गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

संस्मरण

                                                                   आबिद सुरती

  जिंदादिली का दूसरा नाम - आबिद सुरती
 सुधा अरोड़ा

नमक काली मिर्च जैसे खिचड़ी बाल , बेतरतीब दाढ़ी , अडिदास या नाइकी की एक हेपटी शर्ट या टॉप , कमर पर कसी चैड़ी बेल्ट में अटका सनग्लास का वॉलेट , बिल्कुल नए ब्रैन्ड की घिसी फेडेड जीन्स पहने , एक खूबसूरत सा झोला लिए और पीठ बिल्कुल सीधी रखकर , सैलानी कैप लगाये , सत्रह साल के लड़के के अंदाज में झूमता हुआ चलता एक सत्तर पार का लहीम शहीम , कोई हरफनमौला शख्स नजर आ जाए तो समझ लें , वह आबिद सुरती है जिनके भीतर का ढब्बू जी हमेशा उनके साथ साथ इतराता चलता है ।

उन दिनों हिन्दी कथा साहित्य में कमलेश्वर जी के नेतृत्व में समांतर आंदोलन के बीज अंकुरित हो रहे थे । सभी भाषाओं के प्रतिनिधि लेखक समांतर में थे । आबिद सुरती को गुजराती के प्रतिनिधि के रूप में ही जाना जाता था। शुरु में वे गुजराती भाषा में ही लिखा करते थे , बाद में उन्होंने अपनी रचना का गुजराती से हिन्दी में अनुवाद करने की जगह सीधे हिन्दी में ही लिखना शुरु कर दिया । लेखक से ज्यादा वे चित्रकार और चित्रकार से ज्यादा कार्टूनिस्ट के रूप में जाने जाते थे क्योंकि तब तक उन पर प्रसिद्ध वृत्तचित्र निर्माता प्रमोद पति  आबिदनाम से एक डॉक्यूमेन्टरी बना चुके थे जो उस समय एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी । उधर धर्मयुग में कार्टूनिस्ट आबिद सुरती का ढब्बू जी का कार्टून कोना इतना लोकप्रिय हो चुका था कि पाठक धर्मयुग खरीद कर उसे उल्टा खोलते थे यानी पिछले पन्ने से और यह ढब्बू जी अपने रचयिता आबिद सुरती की शख्सियत के साथ इस कदर घुलमिल गया और उनके व्यक्तित्व का ऐसा अभिन्न हिस्सा बन गया कि वे आबिद सुरती कम और ढब्बू जी के रूप में ज्यादा पहचाने जाने लगे । पर वह सिर्फ चित्रकार , कार्टूनिस्ट , कथाकार - उपन्यासकार - नाटककार ही नहीं हैं , बच्चों के लिए चित्रकथाएं , छोटी छोटी कहानियां और मौलिक चुटकुले गढ़ना भी उनके दायरे में आता है । यह दायरा और भी आगे बढ़कर उन्हें एक जमीनी कार्यकर्ता भी बना देता है पर इसके बारे में बाद में ।

सत्तर के दशक में आबिद सुरती से पहली मुलाकात कमलेश्वर जी के घर पर हुई थी या फिर समांतर की किसी गोष्ठी में , याद नहीं । कमलेश्वर जी के घर के ड्राइंग रूम में ही आबिद सुरती की एक पेन्टिंग लगी थी जिसमें कुछ कटग्लास , कुछ कटिंग्स और कुछ चित्रकारी के मिश्रित अंदाज में एक खूबसूरत कोलाज था । मेरा मन होता कि आबिद भाई से उनकी कोई कलाकृति मांगूं , पर तब यह दुस्साहस ही समझा जाता । आज मेरे घर की दीवारों पर आबिद भाई के डिजाइन किए हुए स्टेनग्लास के दो शेड लगे हुए हैं ।
तब हम सात बंगला , वर्सोवा की सी क्रेस्टबिल्डिंग में रहते थे । कमलेश्वर जी और गायत्री भाभी के साथ हमने आबिद भाई के बान्द्रा मेडिकल के पास वाले ग्राउंड प्लोर के छोटे से घर में 1977 के साल की ईद मनाई और खिचड़ा खाया । वह एक यादगार शाम थी । फर्श पर लगे आसन पर बैठकर सामने चैकोर मेज पर हमने रात का खाना खाया था । खिचड़ी के पुलिंग नामकरण की भी कोई डिश होती है , मुझे नहीं मालूम था । तब शुद्ध शाकाहारी मैं , अपने पति की सोहबत में नयी नयी मुसलमान हुई थी । नॉनवेज खाना सीख रही थी , जिसके मेरे पति बेहद शौकीन थे , पर मेरे गले से जो नीचे नहीं उतरता था । आय.आय.टी. के प्रो. डॉ. हुसैन के यहां पहली बार मैंने सामिष खाना सामने परोसा हुआ देखकर शोरबा छुआ छुआ कर रोटी का कौर मुंह में डाला था फिर भी अपनी उबकाई को रोक नहीं पाई थी । वहां शाकाहारी कोई डिश थी ही नहीं और आय.आय.टी. के प्रोफेसर के लिए शायद यह अकल्पनीय था कि कोई पढ़ी लिखी लड़की इतने कट्टर तरीके से घास-फूसकी शौकीन भी हो सकती है । उसके बाद महीनों मैंने नॉन वेज नहीं छुआ । पर आबिद भाई की पत्नी मासूमा भाभी ने बड़े एहतियात के साथ मटन के टुकड़े हटाकर खिचड़ा मुझे परोसा । पहली बार मुझे वह डिश पसंद आई । वह मेरे लिए नॉनवेज को विधिवत स्वीकार करने की शुरुआत थी ।

