गुरुवार, 4 अक्टूबर 2012

वातायन-अक्टूबर,२०१२


अपनी बात

रूपसिंह चन्देल

संस्मरणों पर केन्द्रित अक्टूबर,२०१२ का ’वातायन’ प्रस्तुत करते हुए प्रसन्नता हो रही है. इसमें ’हम और हमारा समय’ के अंतर्गत प्रस्तुत है नवें विश्वहिन्दी सम्मेलन पर आधारित इला प्रसाद का आलेख –’समय की शिला पर---’.  आलेख विश्वहिन्दी सम्मेलनों के आयोजन, प्रयोजन, औचित्य, कार्यविधि आदि अनेक संदर्भों पर ध्यानाकर्षित करता है.  सितम्बर,२०१२ में दक्षिण अफ्रीका के जोहन्सबर्ग में सम्पन्न हुआ सम्मेलन जिस प्रकार प्रश्नों के घेरे में रहा, उसका स्पष्ट संकेत इस आलेख में विद्यमान है.

हिन्दी की वरिष्ठ और चर्चित कथाकार सुधा अरोड़ा के पिताश्री रामलुभाया अरोड़ा जी एक साहित्य प्रेमी व्यक्ति ही नहीं एक लेखक भी हैं. राजेन्द्र यादव पर उनका  संस्मरण - खुदी को कर बुलंद इतना... - एक यारबाश हरफनमौला इंसान’ एक अविस्मरणीय संस्मरण है. सुधा अरोड़ा जी की कहानियां ही नहीं उनके संस्मरण भी अत्यंत जीवंत और यादगार होते हैं.  वरिष्ठ कथाकार आबिद सुरती पर उनका  संस्मरण ’जिंदादिली का दूसरा नाम - आबिद सुरती’ पाठक को लेखक के जीवन के अज्ञात पहलुओं से साक्षात करवाता है .

इन सबके साथ प्रस्तुत है मेरे द्वारा अनूदित महान रूसी लेखक मैक्सिम गोर्की द्वारा लियो तोलस्तोय पर लिखी गई कुछ टिप्पणियां. ये टिप्पणियां मेरे द्वारा अनूदित और संवाद प्रकाशन से प्रकाश्य पुस्तक ’लियो तोलस्तोय का अंतरंग संसार’ में संकलित हैं.

आशा है अंक आपको अवश्य पसंद आएगा. आपकी बेबाक टिप्पणी की प्रतीक्षा रहेगी.

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हम और हमारा समय

समय की शिला पर---
इला प्रसाद


विश्व हिन्दी सम्मेलन मेरे लिए एक सर्वथा नए किस्म का अनुभव था । 

२००२ में अमेरिका आने के बाद यह पहला अवसर था जब मैं हिन्दी भाषा से जुड़े किसी कार्यक्रम में शरीक हो रही थी और वह भी विश्व स्तर का । ढेर सारी आशाएँ मन में -इस  साहित्यकार से मिलूँगी , उससे वार्तालाप करूँगी , और आशंकाएँ भी "मुझे पहचानता ही कौन है।" सरीखी । जाऊँ न जाऊँ का असमँजस बना ही रहता अगर स्नेही डा. अन्जना संधीर ने यह न बतलाया होता कि इस सम्मेलन में अमेरिका के साहित्यकारों की पुस्तकों के विमोचन का कार्यक्रम भी है और मेरी  सद्यप्रकाशित पुस्तकें भी उन्होंने सूची में डाल दी हैं ।

अब, तमाम विसंगतियों के बावजूद - जो मैंने सम्मेलन के दौरान झेलीं , महसूस कीं , यह कह सकती हूँ कि मेरे मन की शिला पर कुछ तो अमिट अंकित हुआ ही । कटुता का भी अपना स्वाद होता है और धुर की सीमा वस्तुत: वही तय करता है।

सम्मेलन की पूर्व संध्या को ही नरेन्द्र ( मेरे पति ) मुझे  संयुक्त राष्ट्र संघ की भव्य इमारत दिखा लाए थे , तब भी वहाँ से सोलह मील दूर होटल में रुके हम अगले दिन जार्ज वाशिंगटन पुल  की  भव्य संरचना को सराहते , वहाँ के ट्रैफ़िक जाम को कोसते , सम्म्लेन में आधा घंटा देर से ही पहुँच पाए। सम्मेलन समय पर शुरू  हो गया था और बहुतों की अनुसार यह एक खास बात थी । पूरा हॉल खचाखच भरा हुआ था । बालकनी की कुछ ही कुर्सियाँ खाली जिन पर शायद किसी ने बैठना पसन्द न किया होगा । उनमें से एक मुझे नसीब हुई और तुरंत ही मुझे भी अपनी गलती समझ में आ गई । सामने और दूसरी ओर जो क्लोज सर्किट टी.वी स्क्रीन लगाए गए थे , मेरी कुर्सी उनके भी पीछे की तरफ़ थी । सुन तो सकती थी लेकिन कुछ भी देखना नसीब नहीं हो रहा था । अंतत, कुछ ही मिनटों के बाद मैंने बालकनी में सबसे पीछे , जहाँ प्रबंधक समिति के सदस्य खड़े थे , जाकर खड़ा होना उचित समझा ।

संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून का अपने भाषण में " नमस्कार, क्या हाल-चाल है" कहना था कि हर हिन्दी प्रेमी की छाती चौड़ी हो गई जैसे । हाल में तालियाँ बज उठीं । भारत का सूर्य उठान पर है ऐसा महसूस हुआ लेकिन अपने देश में ही भाषा की जो दशा और दुर्दशा है, हिन्दी के नाम की रोटी खानेवाले किस तरह हिन्दी के रास्ते की बाधा हैं इस पर भी बाद में , छोटी छॊटी मंडलियों में चर्चारत लोगों को देखा । आनंद शर्मा ने स्मारिका का विमोचन किया और हमारी समझ में यह नहीं आया कि इन दो स्मारिकाओं के अतिरिक्त जो स्मारिका  विदेश विभाग के अनुमोदन से अमेरिका से प्रकाशित हुई थी उसे इस विमोचन से क्यों अलग रखा गया । खैर , बड़े- बड़े लोग वहाँ थे और आप जानते हैं बड़े लोगों की बड़ी बातें होती हैं जो मुझ जैसे नाचीज की समझ में न आनी थी सो न आई ।
उदघाटन समारोह के बाद का सारा कार्यक्रम फ़ैशन इंस्टीट्यूट आफ़ टेक्नोलाजी में था । डा. अन्जना संधीर , बाल  शौरी  रेड्डी  और कुछ अन्य जनों को मिलने के बाद मैं भी  बाहर निकली। अचानक आवाज सुनी -- "इला " ! यह बिन्दु दी( बिन्दु भट्ट) थीं । उन्होंने गले लगा लिया।  वे अच्छी कवियित्री हैं और कोलम्बिया युनिवर्सिटी . में लाइब्रेरियन हैं । उनके साथ सीमा खुराना थीं । येल् युनिवर्सिटी में हिन्दी पढ़ाती हैं - लेखिका और कवियित्री ।  लेकिन यह दूरी बसों में तय होनी थी । हम रास्ते भर बातें करते गए। जो प्रतिभागी भारत या अन्य देश  से आए थे उनका पंजीकरण पहले ही हो गया था किन्तु हमें फ़ैशन इन्स्टीट्यूट पहुंचते ही कतार में खड़ा होना पड़ा । हमारा पंजीकरण होना था ।  यह कष्ट भी खुशी में  तब बदल गया जब  बड़े से बैग में अपनी स्मारिका  "विश्व मंच पर हिन्दी - नए आयाम ; अमेरिकी हिन्दी साहित्य और साहित्यकार, अन्य सीडी आदि के साथ हमें दी गई । खुश होना इसीलिए भी स्वाभाविक था कि  इस स्मारिका में मेरा भी एक लेख है ।

भारत से आए तमाम लोग - जिनमें साहित्यकार भी थे - होटल पेन्सिलवानिया की व्यवस्था से असंतुष्ट दिखे । किन्तु  ऊँची ऊँची इमारतों वाले मैनहट्ट्न जैसे मंहगे शहर में शायद इतने बजट में इतनी ही व्यवस्था सम्भव थी । इस होटल की खास बात यह थी कि यह फ़ैशन इन्स्टीट्यूट से बहुत नजदीक था - आप कुछ दस मिनट पैदल चलकर वहाँ पहुंच सकते हैं । मैनहट्ट्न में फ़ुटपाथ अच्छे हैं  और पैदल चलना आसान है। अगर मैं मैनहट्ट्न की निवासी होती  तो "रोड टेस्ट" कहानी कभी न लिखी गई होती । वहाँ बसों /ट्रेनों की व्यवस्था भी अच्छी है और बहुत सारे लोग इन्हीं में सफ़र करते हैं और कार चलाने की जहमत नहीं उठाते । टैक्सियाँ बहुत मंहगी हैं और शायद उन्हीं  सब को ध्यान में रखकर जनता निजी कारों से यथा सम्भव सड़क को खाली रखती है। शायद आप इशारा समझ गए --  मैन हट्ट्न और न्यूयार्क शहर में ऐक्सीडेन्ट बहुत होते हैं।

