार पर प्रजा जुटा कर नायक अपने लिए उपाधि का आयोजन करता हैं।
यह दुनिया संबंधों की नहीं असंबंधों की है। प्यार की नहीं स्वार्थ की है। आसक्ति की नहीं अनासक्ति की है। इसका उदाहरण उनकी नेकी कर कुएँ में डाल लघुकथा है।
संबंधों के बीच की सकारात्मक स्थितियों
से भी उनकी कहानियां लबरेज हैं। उनके अनेक पात्रा मानवीय आसक्ति और भावनात्मक जुड़ाव
लिए हैं। फिर मिलेंगे का धीरज प्रेमिका श्रुति के चले जाने के कारण फिल्मों का
आफॅर छोड़ लौट आता है। सन्तान की सफलता की मां बेटी के प्रथम आने की सूचना सुन आसन्न
चोट को भूल उसे गले लगाने को विकल हो उठती हैं। मॉं बाप का साया में स्पष्ट है
कि जब तक मां बाप जिंदा रहें, बच्चों को बांधे रहते हैं। बहुत सी कहानियां उन मित्रों
के वर्णन से भरी पड़ी हैं, जो भारत से नायक के पास इंग्लैंड आते हैं और अपने सास्कृतिक
सभ्याचार से उसका मन जीत लेते हैं।
जीवन की हर छोटी-बड़ी घटना-दुर्घटना, समस्या, आकांक्षा इन कहानियों में चित्रित है। सन्तोष में स्पष्ट है कि व्यक्ति की श्ख्वाहिशें अगर लगातार पूरी होती जाएं तो बढ़ती ही जाती हैं। आधुनिकता और फैशन को अपनाना सदैव सहज और सुखद होता हैं फैशन में गांव से आई दादी मां पोते से अपने लिए ग्रैंड मम संबोधन सुनना चाहती है। हिपोक्रेट में दलित प्रसंग, जातिवाद और चरित्रा का दोगलापन है। यहां शबरी की कथा सुना वाहवाही लूटने वाले पंडित जी कभी किसी दलित के यहां पूजा के लिए नहीं जाते। मजबूरी का नायक युवावस्था में गरीबी के कारण और बुढ़ापे में बीमारियों के कारण मन पसंद खानपान से वंचित रहता है। पहेली में व्यंग्य साहित्यकारों पर है। यहां साहित्य जगत में छपने और प्रशंसा पाने के हथकंडे हैं।
हर कहानी एक चुन्नौती है, विरोधाभास
लिए है। वैयक्तिक सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक कोई पक्ष छूटा नहीं है। यहां व्यंग्य है,
पर आक्षेप नहीं। रोजमर्रा की छोटी छोटी बातें और बड़े जीवन सत्य एक साथ साकार हुए हैं।
पराया देश एक सफल लघुकथाकार और मंजं हुए कहानीकार की सशक्त रचना है। साहित्य जगत की
उपलब्धि है।
प्रकाशक : मेधा बुक्स, दिल्ली-32
वर्ष : 2012,पृष्ठ :128,मूल्य : 200 रुपए
डॉ0
मधु संधु
3, प्रीत
विहार, पोस्ट आफिॅस -आर0 एस0 मिल, जी0 टी0 रोड, अमृतसर, पंजाब।
-0-0-0-
ये घोर आसक्ति में डूबने के बाद विरक्ति की ओर ले जाती- हुई कहानियां
हैं
प्रज्ञा पाण्डेय
कथाकार
कृष्ण बिहारी लगभग 30 सालों से आबुधाबी में रह रहे हैं . अपनी 'बोल्ड' कही जाने वाली
कहानियों के कारण चर्चित और विवादित कृष्ण बिहारी के पास लगभग दो सौ कहानियां हैं जो
सात कहानी संग्रहों में संग्रहीत है .कृष्ण बिहारी के पास उपन्यास ,गीत, कवितायेँ एवं
पत्रकारिता के दौर में लिखे गये अनेकों खोजपरक लेख और लेख मालाएं हैं इसके अतिरिक्त
इनकी आत्मकथा का दूसरा भाग 'सागर के इस पार से पार से उस पार से 'ईमानदार अभिव्यक्तियों
का दस्तावेज है (पहला भाग आना बाकी है ).कृष्ण बिहारी स्क्रिप्ट -लेखन,नाटक -निर्देशन
के अतिरिक्त विदेश में रहते हुए 'निकट 'पत्रिका का सम्पादन जैसा महत्वपूर्ण कार्य भी
लगभग आठ वर्षों से अनवरत करते हैं।
कृष्ण
बिहारी की ' बोल्ड 'कहानियां दरअसल ऐसे 'सचों ' की कहानियां हैं जिन्हें हम जानते-बूझते
हुए अनदेखा करते हैं। . इन की कहानियों के विषय समाज का हर वर्ग है .इनके पात्र हाशियों
पर खड़े लोग हैं ,बच्चे हैं और स्त्रियाँ हैं .इसमें कोई संदेह नहीं कि स्त्रियाँ बहुतायत
से हैं . आधी आबादी का पर्याय एक नाम स्त्री है . स्त्री पृथ्वी पर जीवन के हर पक्ष
में इस तरह समाती है कि उसके बिना सुबह नहीं होती न हीं शाम होती है .
शिल्पायन
प्रकाशन से आयी 'दो औरते और तीन कहानियां ' संग्रह कृष्ण बिहारी का नया कहानी संग्रह
है .इस संग्रह की कहानियों के केंद्र में भरपूर दैहिक सौन्दर्य से युक्त किन्तु मन
की ज़मीन पर बिखरी , आधुनिक होती हुई भी पुरातन , बोल्ड एवं बेहद जिम्मेदार स्त्रियाँ
हैं . ईमानदार और संवेदनशील कथाकार होने का दायित्व निभाते हुए कृष्ण बिहारी स्त्री
को उसके अन्तरंग रूप में चित्रित करते हैं . स्त्री को विषय बनाकर उनकी अनेकानेक कहानियां
हैं बल्कि यह कहा जा सकता है कि स्त्रियाँ उनकी कहानियों की धुरी हैं . यहाँ मैं उनकी
एक कहानी ' इंतज़ार 'का नाम लेना चाहूंगी जिसमें प्रगल्भ मन और छलकती देहयष्टि की स्वामिनी
चाची अपना पूरा जीवन अपने जीवनसाथी,अपने प्रियतम के लिए हुटुक हुटुक कर जीती हैं और
प्रतीक्षा कर थक हार कर एक दिन अनाकर्षक काया भर रह जातीं हैं.
कृष्ण
बिहारी की कहानियों में देह भरपूर है .वे प्रेम में देह की उपस्थिति को बेहद ज़रूरी
मानते हैं . वे देह के बिना प्रेम की अवधारणा को खारिज करते हुए अपने एक लेख 'प्रेम
गली अति सांकरी ' में लिखते हैं 'मैं इसे कभी भी स्वीकार नहीं कर सकता कि प्रेम में
वासना का कोई स्थान नहीं है .मैं न स्वयं से झूठ बोल सकता हूँ और न दूसरों से '.कृष्ण
बिहारी की कहानियां सच की कडुवी हकीकतों में रचती बसतीं हैं वे सच का दामन नहीं छोड़ते
और अवधारणायें टूट जाती हैं .जड़ता को तोड़ना ही तो लेखन का उद्देश्य भी कहा गया है।
इस निकष पर उनकी कहानियां खरी खरी सुनाती हुई लगती हैं लेकिन मानव मन भी तो विचित्र
है वह वही स्वीकारता है जो उसके मन को सुख देता है और भाता है, अक्सर मनुष्य सच को
जानते बूझते भी उसे स्वीकार करने के औचित्य को भी नहीं मानता है . यही कारण है कि कृष्ण
बिहारी की कहानियां पढ़ी जातीं हैं चर्चित होती हैं बहस का मुद्दा भी बनती हैं पर स्वीकारी
नहीं जाती हैं . ये कहानियां समय से आगे की कहानियां हैं .लब्धप्रतिष्ठ लेखक अमरीक
सिंह दीप लिखते हैं 'मंटो और अल्बर्ट मोराविओ की कहानियां जिस सत्य को एक मुकाम पर
पहुंचाकर छोड़ देती हैं कृष्ण बिहारी की कहानियां उससे आगे की यात्रा करतीं हैं फिर
भी एक साम्य इन तीनों रचनाकारों में मिलता है .तीनों औरत में एक गुण देखना चाहते हैं
जिसे हम औरतपन कहते हैं'.
