सोमवार, 4 मई 2009

आलेख




आलेख

इस्लामोफ़ोबिया और राजनीति

मुक्ति श्रीवास्तव

गुजरात के चुनाओं के बारॆं में तमाम प्रतिक्रियाएं ’हिन्दुत्व’ के बैकलेश की बात कर रही थीं लेकिन जो बात प्रायः रेखांकित नहीं हो रही थी, वह यह थी कि ये चुनाव सिर्फ गोधरा के बाद हुए चुनाव नहीं हैं--- ये चुनाव ११ सितम्बर और १३ दिसम्बर के बाद हुए पहले चुनाव थे. ’गोधरा’ के प्रचार तंत्र ने उस अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय प्रचार तंत्र का स्थानीय अनुवाद और पुष्टि की जो इन घटनाओं के बाद इस्लामोफ़ोबिया को फैलाने की लगातार कोशिश कर रहा था.

भले लोग गोधरा-सिंड्रोम को गुजरात से बाहर फैलने नहीं देने के लिए तो उत्सुक थे, लेकिन इस इस्लामोफ़ोबिया के राष्ट्रीयकरण या अंतरराष्ट्रीय़करण के विरुद्ध एक ताकतवर प्रतिकारात्मक अभियान छेड़े बिना. एक अच्छा-खासा धर्म अतिरेक की मीडिया भाषा में बदनाम कर दिया गया और उसके विरुद्ध तथाकथित धर्म-निरपेक्ष शक्तियां खामोश रही हैं. दोहरापन क्या ज़बर्दस्त था? गोधरा की प्रतिक्रिया तो निंदा के लायक थी, लेकिन वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर की प्रतिक्रिया स्वीकार्य. क्या जितनी अतार्किकता गोधरा प्रतिक्रिया में थी, उससे कहीं ज्य़ादा अतार्किकता अमेरिका की तथाकथित ’दीर्घस्थाई स्वतंत्रता’ (एड्योरिंग फ्रीडम) में नहीं थी ? इस प्रतिक्रिया में ४००/५०० मुसलमान मरे तो हमारा सिर शर्म से झुक गया और उस प्रतिक्रिया में हज़ारों निर्दोष और अबोध अफग़ानी मारे गए तो वह गर्व करने योग्य था. यदि गोधरा का हिसाब एक पैशाचिक प्रतिक्रिया में चुकाना बर्बर है तो ओसामा-बिन-लादेन या अलकायदा का हिसाब अफग़ानी मासूमों की जान से चुकाना कैसे ’सभ्यता का संघर्ष’ बन जाता है ?

अगर अटलबिहारी बाजपेयी कहते हैं कि गोधरा काण्ड की मुस्लिम समाज में पर्याप्त निंदा नहीं हुई तो हमारी (सेक्यूलर) पार्टियों को यह कथन आपत्तिजनक लगता है, लेकिन यही बात जब मार्गरेट थ्रैचर ने ४ अक्टूबर, २००१ को कही कि ११ सितम्बर, २००१ की घटना की मुस्लिम समाज ने पर्याप्त निंदा नहीं की-तो हमारे हरेक के फटे में टांग अड़ाने वाले बुद्धिजीवियों को यह कथन सुपाच्य लगा.

यह ’पर्याप्तता’ का तर्क ग़ज़ब है ? क्या इसके मापने का कोई यंत्र है ? काफी कुछ तो इसी पर निर्भर करता है कि मापता कौन है. लेकिन एक बार मान भी लें कि पर्याप्त निंदा नहीं हुई तो क्या इससे किसी को मारने का लाइसेंस मिल जाता है ?

हमारा अंग्रेजी़ मीडिया यदि औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त होने का दावा करता है, तो वह यह बताये कि क्यों वह नरेन्द्र मोदी को खलनायक बनाता है और बुश को नायक जबकि नरेन्द्र मोदी तो उत्तेजित भीड़ की स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रिया का दावा कर सकते हैं लेकिन जॉर्ज बुश राज्य-प्रायोजित प्रत्याक्रमण के स्पष्ट पैरोकार हैं. एक को संदेह का लाभ भी नहीं , दूसरे को नंगे होने के बाद भी राजा कहा जा रहा है. आज अमेरिका अल्जीरिया की प्रजातांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार को मान्यता नहीं दे रहा क्योंकि वे ’फण्डामेंटलिस्ट’ हैं. लेकिन कल इसी आधार पर वह नरेन्द्र मोदी की सरकार को अमान्य कर सकता है. उसे इसके लिए सी.आई.ए. की रपट की ज़रूरत भी नहीं होगी, हमारे अंग्रेज़ी मीडिया की रपटें काफ़ी होंगी.

