सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

वातायन-नवंबर,२०१३


हम और हमारा समय

पिछले बीस वर्षों से स्त्री विमर्श चर्चा के केन्द्र में है. बार-बार एक प्रश्न मन में पैदा होता है कि हिन्दी साहित्य में स्त्री-विमर्श कब नहीं था!  मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती,मृदुला गर्ग, सुधा अरोड़ा आदि लेखिकाओं की रचनाओं में क्या स्त्री-विमर्श अनुपस्थित था? किन कारणों से प्रेरित होकर अकस्मात इसकी आवश्यकता अनुभव की गई? जिन विमर्शकारों ने इसे स्त्री लेखन से जोड़कर विमर्श का विषय बनाया उनके पास इसे लेकर कोई ठोस वैचारिक आधार था? शायद नहीं. यही कारण है कि आज यह भयानक भटकाव का शिकार होकर रह गया है. स्त्री विमर्श को जिस प्रकार परिभाषित किया गया उसने साहित्य की दिशा और दशा ही बदल दी—उसे दिग्भ्रम के महाचक्रवात में डूबने के लिए छोड़ दिया. अब तो पत्रिकाएं पुरुष विमर्श-विमर्श विशेषांक निकालने लगी हैं और ऎसे कहानी संकलन भी आने लगे हैं. यह भटकाव का चरम नहीं है उसकी शुरुआत मात्र है. यह शुरुआत गंभीर विचार का विषय है. वरिष्ठ कथाकार सुधा अरोड़ा ने अपने लंबे आलेख --''विमर्श से परे : स्त्री और पुरुष '' में गंभीरतापूर्वक इस विषय का विश्लेषण और आकलन किया है.! मेरे इस स्थायी स्तम्भ में इस बार  प्रस्तुत है २७.१०.२०१३ के रविवारीय जनसत्ता में प्रकाशित सुधा अरोड़ा जी के आलेख का संक्षिप्तांश.
  -0-0-0-
सुधा जी के उक्त आलेख के साथ ही आप पढ़ें यू.के.निवासी वरिष्ठ लेखिका उषाराजे सक्सेना की कहानी, उनकी रचना प्रक्रिया और उनके साथ स्त्री-विमर्श केन्द्रित कल्पना पंत की बातचीत.   
-0-0-0-
-0
आलेख
साहित्य के बाज़ार में
पुरुष विमर्श का नया झुनझुना

सुधा अरोड़ा

वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन की जून 2013 की रिपोर्ट मेरे सामने है- विश्व की हर तीन में से एक स्त्री घरेलू हिंसा की शिकार है, इसमें एशिया और मिडल ईस्ट देशों में तादाद ज़्यादा है। डब्ल्यू .एच.ओ. के स्त्री स्वास्थ्य विभाग की प्रमुख फ्लेविया बुस्त्रेओ ने कहा- ये आंकड़े चैंकाने वाले हैं और इससे भी ज्यादा चैंकाने वाली बात है कि यह किसी एक देश में नहीं , पूरे विश्व का फिनॉमिना है।

एक ओर स्त्री पर हिंसा के आंकड़े लगातार बढ़ते जा रहे हैं, दूसरी ओर साहित्य के बाज़ार में पुरुष विमर्श का नया झुनझुना विमर्शकारों को लुभा रहा है। पुरुष विमर्श और स्त्री विमर्श- दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। स्त्री विमर्श भी दरअसल पुरुष की मानसिकता, व्यवहार और सत्ता का आकलन ही रहा है। हमारी सामाजिक संरचना पितृसत्तात्मक रही है जिसमें सारा अधिकार पुरुषों के हाथ में होता है । यह अधिकार बोध उन्हें शोशण और प्रताड़ना का हक दे देता  है। ज़ाहिर है, वे किसी भी रूप में हुक्मउदूली बर्दार्श्त नहीं कर सकते चाहे वह किसी स्त्री का इनकार और प्रतिरोध हो या मातहत का।

सिमोन द बुउआ की विख्यात पंक्ति है-  ‘one is not born a woman, but becomes one’ जिस तरह लड़की पैदा नहीं होती, उसे बनाया जाता है, वैसे ही लड़का भी पैदा नहीं होता, उसे बचपन से ही ठोक पीट कर लड़का बनाया जाता है । वह रोये तो उसके आंसू छीन लिये जाते हैं - क्या लड़कियों की तरह रोता है ! ( यानी रोना गले तक आये तो भी आंसू मत बहा , क्योंकि आंसुओं पर लड़कियों की बपौती है ) उससे कोमल, नरम, भीगे रंग छीन लिये जाते हैं - तू क्या लड़की है जो पीला गुलाबी रंग पहनेगा ? उसके लिये गाढ़े रंग हैं - काला , भूरा , गहरा नीला रंग ही उस पर फबेगा, आसमानी या गुलाबी में तो वह लड़की दिखेगा ! उसे सॉफ्ट टॉयज़ नहीं दिये जाते - तू क्या लड़की है, जो गुड़िया से खेलेगा ! उसके हाथ में पज़ल्स , ब्लॉक्स , बंदूक और मशीनी औजार थमा दिये जाते हैं । कुल जमा बात यह कि एक बच्चे को शुरु से ही कठोर, रुष्क-शुष्क, वर्चस्ववादी हिंसक होने का रोल थमा दिया जाता है ।

माना कि प्रकृति ने स्त्री और पुरुष की जैविक संरचना में आधारभूत अंतर रखा है पर प्रकृति ने जिस अंतर को एक दूसरे के पूरक के रूप में गढ़ा है, हम उसे ठोक-पीट कर दो परस्पर प्रतिद्वंद्वी या विपरीत खेमे में बदल देते हैं । सच यह है कि पुरुष स्वयं भी उसी सामाजिक व्यवस्था , परंपरागत सोच और रूढिग्रस्त संस्कारों का शिकार (विक्टिम) है !

यह तय है कि विमर्श का एक सिरा हमेशा पीड़ित और दूसरा सिरा पीड़ा की ओर हुआ करता है और पीड़ित तथा पीड़ा के बीच निजी किस्म का सवाल कभी नहीं होता। दो मित्र एक दूसरे को धोखा दें तो वह विमर्श नहीं ,मानवीय गिरावट का एक पक्ष ही माना जाएगा। सभी दोस्त सभी दोस्तों को धोखा नहीं देते, इसलिए यह विमर्श का कारण नहीं हो  सकता। लेकिन ज़्यादातर पुरुष स्त्रियों को मनसा-वाचा-कर्मणा अपने कब्जे में रखते हैं और स्त्री का उनके नियंत्रण से बाहर होना या अपनी पहचान बनाना उन्हें गवारा नहीं होता, और वे हिंसा के हर संभव तरीके को अपनाते हैं , यह विमर्श का हिस्सा हो सकता है। स्त्रियाँ क्यों कब्जे में रही आई हैं, क्यों नियंत्रण में रहना स्वीकार करती हैं , क्यों कुछ स्त्रियां पुरूषवादी चोला पहनकर अपनी ही उत्पीड़ित जमात को ध्वस्त करने लगती हैं, यह विमर्श का कारण हो सकता है ।

पुरुष विमर्श  (स्त्री विमर्श से समाज में बहुत बदलाव नहीं आया तो पुरुष विमर्श के बहाने ही सही ) पर बात इसलिये तो की जा सकती है कि किसी भी तरह स्थितियां बदलें पर इसलिये नहीं कि दो प्रतिशत पुरुष अपनी पत्नियों या प्रेमिकाओं द्वारा वहां सताये जाते रहे हैं , जहां उनकी सत्ता कमज़ोर है और वे उनके हाथों का खिलौना बने प्रताड़ित हो रहे हैं यह दो प्रतिशत एक पूरे विमर्श को नये सिरे से गढ़ने का आधार नहीं बन सकता ! ज़रूरी यह है कि सदियों से जो रवायतें चली रही हैं और पुरुष जिनका अनिवार्य हिस्सा रहा है , उस पर वह अंतर्मंथन करे !

आज तक किसी ग्रंथ में किसी स्त्री की अतृप्ति का कोई सवाल कभी नहीं उठा, बल्कि उसे नियंत्रित करने के उपाय ही सामने आए। ग्रन्थों में पुरुषों की आकांक्षा और व्यथा का जितना विशद वर्णन मिलता है, स्त्री की व्यथा या आकांक्षा को बड़ी मेहनत से ढूँढना पड़ेगा । ऐसा इसलिए है क्योंकि स्त्री को ही नियंत्रित होना है, पुरूष को नहीं । स्त्री-विमर्श , स्त्री की ऐतिहासिक रूप से चली आ रही राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक पराधीनता से पैदा होता है । इसके बरक्स पुरुष-विमर्श के भौतिक और दार्शनिक आधार क्या हैं ?

अक्टूबर सन् 2005 में घरेलू-हिंसा निवारण अधिनियम लागू हुआ लेकिन अनवरत हिंसा का शिकार होने के बावजूद स्त्रियाँ इसका उपयोग नहीं करतीं क्योंकि इससे घर टूटता है। इतने बड़े देश में कुछ महिलाओं ने इसका गलत फायदा भी उठाया होगा लेकिन क्या इसी आधार पर पुरुष-विमर्श चला देना चाहिए ?

दरअसल पुरुष ने दैहिक हिंसा से कभी परहेज़ किया ही नहीं और इसे एक तरह से उसके अधिकार की फेहरिस्त में डाल दिया गया- वह पुरुष प्रेम भी तो करता है पत्नी से, तो उसकी गलती पर कभी उसका हाथ उठ जाता है तो कौन सा कहर टूट पड़ा। औरतें पढ़ लिख गईं, पति भी संभ्रांत-शालीन थे तो मारपीट अशिक्षित होने की निशानी मान ली गई और पुरुषों ने पहचान लिया कि स्त्री का भावनात्मक पक्ष कमज़ोर है, वह वल्नरेबल है तो उसके भावात्मक पक्ष को हलाल करो । एक से एक प्रगतिशील, नामी, यशस्वी कलाकरों और साहित्यकारों के खाते में ऐसी भावात्मक प्रताड़ना  (इमोशनल अब्यूज़ ) अघोशित रूप से दर्ज है। असंख्य कॉमरेड पत्नियों की शिकायत है कि उनके कॉमरेड पति , पति का ओहदा पाने के बाद, अपने ही सिद्धांत और स्थापनाओं से परे, सिर्फ पति होकर रह गये, कॉमरेड (यानी सहयोगी) नहीं रहे ।

जब औरतें काम के लिये घर की छोटी स्पेस से निकलकर बाहरी कार्यक्षेत्र में दखल देने लगीं तो बिल्कुल उसी तरह जैसे पुरुषों ने स्त्री की भावनात्मक कमज़ोरी की नस पहचान ली थी, स्त्रियों ने अपनी महत्वाकांक्षाओं के चलते पुरुषों की कमज़ोर नस भांप ली- उसकी यौन कामनाएं । देह मुक्ति के नाम पर अपनी देह पर अपना हक और देह के आज़ाद होने के सारे फलसफ़े हमारे साहित्य के विचारकों ने उन्हें थमा दिये। अब स्त्रियों की एक जमात नैतिकता को तिलांजलि देकर और मूल्यों को ताक पर रखकर वही करने लगी जो पुरुष आज तक करता आया था। भावना को देह से बनवास दिया और पूरी तरह देह बनकर रह गईं। पुरुषों को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल किया और मंजिल की ओर कदम बढ़ाये । संबंध भावना-संवेदना विहीन होकर रह गए। इस जमात के खिलाफ पुरुषों को खड़ा होना चाहिये था पर वे इस जमात को सिर माथे बिठा रहे हैं।