दो
औरतें और तीन कहानियां इस संग्रह में कुल चार लम्बी कहानियां है . पहली कहानी 'दो औरतें
' जो बेहद विवादित होने के साथ खासी चर्चित कहानी है, के अतिरिक्त इस संग्रह में तीन
और कहानियां हैं अंततः पारदर्शी ,प्यास और खुशबू का सफ़र ,एवं मुजस्समा। हर कहानी में
स्त्री देह और उसका आदिम मन हर परम्परा को ख़ारिज करता हुआ अपना वर्चस्व कायम करता है.जब
देह की बात हो तब किसी आदर्श की बात नहीं हो सकती और जब आदर्श की बात न हो तो किसी
भी झूठ की संभावना बहुत कम बचती है .कृष्ण बिहारी की इन कहानियों में स्त्री देह के
अंग-प्रत्यंग की बेबाक चर्चा उसको सौन्दर्य से विभूषित सम्पूर्ण स्त्री बना देती है
और स्त्री देह के प्रति जागृत कुंठाजनित तमाम जिज्ञासाओं का पटाक्षेप कर देती है .इन
कहानियों में देह परत दर परत खुलती जाती है और उसके साथ मन में बसी सदियों से थहाई
हुई स्त्री-पुरुष जनित इच्छाओं और वासनाओं की गाँठ खुलती है . इन कहानियों में दुर्लभ
और पर्दानशीं औरत सुलभ और बेपर्दा है वह हाड मांस से बनी हुई मनुष्य है जिसमें इच्छाए,
कामनाएं ,तमाम कमजोरियां,उसकी कदम कदम पर चोटिल अस्मिता और विवशताओं के खुरदुरे एहसासों
में घुली अंतहीन प्यास है.
दो
औरतें कहानी दो काल गर्ल्स की कहानी है .उनमें भी वही आदिम औरत मौजूद है जिसमें एक
का प्रेमी उसके आने का इंतज़ार करता हुआ कहीं बैठा है और दूसरी काल गर्ल अशालीन और मुंहफट
होती हुई भी अपने बच्चों के लिए देह का सौदा करती चलती है.इस कहानी की विशेषता यह है
कि देह देकर और अपना पैसा लेकर निकल लेने को आतुर इन स्त्रियों को लेखक का किरदार उनकी
देह छुए बिना ही ससम्मान उन्हें वापस भेज देता है और उनके समय के बदले में उनको वाजिब
कीमत देता है . वे पेशेवर स्त्रियाँ अचंभित हैं क्योंकि वे ऐसी संवेदना से पूर्णतः
अनभिज्ञ हैं वे दुनिया के सबसे पुराने व्यवसाय में आकंठ डूबी हुई सिर्फ अपना काम करतीं
हैं अपने बच्चों को पालने की संवेदना को जानते हुए भी अपनी तथाकथित अस्मिता से पूर्णतः
अनजान हैं .कृष्ण बिहारी की कहानियों में ऐसे सच कुरेदे जाते हैं.
अंतत
पारदर्शी कहानी अपने शीर्षक में शीशे सी उतरती है .कहानी की नायिका नायक से कहती '
वह उससे प्रेम नहीं करती 'लेकिन इसके साथ ही वह अपने मन का सच भी कहती है . वह कहती
है 'मैं किसी से प्रेम नहीं करती है बी० के ० क्या मैं अपने बच्चों से भी प्रेम नहीं
करती' .ऐसा गूढ़ है स्त्री का मन लेकिन पुरुष का मन भी कृष्ण बिहारी की कहानियों में
बिना लाग लपेट के खुलकर आता है .अंततः पारदर्शी में वे लिखते हैं 'यदि वह सब कुछ छोड़कर
मेरे पास चली आये तो क्या मैं उसे आगोश में लेकर सारी सुरक्षाएं और हक दे सकूंगा। तब
मेरे मन का सच क्या है ?यह कि मैं उसे दैहिक स्तर पर भोगना चाहता हूँ ?'पुरुष का सच
यही है .इस बात को बार बार वे अपनी कहानियों में लाते हैं .पुरुष का भोग में लिपटा
मन जगह जगह उघड़ता है . वे पुरुष के अहम् की रक्षा कहीं नहीं करते, तब क्यों न कहा जाए
की उनकी कहानियां स्त्री विमर्श की कहानियां भी हैं .
तीसरी
कहानी 'प्यास और खुशबू का सफ़र ' अलग आस्वाद की कहानी है . अरब देशों में जहाँ दूसरे
देशों से काम के बहाने से लायी गयी स्त्रियाँ जिस्मफरोशी के धंधे में धकेल दी जातीं
हैं जो माँ कभी शिक्षिका हुआ करतीं थीं वे किस तरह देह के व्यापार में निपुण हो गयीं
हैं किस तरह मन में रिश्तों के द्वंद्व को जीने के लिए विवश होकर नारकीय यंत्रणा से
बाहर आना चाहती हैं। वे प्रेम के मामले भी अपने अनूठे ढंग से निबटाती हैं . देह की
मृगतृष्णा में डूबी यह कहानी वेश्या-जीवन के नरक का नग्न साक्षात्कार कराती है.
इस
संग्रह की चौथी कहानी मुजसस्मा जिसका अर्थ है बुत . अशफां एक शादीशुदा लड़की जिसके लिए
शादी सज़ा है . यह संवाद विवाह की घुटन और उसकी त्रासदी की सही तस्वीर खींचता है. 'मैं
यहीं ठीक हूँ दलीप साहेब प्लीज़ . असलियत से मुंह न मोड़ें .हम दोनों शादी शुदा हैं
. हमारे बच्चे हैं .एक बार खाविंद को पता चल जाए कि उसकी बीबी दूसरे मर्द को पसंद करने
लगी है तो उतना फर्क नहीं पड़ता जितना बच्चों को पता चल चले कि उनकी ने किसी गैर मर्द
से रिश्ते बना लिए हैं'
ऐसा
कहने वाली अशफां यह भी काह्ती है मर्द होने का एहसास कराये बिना आप लोग मानते नहीं
, हालाँकि मर्दानगी सिर्फ अहम् के अलावा और कुछ भी नहीं .' ऐसे बेबाक सचों को कैसे
नकारा जाये . यह कहानी विवाह की व्यवस्था पर एक टीस और दर्द भरा निर्मम व्यंग्य है.
कृष्ण
बिहारी के इस संग्रह को पढ़ते हुए निर्मम सच सामने आकर साकार बोलते हुए मिले .ये सेक्स
और कामुकता की कहानियां नहीं उनकी व्याख्या करने वाले मनोविज्ञान की कहानियां है. ये
घोर आसक्ति में डूबने के बाद विरक्ति की ओर ले जाती- हुई कहानियां हैं.
प्रकाशक – शिल्पायन,मूल्य -२२५. ००,पृष्ठ संख्या-१४४
प्रज्ञा पाण्डे
89 lekhrajnagina, third
floor,
c block indira nagar,
Lucknow. Pin 226016
मो. ०९५३२९६९७९७
-0-0-0-
ऐसी होनी चाहिए कहानियां
डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
माधव
नागदा के अब तक प्रकाशित तीन कहानी संग्रहों ‘उसका दर्द’, ‘शाप मुक्ति’ और
‘अकाल और खुशबू’ से स्वयं कथाकार द्वारा चुनी हुई तेरह कहानियों का एक सुरुचिपूर्ण
संकलन ‘परिणति तथा अन्य कहानियां’ हाल ही में बोधि प्रकाशन ने प्रकाशित
किया है. श्री नागदा 1976 से चुपचाप, बिना किसी शोर-शराबे के कहानियां लिख रहे
हैं. भूमिका में उन्होंने कहा है कि वे ‘आस-पास के साधारण- से दिखने वाले लोगों की
साधारण–सी कहानियां और भाषा भी वैसी ही’ लिखते रहे हैं. इस संकलन की सारी कहानियां
उनके इस कथन की पुष्टि करती हैं. संकलन में कहानियां प्रकाशन वर्ष के क्रम से
विपरीत क्रम से दी गई है, अर्थात बाद में प्रकाशित कहानी पहले दी गई है. लेकिन मैं
उनकी कहानियों पर प्रकाशन क्रमानुसार ही चर्चा करना चाहता हूं, ताकि एक कहानीकार
के रूप में माधव नागदा का विकास भी रेखांकित हो सके.