तीखे नैन नक्‍श  वाली , बेहद दुबली पतली सी , मासूमा भाभी और आबिद भाई की जोड़ी बहुत बढ़िया दम्पति की फ्रेम जड़ी तस्वीर प्रस्तुत करती थी ।

एक बार मैंने आबिद भाई से पूछा - आपकी लव मैरेज थी या अरेंज्ड ?

सीधा जवाब तो वह कभी देते ही नहीं वर्ना आबिद सुरती कैसे कहलाते।

बोले - हमारी सरप्राइज मैरेज थी । एक दिन मैं घर लौटा तो सब लगे मुझे बधाई देने । मैंने पूछा - बात क्या है तो बोले - तुम्हारी सगाई हो गई है , उसकी बधाई दे रहे हैं । दरअसल आबिद तीस साल के हो चुके थे और जे.जे.स्कूल ऑफ आर्टस में पढाई के दौरान एक असफल प्रेम को लेकर सिर धुन रहे थे इसलिए शादी के लिए जितने भी रिश्ते आते , बिना तस्वीर देखे उन्हें रिजेक्ट कर देते । मासूमा भाभी पड़ोस में रहती थीं इसलिए उनकी तस्वीर दिखाने की जरूरत नहीं पड़ी । अम्मी ने पूछा कि वह लड़की जो रोज दिखती है , कैसी लगती है तो बेटे ने कहा - ठीक है , देखूंगा । बस , मना नहीं करने को स्वीकृति मानकर सगाई का ऐलान कर दिया गया और इस तरह शादी हो गई ।

मासूमा भाभी भी कम कलाकार नहीं थी । हर काम को अंजाम देने में उनका अपना एक सलीका दिखाई देता था । वे स्कूल में पढ़ाती थीं और उसके साथ साथ बान्द्रा के खैरवाड़ी के झोपड़पट्टी इलाके के बच्चों को भी खाली समय में प्रशिक्षण देती थीं । दोनों पति पत्नी खूब खुली खिली हंसी हंसते और चंद मिनटों में ही यह अहसास होता कि आप किसी बेहद आत्मीय के घर पर मौजूद हैं ।

1980 में हम कलकत्ता चले गए और मुंबई के सारे सम्पर्क हमसे छूट गए । 1991 में कलकत्ता से फिर मुंबई आकर जब हम बान्द्रा के माउंट मेरी रोड पर शिफ्ट हुए तो पंद्रह मिनट के पैदल रास्ते पर आबिद भाई का घर था । पर तब तक मैं भूल चुकी थी कि आबिद भाई भी बांद्रा में रहते हैं । 6 दिसंबर 1992 के दंगों के बाद राहत कार्य के दौरान मेरा परिचय प्रख्यात फिल्म निर्देशक बिमल राय की बेटी रिंकी से हुआ और मैंने उनकी हेल्पसंस्था में नियमित रूप से जाना शुरु कर दिया । 1993 में कार्टर रोड स्थित गोल्ड मिस्ट बंगले के पहले माले पर सामने वाले हिस्से में बासु दा ( भट्टाचार्य ) रहते थे और पिछले हिस्से में रिंकी भट्टाचार्य की हेल्पसंस्था का कार्यालय और रिंकी का घर था ।

एक दिन हेल्प के कार्यालय से बाहर निकली तो देखा - आबिद सुरती नीचे के फ्लोर पर बड़ी बड़ी मेजों पर कुछ ड्रॉइंग कर रहे हैं । मुझे अचानक देखा तो बोले - अरे , तुम यहां क्या कर रही हो ?

मैंने कहा - यही तो मैं आपसे पूछने जा रही थी । मैं रिंकी के साथ हेल्पमें हूं ।

एकदम दो कदम पीछे हटकर बोले - बाप रे !

शायद रिंकी का दबंग व्यक्तित्व उस पूरे इलाके में मशहूर था । बाद में पता चला कि नीचे के ग्राउंड फ्लोर में कोई खंडवानी स्टूडियो था जो एक एन.आर.आई व्यवसायी चलाते थे और स्टेन ग्लास पर डिजाइन बनवाकर एक्सपोर्ट करते थे । वहीं आबिद भाई स्टेनग्लास डिजाइनर विशेषज्ञ के रूप में महीने में अठारह घंटे बिल्कुल वी.आई.पी. की तरह काम करते थे । उनके साथ सहायक के रूप में हमेशा दो एक युवा लड़कियां रहती थीं जो ड्रॉइंग और डिज़ाइनिंग की शिक्षा ले रही होती थीं ।

1996 की बात है । जनसत्ता सबरंग में मेरी कहानी - ‘‘सत्ता संवाद’’ छपी थी । आबिद भाई हिन्दी के लेखक होते हुए भी हिन्दी लेखकों को कम ही पढ़ते हैं । सबरंग चूंकि अखबार के साथ फ्री आता था और दीपावली विषेशांक था, सो उन्होंने पढ़ा। कहानी भी छोटी सी थी।                        