पहले पुरुषों ने अपनी आज़ादी का भरपूर गलत फायदा उठाया। अब औरतें भी यहीं कर रही हैं । लड़कियों को मिली आज़ादी इतनी औचक और आकस्मिक है कि वे उसे संभाल नहीं पा रही हैं । इसे अपनी तरह से साधती एक अलग किस्म की पुरुषवादी जमात भी खड़ी हो रही है, जिसका फलना-फूलना  पुरुषों के हक में कतई नहीं है क्योंकि पुरुष को अपना सामंजस्य बिठाने के लिये आखिर कोमलता और संवेदना की ही ज़रूरत होगी, स्त्री में जगते एक पुरुष की नहीं । पुरुष तो स्त्री कभी बन नहीं सकता पर स्त्री का पुरुष बन जाना और ज्यादा खतरनाक है ।

इसमें संदेह नहीं कि आज पूरे विश्व में एक भ्रम , असंतुलन और दिशाहीनता का माहौल पैदा हो गया है । स्त्रियां अपनी देह पर सिर्फ पोशाक ही नहीं , अपने स्त्रियोचित गुण त्याग कर , मर्दाना अंदाज़ में बेखौफ़ गाली गलौज की भाषा इस्तेमाल कर अपने को पुरुषों के पेडेस्टल पर खड़ा करने में अपने जीवन की सार्थकता समझ रही हैं और उन्हें लगता है कि वे इसी तरह इस सामंती वर्ग को ‘सबक’ सिखा सकती हैं । स्त्रियों के आक्रामक बयान और निरंकुश शब्दावली स्त्री भाषा के मानक को धूल चटा रही है ।

1993 में एक पत्रिका ‘पुरुष उवाच‘ नाम से शुरु की गई थी जो वार्षिक पत्रिका ‘स्त्री उवाच’ की तर्ज़ पर थी । पुरुष विमर्श या पुरुष अध्ययन को विकसित करने की ज़रूरत है पर पूरी तरह जाति , वर्ग , वर्ण विभेद के अन्र्तसंबंधों की जानकारी रखने वाले उदार और प्रगतिवादी नज़रिये से । जैसे स्त्रियां एक समूह में बैठ कर ‘स्पीक आउट’ या ‘स्पीक अलाउड’ सेशन्स में अपने पर होती हिंसा, प्रताड़ना, शासन और विभेद की बातें करती हैं, उसी तरह पुरुष अपने शासन, दमन, बलात्कार और हिंसा के पीछे छिपे मनोविज्ञान की पड़ताल करें - परिवार से लेकर समाज और देश में हो रही हिंसा के कारण तलाशने की कोशिश करें ।

अफसोस इस बात का है कि आज ऐसी जमात पनप रही है जिसके लिये नैतिकता और एकनिष्ठता कोई मूल्य नहीं रही । इन मूल्यों के छूटते ही, संकोच और संवेदना दोनों तिरोहित हो जाते हैं । इस जमात के सामने कोई अवरोध और रुकावटें (इनहिबिशंस) नहीं हैं। प्रेम अब अपने साथ आहत भावनाओं का पैकेज लेकर नहीं आता क्योंकि वह ‘प्रेम’ की पुरानी परिभाषा से बाहर आ चुका है। अब वह प्रेम कम और अर्थशास्त्र का नफ़ा-नुकसान वाला बहीखाता ज्यादा बन गया है।

स्त्री विमर्श का हश्र हम देख ही रहे हैं। बोल्डनेस के नाम पर पत्रिकाओं के पन्नों पर देह विमर्श परोसा जा रहा है। यह एक अलग किस्म का एंटी क्लाइमेक्स है। एक ओर सदियों से चली आ रही दासता झेलने को अभिशप्त स्त्री , दूसरी ओर अपनी देह को दांव पर लगाते हुए पुरुष की ही शतरंजी बिसात पर उसके ही मोहरों और उसकी ही चालों से उसे नेस्तनाबूद करती जमात। एक गुलामी को तोड़ने के लिये सिर्फ जगह बदल लेना और गुलाम का शोषक की भूमिका में उतर आना कोई समाधान नहीं हो सकता।

नैतिक मूल्यों को थाती की तरह बचाकर रखने वाली कुछेक ‘सिरफिरी’ स्त्रियों को शुद्धतावादी ठहराकर, उनपर ‘मॉरल पोलिसिंग’ का लेबल लगाकर, उनके जनाज़े को कंधा देने के लिये, ये पुरुष और स्त्रियां एक साथ ताल से ताल मिलाकर चल रहे हैं। साहित्य के संसार में धकमपेल से अपनी जगह बनाती यह नियो रिच क्लास, जो ‘‘खाओ पियो मौज करो‘‘ वाले फलसफे में यकीन करती है और जिसका देश में व्याप्त भ्रश्टाचार और समाज की विसंगतियों से कोई वास्ता नहीं है, जिसका एकमात्र सरोकार स्त्री में नयी किस्म की पनपती यौनिक आज़ादी है, अगर आज आपके सामने बढ़ती चली जा रही है तो इन्हें आप कैसे ध्वस्त करेगे! इनके पास तो खोने के लिये भी कुछ नहीं है !

-0-0-0-



कहानी

चर्चित कहानीकार उषा राजे सक्सेना (ब्रिटेन) अपने देश की सभ्यता-संस्कृति एवं भाषा के प्रति गहरे लगाव की अभिव्यक्ति के साथ भारतीय प्रवासी जीवन तथा ब्रिटेन के मूल निवासी गोरे और अफ्रिकन मूल के निवासियों के बीच अपने साक्षात अनुभवों को प्रतिबिंबित करती हुई हमारे अपने यथार्थबोध तथा सांस्कृतिक दृष्टि के प्रिज़्म से वहाँ की सामाजिक एवं मानवीय वास्तविकताओं से परिचय कराती हैं।    

मेरा अपराध!


उषा राजे सक्सेना


उन दिनों मेरे पिता पोर्टस्मथ में एक जहाजी बेड़े पर काम करते थे।उनकी अनुपस्थिति और अकेलेपन को न झेल पाने के कारण मेरी कमउम्र माँ को पीने की लत की पड़ गई ।

पिता हर तीन महीने बाद घर आते। जब वे घर होते तो वे ममी से एक पल की भी जुदाई नहीं सहन पाते। उनके साथ ममी या तो बेडरूम में होती या पब में। ममी की हिदायत थी कि जबतक डैडी घर में हों हम बच्चे कम से कम समय उनके सामने आएं। मुझे तो उनके सामने जाने की सख़्त मनाही थी। मैं अपना बिस्तर उन दिनों दु-छत्ती (एटिक) में लगा लेती। स्कूल से आते ही मैं रसोई के वर्क-टाप पर रखे सैंडविच का पैकेट और पानी की बोतल उठा चूहे की तरह ख़ामोश, लटकने वाली सीढियाँ चढ़ एटिक में पहुँच, ट्रैप-डोर बंद कर लेती। दु-छत्ती में रहना मुझे कोई बुरा नहीं लगता था। वह मेरे अकेलेपन को रास आता। उन दिनों मैं वहाँ अपनी एक अलग दुनिया बसा लेती। एटिक में दुनियाँ भर के अजूबे और गैर-ज़रूरी पुराने सामान ठुसे हुए थे। इन सामानों से खेलना, और उन्हें इधर-उधर सजा-सँवार कर रखना मुझे अच्छा लगता था। अक्सर मैं वहाँ रखे लाल रंग के बीन-बैग पर बैठ खिड़की से सड़क पर आते-जाते वाहनों या पड़ोसियों के पिछवाड़े वाले बगीचे में लगे पेड़-पौधों, गिलहरियों और  कुत्ते-बिल्लियों को इधर-उधर दौड़ते-भागते, चिड़ियों और ख़रगोशों का पीछा करते देखती या फिर पुराने-ज़माने के बने गुदगुदे सेश़लॉग पर स्लीपिंग बैग बिछा उसमें घुस सो जाती।

सुबह, तीन साल के छोटे रॉनी को सोता छोड़ हम तीनों भाई-बहन ममी-डैडी के उठने से पहले दूध के साथ कॉर्न-फ्लेक्स या वीटाबिक्स जैसी कोई चीज़ खा, स्कूल भाग लेते। स्कूल में दोपहर का गर्म खाना हमें निःशुल्क मिलता क्यों कि हम लोग कम वेतन वाले परिवार से आते थे। मैं यदि कभी गलती से डैडी के सामने पड़ जाती तो वे बिना मेरा कान उमेठे और जूते से ठोकर मारे नहीं छोड़ते। जाने क्यों उनको मुझसे बेहद चिढ़ थी? मुझे सताने के लिए, वे मेरे सामने फियोना, शार्लीन और रॉनी को चॉकलेट और लॉली देते, उन्हें गोद में बैठाते और मुझे ठोकर मारते हुए तमाचा जड़ते, या पैरों से रौंद कर लॉली या चॉकलेट मेरे सामने फेंक देते। मेरे भाई-बहन मुझे पिटते देख, सहम जाते और कोई मेरी मदद को नहीं आता। मैं उपेक्षिता सदा ख़ामोश और असमंजस में रहती कि मेरा अपराध क्या है? क्यों डैडी मुझसे इस बेदर्दी से पेश आते है? मेरा नन्हा सा मन घायल हो अंदर-अंदर बिलखने लगता।

ममी को घर-गृहथी में कोई रुचि नहीं थी। हमारा घर हमेशा अस्त-व्यस्त रहता। अक्सर हमारी बूढ़ी होती नाना (नानी) बड़-बड़ करती हुई आती और हम बच्चों के साथ घर को ठीक-ठाक कर हमें नहलातींधुलातीं और पुराने बचे हुए डबलरोटी को दूध में भिगो कर स्वादिष्ट ब्रेड-बटर पुडिंग या हॉट-पॉट (उबले हुए दालों और सब्ज़ियों की धीमें आँच पर पकी ढीली खिचड़ी) खिलातीं। ममा नाना की इकलौती संतान थी। नाना, ममा के लापरवाहियों को नज़र अंदाज़ करती हुई अक्सर मुझे ही उनकी मुसीबतों का जड़, कह अपराधबोध से भर देतीं। यद्यपि इसके बावजूद वो हम सवको अपना प्यार समान रूप से बाँटती। नाना के इस कथन का अर्थ मैं बहुत बाद में समझ पाई।

डैडी छुट्टियाँ ख़तम होने से पहले खाने-पीने का सामान लार्डर में रखने के साथ, ममी के सारे कर्ज़े भी चुका जाते। ममी स्वभाव से अल्हड़ और अव्यवस्थित थीं। डैडी के अनुपस्थिति में वे अक्सर हमें घर में अकेले छोड़ कर दोस्तों के साथ पब चली जाती थीं। कभी-कभी रात को भी वह घर नहीं आती थी। हमारा घर संदेहों से घिरा हुआ था। पास-पड़ोस के लोग हमारे परिवार के बारे में तरह तरह की बातें करते थे। मैं बचपन से ही दुर-दुर की आदी हो चली थी। सरकारी सोशल वर्कर्स हमारे घर का चक्कर जब-तब लगाते रहते। हमें चुप और सोशल कस्टडी में हर तरह से रहने की आदत-सी पड़ चुकी थी। अक्सर ममी लड़-झगड़ और रो-धोकर, कसमें खाती हमें वापस घर ले आती। उस समय तक मुझे नहीं मालूम था कि ममी हमें चिड्रेन्स अलाउँस और सोशल-बेनेफिट के लिए घर लाती थी। हम बच्चे ममी के लिए शतरंज के मोहरे थें।