यह एक धर्म है जिसने विश्व के एक बड़े हिस्से में लोगों को जीवनाधार वैसे ही दिया है, जैसे दूसरे हिस्सों में दूसरे धर्मों ने दिया. जैसे दूसरे धर्म आंतरिक ध्वंस का शिकार हैं, वैसे यह धर्म भी. लेकिन इसके कुछ मुट्ठी भर उन्मादियों के राक्षसी कर्मों का अभिशाप जितना इस धर्म के निरीह अनुयायियों को भुगतना पड़ रहा है, उतना अन्य किसे ?

पिछले साल २८ जुलाई को अटलांटा में ओलंपिक सेंटेनिएल पार्क में एक पाइप बम फट तो मध्य-पूर्व के बहुत से मुस्लिम न केवल पूछताछ के लिए धर लिए गए, बल्कि सेंटेनिएल, टेक्सास में एफ.बी.आई. एजेंटों ने उनके घरों की तलाशी भी ली. मध्य-पूर्व माने क्या : अरब, कुर्द, तुर्क या सीरियाई, ईरानी, फिलीस्तीनी या मुस्लिम या बहाई ? पूर्वाग्रह बारीकियां नहीं देखता--ईरानी और सीरियाई में, मिस्री या मोरक्कन में, शिया में या सुन्नी में उसे कोई फ़र्क़ नज़र नहीं आता. खा़सकर अमेरिकी पूर्वाग्रह जिसे ओसामा-बिन-लादेन और सिखों की पगड़ी तक में फ़र्क़ करने तक का औसत ज्ञान नहीं है-- ज्ञानाधारित समाज के निर्माण के तमाम दावों के बावजूद. कश्मीर में बुरका़ न पहनने पर बलात्कार, हत्या और सिर कलम कर देने की घटनाएं दिसम्बर में घटीं. यह उससे भी बदतर आतंरिक त्रासदी थी, जो हरियाणा में गौओं के मामलों में दलितों की हत्या में देखने में आई भले ही भारत का मीडिया इस आंतरिक त्रासदी को दिखाने में चुप रहा. इसकी रपट एक घटना की तरह हुई, एक प्रवृत्ति की तरह नहीं, लेकिन हरियाणा की घटना को प्रवृत्ति की तरह बरतकर चाबुक चलाए गए. इटली के राष्ट्रीय लोकसेवा समाचार प्रसरण ने कार्डिनल जिओकोमो बीफी का वह कथन प्रसारित किया कि ’मुस्लिम हमारी मानवता का अंग नहीं हैं.’ वेल्स में शहर के मध्य में दो मस्जिदों को बंद कर देने की बात उठी क्योंकि उनका शहर के बीच में होना ’सार्वजनिक ख़तरा’ समझा गया, जिससे लोग ’भयभीत’ हैं. टेलीलोम्बार्डिया ने यह ’विचार’ ख़ूब जो़र-शोर से प्रसारित किया कि यूरोपीय समुदाय के देशों में मुस्लिमों का प्रवेश बंद कर दिया जाना चाहिए. हमारे अटलबिहारी बाजपेयी की ही तरह इटली के प्रधानमंत्री बर्लुस्कोनी ने सार्वजनिक मंच से मुस्लिमों के विरुद्ध ’अपनी सभ्यता की श्रेष्ठता’ का दावा किया. जर्मन चान्सलर हेल्मुट कोल ने तो साफ़-साफ़ कहा कि बॉन और पेरिस दोनों के लिए उत्तरी अफ्रीका के इस्लामिक आंदोलन बढ़ती हुई चिंता का श्रोत हैं और उन पर ध्यानपूर्वक नज़र रखी जा रही है. बेल्जियम के गृहमंत्री जोसेफ माइकल ने कहा कि हमें रोमन जनता की तरह वही ख़तरा है कि हम बर्बर जातियों जैसे - अरबों, मोरक्को, स्लावों और तुर्कों के द्वारा रौंदे जाएंगे. जेक्यूस शिराक के प्रमुख सलाहकार पियरे ले-लो -उचे ने मुस्लिम संसार में बढ़ते हुए कट्टरपंथ और तानाशाही के खतरों के प्रति चेताया है. ब्रिटेन के यूरोप मामलों के मंत्री पीटर हैने ने कहा कि ब्रिटेन का मुस्लिम समुदाय एकांतवादी (आइसोलेशनिस्ट) है. मिडिल ईस्ट क्वार्टर्ली के संपादक डेनियल पाइप्स ने तो अमेरिकी प्रशासन को उकसाया कि पूर्व में अमेरिका ने दक्षिण को वाम के विरुद्ध समर्थन दिया था, अब उसे नव ’दक्षिण ’(इस्लामिक कट्टरपंथियों) के विरुद्ध पुराने वाम का सहयोग लेना चाहिए. इस तरह देखा जाए तो ११ सितम्बर, २००१ की घटना के बाद अलकायदा पर नहीं, इस्लाम पर निशाना साधने की खेदजनक और शैतान अतार्किकता विश्वभर में देखी जा रही है. अरिजोना में सिख गैस स्टेशन के मालिक को डलास में मारा गया. पाकिस्तानी युवा और फिनिक्स में मरा मिस्री दुकानदार सभी उसी अतार्किकता के चेहरे हैं, जो गोधरा के बाद गुजरात में देखी गई. भारत में तो मीडिया ने गोधरा के बाद निर्दोष मुस्लिम की यातना-कथा को उजागर किया किन्तु अमेरिका के राष्ट्रीय अखबार गाहे-बगाहे ऎसे आप्त वाक्य बोलते रहे --’इस्लाम में क्षमा की ईसाई अवधारणा अनुपस्थित है’ या ’मुस्लिम संस्कृतियों में वाद-विवाद एवं व्यक्तिगत स्वातंत्र्य का विचार ही नहीं है’ या ’इस्लाम अद्वितीतः ऎसा धर्म है, जो सब प्रकार की हिंसा का समर्थन करता है.’ जिस समय गुजरात में दंगों की नृशंसता की आलोचना हमारे अखबारों और चैनल पर छाई हुई थी, उसी समय चीन में मुसलमान युवकों को उनके आखिरी भोजन में अल्कोहल मिलाकर, आधी बेहोशी के दौरान, खुली लॉरी में मृत्यु-पर्यन्त घसीटा जा रहा था और भीड़ हंस रही थी. लेकिन चीन के द्वारा मानवाधिकारों के उतने ही नृशंस उल्लंघन का कोई उल्लेख हमारे वामपंथी बुद्धिजीवियों और बहुत ही तेज चैनलों के द्वारा नहीं हो रहा था.

