वातायन में इस बार ’हम और हमारा समय’ स्तंभ के अंतर्गत वरिष्ठ कवि और गज़लकार रामकुमार कृषक का आलेख प्रस्तुत है. साथ ही प्रस्तुत है वरिष्ठ कवि,कथाकार और पत्रकार अशोक आंद्रे की कविताएं और सोफिया अंद्रेएव्ना की डायरी के शेष अंश. वरिष्ठ कथाकार बलराम अग्रवाल ने पिछले दिनों खलील जिब्रान पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक तैयार की है, जिसका एक उल्लेखनीय अंश वह वातायन में प्रकाशनार्थ देने वाले थे, लेकिन किन्हीं व्यस्तताओं के कारण नहीं दे सके. वातायन के पाठकों तक वह आलेख न पहुंचा पाने के लिए मुझे खेद है. यदि संभव हुआ तो वह अंश दिसम्बर अंक में प्रकाशित हो सकेगा.
हम और हमारा समय
अन्ना से अ-लगाव
हम और हमारा समय
अन्ना से अ-लगाव
रामकुमार कृषक
'जन-लोकपाल बिल' को लेकर गत दिनों गाँधीवादी बुजुर्ग अन्ना हजारे का आंदोलन अपने शबाब पर था। प्राय: समूचा देश आंदोलित रहा। कम से कम दृश्य और पठ्य माध्यम तो यही दिखा रहे थे। मैंने स्वयं दो-तीन बार इंडिया गेट और रामलीला मैदान तक आवाजाही की। उसी उत्साह के चलते एक-दो कलमकार साथियों को भी साथ लेना चाहा। पर नहीं। एक उनमें से इसलिए झुँझला उठे कि मैंने किंचित हँसते हुए पूछ लिया था- 'भाई, अभी तक सो रहे हो क्या!' इससे शायद उनकी लेखकीय ईगो हर्ट हुई थी, क्योंकि मेरे स्वर में कुछ व्यंग जरूर था। दूसरे कवि मित्र से जब मैंने कहा कि यार, आओ तो... देखो कि जिसे तुम भीड़ कह रहे हो, उसका हिस्सा बनकर कैसा लगता है, तो वे मेरी नासमझी पर तरस खाते हुए बोले- अरे पंडज्जी, यह तो सोचो कि अन्ना के पीछे है कौन? वही आर.एस.एस. और बी.जे.पी. या फिर इलीट क्लास के चंद पढ़े-लिखे मटरगश्त। जनता वहाँ कहाँ है? तभी मैंने उस रिक्शाचालक को याद किया, जिसने मुझे गाँधी-शांति प्रतिष्ठान की बगल से रामलीला मैदान तक अपने तयशुदा भाड़े (20 रुपए) से पाँच रुपए कम लेकर पहुँचा दिया था, क्योंकि मैं अन्ना के 'जलूस' में शामिल होने जा रहा था!
नागार्जुन अपनी एक कविता में कहते हैं-
इतर साधारण जनों से / अलहदा होकर रहो मत
कलाधार या रचयिता होना नहीं पर्याप्त है
पक्षधर की भूमिका धारण करो
विजयिनी जनवाहिनी का पक्षधर होना पड़ेगा...
माने 'पक्षधर' होना अपरिहार्य है। स्वेच्छा से नहीं हुए तो 'होना पड़ेगा', क्योंकि अगर हम 'विजयिनी जनवाहिनी' या अपने युगीन 'विप्लवी उत्ताप' की अनदेखी कर हिमालय पर भी जा बसें तो भी उसके परिधिगत ताप से बच नहीं पाएँगे।
अन्ना कोई विप्लवी या क्रांतिकारी व्यक्तित्व नहीं हैं। न वे भगतसिंह हो सकते हैं, न महात्मा गाँधी। वनांचलों में सुलगती जनक्रांति के लिए सक्रिय लोगों तक भी वे शायद ही जाना चाहेंगे। फिर भी उन्होंने भारतीय लोकतंत्र के संवैधानिक ढाँचे में रहते हुए जो कुछ किया, वह उपेक्षणीय नहीं। इसीलिए जिन सत्ताधीशों ने उनकी उपेक्षा की (और बाद में वंदना भी), वे स्वयं उपेक्षित हुए। जनबल ऐसा ही होता है। निर्बल, मगर जाग्रत जनता सदा ही महाबलियों को धूल चटाती है। 16 से 28 अगस्त, 2011 तक हमने यही देखा, और यह भी देखा कि उच्च शिक्षित जन, विद्यार्थी और ग्रामीण-कस्बाई लोग अन्ना जैसे अल्प शिक्षित और गँवई चेहरे-मोहरे वाले व्यक्ति को शिरोधार्य किए हुए थे। गाँधी अन्ना की तरह अल्प शिक्षित और ग्रामीण नहीं थे; पर ग्रामीणों जैसा बाना जरूर पहनते थे। अन्ना का बाना भी वैसा सादा नहीं है। फिर भी लोग उन्हें 'दूसरा गाँधी' कह रहे थे, और 'अन्ना' तो सबके सब हो ही गए थे, जबकि अन्ना ने स्वयं लोगों को चेताते हुए कहा- 'मैं अन्ना हूँ' की टोपी पहनकर ही आप अन्ना नहीं हो सकते! इस वाक्य के गहरे अर्थ हैं। यह बात किसी भी फैशनेबल या उत्सवधर्मी अनुयायित्व को आईना दिखानेवाली है।
