हम और हमारा समय
विकास के रथ में
भ्रष्टाचार का पहिया
रूपसिंह चन्देल
टू
जी घोटाले के बाद जिस प्रकार तेजी से घोटालों के खुलासे होने प्रारंभ हुए उससे देश
हत्प्रभ है. जनता ने बिहार के चारा घोटाला जैसे कुछ घोटालों के विषय में ही सुना था.
लेकिन अब नित नए खुलासों से ख्रुश्चेव की बात सही
सिद्ध हो रही है कि सचमुच ही यह देश भगवान भरोसे चल रहा है. घोटाले भी छोटे
नहीं---अरबों-खरबों के और घोटालेबाज उन्मुक्त हैं…क्योंकि वे सत्ता का हिस्सा हैं या
कहना चाहिए कि वे ही सत्ता हैं. राजे-रजवाड़े नहीं रहे—यह सच नहीं है. उनका स्वरूप ही
बदला है और फर्क केवल इतना ही हुआ है कि लोकतंत्र की उंगली पकड़कर कुछ ऎसे लोग भी उस
जमात का हिस्सा बन गए हैं जो या तो गांव में
खेती कर रहे होते, किसी कोर्ट में वकील का चोगा पहन टट्टर के नीचे बैठे मक्खी मारते
हुए किसी ग्राहक की प्रतीक्षा में वक्त काट रहे होते, या किसी स्कूल में बच्चों के
साथ सिर खपा रहे होते/होतीं. लेकिन लोकतंत्र ने उनके लिए राजनीति के दरवाजे खोले और
लोहिया, कांशीराम या किसी अन्य के पीछे वे भी उस दरवाजे से वहां प्रविष्ट हो गए और
आज वे अरबों के स्वामी हैं. आय से अधिक की सम्पत्ति के मामले उन पर चलते रहते हैं---उनका
कुछ बाल-बांका नहीं होता. हो भी कैसे सकता है! उस हमाम में सभी नंगे हैं. इसलिए वे
एक-दूसरे को बचाने के प्रयत्न करते हैं. अरविन्द केजरीवाल का कहना बिल्कुल सही है कि
एक पार्टी दूसरी पार्टी के हित साधती है. एक के शासन-काल में दूसरी का कोई भ्रष्ट नेता
कभी जेल नहीं भेजा जाता. जनता को मूर्ख समझने की भूल करते हुए मुकदमे चलते रहते हैं और छानबीन जारी रहती है. फिर
भी देश विकास की ओर अग्रसर हैं ---कहा ऎसा ही जा रहा है. विकास के नाम पर विदेशी कंपनियों
को बुलाया जा रहा है. अब तक १७३ कंपनियां आ चुकी हैं और कितनी आने के लिए तैयार हैं.
प्राकृतिक
संसाधनों के दोहन के लिए भारतीय उद्यमियों को ठेके दिए जाते हैं. इन ठेकों के पीछे
के खेल अब रहस्य नहीं रहे. लेकिन ये उद्यमी सरकारों को ठेंगा दिखाते हुए उसका कुछ भाग
विदेशी कंपनियों को बेच देते हैं. खनन के क्षेत्र में धड़ल्ले से ऎसा हो रहा है और सरकारें
मौन हैं. क्यों मौन हैं, यह बताने की आवश्यकता नहीं है. यह लूट का खुला खेल है. अपने–अपने
ढंग से हर सक्षम नेता-उद्यमी-अफसर देश को लूट रहा है. एक समय था जब राजा जनता को लूटता
था---उसकी निरकुंशता के समक्ष प्रश्न करने का साहस किसी में नहीं होता था. प्रश्न करने
वाले को काल-कोठरी में डाल देने से लेकर सिर कलम करवा देने तक की सजा थी. सत्ता के
बदले स्वरूप में भी वैसा ही सब हो रहा है. कितनों को ही ईमानदारी के लिए जान से हाथ
धोना पड़ा या किसी मंत्री या मंत्री पुत्र के खिलाफ कुछ लिख-कह देने मात्र से जेल जाना
पड़ रहा है. भ्रष्टाचार के पहियों पर दौड़ रहे विकास के रथ पर केजरीवाल के वार की धार
को कुंद करने के प्रयास हो रहे हैं और उसे कुंद करने के लिए सभी एक-मत हैं– एक जुट हैं. ऎसा पहली बार हो रहा
है और इसलिए पहली बार हो रहा है क्योंकि किसी
व्यक्ति ने एक साथ सभी को बेनकाब कर आम जनता
को उनके असली चेहरे दिखाए हैं.
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वातायन
का यह अंक पंजाबी मे मूर्धन्य रचनाकार प्रेम प्रकाश पर केन्द्रित है. प्रस्तुत है उनकी एक चर्चित कहानी –’डेड लाइन’,
उनकी आत्मकथा का एक अंश और जिन्दर के साथ उनकी लंबी बातचीत. प्रेम प्रकाश के विषय में
वरिष्ठ कवि-कथाकार सुभाष नीरव का कथन है :
"लीक से हटकर सोचने और करने में
विश्वास रखने वाले इस लेखक को भीड़ का लेखक बनना कतई पसन्द नहीं रहा। अपने एक इंटरव्यू में 'अब अगर कहानी में स्त्री का ज़िक्र न हो
तो मेरा पेन नहीं चलता'
कहने वाले प्रेम प्रकाश स्त्री-पुरुष के आपसी संबंधों की पेचीदा गांठों को अपनी
कहानियों में खोलते रहे हैं। यह पंजाबी के एकमात्र ऐसे सफल लेखक रहे हैं जिसने
स्त्री-पुरुष संबंधों और वर्जित रिश्तों की ढेरों कामयाब कहानियाँ पंजाबी साहित्य
को दी हैं। जो न केवल पंजाबी में मकबूल हुईं, अपितु हिंदी के विशाल
पाठकों ने भी उन्हें पसन्द किया। इनकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि मनुष्य मन की सूक्ष्म से
सूक्ष्मतर गांठों को पकड़ने में सफल रही है।"
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कहानी
डेड लाइन
प्रेम प्रकाश
पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव
सतपाल, एस.पी. आनन्द, सत्ती या पाली - मरनेवाले के ही नाम थे। जब मैं इस घर में ब्याहकर आई थी
तो सामाजिक संबंध में वह मेरा देवर था – आँगन में गेंद से खेलनेवाला, छोटी-छोटी बात पर रूठनेवाला, और
जो भी सब्ज़ी बनती, उसे न खानेवाला, लेकिन भावनात्मक संबंध से वह मेरा बेटा था, भाई
था और प्रेमी भी।
आज उसकी पहली बरसी थी। ब्राह्मणों को भोज कराया गया। दान-पुण्य किया गया और घर
में उसकी जो भी निशानी बची थी, दान कर दी गई ताकि उसकी माँ-जैसी भाभी, देवता स्वरूप वीर (भाई) और अधरंग के मरीज़ पिता की आत्मा
को शांति मिल सके। मरनेवाले की आत्मा क्या मालूम कहाँ जन्म ले चुकी हो या अभी भी इस
घर में अथवा अपनी मंगेतर के घर में भटकती घूम रही हो! हो सकता है, ताया की पुत्रवधू संतोष
के चौबारे पर आ बैठती हो। आनंद साहब से कहूँगी - ''चलो, पहोवा जाकर एक बार गति करवा आएँ। पिताजी की आत्मा तो
चैन से रहेगी।''
दिनभर रिश्ते-नातेदारों और संबंधियों की व्यर्थ-सी बातें सुन-सुनकर, उन्हें चाय-पानी पूछ-पूछकर
मुश्किल से फुर्सत मिली है। थककर निढाल-सी पड़ी हुई सोच रही हूँ - परमात्मा ने पिछले
नौ महीनों में क्या लीला दिखा दी! सत्ती अपनी उम्र के आख़िरी नौ माह पिछले तेईस वर्षों
से भी अधिक लंबे करके जी गया।
गले के कैंसर के बारे में डॉक्टर पुरी की रिपोर्ट मिलने के बाद उसने नौ महीने की
आयु कैसे गुजारी, यह मरनेवाला ही जानता था या फिर मैं। कैंसर के रोगियों के विषय में मैंने जो कुछ
पढ़ रखा था, वह आधा झूठ था। सच तो वह था जो हम पर बीता था।
बी.ए. करके एक साल की बेकारी के बाद सत्ती को नौकरी मिले और कुड़माई(मंगनी) हुए
अभी पूरा साल भी नहीं बीता था कि गले में हो रही खारिश का नाम कैंसर बन गया, जिसकी रिपोर्ट देते हुए
डॉक्टर पुरी, जो रिश्ते में मामा भी लगते थे, की पूरी चाँद पर पसीने की बूँदें चमकने लगी थीं। उन्होंने
मेरे और आनन्द साहब के कंधे पर हाथ रखकर कहा था, ''बेटा, छह महीने बाद यह अपना नहीं रहेगा। इलाज का कोई लाभ नहीं।
यदि पैसे ख़र्च करना ही चाहते हो तो कहीं धर्मार्थ लगा दो। मात्र नाम के लिए मैं दवा
देता रहूँगा।”
लेकिन डॉक्टर पुरी को क्या मालूम कि बिना कोई चारा किए जीना कितना कठिन होता है।
शाम के समय मैंने सत्रह हज़ार रुपये वाली साझे खाते की पासबुक उसके वीर के आगे रखकर
कहा, ''यह पैसा हम किसके लिए बचाकर रखेंगे ?''
विवाह के सालभर बाद मुझे सिजेरियन ऑपरेशन से एक बच्ची हुई थी लेकिन मैं उसे छह
महीने भी दूध न पिला सकी। जिसने दी थी, उसी ने वापस बुला ली। तभी, मैंने नौकरी छोड़ दी थी।
किसके लिए इतना धन इकट्ठा करना था ?
सत्ती की रिपोर्ट लाकर हम पिताजी के कमरे में दरवाजे क़े पास खड़े थे, काग़ज़ थामे। वह हमें इस
तरह देख रहे थे, मानो हम शॉपिंग करके लौटे हों और उनके लिए फल लाए हों। हम उनकी वह नज़र झेल नही
सके। जल्दी ही अपने कमरे में चले गए।
सत्ती अभी दफ्तर से लौटा नहीं था। 'उसे कैसे बताएँगे ?' यह सवाल आनन्द साहब ने मुझसे किया और फिर खुद ही आँखों
पर हाथ रखकर रो दिए। मेरे भी आँसू निकल आए। लेकिन मैंने जल्दी ही आँखें पोंछकर पति
को दिलासा दिया कि यह काम मैं करूँगी। मुझे लगा कि सास के बाद यह ज़िम्मेदारी मेरी ही
है। मैं इस घर की माँ हूँ। सोचा - यदि मैं भी रो पड़ी तो फिर सत्ती रोएगा, पिताजी रोएँगे, यह घर कैसे चलेगा ?
रात में आनन्द साहब सैर करने चले गए। पिताजी खा-पीकर सो गए तो मैं सत्ती के साथ
कैंसर की बातें करने लगी। हम रोगियों के विषय में पहेलियाँ-सी बूझते रहे। आख़िर हम उस
जगह पहुँच गए, जहाँ रोगी बाकी बचे जीवन को सुखी बनाने के लिए संघर्ष करते हैं और बिना दु:ख के
ही मौत कबूल कर लेते हैं। और फिर मैंने डॉक्टर पुरी का फ़ैसला शक बनाकर कह डाला।
सुनकर वह डरा नहीं, लेकिन उसके चेहरे की मुस्कान लुप्त हो गई। बोला, ''मैं खुद ही डॉक्टर पुरी से पूछूँगा।'' मैंने रिपोर्ट उसके आगे
रख दी। उस पर कैंसर तो नहीं लिखा था, डॉक्टर की भाषा में कुछ और ही था। उसने एक बार देखकर
रिपोर्ट उसी तरह तह करके टिका दी। एक बार खाँसा और उठकर अपने कमरे में चला गया।
मैं खड़ी देखती रही। वह दो-तीन मिनट अपनी मेज़ का सामान इधर-उधर करता रहा और फिर
बाहर बरामदे में आकर रुक गया। सामने गेट के पास क्यारी में लगे फूलों की ओर देखता रहा।
मुझे लगा कि लो, यह मौत का चक्कर शुरू हो गया!
