सोमवार, 10 अगस्त 2009

वातायन - अगस्त,२००९


हम और हमारा समय

भारतीय पुलिस : छवियां अनेक

एक सर्वेक्षण में दिल्ली में सर्वाधिक भ्रष्ट दिल्ली पुलिस विभाग को बताया गया था. यदि राष्ट्रीय स्तर पर यह सर्वेक्षण किया जाये तो भी इस बात के सच न होने की आशंका कम ही होगी. वास्तविकता यह है कि अपने कर्मचारियों के भ्रष्ट कारनामों से स्वयं पुलिस विभाग भी परेशान हैं. नीचे के लोग यह कह सकते हैं कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे की ओर चलता है. यदि एक मंत्री ईमानदार हो तो उसके विभाग के लोग कुछ भी गलत करने से पहले दस बार अवश्य सोचेंगे. लेकिन जब मंत्री ही भ्रष्टाचार में आकंठ डूब जाता है तब वह अपने अधीनस्थों पर नकेल कैसे कस सकता है ! शायद पुलिस विभाग के मामले में भी यही सच है.

जब हम पुलिस की बात करते हैं तब हमें उन मुठभेड़ों की याद हो आती है जिनमें खूंखार बदमाशों के साथ-साथ निर्दोषों की जान ली जाती है. या अपने आकाओं को खुश करने के लिए जघन्यतम कृत्य करने से पुलिस पीछे नहीं रहती. अलग राज्य के रूप में उत्तराखंड की मांग को लेकर आंदोलनकर्ताओं के देहरादून से दिल्ली मार्च के दौरान रात में महिलाओं, युवकों और वृद्धों पर उत्तर प्रदेश पुलिस ने जो बर्बरता प्रदर्शित की थी, उसके दाग तत्कालीन सरकार के नुमाइन्दों पर से अभी तक धुले नहीं हैं. कितने ही युवक आज तक अपने घर नहीं पहुंचे अर्थात वे पुलिस की बर्बरता का शिकार होकर अपनी जान गंवा बैठे थे. कितनी ही महिलाओं और युवतियों के साथ क्रूरतापूर्वक बलात्कार किया गया था. गोधरा कांड के बाद की गुजरात की मुठभेड़ों को भी याद किया जा सकता है. देश का शायद ही कोई कोना ऎसा हो जहां वास्तविक से कई गुना अधिक फेक मुठभेड़ें न होती हों और इनमें निर्दोषों की ही जान ली जाती है.

हाल में देहरादून में एक युवक रणवीर सिंह को उत्तराखंड पुलिस ने मुठमेड़ दिखाकर मौत के घाट उतार दिया था. ये कुछ बर्बरता की बेमिसाल मिसालें हैं. यह सब उन लोगों द्वारा किया जाता है जो वर्दीधारी हैं. जो वर्दी धारण करने की पंक्ति में खड़े हैं उनकी मानसिकता कम खूंखार नहीं दिखती. दिल्ली में जिन स्थानों पर सिपाहियों की भर्ती होती है, वहा लिखित परीक्षा देने के उपरांत अपने घरों को लौटते युवकों के समूहों को खुलेआम लड़कियों को छेड़ते और आम लोगों के साथ बदसलूकी करते देखा जा सकता है ( मैं स्वयं प्रत्यक्षदर्शी रहा हूं ) . जब इस प्रकार विकृत मानसिकता के युवकों के शरीर पर पुलिस वर्दी झूलती है तब उनकी गतिविधियों का अनुमान लगाया जा सकता है.