यहीं हमें यह भी जानना होगा कि भ्रष्टाचार सिर्फ मौद्रिक रिश्वत का ही खेल नहीं है, बल्कि यह इस पूँजीवादी व्यवस्था में हमारे किसानों और श्रमिकों के शोषण, यानी उनके द्वारा उत्पादित पूँजी में उनकी उचित हिस्सेदारी का नहीं होना भी है। साथ ही इसका दूसरा छोर हमारी जनता के समग्र सामाजिक बोध और मनुष्य होने से जुड़ा हुआ है। किसी राष्ट्र-राज्य में भ्रष्टाचार के जितने भी रूप हैं, वे कानूनी अभाव या अक्षमता के उतने नहीं, जितने हमारी नैतिक चेतना के कुंद और कलुषित होने के परिणाम हैं। सत्ता-व्यवस्था कोई भी हो- पूँजीवादी या साम्यवादी, राजतंत्र या लोकतंत्र, उच्चतम मानव-मूल्य सब कहीं आवश्यक हैं; अन्यथा न गाँधी का रामराज्य आएगा, न माक्र्स का लोकराज्य।
भारत एक लोकतांत्रिक देश है और गणराज्य बने इसे इकसठ साल हो चुके हैं। इन छह दशकों में तरह-तरह की चुनौतियों से निबटते हुए हमने जो 'तरक्की' की है, देखा जाय तो उसी में हमारी पतनशीलता के बीज छुपे हुए हैं। विकास का पश्चिमी, पूँजीवादी मॉडल अपनाकर हमारे रंग-बिरंगे सत्ताधीशों ने जनता को जिस तरह लूटा है, उसका कोई सानी नहीं। और गत दो दशक से तो उसी पूँजीवादी विश्व द्वारा थोपी गई ग्लोबल अर्थ-व्यवस्था, यानी नव-साम्राज्यवादी लूटतंत्र के हिस्से होकर हमने जैसे सभी कुछ बहुराष्ट्रीय निगमों को सौंप दिया है। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी आज जनता को नसीब नहीं, जबकि सार्वजनिक संसाधानों की लूट में शामिल वर्ग के लिए सबकुछ उपलब्ध है। जाहिरा तौर पर हमारा नेतृत्ववर्ग इस मोर्चे पर भी नेतृत्वकारी है। इसे श्रमिकों की नहीं, सटोरियों की परवाह है। सेंसेक्स ही इसके उत्थान-पतन का पैमाना है। इसके भरे पेटों के सामने स्विस बैंकों की भी कोई हैसियत नहीं, क्योंकि वे इन्हीं के बल पर हैसियतदार हुए हैं। जनता के खून-पसीने और देश की धूल-मिट्टी से सना पैसा इनके नामी-बेनामी खातों में पहुँचकर न जाने किस जादूगरी से स्वर्ण-मुद्राओं में तब्दील हो जाता है! बेशक उस जादूगरी या कानूनी-गैरकानूनी मकड़जाल से हम परिचित न हों, लेकिन जादूगरों को इस देश की जनता जरूर पहचानने लगी है।
ध्यान से देखा जाय तो पहचानने की इस प्रक्रिया के दो परिणाम दिखाई देते हैं। एक, आदिवासी बहुल लाल गलियारे में सशस्त्र नक्सलवादी जनांदोलन और दूसरा, अन्ना हजारे के 'इंडिया अगेंस्ट करप्शन' जैसे जनतांत्रिक आंदोलन। मार्क्सवादी दर्शन में ऐसे आंदोलन को सत्ता-समर्थित 'सेफ्टी वाल्व' कहा गया है, यानी जनता के भीतर सुलगते गुस्से और क्रांतिकारी व्यवस्था-परिवर्तन की आग को ठंडा करना। सच है, सत्ताएँ कई बार ऐसा करती हैं, लेकिन अंतत: दोनों की मिली-भगत सामने आ ही जाती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि अन्ना-आंदोलन के संदर्भ में ऐसी कोई आशंका नजर नहीं आती। हमारी विधायिका और कार्यपालिका के भ्रष्टाचरण को भारत की सर्वोच्च न्यायपालिका ने बार-बार लक्षित किया है। मीडिया भी इस मामले में पीछे नहीं है, बेशक बाजार ही उसकी प्राथमिकता है। इसलिए अगर राजनीतिक और प्रशासनिक क्षेत्र में फैले भ्रष्टाचार या व्यवस्थाजन्य अन्य कदाचारों के विरुद्ध जनता का आक्रोश किसी गैर-सरकारी संगठन के पीछे लामबंद होता है तो जरूरी नहीं कि उसका अंतिम नतीजा नकारात्मक ही हो।
वैसे भी अगर हम 'जन-लोकपाल बिल' के प्रस्तावित प्रावधानों को देखें तो उनमें कुछ जोड़ा ही जा सकता है। मसलन, एन.जी.ओ. और कार्पोरेट क्षेत्र का भ्रष्टाचार और उन पर निगरानी। 'जन-लोकपाल बिल' के प्रारूप में इनको शामिल न किया जाना अन्ना-टीम को कठघरे में खड़ा करता है, और इसकी आलोचना हुई है। उम्मीद है, उसके संशोधित प्रारूप में ये दोनों क्षेत्र अनिवार्य रूप से शामिल होंगे। इनके अतिरिक्त बिल की शेष धाराओं या उसके कार्यकारी स्वरूप में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे संसदीय लोकतंत्र के लिए 'खतरनाक' कहा जाय। खतरनाक तो लोकतंत्र के लिए जन-प्रतिनिधियों से जनता का विश्वास उठ जाना है; और यह विश्वास सब कहीं टूटा है। गाँवों से लेकर शहरों तक सत्ता और पूँजी का मजबूत गँठजोड़ कायम है; और लोग बेबस हैं। अन्ना कहते हैं कि लोकतंत्र में लोक की ही अनदेखी हो रही है। हर जगह उसे किनारे कर दिया गया है। इस संदर्भ में उनकी दो अवधारणाओं पर विचार करें- 'जन-संसद' और 'ग्रामसभा'। हम सभी जानते हैं कि संसद की सर्वोच्चता या संसदीय गरिमा को सांसद ही भंग करते आए हैं-जनता नहीं- चाहे