इटली के प्रधानमंत्री मानवाधिकारों के मामले में जितनी आसानी से इस्लाम की तुलना में स्वयं की सभ्यता को श्रेष्ठ कह सके, क्या उतनी आसानी से वे उसे चीन या रूस की तुलना में बेहतर बता सकेंगें, जहां मुस्लिम मानवाधिकारों का नृशंस हनन ११ सितबंर, २००१ के बाद और तीव्र हो गया है. गुजरात यदि अस्वीकार्य है तो चेचेन्या कैसे स्वीकार्य हो सकत है ? लेकिन बंधकों को ज़हरीली गैस सुंघाने वाले पुतिन नायक हैं और नरेन्द्र मोदी खलनायक . इस्लामोफोबिया को उचित ठहराना यदि ’आनुवंशिक प्रि-प्रोग्रामिंग’ या ’जैविक अवश्यता’ के नाम पर पश्चिमी मीडिया को लगता है तो लगभग यही तर्क ओसामा-बिन-लादेन का है. इस मीडिया से अच्छे टोनी ब्लेयर थे, जिन्होंने कहा कि यह ’इस्लामी आतंकवादियों’ का काम नहीं है, बस आतंकवादियों का काम है. क्या ओसामा, गाजी बाबा या मसूद अज़हर जैसे नरपिशाच स्व-घोषित मुस्लिम हैं या सच्चे मुस्लिम ? लेकिन मीडिया पश्चिम में ’डॉक्ट्रिन’ पर आधारित आतंकवाद की बात वैसे ही करता है जैसे भारत में वह ’डॉक्ट्रिन’ पर आधारित सांप्रदायिकता की.