पढ़कर बोले-‘‘अरे , तुम तो अच्छी खासी कहानियां लिख लेती हो ।’’ 

 मैं उनके इस जुमले से थोड़ा उखड़ी - ‘‘ कमाल है , आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे मेरा लिखा पहले कभी कुछ पढ़ा ही नहीं......।’’   

आबिद भाई की खिसियानी हंसी - ‘‘ क्या करूं , मैं तो तुम्हें हमेशा लेखक की बीवी ही समझता रहा कि अपने पति की देखा देखी थोड़ा लिख लिखा लेती होगी । मुझे क्या पता कि तुम भी सीरियस लेखिका हो ! ’’
मेरे भीतर की गंभीर लेखिका को उन्होंने कितना छलनी किया होगा , इसका अनुमान वे नहीं लगा सकते । खैर , उसके बाद से उन्होंने मेरी लिखी हर कहानी और हर आलेख को पढ़ना शुरु कर दिया और उस पर तारीफ के ऐसे पुल बांधने लगे कि जाहिर है , उनकी बेइंतहा तारीफ ने मुझ पर असर करना छोड़ दिया ।

इसका मतलब यह नहीं है कि वे सबकी तारीफ करते रहते हैं। अगर किसी का लेखन पसंद नहीं है तो वह कितना भी प्रभावशाली व्यक्तित्व हो , उसे नाराज करने का जोखिम उठाने को तत्पर रहते हैं । एक प्रतिष्ठित संपादक लेखक अपने साठ साल पूरे होने पर अपने पर एक अभिनन्दन ग्रंथ लिखवा रहे थे । अपनी अपॉएंट की हुई शिष्या के माध्यम से उन्होंने कई बार कहलवाया । आबिद भाई से अपने पर लेख लिखवाना चाहते थे । जब भी लंदन या दिल्ली से मुंबई आते तो एअरपोर्ट से ही फोन करते । खूब मीठा बोलते । बड़ी आत्मीयता से मिलते । पर आबिद सुरती ने नहीं लिखा तो नहीं ही लिखा । वह लेखक ऐसे नाखुश हुए कि अभिनंदन ग्रंथ के छपने के बाद दुआ सलाम करना भी भूल गए । आबिद भाई को कोई गिला शिकवा नहीं , हंसकर बोले -‘‘ ठीक है ! देर सबेर ऐसे लोगों का असली चेहरा सामने आ ही जाता है।’’

उनके मुंह से शब्द बाद में फूटते हैं , हंसी पहले झरने लगती है ।

एक समय था जब आबिद भाई का स्टूडियो वॉर्डन रोड पर था पर फिल्म बनाने की सनक में उन्होंने अपना करोड़ों का स्टूडियो बेच डाला और अपनी सारी जमा पूंजी लुटाकर फक्कड़ बन गए । एक नयी अभिनेत्री और नये अभिनेता को लेकर बनाई गई यह फिल्म डिब्बों में बंद पड़ी रही और आबिद भाई के सामने दो बेटों और एक बीवी को लेकर फाका काटने की नौबत आ गई । इस स्थिति से जूझना आसान नहीं था । मासूमा भाभी बीमार रहने लगी थीं । आबिद भाई ने तब तक एक आध्यात्मिक चोला धारण कर लिया था, अपनी बीवी को लेकर दो बार विपश्यना भी हो आए थे । बान्द्रा वाले हमारे घर में जब भी वे आते , यूनिवर्स और स्पेस , विपश्यना और मेडिटेषन के बारे में खूब विस्तार से बताते । मुझसे कहते कि जाकर विपश्यना का षिविर करके आओ , सोच की दिशा बदल जाएगी ।

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   एक दिन आबिद भाई हेल्प के दफ्तर के नीचे मिले तो अचानक बोले - घर आकर जरा मासूमा से मिलो ।

इस बार जो मासूमा भाभी को देखा तो मैं सकते में आ गई । उन्होंने बिस्तर का एक कोना पकड़ लिया था । उठकर बैठतीं भी तो दोनों घुटनों को बांहों में घेरे, खिड़की से लगे बिस्तर के एक कोने में सिमटकर । बहुत पूछा , बहुत पूछा - आखिर कोई कारण तो होगा जो इतने गहरे डिप्रेशन में चली गई हैं ।
कई बार आबिद भाई से भी पूछा लेकिन कभी वो कहें कि उसे पोते पोतियां खिलाने का बहुत शौक है और हमारे बेटे शादी में यकीन ही नहीं करते, वे लिव इन रिलेशन में है इसलिए मासूमा दुखी है । कभी कहें - दंगों से दहशत में चली गई है , उनकी बहन के साथ कुछ दुर्घटना हो गई थी शायद । मासूमा भाभी तो कुछ बोलती नहीं , उनसे बात करूं तो क्या । कहीं कुछ तो पता चले । एक दिन बहुत कुरेद कर पूछा तो जाने कैसे आबिद भाई के मुंह से निकल गया - पेन्टिंग करता हूं तो शागिर्द लड़कियां आती हैं , बस , मासूमा को शक की बीमारी है , कोई भी लड़की उसे फूटी आंखों नहीं सुहाती ।
मैंने तभी उनकी जबान पकड़ ली । मैंने कहा - आबिद भाई , ऐसा तो नहीं है । मुझसे तो कभी मासूमा भाभी ने कुछ नहीं कहा , मैं घर जाऊं तो बिना कुछ खिलाए वापस नहीं आने देतीं , आप ऐसे क्यों कह रहे हैं ।

