किरचे-किरचे जिन्दगी
डॉ० सतीश दुबे
"अतीत को एक-दूसरे के सामने दोहराने की बजाय, अपने तक सीमित रखा जाए, आपके इस विचार से सहमत होते हुए भी, मेरा यह मानना है कि भविष्य के सम्बन्धों में तरलता बनाए रखने के लिए जरूरी है कि कुछ प्रमुख घटना-क्रम को जान लिया जाए."
अनुशा ने चित्रांश के मुस्कुराते हुए चेहरे की ओर गौर से देखा और अपने प्रस्ताव पर उसकी प्रतिक्रिया जाने बिना चर्चा को गति देते हुए बोली - "सच मानिए, वैवाहिक रस्में पूरी होने के पूर्व परिवार ही नहीं हम दोनों के बीच भी सहमति और सोच का सौहार्दपूर्ण माहौल बना था. सब कुछ निबटा भी वैसे ही किन्तु एक-डेढ़ साल पश्चात सन्तान, बिजनेस-सेंटर पर भागीदारी, शैक्षणिक प्रतिभा के प्रति हिकारत, बाबा आदम के जमाने की रूढ़ियों को सलाम जैसी उमंग की अनेक उलट-पुलट मंशाएं इसकी वजह बनीं. दरअसल, एक तो, कई बातें मेरी मानसिकता के अनुकूल नहीं थीं, दूसरे लगातार कम्प्रोमाइज और समय-बेसमय उसकी ’आंखों की भाषा’ को मान देते-देते मैं महसूस करने लगी कि, मेरा वजूद शायद समाप्त होता जा रहा है. नतीजतन, असहमतियां, वाद-विवाद या डांट-फटकार में तब्दील होने लगी. विचलित कर देने वाली ऎसी स्थितियों के बीच एक दिन जब उसने हाथ उठाकर शारीरिक प्रताड़ना देने का नया अध्याय शुरू करने की कोशिश की तो मैंने प्रतिकार करते हुए उसकी कलाई कसकर थाम ली तथा दो-चार खरी-खरी बातें कहकर, मां-बाबूजी के पास अपने घर लौट आई."
वह कुछ और कहना चाह रही थी कि चित्रांश ने हंसी भरे ठसके के साथ उसकी ओर देखा --"गजब, ये हाथ उठाने और कलाई पकड़ने के किस्से यू.एस.ए. में तो कॉमन हैं, यहां भी ऎसा होता है ?"
"होता है, पर केवल उन कुछ परिवारों में जहां उमंग जैसे एबनॉर्मल व्यक्ति रहते हैं." कसैले और विद्रूप भरे शब्दों में प्रत्युत्तर देकर अनुशा, ’शालीमार कैफे’ के भव्य नजारे की ओर आंखें दौड़ाकर रेलेक्स होने की कोशिश करने लगी.
अचानक टेबल पर रखे हाथ की छुअन ने उसे चौंका दिया - "कहां खो गई, मैंने कहा था ना, अतीत को याद कर टेंशन मत लो . यूं ही मूड़ खराब कर लिया. चलो हो जाए हंसी का एक जाम. अब ये बताओ इंटरनेट पर मेरा एड आपने देखा था किसी और ने ?"
"मैंने ही, फैशन-डिजायनिंग में हासिल महारत का उपयोग करते-करते जब थक जाती हूं तो कम्प्यूटर स्क्रीन पर या तो वीडियो-गेम में अपनी गाड़ी को दूसरी से टकराने से रोकती हूं या फिर सर्फिगं पर जीवन-मरण के आसान तरीके बताने वाली वेबसाइट को खोजती रहती हूं---- बस ऎसी ही खोजबीन में आपका एड देख लिया."
एड के सब डिटेल्स एकदम जम गए या कुछ सोचना पड़ा."
मुस्कान दे पूरे हावभाव के साथ चित्रांश ने अनुशा की आंखों में झांका.
