शनिवार, 7 मई 2011

आलेख



ज़मीन की तलाश

फ़ज़ल इमाम मल्लिक


हिंदी में लिखी जा रही लघुकथाओं पर नज़र डालने बेहद मायूसी होती है। ऐसी बात नहीं है कि लघुकथाएं लिखी नहीं जा रही हैं। यह सही है कि लघुकथाएं बड़ी तादाद में लिखी जा रही हैं, उन पर बहसें भी हो रही हैं, चर्चा भी की जा रही है लेकिन सवाल यह भी है कि चर्चा कौन कर रहा है। लघुकथा लेखक होने के नाते इस बात पर ख़ुश भी हो सकता हूं कि लघुकथा को एक विधा के रूप में मान्यता मिल चुकी है और पत्र-पत्रिकाओं में लघुकथाओं को जगह भी मिलने लगी है लेकिन साहित्य में एक लघुकथाकार या लघुकथा की किसी पुस्तक की हैसियत क्या है यह हम सभी जानते हैं।


साहित्य की मुख्यधारा में लघुकथा या लघुकथाकारों को गंभीरता से अब भी नहीं लिया जा रहा है। यह लघुकथा का संकट है और यह संकट तब और बढ़ जाता है जब कोई बड़ा कथाकार अपनी लघुकथा की पुस्तक को भी कहानी संग्रह कह कर पाठकों के सामने रखता है। दरअसल यह संकट लघुकथा का कम लघुकथाकार का ज्यादा है। लघुकथाओं के साथ-साथ अगर वह कहानियां या कविताएं लिखता है तो ख़ुद को वह कवि या कथाकार कहलाना तो पसंद करता है लेकिन लघुकथाकार नहीं। साहित्य में लघुकथा और लघुकथाकारों को लेकर जो दोयम दर्जे का व्यवहार है, इसकी वजह भी यही है। मेरे कई लघुकथाकार मित्र इससे सहमत भी हो सकते हैं और असहमत भी लेकिन लघुकथाकारों का एक बड़ा तबक़ा जो लंबे समय से लघुकथा-लघुकथा खेलने में लगा है वह मेरी इस बात से असहमत तो होगा ही उसे इस पर बेतरह एतराज़ होगा कि मैंने लघुकथा के औचित्य पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं लेकिन क्या यह सच नहीं है कि हम दस-बीस (इसे बढ़ा कर तीस-चालीस या पचास-साठ भी किया जा सकता है) लघुकथाकार ही लघुकथा को लेकर अपने में ऐंठ-अकड़ नहीं रहे हैं और घोषित कर दे रहे हैं कि साहित्य में लघुकथा को स्थान मिल गया है लेकिन सच में ऐसा हुआ है क्या। क्या साहित्य में लघुकथाओं को गंभीरता से लिया जाने लगा है ? जो मान्यता कवि, कथाकार, व्यंग्य लेखक या दूसरी विधा के लेखकों को है वह मान्यता लघुकथाकारों को मिल पाई है ? ऐसे कई और सवाल हैं जो लघुकथा के सामने भी है और लघुकथाकारों के सामने भी। और इन सवालों का जवाब साहित्य के विस्तृत फलक पर ढूंढना होगा। लघुकथा या लघुकथाकारों के बीच इन सवालों का जवाब ढूंढा गया तो हो सकता है कि हम जैसे लघुकथा लिखने वालों को इस बात से तसल्ली हो जाए कि बतौर लघुकथाकार आपकी पहचान भी है और आपकी लिखी लघुकथाओं को सराहा भी जाता है। कुछ आलेखों में भी इनका उल्लेख कर दिया जाता है लेकिन जब साहित्य के फैले आकाश पर अपने को बतौर लघुकथाकार तलाशेंगे तो लघुकथा कहीं किसी कोने में दुबकी मिल जाए तो लघुकथाकार की खुशक़िस्मती ही समझी जाएगी क्योंकि साहित्य में लघुकथाकार आज भी अपनी जगह बनाने के लिए हाथ-पांव ही मार रहा है। कम से कम हिंदी में तो लघुकथाओं को लेकर यही बात कही जा सकती है। नहीं, इसके लिए साहित्य के किसी पंडित या आचार्य को दोष देने की ज़रूरत नहीं है।