खिसियाकर बोले - बस , तुम्हीं एक अपवाद हो । तुम्हारा आना उसे बहुत अच्छा लगता है । जब समय मिले , आ जाया करो और उसकी थोड़ी काउन्सिलिंग करो । मैंने उनके घर जाना शुरु किया । हेल्प से उनका घर पास ही था । आबिद भाई अक्सर घर पर नहीं होते । पर मासूमा भाभी तो ऐसी गुमसुम कि कि उनसे कुछ भी पूछो तो बस , चेहरे पर एक उदास मुस्कान बैठी रहें । उस फ्लैट के एक कमरे में कोने में लगा पतले से बिस्तर का एक कोना जो उन्होंने पकड़ा तो वह मीरा रोड जाने के बाद भी छोड़ा नहीं । पर हां , इतना फर्क जरूर आया कि मीरा रोड जाकर उन्होंने रसोई में घुसकर अपने लिये खाना बनाना शुरु कर दिया । एक दिन जब मैं अपने पिताजी के साथ उनके घर गई तो उन्होंने अपने हाथ से पकाया हुआ सादा सा पर स्पेशल खाना हम दोनों को बड़े प्यार से खिलाया ।


                                                       परिवार के साथ आबिद सुरती  

बान्द्रा वाला घर भी आबिद भाई ने मासूमा भाभी के कारण ही छोड़ दिया था ताकि माहौल बदलने से शायद उनकी तबीयत में कुछ सुधार आए । बाद में 2006 में जब मैं पूना गई और मासूमा भाभी से भी मिली तो देखा कि वे बिल्कुल सूखकर ठठरी सी रह गई हैं । मेरे भीतर जमकर बैठी नारीवादी काउंसिलर ने उन्हें उकसा कर बहुत पूछने की कोशिश की कि आखिर क्यों वे मीरा रोड वाला घर छोड़कर यहां बड़े बेटे के पास आकर रह रही हैं। मासूमा भाभी अपने पति आबिद की प्रतिरूप , बिल्कुल आबिदी अंदाज में हंसकर बोलीं - ‘‘ मजे कर रही हूं । शनीचर-इतवार बड़े बेटे अलिफ और अदिति के साथ आबिद भी आ जाता है । मिलना हो जाता है । तुम आकर मेरे पास रहो ना । बढ़िया खाना - एकदम सादा - बिना मिर्च मसाले का खिलाती हूं । कब आ रही हो ? ’’ अब वह मासूमा वहां नहीं है जो खाट के एक कोने में दोनों पांव सिकोड़कर बैठी रहती थीं और चार सवाल पूछने पर एक का जवाब - हां , हूं में देती थीं । अब अपनी आज़ादी का लुत्फ उठा रही हैं । आबिद भाई को भी आज़ाद कर दिया है ।

चित्रकारी और फिर स्टेनग्लास पेन्टिंग के सिलसिले में जब देखो तो आबिद भाई हमेशा अपने से आधी उम्र की महिला शागिर्दों के साथ नजर आते। बेखटके वे घर में भी आती जातीं । मासूमा भाभी ने मेरे बहुत पूछने पर भी कभी इस बात की शिकायत नहीं की । तब तक वे इन सबसे ऊपर उठ गई थीं शायद । हां , 1992-93 के हिन्दू मुस्लिम दंगों ने उन्हें गहरी चोट पहंचाई थीं और वे बरसों इस आघात से उबर नहीं पाईं । पर इसका भी उन्होंने कोई जिक्र नहीं किया । चेहरे पर सब ठीक हैवाला संतुष्टि का भाव हमेशा बना रहता है ।

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मित्रो पर वैसे आबिद भाई की खास इनायत रहती है । किसी को भी अपनी किताब भेंट करेंगे तो उसके नाम का पहला अक्षर यूं----- ऊपर से नीचे तक इतनी रूमानी अदा में लिखेंगे कि अगर खुदा न खास्ता भेंट किसी महिला मित्र को दी गई और उसके पति ने देख लिया तो जल भुन कर कबाब हो जाएगा । फिर उसके किस्से भी इतने मजे ले लेकर सुनाएंगे कि मन होने लगे कि जाकर मासूमा भाभी से कहें - क्यों भले आदमी पर शक करती हो ! दोस्तों से ऐसी चुहलबाजी करना - इनके दाल चावल खाने जैसी आदत में शुमार है , फिर चाहे वह दोस्त हो या दोस्त की बीवी ।

एक घटना याद आ रही है - मीरा रोड में इनके पड़ोसी थे डॉ. विनय और निरूपमा सेवती । ओशो के मुरीद आबिद भाई ने देखा कि निरूपमा भी ओशो आश्रम में रह चुकी थी , जेन पर किताब लिख चुकी थी और अध्यात्म पर बहस कर लेती थीं । आबिद भाई का निरूपमा से दोस्ती हो जाना स्वाभाविक था । एकबार एक किताब निरूपमा को भेंट की तो उन्होंने उसमें अपने उसी रूमानी स्टाइल में ‘‘एन’’ को ऊपर से नीचे तक खींचकर नीरू लिख दिया । किताब उसे भेंट कर इत्मीनान से अपने घर आ गए ।