माधव
नागदा की पहली प्रकाशित कहानी ‘शवयात्रा’ धर्म के नाम पर किए जाने वाले शोषण की
बहुत मार्मिक किंतु परेशान करने वाली कहानी है. स्वाभाविक है कि इसे पढ़ते हुए
प्रेमचन्द की कई कहानियों की याद ताज़ा हो आती है. गांव का एक बहुत साधारण इंसान
बिरजू मर जाता है और धर्म के ठेकेदार उसकी लाश को जलाने की अनुमति देने से
पहले उसके बेहद दरिद्र बेटे सरजू का भरपूर दोहन कर लेना चाहते हैं. कहानी
घटना-दर-घटना आगे बढ़ती है और पाठक को विचलित करती है. कहानी में रचनाकार का सोच इस
रूप में सामने आता है कि वह सरजू को उन नर पिशाचों के सामने घुटने टेकते नहीं
दिखाता, बल्कि अपनी तरह से उनका प्रतिकार करते दर्शाता है.
इसी
तरह ‘साफ़ पानी की तलाश में’ कहानी में एक भ्रष्ट रोडवेज़ अधिकारी चौहान की बेटी की
शादी की चम-दमक के बीच नौकरी से हटाये हुए और इसलिए दिलजले एक कण्डक्टर मेवालाल की
तीखी टिप्पणियों और उन पर अन्य लोगों की प्रतिक्रियाओं के माध्यम से समाज में बढ़ते
जा रहे भ्रष्टाचार और उसके प्रति लोगों की उदासीनता, और एक हद तक उसकी स्वीकृति के
भाव को प्रस्तुत किया गया है. ‘उसका दर्द’ कहानी में एक श्रमजीवी मोतीभाई
ताले वाले की व्यथा कथा है. तकनीक में आते जा रहे बदलाव किस तरह मेहनतकश लोगों को
बेरोज़गर करते जा रहे हैं, यह बताने के साथ ही यह कहानी दिखावा करने वाली राजनीति
और उसके कुप्रभावों को भी सामने लाती है. हर तरह की मेहनत करके अपने छोटे-से
सपने को साकार करने की आस लगाए रखने वाले मोतीभाई के पेट पर नेता जी की सभा कैसे
लात मारती है, यही इस कहानी का कथ्य है. लेकिन यहां सांकेतिकता अधिक है. यहां लेखक
ने हनुमान जी से मोतीभाई के संवाद के बहाने हास्य का भी संचार करने का सफल प्रयास
किया है. देखें यह अंश: ‘जे हड़ुमान ग्यान गुन सागर’ एकाएक मोतीभाई उछलकर वीरासन
में बैठ गया. हाथ जोड़े और कातर आंखों से तस्वीर की तरफ ताककर धीमे-धीमे बुदबुदाने
लगा, ‘जे हड़ुमान ग्यान गुन सागर, मेरी तमन्ना पूरी कर, बीबी को तू चंगा कर, दुकान
मालिक से दंग अकर, राजू को आगे पढ़ा, पैसों का जुगाड़ भिड़ा, बेटी बड़ी हो रही है,
मेरी खाट खड़ी हो रही है, उसका भी तू ध्यान लगा, मेरी बात पे कान लगा.’
मोतीभाई ने लगभग चालीस मांगें गिना दी. हनुमान जी भी परेशान थे. पहले मांगों की
संख्या बहुत कम थी, पर जैसे ही वे भूले से कोई मंजूर करते, मोतीभाई
पाँच और मांगें पेश कर देता. हनुमान जी के लिए मोतीभाई उग्रवादी से कम
नहीं था, इसलिए उन्होंने अब उसकी ओर से अपनी आंखें मूंद ली थीं.(पृ. 115-116)
इस
किताब की तमाम कहानियों से अलग कहानी है ‘मुक्ति पथ’. यह एक बैल थावरा की कहानी
है. बहुत मार्मिक. बदलता समय और बदलती अर्थव्यवस्था अगर पिछली कहानी के मोतीभाई को
प्रतिकूलत: प्रभावित कर रहे हैं तो यहां भी वैसा ही कुछ हो रहा है. एक छोटे-से
गांव का तेली तेल निकालने के काम के लिए इस थावरा नामक बैल का इस्तेमाल करता
है. लेकिन समय के बदलने के साथ तेली का यह काम उसके हाथ से निकल जाता है. विवश हो
वह अपने इस बैल को बेचने का फैसला कर लेता है. लेकिन जो बदलाव तेली के लिए
मारक है, विडम्बना की बात यह है कि वही बदलाव थावरा बैल के लिए ‘मुक्ति’
दाता है. तेली उसके साथ जैसा सुलूक करता था, उसे लगता है कि नए मालिक के यहां उसके
साथ शायद बेहतर सुलूक होगा. अनायास ही प्रेमचन्द की ‘पूस की रात’ याद
आ जाती है.
और इस
कहानी से भिन्न स्वर है ‘धोळो भाटो लीलो रूंख’ का. यहां ग्रामीण जीवन का कटु
यथार्थ तो है ही साथ ही है हमारे पुलिस थानों की वो अमानवीय व्यवस्था भी जो चोट
खाये हुए को कोई राहत देने की बजाय और ज़्यादा दर्द देती है. कहानी में एक ग्रामीण
स्त्री अपने पति के कहने पर पड़ोसी मगना के विरुद्ध बलात्कार की झूठी
शिकायत करने को विवश की जाती है. कहानी का सारा दंश इस बात में है कि असल ज़िन्दगी
में भले ही उसके साथ कोई बलात्कार नहीं हुआ, अदालत में प्रश्न पूछ-पूछ कर
अवश्य ही उसे बलात्कृता बना दिया जाता है. ‘बूढ़ी आंखों के सपने’ कहानी में एक घर
में टी वी आने के बहाने से दो पीढ़ियों के सोच के तकराव को उभारा गया है. वृद्ध
रामाबा नहीं चाहते कि घर में टी वी आए, जबकि उनका बेटा मदन हर बदलाव के साथ चलने
का हामी है. वैसे ज़्यादा सही यह कहना होगा कि वह बाज़ार में आने वाली हर चीज़ को लपक
लेने को आतुर है. असल में यह कहानी सिर्फ टी वी की कहानी न रहकर बिना सोचे समझे
बदलाव को आत्मसात करने की मानसिकता पर प्रश्न चिह्न की भी कहानी है और यही
इसकी खूबसूरती है कि बिना कहे यह कहानी अपना यह काम करती है. बदलाव को ही पहचानने
और उस पर सवाल खड़े करने की कहानी है ‘कपाल क्रिया’ जो इस संकलन की पहली, अर्थात
कहानीकार की सबसे ताज़ा कहानी है. यहां भी दो मुख्य चरित्र हैं, पिता किशना और
पुत्र सत्यनारायण. पिता का अपनी ज़मीन के प्रति सहज स्वाभाविक मोह और बेटे का
सुविधा और समझौतापरस्त नज़रिया. टकराव तो होना ही था. बेटे को अपने कैरियर की
चकाचौंध में पिता का टूटता मन नज़र ही नहीं आता और वो जैसे जीते जी ही उनकी कपाल
क्रिया कर चुका होता है.