रात में आनन्द साहब आए। पलँग पर लेटकर सिगरेट सुलगाकर बोले, ''हम सत्ती का इलाज करवाएँगे।
कई मरीज़ दस-दस साल जी जाते हैं।'' वे अपने मित्रों से सलाह-मशवरा करके आए थे।
मैंने दो हज़ार रुपये निकालकर उनके सामने रख दिए। वे खीझ उठे। गुस्से में बोले तो
मुझे ख़याल आया कि ख़र्च तो मुझे ही करना है। इलाज भी मैंने ही करना है। पति से माफ़ी
माँगकर मैं सत्ती के कमरे में गई तो देखा, वह सो रहा था।
सुबह सत्ती के लिए पाय लेकर गई तो वह अभी उठा नहीं था। उसके लंबे घुँघराले बाल
उसके सुनहरे माथे पर आए थे। चौड़ा मस्तक, घने पर छोटे बालोंवाली भौंहें और उनके बीच बारीब-बारीक
रोएँ-से मुझे शुरू से ही अच्छे लगते थे। कहते हैं - परमात्मा जिसे बहुत रूप देता है, उसे जल्दी ही उठा लेता
है। मन हुआ - बालों को हटाकर उसका माथा चूम लूँ।
जब मैं इस घर में ब्याहकर आई थी तो वह गोद में खेलता बच्चा था। अंबालावाली मौसी
ने उसे पकड़कर मेरी गोद में बिठा दिया था। यह कोई रीति थी या फिर प्रार्थना कि परमात्मा
इस गोदी में लड़के बिठाए। पर मुझे लगा था कि मुझे याद कराया गया है कि तू इसकी माँ भी
है।
अपने घर में मैं अपने छोटे भाई सुभाष को स्कूल भेजने के लिए तैयार किया करती थी, यहाँ आकर सत्ती को करने
लग पड़ी थी।
सत्ती सोकर उठा। मुझे देखकर मुस्कराया। पर तभी उदास हो गया। शायद उसे मेरे मुस्कराते
चेहरे के नीचे छिपी उदासी दिखाई दे गई थी। आनन्द साहब भी पास आकर खड़े हो गए थे, लेकिन उनका मुख खिड़की की
ओर था। बोले, ''सत्ती, तू फिकर न कर, इसका इलाज हो सकता है। हम आज क्रिश्चियन अस्पताल चलेंगे।''
अस्पताल में डॉक्टर जोसफ़ का यह कहना -''जान बख्शना तो खुदा का काम है, इलाज करना बंदे को, आओ खुदा के नाम से शुरू
करें।'' - हमें कोई तसल्ली न दे सका। फिर भी इलाज चलता रहा। नोट काग़ज़ के पुर्जों की भाँति
उड़ते रहे। एक महीने के इलाज के बाद जब रोग खूब बढ़ गया तो फिरोज़पुर के एक साधु का इलाज
चला। फिर एक इश्तहारी हकीम की हल्दी से बनाई गई दवा चली। फिर कुरुक्षेत्र के वैद्य
की, और फिर पी.जी.आई....।
मेरी हमेशा यही कोशिश रहती थी कि सत्ती अकेला न रहे। हम ताश, कैरम व अन्य खेल खेलते
या फिल्में देखने चल पड़ते। ताश वह अंगूठे और उँगली को थूक लगाकर बाँटता था। रोटी खाता
तो मेरी कटोरी में से बुर्की लगा लेता। शर्त लगाता तो मेरे हाथ पर हाथ मारता, मैं डर जाती।
एक दिन डॉक्टर पुरी के पास गई। वे बोले, ''कैंसर छूत का रोग नहीं है, लेकिन परहेज़ में क्या हर्ज
है।''
मैं ऊपर से हँस देती लेकिन अन्दर से डरती। पर कभी-कभी मेरा प्यार इतना ज़ोर मारता
कि मैं सब-कुछ भूल जाती।
एक दिन हम दोनों इंग्लिश मूवी देखकर लौटे। चौबारे की सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते सत्ती ने
फिल्मी स्टाइल में सहारे के लिए अपना हाथ पेश कर दिया। मैंने भी फिल्मी अंदाज़ में सहारा
लेकर अंतिम स्टेप पर जाकर उसका हाथ चूम लिया। वह अजीब-सी नज़रों से मुझे देखने लगा।
मैं बेपरवाह-सी कुर्सी पर बैठकर अल्मारी के शीशे में उसके चेहरे के बदलते रंग देखती रही। वह
सुर्ख होकर पीला पड़ने लगा था।
''क्या बात है, उदास क्यों हो ?'' मैंने उसके कंधे पर हाथ रखकर प्यार से पूछा तो वह मेरी गोद में सिर देकर रो पड़ा।
मैंने उसके सिर और पीठ पर हाथ फेरते हुए उसे दोनों बांहों में कस दिया, ''तुम तो मेरी जान हो, प्यारी-प्यारी!''
उसने नि:श्वास छोड़कर अंग्रेजी में कहा, ''मैं ज़िन्दगी खो चुका हूँ।''
उसकी इतनी-सी बात से मेरी जान निकल गई। मौत के बारे में यह पहली बात थी, जो उसने कही थी, खुद अपने मुँह से। मैंने
उसका माथा चूमते हुए अंग्रेजी में ही कहा, ''मेरा सब कुछ तुझे अर्पित है, माई डियर!''
डर के कारण सत्ती की नींद उड़ गई। वह अब देर रात तक जागता रहता। यह बात हमारी नींद
भी उड़ाने के लिए काफ़ी थी।
एक रात डेढ़-एक बजे आवाज़ आई, जैसे सत्ती ने पानी माँगा हो। मैंने जल्दी में बीच का दरवाज़ा खोलकर देखा। सत्ती
तकिये में मुँह दिए औंधा पड़ा था। उसके शरीर का बड़ा हिस्सा रजाई से बाहर था। इतनी ठंड
में भी प्यास लग सकती है ? न जाने अन्दर क्या तूफान मच रहा होगा! यही सोचकर मैं उसके पास पहुँची। सिरहाने
बैठकर उसका सिर सहलाते हुए पूछा, ''क्या बात है, नींद नहीं आती ?''
''नहीं, दो घंटे से जाग रहा हूँ।''
मैंने उसे काम्पोज़ दी जो अब आनन्द साहब को, और कभी कभी मुझे भी खाने की आदत पड़ गई थी।
''भाभी, मेरा शराब पीने को दिल करता है।'' उसने नज़रे उठाए बिना ही धीमे से इस तरह कहा कि कहीं वीर
जी न सुन लें।
''अच्छा, डॉक्टर से पूछेंगे। अब तू सो जा।'' कहकर मैं उसे रजाई से ढककर अपने बिस्तर पर आकर करवटें बदलने लगी।
सुबह काम निबटाकर डॉक्टर पुरी के पास गई। उन्होंने फौरन कह दिया, ''वह जो माँगता है, दो। उसकी आत्मा तृप्त रखो
और समझो कि यही नियति-क्रम है। चिंता ताकी कीजिए...।''
डॉक्टर पुरी का व्याख्यान दूसरों के लिए ही है - सोचकर मैं तेज़ी से क्लीनिक से
बाहर आ गई। वह क्या जाने किसी नौजवान की मौत कैसे अन्दर से कमज़ोर और खोखला करती है!
कैसे मौत का डर हमारे घर की ईंट-ईंट पर बैठ गया था! हर चेहरे पर मातमी हाशिया चस्पाँ
था। एक पिताजी ही नहीं जानते थे लेकिन पराजित-से चेहरे देखकर वे भी डरे रहते थे। मैं
उनके कई प्रश्नों का उत्तर कैसे देती - ''तू उदास क्यूँ रहती है ? सत्ती दफ्तर क्यों नहीं
जाता ? तुम लोग उसे कहाँ लेकर जाते हो ?''
एक दिन दिल में आया कि बता दूँ - पिताजी, तुम्हारे लाडले के मरने में अब कुछ समय ही शेष है। हम
उसे हर उस जगह पर लेकर जाते हैं, जहाँ कैंसर का इलाज होता है।
एक शाम सत्ती पीकर आया। लड़खड़ाते कदमों से अपने कमरे में जाता हुआ वह दहलीज़ पर गिर
पड़ा। मैंने सहारा देकर उठाया। उसने मेरे गले में बांह डाल ली और बिस्तर पर गिरते हुए
मेरी चुन्नी खींचकर अपने मुँह पर लपेट ली। आधी चुन्नी मेरे कंधे पर थी और आधी उसके
मुँह पर। वह रो रहा था - शायद मौत के डर से। मौत से पहले आदमी अपनी असफल कामनाओं के
बारे में क्या सोचता है, मैंने सोचा और डर गई।
डेढ़ेक घंटे बाद उसका वीर उसे देखने आया तो वह उल्टियाँ कर रहा था। उसमें खून के
धब्बे थे, जो मैंने आनन्द साहब की नज़र से बचाकर जल्दी से पोंछ दिए।
अगले दिन इतवार था। हमेशा की तरह हवन करने बैठे तो सत्ती का मन टिक नहीं रहा था।
पहले वह श्रद्धापूर्वक बैठा करता था। शाम के समय संध्या भी करता था, आचमन करता था और उसका वीर
तथा मैं बड़े दिल से मंत्रोच्चार करते - जीवेम शरद: शतम्। पिताजी पिल्लर के सहारे बैठे
सिर्फ़ सुनते रहते।
सत्ती ने अनमने भाव से हवनकुंड में अग्नि प्रज्वलित की और हर मंत्र के बाद स्वाहा
कहकर आहुति डालता-डालता अचानक रुक गया। पीछे हटकर दीवार का सहारा लेकर बैठ गया और आँखें
बंद कर लीं।
शाम को वह फिल्म देखकर लौटा। थोड़ी देर बैठकर दवा खाई और बाहर जाने लगा। मैंने रोक
लिया। अल्मारी में से शराब का क्वार्टर निकालकर मेज़ पर टिका दिया। वह मुस्करा दिया।
मैंने कहा, ''घर में बैठकर पी ले। तायाजी के यहाँ नहीं जाना। जाने वहाँ क्या-क्या खा आता है!''
सच, मुझे अच्छा नहीं लगता था
कि वह रिश्तेदारों के यहाँ खाए-पिए, उनके आवारा लड़कों के संग बैठकर शराब पिए, बाद में बातें मुझे सुननी
पड़ें। उनकी बहू संतोष की जुबान गज़भर की है। और वैसे भी उसका चाल-चलन ठीक नहीं। पता
नहीं किसको चौबारे पर लिए बैठी रहती है।
मैं रसोई का काम निपटाकर आई तो वह सारी बोतल खत्म किए बैठा था। उसने पूछा, ''भाभी, वीरजी कितने बजे आएँगे
?''
''शायद सवेरे आएँ। रास्ते में उन्हें अम्बाला भी जाना है, मौसी के पास।''
''और है क्या ?'' उसने नज़र गिलास की ओर करते हुए हिचकिचाते हुए पूछा।
मन हुआ, जवाब दे दूँ - अधिक नुकसान ही करेगी। फिर सोचा - अब दो-ढाई महीनों में क्या होना
है !