पंजीकरण के बाद सफ़र से थके हारे लोग कैफ़ेटेरिया में जमा हो गए । भोजन अच्छा था किन्तु यहाँ भी लम्बी लाइन थी । अपनी दोनों मित्र लेखिकाओं - बिदु भट्ट और सीमा खुराना के साथ मैंने पहले ही एक टॆबल हथिया ली थी -  इस कार्य में वह बड़ा बैग काम आया । फ़िर अनिल प्रभा कुमार - वे हमारी सीनियर, एक अच्छी कवियित्री  और लेखिका हैं  भी हमारे साथ आ गईं । हम सबने एक दूसरे को पढ़ा था , फ़ोटॊ देखी थी और अभी व्यक्तिगत रूप से मिल रहे थे । हमने भोजन शुरू ही किया था कि हमारी टेबल पर एक छॊटी-सी , दुबली-पतली महिला अपनी प्लेट लेकर आ बैठीं । जो तस्वीरें देखीं थीं याद आ रही थीं लेकिन  फ़िर भी.... पूछा । वे बोलीं "मृदुला गर्ग।" बस फ़िर क्या था । हमारी मंडली उत्साह में आ गई । अपनी टेबल पर मृदुला गर्ग । हम तो विशिष्ट हो गए । फ़िर चित्रा मुद्गल और सूर्यबाला भी आ गईं ।  बातें की । फ़ोटॊ खींचे हमने । वे हमारे बचपने पर मुस्कराती रहीं ।

फ़ोटॊ खींचने का कार्यक्रम चल रहा था कि एक अन्य महिला आ खड़ी हुईं । मेरा परिचय हुआ - इला कुमार । हम सम्मेलन में आने के दो दिन पहले से फ़ोन पर बातें कर रहे थे । अब उनसे भी व्यक्तिगत परिचय हो गया।

भोजन के बाद पुस्तक प्रदर्शनी का उदघाटन होना था । बार -बार कैफ़ॆटेरिया में विदेश मंत्री महोदय द्वारा उद्घाटन  की घॊषणा के बावजूद काफ़ी लोग बैठे रहे । लोगों की दिलचस्पी पुस्तकों में थी , अपना नेट्वर्क बनाने में थी लेकिन उद्घाटन में नहीं थी । बाद में तीन दिन लोग पुस्तक मेले और विभिन्न सत्रों में पाए भी गए  किन्तु एक वर्ग वह भी था जो आधे दिन के कार्यक्रम के बाद ही अमेरिका दर्शन पर निकल गया । बाद में यह भी जाना कि इस सम्मेलन में इस बार हिन्दी साहित्य से जुड़े शिक्षाविदों , लेखकों , विद्वानों की संख्या अपेक्षाकृत कम थी और सरकारी अफ़सरों की ज्यादा । लेकिन यह भी तो है कि यह सम्मेलन सरकार की तरफ़ से आयोजित होता है!

खुद मैं, अपनी बचपन की परिचित लेकिन अभी गुजरात की प्रतिनिधि के रूप में आई कवियित्री नलिनी पुरोहित को मिलने , उनकी कविता पुस्तक लेने ,होटल पेन्सिल्वानिया चली गई ।  कुछ समय बाद खयाल आया - पुस्तक विमोचन शाम साढ़े छह बजे तय है । अमेरिका में गर्मियों में सूर्यास्त बहुत देर से होता है - आठ - साढ़े आठ के करीब इसीलिए घड़ी देखे बिना कई बार समय का अन्दाजा नहीं होता ।

रास्तों के मामले में मैं बहुत कच्ची हूँ । मुझे चेहरे याद रह्ते हैं , रास्ते याद नहीं रहते । नलिनी दी ने बतलाया था, तब भी अपने सामने एक दम्पति को देखा जो सम्मेलन में दिखे थे और अभी विपरीत ( यह मैने बाद में जाना ) दिशा में जा रहे थे । अपनी बुद्धि पर भरोसा न कर उनके ही पीछे चल पड़ी । काफ़ी दूर जाने पर भी जब फ़ैशन इन्स्टीट्यूट के दर्शन न हुए  तो उन्हें रोका " आप  सम्मेलन में आए हैं न? " "जी हाँ ।" उत्तर मिला ।  "फ़ैशन इन्सिट्यूट जा रहे हैं ? " " वहाँ क्यों जाना चाहती हैं आप?  अभी वहाँ कुछ नहीं है । कवि सम्मेलन है - रात में ।" उन्होंने मुझे हैरानी से देखा । मेरे चेहरे पर बेचारगी तैर आई होगी जब मैंने कहा - "मुझे जाना है । आप रास्ता बता दीजिए । वहाँ अभी पुस्तक विमोचन होनेवाला है।"  क्या रखा है पुस्तक विमोचन में - का भाव उनके चेहरे पर । जाहिर है वे पत्नी के साथ हवाखोरी पर निकले थे , तब भी मेरी मूर्खता पर तरस खाते हुए उन्होंने कहा - " जाइए ।"  उँगली से इंगित किया रास्ते की ओर । सीधे विपरीत दिशा में लौटी मैं ।