‘छिलके’
कहानी को एक भिन्न अर्थ में दलित विमर्श की कहानी कहा जा सकता है. मेरा ज़ोर यहां
विमर्श पर है. यह अन्ध दलित समर्थन की कहानी नहीं है, जैसा कि दलित विमर्श के नाम
पर इधर प्राय: देखने को मिलता है. यहां एक गांव में आ रही बदलाव की
बयार की पृष्ठभूमि में स्वयं दलित समाज के बहुत सारे अंतर्विरोधों को सामने लाया
गया है. लेखक ने न गांव के ठाकुरों को बख़्शा है और न दलितों को. ठाकुरों के लिए
लेखक की एक ही पंक्ति को याद कर लेना पर्याप्त होगा: “ज़माना भाग रहा था इक्कीस
में, ये जाम हो गए थे बीस के अधबीच.” (पृ. 53) लेखक का मानना है कि गैर
बराबरी के विरुद्ध लड़ाई लम्बी चलेगी. उसने एस डी ओ के मुंह से दलितों को कहलवाया
है, “आरंभ को अंत समझने की भूल कभी मत करना.” (पृ.64)
जिस
तरह ‘छिलके’ को दलित विमर्श की कहानी कहा जा सकता है, उसी तरह ‘आत्मवत
सर्वभूतेषु’ को स्त्री विमर्श की कहानी कहा जा सकता है. यह कहानी बहुत सहज तरह से
स्त्री की नियति को उजागर करती है और बताती है कि धर्म चाहे जो हो, स्त्री को तो
हर जगह लुटना ही है. कहानी का स्वर पहले ही पैरेग्राफ में लेखक के एक वर्णनात्मक
वाक्य से स्थापित हो जाता है. सुलेमान एण्टरप्राइजेज़ के साइन बोर्ड का वर्णन
करते हुए वह कहता है: “जो भी हो, अपने स्थान से डिग कर काफी टेढ़ा हो गया
साइनबोर्ड उस सध: विधवा की याद दिला रहा था जिसके सुहाग का सिन्दूर समाज के बेरहम
ठेकेदारों ने निर्दयता से पोंछ दिया था.” (पृ. 27)
संग्रह
की एक और कहानी की चर्चा मुझे ज़रूरी लग रही है और वो है ‘परिणति’. लेखक भी अपनी इस
कहानी को महत्वपूर्ण मानता है तभी तो उसने अपने इस संकलन के शीर्षक में इसका
इस्तेमाल किया है. इस कहानी की चर्चा से पहले मैं यह बात याद करना चाहूंगा कि माधव
नागदा ने अपने इस संकलन के लिए कहानियों का चुनाव बहुत सोच-समझ कर किया है. कोई भी
दो कहानियां एक-सी नहीं हैं. कथ्य और उनके निर्वहन के लिहाज़ से हर कहानी शेष
कहानियों से अलग है. इस तरह यह संकलन हमें माधव नागदा की सृजन क्षमता का
बेहतरीन साक्षात्कार करवा पाता है. ‘पारिणति’ में कोई विमर्श नहीं है. बहुत सीधी-सरल
कहानी है यह. पवन और मेघा, या अगर उन्हें उनके असली नामों से जानना चाहें तो राहुल
और पारुल – आज के इस निर्मम समय में इन दो युवाओं के जीवन संघर्ष की ग़ैर मामूली
कहानी है यह. ‘समय की जेब से खुशी के कुछ पल चुरा’ लेने को व्याकुल ये युवा पाठक
को इस तरह से भीतर तक छूते हैं कि बरबस ही कहानीकार के कौशल के प्रति वाह निकल
पड़ती है. जीवन की बहुत छोटी खुशियां भी आज किस तरह हमारी पकड़ से दूर हो गई
हैं, यह सोचकर मन बेहद उदास हो जाता है.
माधव
नागदा की इन सारी कहानियों की किसी एक विशेषता का चुनाव मुझे करना हो तो मैं कहूंगा
कि सादगी इन कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता है. लेखक न शिल्पगत पच्चीकारी करता है
और न किसी चौंकाने वाले घटनाक्रम का विन्यास करता है. न वह भाषा का जाल बुनता है
और न किसी वैचारिक विमर्श से अपने पाठक को आतंकित करने की कोशिश करता है. लेकिन
फिर भी उसकी कहानियां सीधे आपके मर्म तक पहुंचती हैं. मुझे लगता है कि कहानियों को
ऐसा ही होना चाहिए. ये कहानियां लेखक के विकास को भी रेखांकित करती हैं और हम पाते
हैं कि क्रमश: उसमें ठहराव आया है और शब्दों के प्रयोग में वह मितव्ययी हुआ है.
अगर किसी लेखक की दो कहानियों में यह अंतर नज़र आए तो इससे बेहतर बात और कोई
नहीं हो सकती. पुस्तक की प्रस्तुति बोधि प्रकाशन की प्रतिष्ठा के अनुरूप है.
समीक्षित पुस्तक: परिणति तथा अन्य कहानियां:माधव नागदा
बोधि प्रकाशन, एफ-77, सेक्टर 9, रोअड नम्बर
11, करतारपुरा इण्डस्ट्रियल एरिया, बाईस गोदाम, जयपुर-302006
डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
ई-2/211, चित्रकूट, जयपुर- 302021.
-0-0-0-
लघुकथाओं का एक गौर-तलब संग्रह
रूपसिंह
चंदेल
बीसवीं शताब्दी के नवें दशक को हिन्दी लघुकथा का उत्कर्षकाल कहा जाता
है। उन दिनों शताधिक लघुकथाकार सक्रिय थे और जैसा कि ऎसी स्थितियों में प्रायः होता है, उस भीड़ में कुछ ऎसे रचनाकार भी थे
जो विधा के लिए बोझ थे…सतही
रचनाएं लिख रहे थे,
लेकिन एक बड़ी संख्या गंभीर रचनाकारों की भी थी, जो पूरी
तरह लघुकथा के लिए समर्पित
थे और लघुकथा को बेहतर बनाने और बेहतर दिशा देने की जी-जान से
कोशिश कर रहे थे। उनके इस
प्रयास और समर्पण
ने ही दूसरी विधाओं के समानातंर इस विधा को स्थापना प्रदान की थी। उससे पहले आलोचक लघुकथा विधा को
महत्व देते ही नहीं थे। उन
रचनाकारों में से कुछेक रचनाकार आज भी सक्रिय हैं. इनमें कुछ वे रचनाकार हैं जो
अन्य विधाओं में अपने सक्रिय योगदान के साथ उतनी ही गंभीरता से
लघुकथाएं
भी लिख रहे थे और आज भी लिख रहे हैं।
सुभाष नीरव उनमें से एक प्रमुख नाम है।
कविता, कहानी, समीक्षा, संस्मरण,
बाल-साहित्य आदि विभिन्न विधाओं में निरंतर सृजन करते हुए भी लघुकथा के प्रति नीरव का
समर्पण श्लाघनीय है।
निरतंर श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर की यात्रा करते हुए उनके कथाकार ने इस विधा में अपना
जो उल्लेखनीय योगदान दिया,
वह स्पृहणीय है। उनकी लघुकथाओं में बहुआयामी जीवन
व्याख्यायित हुआ है। सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक
आदि विषमताओं, विद्रूपताओं और विडम्बनाओं को उदघाटित करती उनकी लघुकथाएं, उनकी लेखकीय अनुभवजन्यता को
प्रमाणित करती हैं। उनके पास सूक्ष्म पर्यवेक्षण
दृष्टि,
विषयानुकूल भाषा और आकर्षक शब्द-संयोजन है और यही कारण है कि
उनकी सभी लघुकथाएं अलंघ्य सीमांकन
परिधि में अपने को परिभाषित करने में पूरी तरह समर्थ
हैं। उनका यह कौशल सहज-संभाव्य है, प्रत्यारोपित नहीं।
यह सहज संभाव्यता रचना को विशिष्ट बनाती है और वही विशिष्टता उन्हें अपने
समकालीनों में एक कद्दावर लघुकथाकार के रूप में स्थापित करती है। उनके सद्यः प्रकाशित लघुकथा संग्रह
–
‘सफ़र में आदमी’ के माध्यम से उनकी लघुकथाओं की पड़ताल आवश्यक है।
सुभाष
नीरव का लघुकथाकार तेजी से बदलती जीवन स्थितियों पर पैनी दृष्टि रखते हुए अपने रचनाकार को अपडेट करते हुए अपने रचना-संसार को विस्तार देता रहा है। उनकी रचनाओं में भटकाव और दोहराव का
अभाव और चरित्रों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण उन्हें दूसरों से अलग करता है। उनकी अधिकांश लघुकथाएं मध्य और
निम्न मध्यवर्गीय जीवन को विश्लेषित करती हैं, लेकिन कुछेक में
आभिजात्य और निम्नवर्गीय जीवन भी चित्रित हुआ है।
मध्य और निम्न मध्यवर्गीय समाज आज भी सामाजिक,
आर्थिक, धार्मिक और अंधविश्वासों की
जकड़न में उतना ही जकड़ा हुआ है, जितना वह सैकड़ों वर्ष पहले
था. दहेज दानव जैसी सामाजिक कुरुतियों
ने पहले की अपेक्षा आज कहीं अधिक मारक स्थिति उत्पन्न कर दी है। नीरव ने ’कत्ल होता सपना’ और ’नालायक’
लघुकथाओं में इस विषय को गंभीरता से अभिव्यक्त किया है। ’कमरा’ और ’कबाड़’ एक साथ दो
सामाजिक पक्षों – आर्थिक और
वृद्ध जीवन पर प्रकाश डालती हैं। ’तिड़के घड़े’ भी आज अर्थहीन और उपेक्षित हो चुके वृद्ध माता-पिता का अत्यंत विचारणीय आख्यान है। नीरव का लेखक मन घूम-घूमकर वृद्धों
के प्रति अपनी संवेदना प्रकट करने से अपने रोक नहीं पाता। उनकी बड़ी कहानियों की तरह कई लघुकथाओं की विषयवस्तु भी वृद्धों के जीवन पर आधारित है, लेकिन ’तिड़के घड़े’ जैसी
भावाभिव्यक्ति, भाषा का तिलस्म और शैली की अभिव्यजंकता
अन्य लघुकथाओं से भिन्न है और यह भिन्नता इस लघुकथा को न केवल उनकी अन्य लघुकथाओं
से श्रेष्ठ सिद्ध करती है,
अपितु मेरा मनना है कि यह लघुकथा इस विषय को केन्द्र में रखकर
लिखी गई हिन्दी लघुकथाओं में सर्वश्रेष्ठ लघुकथा है।
’दिहाड़ी’, ’वॉकर’, ’कड़वा अपवाद’, ’बीमार’, ’एक खुशी खोखली-सी’, आदि लघुकथाएं आर्थिक विद्रूपता को चित्रित करती हैं। ’सफ़र में आदमी’ मनुष्य की उस बेबसी पर प्रकाश
डालती है, जहां वह दूसरों की स्थितियों पर
नाक-भौं सिकोड़ता हुआ स्वयं उसी
का हिस्सा बनने के लिए अभिशप्त हो जाता है. ’एक और कस्बा’,
’धर्म-विधर्म’ और ’इंसानी रंग’ धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता पर
केन्द्रित लघुकथाएं हैं.