लेकिन इस धूमिल पक्ष के बावजूद पुलिस का उज्वल पक्ष भी है. दिल्ली के बाटला हाउस और मुम्बई के आतंकी हमलों के दौरान पुलिस ने ही अपने जवान खोये. बाटला हाउस को लेकर धर्मनिरपेक्षता के अनेक ठेकेदारों ने उस पर प्रश्न चिन्ह लगाये और इंसपेक्टर एम. सी. शर्मा को अपने ही लोगों की गोली का शिकार बताया. लेकिन मानवाधिकार आयोग ने उनके प्रश्नचिन्हों पर स्याही पोत दी. हालांकि कुछ कट्टरपंथी बेशर्मी से मानवाधिकार की रपट को खारिज करने में तुले हुए हैं. लेकिन पुलिस ने वही किया जो देश की जनता की सुरक्षा के लिए उसे करना चाहिए था. हालांकि पुलिस के इस बहादुरीपूर्ण कार्य पर प्रश्नचिन्ह लगाने वालों में एक भूतपूर्व मंत्री जी भी थे, जो सदैव अपनी विवादित धर्मनिरपेक्ष छवि को चमकाने का प्रयत्न करते रहते थे. हकीकत यह है कि ऎसे लोग धर्मनिर्पेक्षता की ओट में धर्म की ही राजनीति कर रहे होते हैं. हद तो तब हुई जब भारतीय इतिहास में पहली बार किसी विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर ने आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त छात्रों की पैरवी के लिए विश्वविद्यालय का कोष खोल दिया और मंत्रालय ने उन्हें पुरस्कृत करते हुए उनके कार्यकाल को बढ़ा दिया. आज जब मानवाधिकार आयोग ने मान लिया है कि वे छात्र आतंकवादी थे तब विश्वविद्यालय कोष के धन का यदि कुछ दुरुपयोग किया गया है तो उसके लिए वाइस चांसलर साहब को जिम्मेदार ठहराते हुए उनके विरुद्ध उचित कार्यवाई की जानी चाहिए. आम आदमी यह जानना चाहता है, क्योंकि किसी भी केन्द्रीय विश्वविद्यालय को धन सरकार द्वारा प्रदान किया जाता है और वह आम आदमी का होता है.


बाटला हाउस आंतकवादी घटना की भांति मुम्बई आतंकी हमले पर मान्यवर अंतुले जी ने प्रश्न चिन्ह लगाया और जनता ने उसका उत्तर उन्हे दे दिया. आभिप्राय यह कि भारतीय पुलिस की जो छवियां हैं उनमें यदि भ्रष्ट और आंतकी छवि है तो खूंखार आतंकवादियों और बदमाशों से मोर्चा लेते हुए अपने जांबाजों को गंवाने की छवि भी है. लेकिन उसके पहली छवि के कारण आम आदमी उससे दूर रहना उचित समझता है. इस स्थिति को दूर करने के लिए गहन अध्ययन की आवश्यकता है. चयन प्रक्रिया के समय पुरानी पद्धति को अपनाने के बजाय वैज्ञानिक पद्धति अपनायी जानी चाहिए जिससे चयन से पूर्व अभ्यर्थी की मानसिकता का पता लगाया जा सके. प्रशिक्षण में भी उन विषयों को शामिल किया जाना चाहिए जिससे वे जनता के प्रति अधिक मानवीय हो सकें . उनकी कार्य-पद्धति को भी सुनश्चित करना चाहिए. यह कार्यपद्धति भी उनके स्वभावगत स्थितियों के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है.