''है, पर दूँगी नहीं।'' मैंने हँसते हुए कहा।
वह निराश-सा हो गया तो मुझे एकदम-से उस पर प्यार आ गया। मरनेवाले से झूठ बोलना, उसे धोखा देना, मुझे पाप-सा लगा। मैंने
उठकर अल्मारी खोल ली। वह मेरे साथ आ खड़ा हुआ। उसकी साँस तेज़ हो रही थी। मैंने उसे क्वार्टर
में से बचाकर रखी हुई भी दे दी। उसने शीशी पकड़कर मेरे कंधे चूमकर रस्मी तौर पर धन्यवाद
किया। शायद कुछ और भी कहा था, लेकिन मैंने वह सुना नहीं। एक लहर मेरे शरीर को कँपाती हुई-सी निकल गई थी।
मैं सामने कुर्सी पर बैठ गई थी। वहाँ बैठकर उसे देखती रही। उसने दूसरा गिलास रखकर
उसमें भी उँडेल दी। न जाने उसे मेरे दिल की बात कैसे मालूम हुई! आदमी ज्यों-ज्यों मौत
के करीब होता जाता है, उसकी छठी ज्ञानेन्द्रि तेज़ होती जाती है शायद।
मेरे न-न करते भी उसने मुझे बांहों में कसकर दवा की तरह वह तीखी कड़वी चीज़ पिता
दी। जीवन में दो बार पहले भी मैंने यह पी थी। एक बार कुँआरी थी मैं तब, सहेली के घर। तब तो कुछ
पता ही नहीं चल पाया था। और दूसरी बार आनन्द साहब के साथ मिलकर पी ली थी। अच्छी-खासी
चढ़ गई थी। बहुत कड़वे-मीठे अनुभव हुए थे। लेकिन सुबह उठने के बाद मेरी तबीयत इतनी खराब
हो गई थी कि फिर तो कभी मुँह लगाने से मैं डरती रही।
लेकिन उस दिन प्यारे सत्ती का कहना न ठुकरा सकी। यूँ लगता था कि मैं उसकी कोई भी
बात ठुकराने योग्य नहीं रही। वह कहकर तो देखे।
मैं रोटी परोस कर लाई तो उसके हाथ बुर्की तोड़कर मुँह में डालते हुए ग़लतियाँ कर
रहे थे। दरअसल बुर्की तोड़ते हुए, सब्ज़ी लगाते हुए भी उसकी नज़र मुझे पर टिकी थी। उसने खाना
बंद कर दिया। सहसा, तेज़ स्वर में भाभी जी कहकर मेज़ पर बांहें टिकाकर बैठ गया।
मैंने प्यार से उसका सिर सहलाते हुए कहा, ''सत्ती, चल उठ। लेट जा, सो जा।''
उसने चेहरा ऊपर उठाया तो लाल सुर्ख हो रहा था। आँखें भी लाल थीं। मैं समझ गई कि वह क्या चाहता है। मेरा
दिमाग सुन्न होता जा रहा था। मैं सोच रही थी कि हिंदू धर्म उस आत्मा के लिए क्या कहता
है, जो नारी-प्रेम के लिए भटकती हुई अपना शरीर छोड़ जाए ?
मैं उसे सहारा देकर उसकी बिस्तर तक ले गई। मुझे लगा, मेरे पैर भी ठीक से नहीं
टिक रहे थे।
रजाई उस पर ठीक करके मैं हटने लगी तो उसने मेरी बांह पकड़ ली। बोला, ''भाभी, मुझे एक बार निर्मल से
मिला दो।''
मेरे अन्दर से हूक निकल गई।
''मैं कहाँ से लाऊँ तेरे लिए निर्मल ? मेरे प्यारे सत्ती, वह तो तुझे एक बार भी देखने नहीं आई। तेरा ससुर आया था, हालचाल पूछकर चला गया।''
विवश होकर, दिल पर एक बोझ लेकर मैं उसके बिस्तर पर बैठ गई। उसे चूमा और प्यार से उसका सिर
उठाकर अपनी गोद में ले लिया। उसने बेबसी में बांहें फैलाईं और मुझे बांहों की सख्त
पकड़ में ले लिया, जैसे डरा हुआ बच्चा अपनी माँ से चिपट जाता है।
एक बार तो मैं जड़ हो गई। फिर न उसे भान रहा, न मुझे कि हम कौन थे। मैं उसकी भाभी थी, बहन थी, माँ थी या पत्नी।
मेरे सामने उसका चमकता माथा, घनी भवों और पतले होंठोंवाला चेहरा था, या चेहरा भी नहीं, केवल शरीर था... अग्नि
में तपे लोहे-सा, या केवल आत्मा थी - निश्छल, निर्विकार और न जाने क्या-क्या, जिस पर कोई आवरण नहीं था। आत्माएँ नंगी थीं, कपड़े तो शरीरों पर थे...
बस, हवन हो रहा था। आहुति पड़ रही थी। हर आहुति पर अग्नि प्रचंड होती थी, ‘स्वाहा-स्वाहा’ की ध्वनि हो रही थी।
शांतिपाठ हुआ तो वह थकान से चूर-सा सोने लगा। मैं उसके साथ लेटी उसके मासूम चेहरे
की ओर देखती रही। मुझे तब याद आया कि उसके नक्श उस लड़के से मिलते-जुलते थे जिसे एक
बार देखने के लिए मैं कितनी देर मुंडेर पर खड़ी रहती थी। मैंने उठकर उसे भवों के बीच
चूमा। रजाई देकर अपने बिस्तर पर आ पड़ी। सोचती रही - हमने क्या किया है ? क्या हम धर्म की नज़र में
पथभ्रष्ट हो गए हैं ? नरक के भागी बन गए हैं ? मुझे लगा, मैंने धर्मग्रंथों में जो कुछ पढ़ा, वह झूठ है। सच यही है जो परिस्थितियाँ हमें देती हैं, जिसमे ब्रह्महत्या भी पाप
नहीं हो सकती।
सुबह इतवार था। आनन्द साहब सात बजे ही आ गए। शायद वे हर इतवार के हवन करने के नियम
को भंग नहीं करना चाहते थे। इसके साथ उनका कोई वहम जुड़ा होगा। मैंने सत्ती को जगाया
कि उठकर नहा ले।
हवनकुंड के इर्द-गिर्द आनन्द साहब मेरे बाएँ बैठे थे, सत्ती दाएँ। सामने पिताजी
बैठे थे, पिलर का सहारा लेकर। हवनकुंड के इर्द-गिर्द चारों दिशाओं में पानी गिराकर शरीर
के सभी अंगों के लिए शक्ति की प्रार्थना करके मैंने अंजुरी में से पानी के कतरे ऊपर
फेंकने के साथ-साथ सत्ती पर भी फेंक दिए। तभी मुझे लगा - हम इतनी उम्मीदें बाँधते हैं
शारीरिक अंगों की शक्ति के लिए, सौ साल जीने के लिए, सत्ती के पास तो अब तीस दिन भी बाकी नहीं रहे!
दूसरे कमरे में जाकर मैंने आनन्द साहब से पूछा, ''कुरुक्षेत्र वाले वैद्य ने क्या बताया ?''
''क्या बताता! बोला - बीमारी पक चुकी है, दवा लेनी हो तो ले जाओ, वरना न सही। मैं पंद्रह
दिन के लिए दवा ले आया हूँ।''
बरामदे में हवनकुंड में से ज्वाला प्रज्वलित हो रही थी। पिताजी पिलर के सहारे बैठे
थे। उनकी नज़र कभी सत्ती की ओर उठती, कभी अग्नि की ओर तो कभी आसमान की तरफ़।
मैंने गहरा नि:श्वास छोड़ा तो आनन्द साहब ने पूछा, ''क्यों न पी.जी.आई., चंडीगढ़ ले चलें। एक नया
इलाज होने लगा है वहाँ। रान पर लकीरें डालकर दवाई पेट में कर देते हैं, सप्ताह भर उसका असर देखते
हैं। साथ ही, बिजली भी लगाते हैं। कितने रुपये बचे हैं ?''
''बहुत हैं... जैसी आपकी इच्छा।'' कहकर मैं रसोई में चली गई। सोचती रही - मालूम नहीं, किसे कहाँ-कहाँ की दवा
खाकर, कहाँ किस बिस्तर पर मरना है। चंडीगढ़ क्या बनेगा ? चलो, हर्ज ही क्या है ?
शाम के समय सत्ती दिनभर घूमकर आया तो उसका दिल टिकता ही नहीं था। वह संकेत करके
मुझे चौबारे में ले गया। घुमा-फिराकर बात करने लगा। मैं समझ गई, उसका दिल पीने को हो रहा
है। लेकिन आनन्द साहब का डर था। मैं उसे सब-कुछ वहीं पकड़ा आई।
आनन्द साहब साबूदाना लेने बाज़ार गए तो सत्ती तुरन्त नीचे उतर आया। रसोई में मेरे
पीछे खड़ा हो गया। उसकी साँस बहुत तेज़ चल रही थी। मैंने पलटकर देखा, उसकी आँखें भी लाल थीं।
उसने अंग्रेजी में कहा, ''प्लीज़, किस मी।''
मैंने उसके माथे पर से बाल हटाए और कसकर उसे चूम लिया और कुछ देर उसे उसी तरह सीने
से सटाकर खड़ी रही। तभी महसूस हुआ कि यहीं से पाप शुरू होता है, जब मनुष्य अपने स्वार्थ
के लिए कुछ करता है। मैं एकदम पीछे हट गई। लेकिन वह नहीं हट रहा था। मैंने समझाया, उसे आनन्द साहब का डर दिया
व तसल्ली दी तो वह बरामदे में जाकर बैठ गया। इसी कारण मैंने सफ़ाई और बर्तनों के लिए
घर पर काम करने आने वाली लड़की हटा दी थी। इसी डर से मैं उसे ताया की बहू संतोष के पास
नहीं जाने देती।
खाना खाकर आनन्द साहब सैर करने निकले तो सत्ती फिर से बच्चों की तरह जिद्द करने
लगा। मेरे रोकते-रोकते उसने बेडरूम की बत्ती बुझा दी।
वह शांत होकर सुस्ताने लगा तो मुझे लगा मानो मेरा मरनेवाला बच्चा मेरे साथ लेटा
है। मैं उछलते दूध वाली छाती उसके मुँह में दे देती हूँ, लेकिन उसमें चूँघने की
शक्ति नहीं... मुझे होश आया तो मैं उसी तरह सत्ती को लिए बैठी थी, जैसे कोई माँ अपने दूध-पीते
बच्चे को दूध पिलाती सो चली हो और फिर बच्चा भी।
उठकर मैं तेज़ी से बाथरूम में गई। ब्रश लेकर कुल्ला किया। मेरे अन्दर डर बैठ गया।
शुरू-शुरू में मैं अपने होंठ बचाने के लिए मुँह पर कपड़ा रखती थी, लेकिन कुछ उसके ज़ोर डालने
पर व कुछ अपनी बेबसी में मैं यह भूल ही बैठी कि वह कैंसर का रोगी था।
दोपहर में डॉक्टर पुरी के पास गई। उन्हें नई आई नौकरानी के साथ सत्ती की बात जोड़कर
बताई तो वे बोले, ''कोई बात नहीं। नो इन्फेक्शन।'' लेकिन मेरा वहम दूर न हुआ।
चंडीगढ़ में हमारे कई संबंधी हैं, लेकिन हम किसी के यहाँ नहीं गए। रोगी के साथ जाना क्या
अच्छा लगता ? अस्पताल के पास पंद्रह सेक्टर में एक कमरा-रसोई किराये पर लेकर रहने लगे। अस्पताल
से फारिग होकर हम देवर-भाभी पकाते, खाते, ताश खेलते, शाम को सैर के लिए निकल जाते। शॉपिंग सेंटरों में लोगों
की भीड़ में सत्ती का मन लगता था। वह जो भी पसंद करता, मैं खरीद देती। कई कॉस्मेटिक्स
वह मेरे लिए भी पसंद करता, मैं वह भी खरीद लेती। एक दिन उसने एक स्कॉर्फ पसंद किया। इतने गहरे लाल, नीले, पीले रंगों का वह स्कॉर्फ
मुझे क्या अच्छा लगता भला, लेकिन सत्ती की ख्वाहिश थी या जिद्द, मुझे दुकान से वही बाँधकर उसके साथ चलते हुए घर तक आना
पड़ा। उसी को बाँधकर बिस्तर पर लेटना पड़ा।
सर्दी जा चुकी थी, तो भी वह चाहता था कि रात को दरवाजे-खिड़कियाँ
बंद रहें। नारी को देखने की उसकी भूख मिटती नहीं थी। कभी-कभार वह मुझे देखता, सोचता और फिर मेरी छातियों
में नाक घुसाकर रोने लग जाता।
अस्पताल में मुझसे कोई पूछता, ''क्यों बीबी, यह तेरा भाई है ? मैं 'हाँ' कह देती। यदि कोई पूछता, ''तेरा बेटा है ?'' मैं तब भी 'हाँ' कह देती। यदि कोई पूछती, ''यह तेरा क्या लगता है ?'' मैं चुप ही रहती। क्या
बताती ? चंडीगढ़ में वह मेरा पति बनकर रह रहा था, मेरे शरीर का स्वामी।
अब औरत उसके लिए कोई भेद, कोई रहस्य नहीं रही थी, एक रूटीन बन गई थी। उसका अपना शरीर दिनोदिन कमज़ोर होने लगा था - बिजली के इलाज
के कारण या उसकी मानसिक अवस्था के कारण, कुछ निश्चित कहा नहीं जा सकता। उसकी जिद्द व माँग भी
कम होने लगी थी। खाने-पहनने से भी उसका जी उचाट होने लगा था। वह कभी शराब पीता, कभी समाधियाँ लगाता, तो कभी गीता के श्लोक उच्च
स्वर में पढ़ता रहता - नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि। मैं सोचती कि बार-बार उसका यह श्लोक-पाठ
किसी को कैसे सहारा दे सकता है! आत्मा के अमर-अजर होने से उसे क्या फ़र्क पड़ता है!