’इंसानी रंग’ अमरीक सिंह के माध्यम से चौरासी
के सिख दंगों की याद ताजा कर देती है. साम्प्रदायिकता का एक ही रंग होता है जो
कत्ल होने के बाद निकले इंसान के रक्त जैसा लाल होता है. नीरव ने अमरीक सिंह के
शरणदाता शर्मा परिवार के मनोविज्ञान को बहुत ही बारीकी से पकड़ा है। ’धर्म-विधर्म’
समय के उस सच को उद्धाटित करती है, जो
नयी पीढ़ी के अंतर्मन को आंदोलित कर रहा है।
वैश्विक प्रभाव कहें या जीवन के अहम सवालों से दो-चार होने का परिणाम, नयी पीढ़ी से ही यह आशा की जा सकती है कि वह जाति विभेद को मिटाने में
एक सकारात्मक भूमिका निभाएगी।
’अपने घर जाओ अंकल’ बाल मनोविज्ञान को अभिव्यंजित करती एक लाजवाब लघुकथा है। शहर में कर्फ्यू है, लेकिन बच्चे क्या जानें कर्फ्यू! वे सुनसान सड़क पर खेलने के लिए उतर
पड़ते हैं। पुलिसवाला उन्हें समझाता है और घर
जाने के की सलाह देता है। वह कहता
है,
“कर्फ्यू में घर से बाहर निकलने वाले को बन्दूक से गोली मार दी
जाती है, समझे!”
एक बच्चा मासूमियत से उससे कहता
है, “तुम भी तो घर से बाहर सड़क पर घूम रहे हो…तुम्हें भी तो कोई गोली मार सकता है…तुम भी अपने घर जाओ न अंकल।”
’रंग-परिवर्तन’ और
’अपने क्षेत्र का दर्द’ राजनैतिक क्षेत्र की लघुकथाएं हैं।
’रंग परिवर्तन’ एक धर्मांध नेता के भ्रष्ट चेहरे से
पर्दा उतारती है। नीरव की अनेक लघुकथाओं में सरकारी
कार्यालयों और कर्मचारियों की स्थितियों को चित्रित किया गया है। ’दिहाड़ी’,
’रफ-कॉपी’, ’चन्द्रनाथ की नियुक्ति’ और ’बीमारी’ ऎसी ही लघुकथाएं हैं।
’अकेला चना’ व्यवस्था
से टकराने के दुष्परिणाम पर प्रकाश डालती है, जहां बस
टिकट चेक करने वालों के कारण लेट हो रही बस के एक यात्री की आपत्ति पर उसे बस से
उतारकर टिकट होने के बावजूद उसे बिना टिकट घोषित कर जुर्माना लगाया जाता है। व्यवस्था के इस क्रूर सच के माध्यम से नीरव ने बड़े क्रूर सचों की ओर संकेत किया है। उनकी कुछ लघुकथाओं की सामान्य-सी दिखने
वाली घटनाएं असामान्य सच के विषय में सोचने को विवश करती हैं।
बाजारवाद आज का कड़वा सच है।
नीरव की ’मकड़ी’ लघुकथा उस सच को गहनता से रूपायित करती है। इस लघुकथा पर अपने आलेख – “समकालीन लघुकथा का जागरूक हस्ताक्षर’ में
बलराम अग्रवाल का कथन महत्वपूर्ण है— “मकड़ी एक ऎसी संपूर्ण लघुकथा है, जिसकी तुलना
में ’बाजार’ के हिंसक और मारक चरित्र
को केन्द्र में रखकर लिखी गई कोई अन्य लघुकथा आसानी से टिक नहीं पाएगी।”
(पृ. १००).
सुभाष नीरव अपनी कुछ लघुकथाओं में भाषा का एक ऐसा खूबसूरत
प्रयोग करते हैं कि पाठक उसकी गिरफ़्त में आने से बच नहीं पाता। यह भाषागत प्रयोग
लघुकथा को कमज़ोर नहीं, बल्कि और ऊँचाई दे जाता है। ‘तिड़के घड़े’, ‘एक और कस्बा’ ‘मुस्कराहट’ ऐसी ही लघुकथाएं
हैं।
उपरोक्त
समीक्षित लघुकथाओं के अतिरिक्त नीरव की लघुकथाएं ’अच्छा
तरीका’, ’चीत्कार’, ’फर्क़’,
’एक खुशी खोखली-सी’, ’अपना-अपना नशा’,
’मरना-जीना’, ’धूप’,
’कोठे की औलाद’ आदि लघुकथाएं भी उलेखनीय
हैं। कहना उचित होगा कि नीरव ने एक
सशक्त लघुकथाकार के रूप में अपनी एक अक्षय छवि निर्मित की है।
हिन्दी लघुकथा साहित्य के लिए उनका योगदान प्रशंसनीय
है।
इस विधा को उनसे बहुत अधिक अपेक्षाएं हैं।
सफ़र में आदमी(लघुकथा संग्रह), लेखक : सुभाष नीरव,
नीरज बुक सेंटर, सी-३२,
आर्यनगर सोसाइटी,पटपड़गंज, दिल्ली-११० ०९२,
आवरण- राजकमल,
पृष्ठ – ११२, मूल्य – १५०/-
-0-0-0-
मानवतावादी भारतीय संस्कार और अमेरिका प्रवास
बलराम अग्रवाल
यों तो समकालीन कहानी में
अपने समय में जी रहे आम व खास आदमी की चिंतन-शैलियों, बाह्य व आंतरिक
जीवन-स्थितियों और उन सब पर विभिन्न दबावों का प्रभावी चित्रण अधिकतर देखने को मिल
रहा है। तथापि देश से बाहर रह रहे व्यक्ति की संवेदन-ग्रंथियाँ नि:संदेह कुछ
अतिरिक्त दवाबों को वैसे ही महसूस और ग्रहण करती हैं जैसे घर की चारदीवारी में कैद
व्यक्ति घर से बाहर निकलकर कुछ अतिरिक्त दवाबों से दो-चार होता है, उन्हें जानने-समझने
के वह अतिरिक्त अवसर प्राप्त करता है। शायद इसीलिए प्रवासी कहे जाने वाले भारतीय
कथाकारों के कथ्य भारतीय परिप्रेक्ष्य तक सीमित न रहकर वैश्विक हो जाते हैं। वैसा
उन्हें होना भी चाहिए।
नि:संदेह घर से बाहर रह
रहे व्यक्ति को घर-गाँव, परिवारजन और नाते-रिश्तेदार सामान्य की तुलना में अधिक
याद आते हैं। उनके प्रति लगाव में उसे प्रगाढ़ता का महसूस होना एक स्वाभाविक क्रिया
है। वैसे ही देश से बाहर रह रहे व्यक्ति में देशप्रेम की भावना का प्रगाढ़ हो उठना
अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। हाँ, ऐसे व्यक्ति को इतना अवश्य सचेत रहना चाहिए कि
यह प्रगाढ़ता उसके भावनात्मक दोहन का कारण न बन जाए।
कहानी संग्रह ‘उस स्त्री का नाम’ इला प्रसाद के कविता संग्रह ‘धूप का टुकड़ा’ तथा कहानी संग्रह ‘इस कहानी का अंत नहीं’ की अगली कड़ी है। इसमें उनकी पन्द्रह कहानियाँ
संग्रहीत हैं। इस संग्रह की कहानियों के कथ्य, कहन-भंगिमा और भाषिक सहजता पाठक को
प्रभावित करती है। इसकी बहुत बड़ी वजह यह है कि इनमें संवेदन-प्रस्तुति को देश,
गाँव, घर या परिवार तक सीमित न रखकर समूची मानवीयता तक विस्तृत रखा गया है। संग्रह
में ‘बैसाखियाँ’ एक ऐसी कहानी