दोनों ही जगह संघर्षों के मूल में ’विचार’ को केन्द्र बताया जाता है -विचारहीनता को नहीं. प्रकारान्तर से धर्म पर टिप्पणी की जाती है उनका भेद-विभेद संघर्ष के मूल में है, कि लोग धर्मों पर झगड़ते ही रहे हैं; जबकि तथ्य यह है कि विश्व के १० सबसे भीषण युद्धों , नरसंहारों व अत्याचारों में मारे गये २५० मिलियन लोगों में से मात्र २ प्रतिशत धर्मानुप्रेरित संघर्षों में मरे हैं. लेकिन बिना इस मिथक को प्रचारित किए मीडिया, वामपंथियों और बुद्धिजीवियों के एक बहुछपित वर्ग को तुष्टि नहीं होती.

फिर उन्हें इस बात की शिकायत भी होती है कि उनके इस प्रचार का विनियोग मोदी जैसे चतुर सुजान राजनीतिज्ञों ने अपने पक्ष में कर लिया है. दंगों की विवेचना यदि संतुलन बनाकर स्वयं संवाददाता नहीं कर सकता तो वह उन पीडि़तों-प्रभावितों से संतुलन की अपेक्षा कैसे कर सकता है कि जिनके परिवार या समुदाय का कोई निकटतम व्यक्ति मारा गया है. संतुलन झूठ का नाम नहीं है. संतुलन स्वतंत्रता है--- अपनी लेखनी को किसी भी स्वर्थ-समूह की अपेक्षाओं का बंधक न बनने देने कि आज़ादी.

हम़जा यूसुफ जैसे ख्यात इस्लामी विद्वान ने सही ही कहा कि मीडिया ने चरमपंथियों पर ध्यान केन्द्रित किया, न कि मुख्यधारा पर. यही बात गुजरात के संदर्भ में कही जा सकती है, जहां मात्र कुछ स्थानों पर हुई पाशविकता को इस तरह अतिप्रचारित किया गया कि मानों गांधी का गुजरात सब जगह और सब समय के लिए कहीं खो गया. मोदी की ’गौरव-यात्रा’ सेल्फ-ग्लोरिफिकेशन की एक ऎसी यात्रा थी, जो इस अतिप्रचार की पृष्ठभूमि में क्षतिपूरक रूप से ज़रूरी हो गई थी. कौन नहीं करता यह सेल्फ-ग्लोरिफिकेशन ? क्या पश्चिमी मीडिया ने ११ सितम्बर, २००१ की घटना के बाद इसका एक भी मौका छोड़ा ? वहां तो इस घटना के बाद आत्मसंदर्भी एवं आत्म-बधाई -मूलक श्रेष्ठता भाव के एक से एक नजारे देखने में आये. क्या आपने कभी गौ़र किया कि अब ’पश्चिम’ किस तरह ’अंतरराष्ट्रीय समुदाय’ के रूप में संदर्भित किया जाता है ? ८००० निः शस्त्र मुस्लिमों को अभी-अभी श्रेब्रेनिला के नरसंहार में मारने पर तो कभी ईसाइयत के ’हिसंक स्वभाव’ की चर्चा नहीं हुई. लेकिन अलकायदा के आक्रमण से इस्लाम हिंसक हो गया और गुजरात के कुछ हिस्सों में हिंसा भड़कने से हम. यदि ऎतिहासिक अनुभव इसके लिए जिम्मेदार हैं तो इन्क्वीजीशन, जिहाद, सेंट बार्थोलोम्यू नरसंहार, उपनिवेशीकरण जेनोसाइड, दासता, नेपोलियन के युद्धों , सर्फडम, प्रथम विश्वयुद्ध हो लो-कॉस्ट, द्वितीय विश्वयुद्ध में छः करोड़ लोगों का मरना, आणविक बम, वियतनाम और इराक का विनाश करते हुए जब वे ’क्षमा और करुणा के अवतार ’ हैं तो इस्लाम में ऎसी क्या खराबी है कि इटली के प्रधानमंत्री श्री सिल्वियो बर्लुस्कोनी कहें कि मुस्लिम सभ्यता यूरोप और इसके इतिहास से कमतर है. दुराग्रह की हालत इस कदर संगीन है कि पौली टॉयनबी का लेख ब्रिटेन के एक अखबार में जब ’उन्माद के पालने’ शीर्षक के साथ प्रकाशित होता है तो उसमें एक चित्र शीर्षक को चरितार्थ करने के लिए दिया गया है. इस चित्र में एक मुस्लिम महिला नमाज पढ़ रही है. नमाज पढ़ना, मंदिर में आरती या चर्च में प्रेयर या गुरुद्वारे में अरदास करना सब ईश्वरोन्मुखता के विविध स्वरुप हैं. सिर्फ नमाज पढ़ने की, उन्माद के साथ स्टिरियोटाइपिंग कैसे हो सकती है.

