सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

वातायन - अक्टूबर, २०१०





3 अक्टूबर , 2010 के जनसत्ता में प्रकाशित वरिष्ठ कवि-पत्रकार राजेन्द्र उपाध्याय के आलेख - ‘हड़बड़ी में गड़बड़ी’’ पढ़कर पुराने दिनों की याद ताजा हो गयी । बात 1983 के प्रारंभिक दिनों की है । नवंबर, 1982 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा जी के निवास में मेरे संयोजन में एक सफल बालसाहित्य कार्यक्रम का आयोजन हुआ था । उससे मैं अत्यंत उत्साहित था । एक दिन दिल्ली के एक वरिष्ठ बालसाहित्यकार ने, जो एक बाल पत्रिका में कार्यरत थे, मेरे सामने एक योजना प्रस्तुत की। योजना आकर्षक थी ।
‘‘क्यों न हमलोग साहित्य अकादमी जैसी एक ‘केन्द्रीय बालसाहित्य अकादमी ’ स्थापित करें ।’’ उन्होंने कहा ।
मैं जानता था कि यह एक कठिन कार्य था, लेकिन उत्साह था । बालसाहित्य अकादमी कैसे स्थापित हो इस पर हमने घण्टों विचार किया । एक दिन जामा मस्जिद के सामने के सुभाष पार्क में कई घण्टे हम उसके प्रारूप पर चर्चा करते रहे और यह तय कर लिया कि कौन सचिव होगा और कौन अध्यक्ष । कितने और कितनी राशि के पुरस्कार दिए जाएगें और पुरस्कारों के निर्णय कैसे होगें । सरकार से किस प्रकार सहायता प्राप्त की जाएगी । लेकिन हस्र हमें पहले से ही ज्ञात था और सुभाष पार्क की बैठक के बाद न ही हम दोनों मिले और न ही फोन पर उस पर चर्चा की । बात आई गई हो गयी । लेकिन यह चर्चा कभी समाप्त नहीं हुई कि बाल साहित्यकारों के लिए साहित्य अकादमी जैसी कोई केन्द्रीय अकादमी अवश्य होनी चाहिए । पिछले दिनों जब यह सुना कि साहित्य अकादमी ने अब बाल साहित्य के लिए भी पुरस्कार देने का निर्णय किया है तब अच्छा लगा था । लेकिन राजेन्द्र उपाध्याय के आलेख ने इस पर जो प्रश्नचिन्ह लगाए हैं वे गंभीर और विचारणीय हैं । अपनी ओर से इस विषय में कुछ न कहकर मैं उस आलेख को वातायन के ‘हम और हमारा समय’ के अंतर्गत पाठकों के विचारार्थ प्रस्तुत कर रहा हूं ।
इसके अतिरिक्त इस अंक में प्रस्तुत है स्व. कन्हैयालाल नन्दन पर मेरा संस्मरण और बलराम अग्रवाल की कहानी ।
अंक पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी ।
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हम और हमारा समय