है जिसमें इला ने आइरिश समाज में व्याप्त एक (अंध)विश्वास के माध्यम से यह
बताने-जताने का प्रयास किया है कि भारत ही नहीं, विश्व-समुदाय में हर कहीं,
कोई-न-कोई किसी-न-किसी रस्म का, रिवाज़ का, विचार का चाहे-अनचाहे अनुसरण कर रहा है।
इस अनुसरण को व्यक्ति यदि मानसिक विवशता बना लेता है तो परिणाम की प्रतिकूलता उसके
मनोबल को कमजोर करती है। ‘उस स्त्री का नाम’ मानवीय संवेदन से तो जुड़ी है ही, अन्य भी अनेक बिंदुओं पर सोचने के लिए पाठक
की चेतना को झकझोरती है। कहानी के माध्यम से यह जानकर निश्चित ही हर्ष का अनुभव
होता है कि अमेरिका में—‘बूढ़े, बीमार-अपाहिज लोगों के लिए अलग बस सर्विस है।…बस आपको
आपके बतलाए गए स्थान तक आकर ले जाएगी और फिर नियत समय पर, जो आपने तय किया है,
आपके घर वापस छोड़ जाएगी।’ लेकिन इस सुविधा के चलते बूढ़े, बीमार और अपाहिज लोग वहाँ
इतने अकेले भी हो गये हैं कि उनके परिजन यह मानकर कि वे इन सुविधाओं का लाभ उठाते
हुए सहज जीवन जी रहे होंगे, उनकी ओर से लापरवाह हो जाते हैं, जैसा कि प्रस्तुत
कहानी की वृद्धा भारतीय माँ का बेटा सोमेंद्र हो गया है।
‘मेज’ यद्यपि आकार में काफी छोटी कहानी है तथापि इसकी तुलना एक
स्तरीय पेंटिंग से की जा सकती है। कहानी का प्रत्येक पैरा केनवस पर अलग रंग की
कूची की तरह चलता और रूप प्रदान करता लगता है। यह पेंटिंग यों पूरी होती है—‘…अगले कुछ ही मिनटों में ढेर सारी गौरैया, लाल फिंच का
जोड़ा, पंडुक, मैना, कौआ और कबूतर मेज पर फैलकर एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते खाना खा रहे
थे। …हमें वह बदरंग हो आई, अधटूटी चौकी आज बहुत अच्छी लग रही थी। अब वह मेज थी,
चौकी नहीं।’
कथाकार रूपसिंह चंदेल ने
संग्रह की भूमिका ‘गहन जीवनानुभव की कहानियाँ’ में लिखा है—‘इला प्रसाद की कहानियों की विशेषता यह भी है कि वे ऐसे
विषयों को भी अपने कथानक का हिस्सा बना देती हैं, जिनकी ओर सामान्यत: लेखकों का
ध्यान आकर्षित नहीं हो पाता।’
‘होली’ एक
सीज़ोफ्रेनिक युवती सिमी कौशिक की कहानी है जो असाधारण प्रतिभाशाली है; जिसका भाषा
पर गज़ब का अधिकार है और जिसके दो कविता-संग्रह मैकमिलन ने छापे हैं। संग्रह में इस
जैसी अनेक कहानियाँ हैं जिनसे पता चलता है कि इला अपनी कहानियों में प्रयुक्त
वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक व राजनीतिक तथ्यों की सटीकता के प्रति बहुत
सावधान रहती हैं। सीजोफ्रेनिया को परिभाषित करती-सी वह ये तथ्य प्रसंगानुसार
प्रस्तुत करती हैं—गर्भावस्था के दौरान माँ को यदि फ्लू हो जाय तो गर्भस्थ
शिशु को यह रोग लग जाने की सम्भावना रहती है। सीजोफ्रेनिया यानी उचाट अकेलापन,
अवसाद की पराकाष्ठा। ऐसे मस्तापी को घर पर सहानुभूति अवश्य मिलनी चाहिए। इस तरह की
तथ्य-प्रस्तुति के बारे में कुछ आलोचक यह भी आरोप लगा सकते हैं कि कहानी को
मेडिकल, मनोविज्ञान, विज्ञान, समाजशास्त्र या राजनीतिशास्त्र के सिद्धांतों की
प्रस्तुति नहीं होना चाहिए; लेकिन समकालीन कहानी में ये सब यदि प्रसंगानुसार
आवश्यक प्रतीत होते हों और पात्र के चरित्र अथवा परिस्थिति की गुत्थियों को
बताने-सुलझाने में पाठक के सहायक सिद्ध हो सकने वाले हों तो उन्हें प्रस्तुत करने
में कथाकार को संकोच नहीं बरतना चाहिए।
अमेरिका में वोटिंग कैसे
होती है, कैसे चुनती है जनता अपना राष्ट्रपति? इन सवालों का उत्तर यदि नयनाभिराम
दृश्यात्मकता के साथ पाना हो तो इला प्रसाद की ‘चुनाव’ एक बेहतरीन कहानी है।
अमेरिका के वर्जनाहीन समाज
में भी यह(पत्नी और गर्लफ्रेंड के बीच अन्तर) मायने रखता है। सम्मान पत्नी के
हिस्से में आता है। कहानी ‘हीरो’ का यह
स्थापत्य नहीं है। स्थापत्य यह है कि वह जिम जो कहानी की मुख्य पात्र कला को
बिल्कुल भी पसन्द नहीं है, अपनी सदाशयता के कारण उसका सद्भाव जीत लेने में कामयाब
रहता है।
यों संग्रह की लगभग सभी
कहानियों में गाहे-बगाहे निबन्ध-शैली के दर्शन होते हैं, लेकिन ‘मिट्टी का दीया’ जैसी कुछ कहानियाँ इला ने निरी निबन्ध-शैली में लिखी हैं। ‘आकाश’ सौंदर्य,
मस्तिष्क और केलकुलेटिव प्रवृत्ति की युवती ॠचा की कहानी है जो कमजोर, भावुक और
मोहग्रस्त सिद्ध होती है और आकाश होने का भ्रम पाले रखती है। आकाश होने की
महत्वाकांक्षा से भरी लड़कियों के बारे में इला लिखती हैं—‘सब सुंदर लड़कियाँ आकाश नहीं होतीं। वे आकाश होना चाहती हैं,
व्यक्तित्व के उस अभाव के बावजूद, क्योंकि वे सुंदर हैं।’
‘तूफान की डायरी’ एक प्रतीकात्मक शीर्षक है जिसके नेपथ्य में ब्रेंडा और जेरेमी के जीवन के
उतार-चढ़ाव, बिछोह और मिलन की कहानी है।
इला की एक पात्र रश्मि का
अनुभव है कि—इस देश(अमेरिका) में, जहाँ जीवन में सुरक्षा का पूरे तौर पर
अभाव है और डॉक्टर, दवा कम्पनियों और राजनीतिज्ञों का सीधा समीकरण है, वह तो
अस्पताल जाते भी डरती है।’ ‘साजिश’ अमेरिका में
रह रही रश्मि की मनोव्यथा ही नहीं उसकी सहृदयता की भी कहानी है। उसकी सास भारत से
आकर अमेरिका में अपने बिस्तर से गिर पड़ती है और बस…। रिश्ते और व्यक्तिगत दायित्व
के निर्वाह से अलग मानवीय दायित्व-निर्वाह की कहानी शुरू हो जाती है जो सुखानुभूति
पर समाप्त होती है। ‘कुंठा’ की मुख्य
पात्र अन्विता पूर्व भारतीय हॉकी स्टार रही है। वह अपने ही बड़बोलेपन की शिकार हो
