दिलशाद गार्डन में २४ जून की सुबह अरूण प्रकाश को श्रृद्धांजलि देते साहित्यकार
चित्र में बाएँ से—मदन कश्यप, कमलेश ओझा, रंजीत वर्मा,हरिनारयण, विश्वनाथ त्रिपाठी, भारतेन्दु
मिश्र, रमेश आज़ाद, सुश्री काजल पाण्डेय, श्रीमती मीनू मिश्र, जय कृष्ण सिंह,अशोक गुजराती और बलराम अग्रवाल।
जीवन से भरपूर
थे अरुण प्रकाश
डॉ. विश्वनाथ
त्रिपाठी
अरुण प्रकश जिजीविषा के प्रतीक थे. उनके न रहने से एक बेहद संभावनाशील
लेखक छिन गया है. अरुण प्रकाश की खास बात यह थी कि वह वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न थे.
उनमें गहरी राजनीतिक और सामाजिक चेतना थी. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हिन्दी
साहित्य में ऎसी गहरी सामाजिक चेतना वाले लेखक बहुत कम हुए हैं. वह लंबे समय से असाध्य
बीमारी से जूझ रहे थे, लेकिन इस दौरान भी उनके साथ मैंने कई लंबी यात्राएं की थीं.
बीमारी के दौरान अक्सर ऎसा होता था कि वह एक दिन घर में बिताते थे और तीन दिन अस्पताल
में. ऎसे में भी वह जीवन की ऊष्मा से लबरेज थे. दरअसल, उन्हें जीवन से प्रेम था. बेशक
बीमारी के दिनों में संघर्ष काफी गहरा गए थे, लेकिन परिवार ने उन्हें संभाले रखा था.
यह संतोष की बात है.
पंजाबी के लेखक हैं डॉ. मोहन सिंह, जिन्होंने सबसे पहले मुझे अरुण प्रकाश
के बारे में बताया था. उन्होंने मुझसे कहा था कि मैं ’भइया एक्सप्रेस’ कहानी पढ़ूं.
मैंने कहानी पढ़ी और यह कहना चाहूंगा कि पंजाब में आतंकवाद के दिनों में वहां बिहारी
मजदूरों की हालत पर इसके बराबर की कोई और कहानी याद नहीं पड़ती. यह असाधारण कहानी है.
इसके बाद उनकी एक और कहानी ’जलप्रांतर’ का नाम मैं लेना चाहूंगा. बिहार में बाढ़ के
संकट पर यह अद्भुत कहानी है. बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा तो अपना कहर बरपाती ही है, ऎसी त्रासदियों के समय
इनसान के कितने रूप सामने दिखते हैं –अच्छे या बुरे, कहानी में बहुत गहराई से दिखाया
गया है. ऎसे समय भी इनसान अपने अंधविश्वास नहीं छोड़ता और अपनी जिद में बर्बाद हो जाता
है, या उसे प्राण भी गंवाने पड़ते हैं. यानी रूढ़ियों से मुक्त न होने की उसकी हठ उसे
कहीं का नहीं छोड़ती. कहानी में प्राकृतिक आपदा के समय सर्वस्व दिशाहीनता को दर्शाया
गया है और यह बहुत गहरे तक असर करती है.
अरुण प्रकाश की कहानियों में
निम्नवर्ग प्रमुखता से सामने आता है. यह एक वर्ग है जिसे कहानी से दूर किया जा रहा
है. अरुण प्रकाश के पिता समाजवादी नेता रह चुके थे, लेकिन उन्होंने जीवन में बहुत संघर्ष
किया था. शायद यही कारण थे कि निम्नवर्ग के प्रति उनमें गहरी संवेदना थी और वह उसके
दुख-दर्दों को अपनी कहानियों में अक्सर बयान करते रहते थे. उनकी एक पुस्तक आयी थी
’गद्य की पहचान’. यह आलोचनात्मक कार्य है, लेकिन बिल्कुल एक रोचक कहानी की तरह इसे
पढ़ा जा सकता है.
उनके व्यक्तित्व के कई और रूप भी थे. एक संपादक के तौर पर भी जब वह
’समकालीन भारतीय साहित्य’ से जुड़े थे, तब उन्होंने कथा चयन के चुनाव में अपनी असाधारण
पहचान के कई प्रमाण दिए थे. उन्हीं के संपादन में तेलुगू लेखक केशव रेड्डी की कहानी
’भूदेवता’ का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हुआ था. अपने संपादन में उन्होंने समकालीन भारतीय
साहित्य में कई प्रादेशिक कहानियों के अनुवाद प्रकाशित किए. इसके अलावा, उन्होंने
’युग’ आदि टी.वी सीरियलों की पटकथाएं भी लिखीं. इस तरह के लेखन में भी वह बहुत सिद्धहस्त
थे.
मुझे अक्सर वह नए कहानीकारों की कहानियों के बारे में बताते थे. एक
दिन वह मेरे पास आए और मनोज रूपड़ा की कहानी ’साज़-नासाज’ की तारीफ करने लगे. फिर एक
बार रमाकांत श्रीवास्तव की कहानी ’चैंपियन’ की खूबियों पर चर्चा करने लगे थे. मैंने
वे कहानियां पढ़ीं और उनसे प्रभावित हुआ. दरअसल, यह सबसे बड़ी पहचान होती है एक सच्चे
रचनाकार की कि वह किसी भी नए या पुराने लेखक की कहानी की खुले मन से तारीफ करे---यदि
रचना उस लायक है तो—और यह खूबी अरुण प्रकाश के व्यक्तित्व का अंग थी. कहना न होगा कि
यह बहुत दुर्लभ गुण है जो किसी-किसी ही व्यक्ति में होता है. आज जब किसी भी रचना की
निंदा और स्तुति भी आदान-प्रदान का विषय बन गई है तो ऎसे हालात में साहित्य अरुण प्रकाश
जैसे लोगों से ही जिंदा है.
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