वे किसी भी दल के हों। वामपंथी दलों को अवश्य इससे कुछ अलग रखना होगा। यहाँ 'जन-संसद' का आशय अन्ना-टीम जैसे लोगों से नहीं है, बल्कि इस देश की समूची जनता से है, जो कि अपने मताधिकार से भारतीय संसद को सप्राण करती है। इसलिए संसद को जनता की आवाज के दायरे में होना ही चाहिए। इस पद का यही आशय है। दूसरा पद है- 'ग्रामसभा'। कहा जा सकता है कि हमारे गाँवों में निर्वाचित ग्राम-पंचायतें हैं तो। लेकिन तथ्य यह है कि उनके सदस्य या पंच प्रधान प्रेमचंद के 'पंच परमेश्वर' नहीं रह गए हैं, बल्कि उनका आचरण जूनियर सांसदों और विधायकों जैसा है। पैसा, पावर और जातिवादी राजनीति ने उन्हें पूरी तरह भ्रष्ट कर दिया है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो हमारी ग्राम-पंचायतें राष्ट्रीय और प्रादेशिक राजनीति तथा स्थानीय प्रशासनिक निकायों के स्वार्थों की ही पूर्ति करती हैं, व्यापक जनहित से उन्हें कोई मतलब नहीं। जन-कल्याण के नाम पर आया पैसा वोट बैंक के हिसाब से खर्च हो जाता है। गाँव-देहात के लिए, खेत-खलिहानों के लिए कानूनों का निर्माण वैभवशाली गुंबदों में बैठे वे लोग करते हैं, जो कि जनता द्वारा ही पंचसाला भोग के लिए अधिकृत कर दिए जाते हैं। दूसरे शब्दों में, हमारी जनता अपने ही वोट से अपना सबकुछ हार जाती है। कविता में कहा जाय तो संसदीय जनतंत्र की एक परिभाषा यह भी है-
वोट हमारा हार हमारी जीत-जश्न उनके
द्यूतसभा शकुनी के पासे बिछी बिसातें हैं
जाहिर है, ऐसे जनतंत्र का या तो खात्मा होगा या वह सुधरेगा। इसलिए अन्ना अगर संसद और प्रशासन को जनता के प्रति ज्यादा उत्तरदायी बनाने की बात करते हैं, तो रास्ता यह भी है। असल में तो जन-लोकपाल बिल में शामिल माँगों को सत्ता के जनोन्मुखीकरण की तरह देखा जाना चाहिए। चुनाव-सुधारों को लेकर 'राइट टु रिजेक्ट' और 'राइट टु रिकॉल' जैसी माँगों का भी यही मतलब है। चुनाव-खर्च के लिए अकूत धन जुटाने का मसला भी इसी से जुड़ा हुआ है। हमने देखा ही कि जन-लोकपाल बिल के सिर्फ तीन जरूरी प्रावधानों की अनिवार्यता को लेकर सत्ता पर काबिज चौपड़बाजों ने किस कदर गोटियाँ चलीं। ऐसे में पूरे के पूरे 'जन-लोकपाल बिल' का क्या हश्र होगा, इसकी भी कल्पना की जा सकती है।
अंतत: मैं फिर से शुरुआत की ओर लौटना चाहता हूँ। केदारनाथ अग्रवाल की एक कविता 'घन-गर्जन' की कुछ पंक्तियाँ हैं-
लेखनी गर्दन झुकाए / सिर कटाए
कायरों की गोद में ही झूल जाए
यह न होगा
लेखनी से यह न होगा
फूल बोएँ / शूल काटें / पेट काटें
रोटियाँ रूठी रहें हम धूल चाटें
यह न होगा
लेखनी से यह न होगा
जिंदगी की आन हारें / ज्ञान हारें
आँसुओं से आग के कुंतल सँवारें
यह न होगा
लेखनी से यह न होगा...
इसके बाजवूद विडंबना ही है कि हमारी प्रगतिशील और जनवादी लेखक बिरादरी ने अन्ना-आंदोलन से सुरक्षित दूरी बनाए रखी। संदेह और तर्कशीलता भले ही बुद्धिजीवियों की खास पहचान है, पर अगर यह पहचान जनता में उन्हें ही अपरिचित बनाए रखे, तो किस काम की। इसी के चलते कहा जाता है कि लेखक वाकई किसी दूसरी दुनिया का जीव होता है। दिल्ली में ही अनेकानेक वरिष्ठतम लेखकों की मौजूदगी है; प्रलेस, जलेस, जसम जैसे संगठन भी हैं, पर न कहीं कोई लेखक व्यक्तिगत तौर पर दिखा और न सांगठनिक स्तर पर किसी की राय सामने आई। ऊपर से रोना यह कि हिंदी समाज में लेखक की कोई हैसियत नहीं। अंग्रेजी में अरुंधती राय हैं, जो विरोधद में ही सही, बोलती तो हैं। यहाँ तो चुप्पी ही शायद सबसे ऊँची आवाज है! हाँ, एक आवाज हिंदी में दलित लेखकों की जरूर है, जो अक्सर ही अलग बोलते हैं। उन्हें संसद की उतनी नहीं, जितनी संविधान की चिंता है, जो उनके लिए किसी बाइबिल से कम नहीं, जबकि उसी ने उसमें संशोधान का अधिकार भी संसद को दिया है। बाबा साहेब अंबेदकर ने संविधान में यह कहीं नहीं लिखा कि जनता के वोट से चुनकर संसद में आए सांसद जनता की ही अनदेखी करें। दरअसल संविधान, संसद और जनता परस्पर पूरक की तरह हैं, न कि प्रतियोगी या प्रतिद्वंद्वी। इसके बावजूद संसदीय जनतंत्र, बल्कि संविधान को भी नकारनेवाली ताकतें हमारे यहाँ सक्रिय हैं, और उनके कुछ वाजिब तर्क हैं; और अगर आज वे हमारी जनता को सहज स्वीकार्य नहीं हैं, तो जरूरी नहीं कि कल भी स्वीकार्य न हों।