पी.जी.आई. का कोर्स पूरा करके हम घर लौटे तो अब उसे दलिया खाना भी मुहाल हो गया
था। कभी-कभी हालत एकदम बिगड़ जाती। साँस लेना मुश्किल हो जाता। वह सुबह से शाम तक बरामदे
में अपनी खाट पर लेटा गेट की ओर देखता रहता। कभी-कभी अचानक डर जाता। उसकी बांह, टाँग या सारा शरीर काँप्
जाता, जैसे बच्चे सपना देखकर डर जाते हैं।
शाम को चाय के समय पिताजी ने सत्ती को बुलाया। वह सामने कुर्सी पर आ बैठा। पिताजी
देखते रहे। फिर कुछ फुसफुसाकर हाथ जोड़कर उन्होंने आँखें मींच लीं। मैंने सत्ती को संकेत
करके उठा दिया।
एक दिन बरामदे में सत्ती को सिगरेट पीते हुए छोड़कर रसोई में गई तो चीख सुनाई दी।
मैं दौड़कर आई - वह आरामकुर्सी से गिर पड़ा था, सिगरेट फर्श पर पड़ी सुलग रही थी। तनिक सहारे से वह उठ
बैठा, बोला, ''भाभी, मेरी साँस रुकने लगी थी।''
मैं उसके गले पर देसी घी मलती रही।
आख़िर डेड लाइन भी आ गई। वह आख़िरी रात थी। मुझे नींद नहीं आ रही थी। आनन्द साहब
गायत्री मंत्र का पाठ कर रहे थे। लेकिन सत्ती सो रहा था। मैं इसी दौरान दो बार उसे
देख चुकी थी।
अचानक उसकी कठिन साँसों की आवाज़ रुक गई। कुछ क्षण मैं साँस रोककर लेटी रही। फिर
उठकर उसके कमरे में गई। धीमे-से चादर का पल्लू हटाकर देखा - उसकी साँस चल रही थी। लेकिन
उसका चेहरा पीला हो गया था। झुककर मैं उसके चेहरे को निहारती रही, चेहरा जो कभी लाल गुलाब
था।
वह रात निकल गई - डॉक्टर पुरी की डेड लाइन।
सुबह उठकर आनन्द साहब ने फिर हवन किया। पिताजी के हुक्म के अनुसार कितना सारा अनाज
व वस्त्र सत्ती के हाथ से दान करवाया। तीसरे पहर सत्ती आरामकुर्सी पर बैठा-बैठा गिर
पड़ा। आनन्द साहब घर पर ही थी। हम जल्दी में उठाकर डॉक्टर पुरी के क्लीनिक ले गए। उन्होंने
न जाने कैसे व क्या किया कि साँस ठीक हो गई। फिर दस ही दिन में सेहतमंद होकर उसने डॉक्टर
पुरी को भी हैरान कर दिया। वह घोड़े-जैसा तगड़ा हो गया था। सब कुछ खाता-पीता और आवारागर्दी
करता। फिर वह वही सब काम करने लगा, जो मुझे पसंद नहीं थे, जिनके कारण मुझे उस पर और खुद पर शर्म आती। अक्सर वह
संतोष के पास उसके चौबारे में बैठा रहता। तायाजी के लफंगे लड़कों के साथ पीता व लचर-सी
हरकतें करता। ज़बरदस्ती मेरे पर्स में से पैसे निकालकर ले जाता। यहाँ तक कि कभी मैं
उसे प्यार करती तो उसकी नज़र में वह प्यार ही न दिखाई देता। लगता, जैसे कोई बदमाश देखता हो, जैसे मुझे पकड़ना उसका अधिकार
हो, जैसे किसी से भी कोई चीज़ उधार ले लेना या माँग लेना उसका हक बन गया हो। वह दूसरों
के सिर पर पलने वाला बदमाश बन गया था, जिसकी बदमाशी का कारण शक्ति नहीं, कैंसर था। कैंसर उसे मार
रहा था और कैंसर द्वारा वह हमें मार रहा था।
डेढ़-एक माह बाद उसकी तबीयत फिर बिगड़ने लगी। थूक में खून जैसा कुछ निकलता तो वह
दहल जाता। आनन्द साहब घबरा जाते। मैंने फिर दवाइयों पर ज़ोर दिया।
एक शाम थके-हारे आनन्द साहब सोचते हुए बोले, ''न जाने और कितनी देर यह...नरक...?''
''परमात्मा का नाम लो, सब दु:ख कट जाएँगे।'' उनकी बात का उत्तर मैंने दे तो दिया, लेकिन यह मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि वह किसके नरक
की बात करते थे - सत्ती के, पिताजी के या अपने ? मन में आया कि कह दूँ, जो कुछ तुम भोग रहे हो, वह नरक है तो जो मैं भोग रही हूँ, वह क्या है ?
सत्ती दिन में न जाने कहाँ घूमता रहता लेकिन अँधेरा होते ही घर लौट आता। वह डरा-सा
होता और रात को बिस्तर पर पड़ा-पड़ा धर्मग्रंथ पढ़ता रहता। उसका चेहरा सदा गेट की ओर होता
था। कभी-कभी उसके चेहरे पर इतनी शांति होती कि भक्तों के चेहरों पर भी क्या होती होगी।
लेकिन कभी इतनी व्याकुलता होती कि लगता, जैसे वह बहुत जल्दी में है। मानो वह किसी की प्रतीक्षा
में हो। मानो कोई प्लेटफॉर्म पर बैठा गाड़ी का इंतज़ार कर रहा हो या मानो गाड़ी निकल गई
हो और प्लेटफॉर्म सूना पड़ा हो।
एक दिन वह पालथी मारे बैठा था, आँखें मूँदे। मैं उसके सामने जा खड़ी हुई। उसने आँखें
खोलीं, फिर बंद कर लीं और हाथ जोड़कर सिर झुका दिया।
मरने से एक रात पहले न जाने उसे कैसे मालूम हो गया था। उसने संकेत से मुझे अपने
पलंग पर बुलाया। बीचवाले दरवाजे क़ी बोल्ट लगाकर मैं उसके पास बैठ गई। फिर उसके आग्रह
पर साथ लेट गई। वह मेरी ओर देखता रहा, देखता ही रहा। फिर उसकी बुझी-सी आँखों में आँसू आ गए।
एकाएक मैंने उसका चेहरा अपनी छाती से लगा लिया। ''क्या बात है मेरे बच्चे ?'' मेरे मुख से अकस्मात् निकल
पड़ा।
उसने आँखें मींच लीं जैसे ध्यान में चला गया हो।
दूसरी सुबह उसने बेट-टी नहीं पी। नहाकर अगरबत्ती जलाई और पाठ करने बैठ गया। अभी
प्रारंभिक मंत्र ही पढ़ा होगा कि उसके हाथ में से पुस्तक गिर गई और वह फ़र्श पर टेढ़ा
हो गया।
मैं रसोई में से भागते हुए आई। उसे संभाला तो मेरी चीख़ निकल गई। आनन्द साहब काँपते
हुए-से दौड़े आए। लेकिन वह घटित हो चुका था जिसकी प्रतीक्षा सत्ती को थी, आनन्द साहब को भी और मुझे
भी। आज इस घटना को हुए कोई एक साल बीत गया। लेकिन मुझे इस सवाल का जवाब नहीं मिल रहा
कि वह मेरा कौन था ?
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आत्मकथा
बदलती साहित्यिक सोच
प्रेम प्रकाश की
आत्मकथा ‘आत्म माया’ से एक अंश
'दस्तावेज़' लिखने के बाद मेरा जेहन खाली-सा हो गया था।
इस दौरान एक स्त्री से चली आ रही मेरी मित्रता में दरार-सी आने लग पड़ी थी। ज़ाहिरा तौर
पर यह रिश्ता तिड़क रहा था, पर कहीं अंदर जड़ें भी पकड़ रहा था। मेरी सोच
के लिए एक नया और पेचीदा संसार खुल रहा था। इस दौरान कुछ ऐसे अनुभव हुए जो मुझे बहुत
रहस्यमय लगे। जब कोई रहस्य खुलता तो मुझे लगता कि गल्प की नदी बह चली है। मेरा अधिकतम
समय स्त्री और पुरुष के संबंधों की गांठों को खोलने में बीतने लगा। कभी लगता मानो कोई
आत्मिक ज्ञान या सिद्धि प्राप्त हो रही है। जिसे योग-साधक लोग 'ज्ञान पात' अथवा 'प्रकाश पात' कहा करते हैं। मैंने उन अनुभवों को आधार बनाकर कहानियाँ लिखनी शुरू कीं। जब
मैं एक कहानी लिख लेता था और वह छप जाती थी तो मेरे अंदर कुछ और अनखुली गांठें रड़कने
लग पड़ती थीं। उन्हें खोलते दो ही महीने होते थे कि मुझे लगता था कि मेरे अंदर नई कहानी
लिखने के लिए और कितना सारा मसाला पड़ा है। वह उसी तरह इस्तेमाल न किया गया लगता था
जैसे पहली कहानी लिखने से पहले बहुत कुछ हमारे अंदर यूँ ही पड़ा होता है, ठीक उसी प्रकार यह मसाला भी मुझे लगता था। इसका कारण अनुभवों और उनके बारे
में चिंतन की बहुलता और अंतर्मुखता थी। अनुभवों के भिन्न-भिन्न पहलुओं के कपाट दिन
रात खुलते रहते थे। जो मेरे लिए संभालने कठिन हो जाते थे। कहानी की घटनाओं का सारा
जोड़-तोड़ भी नया बनकर खड़ा हो जाता था।
जब कोई लेखक अपनी कहानी सुनाकर यह कहता कि यह
एक सच्ची घटना है, यह उसके गाँव या उसके साथ बीता है तो मैं समझता
हूँ कि उस कहानीकार को साहित्य की कतई समझ नहीं। या वह अपनी कमज़ोर कहानी को तगड़ी मनवाने
के लिए जतन कर रहा है। इसके उलट मैं कोई बात छिपाने के लिए और कोई बताने के लिए कहता
हूँ कि मेरी यह कहानी बिलकुल मनघडंत है। मेरे सारे पात्र कल्पित हैं। मेरा सारा कहानी
जगत मेरी कल्पना का घड़ा हुआ है। यहाँ तक कि मेरी कहानियाँ जिनमें 'मैं' पात्र कहानी बयान करता है, या कहानी उसकी कल्पना या सोच में से गुज़रती है, वह भी मेरा कल्पित पात्र है। मेरे कई भोले पाठक मेरे उस पात्र 'मैं' को ग़लती से लेखक समझ लेते हैं। मेरे ये पात्र
अन्य पात्रों की तरह कहानी में अपने तौर पर बढ़ते-घटते रहते हैं। उनका विकास और विस्तार
होता है।
जब मेरी कहानी 'मुक्ति-1' छपी तो मैं अपना दूसरा साहित्यिक बनवास सह चुका
था। पहले तब झेला था जब मैं प्रगतिवादियों का विरोध करके 'नमाज़ी', 'ताश' और 'ऐस जनम विच' जैसी कहानियाँ लिखने लग पड़ा था। दूसरा तब झेला
जब 'दस्तावेज़' लिखने पर मार्क्सवादियों
ने मेरे पर गालियों के हमले किए थे। दूसरे बनवास के बाद मैंने पहली कहानी लिखी थी
- 'माड़ा बंदा'। जो मेरे मार्क्सवादी
दोस्त अमरजीत चंदन ने अपने संपादन में निकल रहे परचे 'दिशा' के प्रवेश अंक में छापी थी। कहानी उसको पसंद
नहीं थी, पर क्या करता, उसने चिट्ठी लिखकर मंगवाई थी। मेरी वह कहानी प्रगतिवादियों ने 'फ़िजूल' कह कर नष्ट कर दी थी। अपने तौर पर मैं अब भी
उसको अपनी ही नहीं, अपितु पंजाबी कथा जगत की सोच में नया मोड़ समझता
हूँ। जहाँ से हमने व्यक्तियों को वर्ग-भेद की संकीर्ण लकीर से परे होकर देखना शुरू
किया। जिसको मैं साक्षी भाव से देखना और समझना कहता हूँ। जो आधी सदी साहित्यकार को
यही पूछते रहे कि वह किसका पक्ष लेता है। जैसे उनकी बात मेरी समझ में नहीं आई थी, उसी प्रकार मेरी बात उनकी समझ में नहीं आती।
जब 1970 से करीब दो
वर्ष पहले मेरी कहानी 'ताश' अमृता प्रीतम की बदनाम
या मशहूर पत्रिका 'नागमणि' में छपी थी तो गैर-मार्क्सवादी
हलकों ने उसकी बड़ी तारीफ़ की थी। अमृता प्रीतम उसको कई वर्ष उठाये फिरती रही थी। पर
मेरे मार्क्सवादी मित्र आलोचकों ने बहुत विरोध किया था। वह बार बार यही प्रश्न पूछते
थे, ''यह कहानी लिखने का तेरा मकसद क्या है ?'' उनकी सोच के अनुसार हर रचना की कोई सियासत होती है। कोई
उनकी लहर के हक में खड़ा होता है और कोई विरुद्ध। मेरी कहानी विरोध में खड़ी होने वाली
थी। उनके लिए यह सवाल दूसरे दर्जे का होता है कि कोई रचना साहित्य है या नहीं?