कुछ दिनों बाद आबिद भाई ने देखा कि जब वे उनके घर जाते हैं तो डॉ. विनय या तो उनसे कन्नी काट रहे हैं या अतिथि , तुम कब जाओगे ?‘ वाला सुलूक कर रहे हैं । यह सिलसिला कई दिनों तक चला । डॉ. विनय के घर की हवा में आबिद भाई खुश्की महसूस करते रहे और जब इस खुश्क माहौल का कोई सिरा पकड़ में न आया तो अपने दोस्त विनय से पूछ बैठे - ‘‘ यार , क्या हो गया , इतने उखड़े उखड़े क्यों हो , कोई गलती हो गई मुझसे ? ’’ 
अब डॉक्टर साहब बोले -‘‘ हां , बिल्कुल गलती की है तुमने ! आखिर तुमने निरुपमा को नीरू लिखने की जुर्रत कैसे की ? उसे इसे नाम से सिर्फ मैं बुलाता हूं ।’’  
तब जाकर आबिद भाई की ट्यूबलाइट जली कि यह सारी करामात उस नीरू संबोधन की है जिसने डॉक्टर विनय को अविनय बना दिया था ।

                                                       सुधीर तैलंग की दृष्टि में आबिद  सुरती

अनजाने में आबिद भाई इस तरह के बेढब कारनामे कर जाते थे । चूंकि इरादे नेक थे इसलिए बेचारे आबिद भाई को समझ में नहीं आता था कि भाईसाब, चाहे लेखिका हो , है तो आखिर औरत ही और उसका एक अदद पति भी - चाहे कितना प्रगतिशील हो , है तो आखिर पुरुष ही । तथाकथित प्रोग्रेसिव पति को लगता कि उसकी बीवी को लाइन मारी जा रही है । सो रचनाकार में से जागे हुए पति डॉ. विनय और उनकी नीरूके घर के दरवाजे पर आबिद भाई को ‘‘ प्रवेश निषिद्ध ’’ का बोर्ड लगा मिला । निरुपमा सेवती को नीरूलिखने का ऐसा खामियाजा भुगतना पड़ा कि फिर किसी लड़की के नाम को आधा या छोटा कर लिखने की उन्होंने वाकई जुर्रत नहीं की ।

शायद तब तक हंसमें उनकी कोरा कैनवासजैसी विवादास्पद कहानी छप चुकी थी और लेखक कलाकार आबिद सुरती के बारे में यह भ्रम टूटने लगा था कि उनके इर्द गिर्द मंडराती लड़कियां उनकी शिष्याएं मात्र हैं । इस कहानी ने उनके व्यक्तित्व के उलट देहवादी मानसिकता का जो रूप उजागर किया , वह निश्चय ही उनके लिये डैमेजिंग था ।
मैंने उनसे कहा - आबिद भाई , ऐसी कैसी अश्लील चीजें लिख रहे हैं कि बेचारे संपादक को अपने संपादकीय में एक लंबे चौड़े स्पष्टीकरण के साथ कहानी छापनी पड़ रही है ।
आबिद भाई बिफर पड़े - बेचारासंपादक किस बात का ! उन्होंने ही तो लिखवाई है कहानी मुझसे ।
मैंने कहा -‘‘ वाह वाह , यह क्या बात हुई ! कोई हाथ पकड़कर तो आपसे कहानी नहीं लिखवाता । ’’

आबिद भाई के पचहत्तरवें जन्मदिन पर ‘शब्दयोगपत्रिका की ओर से हिन्दुस्तानी प्रचार सभा में एक आयोजन था । मुझे भी बोलने के लिये आमंत्रित किया गया था । मैं जितना जानती थी , मैंने कहा । माइक पर से हटते हटते मुझे लगा , मैंने तो आबिद भाई की तारीफ में बहुत सारे कशीदे पढ़ दिये उनकी कहानी - कोरा कैनवासकी तो खिंचाई की ही नहीं सो मैंने समापन करते हुए आखिरी वाक्य कहा - ‘‘ आबिद भाई , सच तो यह है कि  आप हमेशा ढब्बू जी के लिये याद किये जाएंगे , अपने कार्टून और चुटकुलों के लिये , अपने कोलाज और पेन्टिंग्स के लिये भी याद किये जाएंगे पर कोरा कैनवासके लिये आपको कोई याद नहीं करेगा, ये याद रखियेगा । ’’..... कहकर मैं वापस अपनी जगह पर आकर बैठ गई । जब आबिद भाई माइक पर आये तो बोले - ‘‘ मैं बहुत खुश हो रहा था कि सुधा ने बहुत अच्छा अच्छा बोला पर जाते जाते वह ऐसा ज़ोर का तमाचा मेरे मुंह पर जड़ गई कि उसकी झनझनाहट मैं अब भी महसूस कर रहा हूं ।’’