पहले नाना हमारे घर के बग़ल वाले घर में रहती थी। सोशल-वर्कर की मिनी देखते ही वह पीछे के दरवाज़े से हमें अपने घर ले आतीं, या फिर नीचे सोफ़े पर सोने का बहाना बनातीं। नाना बतातीं दूसरे महायुद्ध में उनका सारा परिवार नष्ट हो गया। ममा उनकी इकलौती औलाद हमेंशा से जिद्दी और उन्मुक्त स्वभाव की रहीं। उनमें कभी किसी भी तरह का ठहराव नहीं आया। नाना अब बृद्धाश्रम चली गई हैं। कई वर्षो से डैडी का कुछ पता नहीं है। ममी फिर गर्भवती हो गई और सोशल सर्विसेज़ ने फिर हमें अपने संरक्षण में ले लिया। इस बार ममी के रोने गिड़गिड़ाने का उनके ऊपर कोई असर नहीं हुआ। 

मेरे सभी भाई-बहन गोरे-चिट्टे हैं उनकी आँखें नीली और बाल सुनहरे या भूरे  हैं। पिछले दो वर्षों में मेरे तीनों भाई-बहन एक-एक करके सभी या तो गोद ले लिए गए या स्थाई रूप से किसी फोस्टर पैरेंट्स (पालक अभिवावक) के पास चले गए। न जाने कितने लोग मुझे देखने आए, पर सब मुझे अस्वीकार कर चले गए। मैं कितनी बार विवस्थापित हुई, कितने अस्थाई फोस्टर होम्स में रही, कितने अनाथ-आश्रमों में पली, कितनी प्रताड़ना झेली और कितनी चोट खाइ, अब याद नहीं। मुझे पार्क हाउस चिल्ड्रेंस होम में जब लाया गया तब मैं नाक सुड़कती, आठ वर्ष की ज़िद्दी, दुबली-पतली, उदण्ड  गहरी भूरी-काली आँखों, रूखे त्वचा वाली कुछ छोटे क़द की बच्ची थी। पार्क हाउस चिल्ड्रेंस होम में आए मुझे आठ वर्ष हो चुके हैं। यहाँ मेरी स्कूलिंग फिर से नियमितरूप से शुरू हुई। पढ़ने-लिखने में मेरा मन नहीं लगता। जब कभी मैं पढ़ने बैठती मुझे उबासियाँ आने लगतीं या सिर में दर्द होने लगता। पार्क हाउस की नने मुझे घुन्नी, आलसी और जंगली समझतीं, उन्होंने कभी मेरे उलझे मनोविज्ञान और कुँठाओं को समझने की कोशिश नहीं करी।

आए दिन मैं वहाँ किसी न किसी छोटी-मोटी शरारत के कारण चिल आउट बे में  दंडित होती। धीरे-धीरे मैं लापरवाह दिखती निरंकुश और ढींट होती चली गई। ननों को तंग करना उन्हें चिढ़ाना-बिराना, उनकी नकलें उतारना, मेरी आदतों में शुमार हो चुका था। जब मेरी हरकतों पर मेरे साथी मुँह छुपा कर फिस्स-फिस्स हँसतीं तो मैं और भी मूर्खतापूर्ण हरकतें करती और दंडित होती।

अब मैं सोलह वर्ष की पूरी हो चुकी हूँ। उस दिन मुझे नहीं मालूम था कि अगला दिन फिर मुझे अस्थिर और बुरी तरह उदिग्न करने वाला होगा। सुबह नाश्ते के पश्चात सिस्टर मारिया ने मुझे अपने कमरे में बुला कर कहा, सोशल वर्कर मिसेज़ हावर्ड अभी थोड़ी देर में यहाँ आएगी और तुम्हें असेस्मेंट सेंटर ले जाएंगी। मैं अवाक्। यह असेस्मेंट सेंटर क्या होता है?  मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन खिसकती सी लगी। मेरी आँखों में आँसू आ गए। दहशतज़र्द, मैं वहीं खड़ी रही। थोड़ी देर सिस्टर मारिया अपनी कागज़ी कार्यवाही में लगी रहीं फिर बिना सिर उठाए उन्होंने आगे कहा, देखो तुम नई जगह जा रही हो। अपने पर नियंत्रण रखना, अपनी बेवकूफियों और शरारतों से पार्क हाउस का नाम मत बदनाम करना।

असेस्मेंट सेंटर क्या होता है मिस?’ आँख में आए गालों पर लुढ़कने को आतुर आँसुओं को पीते हुए मैंने गले मे आई गुठली को गटकते हुए पूछा। सिस्टर मारिया अपने कामों में लगी रहीं। उन्होंने मेरे प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। मानों मेरे प्रश्न का कोई औचित्य नहीं। असेस्मेंट सेन्टर,शब्द मेंरे दिमाग़ में बवंडर की तरह घूम रहा था। मेरे पैरो में से शक्ति निचुड़ती जा रही थी। दिल बैठा जा रहा था। असेस्मेंट सेंटर में से पनिशमेंट सेंटर जैसी बू आ रही थी। मुझे महसूस हो रहा था कि पार्क हाउस की काले चोंगे वाली सिस्टर मारिया पनिशमेंट के लिए मुझे असेस्मेंट सेंटर भेज रही हैं। मैं कोई बुरी लड़की नहीं हूँ। मैंने आज तक कोई बुरा काम नहीं किया। बस थोड़ी ज़िद्दी और शरारती हूँ। मेरे साथ की कई और लड़कियाँ मुझसे भी कहीं ज़्यादा शरारती हैं पर उन्हें अक्सर माफ़ कर दिया जाता है। मैं विभ्रमित (कन्फ्यूज़्ड) थी। सोशल वर्कर कार लेकर आ चुकी थी। रिपोर्ट का भूरा लिफ़ाफ़ा मेरे हाथ में पकड़ा, असंपृक्त भाव से सिस्टर मारिया ने मुझे बाहर जाने का आदेश देते हुए कहा, डेमियन तुम्हारा सूटकेस ले कर आ रही है।सब कुछ इतनी जल्दी में किया गया कि मुझे अपने किसी साथी को गुड-बाई कहने तक का मौक़ा नहीं मिला। चारों-ओर पसरा सन्नाटा बता रहा था आज अचानक सारा पार्क हाउस किसी ज़रूरी काम में व्यस्त हो गया है। मेरे जाने की किसी को कोई खबर नहीं। मैं नर्वस और रुआंसी हो उठी।

ऑफिस के बाहर ढीले-ढाले काले और सफेद लिबास में मझोले क़द की गबदी सी एक सोशल वर्कर काले मिनी का दरवाज़ा खोल कर खड़ी थीं। मैंने संजीदगी से फाइल उसे पकड़ा दी। उसने हेलो कहते हुए, मुझे मिनी में बैठने का संकेत किया। मैंने गाड़ी में बैठते हुए गर्दन उठा कर अपनी डॉरमेटरी की ओर देखा, जहाँ मैं बरसों-बरस सोती रही थी। यह सोशल वर्कर मुझे कहाँ ले जाएगी? मुझे कुछ पता नहीं था। मेरा मन पारे की तरह थर-थराने लगा। फिर भी मैं खुद को संभाले हुए थी। शायद मेरी जिद्दी मनोवृति मेरी सहायता कर रही थी।

अपना ख़याल रखना स्टेलाझाड़ियों के पीछे से पार्क हाउस की सफ़ाई-कर्मी डेमियन का झुर्रीदार चेहरा उभरा। डेमियन जिसके अकिंचन स्नेह ने मुझे हताशा के मुश्किल घड़ियों में पिछले सालों में कई बार अकेले में सहलाया था।  आप भी अपना ख़याल रखना।कहते हुए मैंने डेमियन के हाथ से अपना सूटकेस ले कर सीट पर रखा। मेरा दिल किया मैं भाग कर डेमियन के गले लग कर खूब रोऊँ और कहूँ, मुझे असेस्मेंट सेंटर नहीं जाना है, तुम मुझे अपने घर ले चलो।पर मैं नामुराद कुछ भी नहीं कह सकी, बस सिर झुका कर गाड़ी का दरवाज़ा हल्के से बंद कर पार्क हाउस जैसे फीके और बदरंग जीवन को भूल जाने की कोशिश करती रही। सोशल वर्कर के सामने मैं टूटना नहीं चाह रही थी। अतः आँखें मीचे कार के स्टार्ट होने का इंतज़ार करती रही...

सोशल वर्कर ने जैसे ही कार का एन्जिन स्टार्ट किया .....मैंने अपने त्रासद वतर्मान से नाता तोड़ने के लिए तमाम और---और गैरज़रूरी चीज़ो के बारे में सोचना शुरू कर दिया, जैसे ये सोशल वर्कर मिनी ही क्यों चलाती हैं, इन्हें और कोई कार चलानी नहीं आती है क्या? मेरे जीवन में जितनी सोशल वर्कर आई उन सबके पास मिनी ही थी। यह तो मुझे बाद में पता चला कि ये गाड़ियाँ उनकी अपनी नहीं, सोशल सर्विसेज़ की होती हैं।

फिर जैसे ही हम सड़क पर आए, मैंने सूटकेस खोल कर अपना एक मात्र गुलाबी लाइक्रा ड्रेस निकाला। थोड़ी देर उसे गाल से लगा, उसके रेशमी छुअन को महसूस किया। फिर एक झटके में मैंने पार्क हाउस के भद्दे हरे रंग के हैट, कोट और पिनाफोर (एक तरह का फ़्रॉक) को उतार सूटकेस में घुसेड़ गुलाबी ड्रेस को इस तेज़ी से पहना कि सोशल वर्कर मुझे कपड़े बदलते न देख सकें। पर उसकी चील जैसी तेज़ आँखें लंदन की तेज़ रफ़्तार ट्रैफिक के गति पर लगे होने के बाबजूद मुझपर निगाह रखे हुए थीं। पीछे मुड़कर उसने मुझे एक पल देखा, फिर सामने ड्रैफ़िक पर ध्यान लगाते हुए बोली, भागने की कोशिश बेकार है दरवाजों में सेफ्टी लॉक है। फिर हँसती हुए बोली, मेरा अनुभव बताता है तुम भगोड़ी नहीं हो, क्यों?’ उसकी हँसी में लिपटा व्यंग्य मुझे अंदर तक चीर गया। मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। यूनीफ़ॉर्म उतारने के बाद मैं कुछ सहज महसूस कर रही थी।

यह गुलाबी ड्रेस मेरी बड़ी बहन फ़ियोना की उतरन थी, जिसमें से उसके बदन की ख़ुशबू आ रही थी। कहाँ होगी फ़ियोना? कहाँ होंगे रॉनी और शर्लीन? और कहाँ होगा नन्हाँ बेन? हमने एक-दूसरे को पिछले वर्ष ममा के जनाज़े के वक्त क़ब्रगाह में एक दूसरे को दूर से देखा था। सोचते हुए दूसरे ही क्षण मेरा ध्यान इन सब से हट कर अपने वर्तमान, अपने विवस्थापन पर गया कि आख़िर मेरा अपराध क्या है? लोग क्यों मुझे ही देखते मुँह फेर लेते हैं? आखिर मैं ही क्यों अस्विक़ृत होती हूँ? थोड़ी बहुत छेड़खानी तो मेरे साथ की सभी लड़कियाँ करती हैं। पर फिर मुझे ही क्यों सज़ा मिलती है? उनको सज़ा क्यों नहीं मिलती? मुझे ही असेस्मेंट सेन्टर क्यों भेजा जा रहा है? उन्हें क्यों नहीं भेजा जा रहा है? मेरे दिमाग में प्रश्नों की घुड़-दौड़ मच रही थी।

कहीं मैं कोई ऐसी-वैसी हरक़त न कर बैठूँ, इसलिए सोशल-वर्कर मुझे बातों में लगाए रखना चाह रही थी। मेरा मन उद्दिग्न और बोझिल था। मुझे मितली सी आ रही थी। फिर मैं उसकी दिखावटी-बनावटी बातों का जवाब भी नहीं देना चाह रही थी। उल्टी रोकने के लिए मैंने लंबी-लंबी सासें लेते हुए सड़क के किनारे लगे पेड़ों को बेमतलब गिनना शुरू कर दिया।

तुम्हें मालूम है हम कहाँ जा रहे है?’