फिर जब कहानी 'मुक्ति-2' छपी थी तो हालात ज़रा बदल गए थे। नक्सली लहर
बिलकुल दब चुकी थी। बहुत से कामरेड इंग्लैंड भाग गए थे या सरकारी और गैर-सरकारी संस्थानों
या अख़बारों में फिट होने की कोशिशें कर रहे थे। कुछ कारोबार करने और धन को दुगना करने
लग पड़े थे। कुछ अभी अपने नाम सरकार के बस्ता 'बे' में से कटवाने के चक्कर में थे। कुछ अपना भविष्य बरबाद करके बहुत निराश हो
चुके थे। कइयों के लिए ज़िन्दगी बेअर्थ हो कर रह गई थी।
जो नक्सली कामरेड नौकरियों में फिट हो गए थे, उनकी साहित्यिक सोच भी बदलने लग पड़ी थी। कई कामरेड साहित्यिकारों ने 'मुक्ति-2' की तारीफ मुझे ख़त लिख कर की थी। 'मुक्ति-2' के छपने से एक-डेढ़ वर्ष बाद 'डेड लाइन' 'सिरजणा' में छपी थी। यह कहानी
'सिरजणा'
के संपादक रघबीर सिंह को भी पसंद
नहीं थी। यह उसके दृष्टिकोण के विरुद्ध थी। फिर उसने पता नहीं किस मज़बूरी में इसे छाप
लिया था। पर अगले अंक में उसके विरुद्ध किसी का ख़त छाप दिया था कि 'यह क्या बकवास कहानी छाप दी गई है?' उसके बाद मैंने 'सिरजणा' को एक भी कहानी छपने के लिए नहीं भेजी। बहुत
वर्षों बाद एक कहानी 'गढ़ी' भेजी थी। पर भेजने के
बाद ही मुझे अपनी ग़लती का अहसास हो गया था। मैंने तुरन्त उसे न छापने के लिए चिट्ठी
लिख दी। वापस मंगवाने का एक कारण यह भी था कि मुझे वह कहानी किसी और रूप में सूझने
लग पड़ी थी। मैंने उसे पुन: लिखा था। मेरे पास उसके दोनों रूप मौजूद हैं। पर छपा दूसरा
ही है।
कहानी 'डेड लाइन' के विरुद्ध लेखक की हतक करने वाली चिट्ठी के छपने से ज़ाहिर था कि यह मार्क्सवादी
संपादक और पाठक की संकीर्ण सोच थी। मेरे पर इस बात का असर कम इसलिए होता था कि मैं
मार्क्सवादियों के हमले लगातार बर्दाश्त कर चुका था और मार्क्सवादी आलोचकों, लेखकों और पाठकों का मज़ाक उड़ाया करता था। मुझे लगता था कि यह सब 'वाद' के अंधे किए हुए लोग हैं। दूसरी तरफ़ इस सुख
का अहसास था कि गैर-मार्क्सवादी आलोचकों ने मेरी कहानियों की तारीफ़ करते हुए उनमें
से नये नये गुण खोजने शुरू कर दिए थे। उनकी देखा देखी मार्क्सवादी आलोचकों ने भी अपना
रुख बदलना शुरू कर दिया था। जिससे मेरी नई सोच और अधिक प्रौढ़ हो गई थी। वे मेरे हक
में बात करते थे, इसके बावजूद मैं उनके विरुद्ध बोलता था। मैं
संत सिंह सेखों के खिलाफ़ बोलता था तो सेखों साहिब का भांजा और मेरा दोस्त डा. तेजवंत
सिंह गिल मुझे 'मुतसबी' कहता और लिखा
करता था। मुझे उसका यह फतवा मंजूर होता था।
समय बीतने पर मार्क्सवादियों का दृष्टिकोण जहाँ
साहित्य के बारे में खुले दिल वाला होने लग पड़ा था, वहीं मेरी कहानी के
बारे में सोच भी बहुत बदल गई थी। पर मेरा स्वभाव उनके प्रति उसी तरह रहा। मुझे संत
सिंह सेखों की नियत पर भी गुस्सा रहा है। यद्यपि मुझे पता चल गया था कि जब मैंने अपनी
पुस्तक 'मुक्ति' के लिए भाषा विभाग, पंजाब को लिखा तो उसके बारे में सेखों से राय मांगी गई थी। उन्होंने मेरी किताब
की वकालत करते हुए पूरा पन्ना लिखकर भेजा था। फिर जब मुझे 'मुक्ति' पर पंजाब साहित्य अकादमी ने सम्मान दिया तो
उसके पीछे कुलवंत सिंह विर्क और संत सिंह सेखों का हाथ था। उस समय सेखों अध्यक्ष थे
और विर्क महा सचिव। दो बैठकों में वे मेरी कहानी कला के हक में बोला भी था और कहीं
लिखा भी था। फिर 1992 में साहित्य अकादमी का सम्मान भी सेखों ने जबरन
दिलवाया था। फिर भी मैं उससे नाराज़ था। उसके द्वारा की गई मेरी प्रशंसा की बात भी मुझे
तंग करती थी और मैं हमेशा उसके विरुद्ध ज़हर उगलता रहा हूँ। क्योंकि मुझे उसकी ईमानदारी
पर शक रहता था। यद्यपि मैं उसकी समझदारी और विद्ववता को मानता था। उस जैसा ज़हीन जट्ट
कहीं विरला ही पैदा होता है।
किसी भी साहित्यिक संगठन से दूर रह कर और आम
तौर पर होने वाली साहित्यिक बैठकों और कांफ्रेंसों में न जाकर मुझे अकेले रहने और अकेले
होकर सोचने और लिखने में आनन्द आने लग पड़ा था। इस तरह मेरी सोच अन्य कहानीकारों से
पृथक-सी हो गई थी। यह भी ठीक नहीं कि मैं निरा अकेला ही रहता, सोचता और लिखता था। मेरी संगत तो थी, पर बहुत सीमित से लोगों
के साथ। मैं सुरजीत हांस, मीशा, दिलजीत सिंह, मोहन भंडारी, भूषण और सुरजीत कौर की संगत करता रहा था। अंदर
से इच्छा ज़ोर मारती तो अन्य लेखक मित्रों और कामरेडों से भी मिलता था। जालंधर के साहित्यिक
रसिये मित्रों ओमप्रकाश और प्रिय व्रत के साथ भी संगत रहती थी। ओम प्रकाश तो बाद में
अपनी आत्मकथा 'पनाहगीर' लिखकर एक बढ़िया साहित्यकार
बन गया। आधुनिक और प्रगतिशील कवि मोहन सिंह मीशे के साथ मुलाकातें तो बहुत होती थीं, पर हमारे बीच कोई लकीर-सी खिंची रहती थी। वह दूसरों के सामने रस्में निभाने
वाला और शराफ़त का दिखावा करने वाला अच्छा व्यक्ति था। जब तक विर्क जालंधर में रहा, उसके साथ बहुत लंबी बैठकें होती थीं। उसके लुधियाना और फिर चंडीगढ़ चले जाने
से ये कम होती गई थीं। उसके जैसा अच्छा, सच्चा और हीरा व्यक्ति
खोज पाना बहुत कठिन होता है।
मैं यदि कभी किसी साहित्यिक सभा में जाता था, उसका कारण यूँ ही मौज-मस्ती सा होता था। या फिर मैं उनकी बैठकों में जाता था, जहाँ मुझे कहानी पढ़ने के पैसे मिलते थे। पैसे तो मिल जाते थे, पर मैं होता परेशान ही था,
क्योंकि वहाँ आए हरेक लल्लू-पंजू
की आलोचना सुननी पड़ती थी। छपी कहानी पढ़ कर कोई आलोचना करता घूमे, मुझे क्या। पर यदि कोई मुझे खड़ा करके कहानी की आलोचना करने लग पड़े तो मुझे
वह मूर्ख लगता है। मैं चले जाते पाठकों से अपनी कहानी के बारे में उनकी राय नहीं पूछता।
जब मैंने 'मुक्ति-1' लिखी थी तो मुझे नहीं पता था कि मैं स्त्री और पुरुष संबंधों
के बारे में इतनी कहानियाँ लिखूँगा। पर वह सिलसिला इतना खिंचता चला गया कि पच्चीस-तीस
कहानियाँ और लिखी गईं। हरेक कहानी लिखने के बाद मैं कहता था कि यह अन्तिम होगी, पर तीसरे-चौथे महीने एक और कहानी पैदा होने लग पड़ती थी। यह सिलसिला 'श्वेतांबर ने कहा था'(1983)
पर आकर खत्म हुआ प्रतीत होता था।
परन्तु खत्म 'सुणदैं खलीफ़ा'(2001) तक भी नहीं हुआ। आम पाठक और आलोचक मेरी उन कहानियों का
ही ज़िक्र करते थे, जिनमें स्त्री और पुरुष के संबंधों की बारीकियाँ
हों। हालांकि मैंने इस किस्म की कहानियाँ तब कम लिखी थीं। यह बात बताने के लिए मैंने
ऐसी कहानियों को एक पुस्तक 'प्रेम कहानियाँ' शीर्षक के संग्रह में एकत्र कर दिया था। फिर 'मुक्ति रंग' से बाहर की कहानियों की पुस्तक सन् 2000
में छपवाई थी।
मुझे गिला था कि मेरी अन्य अच्छी कहानियाँ भी
है, जिन पर अब उतना ध्यान नहीं दिया जा रहा, जितना पहले दिया गया था। शायद ये कहानियाँ मेरी दूसरी कहानियों को दिखने ही
नहीं देतीं या पाठक और आलोचक ऐसी कहानियों में इतना डूबते हैं कि उनके जेहन में यही
फंसी रह जाती हैं। तभी वे कुछ अधिक शौक से इन्हें पढ़ते हैं।
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साक्षात्कार
अब अगर कहानी में
स्त्री का ज़िक्र न हो तो मेरा पेन नहीं चलता
प्रेम प्रकाश
साहित्य अकादमी सम्मान (1992) से सम्मानित पंजाबी के प्रख्यात कथाकार प्रेम प्रकाश
से पंजाबी के युवा कथाकार एवं 'शबद' त्रैमासिक के संपादक
जिंदर द्वारा की गई लम्बी
बातचीत के महत्वपूर्ण अंश
जिंदर& आप पंजाबी के एक चर्चित कहानीकार
है। यह बताइये कि यह 'कहानी' क्या होती है और 'कहानीकार' क्या होता है?
प्रेम पकाश.-कहानी सिर्फ़ 'बात' होती है। जब कोई व्यक्ति किसी नये अनुभव से गुजरता है तो अपने तईं
उसे अनौखा समझता है। मनुष्य भी सामाजिक प्रवृत्ति के अनुसार अपने उस अनुभव को दूसरों
को बताता है। यह बात बताना ही कहानी का आरंभिक रूप है। दूसरों के लिखे अनुभव और ज्ञानशास्त्र
को पढ़ते हुए वह अपने अनुभवों को अधिक अच्छी तरतीब में प्रभावशाली बनाने की कोशिश करता
है। अगर पाठक और विद्वान कहते हैं कि 'मजा आ गया' 'यह बात ठीक है' तो उसे कहानी मान
लिया जाता है। इसी तरह अनेक व्यक्ति अनेक अनुभव बताते-लिखते रहते हैं। पाठक तो सम्मान
करते हैं पर आलोचक परखते-निरखते हैं कि पिछले समय के परंपरागत रूपों में क्या यह कहानी
है? लिखने वाले कहानी के रूप बदलते रहते हैं। कई आलोचक भी इस काम में
मदद करते हैं। बात को बताने वाला कहानीकार है। चाहे वह मंदिर-गुरुद्वारे का कथावाचक
हो, चाहे वह टीले पर बैठकर गाँव के लड़कों को बातें सुनाने वाला ताऊ
और चाहे अखबारों और साहित्यिक पत्रिकाओं में छपवाने वाला लेखक।
जिंदर& आपकी राय में कहानी में अनुभव, कल्पना और यथार्थ का
कितना मिश्रण होता है?