लघुकथा के पंडित और आचार्य या मठ चलाने वाली ही इसके लिए ज्यादा ज़िम्मेदार हैं। लघुकथा आंदोलन के दौरान ही लघुकथा के इतने मठ बन गए कि बेचारा लघुकथा लेखक हैरान-परेशान हो गया कि वह करे तो क्या करे। हर मठ अपने-अपने तरीक़े से लघुकथा लेखन को आगे बढ़ाने में लग गया, नतीजा यह निकला कि लघुकथा तो कहीं पीछे छूटती चली गई, मठ फलते-फूलते रहे और मठाधीशों का अपना-अपना गिरोह पनपने लगा। शुरू में तो लघुकथा की लंबाई-चौड़ाई को लेकर ही ढेरों सवाल खड़े किए गए और लघुकथाओं को शब्दों की सीमा में क़ैद करने की कोशिशें होती रहीं। इतनी छोटी हो तो लघुकथा होगी या फिर इतनी लंबी हो गई तो लघुकथा नहीं होगी जैसे सवालों में लंबे समय तक लघुकथा घिरी रही और बेचारा लघुकथाकार इन सवालों के बीच इंच-टेप लेकर लघुकथा लिखने में जुटा रहा। अपनी लघुकथाओं को वह कभी एक सेंटीमीटर काटता तो कभी आधा सेंटीमीटर उसमें जोड़ता। इसी जोड़तोड़ में बेचारी लघुकथा विषय, शिल्प और प्रयोगों से कटती गई। एकतरह की, एक जैसी लघुकथाएं लिखी जाने लगीं। न तो कथ्य में प्रयोग और न ही शिल्प के स्तर पर कुछ नया करने की ललक बच पाती थी। मठों में बैठे लोगों ने इस तरह का तानाबाना बुना था कि बेचारा लघुकथाकार शब्दों और लंबाई-चौड़ाई की उलझन में ही उलझा रहा। हालांकि पहले तो इन गिरोहों में आपस में ले-दे चलती रही लेकिन बाद में एक अलिखित समझौता सा हो गया यानी यह तय पा गया कि एक-दूसरे पर पत्थर नहीं फेंके जाएंगे क्योंकि हर कोई शीशे के घर में ही बैठा है। इस समझौते का फ़ायदा भी लघुकथा लेखन से जुड़े लोगों को नहीं ही मिलना था। जिन्हें मिलना था उन्हें मिला और वे रातोंरात लघुकथा के मसीहा के रूप में ख़ुद को स्थापित करने में कामयाब रहे। लेकिन लघुकथाओं के सामने जो संकट तब था वह आज भी है जस का तस है। हो सकता है कि दलीलें दी जाएं कि आज ऐसी बात नहीं है। लघुकथा को विधा के रूप में मान्यता मिल चुकी है, लोग लघुकथा पर पीचएडी कर रहे हैं, कई शोध हो चुके हैं, हर साल लघुकथा संग्रह का प्रकाशन हो रहा है और पत्र-पत्रिकाएं लघुकथाएं छाप रही हैं। सारी बातें सर माथे पर। सब दलीलें मान लेता हूं। क्योंकि इसमें सच्चाई है।


लेकिन मेरा फ़कत इतना सा सवाल है कि जो लघुकथाएं लिखी जा रही हैं उनमें से ज्यायादातर शिल्प, कथ्य और प्रयोग के स्तर पर पाठकों से सरोकार बना भी पा रही हैं या नहीं। आप सौ लघुकथाएं पढ़ जाएं उनमें से ज्Þयादातर लघुकथाएं शिल्प और कथ्य के स्तर पर एक-दूसरे को दोहराती ही नज़र आती हैं। यह दोहराव कथ्य या विषय के स्तर पर हों तो सिमें कहीं कुछ भी ग़लत नहीं है लेकिन अपने ट्रीटमेंट में भी यह लघुकथाएं बहत हद तक एक जैसी बातें, एक ही तरीक़े से कहती नज़र आती हैं। यानी जो पैमाना लघुकथाओं के लिए बरसों पहले तय कर दिया गया था उसी पैमाना को ध्यान में रख कर अधिकांश लघुकथाएं लिखी जा रही हैं। यह संकट लघुकथाओं पर लगातार बढ़ा है लेकिन ताज्जुब की बात यह है कि इस बात को लेकर हममें से बहुत सारे लोग चिंतित नहीं हैं। हालांकि समय आ गया है कि इस विषय पर हम आप गंभीरता से विचार करें। विचार इस पर भी करना होगा कि लघुकथा को लोग गंभीरता से लें और इस पर बहस-मुबाहिसे भी हों लेकिन यह बहस सिर्फ लघुकथाकारों के बीच नहीं हो। लघुकथा को विस्तार देने के लिए ज़रूरी है कि इसे साहित्य के बड़े वर्ग से जोड़ा जाए और ऐसा हिंदी साहित्य के उन आलाचकों-समीक्षकों के जरिए ही किया जा सकता है, जिनकी धमक हिंदी साहित्य में महसूस की जाती है। अब तक तो यही होता आया है कि लघुकथाकार ही पीर-भिश्ती सब है। वही लघुकथा लिखता है, वही आलोचना करता है और वही समीक्षा भी। बड़े कथाकार अपने लघुकथा संग्रह को कथा-संग्रह के शीर्षक से प्रकाश्ति करवाते हैं और हम उन्हें महान लघुकथाकार लगातार घोषित करते चले आ रहे हैं। ऐसा होना हीं चाहिए।