"सोचा कुछ ज्यादा नहीं. वैसे सब कुछ क्लीअर तो था. मुझे जीवित पति ने और आपको दिवंगत पत्नी ने वियोग-सन्यास दिया था और दोनों को संन्यास-श्राप से मुक्ति के लिए लाइफ-पार्टनर की जरूरत थी. रहा सवाल आपके बेटे का तो ऎसे मुआमलों में कुछ तो कम्प्रोमाइज करना पड़ता है. जुबान की कैफियत दो टेबल पर लकीरों में अंकित कर रही अंगुलियों को विराम देते हुए अनुशा ने सिर ऊंचा कर चित्रांश की ओर देखा.
"और हां, ये तो बताइए, मां-बाबूजी, भैया-भाभी के साथ मौज में रहते हुए, ये पार्टनर का एड खोजबीन करने की जरूरत क्यों हुई?"
"आपकी इस जिज्ञासा का जवाब --- आप सब जानते हैं कि हमारे परिवारों में निर्धारित उम्र के बाद बेटी सामान्यतः पिता के परिवार का हिस्सा नहीं मानी जातीं. यही सोच बेटी को पिता के घर से निकलने के स्वप्न और विशेष परिस्थियों में एड देखने के लिए मजबूर करती है."
एकदम पसरे मौन को भंग तथा चित्रांश को मुखरित करने के लिए अनुशा मुस्कुराकर बोली-"एक बात कहूं, ये पुरुष नामधारी प्राणी बहुत चालाक होता है, औरत की भावुकता का लाभ लेकर उसके बारे में, उसी से सबकुछ जान लेता है, किन्तु अपने बारे में----."
अनुशा के चेहरे की ओर देखते हुए उसके तर्कों को सुन रहे चित्रांश ने वाक्य पूरा होने के पूर्व ही जोरों से हंसी का ठस्का लगाते हुए कहा - "आप आकर्षक तो हैं ही चालाक भी---- अनुशा, मेरी जिन्दगी में है ही क्या जो आपको बताऊं. दोनों परिवारों के बीच हुई चर्चा में हमारी पृष्ठभूमि आप जान ही चुकी हैं, मेरा अधिकाश अतीत भी भविष्य के साथ जुड़ी वर्तमान की जो प्रक्रिया है वह है -- औरंगाबाद में आई.टी. सेण्टर चालू कर कारोबार शुरू करना. हम यू.एस. से लौटे कुछ मित्रों की इच्छा है, एस.एच.क्षेत्र में कुछ ऎसा विकसित किया जाए जो अमेरिका की सिलिकॉन वैली से टक्कर ले सके. यह तो हो गई बिजनेस की बात . घर-गृहस्थी बसाने के लिए, ढेरों आए प्रस्तावों में से आप पर मन आ गया. दरअसल सांवली-सलोनी, खुशमिजाज, बोल्ड और सबसे अधिक महत्वपूर्ण, अपने संस्कारों और संस्कृति से फैशन को डिजाइन करने वाली आपकी जैसी ही पार्टनर की कल्पना मेरे दिमाग में थी."
"मतलब यह कि बिना मेरी सहमति जाने आपने मुझे लाइफ-पार्टनर मान लिया." अनुशा की हंसती हुई आंखों ने चित्रांश की ओर देखा.
"हंडरेड परसेंट, और तैयारी यह भी है कि इंकार करने की स्थिति में आपको किडनेप कर लिया जाए." समवेत खिलखिलाहट के साथ चित्रांश ने प्रश्न किया -"अब तो ये बताओ अगला प्रोग्राम कैसे तय हो. मेरी इच्छा है सब कुछ आपकी मंशानुसार हो."
"ऎसे मुआमलों में औरत की जो एक बार इच्छा होती है मेरे लिए वह मर चुकी है. मेरा मतलब यह कि नग्रह देवता, सात फेरे आदि साक्षी तो बनते हैं पर वचनबद्धता के लिए मजबूर नहीं करते. मेरा मन है, यह सब रिपीट नहीं हो. क्या ऎसा नहीं हो सकता कि, हम अच्छे जीवन-साथी के रूप में साथ रहें." टेबल पर अंगुली से प्रश्न-चिन्ह बनाते हुए , अनुशा ने चित्रांश की ओर देखा.