अन्ना हजारे गाँधीवादी हैं। चिंतक नहीं, सत्याग्रही। बल्कि गाँधी जैसे सत्याग्रही और अहिंसावादी भी नहीं। ठेठ किसानी अंदाज में बोलते हैं। मुहावरेदार बोली-बानी में - माल खाए मदारी और नाच करे बंदर! या फिर - भगवान को मानता हूँ, मंदिर को नहीं! अथवा- कुछ लोग इसलिए जी रहे हैं कि क्या-क्या खाऊँ और कुछ इसलिए कि क्या खाऊँ! जनता इस भाषा को खूब समझती है। शोषणकारी सिद्धांत और प्रक्रिया को नहीं समझती। तालियाँ बजाती है। नारे लगाती है। और संसद में बैठे मदारी बगलें झाँकते हैं। यह एक दृश्य है, जिसे किसी फिल्मांकन की जरूरत नहीं। ऐसे में हम वहाँ नहीं होंगे तो कोई और होगा। भाजपा, आर.एस.एस. वगैरह। अन्ना की नहीं, सोनिया की सत्ता पलटने आएँगे वे -कोढ़ में खाज की तरह। दूसरी ओर हम हैं, जो मरहम होने का दावा करते हैं, लेकिन जनता के घावों को देखना तक नहीं चाहते। माना कि अन्ना के साथ गाँव-देहात की जनता नहीं थी, लेकिन महानगरों में जो 'जनता' है, उसमें क्या हमारे गाँव शामिल नहीं हैं? फिर मध्यवर्ग में भी बढ़ोत्तरी हुई है। उसमें भी किसानों और मजदूरों की कुछ हिस्सेदारी है। गाँव के गाँव उजड़कर शहरों में चले आ रहे हैं। लेकिन उनमें हमारी कोई दिलचस्पी नहीं। पढ़ा-लिखा शहरी मध्यवर्ग ही हमारे लिए मध्यवर्ग है, जबकि उसकी उच्च-मधयवर्गीय-या पूँजी-केंद्रित महत्वाकांक्षाओं को हम लगातार अनदेखा करते हैं, क्योंकि वही हमारा भी आईना है। सच तो यह है कि मार्क्सवादी कहलाने से ज्यादा डर हमें गाँधीवादी कहलाने से लगता है, पर सच यह भी है कि मार्क्स हमारे जीवन-व्यवहार की नैतिक और सामाजिक परिधि में आज भी शामिल नहीं हैं; अन्यथा क्या वे हमें हमारी जनता के बीच जाने से रोक देते? अगर वह प्रतिगामियों के फेर में है तो भी, और नहीं है तो भी। आखिर भटकावों में सही दिशा देने की जिम्मेदारी भी हमारी ही होनी चाहिए; और यह जनता से दूर रहकर नहीं हो सकता।
संदर्भ बेशक श्रम-संबद्धता का है, लेकिन 1975 में एक साक्षात्कार के दौरान रूसी-हिंदी विद्वान डॉ. पी. बरान्निकोव ने मुझसे कहा था- ''मुझे लगता है, आपके साहित्यकार श्रेष्ठता-बोध के शिकार हैं। समाज से ऊपर हैं जैसे, समाज में नहीं हैं। फिर जो आपका लोकतंत्र है, उसमें पूँजी का महत्व है, श्रम का नहीं। इससे जो कल्चर बन रही है, वह अलगाव की है, एकता की नहीं है। तो इसका प्रभाव लेखकों पर भी है। वे जनता से दूर जा रहे हैं। प्रेमचंद जैसे जानते थे अपने लोगों को, वे नहीं जानते। या जानने से बचते हैं कि कहीं बड़े लोगों का तबका उन्हें छोटा न समझने लगे!''-कहा उन्होंने', पृ.-167
(‘अलाव’ सितम्बर-अक्टूबर, २०११ से साभार)
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-०-०-०-०-०-'जन-लोकपाल बिल' को लेकर गत दिनों गाँधीवादी बुजुर्ग अन्ना हजारे का आंदोलन अपने शबाब पर था। प्राय: समूचा देश आंदोलित रहा। कम से कम दृश्य और पठ्य माध्यम तो यही दिखा रहे थे। मैंने स्वयं दो-तीन बार इंडिया गेट और रामलीला मैदान तक आवाजाही की। उसी उत्साह के चलते एक-दो कलमकार साथियों को भी साथ लेना चाहा। पर नहीं। एक उनमें से इसलिए झुँझला उठे कि मैंने किंचित हँसते हुए पूछ लिया था- 'भाई, अभी तक सो रहे हो क्या!' इससे शायद उनकी लेखकीय ईगो हर्ट हुई थी, क्योंकि मेरे स्वर में कुछ व्यंग जरूर था। दूसरे कवि मित्र से जब मैंने कहा कि यार, आओ तो... देखो कि जिसे तुम भीड़ कह रहे हो, उसका हिस्सा बनकर कैसा लगता है, तो वे मेरी नासमझी पर तरस खाते हुए बोले- अरे पंडज्जी, यह तो सोचो कि अन्ना के पीछे है कौन? वही आर.एस.एस. और बी.जे.पी. या फिर इलीट क्लास के चंद पढ़े-लिखे मटरगश्त। जनता वहाँ कहाँ है? तभी मैंने उस रिक्शाचालक को याद किया, जिसने मुझे गाँधी-शांति प्रतिष्ठान की बगल से रामलीला मैदान तक अपने तयशुदा भाड़े (20 रुपए) से पाँच रुपए कम लेकर पहुँचा दिया था, क्योंकि मैं अन्ना के 'जलूस' में शामिल होने जा रहा था!