मालूम होने से क्या होता है? सभी जगहें एक सी बेहूदी होती हैं, मैंने मन ही मन उसे मुँह बिराते हुए कहा।  
मालूम हम रेडिंग जा रहे है।

मैंने कभी रेडिंग का नाम नहीं सुना था। मुझे यह भी नहीं पता था कि रेडिंग, पार्क हाउस के किस ओर और कितनी दूरी पर है।

मेरी चुप्पी शायद सोशल वर्कर को ख़तरनाक़ लग रही थी। उसका बार-बार होठों पर ज़बान फ़िराना, बालों को बेमतलब कानों के पीछे खोंसना बता रहा था कि वह मेरी ख़ामोशी से चिंतित और नर्वस हो रही है। शायद मेरे बारे में उसे पहले ही खबरदार कर दिया गया है कि मैं एक भयंकर मुसीबत हूँ और किसी समय कुछ भी ख़ुराफ़ात कर सकती हूँ। ट्रैफ़िक पर नज़र रखते हुए भी वह ऊपर लगे शीशे में मुझे लगातार देखे जा रही थी।

रेडिंग एक अच्छा शहर है तुम्हें वहाँ अच्छा लगेगा। उसने कहा, पर मैं फिर भी ख़ामोश रही। मेरा जी अभी भी मितला रहा था। सोशल वर्कर की ज़बान टेप रिकार्डर सी चलती रही।

सुनों, तुम्हारे कितने भाई बहन हैं?’ जैसे मेरा कोई नाम नहीं है। भूरे लिफ़ाफे पर मेरा नाम लिखा हुआ था। वह चाहती तो मुझे मेरे नाम से बुला सकती थी। डेमियन ने मुझे मेरे नाम से पुकारा था।

मैं चुप,..मुझे उससे कोफ्त हो रही थी।

तुम्हारे दोस्तों के क्या नाम है? ’
...
तुम्हारा प्रिय पॉप सिंगर कौन है?’
.....
तुम कौन सी मैगज़ीन पढ़ना पसंद करती हो?’ आदि-आदि

 मेरे पेट में ऐंठन और उमड़-घुमड़ शुरु हो गई, मुँह में खट्टा और कसैला पानी भरने लगा, एक हाथ से पेट पकड़े दूसरे से मुँह दबाए मैंने दयनीय स्वर में कहा, मुझे उल्टी आ रही है। गाड़ी रोको प्लीज़।उसने एक बार फिर मुझे गहरी नज़र से देखा। मेरा चेहरा ज़र्द और बेजान हो रहा था। खिड़की का शीशा गिराते हुए ट्रैफ़िक लाइट से कुछ पहले उसने झटके से पास की गली में गाड़ी मोड़ दी,थैंक गॉड, तुमने मुझे पहले ही आगाह कर दिया, अगर कहीं मैंने मोटर-वे ज्वाइन कर लिया होता तो मुसीबत हो जाती। मेरा घर पास में ही है। मैं तुम्हें अपने घर ले चलती हूँ। वहाँ मैं तुम्हें उल्टी रोकने वाली गोली दूँगी। बस थोड़ी देर में तुम ठीक हो जाओगी। मुझे सहज करने के लिए वह मुस्कराई, उसके प्रति मेरे विचार में बदलाव आया, मुझे लगा यह सोशल वर्कर दूसरे सोशल वर्करों की तरह  असंवेदनशील और असंपृक्त नहीं है।
थोड़ी ही देर में हम उसके घर पहुँच गए ।

जैसे ही कार रुकी, मेरे सांस में सांस आई, बाहर निकलते ही मुझे दो-तीन छोटी-छोटी डकारें आई और मैं कुछ बेहतर महसूस करने लगी। मैं समझती थी कि सोशल वर्करों के घर साफ़-सुथरे और व्यवस्थित होते होंगे क्योंकि वे दूसरों के घरों के निरीक्षण करतीं है। पर यहाँ तो नज़ारा ही दूसरा था। मिस हावर्ड के रसोई की आलमारियाँ में से कोई खुली, तो कोई बंद थी। चारों तरफ जूठे गिलास, मग, तश्तरियाँ और खाने पीने के अधखुले पैकेट बिखरे हुए थें। ढूंढ-ढांढ कर किचन कैबिनेट की ड्रॉर से उसने एक पुरानी सी डिब्बी में से दो गोलियाँ निकाल कर मेरे हाथ पर रखते हुए पानी का गिलास पकड़ाया और कहा,  लो इन्हें गटक लो।

दवा का पैकट मुड़ा-तुड़ा और बदरंग था। भगवान जानें, कितनी पुरानी गोली है? शायद इसकी तारीख़ भी निकल चुकी होगी।  सोचते हुए मैंने कहा नहीं अब मैं बेहतर महसूस कर रही हूँ, मुझे गोलियों की अब कोई ज़रूरत नहीं हैं।और मैंने गोलियाँ रसोंई के वर्क-टॉप पर रख दीं।

मिस हावर्ड ने मेरी हिचकिचाहट भाँप ली, और हँसते हुए बोलीं, मैं तुम्हे ज़हर थोड़े न दे रही हूँ ये यात्रा में उल्टी रोकने की गोलियाँ हैं। खालो, अभी रास्ता लंबा है। इनकी तारीख़ें अभी निकली नहीं हैं।  मेरे पास गोलियों को निगलने के अतिरिक्त कोई और चारा नहीं था। वह मेरे सिर पर खड़ी थी। गोली निगलने के थोड़ी ही देर बाद मुझे आराम महसूस हुआ। मेरे ज़र्द चेहरे की रंगत बदली और हम गाड़ी में वापस आ कर बैठ गए। मोटर-वे पर जब मिनी साठ और सत्तर के रफ़तार से दौड़ी तो मुझे झपकी आ गई। मेरी नींद तब खुली जब मिस हावर्ड गाड़ी रोक कर किसी राहीगीर से असेस्मेंट सेंटर का रास्ता पूछ रही थी। थोड़ी ही देर में तीन-चार ट्रैफिक लाइट पार कर हम यॉर्क-शायर पत्थरों से बने एक विशाल भवन के ऊँचे गेट पर पहुँचे जिसके चारों-ओर ऊँचे फ़ेन्स लगे हुए थें। गेट के दोनों ओर कोनिफ़र के ऊँचे पेड़ प्रहरी से खड़े थे। बीच रास्ते पर लाल बजरी बिछी हुई थी। जब तक मैं अलसाई-आलसाई गाड़ी से उतरूँ, सोशल वर्कर ने आगे बढ़ कर दरवाज़े की घंटी बजा दी। काली जीन्स और पीली टी-शर्ट पहने भूरे घुँघराले बालों वाले एक साधारण कद-काठी के आदमी ने हँसते हुए हाय यंग लेडीज़कहते हुए हमारा स्वागत किया। गाड़ी से उतरते हुए मैं सोच रही थी कि कहीं यहाँ की बागडोर भी तो कड़वैल ननों जैसे लोगो के हाथ में नहीं है? पर उस आदमी की पोशाक़, हँसमुख चेहरे और आकर्षक बात-व्यौहार को देख कर लगा कि शायद मेरी सोच ग़लत रही है। उस आदमी ने आगे बढ़कर मुझसे और मिस हावर्ड से हाथ मिलाते हुए कहा, वेलकम टु एजहिल असेस्मेंट सेंटर।फिर उसने मेरी तरफ़ देख कर कहा, हाय मिस रॉजर्स। पहली बार किसी ने मुझे इतने आदर से संबोधित किया  था। वह आदमी मुझे अच्छा लगा।

अभी हम अंदर आकर उस लाउँजनुमा कमरे में बैठे ही थे कि उसका एक दूसरा साथी लाल-हरे बालों की पोनी टेल बाँधे, पीले टी-शर्ट और डंगरी में लॉरल (ल़ॉरल एंड हार्डी- अमेरिकन कॉमेडियन) जैसी हास्यप्रद हरकतें करता, अधसोया, आँखे मिचमिचाता जंभाई लेते हुए मेरे सामने वाली कुर्सी पर लड़खड़ाते हुए आ कर बैठ गया। थोड़ी देर वह अपनी काली चमकीली आँखें गोल-गोल घुमाता, पलके झपकाता मुझे देखता रहा, फिर हाथो से प्याला बना कॉफी सुड़कने का अभिनय करते हुए दाँत निपोरता हुआ बोला, कॉफी?’

इसके पहले कि मैं कुछ कहूँ, उसने परक्यूलेटर में से क़ॉफी निकाल कर मेरे हाथो में लाल रंग का एक मग पकड़ा दिया, फिर सिपाहियों की तरह सैल्यूट मार कर, टेढे-तिरछे कदम रखते इधर-उधर हो गया। अजीब जोकर है इसे तो सरकस में होना चाहिए, सोचते हुए मैं  हँस पड़ी। यह कैसी जगह है?  इस जगह का परिवेश तमाम उन जगहों से पूर्णतः भिन्न था जहाँ मैं अभी तक समय-समय पर रही थी। फिर ज़रा ही देर बाद उस जगह का अजनबीपन मुझे भयभीत करने लगा। मुझे ठंढा पसीना आने लगा। उस बड़े से कमरे में अपने-आपको अकेले पाकर मैं इस क़दर नर्वस हो गई कि मेरी रुलाई छूट पड़ी। मन में जाने कैसे-कैसे संशय उभर रहे थें। इस बीच सोशल वर्कर जाने कब मेरी फ़ाइल लेकर पीले टी-शर्ट वाले आदमी के साथ उसके आफ़िस में खिसक गई। साउँड-प्रूफ ऑफिस का दरवाजा पूरी तरह बंद था। पर फिर भी जिद्दी, असभ्य’ ‘मंद-बुद्धि, और काहिलजैसे शब्द अपने-आप मेरे कानों में प्रविष्ठ होते चले गए। शायद वह लोग मेरे ही बारे में बातें कर रहे थे। अभी दस मिनट ही बीते होंगे कि सोशल वर्कर अपना ब्रीफ़केस लिए बाहर आ गई। चलते-चलते उसने पीले टी-शर्ट वाले से हाथ मिलाते हुए कहा, फिर मैं चलती हूँ, अब यह तुम्हारे संरक्षण में। गुड लक मेट!’ फिर पलटकर मेरी ओर देखकर वह मुस्कराई, हाथ हिलाया और फटाफट गाड़ी स्टार्ट कर चलती बनी। जाने क्यों उसकी मुस्कराहट मुझे अच्छी नहीं लगी, ब्लडी सोशल वर्कर!’ मैंने मन ही मन उसे गाली दी।  