बहुत पहले कमलेश्वर ने लघुकथा को एक ज़मीन दी थी लेकिन उसके बाद कोई दूसरा कमलेशवर सामने नहीं आया जो छाती ठोंक कर कहे कि लघुकथा एक विधा है और इस विधा को और इसके लेखकों को पूरा-पूरा सम्मान मिलना चाहिए। क्या हमने किसी दूसरे कमलेशवर की तलाश की। नहीं की क्योंकि हम तो ख़ुद ही उलझे हुए थे एक-दूसरे का गला काटने में। वक्त अभी भी हमारी मुट्ठियों से सरका नहीं है। आइए किसी दूसरे कमलेश्वर की तलाश करें ताकि लघुकथा को पनपने के लिए जो ज़मीन कमलेश्वर ने दी थी उस ज़मीन को बेहतर ढंग से तैयार करें ताकि और बेहतर लघुकथाएं हमारे सामने आएं और साहित्यमें लघुकथाकारों को गंभीरता से लिया जाए और हम ख़ुद के लघुकथाकार कहलाने पर शर्मिंदा न हों।एक बात और। लेखन के क्षेत्र में हम जैसे लोग लगातार आगे बढ़ते रहे। अच्छा लिखा, बुरा लिखा यह बात दीगर है लेकिन इस दौरान कभी पीछे मुड़ कर देखने की ज़हमत भी नहीं उठाई। लघुकथा आंदोलन में ढेरों लघुकथाकार थे लेकिन अब उनमें से कई कहां गुम हो गए उन्हें तलाशने की कोशिश तक नहीं की। कइयों ने लघुकथा लिखने से इसलिए तौबा कर लिया क्योंकि लघुकथा के नाम पर कुछ लोगों ने अपनी दुकान खोल ली थी और उस दुकान में लघुकथाकार तैयार किए जाने का फार्मूला बेचा और [ख़रीदा जा रहा थ। दुकानें तो अब भी खुली हुई हैं लेकिन अब ख़रीदार कम हो गए हैं। कभी सोचा हमने कि जिन लोगों ने लघुकथा को स्थापित करने के लिए अपना सब कुछ गंवा डाला उन्हें क्या मिला और आज वे कहां है। आज जब यह सब लिख रहा हूं तो भाई विक्रम सोनी बेतरह याद आरहे हैं। ‘लघु आघात’ और फिर ‘मिनी लघु आघात’ के ज़रिए उन्होंने लघुकथा को स्थापित करने में जितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, उसकी चर्चा आज कितने लोग कर रहे हैं। सच तो यह है कि विक्रम सोनी को हमने बिसरा दिया है। हमने पृथ्वीराज अरोड़ा, डॉ. सतीश दुबे और सुरेन्द्र मंथन को भी भुला दि्या!उन्हें याद करना तो दूर उनके बारे में ठीक-ठीक पता भी नहीं है कि वे हैं तो किस हाल में हैं, हैं भी या नहीं यह कोई ठीक-ठीक बता भी नहीं पाता है।


सवाल यह है कि विक्रम सोनी जैसे लोगों को भुला कर हम लघुकथा को स्थापित कर पाएंगे, कम से कम मेरा तो मानना है नहीं। आपका क्या ख़याल है ?