कबीर और रहीम, रसखान और जायसी का इस्लाम हिंसक इस्लाम कैसे हो सकता है ? मोहम्मद रफ़ी और मीनाकुमारी , उस्ताद अलाउद्दीन खां और अज़हरुद्दीन का इस्लाम हिंसक इस्लाम कैसे हो सकता है ? यह सआदत हसन मंटो और साहिर लुधियानवी का इस्लाम है, यह गा़लिब और बशीर बद्र का इस्लाम है. यह मेरी सबीहा दीदी और आपके जुम्मन चाचा का इस्लाम है. हम अपनी स्मृति और संस्कार के संसार को इनसे खारिज कर ओसामाओं से कैसे भर लें. लेकिन शीतयुद्ध के खत्म होने से ठण्डा हुआ शस्त्र व्यापार ओसामा के भय से ही चमकेगा. गालिब के दीवान से नहीं. पहले लाल खतरे के नाम से हथियार बेचे, अब इस्लामी खतरे के नाम पर बेचेंगे. इन्हीं ने १९७६ और १९८५ के बीच सऊदी अरब, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात और ओमान से २१० बिलियन डॉलर का खर्च सुरक्षा पर करवाया था. पॉल मॉडेल, ज्यू-डिथ मिलर, बर्नार्ड लुई, मार्टिन क्रैमर, पैट राबर्टसन, यूसेफ बुदेंस्की जैसे लेखक लगातार पश्चिमी सरकारों को इस्लामी देशों के ’रैडिकल राजनीतिक इस्लाम’ के खतरों से आगाह करने वाले लेख लिखकर इस रोमांच को बढ़ाते रहेंगे. इस रोमांच की अपनी आर्थिकी है.