पीले शर्टवाला शायद वहाँ का मैनेजर था, उसने मेरे बाहों को थपथपाते हुए मुझे अपने कमरे में आने को कहा जो कि उसका ऑफ़िस था। आफ़िस के सामने वाले दीवार पर एक बड़ा चार्ट टँगा हुआ था जिस पर कई नाम लिखे हुए थें। इन नामों के बगल में विभिन्न रंगों के चिप्पड़ लगे हुए थें। अब मेरा नाम भी इस लिस्ट में जुड़ जाएगा, पता नहीं किस रंग की चिप्पड़ मेरे आगे लगेगी, मैंने सोचा। बाद में मुझे इन चिप्पड़ो के कलर कोड के अर्थ का पता चला कि ये चिप्पण विभिन्न सेवाओं के द्योतक थे जैसे  साइकैट्रिक, साईक्लोजिस्ट, स्पीच थेरैपी, स्पेशल हेल्प आदि..आदि।

पीले शर्ट वाले ने मुझे बताया कि उसका नाम पीटर हैरिंगे है और वह इस असेस्मेंट सेंटर की देख-रेख अपने अन्य सहयोगियों और सदस्यों के साथ करता है। आगे उसने असेस्मेंट सेंटर का उद्देश्य बताते हुए मुझे संबोधित करते हुए कहा, मिस रॉजर्स नहीं..नहीं, स्टेला, क्यों ठीक है न? हम इस सेंटर में सबको उनके पहले नाम से ही बुलाते हैं क्यों कि यहाँ कोई बॉस नहीं है सब दोस्त हैं। हम सब मिल कर आपस में विचार-विमर्श कर सेंटर का प्रबंधन करते हैं। यह असेस्मेंट सेंटर एक प्रगतिशील प्रयोगशाला है।मैं चुप, वह जो कुछ कह रहा था वह सब मेरे लिए बिल्कुल नया था, मेरे अबतक के अनुभव के बाहर। आज तक किसी ने मुझसे इस तरह सम्मान देकर बात नहीं की थी। मैं बार-बार अंदर ही अंदर संकुचित हो जाती। आगे उसने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए मुझे मेरे पहले नाम से संबोधित करते हुए कहा, स्टेला!’ हमारी पूरी कोशिश होती है कि इस असेस्मेंट सेंटर में आने वाली हर किशोरी को आठ-दस हफ्ते के अंदर या तो किसी अच्छे परिवार में जगह मिल जाए या वह किसी वोकेशनल ट्रेनिंग में लग जाए या फिर छोड़ी हुई अपनी पढ़ाई चालू कर लें।उसने कुछ किताबें और कॉमिक्स मेरे हाथ में देते हुए कहा, इस समय सेंटर में दस लड़कियाँ है जिनमें से तीन लड़कियों के फ़ोस्टर पैरेंट्स मिल चुके हैं, वे दो-तीन दिन में चली जाएंगी।मेरा  क्या होगा? क्या मुझे भी कोई फोस्टर करेगा? मैं अपने भविष्य की कोई तस्वीर नहीं बना पा रही थी। मेरी हीन ग्रंथियाँ मुझे अपने शिकंजे में कस रही थीं। मेरा उदास चेहरा, रीढ़ की झुकती हड्डी और सिकुड़ते कंधे मेरे अंदर की बेचैनी को मुखर कर रहे थे.... पीटर थोड़ी देर मुझे गौर से देखता रहा फिर कुर्सी से उठते हुए स्मित हास्य से बोला, आओ स्टेला, चलो! तुम्हें सेंटर के भूगोल से परिचित करा दूँ।

मैं बेमन से उठ खड़ी हुई और उसके साथ भारी क़दमों से चल पड़ी।

पीटर जो कुछ कह रहा था वह सब पूरी तरह से मेरी समझ में नहीं आ रहा था। पर उसके व्यक्तित्व में कुछ ऐसा था कि उसके साथ चलने में मुझे तनाव नहीं अजब सा सकून और भरोसे का आभास मिल रहा था। सेंटर का रख-रख-रखाव, सुंदर, प्रियदर्शी निखरे हुए शोख रंग इस तरह के थें मानो मुझसे कह रहे हों, आओ मुझे आजमाओ, मुझे जानो, मुझे परखो। यहाँ दुराव या चुनौंती नहीं दोस्ती जैसा कुछ आभास हो रहा था।  

निचले तल्ले पर बने लाउँज, किचन, लाइब्रेरी आदि दिखाने के बाद सीढियाँ चढ़ते हुए उसने पहले तले पर एक सीधी रेखा में बने वाशरूमस की ओर इंगित करते हुए कहा, इस तल्ले पर पाँच वाशरूम और एक फैमिली रूम है जिसमें टेलिविज़न और हल्के-फुल्के रीडिंग मैटीरियल रखे होते है। उसके बगलवाला वह बड़ा सा कमरा जिम है जिसे मार्टिन सुपरवाइज़ करता है। उसके सामनेवाला कमरा, वह रंग-बिरंगे दरवाज़ेवाला, हमारी नाट्यशाला है जिसका प्रबंधन शोहेब और सुब्रीना करते है।ऊपर तीसरे तल्ले की सीढ़याँ चढ़ते हुए पीटर ने कहा, शोहेब अच्छा खासा जोकर है, नक़ले बनाने में तो ऐसा उस्ताद है कि इंसान हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाता है।पीटर मुझसे इस तरह बात कर रहा था जैसे कि मैं उस पर थोपी गई कोई अनाथ नहीं, उसकी कोई मेंहमान हूँ। मुझे उसकी बातें अच्छी लग रही थीं। मेरे अंदर के फ्यूज़ बल्ब धीरे-धीरे जलने से लगे थे और मैं अपनी तंग गलियों से बाहर आने लगी...

सच. मुझे भी नकलें बनाने में बड़ा मज़ा आता है। पार्क हाउस में जब मैं ननों की नकलें उतारती तो मेरे साथी खूब हँसते पर मैं चिल आउट कॉर्नर में सज़ा पाती। कहने को तो मैं कह गई पर फिर अपने आप में किसी साही (हेजहॉग) की तरह सिकुड़ गई।

उसने शायद मेरा पिछला वाक्य नहीं सुना या सुना तो अनसुना कर दिया।

अरे वाह! यह तो बड़ी बढिया बात है स्टेला। तो तुम विदूषक (कॉमेडियन) हो। हम यहाँ अपने सेंटर में हर महीने एक कॉमेडी शो करते है। लोकल ओल्ड पीपुल्स होम (स्थानीय वृद्धाश्रम) के शौकीन उसे देखने आते हैं। तुम्हें यहाँ अपने इस हुनर को विकसित करने के बड़े अवसर मिलेंगे।

अरे! नहीं

अरे! हाँ पीटर ने मेरी नकल बनाई, मैं हँस पड़ी। मेरे अंदर जमी बर्फ-शिला पिघलने को आतुर हुई....मैंने कहा,
वह डंगरी पहने, पोनी डेल वाला लॉरल, शोहाब था क्या?’ मेरी झिझक टूट रही थी।

हाँ, पक्का जोकर है, मसखरा। पर अपना काम पूरी मुस्तैदी से करता है।

अच्छा, लगता तो सिर्फ मस्खरा है।

वह तो तुम्हें सहज करने के लिए उसने महज़ एक प्रयास किया था।मैं फिर यूँ ही फिस्स से हँस पड़ी। उससे बात करना मुझे अच्छा लग रहा था।

सेकेंड फ्लोर पर दस कमरे थे। पाँच नम्बर के कमरे पर मेरे नाम का लेबल चिपकाते हुए पीटर ने कहा, लो यह रहा तुम्हारा कमरा।साथ ही कमरे में लगे लॉकर की चाबी देते हुए बोला, और यह रहा तुम्हारा लॉकर। तुम अपने कपड़े और मेकअप आदि का सामान इसमें रख, इसे लॉक कर सकती हो।मेरा अपना कमरा, मेरा अपना लॉकर इतनी सुलभताएँ! यक़ीन नहीं आ रहा था।

सेंटर की बनावट और साज-सज्जा पार्क हाउस के पुराने-फीके ढंग के रख-रखाव के बिल्कुल उल्ट आधुनिक, नए रंगो में रचा-बसा था। ऐसा स्वतंत्र, प्रियदर्शी वातावरण! अचानक पिघलती शिला फिर हिम खंड बन गई। एक बिल्कुल नए तरह के भय और आशंका से मेरा दिल दहलने लगा। कैसे रह पाउँगी इस खुले, उन्मुक्त, शोख़ वातावरण में? मुझे तो ट्टुओं की तरह बंधे पाँव से चलने की आदत है। पीटर ने जाने कैसे मेरे अंदर होने वाले हलचल को पहचान लिया। उसने एक बार फिर हलके से मेरा कंधा थपथपाया और मुझे समझाते हुए बोला,यह जगह संरचनात्मक है। पुनर्वास का है। घबराओ मत स्टेला। यहाँ और भी तुम्हारी ही जैसी कठिन परिस्थितियों की दास बन कर रह गई लड़कियाँ रहती हैं। अभी साढ़े तीन बजे है। दस-पंद्रह मिनट में लड़कियाँ ट्रेनिंग सेंटर से वापस आ जाएंगी, फिर सेंटर का सन्नाटा ऐसा टूटेगा कि लगेगा ही नहीं कि यहाँ कभी सन्नाटा था।

पीटर के बोलने का ढंग उसके स्वरों का उतार-चढ़ाव उसके शब्द-शब्द मेरे खंडित हो रहे आत्मविश्वास को मानो किसी अदृश्य फेबिकोल से जोड़ते हुए आश्वस्ति में बदल रहे थें। मेरे अंदर आशा की एक लहर थरथराई.... ऐसा सह्रदय, ऐसा संवेदनशील और मेरे मन में उठते हर तरंग को समझनेवाला पथ-प्रदर्शक अगर पहले मिल गया होता तो...

देखो ये लड़कियाँ बिलकुल भिन्न शहरी परिवेश से आती हैं अतः ये तुमसे बहुत भिन्न  मुँहफट्ट, चुलबुली, दादा टाइप और दंगेबाज़ हैं। पर सब दिल की अच्छी हैं। जैसी भी हैं उन सबमें कई अच्छे जन्मजात गुण भी है। उनके ये गुण उनकी परिस्थियों और परिवेश ने कुचल कर अवरुद्ध कर दिए हैं। पर धीरे-धीरे उनमें आत्मविशवास के साथ जीवन के प्रति नए दृष्टिकोण भी पनप रहे हैं।मेरे आँखों में आश्चर्य उभर आया, यह पीटर क्या मुझे, मेरे ही बारे में इन लड़कियों के बहाने से बता रहा है।

पीटर, तुमने मेरी रिपोर्ट पढ़ी?’ मैं थोड़ी सतर्क हुई।

नहीं, मैं रिपोर्ट असेस्मेंट के बाद पढ़ता हूँ।मेरे बाएं बाँह को अपनी मुट्ठी के गाठों से सहलाते हुए उसने मुझे आश्वस्त किया।

क्यों?’