नागार्जुन अपनी एक कविता में कहते हैं-
इतर साधारण जनों से / अलहदा होकर रहो मत
कलाधार या रचयिता होना नहीं पर्याप्त है
पक्षधर की भूमिका धारण करो
विजयिनी जनवाहिनी का पक्षधर होना पड़ेगा...
माने 'पक्षधर' होना अपरिहार्य है। स्वेच्छा से नहीं हुए तो 'होना पड़ेगा', क्योंकि अगर हम 'विजयिनी जनवाहिनी' या अपने युगीन 'विप्लवी उत्ताप' की अनदेखी कर हिमालय पर भी जा बसें तो भी उसके परिधिगत ताप से बच नहीं पाएँगे।
अन्ना कोई विप्लवी या क्रांतिकारी व्यक्तित्व नहीं हैं। न वे भगतसिंह हो सकते हैं, न महात्मा गाँधी। वनांचलों में सुलगती जनक्रांति के लिए सक्रिय लोगों तक भी वे शायद ही जाना चाहेंगे। फिर भी उन्होंने भारतीय लोकतंत्र के संवैधानिक ढाँचे में रहते हुए जो कुछ किया, वह उपेक्षणीय नहीं। इसीलिए जिन सत्ताधीशों ने उनकी उपेक्षा की (और बाद में वंदना भी), वे स्वयं उपेक्षित हुए। जनबल ऐसा ही होता है। निर्बल, मगर जाग्रत जनता सदा ही महाबलियों को धूल चटाती है। 16 से 28 अगस्त, 2011 तक हमने यही देखा, और यह भी देखा कि उच्च शिक्षित जन, विद्यार्थी और ग्रामीण-कस्बाई लोग अन्ना जैसे अल्प शिक्षित और गँवई चेहरे-मोहरे वाले व्यक्ति को शिरोधार्य किए हुए थे। गाँधी अन्ना की तरह अल्प शिक्षित और ग्रामीण नहीं थे; पर ग्रामीणों जैसा बाना जरूर पहनते थे। अन्ना का बाना भी वैसा सादा नहीं है। फिर भी लोग उन्हें 'दूसरा गाँधी' कह रहे थे, और 'अन्ना' तो सबके सब हो ही गए थे, जबकि अन्ना ने स्वयं लोगों को चेताते हुए कहा- 'मैं अन्ना हूँ' की टोपी पहनकर ही आप अन्ना नहीं हो सकते! इस वाक्य के गहरे अर्थ हैं। यह बात किसी भी फैशनेबल या उत्सवधर्मी अनुयायित्व को आईना दिखानेवाली है।
यहीं हमें यह भी जानना होगा कि भ्रष्टाचार सिर्फ मौद्रिक रिश्वत का ही खेल नहीं है, बल्कि यह इस पूँजीवादी व्यवस्था में हमारे किसानों और श्रमिकों के शोषण, यानी उनके द्वारा उत्पादित पूँजी में उनकी उचित हिस्सेदारी का नहीं होना भी है। साथ ही इसका दूसरा छोर हमारी जनता के समग्र सामाजिक बोध और मनुष्य होने से जुड़ा हुआ है। किसी राष्ट्र-राज्य में भ्रष्टाचार के जितने भी रूप हैं, वे कानूनी अभाव या अक्षमता के उतने नहीं, जितने हमारी नैतिक चेतना के कुंद और कलुषित होने के परिणाम हैं। सत्ता-व्यवस्था कोई भी हो- पूँजीवादी या साम्यवादी, राजतंत्र या लोकतंत्र, उच्चतम मानव-मूल्य सब कहीं आवश्यक हैं; अन्यथा न गाँधी का रामराज्य आएगा, न माक्र्स का लोकराज्य।
भारत एक लोकतांत्रिक देश है और गणराज्य बने इसे इकसठ साल हो चुके हैं। इन छह दशकों में तरह-तरह की चुनौतियों से निबटते हुए हमने जो 'तरक्की' की है, देखा जाय तो उसी में हमारी पतनशीलता के बीज छुपे हुए हैं। विकास का पश्चिमी, पूँजीवादी मॉडल अपनाकर हमारे रंग-बिरंगे सत्ताधीशों ने जनता को जिस तरह लूटा है, उसका कोई सानी नहीं। और गत दो दशक से तो उसी पूँजीवादी विश्व द्वारा थोपी गई ग्लोबल अर्थ-व्यवस्था, यानी नव-साम्राज्यवादी लूटतंत्र के हिस्से होकर हमने जैसे सभी कुछ बहुराष्ट्रीय निगमों को सौंप दिया है। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी आज जनता को नसीब नहीं, जबकि सार्वजनिक संसाधानों की लूट में शामिल वर्ग के लिए सबकुछ उपलब्ध है। जाहिरा तौर पर हमारा नेतृत्ववर्ग इस मोर्चे पर भी नेतृत्वकारी है। इसे श्रमिकों की नहीं, सटोरियों की परवाह है। सेंसेक्स ही इसके उत्थान-पतन का पैमाना है। इसके भरे पेटों के सामने स्विस बैंकों की भी कोई हैसियत नहीं, क्योंकि वे इन्हीं के बल पर हैसियतदार हुए हैं। जनता के खून-पसीने और देश की धूल-मिट्टी से सना पैसा इनके नामी-बेनामी खातों में पहुँचकर न जाने किस जादूगरी से स्वर्ण-मुद्राओं में तब्दील हो जाता है! बेशक उस जादूगरी या कानूनी-गैरकानूनी मकड़जाल से हम परिचित न हों, लेकिन जादूगरों को इस देश की जनता जरूर पहचानने लगी है।