अभी समय था । विभिन्न सत्र चल रहे थे ।

हेफ़्ट आडिटोरियम में जो सत्र चल रहा था वहां स्टेज  पर रवीन्द कालिया , मृणाल पान्डे  आदि । मैंने झांका और जाकर बैठ गई । बहस जारी थी ।  टी वी वाले हिंगलिश परोस रहे हैं । भाषा के साथ खिलवाड़ हो रहा है । हम अपनी अगली पीढ़ी को क्या देने जा रहे हैं , वगैरह - वगैरह । बोलने के लिए मात्र दो- तीन मिनट । अब कोई रिहर्सल करके तो लोग आए नहीं होंगे सो हर व्यक्ति तीन मिनट की सीमा पार कर जाता और संचालक महोदय बीच में ही बैठने का अनुरोध करने लगते ।

बाद में जाना कि यह भी कोई खास बात नहीं थी , ऐसा ही होता है । तमाम सत्रों में यह स्थिति आती रही । लेकिन यदि आप इन सत्रों में उपस्थित हों तो बहुत सारे कायदे के सवाल उठाए जाते हैं , गंभीर विषयों पर परिचर्चा होती है और यदि आप सचमुच हिन्दी प्रेमी हैं , अपनी भाषा से जुड़े प्रश्नों से सरोकार रखना चाहते हैं तो आपके मष्तिष्क को पर्याप्त खूराक मिल जायेगी ।

हर रोज सम्मेलन -समाचार भी प्रकाशित होता रहा । जो कुछ छूट गया, उसकी जानकारी आप सम्मेलन समाचार से ले लीजिए ।

यह सम्भव भी नहीं था कि आप सारे सत्रों में भाग लें क्योंकि एक ही समय में दो समानान्तर सत्र भी चल रहे थे ।

खैर यह तो हुआ...

शाम के भोजन  के बाद जब मैं अन्य लेखिका , शशि पाधा के साथ कैफ़ेटेरिया से भागने की तैयारी में थी - पुस्तक विमोचन के लिए - कि हमारी टेबल पर सुनीता जैन आईं । हमने उन्हें देखते ही पहचान भी लिया । इतनी तस्वीरें देखीं थीं ! वे हमें अपनी प्रवासी-निधि योजना के बारे में बता गईं । तभी कमला - शिंघवी आईं ।  मीठी मुस्कान । हम धन्य हो गए।  फ़िर से एक बार  फ़ोटॊ सेशन और सुनीता जैन आदि सुषम बेदी के साथ । हम भाग लिए ।

पुस्तक विमोचन कार्यक्रम ने इतिहास रचा ।  अमरीका से एक साथ  पच्चीस रचनाकारों की सैंतीस पुस्तकों का विमोचन । विदेश मंत्री पधारे - अपने सहयोगियों के साथ । जिन पुस्तकों का विमोचन होना था , उनका एक आकर्षक पोस्टर मंच पर लगा था । इससे पहले मंत्री जी अमरिकी रचनाकारों की पुस्तकॊं की प्रदर्शनी का भी अंतत: उद्घाटन कर आए थे । एक तरफ़ वरिष्ठ लेखिकाएँ , सुनीता जैन , सुषम बेदी, अन्जना संधीर , सुरेन्द्र गंभीर , रेखा मैत्र  आदि दूसरे हम नवागत - शशि पाधा, देवी नांगरानी, अमरेन्द्र कुमार, अभिनव शुक्ल  आदि  - सब एक मंच पर , एक साथ । यह एक अविस्मरणीय घटना थी ।