क्योंकि मैं पहले खुद किताब पढ़ता हूँ फिर आलोचकों की प्रतिक्रिया पर गौर करता हूँ।वह मेरी ओर देखकर मुस्कराया, प्रतिक्रिया में मैं भी मुस्करा उठी। मैं फिर सहज हो उठी।    
  
तुम मेरी रिपोर्ट कभी मत पढ़ना पीटर?’ मैंने बच्चों की तरह मचल कर कहा,नहीं पढ़ुँगा। नहीं पढ़ुँगा। उसने अपने कानों को हाथ लगा, भौंहों को ऊपर उठा, गोल-गोल आँखें घुमा, सीने पर क्रॉस बना, जोकरों सा हसोड़ मुँह बनाया। मैं खिलखिला कर हँस पड़ी।

तुम हँसती हो तो आकर्षक लगती हो। तुम्हारे आँखों की चमक बढ़ जाती है और तुम्हारे नन्हें-नन्हें दाँत मोतियों से दमकने लगते है।
पीटर!’ मैं चीखी तुम मेरा मज़ाक मत उड़ाओ! अगर मैं ऐसी ही खूबसूरत होती तो अब तक किसी ने मुझे गोद क्यों नहीं लिया, किसी ने मेरी फोस्टरिंग क्यों नहीं की। मेरा बाप मुझे ठोकरें क्यों मारता रहा था।मेरी आँखों से आँसू निकल पड़े। मेरी आवाज़ काँपने लगी,मैं क्यों लावरिसों की तरह एक जगह से दूसरी जगह फेंकी जाती रही, जबकि मेरे सभी भाई बहन और साथी एक-एक कर के चयनित होते गए, अच्छे ऊँचे घरों में स्थापित होते रहे और मैं अपमानित और कुंठित होती रही। मुझे नहीं मालूम मेरा अपराध क्या है?’ कहते-कहते मैं बिस्तर पर गिर, घुटने में सिर छिपा, फूट-फूट कर रोने लगी। पीटर वहीं पास पड़ी कुर्सी पर बैठा थोड़ी देर मुझे रोता देखता रहा, फिर उठ कर नीचे चला गया, जब लौटा तो उसके हाथ के ट्रे में चाय के दो मग, सैंडविच और पानी के गिलास थें। उसने पानी का गिलास मुझे पकड़ाते हुए कहा, यह अच्छा हुआ कि तुम रो पड़ी। जाने कबसे यह रुदन. यह घुटन तुम्हारे अंदर कैद थी। कभी-कभी रो लेना सेहत के लिए अच्छा होता है।उसने पास रखे टिश्यू बॉक्स को मेरे हाथ में पकड़ाते हुए कहा, यह जीवन विसंगतियों से भरा हुआ है। इसका कोई समीकरण नहीं है।

क्यों? क्या, तुमने यह नाटक, ये शब्द, यह ब्यंग्य मुझे रुलाने के लिए कहे थे, पीटर? तुम भी और लोगो की तरह मुझे जंगली, बेवकूफ और मंदबुद्धि समझते हो। मेरे देह की सारी नसें तनी हुई थीं। मेरी आँखों से चिनगारियाँ निकल रही थीं।

नहीं!’ पीटर ने छोटा सा उत्तर देकर मानों मुझे ख़ारिज कर दिया। मेरे तन-बदन में आग लग गई, मैंने आग्नेय नेत्रों से उसे देखते हुए कर्कश आवाज़ में कहा, झूठ, पीटर, झूठ! मैं जानती हूँ कि मैं ख़ूबसूरत नहीं हूँ। तुमने मुझे ख़ूबसूरत क्यों कहा? मेरी दुखती रग पर कटाक्ष क्यों किया? इमांदारी से जवाब दो।मैं फिर आवेश में आकर सुबकने लगी।  
स्टेला, मैंने तुम्हें खूबसूरत नहीं कहा।पीटर की प्रौढ़ आवाज संतुलित और गंभीर थी। जाने कैसे मैं दत्तचित उसे सुनने के लिए तैयार हो गई।

मेरे शब्दों को याद करो। मैंने कहा था जब तुम हँसती हो तो आकर्षक लगती हो।
एक ही बात मैं फिर ज़िद पर उतर आई।

 नहीं, यह एक ही बात नहीं है। एक तीखे नाक-नक्श वाला खूबसूरत इंसान यदि हीन ग्रंथियों से ग्रसित, सदा मुँह लटकाए रहता है तो उसके तीखे नाक-नक्श पर किसी की दृष्टि नहीं पड़ती है, इस लिए वह आकर्षक नहीं लगता, उसकी खूबसूरती किसी को नज़र नहीं आती। पर एक साधारण मुखाकृति वाला भी जब खिलखिलाकर हँसता है तो वह आकर्षक और खूबसूरत हो उठता है। उसने मेरी आँखों में सीधा देखते हुए कहा,तुम्हारी बातों में सच्चाई है। मैं फिर सहज होने लगी। मेरी ग्रंथियाँ खुल रही थीं। मुझे पीटर से इस असभ्यता से बात करने का कोई हक़ नहीं है। मैंने अपने आप को मन ही मन धिक्कारा।

सॉरी पीटर, मुझे तुमसे इस तरह की बातें नहीं करनी चाहिए।

पीटर ठहाका मार कर हँस पड़ा, उसकी हँसी मुझे अच्छी लगी।

क्यों नहीं करनी चाहिए? तुम्हें किसी की कोई बात ठीक नहीं लगती तो तुम्हे पूरा अधिकार है कि तुम अपना विरोध ज़ाहिर करो। अगर हम अपनी प्रतिक्रियाओं को अभिव्यक्त नहीं करेंगे तो लोग हमें सुनेंगे कैसे? हमारे इस सेंटर में भिन्न-भिन्न परिवेश के लोग आते हैं। कुछ अपराधी प्रवृति के होते है उनकी सोंच बिल्कुल अलग होती है। पर हम यहाँ खुलकर आपस में एक-दूसरे के विचारों पर टिप्पणियाँ देकर अपनी-अपनी प्रतिक्रियाएं ज़ाहिर करते है। इसीतरह हम एक-दूसरे को कभी एक बारगी, कभी धीरे-धीरे समझने लगते है।पीटर की आँखों में सच्चाई और इमांदारी थी। मैं फिर सहज होने लगी, मेरी ग्रंथियाँ फिर खुलने लगी, अतः वाचाल हो उठी,मालूम पार्क-हाउस की नने गोरी-चिट्टी होने के बावजूद मुझे कभी सुंदर नहीं लगीं, वे मुझे हमेंशा चुड़ैल लगतीं, पर बूढ़ी डैमियन का झुर्रीदार चेहरा फरिश्ता सा कोमल लगता, वह मेरी, मरियम थी।....

पीटर मेरी बातें सुन कर मुस्कराया, उसकी मुस्कराहट ने मुझे कुछ और आश्वस्ति प्रदान की।

मुझे खुशी है कि तुम अपने आप से बाहर आ रही हो। आश्वस्त हो रही हो। कहते हुए पीटर ने ट्रे में रखे हुए सैंडविच की ओर इंगित करते हुए कहा यह रहा तुम्हारा लंच। चाहो तो तुम आराम करो अन्यथा नीचे ऑफिस में आ जाओ। शायद असेस्मेंट सेंटर के बारे में तुम और कुछ भी जानना चाहो।

हाँ, ठीक है पीटर, मैं फ्रेश होकर आती हूँ।

अरे हाँ चलते-चलते वह बोला, कल सुबह तुम्हारा असेस्मेंट होगा, तुम्हारे स्कोर पर, तुम्हारी रुचि के अनुसार, तुम्हें वोकेशनल ट्रनिंग के लिए भेजा जाएगा। और सुनो एक खुशखबरी, तुम्हारे बेनेफिट (अनएम्प्लॉएमेंट भत्ता) के पेपर्स आ चुके हैं कल मार्टिन के साथ जा कर जायरो बैंक में अपना एकाउँट खोल लेना। अब तुम आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो, बैंक में आए पैसों का प्रबंधन तुम कैसे करोगी यह तुम्हारे ऊपर निर्भर करता है। बैंक पेपर्स, पिन नम्बर, चेकबुक, क्रेडिट कार्ड बेहद संभाल कर लॉकर में रखना होगा। ठीक। पैसे भी संभाल कर खर्च करने होते है। इन पैसों की बजटिंग करनी होती है, तब कहीं जाकर पूरे हफ्ते का खर्च चल पाता है।

इतनी जटिल, इतनी सुंदर बातें, इतने धीरज और विस्तार से! जीवन में पहली बार किसी ने मुझे इतना महत्व और समय दिया। कृतज्ञता से मेरा दिल भर आया।

मैंने हाँ में सिर हिलाते हुए पीटर को आश्वस्त किया।

उसने उँगलियाँ मोड़ कर गाठों से मेरे गाल को सहलाया।

मुझे यहाँ कब तक रखा जाएगा?’

तुम्हारे अगले जन्मदिन तक, जबतक तुम सतरह वर्ष की नहीं हो जाओगी।
फिर?’

इस एक वर्ष में तुम्हें वाह्य संसार से ताल-मेल बैठाने के अवसर बार-बार मिलेंगे, टेम्पिंग (शॉर्ट-टर्म की नौकरियाँ) करने को मिलेगी और तुम समाज में रहना और उसके  ऊँच-नीच को समझना सीख जाओगी।
और कोई प्रश्न माई डीयर?’

अभी नहीं, इतना सबकुछ पचा सकना आसान नहीं है मेरे लिए। मुझे जीवन का कोई अनुभव नहीं है। मैं सदा आश्रिता रही। पर मैं तुम्हारी आभारी हूँ. तुमने मुझे इतना समय दिया।वह फिर वही मीठी हँसी हँसा, यह तो मेरी नौकरी है। रिलैक्स, ओ. के. फिर मैं चलता हूँ।

यस पीटर। लोग इतने भी अच्छे और सहज हो सकते हैं। सहसा मुझे लगा कहीं मैं कोई सपना तो नहीं देख रही हूँ।पीटर के जाने के बाद मैंने उस छोटे से कमरे के दीवारों की ओर देखा जिस पर नन्हें-नन्हें सुर्ख़ फूलोंवाला हल्के नीले रंग का पेपर लगा हुआ था। एक कोने में टेबुल चेयर, पलंग और लॉकर के साथ एक सुर्ख रीडिंग लैम्प। कमरे की साज-सज्जा मुझे अच्छी लगी, यह मेरा अपना कमरा है।  सोचते हुए लॉकर में कपड़े रख कर मैंने उसका दरवाज़ा बंद  किया और बिस्तर पर आ कर लेट गई। कब आँख लगी पता नहीं।

अचानक भयंकर शोर-गुल के साथ धम-धम सीढ़ियाँ चढ़ने की आवाज आनी शुरू हो गई। ऐसा लग रहा था मानों भूचाल आ गया हो। शायद मैं सपना देख रही थी अचानक  तेरह से लेकर सोलह वर्ष की सात-आठ लड़कियाँ धक्कम-धुक्का करती बिना किसी पूर्व सूचना और औपचारिकता के कमरे में घुस आई। न किसी ने मेरा नाम पूछा, न ही अपना नाम बताया बस मुझे देखते ही पूछने लगीं कि मैं किस अपराध के कारण यहाँ भेजी गई हूँ?
  