प्रस्ताव सुनकर, चित्रांश रोमांचित हो उठा. उसे कल्पना भी नहीं थी कि सामने बैठी सरल, सौम्य चेहरे वाली इस लड़की की ऎसी सोच भी हो सकती है. उसकी भावनाओं पर कुछ देर मनन करने के बाद अपनी आवाज का वॉलूम, धीरे से तेज करते हुए वह बोला - "अनुशा ऎसा हो तो सकता है, पर ऎसे रिश्तों को समाज तथा कानून निगेटिव मानकर, न तो मान्यता देता है न अच्छी दृष्टि से देखता है.यह स्टेप-कॉन्सेप्ट हमारे देश में ही नहीं विदेशों में भी है. लीगल, इल्लीगल के न जाने कितने फंडे---- हम चाहे तो रिंग सेरेमनी का अधिकार पैरेन्ट्स को देकर शादी कोर्ट में कर सकते हैं. इससे हमारे सम्बन्धों पर सामाजिक और वैधानिक मुहर तो लगेगी साथ ही हम भी मानसिक रूप से जुड़ाव महसूस करेंगे. ठीक है ना ?"
"आप जो भी कहेंगे, मेरे लिए ठीक ही होगा."
बरसों पश्चात आत्मीय विश्वास से लबालब अनुशा के शब्द सुनकर चित्रांश अभिभूत हो गया. सामने पसरी उसकी हथेली पर हाथ रखकर वह भाव-विह्वल होकर बोला-"अनुशा, मेरी बिखरी हुई किरचे-किरचे जिन्दगी को तुम जो सहेजने आ रही हो उसके लिए थैंक्स बहुत छोटा और औपचारिक शब्द होगा."
चित्रांश की मनःस्थिति से जुड़ कर आंसुओं के रूप में प्रवाहित होने को आतुर भावों के वेग पर पाल बांधकर अनुशा ने खिलखिलाती आंखों से उसकी ओर देखकर प्रश्न किया - "मैं भी यदि ऎसे ही शब्द दोहराऊं तो ?"
"तो वह डिबेट का विषय हो जाएगा---- बेहतर यह होगा कि हम इस विषय पर तर्क करने की बजाय इस एम्ब्रेला-टेबल को छोड़कर आज के यादगार क्षणॊं का समापन फ्लावर्स हट में चलकर डिनर के साथ करें . कम ऑन."
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डॉ. सतीश दुबे
जन्म : १२ नवम्बर १९४० (इन्दौर)
एम.ए. (हिन्दी/समाजशास्त्र) पी-एच.डी.
अब तक एक उपन्यास, चार कहानी संग्रह, पांच लघुकथा संग्रह, बच्चों तथा प्रोढ़-नवसाक्षरों के लिए छः कथा-पुस्तकें तथा एक कविता संग्रह प्रकाशित. लगभग २०० समीक्षाएं. अनेक भाषाओं में रचनाओं के अनुवाद.
अनेक विशिष्ट गैर शासकीय संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत/सम्मानित.
सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन.
सम्पर्क : ७६६, सुदामा नगर, इन्दौर (म.प्र. ) भारत.
टेलीफोन : ०७३१-२४८२३१४
डॉ० सतीश दुबे
"अतीत को एक-दूसरे के सामने दोहराने की बजाय, अपने तक सीमित रखा जाए, आपके इस विचार से सहमत होते हुए भी, मेरा यह मानना है कि भविष्य के सम्बन्धों में तरलता बनाए रखने के लिए जरूरी है कि कुछ प्रमुख घटना-क्रम को जान लिया जाए."