हड़बड़ी में गड़बड़ी

राजेन्द्र उपाध्याय

साहित्य अकादेमी ने पिछले दिनों अचानक बाल साहित्य की सुध ली । ताबड़तोड़ कई भाषाओं में बाल साहित्यकारों को पचास-पचास हजार के पुरस्कार देने शुरू कर दिए । जैसे ही पुरस्कार की योजना घोषित हुई - इसके लिए बंदरबांट, जोड़तोड़ शुरू हो गई । गुरु लोग अपने-अपने चेलों को पुरस्कृत करने के राष्ट्रव्यापी अभियान में लग गए । किसी अखबार में कोई सूचना नहीं, विज्ञप्ति नहीं कि अकादेमी ने बाल साहित्य के लिए पुरस्कार देने की योजना बनाई है । किसी को पता नहीं, किसी ने किताब भेजी नहीं । जिसको देना था उससे कह दिया कि किताब ‘सबमिट’ कर दो और ताबड़तोड़ तीन लोगों की समिति बना कर पुरस्कार दे दिए । जंगल में मोर नाचा किसने देखा ? किसी ने नहीं । असली हकदार को देना न पड़े इसलिए उनको निर्णायक बना दिया । जिसको देना है, उसको देने में पूरी सावधानी से शतरंज की गोटियां बिछा कर दे दिया ।
लबोलुआब यह कि बाल साहित्य के लिए भी वैसे ही गोटियां बिछाई गईं जैसे बड़ों के साहित्य के लिए बिछाई जाती हैं । वही प्रक्रिया अपनाई गई । तीन विद्वान किसी एक को चुन लेंगे । हिंदी का पहला बाल साहित्य का पुरस्कार साहित्य अकादेमी देने जा रही थी , उसे इस तरह स्कूली निबंध प्रतियोगिता की तरह निपटाना था ! राष्ट्रव्यापी बहस चलाई जाती । कौन बाल साहित्यकार अच्छा है , कौन नहीं । अखिल भारतीय बाल साहित्य परिषदें लगभग हर प्रदेष में हैं , उनसे पूछा जाता । उनसे सम्मति ली जाती । मतदान जैसा भी कुछ किया जा सकता था । राष्ट्रपति से मिल कर जो लोग राष्ट्रीय बाल साहित्य अकादेमी बनाने की बात कर चुके हैं उनसे भी कुछ सलाह-मशविरा किया जाता । सबको नाराज करके किसी एक को खुश करने की पहल साहित्य अकादेमी ने इस बार भी की और नतीजा अटपटा ही निकला ।
क्या बाल साहित्य के क्षेत्र में भी हम उपेक्षितों को उसी तरह गिनाते रहेंगे जैसे बड़ों के साहित्य में गिनाते हैं । श्रीप्रसाद हैं -- काशी में, न जाने कब से बच्चों के लिए कविताएं लिख रहे हैं । और कुछ कभी लिखा नहीं । बाल साहित्य के लिए जीवन खपा दिया । वे जोड़तोड़ नहीं करते, राजनीति नहीं करते । नारायणलाल परमार, निरंकारदेव सेवक, दामोदर अग्रवाल , रमेशचन्द्र पंत, उदय कैरोला, हरिकृष्ण देवसरे, राष्ट्रबंधु , कृष्ण शलभ ने अपना पूरा जीवन बालसाहित्य की क्या कम सेवा की है । कन्हैयालाल नंदन बच्चों के चाचा बरसों रहे । बच्चों की पत्रिका ‘पराग’ निकालते थे । कई महिलाएं हैं, जिन्होंने केवल बालसाहित्य लिखा और लिख रही हैं । प्रभा पंत, सरस्वती बाली, बानो सरताज, शशि शुक्ला । छोटे-छोटे कस्बों में रह कर लोग बच्चों के लिए बड़ी अच्छी कविताएं-कहानियां लिख रहे हैं । सतना, जबलपुर, भोपाल, विदिशा में लोग बैठे हैं , सहारनपुर, जालंधर में हैं । श्रीकृष्ण शलभ ने हिन्दी के एक सौ एक कवियों का पूरा सागर ही एक गागर में भर दिया है । अपने जी.पी.एफ. से पैसे निकाल कर छपवाया है । उनको पुरस्कार दे देते तो कुछ आर्थिक मदद भी हो जाती । रमेशचंद शाह ने बच्चों के लिए काफी लिखा है । रमेश थानवी हैं । प्रयाग शुक्ल, बालशौर रेड्डी , दिविक रमेश हकदार थे , इन्हें नहीं देना था तो निर्णायक बना दिया । दो कौड़ी की किताबें इनको भिजवा दीं । बाजी मारी प्रकाश मनु ने । हाल ही में ‘नंदन’ से सेवानिवृत्त हुए हैं । उनका ‘एक था ठुनठुनिया’ पुरस्कृत उपन्यास कितनों ने पढ़ा है और कहां से छपा है कौन जानता है ?
पहला पुरस्कार था तो ढंग की किताबें मंगवाते । किताब पर न देकर समग्र योगदान पर हिन्दी बाल साहित्य का पुरस्कार श्रीप्रसाद , शेरजंग गर्ग या राष्ट्रबंधु को देते । बनारस से लेकर भुवनेश्वर तक, लखनऊ से लेकर दूर-दूर उत्तराखंड के पहाड़ों तक, दक्षिण में भी लोग हैं, साहित्य की अलख जगाए हुए हैं -- सबको आपने दरकिनार कर दिया और बाल साहित्य का भला करने चले हैं । ऐसे तो और वैमनस्य पैदा होगा ।
बांग्ला में कई चोटी के बाल साहित्यकार हैं । वहां तो तब तक किसी को साहित्यकार नहीं माना जाता, जब तक वह बच्चों के लिए नहीं लिखता । हिन्दी में बाल साहित्य लिखना बच्चों का काम है । छपाक-छपाक, ठमाक-ठमाक करने वाले की हंसी उड़ाई जाती है । हिन्दी में सींग कटा कर बछड़ों में शामिल होने वाले कई स्वनामधन्य लेखक हैं । जिसे बड़ों के लिए लिखना चाहिए वह बच्चों के लिए लिख रहा है, जिसे बच्चों के लिए लिखना चाहिए वह बड़ों के लिए लिख रहा है ।
इस बार अकादेमी ने असमिया में गगनचंद्र अधिकारी और बांग्ला में सरल दे को बाल साहित्य में समग्र अवदान के लिए सम्मानित किया है तो हिन्दी में ऐसा क्यों नहीं किया गया ? क्या हिन्दी में कोई साहित्यकार समग्र अवदान के लायक नहीं-- बल्कि कई दावेदार हैं । गुजराती, कश्मीरी, मणिपुरी और संस्कृत के पुरस्कार बाद में घोषित किए जाएंगे तो हिन्दी में ही ऐसी कौन-सी जल्दी थी ।
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(राजेन्द्र उपाध्याय आका”ावाणी , नई दिल्ली में वरिष्ठ सम्पादक हैं)
(जनसत्ता से साभार)

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

रूप सिंह जी -

राजेन्द्र जी मेरे बड़े भाई है. मैंने यह लेख जनसत्ता में पढ़ा था. इसे वातायन में देख कर अच्छा लगा कि इसे और भी लोग पढ़ सकेंगे जिन्हें जनसता सुलभ नहीं है.

क्या आप बता सकते हैं कि आपको इसकी सॉफ़्ट-कॉपी कैसे मिली? क्या कोई ऑन-लाईन लिंक है जहाँ से इसे आसानी से कट-पेस्ट किया जा सकता है? या आपने इसे स्वयं टंकित किया है?

इन दिनों मेरा प्रयास है कि मैं अपने भाई की प्रकाशित रचनाएँ इंटरनेट पर संजो कर रखूँ. इस आशय से मैंने उनका एक ब्लाग खोला है - http://rajendraupadhyaya.blogspot.com/

उस ब्लाग पर अब तक मैं सिर्फ़ ईमेजेज़ ही लगा पाया हूँ चूँकि अभी तक मुझे उन रचनाओं की सॉफ़्ट-कॉपी मिल नहीं पाई है.

आपकी मदद से हो सकता है कि मेरी कठिनाई दूर हो.

सद्भाव सहित,
राहुल