किस अपराध के कारण मैं यहाँ भेजी गई हूँ? यही प्रश्न तो मैं अपने से बार-बार करती आई हूँ। इतने अजनबियों के बीच अपने को घिरा पाकर मैं हड़बड़ा गई, उन्हें जवाब देने के लिए मैं फिर दुबारा से जल्दी-जल्दी सोचने लगी कि मैं यहाँ क्यों भेजी गई हूँ? पर मेरे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया। मुझे अपना किया कोई भी अपराध याद नहीं आ रहा था। अतः मैंने हकलाते हुए कहा, म...म...मुझे नहीं मालूम।

ऐसा कैसे हो सकता है कि तुम्हें अपना अपराध ही नहीं याद हो फ़किंग इडियट (ब...मूर्ख)?’ एक ने मुझे मुँह बिराते हुए कहा, झूठ बोलती है साली।

 एक लंबी सी लड़की ने, मेरे चेहरे को अपने सख़्त हाथो में उठाकर मेरी आँखों में आँखें डाल कर पूछा,
तू दोगली (बास्टर्ड) है? शब्द का सही अर्थ समझे बिना मैं बोली,नहीं

डमडम (बेवकूफ)!’ पीछे से किसी ने उँची आवाज़ में कहा,
पाकी है साली!’(पाकिस्तानी का संक्षिप्त, हिंदुस्तानियों और पाकिस्तानियों के लिए इस्तेमाल किए जाने वाला गाली जैसा नकारात्मक शब्द)

मैं सिर झुका, दोनों हाथो में चेहरा थामें आँख बंद कर वहीं पलंग पर धम्म से बैठ गई। जीजस इतनी गंदी ज़बान। ऐसी गालियाँ। पार्क हाउस की नने तो इन्हें सूली पर चढ़ा देतीं। मेरा जीवन भले ही कितना अपमानजनक रहा हो पर किसी ने ऐसी भद्दी और बत्तमीज़ी की बातें मुझसे नहीं करी थीं। मेरा दिल बुरी तरह से धड़क रहा था। मुझे लग रहा था अब ये लड़कियाँ मुझे ज़रूर पीटेंगी...पीटर-पीटर! कहाँ गया पीटर? क्या इन्हीं भयंकर लड़कियों के साथ मुझे रहना होगा?  घबराहट से मेरे हाथ-पाँव ठंडे होने लगे।

चल, छोड़ यार, यह तो बेकार समय की बरबादी है (वेस्ट ऑफ़ टाइम)।एक ने धीरे से कहा।

सचमुच डर गई।किसी और ने कहा और धीरे-धीरे सब वहाँ से खिसक गई।

थोड़ी देर बाद जब मैंने आँखें खोली तो वहाँ अभी भी एक ललछौंहे घुंघराले बालों वाली गोरी पर फ्रेकल्ड चेहरे (हल्के भूरे तिलों से भरा) की बारह-तेरह वर्ष की मुझसे भी छोटे क़द-काठी की दुबली-पतली लड़की खड़ी मुझे बिल्ली की तरह घूर रही थी।

क्या तुमने सचमुच कोई अपराध नहीं किया, पाकी?’

किया था एक बार ननरी के किचन में से पेस्ट्री चुराई थी। पर किसी ने मुझे चुराते हुए नहीं देखा। मैं पकड़ी नहीं गई। मैंने कहा।

छीः उसने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा, यह भी कोई अपराध है, यह तो बड़ी बचकानी हरकत है?’ मेरे नादानी पर वह चहकी और बहस कर जल्दी-जल्दी बोली, मैं तुम्हें कार चुराना सिखाउँगी। ईज़ी-पीज़ी (बेहद आसान)। कार चुराने का अपना मज़ा है। गाड़ी चुराओ, खूब तेज़ दौड़ाओ और फिर किसी पॉश गाड़ी से टक्कर मार, नौ दो ग्यारह हो जाओ। पकड़े जाओ तो फ़किंग रिमॉन्ड कस्टडी (पुनर्वास सुधार-संरक्षण) और जुविनाइल केस (किशोर-अपराध)। समझी स्टुपिड पाकी। कहते हुए, जाने ही वाली थी कि मैंने उसका हाथ पकड़ कर कहा,तुमने मुझे पाकी क्यों कहा? मैं पाकी नहीं हूँ। मैं स्टेला रॉजर्स हूँ। मेरा बाप गोरा था। मैं गोरी हूँ।

वह हाथ छुड़ा कर भागते-भागते कहती गई, रंग गोरा होने से क्या होता है पाकी, तेरी काली आँखे बोलती हैं, तू दोगली है। दोगली तो मैं भी हूँ। मेरा बाप काला (अफ़्रिकन) और माँ गोरी (अंग्रेज़) थी, दोनों सड़क दुर्घटना में मारे गए! मुझसे दोस्ती करोगी?

मेरी आँखों के आगे से जैसे उसने कोई पर्दा हटा दिया, बिस्तर पर पड़े-पड़े मेरे दिमाग में रह-रह कर मेरे जन्म और ज़िंदगी से जुड़े तरह-तरह के दर्दनाक नस्ली सवाल  उछल-उछल कर मेरे ज़ेहन में आने लगे।   
मैं कौन हूँ?’ ..... मैं स्टेला रॉजर्स हूँ।’ ‘नहीं तुम रॉजर्स नहीं हो?’ मेरे दिमाग के किसी कोने से उत्तर आया। मैं रॉजर्स क्यों नहीं हूँ मेरे बर्थ सर्टफिकेट से लेकर मेरे स्कूल सर्टिफिकेट पर मेरा नाम स्टेला ऱॉजर्स लिखा हुआ है।मेरा दिमाग चकरघिन्नी सा धूमता भन्ना रहा था पर साथ ही कई उलझे तार सुलझ भी रहे थे। तुम्हारी आँखें नीली और रंग डैनियल रॉजर्स की तरह गोरा-चिट्टा नहीं है।’ ‘तो?’ ‘तो क्या? ‘डैनियल रॉजर्स तेरा बाप नहीं था, इसीलिए वह तुझे ठोकरें मारता था, उसे तेरे सूरतो-शक्ल से चिढ़ थी। तेरा गंदुभी रंग और काली आँखें उसके पौरुष को ललकारता था। तेरे और भाई बहन उसकी तरह चिट्टे गोरे-और नीली-भूरी आँखों वाले हैं।’ ‘तो?’ ‘ तेरी माँ ने अपनी सुविधा के लिए तुम सब भाई बहनों को रॉजर्स सर नेम की छतरी पकड़ा दी।’ ‘तो?’ ‘तो क्या मूर्ख,  तू उस छतरी में छेद थी.....।खुद से बातें करते-करते जाने कबतक मैं रोती-सिसकती रही मुझे याद नहीं, शायद रोते-रोते मैं सो गई।

जब मैं सुबह उठी, वहाँ कोई नही था, वे लड़कियाँ कौन थी? क्या मैं कोई भयानक सपना देख रही थी? सोचते-सेचते नहा-धोकर जब मैं नीचे आई पीटर आफ़िस मे बैठा कुछ काम कर रहा था। मैंने दरवाज़े को हलके से खटखटाया, अंदर आओ स्टेला..’ वही कल वाली विहँसती, आश्वस्त करती आवाज़।

गुड मॉर्निंग!’

हाय! तुम बैंक जाने के लिए तैयार हो? मार्टिन आता ही होगा।

अभी पाँच मिनट का समय है। मुझे तुमसे कुछ पूछना है?’ मेरी नर्वस आवाज़ में आवेग का कंपन था।

पूछो न, मैंने तो कल भी तुम्हारा इंतज़ार किया, पर शायद तुम थकी थी। शोहाब और सुब्रीना ने बताया तुम गहरी नींद सो रही हो। वही सहज, संतुलित और आश्वस्त करने वाला अंदाज़ कहीं कोई उपालंभ नहीं।

मेरा क्या अपराध है? मुझे अपराधियों के साथ क्यों रखा गया है? मैने थरथराती आवाज़ में उससे पूछा।

तुम्हारा कोई अपराध नहीं है!’ उसके स्वर में सांत्वना थी तुम अपराधियों के साथ नहीं, अपनी हम-उमर किशोरियों (टीनएजर) के साथ हो, जो तुम्हारी ही तरह किसी दूसरे तरह के विक्टिम ऑफ सरकमस्टाँसेज  ( परिस्थितियों की सताई) की शिकार रही हैं।....  
-0-0-0-

उषा राजे सक्सेना की  रचना-प्रक्रिया

शुरू-शुरू में जब लिखना शुरू किया था तो सफ़ेद फ़ुल स्केप पेपर पर लिखती थी. लाइनदार कागज़ पर भाव नहीं बन पाते थें. नोट, फुटनोट, और बिंदु आदि अलग से डायरी में लिखना होता था. काट-पीट के कारण कागज़ बहुत ख़राब होता था. मन में अपराधबोध बना होता कि कितने वृक्षों को नष्ट कर रही हूँ. हर दो तीन हफ़्ते में एक रिम पेपर ख़रीदना होता. पेन्सिल से लिखने में मज़ा नहीं आता था. मिटाना मुझे कभी अच्छा नहीं लगता है.
1998 से सीधा कम्प्यूटर पर लिखना शुरू किया तो हाथ से लिखने की आदत एक दम छूट गई. कम्प्यूटर पर लिखने का अपना आनंद है. माइक्रोसॉफ्ट वर्ल्ड का पन्ना खोलो और लिखना शुरू कर दो. सेव करो और फाइल कर दो. फिर जब मन चाहे खोलो, पूर्व का लिखा पढ़ो और प्रवाह में फिर से  लिखना शुरू कर दो. कम्प्यूटर में कट-पेस्ट की सुविधा होने के कारण रचना को संशोधित-परिवर्धित कर उसे परिष्कृत करने में आनंद आता है. बहुत बार ऐसा भी होता है कि शुरू की हुई कोई कहानी आगे नहीं बढ़ी  तो वह फाइल में बरसों-बरस पड़ी रहती है फिर अचानक कोई ऐसा स्फूर्त क्षण आ जाता है जब उस पर काम करने बैठ जाती हूँ.....

लिखते समय अक्सर मुझे किसी न किसी बहाने एक ब्रेक चाहिए होता है. अब एक सिटिंग में लिखना ज़रा मुश्किल हो जाता है. अक्सर लिखते-लिखते भाव न बन पाने के कारण या तो वॉक पर निकल जाती हूँ  या बागीचे में पेड़-पौधों की कटिंग-ट्रिमिंग करते हुए क्यारियों में वीडिंग आदि करने लग जाती हूँ. स्टडी में कंप्यूटर खुला रहता है जैसे ही विचार की गहनता बनी कि की-बोर्ड पर उँगलियाँ चलने लगती है.

अभी तक एक सिटिंग में शायद तीन-चार कहानियाँ ही लिखी है. अधिकतर कहानियाँ दो हफ्ते से लेकर पाँच या छः हफ्ते का समय ले लेती हैं. किसी-किसी कहानी की एडिटिंग बीस और बाइस बार तक हो जाती है. पहले बहुत जल्दबाज़ी करती थी. कहानी को पकने का समय नहीं देती थी. अब ऐसा नहीं होता है. जब तक पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो जाती हूँ एडिटिंग करती रहती हूँ. कहानी का विषय, निर्वाह, प्रवाह और शब्द चयन सब मेरे लिए महत्वपूर्ण है. मेरी कहानियों में भाषा पात्र और परिवेश के अनुसार बदलते रहते है. भाषा के बारे में मेरे विचार बड़े क्रांतिकारी हैं. मेरे लिए भाषा सहज और भावपूर्ण अभिव्यक्ति का माध्यम है. मेरी कहानियों में पात्रो और उनके परिवेश के अनुसार हिंदी, अँग्रेज़ी, उर्दू, बंगाली, पंजाबी यहाँ तक स्पैनिश भाषा के शब्द और वाक्य भी आ जाते हैं. कहानी के छपने से पूर्व मित्रों को पढ़ने के लिए देती हूँ. उनकी प्रतिक्रिया और राय मेरे लिए प्रेरणा-स्त्रोत हैं.