प्रेम प्रकाश -मैं अपनी कला की बात बताता हूँं। जब कहानी रची जा रही होती है तो
उनमें अनुभूतियों के और उसकी घटनाओं के टुकड़े होते हैं। किसी छोटे से अनुभव को कल्पना
फैलाकर कहाँ का कहाँ ले जाती है। लेकिन, उस फैलाव में भी
अनुभवों के कण होते हैं। वे कितने ही रूप बदलते-बदलते कुछ का कुछ बन जाते हैं। कई बार
तो मुझे भी पता नहीं चलता कि यह बात कैसे आ जुड़ी है। हो सकता है, कोई देखी, सुनी या पढ़ी घटना बीस-तीस
बरस पहले की अवचेतन में कहीं पड़ी अचानक जागकर सामने आ खड़ी हुई हो। वह कहानी के संगठन
में एक हिस्सा बन गई हो। पर मैं उन सारे टुकड़ों को पहचान नहीं रहा होता। फिर, अनुभवों में अनुभव प्रवेश कर जाते हैं। किसी एक की अपनी शिनाख्त
नहीं रहती। सम्पूर्ण कहानी को इतने अणुओं में तोड़कर कौन देख सकता है। क्योंकि वह कहानी, कौन-सा आम जन के साथ अनुभव जोड़-जोड़कर लिखी गई होती है। वह तो किसी
रहस्य भरे तरीके से अपने आप जुड़ जाती है। हाँ, इस जोड़ में लेखक
की नीयत और उसके चिंतन का हिस्सा ज़रूर होता है।
जिंदर& आप ग्रामीण माहौल से आए। लेकिन आपके
कथा-संसार में से गाँव गायब है।
प्रेम प्रकाश -तुमने शायद ध्यान से नहीं पढ़ी होंगी मेरी कहानियाँ। या हो सकता
है, गाँव की कहानी तुम उसे समझते होगे जिसमें कुँओं, खेतों, किसानों और खेतिहर मज़दूरों का ज़िक्र हो।
मैं अपने बारे में बता दूँ कि मैं खन्ना में जन्मा, चार जमातें 'भादसा' में पढ़ीं जो कि एक बड़ा गाँव है, फिर 'खन्ना' अपने घर में रहा। 'खन्ना' कस्बों से बड़ा शहर है। अधिकतर लोग पढ़े-लिखे हैं। 1950 से 1953 तक मैंने बड़गुजरां गाँव
में खेती की। अब मेरे अनुभव छोटे गाँव से बड़े गाँव,शहरनुमा कस्बे और फिर जालंधर शहर और फिर मेरी कल्पना के शहर के
हैं। मैं इन सब माहौलों को अपने संग लिए घूमता हूँ। गाँव से इसलिए जुड़ा रहा कि वह मेरे
माँ-बाप और ज़मीन थी। खन्ना से इसलिए कि वहाँ मेरे भाई, चाचा और पुश्तैनी घर था। मेरे अन्दर अभी भी ये सारे रूप हैं। मैंने
पहली कहानी 'उपत-खुपत' नाम से लिखी, जो कि गाँव के जट्टों द्वारा विहड़े (हरिजन बस्ती) के लोगों की नाकेबंदी
करने को लेकर थी। फिर अन्य कई कहानियाँ लिखीं। वह अभ्यास का समय था। मैंने कई कहानियाँ
गुम कर दीं। फिर भी कुछ कहानियों के नाम बताता हूँ- बापू, कान्ही, कुंडली, सतवंती, रुकमणी, गढ़ी, अर्जन छेड़ गडीरना, कोठी वाली, कपाल-क्रिया, जड़ हरी, सुर्खुरू, नावल का मुढ़, इस जन्म में, फैसला, बेवतन, सींह ते अमनतास, तपीआ, टाकी, कीड़े दा रिज़क, मुरब्बियाँ वाली आदि-आदि। ये सभी गाँव से संबंधित हैं।
जिंदर& आपकी
अनेक कहानियों में स्त्री-पुरुष के, विशेषकर पति-पत्नी के आपसी संबंध टूटते हैं। क्या इसके
पीछे कोई खास कारण है?
प्रेम प्रकाश-नहीं, ऐसा नहीं है। ऐसा कुछेक कहानियों में हुआ है। खासकर 'मुक्ति-1' और 'मुक्ति-2'
में। 'टेलीफोन' और 'श्वेतांबर ने कहा था' में पत्नियाँ अन्य पुरुषों से दोस्तियाँ तो करती हैं पर पतियों से संबंध-विच्छेद
स्वयं चाहकर नहीं करतीं। वैसे भी इस कड़वे संबंध के बारे में मेरा अनुभव बहुत कम है।
पति-पत्नी के झगड़े को मैंने बहुत करीब से नहीं देखा। सब सुने हुए अनुभव हैं।
जिंदर& फ्रॉयड
कहता है कि किसी भी आदमी का व्यक्तित्व 12-14 बरस की आयु में ही बन जाता है जबकि अमेरिकन फिलासफर
हारलोक ने अपनी पुस्तक 'डवलपमेंट सायक्लॉजी' में यह आयु 20-25 साल की मानी है। क्या आप इससे
सहमत हैं? क्या आप उस उम्र में स्त्रियों के प्रति आकर्षित
हुए थे? मेरे पूछने का अर्थ यह है कि आपके 'सब-कांसस माइंड' में औरत का संकल्प उस वक्त तो
पैदा नहीं हो गया था?
प्रेम प्रकाश -मैं समझता हूँ कि आदमी का व्यक्तित्व माँ के गर्भ में ही बनने लग
पड़ता है। गर्भ में जाते हुए भी वह अपने संग संस्कार (ज़ीन्स) लेकर जाता है। ये संस्कार
पिछली कई पीढ़ियों के होते हैं। इसीलिए ब्राह्मण और खत्री के पास अक्षर-ज्ञान संस्कार
की तरफ से मिला होता है। फिर, व्यक्ति का वातावरण, वस्तुएँ, विचारों से टकराव उसके
संस्कारों को तोड़ता-फोड़ता और बनाता रहता है। इसी तरह नारी के बारे में मेरे संकल्प
गर्भ में ही बनते और बचपन में ही पलते रहे हैं। मैं बहुत संकोची रहा हूँ। स्त्रियों
के साथ बात करना कठिन था। मैं किसी स्त्री को 'भाभी जी' या 'बहन जी' कहकर आवाज़ नहीं लगा सकता। स्त्री के साथ अलगाव या दूरी के अहसास
ने मेरे अन्दर बहुत-सी गाँठे पैदा की होंगी जिनको खोलने का जतन मैं आज कहानियों में
कर रहा हूँ।
जिंदर& यह
औरत क्या है?
प्रेम प्रकाश -औरत हमारी माँ है। सबसे पहला वास्ता उसी से पड़ता है। फिर बहन है, फिर बेटी है, फिर पर-नारी है, पत्नी है, महबूबा है, दोस्त है। आगे हर व्यक्ति की अपनी पहुँच है कि वह औरत को किस रूप
में देखता है। जैसे मर्द की नज़र बदलती है, उसी तरह औरत के रूप भी बदलते रहते हैं। कभी वह वैश्या भी होती है
और कभी देवी भी। वह दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती,चंडी आदि कई रूपों में
हमें दिखाई देती है। इतने ही रूप मर्द के होते हैं। मर्द स्त्री को समझने के चक्कर
में है और स्त्री मर्द को। दोनों का मनोरथ एक-दूजे की शक्तियों और कमजोरियों को समझना
और फिर इस्तेमाल करना है। पंजाबी साहित्य में औरत को समझना और उसके बारे में लिखना
बहुत अच्छा नहीं समझा गया। पर मैं तो शुरू से ही लिख रहा हूँ। मेरी पहली पुस्तक 'कच्चकड़े' में ऐसी ही कहानियाँ मिलेंगी।
जिंदर& औरत
की सायकी को समझने के लिए आपको किन किताबों ने प्रभावित किया? किन औरतों ने प्रभावित
किया? आपकी पत्नी ने कितना प्रभावित किया?
प्रेम प्रकाश -सोलह बरस की आयु से अब तक, मुझे जहाँ भी स्त्री
का ज़िक्र मिला, मैं पढ़ता रहा हूँ। क्या मनोविज्ञान, क्या दर्शन, क्या काम-शास्त्र, क्या धर्म-शास्त्र और क्या साहित्य। मैंने पौंडी साहित्य तक बहुत
कुछ पढ़ा है। कोई एक पुस्तक अपने आप में सम्पूर्ण नहीं होती। बहुत-सी रचनाएँ पढ़कर कहीं
प्रभाव पड़ता है। वह इतनी बहुतायत में होता है कि पहचाना नहीं जा सकता। ज़िंदगी में जो
भी स्त्री मिली, चाहे कुछ समय के लिए, मैं उससे भी प्रभावित हुआ हूँ। मेरी कहानियों में औरतें ही औरतें
हैं। हो सकता है कि किसी एक का प्रभाव अधिक पड़ता हो। उन सारे स्त्री पात्रों में मेरी
पत्नी भी शामिल है। वह मेरी जीवन-साथी है। मेरे बच्चों की माँ है। घर का केन्द्र है।
उसी ने मुझे जीवित रखा है।
जिंदर& लेखक
की जिंदगी में एक ऐसा समय भी आता है जब उसकी एक के बाद एक रचना की चर्चा होती है जो
कि बहुत समय तक चलती रहती है। आपके साथ भी ऐसा हुआ है। आपकी एक के बाद एक कहानी हिट
होती रही है। 'मुक्ति', 'डेडलाइन', 'श्वेतांबर ने कहा था', 'कपाल-क्रिया',
'गोई', 'शोल्डर बैग', 'बापू' के अलावा कई कहानियाँ। आप एक फासले पर खड़े
होकर इन कहानियों को कैसे देखते हैं?
प्रेम प्रकाश -मेरी एक भी कहानी छपने के तुरंत बाद नहीं सराही गई। 'डेड लाइन' 'सिरजना' पत्रिका में छपी थी तो रघबीर सिंह ने अगले अंक में एक चिट्ठी छापी
थी कि यह क्या बकवास कहानी छाप दी। उसे स्वयं कहानी पसंद नहीं थी। सिक्केबंद माक्र्सवादियों
ने बड़ा विरोध किया था। यह तो धीमे-धीमे हवा बदली, कई बरसों में। पक्की तब हुई जब डा.हरिभजन सिंह ने 'तेरे नाम चिट्ठी' छपवाई। और फिर
लिखी- 'ख़ामोशी का जज़ीरा'। 'शोल्डर बैग' के बारे में सुरजीत हांस
ने लिखा तो पाठकों को पता चला। 'कपाल-क्रिया' को अभी भी बड़ी कहानी सिर्फ़ डा. राही मानता है। हिट होने के लिए
आधी उम्र चाहिए। वैसे यह हिट होना बड़ा खतरनाक है। एक उनके लिए जिनकी सहनशक्ति का जिगरा
छोटा है और दूसरा उनके लिए जिनकी पहली पुस्तक हिट हो जाती है।
जिंदर& 'डेड लाइन' कहानी कैसे लिखी गई?