मुझे लगा - मैंने आबिद भाई को नाराज़ कर दिया है । दूसरे दिन बोले - नहीं , जो सच है , वही बोलना चाहिये । कड़वा हो तो भी चलेगा ! और उस जुमले के साथ फूटता वही ख्यात हंसी का फव्वारा ! यह अलग बात है कि उसके बाद से कभी कभी मुझे आंटी जीकहने लगे हैं ।

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     बाबरी मस्जिद के ढहने के बाद आबिद भाई ने अयोध्या की पृष्ठभूमि पर खासा शोध कार्य करके एक छोटा सा उपन्यास -कथावाचक लिखा जिसे कोई प्रकाशक छापने को तैयार नहीं था ।
खैर , उनके एक मित्र नचिकेता देसाई ने छाप तो दिया पर उसे बेचे कौन ? तो वितरण के लिए उन्होंने ‘‘ वसुंधरा ’’ पर इनायत की । किताबें हमने ले तो लीं पर हम जब अपनी प्रकाशित की हुई किताबें ही नहीं बेच पाए तो उनकी क्या बेचते । और कोई होता तो गर्दन पकड़ लेता कि अगर बेच नहीं सकते थे तो किताबों की जिम्मेदारी ली क्यों , पर आबिद भाई ने कभी शिकायत नहीं की । हां , धीरे धीरे कर कुछ बंडल वापस लेते रहे और खुद दोस्तों को भेंट देते रहे ।

    अपनी लिखी हुई या अपनी पसंदीदा किताबें खुले दिल से बांटने का आबिद भाई को बहुत शौक है ।  हमारे यहां का पीर-बावर्ची-भिश्ती देवा , जिसने बाईस साल तक घर के काम से लेकर हमारी गाड़ी भी चलाई और वसुंधरा की किताबों की देखरेख भी की , ‘‘आबिद साहब’’ की शख्सियत और लेखन का बहुत बड़ा फैन है । उनकी सारी किताबें ढूंढ ढूंढकर पढ़ता है । वे गर्व से कहते हैं - देख लो , मेरे पाठक कहां कहां हैं । मैं मज़ाक में कहती हूं , कहां कहां नहीं , बस , वहीं वहीं हैं । आबिद भाई ठहाका लगाते हैं  । सही अर्थों में हरफनमौला हैं वे  !

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    26 जुलाई 2005 का हादसा कौन भूल सकता है भला ? पूरी मुंबई बाढ़ में डूबी थी । ग्राउंड फ्लोर वाले ज्यादातर घरों में पानी भर गया था और हर घर में सामान का काफी नुकसान हुआ था । आबिद भाई ने बताया कि उनकी पेन्टिंग्स और किताबें सब भीग गई थी । लेकिन उनका बताने का अंदाज यह था - रात को खाना वगैरह खाकर सोए और अच्छी खासी नींद ले रहे थे कि एक बढ़िया सा सपना आया । सपने में देखा कि वे समुद्र में तैर रहे हैं । पानी के समन्दर में पूरी खाट लहरों पर हिलोरें खा रही थी । खाट बार बार दरवाजे से खट से टकराती और फिर पानी में तैरने लगती । जब पानी मुंह तक आने लगा और सांस गड़बड़ाने लगी तो पता चला कि सपने में नहीं , हकीकत में पानी का समुद्र उनके घर के अंदर उन्हें खाट समेत झूला झुला रहा है । उठे और देखा कि उनके ग्राउंड फ्लोर के फ्लैट में पानी में घर का पूरा सामान तैर रहा है । कई कैनवास खराब हो गये । किताबों का ढेर , कागज़ों के पुलिंदे सब इस कमरे के अंदर चली आई बाढ़ के हत्थे चढ़ गये । अपने बड़े से बड़े नुकसान को जज्ब करने का हौसला और अंदाज उनका अपना है । पता नहीं , यह विपश्यना की देन है या ओशो की कि बड़े से बड़ी त्रासदी का वह हंसकर बयान करते हैं और अपने भीतर के दुख को हमेशा हंसी में उड़ा देते हैं । उनके लिये कहा जा सकता है - हर फिक्र को हंसी में उड़ाता चला गया ...... !   
                                
       इधर सुधीर तैलंग का बनाया आबिद भाई का कार्टून - हाथ में प्लम्बिंग के औजार लिये -  खासी चर्चा में हैं । एक वन मैन एन.जी.ओ. भी आबिद भाई ने शुरु किया -‘‘ड्रॉप डेड ’’ के नाम से । मुंबई शहर में पानी की इतनी किल्लत है पर घरों में अक्सर नलों से एक एक बूंद पानी टपका करता है । इस एक एक बूंद से रात भर में बाल्टी भर जाती है और फिर पानी मोरी में बहता रहता है । ज्यादातर घरों के नल ठीक से बंद नहीं होते और इस काम के लिए कोई प्लम्बर को नहीं बुलाता । सो आबिद भाई ने अपने मीरा रोड के इलाके में यह फ्री सर्विस शुरु की कि हर घर में मुफ्त में नल चेक किया जाएगा और नल की मरम्मत की जाएगी । सालों से यह मुहीम जारी है । मीरा रोड के हजारों मकानों के नलों की मरम्मत इस नेक काम के तहत हो चुकी है । शाहरुख खान से आमीर खान तक ढब्बू जी के इस नये कायाकल्प के मुरीद हो चुके हैं ।