ध्यान से देखा जाय तो पहचानने की इस प्रक्रिया के दो परिणाम दिखाई देते हैं। एक, आदिवासी बहुल लाल गलियारे में सशस्त्र नक्सलवादी जनांदोलन और दूसरा, अन्ना हजारे के 'इंडिया अगेंस्ट करप्शन' जैसे जनतांत्रिक आंदोलन। मार्क्सवादी दर्शन में ऐसे आंदोलन को सत्ता-समर्थित 'सेफ्टी वाल्व' कहा गया है, यानी जनता के भीतर सुलगते गुस्से और क्रांतिकारी व्यवस्था-परिवर्तन की आग को ठंडा करना। सच है, सत्ताएँ कई बार ऐसा करती हैं, लेकिन अंतत: दोनों की मिली-भगत सामने आ ही जाती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि अन्ना-आंदोलन के संदर्भ में ऐसी कोई आशंका नजर नहीं आती। हमारी विधायिका और कार्यपालिका के भ्रष्टाचरण को भारत की सर्वोच्च न्यायपालिका ने बार-बार लक्षित किया है। मीडिया भी इस मामले में पीछे नहीं है, बेशक बाजार ही उसकी प्राथमिकता है। इसलिए अगर राजनीतिक और प्रशासनिक क्षेत्र में फैले भ्रष्टाचार या व्यवस्थाजन्य अन्य कदाचारों के विरुद्ध जनता का आक्रोश किसी गैर-सरकारी संगठन के पीछे लामबंद होता है तो जरूरी नहीं कि उसका अंतिम नतीजा नकारात्मक ही हो।
वैसे भी अगर हम 'जन-लोकपाल बिल' के प्रस्तावित प्रावधानों को देखें तो उनमें कुछ जोड़ा ही जा सकता है। मसलन, एन.जी.ओ. और कार्पोरेट क्षेत्र का भ्रष्टाचार और उन पर निगरानी। 'जन-लोकपाल बिल' के प्रारूप में इनको शामिल न किया जाना अन्ना-टीम को कठघरे में खड़ा करता है, और इसकी आलोचना हुई है। उम्मीद है, उसके संशोधित प्रारूप में ये दोनों क्षेत्र अनिवार्य रूप से शामिल होंगे। इनके अतिरिक्त बिल की शेष धाराओं या उसके कार्यकारी स्वरूप में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे संसदीय लोकतंत्र के लिए 'खतरनाक' कहा जाय। खतरनाक तो लोकतंत्र के लिए जन-प्रतिनिधियों से जनता का विश्वास उठ जाना है; और यह विश्वास सब कहीं टूटा है। गाँवों से लेकर शहरों तक सत्ता और पूँजी का मजबूत गँठजोड़ कायम है; और लोग बेबस हैं। अन्ना कहते हैं कि लोकतंत्र में लोक की ही अनदेखी हो रही है। हर जगह उसे किनारे कर दिया गया है। इस संदर्भ में उनकी दो अवधारणाओं पर विचार करें- 'जन-संसद' और 'ग्रामसभा'। हम सभी जानते हैं कि संसद की सर्वोच्चता या संसदीय गरिमा को सांसद ही भंग करते आए हैं-जनता नहीं- चाहे वे किसी भी दल के हों। वामपंथी दलों को अवश्य इससे कुछ अलग रखना होगा। यहाँ 'जन-संसद' का आशय अन्ना-टीम जैसे लोगों से नहीं है, बल्कि इस देश की समूची जनता से है, जो कि अपने मताधिकार से भारतीय संसद को सप्राण करती है। इसलिए संसद को जनता की आवाज के दायरे में होना ही चाहिए। इस पद का यही आशय है। दूसरा पद है- 'ग्रामसभा'। कहा जा सकता है कि हमारे गाँवों में निर्वाचित ग्राम-पंचायतें हैं तो। लेकिन तथ्य यह है कि उनके सदस्य या पंच प्रधान प्रेमचंद के 'पंच परमेश्वर' नहीं रह गए हैं, बल्कि उनका आचरण जूनियर सांसदों और विधायकों जैसा है। पैसा, पावर और जातिवादी राजनीति ने उन्हें पूरी तरह भ्रष्ट कर दिया है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो हमारी ग्राम-पंचायतें राष्ट्रीय और प्रादेशिक राजनीति तथा स्थानीय प्रशासनिक निकायों के स्वार्थों की ही पूर्ति करती हैं, व्यापक जनहित से उन्हें कोई मतलब नहीं। जन-कल्याण के नाम पर आया पैसा वोट बैंक के हिसाब से खर्च हो जाता है। गाँव-देहात के लिए, खेत-खलिहानों के लिए कानूनों का निर्माण वैभवशाली गुंबदों में बैठे वे लोग करते हैं, जो कि जनता द्वारा ही पंचसाला भोग के लिए अधिकृत कर दिए जाते हैं। दूसरे शब्दों में, हमारी जनता अपने ही वोट से अपना सबकुछ हार जाती है। कविता में कहा जाय तो संसदीय जनतंत्र की एक परिभाषा यह भी है-
वोट हमारा हार हमारी जीत-जश्न उनके
द्यूतसभा शकुनी के पासे बिछी बिसातें हैं
जाहिर है, ऐसे जनतंत्र का या तो खात्मा होगा या वह सुधरेगा। इसलिए अन्ना अगर संसद और प्रशासन को जनता के प्रति ज्यादा उत्तरदायी बनाने की बात करते हैं, तो रास्ता यह भी है। असल में तो जन-लोकपाल बिल में शामिल माँगों को सत्ता के जनोन्मुखीकरण की तरह देखा जाना चाहिए। चुनाव-सुधारों को लेकर 'राइट टु रिजेक्ट' और 'राइट टु रिकॉल' जैसी माँगों का भी यही मतलब है। चुनाव-खर्च के लिए अकूत धन जुटाने का मसला भी इसी से जुड़ा हुआ है। हमने देखा ही कि जन-लोकपाल बिल के सिर्फ तीन जरूरी प्रावधानों की अनिवार्यता को लेकर सत्ता पर काबिज चौपड़बाजों ने किस कदर गोटियाँ चलीं। ऐसे में पूरे के पूरे 'जन-लोकपाल बिल' का क्या हश्र होगा, इसकी भी कल्पना की जा सकती है।
अंतत: मैं फिर से शुरुआत की ओर लौटना चाहता हूँ। केदारनाथ अग्रवाल की एक कविता 'घन-गर्जन' की कुछ पंक्तियाँ हैं-
लेखनी गर्दन झुकाए / सिर कटाए
कायरों की गोद में ही झूल जाए
यह न होगा
लेखनी से यह न होगा
फूल बोएँ / शूल काटें / पेट काटें
रोटियाँ रूठी रहें हम धूल चाटें
यह न होगा
लेखनी से यह न होगा
जिंदगी की आन हारें / ज्ञान हारें
आँसुओं से आग के कुंतल सँवारें
यह न होगा
लेखनी से यह न होगा...