प्रेम प्रकाश -यह कहानी 1979 में लिखी गई थी। बात बहुत
पुरानी हो गई है। मुझे अधिक कुछ याद नहीं। मेरे पास स्त्री के लिए तीव्र इच्छा का अनुभव
बहुत भारी था। मृत्यु का अनुभव और दर्द मेरे एक छोटे भाई की दुर्घटना में हुई मौत का
परिणाम था। वह गुड़ बनाने वाली कड़ाही में गिरकर जल गया था। फिर बहुत दिनों बाद पटियाला
के अस्तपाल में उसकी मृत्यु हो गई। मेरी ज़िंदगी का यह पहला बड़ा सदमा था जिसका असर मुझ
पर लम्बे समय तक रहा था। घटना की बुनियाद मुझे अपने मित्र ओमप्रकाश पनाहगीर के साले
को हुए गले के कैंसर से मिली। उसका इलाज लम्बा चला था। इस दौरान उसके व्यवहार में जो
परिवर्तन हुए, उनके बारे में पनाहगीर मुझे बताता रहता था। मैं स्वयं भी उसका हालचाल
जानने के लिए जाता रहता था। उसकी मृत्यु के बाद अकस्मात् मेरी कल्पना में तस्वीरें
बनने लगीं। वही तस्वीरें आपस में जुड़कर एक रात पूरी तस्वीर बन गईं। देवर-भाभी के इस
रिश्ते की तस्वीरें पता नहीं कहाँ-कहाँ से बनीं। सच यह है कि किसी भी भाभी से मेरा
कोई सरोकार रहा ही नहीं। मैंने अपनी भाभी को कभी कपड़े से भी नहीं छुआ। सिर्फ़ बातें
सुनीं या कभी देखी थीं दोनों के सम्बन्धों कीं। हमारे उप-सभ्याचार में देवर-भाभी का
वह रिश्ता नहीं होता जो जट्टों या अन्य जातियों में हुआ करता है। इसीलिए इस कहानी के
छपने पर कइयों ने कई एतराज़ किए थे।
जिंदर& आपकी
आरंभिक कहानियों में मौत का बार-बार ज़िक्र आता है। 'श्वेतांबर ने कहा था' का पात्र भी कहता है-अब मुझे मार दे। इस मृत्यु की धारणा का आरंभ कहाँ से
हुआ?
प्रेम प्रकाश -इसकी मुझे पूरी समझ नहीं। मेरी पहली कहानियाँ-'कच्चकड़े'(1966) के पात्रों की सोच में
गरमी, गुस्सा और जोश है। पर दूसरे कहानी-संग्रह 'नमाजी' (1971) के पात्र मौत के बारे
में अधिक सोचते हैं। वे बूढ़े भी हैं। अगर जवान हैं तो उनकी सोच और स्वभाव बूढ़ों जैसा
है। यहाँ तक कि जो कहानी नौजवान लड़के और लड़की के मिलाप की है, वह बूढ़े की नज़र से देखी गई है। या जवान की सोच की गति सुस्त और
ढीली-सी है। इसका कारण मेरे उस समय (1966 से 1970 तक) के निजी हालात भी हो सकते हैं। एक यह भी था कि प्रगतिवादी सोच
के तीन टुकड़े हो चुके थे। समस्त देश के चिंतकों और लेखकों की सोच ढीली पड़ गई थी। साहित्य
में प्रयोगवाद, भूखी पीढ़ी, अकविता, अकहानी जैसे आंदोलन चल रहे थे। पुराने स्वप्न
टूट रहे थे और नया सपना अभी कोई बना नहीं था। वह समय दुविधाग्रस्त मानसिकता वाला था।
उसी मानसिकता का प्रभाव मुझ पर भी रहा होगा। लेकिन, बाद में जब मैं 'मुक्ति' रंग की कहानियाँ लिखने लगा तो मौत की वह सोच मेरे साथ रही। मन की
दुविधा ने और अधिक पेचीदगियाँ पैदा कर दीं। फिर मौत भारतीय दर्शन के रूप में मेरे अन्दर
काम करती रही। उस दर्शन के अनुसार मृत्यु मनुष्य की सारी की सारी सोच की जननी है। यह
अच्छी अवस्था न होती तो हम जिंदगी के इतने सुखों-आनंदों के बारे में भी नहीं सोचते।
भारतीय दर्शन में मृत्यु जीवन का अन्त नहीं, आरंभ है। वहाँ
से नया जन्म शुरू होता है।
जिंदर& कुछ
लेखकों/आलोचकों का विचार है कि आप 'प्रेम' के कहानीकार हैं। कुछ
आपको स्त्री-पुरुष के गहरे संबंधों का कहानीकार मानते हैं। पर मेरे विचार में असल में
'प्रेम के रोग' के कहानीकार के रूप
में आपका मुल्यांकन ठीक हुआ है। इस 'प्रेम के रोग'
का बीज आपको कहाँ से मिला?
प्रेम प्रकाश -यह बात मैंने कई बार स्पष्ट की है कि मैं प्रेम कहानियाँ नहीं लिखता।
असल में, प्रेम शब्द का जो परंपरागत प्रयोग हुआ है, उसके अनुसार हमारे मन में 'हीर-रांझा', 'लैला-मजनूं' 'सस्सी-पुन्नूं' के पात्र आते हैं, जो प्यार में अंधे
होकर बारह बरस कुँए से पानी खींचते हैं या भैंसे चराते हैं। मैं इस अवस्था को पागलपन
समझता हूँ। मजनूं जुनून से बना है जिसका अर्थ है -पागल। ये कथाएँ भावुक और मोटी बुध्दि
वाले लोगों के मन बहलाने के लिए लिखी गई होंगी। पर मैंने कहानियाँ पुरुष या स्त्री(चाहे
जवान हों या बूढ़े) के आपसी रिश्तों के हर पल बदलते संबंधों की उधड़ी हुई परतों को समझने
के लिए लिखी हैं। मेरे पात्र बहुत बार असाधारण्ा लगते हैं। उनके विचार असाधारण मनौविज्ञान
को समझकर ही समझे जा सकते हैं। मेरा ख्याल है कि बहुत से लोग असाधारण होते हैं। जब
उनकी असाधारणता बिगड़ जाती है तो वे मनोरोगी बन जाते हैं। हर व्यक्ति में कोई न कोई
नुक्स है। वे नुक्स मुझे समझने के लिए दिलचस्प लगते हैं। मैं उनकी उलझनें बताता हूँ।
मेरे पात्रों की उलझनों को 'प्रेम-रोग' कहना उचित नहीं, यह तो 'जीवन-रोग' है। जीने के लिए तरह-तरह
के चोचले, पाखंड और अदाकारी करते दिखाई देते वे सच्चाइयों को जीते हैं, जो साधारण बुध्दि वाले पाठक या आलोचक की पकड़ में नहीं आतीं। जीवन-रोग
के बीज किसी विशेष समय में पैदा नहीं होते। वे तो जन्म से ही उगने लग पड़ते हैं और मरने
तक अपने उगने का सिलसिला जारी रखते हैं। जीने की लालसा में अगर कोई स्त्री का संग शिद्दत
से चाहता है तो दूसरा कोई कुर्सी के पीछे, धन के पीछे या
नाम कमाने के पीछे शैदाई हो सकता है। किसी के लिए भी प्यार के बीज के साथ आदमी के अंदर
नफ़रत का बीज भी होता है। बदले की भावना भी होती है। मेरी कहानियों में और उनके पात्रों
में इन सारी भावनाओं के बीज मौजूद हैं।
जिंदर& आपकी
बहुत-सी कहानियाँं मनोविज्ञान-विश्लेषण की कहानियाँ हैं। क्या आपने परोक्ष या अपरोक्ष
रूप में फ्रॉयड, जुंग, ऐंडलर का प्रभाव ग्रहण किया है?
प्रेम प्रकाश -मैंने कोई दर्शन सम्पूर्ण रूप में नहीं पढ़ा। हरेक को किसी प्रसंग
के रूप में पढ़ा और समझा है। इसीलिए मैं किसी की बात कोट नहीं कर सकता। मैंने धार्मिक
ग्रंथ भी बहुत पढ़े हैं। पर मुझे याद नहीं रहता कि मैंने कहाँ क्या पढ़ा था। अपने तौर
पर मैं कह सकता हूँ कि मैं मनोविज्ञान का विद्यार्थी हूँ। अब भी यह सिलसिला जारी है।
तुम्हारे मन की बात का जवाब यह है कि मुझे सबसे अधिक दिलचस्पी नर-नारी के रिश्तों के
सच को जानने में है। जैसे पुरानी कहानियों में कहा जाता है कि अगर इतना समय तूने परमात्मा
को याद किया होता तो बेड़ा पार हो जाता। मैंने स्त्री को इससे भी अधिक चाहा और उसके
बारे में सोचा है।अब जब मैं कहानी लिखता हूँ, अगर उसमें स्त्री
का ज़िक्र न हो तो मेरा पेन नहीं चलता। स्त्री के बारे में मैं रोज़ कहानियाँ लिखता हूँ, बेशक कल्पना में ही सही। जो आदमी स्त्रियों की बात नहीं करता, मैं उससे ऊब जाता हूँ। मुझे लगता है कि वह पाखंडी है।
जिंदर& आप
एक तरफ तो साधुओं-सन्तों को दुत्कारते हैं, एक वैज्ञानिक सोच वाले व्यक्ति की तरह। दूसरी तरफ आपको
भगवा कपड़े खींचते हैं। आप कई बरस ऐसा बाना पहनते रहे हैं। यह स्व-विरोध अनजाने में
हुआ या जान-बूझकर?
प्रेम प्रकाश -मेरा ख्याल है कि वैज्ञानिक सोच से व्यक्ति को समझा नहीं जा सकता।
पिछले समय में माक्र्सवादी लाल-बुझक्कड़ों ने ऐसे ही दावे किए थे, जो गलत निकले। मैं साधुओं-सन्तों को अब भी ठीक नहीं समझता। उन निकम्मों
के कारण हमारी आर्थिकता बिगड़ती है। लेकिन, मैं यह भी मानता
हूँ कि गुरू, आचार्यों या सन्तों का भी समाज के संतुलन को बनाये रखने में वैसा
ही रोल है, जैसा कि कोमल कलाओं और सामाजिक गतिविधियों का। मैंने भगवा चोला
कई साल नहीं, बीस साल पहना होगा। अब कुछ बरसों से पहनना छोड़ा है, अपनी पत्नी के ज़ोर देने पर। जब पहनता था तो अच्छा लगता था। भगवे
रंग का बहुत आकर्षण रहा है मेरे लिए। मुझे बचपन में और फिर लड़कपन में जब मैं बागी बन
रहा था, साधू अच्छे लगते थे। मैं उनकी संगत किया करता था। यह रहस्यभरा विरोधाभास
है मेरे चरित्र में। यह क्यों है, मुझे नहीं मालूम।
जिंदर& आपका
नाम नक्सलवादी लहर से जुड़ा रहा है और आप इसके खट्टे-मीठे अनुभवों को 'दस्तावेज़' उपन्यास के रूप में सामने लाए हैं पर क्यों ऐसा लगता है कि आपने इस 'लहर' के साथ जुड़े रहते हुए भी अपनी कहानियों
पर इसका कोई ठोस प्रभाव नहीं कबूला। आख़िर ऐसा क्यों?
प्रेम प्रकाश -1969 में पंजाब में नक्सली लहर का ज़ोर दिखाई देने लग पड़ा था। उसका सीधा
असर कालिजों, स्कूलों के अध्यापकों, विद्यार्थियों
और लेखकों पर अधिक था। इस लहर की अगुवाई कम्युनिस्ट पार्टी के क्रांतिकारी रोल से निराश हुए गरम लहू वाले लोग
कर रहे थे। उन दिनों में साहित्य का हाल यह था कि साहित्यकारों के जेहन उलझे पड़े थे।
भटके हुए आम लेखक निराशा भरे और बग़ैर सोचे-समझे टुल्ले लगा रहे थे। पर बांग्ला भाषा
में क्रांतिकारी साहित्य रचा जा रहा था, जिसमें साहित्यकार
केवल कलम चलाने वाला ही नहीं बल्कि स्वयं क्रांतिकारी लहर का हिस्सा बनने का दावा करता
था। इसने हमारी भावनाओं को भी गरम कर दिया था। अमरजीत चंदन ने एक गुप्त परचा 'दस्तावेज़' निकाला था। सुरजीत हांस
इंग्लैंड में था। उसने पैसे भेजे और मैंने साहित्य को हथियार बनाने का दावा करके 'लकीर' निकाला, जिसमें ऊल-जुलूल साहित्य की निंदा की गई और क्रांतिकारी साहित्य
छापा गया। उस वक्त भी मुझे मालूम था कि क्रांतिकारी साहित्य बड़ा साहित्य नहीं बन सकेगा।
लेकिन, क्रांति के लिए साहित्य और अन्य किसी भी कला और निजी आज़ादी की कुर्बानी
दी जा सकती है। इसी सोच से मैं 'लहर' परचा लहर के ठंडा होने तक निकालता रहा। पर
मैंने स्वयं कोई क्रांतिकारी कहानी नहीं लिखी। 'पाश' ने इस बात का गिला किया था कि प्रेम प्रकाश
ने हमें गुमराह किया। उसका दूसरा अनकहा गिला था कि मैं लाल सिंह दिल को बड़ा कवि बनाकर
छापता था। मैं जानता था कि लहरों के समय बड़ा साहित्य नहीं रचा जाता। पर इस बात का अफ़सोस
है कि लहर के बाद भी अच्छा साहित्य नहीं रचा गया। इसका एक कारण यह भी है कि हमारे साहित्यकार
सियासी लीडरों के नीचे रहकर काम करते रहे हैं। वे सियासतदानों को अपने से अधिक चेतन
मनुष्य मानते थे। जबकि सचाई यह थी कि सियासतदान मक्कार मनुष्य अधिक होता है। केवल कलाकार
या धार्मिक मनुष्य की अंतरात्मा अधिक समय तक जागती रह सकती है।
जिंदर& 'दस्तावेज़' के बाद आपने कोई उपन्यास
नहीं लिखा। क्या आपको लगता है कि आप अब उपन्यास नहीं लिख सकते?