 प्लम्बर , इलेक्ट्रिशिअन , पानवाला , बाल काटने वाला , मोची , अखबार बेचनेवाला - बस , क ख ग पढ़ना जानता हो , आबिद भाई न सिर्फ उसको साक्षर बनाएंगे बल्कि उसे पढ़ने की लत लगाए बगैर नहीं मानेंगे । हमारे पुस्तक केंद्र वसुंधरा को सैरगाह मानकर इन सबको तफरीह करवाने मीरा रोड से पवई ले आया करते थे । इस खब्त का ताजा शिकार एक धोबी है । बेचारा आया था कपड़े प्रेस करने और अब कपड़े न हों तो भी कोई बात नहीं , पत्रिकाएं लेने चला आता है । आबिद भाई को शागिर्द पालने की आदत है , फिर चाहे वह 24 साल का हो या 74 साल का । बस , यह अघोषित एडल्ट एजुकेशन प्रोग्राम उनकी बहुत सारी स्वान्तः सुखाय योजनाओं का हिस्सा है ।
  
       ऐसे ही एक रविवार - छुट्टी के दिन - आबिद भाई अपने एक शागिर्द के साथ वसुंधरा में जाने के लिए हमारे घर आए और उन्हें वसुंधरा ले जाकर दिखाने की हड़बड़ाहट में बाथरूम के बाहर फैले हुए पानी में पैर फिसलने से मेरे पति अपने दाहिने हाथ की कुहनी से कलाई के बीच की हड्डी तोड़ बैठे। उन्हें अस्पताल में एडमिट करवाया । डॉक्टर ने फौरन अगले दिन सुबह ऑपरेशन की तैयारी में ठेठ व्यवसायी लहज़े में यह तक पूछ लिया कि अंदर जो स्टील प्लेट डाली जाएगी , वह इंपोर्टेड डाली जाए या देसी ? साथ ही यह अग्रिम सूचना भी कि हाथ को ठीक से काम करने लायक होने में छह महीने लग जायेंगे । इत्तफाक से उस दिन वसुंधरा में महिलाओं की एक मीटिंग थी जिसमें मुझे जाना था । मुझे अपनी मित्रों को बताना पड़ा कि मेरे पति के हाथ में फ्रैक्चर हो गया है तो मीटिंग संभव नहीं है। वसुंधरा आने के बजाय , मेरे पति को देखने , वे अस्पताल आ गईं और अगले दिन के ऑपरेशन के बदले विकल्प के तहत कुर्ला का एक हाड़वैद्य बताया जिसने बीस मिनट में हाथ खींचकर ऐसे हड्डी जोड़ी और देसी प्लास्टर लगा दिया कि अगले दिन हाथ की उंगलियां सामान्य रूप से काम करने लगीं । यह घटना मैं लगभग सभी मित्रों को बता चुकी थी । अखबार में भी इसकी रिपोर्ट दे चुकी थी । नागपुर से प्रकाशित लोकमत समाचारमें इसे प्रमुखता से प्रकाशित किया गया था । एक स्थानीय अंग्रेजी अखबार में भी इन हाड़ वैद्य कुर्ला वाले चाचा के बारे में छपा ।

          इस घटना को छह महीने भी नहीं बीते थे कि एक शाम आबिद भाई का फोन आया , हंसकर हांक लगाते बोले -‘‘अरे सुनो भई ,मैं अस्पताल में हूं , मेरे हाथ में फ्रैक्चर हो गया है!’’ जैसे हाथ तुड़वाकर अस्पताल में भरती होकर पता नहीं कौन सा तीर मारा है । आवाज में चहक ऐसी - जैसे किसी आयोजन में लखटकिया पुरस्कार जीत आने का एलान कर रहे हैं । सड़क पर चलते हुए एक साइकिल के धक्के से उनके हाथ की हड्डी टूट गई थी । मित्रों का तांता बंधा तो किसी से कहा - मोटर साइकल ने मार दिया , किसी से कहा - गाड़ी से टक्कर हो गई , किसी से कहा - बैल से टकरा गए । जब दो मित्र आपस में बात करने लगे तो उन्हें लगा आबिद को मतिभ्रम हो गया है और सफाई मांगी गई कि आखिर टक्कर हुई तो किससे ? बोले - अब एक ही कहानी सबको सुना-सुना कर बोरियत होती है न इसलिए कहानी में वेरिएशन लाने के लिए ये तब्दीलियां बयान करना जरूरी था !  

       मीरा रोड के अस्पताल का डॉक्टर बिल्कुल वैसा ही ऑपरेशन कर अंदर स्टील की प्लेट डालने का इलाज बता रहा था । रात के दस बजे वे मीरा रोड से और हम दोनों पवई से कुर्ला पहुंचे । उन्हीं  यूनानी हकीम हाड़वैद्य - जो कुर्ला वाले चाचा के नाम से उस इलाके में मशहूर हैं - से इलाज करवाया । आधे घंटे में आबिद भाई के हाथ की हड्डी जुड़ गई । उस दिन के वे आज भी एहसानमंद हैं ।