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जन्मः १९ जून, १९६४। बिहार के शेखपुरा जिले के चेवारा में।


शिक्षाः बी.एस-सी, होटल मैनेजमेंट में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा।१९८६ में होटल प्रबंधन से किनारा कर पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश। दैनिक हिंदुस्तान में बतौर स्ट्रिंगर शुरुआत। फिलहाल जनसत्ता के दिल्ली संस्करण में वरिष्ठ उपसंपादक के पद पर कार्यरत। क़रीब दस साल तक खेल पत्रकारिता। दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल के लिए फुटबॉल, बास्केटबॉल, एथलेटिक्स, टेनिस सहित दूसरे खेलों के सीधे प्रसारण की कॉमेंट्री।साहित्यिक पत्रिका 'शृंखला' व 'सनद' का संपादन।


सनद अब त्रैमासिक पत्रिका के रूप में दिल्ली से प्रकाशित। कविता संग्रह 'नवपल्लव' और लघुकथा संग्रह 'मुखौटों से परे' का संपादन।अखिल भारतीय स्तर पर लघुकथा प्रतियोगिता में कई लघुकथाएँ पुरस्कृत।कहानी-कविताएँ देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित व आकाशवाणी-दुरदर्शन से प्रसारित।पत्रकारिता के लिए स्व. रणधीर वर्मा स्मृति सम्मान, कवि रमण सम्मान व लघुकथा गौरव सम्मान (रायपुर) छत्तीसगढ़, खगड़िया (बिहार) में रामोदित साहु स्वर्ण सम्मान।ईमेल : fazalmallick@gmail.comमोबाइल : 9868018472

2 टिप्‍पणियां:

बलराम अग्रवाल ने कहा…

दुनियाभर में जाने कितने बच्चे अपनी-अपनी कक्षा में फेल होते हैं, कितने ही नौजवान साक्षात्कार ठीक न दे पाने के कारण नौकरी से वंचित रह जाते हैं; लेकिन दु:खी हम सिर्फ अपने बच्चे की असफलता पर होते हैं, दुनियाभर के बच्चों/नौजवानों की असफलता पर नहीं। फजल भाई के इस लेख को पढ़कर मुझे भीतर तक यह अहसास हुआ कि 'लघुकथा' के साथ उनका नाता 'अपनत्व' का है। तभी तो उन्होंने 'उच्च' साहित्यिकों के बीच इसकी और इसके लेखकों की वर्तमान स्थिति पर क्षोभ व्यक्त किया है। इस लेख को यद्यपि उन्होंने गहरी निराशा के क्षणों में लिखा है, लेकिन मैं उन्हें विश्वास दिला देना चाहता हूँ कि लघुकथा अधोगति को प्राप्त नहीं हो रही है। हाँ, इतना जरूर है कि एक समुदाय-विशेष साहित्यिक उपादानों के जरिए सरकारी धन के जिस दोहन-कार्य में लगा हुआ है उसमें 'लघुकथा' जैसी नव्य कथा-विधा कवर नहीं हो पा रही है। अगर हुई होती तो इसके भी दिन बहुर रहे होते। हिन्दी के जिन प्राध्यापकों को अज्ञेय की दो पंक्तियाँ याद नहीं हैं, वे भी आजकल उनपर ग्रंथ लिखने/संपादित करने के ठेके पाये हुए हैं और 'प्रोजेक्ट्स' की पूर्ति में जी-जान से जुटे हैं। सरकारी खर्चे पर सपत्नीक विदेश-भ्रमण का सूत्र भी इसी दौरान उनके हाथ लग ही जाएगा। ऐसे विकट समय में 'लघुकथा' पर सोचना समय नष्ट करने के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
आपने विक्रम सोनी, सतीश दुबे, पृथ्वीराज अरोड़ा, सुरेंद्र मंथन को याद किया, अच्छा लगा। अच्छा इसलिए कि दिल्ली में रह रहे 'साहित्यिक' की पहली चिन्ता 'पैसा' है, रचना या रचनाकार नहीं। प्रिय भाई, विक्रम सोनी कुछ वर्ष पहले पक्षाघात का शिकार होकर उज्जैन स्थित अपने घर में हैं। लगभग तीन वर्ष पहले हम करीब दस लघुकथा लेखक उनसे मिलकर आए थे। सेवानिवृत्ति के बाद सुरेन्द्र मंथन पंजाब में, पृथ्वीराज अरोड़ा करनाल में और डॉ॰ सतीश दुबे इन्दौर में हैं तथा अभी भी लेखनरत हैं, संपर्क में भी हैं। कुछेक ही सही, लघुकथाकारों ने फजल इमाम मलिक के जेहन में जगह बनाई, यह छोटी बात नहीं है। यह इस बात का भी सजीव उदाहरण है कि ईमानदार आलोचक स्तरीय रचना के छोटे-से-छोटे लेखक को भी हेय नहीं, उल्लेखनीय मानता है।