अनुशा ने चित्रांश के मुस्कुराते हुए चेहरे की ओर गौर से देखा और अपने प्रस्ताव पर उसकी प्रतिक्रिया जाने बिना चर्चा को गति देते हुए बोली - "सच मानिए, वैवाहिक रस्में पूरी होने के पूर्व परिवार ही नहीं हम दोनों के बीच भी सहमति और सोच का सौहार्दपूर्ण माहौल बना था. सब कुछ निबटा भी वैसे ही किन्तु एक-डेढ़ साल पश्चात सन्तान, बिजनेस-सेंटर पर भागीदारी, शैक्षणिक प्रतिभा के प्रति हिकारत, बाबा आदम के जमाने की रूढ़ियों को सलाम जैसी उमंग की अनेक उलट-पुलट मंशाएं इसकी वजह बनीं. दरअसल, एक तो, कई बातें मेरी मानसिकता के अनुकूल नहीं थीं, दूसरे लगातार कम्प्रोमाइज और समय-बेसमय उसकी ’आंखों की भाषा’ को मान देते-देते मैं महसूस करने लगी कि, मेरा वजूद शायद समाप्त होता जा रहा है. नतीजतन, असहमतियां, वाद-विवाद या डांट-फटकार में तब्दील होने लगी. विचलित कर देने वाली ऎसी स्थितियों के बीच एक दिन जब उसने हाथ उठाकर शारीरिक प्रताड़ना देने का नया अध्याय शुरू करने की कोशिश की तो मैंने प्रतिकार करते हुए उसकी कलाई कसकर थाम ली तथा दो-चार खरी-खरी बातें कहकर, मां-बाबूजी के पास अपने घर लौट आई."
वह कुछ और कहना चाह रही थी कि चित्रांश ने हंसी भरे ठसके के साथ उसकी ओर देखा --"गजब, ये हाथ उठाने और कलाई पकड़ने के किस्से यू.एस.ए. में तो कॉमन हैं, यहां भी ऎसा होता है ?"
"होता है, पर केवल उन कुछ परिवारों में जहां उमंग जैसे एबनॉर्मल व्यक्ति रहते हैं." कसैले और विद्रूप भरे शब्दों में प्रत्युत्तर देकर अनुशा, ’शालीमार कैफे’ के भव्य नजारे की ओर आंखें दौड़ाकर रेलेक्स होने की कोशिश करने लगी.
अचानक टेबल पर रखे हाथ की छुअन ने उसे चौंका दिया - "कहां खो गई, मैंने कहा था ना, अतीत को याद कर टेंशन मत लो . यूं ही मूड़ खराब कर लिया. चलो हो जाए हंसी का एक जाम. अब ये बताओ इंटरनेट पर मेरा एड आपने देखा था किसी और ने ?"
"मैंने ही, फैशन-डिजायनिंग में हासिल महारत का उपयोग करते-करते जब थक जाती हूं तो कम्प्यूटर स्क्रीन पर या तो वीडियो-गेम में अपनी गाड़ी को दूसरी से टकराने से रोकती हूं या फिर सर्फिगं पर जीवन-मरण के आसान तरीके बताने वाली वेबसाइट को खोजती रहती हूं---- बस ऎसी ही खोजबीन में आपका एड देख लिया."
एड के सब डिटेल्स एकदम जम गए या कुछ सोचना पड़ा."
मुस्कान दे पूरे हावभाव के साथ चित्रांश ने अनुशा की आंखों में झांका.
"सोचा कुछ ज्यादा नहीं. वैसे सब कुछ क्लीअर तो था. मुझे जीवित पति ने और आपको दिवंगत पत्नी ने वियोग-सन्यास दिया था और दोनों को संन्यास-श्राप से मुक्ति के लिए लाइफ-पार्टनर की जरूरत थी. रहा सवाल आपके बेटे का तो ऎसे मुआमलों में कुछ तो कम्प्रोमाइज करना पड़ता है. जुबान की कैफियत दो टेबल पर लकीरों में अंकित कर रही अंगुलियों को विराम देते हुए अनुशा ने सिर ऊंचा कर चित्रांश की ओर देखा.