पार्टी में एकाकी रह जाती है। ‘रिश्ते’ और ‘तलाश’ रोचक कहानियाँ हैं। ‘मुआवज़ा’ की ये पंक्तियाँ देखें—‘सारा सामान घसीटती वह इंद्र के पास पहुँचती है—“कहाँ चले गये थे तुम?” अभिमान, भय, क्रोध और विवशता के मिले-जुले आँसू आँखों में
तैर आए। धैर्य की प्रतिमा इंद्र! सारा गुस्सा झेलता मुस्कराता रहा।…सहसा उसका
ध्यान गया। इंद्र के गालों से टपककर पसीने की बूँदें उसकी कमीज के कॉलर को भिगो
रही थीं। श्रुति ने अपना पर्स टटोला। एक कागज़ का रूमाल था अब भी। उसने हाथ बढ़ाकर
इंद्र का पसीना पोंछ दिया।’ संग्रह की अनेक कहानियों में पत्नी और पति का यह रूप और
उनके बीच यह सामंजस्य किसी-न-किसी रूप में देखने को मिल जाता है। बस, इससे आगे कुछ
नहीं। न कोई प्रेमालाप, न बेड-रूम सीन। मनोविश्लेषण के आधार पर आकलन करें तो
इन्हें कहानीकार के स्वयं के मनोविज्ञान पर भी आरोपित किया जा सकता है। ‘उस स्त्री का नाम’ की कहानियाँ यद्यपि अमेरिकी वातावरण में घटित होती हैं लेकिन उनका केन्द्रीय
भाव भारतीय संस्कार से पूरित है। इन कहानियों की एक विशेषता यह भी है कि कुछेक
समकालीन महिला-कथाकारों द्वारा अपनाई जा रही ‘पोर्नोग्राफिकल’ कथन-भंगिमा इनमें नहीं है।
संपर्क : एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
कहानी
संग्रह—उस स्त्री
का नाम कथाकार—इला प्रसाद प्रकाशक—भावना प्रकाशन, 109ए, पटपड़गंज, दिल्ली-110091 प्र॰सं॰—2010 पृष्ठ संख्या—128, मूल्य— ` एक सौ पचास
-0-0-0-
’यादों की लकीरे’ - कथा शैली में अविस्मरणीय संस्मरण
स्व.वीरेन्द्र कुमार गुप्त
आप बीती सुनाने की ललक आदि मानव में निश्चय ही रही होगी. बाद में सभ्यता के विकास के
साथ अनेक विधाओं में जो विशाल साहित्य अस्तित्व में आया उसके स्रोत को इस नैसर्गिक
ललक में खोजना अनुचित न होगा. हर व्यक्ति का मन अतीत में घटी घटनाओं तथा रिश्ते से
जुड़े या सम्पर्क में आये लोगों की यादों से भरा मिलता है. पर व्यक्ति अपनी उन यादों
को अभिव्यक्ति नहीं दे पाता और वे कंकड़ या मोती उसके साथ ही शून्य में खो जाते हैं.
उसमें प्रवृत्ति नहीं होती या क्षमता नहीं होती. कथाकार रूपसिंह चन्देल में दोनों ही
बातों की उपस्थिति का प्रमाण उनकी सद्यः प्रकाशित संस्मरण पुस्तक ’यादों
की लकीरें’ है जिसमें उन्होंने अपनी संघर्षपूर्ण जीवन यात्रा को
चित्रित किया है. यह श्लाघ्य है.
अनेक
महापुरुषों ने आत्मकथाएं लिखीं या अन्यों ने उनकी जीवन-कथाएं लिखीं पर अधिकतर उनमें
श्रृखंलाबद्ध घटनाओं का सपाटपन मिलता है जबकि घटना को प्रेरित करने वाली परिस्थिति
और निजी मानसिकता को अधिक महत्व मिलना अपेक्षित रहता है. रूपसिंह चन्देल के संस्मरणों
में, जिनमें कुछ को रेखाचित्र कहना उचित होगा, यह कमी मुझे नहीं प्राप्त हुई.
’यादों की लकीरें’
को लेखक ने दो खंडों में विभाजित किया है. पहले खंड
में उन्होंने हिन्दी के कुछ शीर्ष साहित्यकारों को लिया है जिनके सम्पर्क में वह आये
और जिनसे वह प्रभावित हुए अथवा उन्हें दिशा-बोध और प्रोत्साहन प्राप्त हुआ. ये हैं-
नागार्जुन, भगवतीचरण वर्मा, विष्णु प्रभाकर, कमलेश्वर, शिवप्रसाद सिंह, शैलेश मटियानी,
रमाकांत, कन्हैयालाल नन्दन, लक्ष्मीनारायण लाल, रमेश बतरा, प्रकाशक श्रीकृष्ण (पराग
प्रकाशन), रत्नलाल शर्मा, शिवतोष दास और राष्ट्रबन्धु.
दूसरे खंड में उनकी अपनी संघर्ष-कथा है. कानपुर के एक गांव से निकलकर दिल्ली में एक
प्रतिष्ठित साहित्यकार के स्तर तक पहुंचने की यात्रा. मैं सोचता हूं कि यह दूसरा खंड
पहला होना चाहिए था.
’यादों की लकीरें’
में लेखक का
जीवन क्रमबद्ध रूप में वर्णित नहीं है. उन्होंने अपने बचपन से बाद तक के जीवन की कुछ
घटनाओं को लेकर उन्हें आज के मानसिक स्तर पर जीने का रोचक प्रयास किया है. लगता ही
नहीं कि लेखक ने कहीं भी कल्पना का पुट उनमें डाला है. लगता है जैसे सब कुछ हमारी आंखों
के सामने घट रहा है और हम पाठक उस सब कुछ के साक्षी हैं. चन्देल जी की स्मरण शक्ति
बहुत ही प्रखर है. इसका प्रमाण यह है कि उन्होंने कितनी ही घटनाओं की तिथियों का उल्लेख
किया है. साथ ही वर्णन में आए पात्रों के हाव-भाव, बातचीत आदि भी मौलिक हैं, जो आज
के चन्देल के लेखक द्वारा गढ़ी गई प्रतीत नहीं होती. विशेष बात यह है कि लेखक ने अपने
या पात्रों के प्रति अपने उस अतीत के भावों को अपनी कलम पर हावी नहीं होने दिया है.
यथातथ्यात्कता की पूरी रक्षा की है. दूसरी बात यह कि ये संस्मरण कथा या गल्प शैली में
लिखे गये हैं. कथा में आवश्यक रस और चित्रात्मकता इनमें भरपूर है और पाठक आद्यंत इनसे
बंधा रहता है. इस प्रकार ये संस्मरण केवल लेखक के निजी न रहकर पाठक के भी बन जाते हैं
क्योंकि सभी के जीवनानुभवों की मूल प्रकृति एक ही होती है, केवल सतही विवरण ही भिन्न
होते हैं. जिन विभिन्न चरित्रों के सम्पर्क में चन्देल जी आए वे सभी हम सबके भी अनुभव में आए हैं और आते
रहेंगे. यह मानना होगा कि लेखक ने विशेषकर गांवों में रहने वाले निम्नमध्यवर्ग के लोगों
के यथार्थ जीवन, उनके सपनों, उनकी चिन्तन प्रक्रिया, उनके संघर्षों को बड़ी ही बारीकी
और ईमानदारी से चित्रित किया है. उनकी उदारता, सहनशीलता, यहां तक कि क्रूरता भी इनमें
उपेक्षित नहीं रह पायी है.