तीन बहु प्रचारित प्रदर्शनियों के अतिरिक्त , एक पुस्तक प्रदर्शनी - अमरीकी रचनाकारों की २०० से अधिक  पुस्तकों  की , जहाँ रचनाकारों के चित्रों के अतिरिक्त अमरीका में  होती रही विभिन्न  गतिविधियों (१९६० से अबतक)  को - चित्रों में दर्शाया गया था, दर्शनीय थी ।  यहाँ से प्रकाशित तमाम पत्र- पत्रिकाओं को उपलब्ध कराया गया था , उनकी पत्रिकाओं की प्रतियाँ मुफ़्त में वितरित भी की गईं । इस  आयोजन को देखने वाले बाद में अतिथि पुस्तिका में पठनीय प्रतिक्रियाएँ छॊड़ गए ।  स्मारिका - अमेरिकी साहित्यकारों के लेख सहित । तमाम साहित्यकारों के परिचय और उनकी कृतियों  का लेखा - जोखा प्रस्तुत करती हुई । अमेरिका के उन विश्व विद्यालयों की सूची भी है इसमें - जहाँ हिन्दी पढ़ाई जाती है।

काफ़ी हो गया । हमने विश्व मंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज करने में कोई कसर नहीं छॊड़ी ! अब आपको नकारना ही है , तो नकारें वरना डा. अन्जना संधीर ने , इस सारे आयोजन की परिकल्पना उन्हीं की थी और परिश्रम भी उन्हीं का, आखिरी मेहनत की थी। हम सबने उन्हें धन्यवाद दिया और आडीटोरियम से वापस हुए ।

कवि सम्मेलन रात गए हुआ । मैं वहाँ नहीं थी । लोगों ने आनन्द लिया । उनमें डा कर्ण सिंह भी थे यह हमें अन्तिम दिन उनके समापन भाषण से पता चला । डा. कर्णसिंह का समापन भाषण मनोरंजक और विद्वता पूर्ण था - हमेशा की तरह । बहुत अच्छे वक्ता हैं वे , अच्छे इन्सान भी । उन्होंने  स्वरचित कविता और रामायण की चौपाइयाँ भी सुनाई । श्रोता मुग्ध । देर तक तालियाँ बजती रहीं ।

अन्तिम दिन तक मैं अपने प्रिय कवि सुरेश  ऋतुपर्ण, आदरणीय डा. राम चौधरी , कनाडा से आए श्याम त्रिपाठी , लंदन से उषा राजे सक्सेना आदि को मिल चुकी थी ।  अमेरिका के विभिन्न कवि- लेखक मित्रों को भी ।

बाकी मनीषियों से चाहे व्यक्तिगत परिचय न हुआ, उन्हें देखा - सुना ।

बहुत सारे मित्रों - प्रिय परिचित लेखकों / पत्रकारों की अनुपस्थिति खली ।

कुछ को न जानने की, न मिल पाने की पीड़ा रह गई ।....

कुछ मित्रों को उलाहना दिया, कुछ से फ़ोन पर बातें होकर रह गईं ।

हर रोज रात को सांस्कृतिक कार्य क्रम होते रहे । नॄत्य - संगीत के । लोगों ने भरपूर आनन्द उठाया ।

समय की शिला पर मधुर - अप्रिय चित्र बने ! मन की शिला पर भी .......

अब आप पूछेंगे कि हिन्दी का क्या हुआ? तो जो प्रस्ताव पारित हुए सम्मेलन के अन्त में उनकी खबर हर समाचार पत्र , बेब पत्रिका में छप चुकी है।  पढ़ लीजिए ना ।  हिन्दी का भविष्य इन सम्मेलनों से वास्तव में तय होता है क्या ?


( नवें विश्व हिन्दी सम्मेलन, न्यूयार्क पर आधारित संस्मरण जो गर्भनाल में प्रकाशित हुआ था)
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3 टिप्‍पणियां:

ashok andrey ने कहा…

Ila jee ka aalekh "vishav hindi sammelan" se gujarna achchha laga tatha kaphii saari jankariyan bhee miliin,iske liye Ila jee ko dhanyawad.

PRAN SHARMA ने कहा…

JAANKAREE SE BHARPOOR HAI ILA JI
KAA LEKH .

Ila ने कहा…

रूप जी , मेरे आलेख में एक पंक्ति में एक शब्द "मधुर' के बदले "धुर" छप गया है। आशा है सुधी पाठक समझ लेंगे।

सुधा अरोड़ा जी के आबित सुरती पर संस्मरण से उनके बहुआयामी व्यक्तित्व से परिचित हुई और सुधा जी के पिता जी का राजेन्द्र यादव पर संस्मरण भी पठनीय लगा। वातायन का यह अंक तो संस्मरण अंक बन गया है।
बधाई!
सादर
इला