"और हां, ये तो बताइए, मां-बाबूजी, भैया-भाभी के साथ मौज में रहते हुए, ये पार्टनर का एड खोजबीन करने की जरूरत क्यों हुई?"
"आपकी इस जिज्ञासा का जवाब --- आप सब जानते हैं कि हमारे परिवारों में निर्धारित उम्र के बाद बेटी सामान्यतः पिता के परिवार का हिस्सा नहीं मानी जातीं. यही सोच बेटी को पिता के घर से निकलने के स्वप्न और विशेष परिस्थियों में एड देखने के लिए मजबूर करती है."
एकदम पसरे मौन को भंग तथा चित्रांश को मुखरित करने के लिए अनुशा मुस्कुराकर बोली-"एक बात कहूं, ये पुरुष नामधारी प्राणी बहुत चालाक होता है, औरत की भावुकता का लाभ लेकर उसके बारे में, उसी से सबकुछ जान लेता है, किन्तु अपने बारे में----."
अनुशा के चेहरे की ओर देखते हुए उसके तर्कों को सुन रहे चित्रांश ने वाक्य पूरा होने के पूर्व ही जोरों से हंसी का ठस्का लगाते हुए कहा - "आप आकर्षक तो हैं ही चालाक भी---- अनुशा, मेरी जिन्दगी में है ही क्या जो आपको बताऊं. दोनों परिवारों के बीच हुई चर्चा में हमारी पृष्ठभूमि आप जान ही चुकी हैं, मेरा अधिकाश अतीत भी भविष्य के साथ जुड़ी वर्तमान की जो प्रक्रिया है वह है -- औरंगाबाद में आई.टी. सेण्टर चालू कर कारोबार शुरू करना. हम यू.एस. से लौटे कुछ मित्रों की इच्छा है, एस.एच.क्षेत्र में कुछ ऎसा विकसित किया जाए जो अमेरिका की सिलिकॉन वैली से टक्कर ले सके. यह तो हो गई बिजनेस की बात . घर-गृहस्थी बसाने के लिए, ढेरों आए प्रस्तावों में से आप पर मन आ गया. दरअसल सांवली-सलोनी, खुशमिजाज, बोल्ड और सबसे अधिक महत्वपूर्ण, अपने संस्कारों और संस्कृति से फैशन को डिजाइन करने वाली आपकी जैसी ही पार्टनर की कल्पना मेरे दिमाग में थी."
"मतलब यह कि बिना मेरी सहमति जाने आपने मुझे लाइफ-पार्टनर मान लिया." अनुशा की हंसती हुई आंखों ने चित्रांश की ओर देखा.
"हंडरेड परसेंट, और तैयारी यह भी है कि इंकार करने की स्थिति में आपको किडनेप कर लिया जाए." समवेत खिलखिलाहट के साथ चित्रांश ने प्रश्न किया -"अब तो ये बताओ अगला प्रोग्राम कैसे तय हो. मेरी इच्छा है सब कुछ आपकी मंशानुसार हो."
"ऎसे मुआमलों में औरत की जो एक बार इच्छा होती है मेरे लिए वह मर चुकी है. मेरा मतलब यह कि नग्रह देवता, सात फेरे आदि साक्षी तो बनते हैं पर वचनबद्धता के लिए मजबूर नहीं करते. मेरा मन है, यह सब रिपीट नहीं हो. क्या ऎसा नहीं हो सकता कि, हम अच्छे जीवन-साथी के रूप में साथ रहें." टेबल पर अंगुली से प्रश्न-चिन्ह बनाते हुए , अनुशा ने चित्रांश की ओर देखा.