प्रेम प्रकाश -'दस्तावेज़' लिखने के समय मेरी सोच
यह नहीं थी कि मैं उपन्यास लिख रहा हूँ। उन दिनों (1973) मैं अपना मकान बनवा रहा था। अख़बार के दफ्तर जाने से पहले और फिर
रात को मैं मिट्टी और ईंटों से जूझता रहता था। घर में बिजली नहीं थी। पढ़ना कठिन लगता
था। हम खुले मैदान में सोते थे। कोई अड़ोसी-पड़ोसी नहीं था। मैं लैम्प जलाकर उसे सिरहाने
की ओर रखे स्टूल पर रख लेता और थोड़ी-सी रोशनी में अपनी यादों को लिखता जाता। महीने
भर बाद मैंने उन्हें पुन: पढ़ा तो अच्छी लगीं। मैंने आख़िरी चैप्टर गल्प के तौर पर जोड़
दिया। जब छपा तो इसे उपन्यास मान लिया गया और फिर सारी कम्युनिस्ट पार्टियाँ की ओर
से इसकी निंदा की गई। मुझे अमेरिका के हाथों बिका लेखक कहा गया। इसके बाद मैंने एक
नावल लिखने की कोशिश की, पर लिख न सका। एक नावल 1962 के आसपास लिखा था, उसे मैंने दसेक
बरस रखकर फाड़ दिया। अब लगता है कि इतना लम्बा काम करना मेरे वश में नहीं। अगर कोई बात
मैंने कहनी या लिखनी होती है, वह कभी छोटी, कभी बड़ी और कभी लम्बी कहानी बन जाती है। मेरी कोशिश होती है कि
मैं कम से कम शब्दों में लम्बी से लम्बी बात कहानी में कर लूँ। मैं या कोई अन्य साहित्यकार
क्या कर सकता है और क्या नहीं, इस बारे में कोई भी नहीं
बता सकता। पता नहीं किस वक्त किससे क्या लिखना हो जाए।
जिंदर& आपकी
ज़िंदगी का अहम हिस्सा पत्रकारिता में बीता। 'हिंद समाचार' में उप संपादक
के तौर पर। आप इन सालों में बतौर प्रेम प्रकाश कहानीकार और प्रेम प्रकाश कर्मचारी
हिंद-समाचार में तालमेल कैसे बनाए रखा?
प्रेम प्रकाश-इस तालमेल
के लिए काम आई मेरी जिद्द। मैं अखबारों में काम करने से पहले अखबार नवीसों से नफ़रत
करता था। कुदरत ने मुझसे ऐसा बदला लिया कि मुझे अखबार नवीस बनाकर पत्रकारों के साथ
बिठा दिया। मैं इस अत्याचार को सहते, इससे लड़ते-भिड़ते काम करता
रहा। इसी नफ़रत के कारण मैंने पत्रकारों को यह जाहिर नहीं होने दिया कि मैं कहानियाँ
लिखता हूँ। मैंने सौगंध खाई थी कि अखबार में अपना नाम नहीं छपवाऊँगा और अखबार के दफ्तर
में साहित्य की बात नहीं करुँगा। एक बार राम सरूप अणखी (पंजाबी के प्रसिध्द कहानीकार
और उपन्यासकार) 'हिंद समाचार' में
मिलकर साहित्य के बारे में बात करने लगा तो मैंने उसे रोक दिया था। कहा था-यह बात घर
चलकर करेंगे। जब मुझे 'पंजाब साहित्य अकादमी' का अवार्ड मिला तो मेरी अखबार (हिंद समाचार) में और पंजाब केसरी में किसी
अन्य का नाम छापा गया था। दूसरे दिन कर्तार सिंह दुग्गल ने आकर विजय कुमार को मेरे
बारे में बताया था।
जिंदर& यह 'प्रेम प्रकाश खन्नवी'
से 'प्रेम प्रकाश' बनने के का क्या चक्कर था?
प्रेम प्रकाश -उर्दू के साहित्यकार या शायर अपने गाँव-शहर का नाम अपने नाम के
साथ जोड़ लेते थे। मैंने उनकी नकल की थी। यह नाम चल भी पड़ा था। मैं इस नाम से चार साल
लिखता रहा। फिर 'चेतना' के संपादक स. स्वर्ण की सलाह पर मैंने इसे उतार फेंका। यह साहित्यिक
हलकों में तो उतर गया पर पत्रकारिता के क्षेत्र में मुझसे चिपका हुआ है। 'मिलाप' और 'हिंद समाचार' में बहुत से पत्रकार साथियों को मेरे पूरे नाम का पता नहीं था।
वे खन्नवी साहिब कहते थे। नाम के साथ साहिब कहना उर्दू वालों की सभ्यता थी। अब मुझे
यह 'खन्नवी' न तो अच्छा लगता था, न ही बुरा। पहले गर्व हुआ करता था। अब तो मैं खन्नवी के अधिक जालंधरी
हो गया हूँ।
जिंदर -संदेह व्यक्त किया जा रहा है कि पंजाबी
साहित्य के पाठक कम है। कोई भी परचा पाँच-छह सौ से अधिक नहीं छपता। गैर-साहित्यिक ग्राहक
चाहे दस हजार बना लो। कई इसे मीडिया के फैलाव का असर मानते हैं। किताबों के छपने
की गिनती कम हो गई है। जब यह संकट चल रहा है कि तो ठीक उसी समय फिजूल किस्म की आलोचना, लेख छपने शुरू हो रहे
हैं। मैं यह पूछना चाहता हूँ कि यह जो कुछ हो रहा है, क्या
इससे पंजाबी में लिखने वालों या पाठक वर्ग पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पडेग़ा?
प्रेम प्रकाश -पंजाबी के पाठक बढ़े हैं। जब अनपढ़ता घटती है तो पाठक बढ़ते ही हैं।
साहित्य को भी उनमें से कुछ हिस्सा मिलता है। पर साहित्य के प्रबुध्द पाठक इतने नहीं
बढ़े। दूसरा, संचार माध्यमों ने अपना हिस्सा ले लिया है, जिसका प्रभाव किताबों की गिनती पर पड़ा है। साहित्यिक पत्रिकाओं
का कम गिनती में छपना मेरी राय में कोई संकट नहीं है। यह संकट खराब साहित्यकारों के
लिए है। पर वे भी चिंता न करें। उनका साहित्य छापने के लिए दैनिक अख़बार और चालू रसाले
बहुत निकल रहे हैं। लेखक, साहित्यकार और आलोचक के मध्य ऐसा रिश्ता
हमेशा से रहा है। मैं अख़बार नहीं पढ़ता। किसी के विरुध्द या पक्ष में लिखा जाता रहा
है। यह कोई नई बात नहीं है। अब के समय को मैं पिछले समय से अच्छा समझता हूँ। पहले पंजाब
में संत सिंह सेखों जो कुछ कहता था, सब उसके पीछे चल
पड़ते थे। अब हम किसी सीमा तक भेड़चाल से बच रहे हैं। इसका लेखकों और पाठकों पर अच्छा
प्रभाव भी पड़ रहा है। माक्र्सवादी भाई स्त्री-पुरुष के रिश्तों, संस्कृति और भारतीय दर्शन के बारे में सोचने-समझने लगे हैं। मुझे
'लकीर' पत्रिका की प्रतियाँ बढ़ाने में कोई दिलचस्पी
नहीं। गिनती बढ़ेगी तो घाटा बढ़ेगा। अगर निशाना बहुतों को पाठक बनाने का हो जाए तो गुणात्मकता
कम हो जाती है।
प्रस्तुति एवं अनुवाद : सुभाष नीरव
जन्म 26
मार्च 1932(सरकारी काग़ज़ों में 7 अप्रैल 1932)
शिक्षा - एम.ए.(उर्दू)।
'खन्नवी' उपनाम से लेखन 1955 से 1958
तक किया। 'रोज़ाना मिलाप' और 'रोज़ाना हिंद समाचार' अख़बारों में पत्रकारिता की। 1990 से 2010
तक साहित्यिक पंजाबी
त्रैमासिक पत्रिका 'लकीर' निकालते रहे। 'कच्चघड़े'(1966), 'नमाज़ी'(1971), 'मुक्ति'(1980),
'श्वेताम्बर ने कहा था'(1983), 'प्रेम कहानियाँ'(1986), 'कुझ अनकिहा
वी'(1990), 'रंगमंच दे भिख्सू'(1995), 'कथा-अनंत'(समग्र कहानियाँ)(1995), 'सुणदैं ख़लीफ़ा'(2001), 'पदमा दा
पैर'(2009)- इनके कहानी संग्रह हैं। एक कहानी संग्रह 'डेड लाइन' हिंदी में तथा एक कहानी संग्रह अंग्रेजी
में 'द शॉल्डर बैग एंड अदर स्टोरीज़' (2005)भी प्रकाशित हुआ है। इसके अतिरिक्त एक उपन्यास 'दस्तावेज़' 1990 में प्रकाशित हुआ। आत्मकथा 'बंदे अंदर बंदे' (1993) तथा 'आत्ममाया'( 2005) में प्रकाशित हुईं। कई पुस्तकों का संपादन जिनमें 'चौथी कूट'(1996), 'नाग लोक'(1998),'दास्तान'(1999), 'मुहब्बतां'(2002), 'गंढां'(2003) तथा 'जुगलबंदियां'(2005) प्रमुख हैं।
पंजाबी में मौलिक लेखक के साथ साथ ढेरों पुस्तकों का अन्य भाषाओं से पंजाबी में
अनुवाद भी किया जिनमें उर्दू के कहानीकार सुरेन्द्र प्रकाश का कहानी संग्रह 'बाज़गोई' का अनुवाद 'मुड़ उही कहाणी', बंगला कहानीकार महाश्वेता देवी की चुनिंदा कहानियाँ, हिंदी से 'बंदी जीवन'- क्रांतिकारी
शुचिंदर नाथ सानियाल की आत्मकथा,
प्रेमचन्द का उपन्यास 'गोदान', 'निर्मला', सुरेन्द्र वर्मा
का उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' तथा काशीनाथ सिंह की चुनिंदा कहानियाँ आदि प्रमुख अनुवाद कृतियाँ हैं।
कहानी संग्रह 'कुझ अणकिहा वी' पर 1992 में साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित किए गए।
इसके अतिरिक्त पंजाब साहित्य
अकादमी(1982), गुरूनानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर द्वारा भाई वीर सिंह वारतक पुरस्कार(1986), साहित्य अकादमी, दिल्ली(1992), पंजाबी अकादमी, दिल्ली(1994), पंजाबी साहित्य अकादमी, लुधियाना(1996), कथा सम्मान,कथा संस्थान, दिल्ली(1996-97), सिरोमणि साहित्यकार, भाषा विभाग, पंजाब(2002) तथा साहित्य
रत्न, भाषा विभाग, पंजाब(2011) आदि सम्मानों से नवाजे जा चुके हैं।
-0-0-0-
सम्पर्क : 593, मोता सिंह नगर, जालंधर-144001(पंजाब)
फोन : 0181-2231941
ई मेल
: prem_lakeer@yahoo.com
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