भगीरथ ने कहा…

'लेखन कवि , कहानीकार, (उपन्यासकार व्यंग्यकार) कहलाना पंसद करता है लघुकथाकार नहीं, यह उसकी पंसद का मामला है , उसकी पसंद भी बाजार भाव से तय होती है लघुकथा का बाजार भाव मंदी का शिकार है मांग बढ़ाओ , गुणवत्ता बढ़ाओ, कलात्मकता बढ़ाओ , सृजनात्मकता बढ़ाओ कि यह मंदी से उबर सके।
मलिक चिन्ता तो करते हैं कि लघुकथा को महत्व नहीं मिलता , लघुकथाकार को महत्व नहीं मिलता , आरोप मुख्यधारा के स्थापित साहित्यकारों पर जड ते हैं लेकिन इसी लेख में अन्यत्र कहते है-
'१०० कथाएं पढ जाइए , ज्यादातर शिल्प और कथ्य के स्तर पर एक दूसरे को दोहराती ही नजर आती है यह दोहराव कथ्य या विषय के स्तर पर हो तो उसमें कुछ गलत नहीं है लेकिन अपने ट्रीटमंट में भी ये कथाएं बहुत हद तक एक जैसी बातें, एक ही तरीके से कहती नजर आती है।
अब आप ही बताइए फजल जी कि भाव बढे तो कैसे बढे !
मलिकजी एक सलाह देते है कि लघुकथा को विस्तार देने के लिए जरूरी है कि इसे साहित्य के बडे वर्ग से जोडा जाय और ऐसा हिन्दी साहित्य के उन आलोचकों -समीक्षकों के जरिये ही किया जा सकता है जिनकी धमक हिन्दी साहित्य में महसूस की जाती है , धमक तो नामवर सिंह जी की है उनसे करवा लीजिए आलोचना, नामवर सिंह का भाव कहीं दो टके का न रह जाए वक्तव्य ही दिलवा दीजिए।
हॉं कोई नकारेगा नहीं , कहेगा क्षमता है लेकिन अभी वो फूल नहीं खिला है जिसकी महक साहित्य जगत में फैली हो।
अब चित्रामुद्‌गल को ही लीजिए उपन्यासकार है कहानीकार है और बतौर उपन्यासकार महत्व मिलता है लेकिन उनकी लघुकथाओं की चिंता तो हम ही (पीर मिश्ती) करते है।
पाठक और लेखक का रिश्ता मजबूत बनाओ सहित्य में एक लाईन का स्थान पाने से क्या संतुष्टि मिलेगी ।
जहॉं तक मठों का सवाल है , मठ तो बनते ही है और ध्वस्त भी होते हैं आपने मठों को ध्वस्त होते देखा होगा, ओर छोटे - छोटे क्षेत्रीय मठ भी बने होगें उनके ईर्द -गिर्द लोग इकठ्‌ठा हुए होगें कि बहती गंगा में हाथ धो ले । लेकिन जब वे देखते हैं कि बहती गंगा में मठाधीश नहा रहे हैं और उनकी और तो कुछ छींटे ही पड़ रहे हैं तो वे लठ्‌ठ लेकर खडे हो जाते हैं।
छोटे से समयकाल में क्षुद्र चीजें भी लोगों को महत्वपूर्ण लगती है। लेकिन वस्तुतः महत्वपूर्ण होती नहीं । रचना महत्वपूर्ण होगी तो ही महत्व मिलेगा आज नहीं कल। मठाधीश और धमक वाले आलोचक , और मुख्यधारा के साहित्यकार , न महत्व दिला पाएं हैं न दिला पाऐंगे।