’यादों की लकीरें’ में
आये सभी चरित्र यद्यपि स्मरणीय हैं और अलग-अलग रंगों की छाप छोड़ जाते हैं पर कुछ चरित्र
अविस्मरणीय हैं. इनमें सत्यनाराण की मां (एक और कस्तूरबा), इकरामुर्रहमान
हाशमी, तांगेवाला, चांदनी देवी (चंदनिया बुइया उर्फ चांदनी देवी), मामी, ’बड़ी दीदी’,
सदन सिंह ’पिता’ (सपनों में पिता), बाला प्रसाद त्रिवेदी (पहला मित्र), ’शोभालाल’,
मथाई सी.जे. प्रमुख हैं. ये सभी चरित्र नैसर्गिक
हैं, इनकी अंतःप्रकृति ने जैसा इन्हें बना दिया. ये सीधे जमीन से उगे पौधे हैं जिन्हें
बाहरी खाद कभी नहीं मिली. ये चरित्र कृति की आत्मा हैं.
चर्चित
कृति के प्रथम खंड के विषय में भी वही कहना होगा जो ऊपर कहा जा चुका है. हिन्दी साहित्य
की जिन विभूतियों के सम्पर्क में चन्देल आये, उन्होंने उनके लेखक के विकास में किसी
न किसी रूप में योगदान दिया. उन्होंने उन सभी के ॠण को मुक्तकंठ से स्वीकार किया है.
इस प्रथम खंड को भी चन्देल ने कथा शैली में ही लिखा है जिससे इसकी ग्रहणशीलता बढ़ गई
है. वैसे यह उल्लेख अनपेक्षित न होगा कि रूपसिंह चन्देल के कथाकार की किस्सागोई शैली
उनकी विशेषता है और यह विशेषता इन संस्मरणों को दूसरे लेखकों के संस्मरणों से अलग करती
है. पिछले तीस वर्षों के बीच रहे हिन्दी के साहित्यिक वातावरण का अच्छा आभास यह खंड
दे जाता है. मेरा मानना है कि हिन्दी में संस्मरण
विधा के क्षेत्र में अधिक कार्य नहीं हुआ और जो हुआ भी है उसमें लेखकों की सपाटबयानी
और स्वयं के महिमामंडन का आधिक्य ही परिलक्षित है. इस दृष्टि से रूपसिंह चन्देल के
संस्मरण परम्परा को तोड़ते हुए सर्वाधिक मौलिक, स्वस्थापना से दूर और बेहद पठनीय हैं.
इनका स्वागत होना चाहिए.
‘यादों की लकीरें’ – ले. रूपसिंह चन्देल
भावना प्रकाशन,
109-A, पटपड़गंज,दिल्ली -११० ०९१
पृष्ठ –
184, मूल्य :300/- ,संस्करण – २०१२
-0-0-0-
’कथाबिंब’ के कहानी विशेषांक का लोकार्पण
कथा
प्रधान त्रैमासिक पत्रिका "कथाबिंब" के कहानी विशेषांक का लोकार्पण कार्यक्रम
शनिवार , २४ मई , २०१४ को चेंबूर, मुंबई के विवेकानंद कला, विज्ञान, वाणिज्य महाविद्यालय
के सभागार में संपन्न हुआ। लोकार्पण कार्यक्रम के मुख्य अतिथि मुंबई विश्वविद्यालय
के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. राम जी तिवारी थे।
(मंजुश्री
(सम्पा.कथाबिंब) और प्रो. रामजी तिवारी)
माँ
सरस्वती के सम्मुख दीप प्रज्ज्वलन के बाद "कथाबिंब" के प्रधान संपादक डॉ. माधव
सक्सेना 'अरविन्द', संपादिका मंजुश्री तथा संस्कृति सरंक्षण संस्था, मुंबई की न्यासी
डॉ. कु. मिथलेश सक्सेना ने मुख्य अतिथि तथा अन्य अतिथियों का स्वागत किया. ज्ञात हो
कि "कथाबिंब" पत्रिका का प्रकाशन संस्कृत सरंक्षण संस्था, मुंबई के सौजन्य
से किया जाता है .
( दीपप्रज्वलित
करती सविता बजाज. साथ में सूरजप्रकाश,अशोक वशिष्ठ,डॉ.सूर्यबाला, और प्रो.रामजी तिवारी.)
कार्यक्रम
के आरम्भ में डॉ. माधव सक्सेना ने "कथाबिंब" के पैंतीस वर्षों के सफ़र का
संक्षिप्त ब्यौरा प्रस्तुत किया. उन्होंने
कहानी विशेषांक के अतिथि संपादक वरिष्ठ कथाकार डॉ. रूपसिंह चंदेल के परिश्रम और सहयोग
की सराहना की. मुख्य अतिथि प्रो. राम जी तिवारी ने अपने संबोधन में "कथाबिंब"
के ३५ वर्षों से अनवरत होते आ रहे प्रकाशन के लिए प्रधान संपादक डॉ. माधव सक्सेना,
संपादिका मंजुश्री एवं अन्य सहयोगियों के प्रयासों की प्रशंसा करते हुए
साहित्य और समाज के सामने आ खड़ी हुई चुनौतियों का उल्लेख किया. उन्होंने विशेषरूप से
"कथाबिंब" की इस बात के लिए प्रशंसा
की कि पत्रिका ने कभी भी अपने मूल्यों के साथ समझौता नहीं किया.
लब्ध
प्रतिष्ठ कथाकार डॉ. सूर्यबाला ने अपने वकतव्य में कहा कि व्यावसायिकता और सामाजिक
मूल्यहीनता के इस दौर में "कथाबिंब" बिना किसी विवाद में पड़े, अपने संकल्पों
के साथ बिना कोई समझौता किये पाठक वर्ग को सर्वोत्तम देने के प्रयास में सफ़ल रही है.
(अशोक
वशिष्ठ, ड्र. रमाकांत शर्मा, डॉ. अरविन्द, सूरज प्रकाश, प्रो.रामजी तिवारी, डॉ. सूर्यबाला
और सविता बजाज)
वरिष्ठ
कथाकार सूरज प्रकाश ने अपने वकतव्य में 'आज का समय और कहानी' विषय पर अपने विचार प्रस्तुत
किये. उन्होंने सचेत किया कि समाज में तीव्रता से आ रहे बदलाव, पाठकों का अभाव और इंटरनेट
तथा फ़ेसबुक के बढ़ते दौर में लेखन कार्य बड़ा चुनौती पूर्ण हो गया है . उन्होंने
अपनी एक कहानी के कुछ अंश प्रस्तुत किये .
इस
अवसर पर कहानीकार डॉ. रमाकांत शर्मा ने अपनी कहानी 'दो लिफ़ाफ़े' और कहानीकार अशोक वशिष्ठ
ने अपनी कहानी 'मुंसी ताऊ' का वाचन किया .
कार्यक्रम
प्रसिद्ध लेखिका और फिल्म कलाकार सविता बजाज के सान्निध्य में संपन्न हुआ। इस
अवसर पर हस्तीमल 'हस्ती', अरविन्द शर्मा 'राही', श्रीमती राजेश्वरी दुष्यंत (श्रीमती
दुष्यंत कुमार), आलोक त्यागी, अनंत श्रीमाली, श्रीमती गायत्री कमलेश्वर आदि बड़ी संख्या
में साहित्यकार और साहित्य प्रेमी उपस्थित थे।
कार्यक्रम
का संचालन जय प्रकाश त्रिपाठी ने किया .
प्रस्तुति – अशोक वशिष्ठ
2 टिप्पणियां:
वातायन का जून का समीक्षा अंक यादगार बन गया है। इस अनूठे प्रयास के लिए आप को बधाई और शुभ कामना। डॉक्टर मधु संधु , प्रज्ञा पांडे , डॉक्टर दुर्गा प्रसाद अग्रवाल , रूप सिंह चंदेल , बलराम अग्रवाल और वीरेंद्र गुप्त द्वारा लिखित बेबाक समीक्षाओं में ईमानदारी नज़र
आती है। इस बार भी स्थायी स्तम्भ ` हम और हमारा समय ` के अंतर्गत ` समीक्षा: कल और आज ` का युक्तियुक्त आकलन है।
कथाबिम्ब के विशेषांक की रपट पढ़ कर मन आनंदित हो गया है।
मधु जी द्वारा की गयी प्राण शर्मा के संग्रह पर समीक्षा बेहद उम्दा और सुरुचिपूर्ण है जो पाठक को किताब पढने को प्रेरित करती है ……बाकि समीक्षायें भी बहुत अच्छी हैं ।
एक टिप्पणी भेजें