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सन् 2006 । मैंने आबिद भाई को फोन किया कि मुझे विपश्यना का पता ठिकाना दें , मैं इगतपुरी जाना चाहती हूं । उन्होंने कहा - नहीं , विपश्यना अभी तुम्हारे बस का नहीं है - मौन रहना - कागज कलम भी नहीं ले जाना - तुमसे सधेगा नही । अभी पूना जाओ । वहां एक ज्ञानदेव हैं । वर्कशॉप लेते हैं । उनसे मिलकर आओ । मैं पूना गई । बेहद अस्तव्यस्त मानसिकता में । वाकई ज्ञानदेव ने जीने के जो टोटके थमाए , लौटकर मैंने आबिद भाई को फोन किया कि आपने मुझे सही जगह भेजा था । अपने हाथ की हड्डी जुड़वाने का आपने कर्ज उतार एक बड़े भाई का रोल अदा किया ।

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 आबिद भाई के परिवार की अगली पीढ़ी उनसे भी इक्कीस ही है । उनका छोटा बेटा अलिफ - अपने बाप से भी दो कदम आगे है । हमेशा सुर्खियों में रहता है । अलिफ और अदिति का पहला बेटा पैदा हुआ । उसका बर्थ सर्टिफिकेट लेने के लिए फॉर्म भरना पड़ा , अलिफ अदिति ने उसमें रिलीजन के आगे की जगह खाली छोड़ दी । फॉर्म लौटा दिया गया कि बच्चे का धर्म लिखकर दीजिए । दोनों ने कहा - ‘‘ यह तो बच्चा बड़ा होकर तय करेगा कि वह मां का हिन्दू धर्म लेगा या बाप का मुस्लिम धर्म ! हमलोग उसका धर्म तय करनेवाले कौन होते हैं ।’’

‘‘ तब तो बर्थ सर्टिफिकेट नहीं मिलेगा ।’’ - बात म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन से होती हुई कोर्ट कचहरी तक पहुंची । कैमरा टीम के साथ अलग अलग चैनल वालों ने घर को घेर लिया । आखिर एक कमिश्नर ने सुझाव दिया कि हिन्दू , मुस्लिम , सिख , ईसाई , बौद्ध के साथ साथ एक कॉलम में अदर्श होता है । आप अदर्श लिख दें । खाली जगह पर अदर्श लिखा गया । तब जाकर बर्थ सर्टिफिकेट हासिल हुआ । सारा दिन न्यूज चैनल पर यह खबर बार बार दिखाई जाती रही । मुझे खुशी हुई कि पूरे ताम झाम और मीडिया की गहमागहमी के बीच मासूमा भाभी का दादी बनने का सपना पूरा हुआ ।                                                                      

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पिछले दो साल से आबिद भाई को नहीं देखा । यायावर हैं । मुंबई में कम और भारत के छोटे बड़े कस्बों में ज्यादा रहते हैं । शहर में हुए तो छठे छमाही कभी फोन कर लेते हैं । फिल्म फेस्टिवल और थिएटर फेस्टिवल में ज़रूर दिख जाएंगे । या कभी चौपाल में । मैं भी महीनों फोन नहीं करती पर जब भी मेरा मन हंसने को करता है तो मैं आबिद भाई को फोन कर लेती हूं । हंसी का खजाना हैं आबिद भाई - जो आज के जमाने में दुर्लभ होता जा रहा है ।

आबिद भाई का एक बेहद प्रिय वाक्य है -‘‘ यू हैव मेड माय डे !’’ जो खास तौर पर प्रशंसिकाओं से बोला जाता है । उन्हें यह नहीं मालूम कि उनकी प्रशंसिकाएं आपस में भी कभी-कभी बात कर उनके राज़ खोल देती हैं । इस आलेख को लिखकर जब समाप्त कर रही हूं तो आबिद भाई का यह पचासों बार दोहराया गया जुमला मेरे कानों में बज रहा है । मुझे पता है - पढ़ने के बाद वह अपनी खुली खिली हंसी में ‘‘एक लेखक की बीवी’’ से यही जुमला दोहराएंगे ।

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1702, सॉलिटेअर, हीरानंदानी गार्डेन्स, पवई, मुंबई - 400 076 
फोन -  022 4005 7872 / 097574 94505

7 टिप्‍पणियां:

ashok andrey ने कहा…

ABID Surti jee par ek behtareen sansmaran padvane ke liye mai Sudha jee ka aabhar vaykt karta hoon.

PRAN SHARMA ने कहा…

SUDHA ARORA JI NE BADEE SHAALEENTA
AUR KHOOBSOORTEE SE AABID SURTI JI
KE JEEWAN PAR PRAKAASH DAALAA HAI .

प्रज्ञा ने कहा…

Aapne bada hi jeevant sansmaran likha hai....aabid surti kejeevan ke kitbe rang isme hain....ek poora chitra aankhon ke samne hai...badhai....maine ek baar kathavachak padhne ke liye uthaya tha par padha nahi gaya..lrkin dabbo ji ko kabhi chodha ba tha...aapne sahi lijha hai yahi unka master piece hai.

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने कहा…

बेहतरीन संस्मरण!

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने कहा…

बेहतरीन संस्मरण!

जितेन्द्र 'जीतू' ने कहा…

कमाल का संस्मरण..आपकी लेखनी से निकला एक अद्भुद संस्मरण!!

विजया सती ने कहा…

सुधा जी ने जीवंत लिखा है और अरोड़ा जी ने भी रुचिकर ! इनके माध्यम से दोनों रचनाकारों को जानना सुखद लगा !