वातायन का अगस्त, २००९ अंक किन्ही कारणों से कुछ विलंब से आप तक पहुंच रहा है. इस अंक में लियो तोल्स्तोय पर मैं अपना जीवनीपरक आलेख पुनः प्रस्तुत कर रहा हूं जो जनवरी २००८ के अंक में वातायन के प्रारंभिक दिनों में प्रस्तुत किया गया था. वातायन पर जब मैंने कार्य प्रारंभ किया था तब हिन्दी में लगभग दो हजार ब्लॉग थे, जिनकी संख्या अब लगभग दस हजार हो चुकी है. इस आलेख को पुनः देने का आभिप्राय उन पाठकों तक इसे पहुंचाना है जो इसे नहीं पढ़ सके थे. यह आलेख मेरे द्वारा अनूदित लियो तोल्स्तोय के उपन्यास ’हाजी मुराद’ की भूमिका के रूप में उपन्यास में सम्मिलित है. ’हाजी मुरा” लियो तोल्स्तोय का अंतिम उपन्यास था, जिसे उन्होंने १८९६ से १००४ तक लिखा था और उनके जीवन काल में यह प्रकाशित नहीं हुआ था. कारण शायद यह रहा होगा कि इसके सभी पात्र ऎतिहासिक हैं और यह भी संभव था कि उनमें से कुछ तब भी जीवित रहे हों. बहरहाल यह उपन्यास तोल्स्तोय के मरणॊपरान्त प्रकाशित हुआ और यह भी एक कारण रहा होगा कि हिन्दी में इसके विषय में प्रायः लोगों को जानकारी नहीं थी. मुझे इसके अनुवाद का और मेरे मित्र आलोक श्रीवास्तव को अपने प्रकाशन - ’संवाद प्रकाशन’ से इसे प्रकाशित करने का पहला गौरवपूर्ण अवसर प्राप्त हुआ. मेरे अनुवाद की सूचना के बाद मास्को से श्री अनिल जनविजय जी ने फोन पर बधाई देते हुए कहा कि वे दो वर्षों से इसका अनुवाद कर रहे थे, लेकिन किन्हीं कारणों से पूरा नहीं कर पाये. दो दिन पूर्व तक वह दिल्ली में थे और उन्होंने मुझसे फोन पर बात करने की इच्छा जाहिर की. मैंने ०८.०८.०९ को फोन किया तो उन्होंने बताया कि ’हाजी मुराद’ का मेरा अनुवाद मास्को में उनके पास है और उन्होंने पुनः उसकी प्रशंसा की. उन्होंने एक प्रस्ताव भी किया कि ’रचना समय’ (भोपाल से प्रकाशित होने वाली पत्रिका) का लियो तोल्स्तोय विशेषांक प्रकाश्य है और वह मेरे अनुवाद को उसमें शामिल करना चाहते हैं. लेकिन कुछ तकनीकी कारणॊं से मैं उन्हें ’रचना समय’ में ’हाजी मुराद’ के अपने अनुवाद को प्रकाशित करने की अनुमति नहीं दे पाया, जिसका मुझे खेद है. मुझे जानकर प्रसन्नता हुई जब अनिल जनविजय ने कहा कि तब उन्हें ही अपना रुका अनुवाद ’रचना समय’ के लिए पूरा करना होगा.

’वातायन” के इस अंक में प्रसिद्ध कवयित्री , लेखिका और वेब पत्रिका ’लेखनी’ की सम्पादिका सुश्री शैल अग्रवाल जी की पांच कविताएं और वरिष्ठ रचनाकार डॉ.सतीश दुबे की कहानी प्रकाशित हैं. डॉ. दुबे हिन्दी लघुकथा साहित्य के शीर्षस्थ लेखकों में हैं . उन्होंने पर्याप्त कहानियां भी लिखी हैं. प्रस्तुत कहानी उनके सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह ’धुंध के विरुद्ध’ से उद्धृत की गई है
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3 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

Priy Bhai
Apkee patrika mili..Dhanyawad. Lekhak sabhee shreshtha hain..Rachnayen bhee stareeya hain ,kintu apke hindi font matraen asuvidhajanak naheen hain.Apke font Anubhooti, Abhivyakti Lekhanee ya Garbhnaal sarekhe honge to padhane me aasanee hogee.Mujhe America me interrnet par Hindi me padhane ko aur kuchh naya mil hee nahee pata hai isliye Internet patrikaon se shuddha aur sahee lekhan kee asha banee rahti hai.
Dhanyawad.

Dr.Hari Joshi

सुभाष नीरव ने कहा…

भाई चन्देल, इस बार के 'वातायन' में तुम्हारा संपादकीय फिर कई सवाल खड़े करता है। भारतीय पुलिस तंत्र का चेहरा किससे छिपा है ? इसको विकृत बनाने में हमारे देश के सत्ताधीसों की भी बहुत बड़ी भूमिका रही है। बीच बीच में कहीं कहीं इसका दूसरा उज्जवल पक्ष भी दिखता है पर वह इतना नगण्य है कि उस उज्जवल पक्ष को बाकी का स्याह पक्ष लील लेता है। खैर,अच्छा है कि तुम ऐसे विषयों पर अपने विचारों को अपने ब्लॉग के माध्यम से दूसरों से शेयर कर रहे हो, यह एक संवेदनशील लेखक की सामाजिकता और जागरूकता को तो दर्शाता ही है, उसके सरोकार और पक्षधरता की तरफ भी इशारा करता है।

Udai Singh ने कहा…

बहुत अच्छा लेख है तोल्स्तोय के उपन्यास ’हाजी मुराद’ के बारे में जानकारी भी रुचिकर है