इस्लाम को शत्रु के रूप में देखने की जगह जीवन में पार्टनर की तरह देखना होगा. मुस्लिम विरोधी पुर्वाग्रह के अंतर्राष्ट्रीय सैलाब के प्रिप्रेक्ष्य में देखना होगा कि किस तरह से भारत में रैह्टारिक नई प्रासंगिकताएं प्राप्त कर अपनी संकीर्णता को अपडेट करते चल रहा है. यह भी देखें कि नेताओं और धर्माधारित संगठनों के अलावा मीडिया ने इस ध्रुवीकरण में कितनी मदद की है. क्या अभी ब्रिटेन में जून, २००१ में ओल्ड हैम और बर्नले में दंगे नहीं हुए थे या इसके थोड़े ही बाद ब्रेडफोर्ड में या कुछ और पहले ब्रिक्सटन , साउथहाल और टौक्स्टेथ, ऑक्सफोर्ड, कार्डिक और लीड्स में. इन दंगों में पुलिस के रेसिस्ट बरताव के तथ्य भी रिकार्ड हुए. लेकिन क्या कोई भी आलोचना उसे ’राज्य प्रायोजित’ कहने की हद तक पहुंची ? किन्तु जब भारत की बात आती है तो एक फैशनेबल जुमला सभी तर्कों और तथ्यों पर हावी हो जाता है. कई संस्थाएं आनन-फानन में गठित होती हैं और ऎसे महान निष्कर्षों पर पहुंचती हैं कि लगता है, चलने से पहले ही उन्होंने इन जुमलों को तैयार कर रखा था. एक संस्था है -”इंटरनैशनल इनीशिएटिव फार जस्टिस इन गुजरात’. इसकी एक सदस्या हैं, न्यूयॉर्क सिटी यूनिवर्सिटी की विधि प्राध्यापक रोंड का-पे-लॉन . ये कहती हैं कि "हिन्दुत्व की शक्तियों द्वारा प्रक्षेपित ताकतवर आदमी’ की छवि गुजरात के दंगों में हुई सेक्सुअल हिंसा के पीछे जिम्मेदार है." अब ओसामा और उसकी गैंग इस्लाम का प्रमाण नहीं है तो गुजरात के कुछ नराधम शोहदे हुन्दुत्व का प्रमाण कैसे हो सकते हैं ? ऎसी ही अतिशयोक्तियां और सामान्यीकरण वे चारा हैं जिनसे ध्रुवीकरण की गाय पुष्ट होती है. क्या उसी न्यूयॉर्क की ब्रुकलिन डायोसिस के बिशप थामस डेली ने २४ जून, २००२ को रेक्टरी में आई एक महिला के साथ जो बलात्कार किया, उसका सामान्यीकरण करना ईसाइयत का अपमान नहीं होगा ? या बोस्टन की न्य़ूटन उपनगरी के रेवरेण्ड पॉल शेनले ने १९७९ से १९८९ के बीच लड़कों का जो यौन शोषण किया, उसका सामान्यीकरण करना ईसाइयत का अपमान न होगा? ईसाइयत के प्रमाण ईसा मसीह और मदर टेरेसा हैं या ये लॉस एंजिल्स के रेवरेण्ड जी.पैट्रिक जीमॉन जैसे लोग जो सेक्सुअल अब्यूज के लिए अदालत के सामने खड़े हैं या रेवरेण्ड-पो-लिएंतो बर्नाबी जैसे पादरी, जो एक युवा लड़की का बलात्कार कर फरार हैं. भारत में ’नाम्बाल’ जैसी कोई संस्था नहीं है और यह खुदा का शुक्र है कि यहां निकृष्ट प्रवृत्ति को दार्शनिकीकृत नहीं किया जाता.

लेकिन दूसरों की क्यों बात करें, जब अपने ही अपनों को चोट पहुंचाने में व्यस्त हैं. आजकल धर्मों के बारे में आंतरिक द्रोह करने वाले लोगों का बाजार गर्म है. कोई हिन्दू लेखक हनुमान को प्रथम आतंकवादी कहता है. नाईजीरिया में एक इस्लामी अखबार का हल्का कथन २०० से ज्यादा आदमियों की जान ले बैठता है. २३ दिसम्बर, २००२ को बी.बी.सी. ने एक वृत्तचित्र दिखाया कि जीसस को जन्म देते वक्त वर्जिन मैरी सिर्फ १३ वर्षों की थी और एक रोमन सैनिक के द्वारा बलात्कार किए जाने के बाद वह गर्भवती हुई थी. ध्यान दें कि ये सब द्रोह, धर्मों की किसी अत्यंत गंभीर भीतरी पड़ताल का नतीजा नहीं हैं -- ये सब फ्रीका दिखने-दिखाने की तलब से पैदा हुए हैं. ये विज्ञान और विश्लेषण की प्यास का परिणाम नहीं हैं, ये विवाद की प्यास का परिणाम हैं. ध्रुवीकरण की शक्तियां इन विवादों से अपने आपको ज्यादा पुनर्गठित करती हैं . धर्म टी.आर.पी. रेटिंग्स पाने के लिए नहीं बनाए गए थे. उन्हें प्रतिदिन के सेन्सेशन के लिए व्यवहृत करने की महत्वाकांक्षा न उनके प्रवर्तकों की थी, न उनके अनुयायियों की. एक नमाज़, एक शिवस्तोत्र, एक मॉस आत्मा की ठण्डक, राहत और स्थैर्य है - लेकिन आत्मा कैमरे की पकड़ में कहां आती है ?
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डी.एन.- २/११, चार इमली, भोपाल - ४६२०१६ (म.प्र.)
( साभार -सम्बोधन (त्रैमासिक) - अप्रैल - जून, २००९)
सम्पर्क : क़मर मेवाड़ी, सलाहकार सम्पादक,
कांकरोली -३१३३२४
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