प्रस्ताव सुनकर, चित्रांश रोमांचित हो उठा. उसे कल्पना भी नहीं थी कि सामने बैठी सरल, सौम्य चेहरे वाली इस लड़की की ऎसी सोच भी हो सकती है. उसकी भावनाओं पर कुछ देर मनन करने के बाद अपनी आवाज का वॉलूम, धीरे से तेज करते हुए वह बोला - "अनुशा ऎसा हो तो सकता है, पर ऎसे रिश्तों को समाज तथा कानून निगेटिव मानकर, न तो मान्यता देता है न अच्छी दृष्टि से देखता है.यह स्टेप-कॉन्सेप्ट हमारे देश में ही नहीं विदेशों में भी है. लीगल, इल्लीगल के न जाने कितने फंडे---- हम चाहे तो रिंग सेरेमनी का अधिकार पैरेन्ट्स को देकर शादी कोर्ट में कर सकते हैं. इससे हमारे सम्बन्धों पर सामाजिक और वैधानिक मुहर तो लगेगी साथ ही हम भी मानसिक रूप से जुड़ाव महसूस करेंगे. ठीक है ना ?"
"आप जो भी कहेंगे, मेरे लिए ठीक ही होगा."
बरसों पश्चात आत्मीय विश्वास से लबालब अनुशा के शब्द सुनकर चित्रांश अभिभूत हो गया. सामने पसरी उसकी हथेली पर हाथ रखकर वह भाव-विह्वल होकर बोला-"अनुशा, मेरी बिखरी हुई किरचे-किरचे जिन्दगी को तुम जो सहेजने आ रही हो उसके लिए थैंक्स बहुत छोटा और औपचारिक शब्द होगा."
चित्रांश की मनःस्थिति से जुड़ कर आंसुओं के रूप में प्रवाहित होने को आतुर भावों के वेग पर पाल बांधकर अनुशा ने खिलखिलाती आंखों से उसकी ओर देखकर प्रश्न किया - "मैं भी यदि ऎसे ही शब्द दोहराऊं तो ?"
"तो वह डिबेट का विषय हो जाएगा---- बेहतर यह होगा कि हम इस विषय पर तर्क करने की बजाय इस एम्ब्रेला-टेबल को छोड़कर आज के यादगार क्षणॊं का समापन फ्लावर्स हट में चलकर डिनर के साथ करें . कम ऑन."
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डॉ. सतीश दुबे
जन्म : १२ नवम्बर १९४० (इन्दौर)
एम.ए. (हिन्दी/समाजशास्त्र) पी-एच.डी.
अब तक एक उपन्यास, चार कहानी संग्रह, पांच लघुकथा संग्रह, बच्चों तथा प्रोढ़-नवसाक्षरों के लिए छः कथा-पुस्तकें तथा एक कविता संग्रह प्रकाशित. लगभग २०० समीक्षाएं. अनेक भाषाओं में रचनाओं के अनुवाद.
अनेक विशिष्ट गैर शासकीय संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत/सम्मानित.
सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन.
सम्पर्क : ७६६, सुदामा नगर, इन्दौर (म.प्र. ) भारत.
टेलीफोन : ०७३१-२४८२३१४
3 टिप्पणियां:
डा0 सतीश दुबे हिन्दी लघुकथा लेखन में एक आदर और सम्मान से लिया जाने वाला नाम है। वह लघुकथा के सशक्त स्तम्भ रहे हैं और उम्र के इस पड़ाव पर भी उसी ऊर्जा और शक्ति से लेखनरत हैं जो उनके शुरुआती लेखन के समय हम देखते -महसूस किया करते थे। सरल सी लगने वाली उनकी कहानी 'किरचे किरचे जिन्दगी' अपने पाठ में बेशक सरल -सी प्रतीत होती हो पर अपने अर्थों में यह बहुत बड़ी बात कह जाती है। चूंकि डा0 दुबे एक सशक्त लघुकथाकार हैं, इसलिए इस कहानी में भी लघुकथा के गुण अनायास आ गए हैं।
kaphi samay ke baad dubey jee ki kahanii padnaa achchha laga
ashok andrey
दुबे जी कहानी बहुत अच्छी लगी. बहुत खूबसूरती से बात को कहा गया है.
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