इसके बाजवूद विडंबना ही है कि हमारी प्रगतिशील और जनवादी लेखक बिरादरी ने अन्ना-आंदोलन से सुरक्षित दूरी बनाए रखी। संदेह और तर्कशीलता भले ही बुद्धिजीवियों की खास पहचान है, पर अगर यह पहचान जनता में उन्हें ही अपरिचित बनाए रखे, तो किस काम की। इसी के चलते कहा जाता है कि लेखक वाकई किसी दूसरी दुनिया का जीव होता है। दिल्ली में ही अनेकानेक वरिष्ठतम लेखकों की मौजूदगी है; प्रलेस, जलेस, जसम जैसे संगठन भी हैं, पर न कहीं कोई लेखक व्यक्तिगत तौर पर दिखा और न सांगठनिक स्तर पर किसी की राय सामने आई। ऊपर से रोना यह कि हिंदी समाज में लेखक की कोई हैसियत नहीं। अंग्रेजी में अरुंधती राय हैं, जो विरोधद में ही सही, बोलती तो हैं। यहाँ तो चुप्पी ही शायद सबसे ऊँची आवाज है! हाँ, एक आवाज हिंदी में दलित लेखकों की जरूर है, जो अक्सर ही अलग बोलते हैं। उन्हें संसद की उतनी नहीं, जितनी संविधान की चिंता है, जो उनके लिए किसी बाइबिल से कम नहीं, जबकि उसी ने उसमें संशोधान का अधिकार भी संसद को दिया है। बाबा साहेब अंबेदकर ने संविधान में यह कहीं नहीं लिखा कि जनता के वोट से चुनकर संसद में आए सांसद जनता की ही अनदेखी करें। दरअसल संविधान, संसद और जनता परस्पर पूरक की तरह हैं, न कि प्रतियोगी या प्रतिद्वंद्वी। इसके बावजूद संसदीय जनतंत्र, बल्कि संविधान को भी नकारनेवाली ताकतें हमारे यहाँ सक्रिय हैं, और उनके कुछ वाजिब तर्क हैं; और अगर आज वे हमारी जनता को सहज स्वीकार्य नहीं हैं, तो जरूरी नहीं कि कल भी स्वीकार्य न हों।
अन्ना हजारे गाँधीवादी हैं। चिंतक नहीं, सत्याग्रही। बल्कि गाँधी जैसे सत्याग्रही और अहिंसावादी भी नहीं। ठेठ किसानी अंदाज में बोलते हैं। मुहावरेदार बोली-बानी में - माल खाए मदारी और नाच करे बंदर! या फिर - भगवान को मानता हूँ, मंदिर को नहीं! अथवा- कुछ लोग इसलिए जी रहे हैं कि क्या-क्या खाऊँ और कुछ इसलिए कि क्या खाऊँ! जनता इस भाषा को खूब समझती है। शोषणकारी सिद्धांत और प्रक्रिया को नहीं समझती। तालियाँ बजाती है। नारे लगाती है। और संसद में बैठे मदारी बगलें झाँकते हैं। यह एक दृश्य है, जिसे किसी फिल्मांकन की जरूरत नहीं। ऐसे में हम वहाँ नहीं होंगे तो कोई और होगा। भाजपा, आर.एस.एस. वगैरह। अन्ना की नहीं, सोनिया की सत्ता पलटने आएँगे वे -कोढ़ में खाज की तरह। दूसरी ओर हम हैं, जो मरहम होने का दावा करते हैं, लेकिन जनता के घावों को देखना तक नहीं चाहते। माना कि अन्ना के साथ गाँव-देहात की जनता नहीं थी, लेकिन महानगरों में जो 'जनता' है, उसमें क्या हमारे गाँव शामिल नहीं हैं? फिर मध्यवर्ग में भी बढ़ोत्तरी हुई है। उसमें भी किसानों और मजदूरों की कुछ हिस्सेदारी है। गाँव के गाँव उजड़कर शहरों में चले आ रहे हैं। लेकिन उनमें हमारी कोई दिलचस्पी नहीं। पढ़ा-लिखा शहरी मध्यवर्ग ही हमारे लिए मध्यवर्ग है, जबकि उसकी उच्च-मधयवर्गीय-या पूँजी-केंद्रित महत्वाकांक्षाओं को हम लगातार अनदेखा करते हैं, क्योंकि वही हमारा भी आईना है। सच तो यह है कि मार्क्सवादी कहलाने से ज्यादा डर हमें गाँधीवादी कहलाने से लगता है, पर सच यह भी है कि मार्क्स हमारे जीवन-व्यवहार की नैतिक और सामाजिक परिधि में आज भी शामिल नहीं हैं; अन्यथा क्या वे हमें हमारी जनता के बीच जाने से रोक देते? अगर वह प्रतिगामियों के फेर में है तो भी, और नहीं है तो भी। आखिर भटकावों में सही दिशा देने की जिम्मेदारी भी हमारी ही होनी चाहिए; और यह जनता से दूर रहकर नहीं हो सकता।
संदर्भ बेशक श्रम-संबद्धता का है, लेकिन 1975 में एक साक्षात्कार के दौरान रूसी-हिंदी विद्वान डॉ. पी. बरान्निकोव ने मुझसे कहा था- ''मुझे लगता है, आपके साहित्यकार श्रेष्ठता-बोध के शिकार हैं। समाज से ऊपर हैं जैसे, समाज में नहीं हैं। फिर जो आपका लोकतंत्र है, उसमें पूँजी का महत्व है, श्रम का नहीं। इससे जो कल्चर बन रही है, वह अलगाव की है, एकता की नहीं है। तो इसका प्रभाव लेखकों पर भी है। वे जनता से दूर जा रहे हैं। प्रेमचंद जैसे जानते थे अपने लोगों को, वे नहीं जानते। या जानने से बचते हैं कि कहीं बड़े लोगों का तबका उन्हें छोटा न समझने लगे!''-कहा उन्होंने', पृ.-167
(‘अलाव’ सितम्बर-अक्टूबर, २०११ से साभार)
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हवा के झोंकों में
अशोक आंद्रे
रात्री के दूसरे पहर में
स्याह आकाश की ओर देखते हुए
पेड़ों पर लटके पत्ते हवा के झोंकों पर
पता नहीं किस राग के सुरों को छेड़ते हुए
आकाश की गहराई को नापने लगते हैं
उनके करीब एक देह की चीख
गहन सन्नाटे को दो भागों में चीर देती है
और वह अपने सपने लिए टेड़े-मेड़े रास्तों पर
अपनी व्याकुलता को छिपाए
विस्फारित आँखों से घूरती है कुछ
फिर अपने चारों और फैले खालीपन में
पिरोती है कुछ शब्द
जिन्हें सुबह के सपनों में लपेटकर
घर के बाहर ,
जंगल में खड़े पेड़ पर
टांग देती है हवा, पानी और धूप के लिए
तभी ठीक पास बहते पानी की सतह पर
कोई आकृति उसके जिस्म में पैदा करती है सिहरन
तभी अपने को समेटते हुए एक ओर खड़ी होकर
ढूँढने लगती है कोई सहारा
मानो इस तरह वह अपनी देह के साथ
अपनी कोख को आहत होने से बचाने के लिए
अपने ही पैरों से कुछ रेखाओं को खींच कर
किसी अज्ञात का सहारा ले रही हो
तभी घबराहट में उसके बाल हवा में लहरा जाते हैं
जिन्हें बांधने का असफल प्रयास किया था उसने
जिन्हें बिखरा,उसके चेहरे को
ढक दिया था किसीअन्य देह ने
ताकि उसकी कोख को
जमीन छूने से पहले झटक सके अपने तईं.
उधर पानी की शांत लहरें
उसके बुझे चेहरे पर सवालों की झरी लगा देती हैं
जो फफोलों में बदल कर लगते हैं भभकने.
अनुत्तरित जंगल खामोश दर्शक की तरह
अपनी ही सांसों में धसक जाता है
तभी मूक हंसी लिए ओझल हो जाती है वह देह कहीं दूर
छोड़ जाता है उसे उसके ही अकेलेपन के
घने कोहरे के मध्य
शायद यही हो सृष्टी के अनगढ़ स्वरूप की कर्म स्थली
नया आकार देने के लिए उसको
शायद इसीलिए जंगल ने भी
हवा के झोंकों में खो जाना ज्यादा सही समझा
शायद इसीलिए वह फिर नये सिरे से
जमीन को कुरेदने लगी है
अपने ही पाँव के अंगूठे से
-0-0-0-0-0-0-
दो
पानी का प्रवाह
जो पूर्ण है
उसे व्यक्त करना
अथवा उसकी ओट से
विध्वंस की भावनात्मक सोच का
विस्तार करना
किस दिशा की ओर इंगित करता है-
कहीं यह सत्य का विखंडन करना तो नहीं?
उसके प्रवाह को रोकना सत्य हो सकता है क्या ?
सत्य तो परावर है
जिस तरह पहाड़ों से नीचे की ओर
आता पानी
भविष्य को निर्धारित कर जाता है
जैसे ठीक बरसात के बाद
सूखी जमीन पर फैली घास को छू कर
पानी का प्रवाह
विस्तार कर जाता है ईश्वरीय सत्ता का.
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जन्म-०३-०३-५१ (कानपुर) उ.प.
अब तक आधा दर्जन पुस्तकें प्रकाशित.
सम्मान -१, हिंदी सेवी सहस्त्राब्दी सम्मान (२००१)
२, हिंदी सेवी सम्मान (जैमिनी अकादमी) , हरियाणा
३, आचार्य प्रफुल राय स्मारक सम्मान, (कोलकता )
४, नेशनल अकेडमी अवार्ड २०१० फॉर आर्ट एंड लिटरेचर ( एकेडमी ऑफ़ बंगाली पोएट्री , कोलकता.
विशेष- "साहित्य दिशा" साहित्य द्वैमासिक पत्रिका तथा न्यूज़ ब्यूरो ऑफ़ इंडिया में मानद साहित्य सलाहकार सम्पादक के रूप में कार्य किया.
लगभग सभी राष्ट्रिय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित हो चुकीं हैं
1 टिप्पणी:
भाई चन्देल, इस बार 'हम और हमार समय' के अन्तर्गत भाई रामकुमार कृषक का 'अन्ना से अ-लगाव' बहुत ही जानदार और तथ्यपरक आलेख देने के तुम्हारा बहुत बहुत धन्यवाद। कृषक जी का यह आलेख अन्ना आंदोलन के सन्दर्भ में बहुत सी महत्वपूर्ण बातों की ओर ध्यान खींचता है और सोचने के लिए विवश करता है। भाई अशोक आन्द्रे की कविताएं भी अच्छी लगीं।
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