पहले रात में लिखा करती थी. अब सुबह जल्दी उठ जाती हूँ. सुबह की सैर और स्वीमिंग के बाद नियमित लिखती हूँ. जरूरी नहीं कि कहानियाँ ही लिखूँ. आलेख, रिपोर्ट, संस्मरण, पत्र, डायरी आदि भी लिखती हूँ. कविता लिखना एक तरह से छूट गया है फिर भी दो चार लाइने कभी-कभी लिखती हूँ. पुस्तकें भी पढ़ती हूँ. स्टडी में हज़ार-ग्यारह सौ पुस्तकें है. बहुत कुछ सिर्फ कलेक्शन है. समकालीन लेखको को पढ़ना अच्छा लगता है. पुराने क्लासिक्स भी बीच-बीच में पढ़ लेती हूँ. आजकल डॉ. हरिवंशराय बच्चन की प्रवासी की डायरी पढ़ रही हूँ. सात-आठ पत्रिकाएँ हर महीने आती हैं. सबको देखती अवश्य हूँ. जो रुचिकर लगता है पढ़ती हूँ. इंटरनेट पर भी बहुत सारी पत्रिकाएँ हैं. उन्हें भी देखना-पढ़ना होता है. फ़ेस बुक बहुत कम खोलती हूँ. बहुत समय खा जाता है.

कभी लिखना बहुत सरल होता है तो कभी बहुत कठिन. मूड की भी बात है. कहानी डिमांड पर कभी नहीं लिख पाई. कोई घटना या कोई बात मन पर असर डाल जाती है और अंदर अंदर खदबदाती रहती है. उसके पकने और सीझने का समय बता पाना मुश्किल है. अभी हाल ही में हँस के जुलाई अंक में कहानी ऑटोप्रेन्योर छपी. कहानी का बीज 2002 में ब्रेन-गेन के नाम से मस्तिष्क में उस समय आया जब ब्रिटेन में जन्मी पली-पुसी और शिक्षित हुई वन्दना ने अपना निश्चय मुझे बताया कि वह भारत में अपने बल पर बिना किसी पैरेंटल सपोर्ट के बिज़नेस आरंभ करना चाहती है.
     (कमलेश्वर के साथ)

कई बार लिखते समय कभी कुछ यथार्थ जानने के लिए मित्रो को कंसल्ट करती हूँ. अभी दो हफ़्ते पहले एक अधूरी कहानी पूरी की चाइनीज़ कॉलर उसके लिए ख़ासतौर पर वाटरलू और वेस्टमिनिस्टर का चक्कर लगाया. जल गया मेरा सर्वस्व 1995 में न्यूहम में लगे एक आगजनी की परिणिति है. एक अवैध इमिग्रैंट उस बिल्डिंग में रहते थे उन्होंने खबर दी थी. उस समय मेरे पति होम ऑफिस में काम करते थें. वे उसका केस देख रहे थें उस कॉन्सेप्ट पर कहानी उस समय नहीं लिख पाई. अब लिखी. इस तरह कई कहानियाँ सुप्त अवस्था में पड़ी रहती हैं और समय आने पर दस्तक देती हैं.

ज़रूरी नहीं कि हर कहानी-कॉन्सेप्ट कागज़ पर उतर ही आए. कहानियों के बीज सबकॉन्सश माइंड में कई बार अर्से तक सुप्त पड़ी रहती है वे कब आकार लेंगी उसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है. कहानी लिखने की प्रक्रिया में लिखने का मूड एक बड़ा फैक्टर है. कहानियाँ संवेग है वे एक विशेष स्थिति में ख़ुद को लिखवा जाती हैं. कहानियों को तराशना एक सजग प्रक्रिया है. कहानी का शीर्षक अक्सर मुझे रचना करते समय ही उद्भासित होता है. कहानी का आरम्भ चुटकियों में होता है, अंत अक्सर रुला जाता है. जब तक मन संतुष्ट नहीं होता तबतक समापन की प्रक्रिया चलती रहती है. कंप्यूटर पर काट-छांट आसान होता है. देश-विदेश की यात्राएँ भी बहुत करनी होती है. लेखन साथ चलता है. संबंधी सब दूर-दूर रहते हैं. पहले लैपटॉप साथ लेकर चलती थी. अब पेन ड्रॉइव लेकर चलती हूँ.

1967 में विवाह के बाद ब्रिटेन आई थी. तब मैं ऐक्टिव और सैलानी तबियत की लड़की थी. मस्तिष्क में पूर्वाग्रह नहीं बने थें. कॉलेज से बस निकली भर थी. यहाँ आकर भी यूनिवर्सिटी-कॉलेज-लंदन से पी.जी.सी किया. स्कूल में पढ़ाती थी. छुट्टियों में कभी दोस्तों के साथ तो कभी परिवार के साथ लंदन की खूब सैर करती थी. मन किया तो अकेले भी निकल पड़ती थी. छुटपुट कविता वगैरह लिखती थी. बहुत जल्दी यह देश मुझे अपना लगने लगा था. मुझे यहाँ के स्थानीय लोग अधिकतर सहज-सरल और साफ़ मन के लगे. पास-पड़ोस के अँग्रेज घरों में आना जाना था. एक अँग्रेज़ बूढ़े को रोटी की लत थी उसे अक्सर रोटी बना कर देती थी. हर दीवाली पर मेरे साथी अँग्रेज शिक्षक मेरे घर दावत खाते थे क्रिसमस और ईस्टर पर कई बार मैं उनकी मेहमान भी होती थी. इसलिए भारतीय संस्कृति के साथ अँग्रेज़ी संस्कृति भी मेरी रचनाओं में प्रमाणिकता के साथ बार-बार आते हैं.

ब्रिटेन आए अब साढ़े चार  दशक हो गए. इन दशकों में ब्रिटेन की सामाजिकता किस तरह बदली है उसकी मैं साक्षी रही हूँ. मैं ब्रिटेन के बदलते परिवेश, समय और समाज से प्रभावित हूँ. यह देश और यह समाज मुझे अपना लगता है. मैंने इसे जितना दिया है उससे भी कहीं अधिक इसने मुझे दिया है. मैं अपने को यहाँ समृद्ध, सुरक्षित और स्वतंत्र पाती हूँ. अक्सर मेरी कहानियाँ और उसके पात्र मेरे क़रीबी लोग होते है. मेरे आस-पास के लोग अक्सर मेरी कहानियाँ पढ़कर मेरे पात्रों को पहचान लेते है. अक्सर मेरे समाज के लोग कहानी में बुनी ब्रिटिश समाज की स्थितियों और अभिव्यक्त भावनाओं से आईडेंटीफाई भी कर लेते हैं.

जैसा कि मैंने पहले भी कहीं लिखा है मेरी कहानियाँ मेरे जीए हुए पलों को समेटती हैं. हर कहानी में कहीं न कहीं मेरे व्यक्तिगत अनुभव और उनसे उबल कर आए विचार पात्रों द्वारा अभिव्यक्त हुए हैं. दूसरे शब्दों में कहूँ तो जो मैंने भोगा है, जिन स्थितियों और हालातों से मैं ब्रिटेन में गुज़री हूँ जिसे मैंने अपने चारों तरफ देखा है, अनुभव किया है, साझा किया है वही समय, वही समाज, वे ही चेहरे, वे ही लोग मेरी कहानियों में, घटनाओं, प्लॉट और संवाद के माध्यम से मेरे लेखन में आए हैं. मैंने ब्रिटेन में आए हुए इमिग्रैंटस के पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों को बड़ी नज़दीकी से बदलते, कॉम्लीकेटेड होते, टूटते-बनते और बिखरते हुए देखा है. मेरे पात्र काल्पनिक नहीं हैं वे वास्तविक है जीते-जागते लोग हैं. मैंने चरित्र उसी समाज से उठाए गए है, जिस समाज में मैं रहती हूँ. मेरे कथानकों में उठाए गए कई दक़ियानूस इश्यूज तो ऐसे हैं जो हमारे परिवेश में एक बार नहीं कई बार घटे हैं और बरसों बरस चर्चा के विषय बने रहने के कारण मुझे मथते रहे हैं. जब मैं उन सड़ते हुए मान्यताओं और परंपराओं में फंसे, लाचार लोगो की बदहालियों के दास्तान देखते-सुनते सचमुच बेज़ार हो जाती हूँ तो उन्हें कहानियों में पिरो कर पाठकों के साथ बाटने की कोशिश करती हूँ. सकून तो शायद तब भी नहीं मिल पाता है क्यों कि ये कभी ख़तम न होने वाले इश्यूज़ लगातार विभिन्न कोणों से मुझे संत्रासते रहते हैं. ...

मनुष्य जब अपना देश छोड़कर दूसरे देश में आता है तो वहाँ वह सांस्कृतिक आघात के चपेट में आ जाता है. अपने देश में वह सहज रहता है. दूसरे देश में आकर वहाँ के भिन्न वातावरण और संस्कृति में अपने को पाकर वह अक्सर चकरा सा जाता है. अच्छे बुरे को ध्यान में न रख स्वयं को केंद्र में रख बस लाभ उठाना चाहता है. औपनीवेश के ऐतिहासिक कारणों से वह ब्रिटेन को अच्छी नज़र से नहीं देखता है. इमिग्रैंट ब्रिटेन के साथ लव ऐन्ड हेट का संबंद्ध बना एक अजब सी पीड़ा में रहता है. यह बात कहानी मज़हब’ ‘प्रवास में तथा एलोरा  (ब्रिटिश इंडियन) में देखी जा सकती है. मेरी कहानियों में नास्टैल्जिया नहीं मिलेगी.

कहानी एलोरा ब्रिटिश इंडियन समाज के दोहरे चेहरे, दोहरे मानदण्ड और गुलाम मानसिकता को लेकर लिखी है... एलोरा का पिता सन सिंड्रोम (पुत्र मोह) और इलीट कॉम्पेलेक्स से ग्रसित है. वह एलोरा के अस्तित्व को नकारता है क्यों कि वह लड़की है. एलोरा एक खदबदाता पतीला है. कहानी में पतीले का ढक्कन  भाप छोड़ता है. ऐंग्री टीन एजर एलोरा का आक्रोष विस्फोटक है. वह दूसरी पीढ़ी की तमाम लड़कियों की ऊर्जा है. कहानी में बुनी हुई घटना वास्तविक है, हमारी अपनी बिरादरी में एक ऐसी घटना हुई जिसने मुझे यह बोल्ड कहानी लिखने को मजबूर किया. एलोरा नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करती है और उसका पिता गुलाम और डरपोक इमिग्रैंट मानसिकता का.

धन अर्जित करना और संतान को उच्च शिक्षा देना, हर इमिग्रैंट के जीवन का उद्देश्य रहा है. पर वह ब्रिटेन के खुले समाज के संक्रमण से डरता है. तान्या दीवान कहानी में माता-पिता खुले विचारों के हैं, धनवान हैं तान्या को सब सुख- सुविधा देते है. वे चाहते हैं कि तान्या का स्वतंत्र व्यक्तित्व बने, कारपोरेट जगत में वह अपनी पहचान बनाए पर सह-अस्तित्व से डरते है. कहानी तान्या दीवान ब्रिटेन के प्रोफेशनल और तथा- कथित इलीट समाज में जन्मी तमाम लड़कियों की प्रतिनिधित्व करती है. कहानी में तान्या और उसके माता-पिता के चरित्र-चित्रण द्वारा ब्रिटेन के इमिग्रैंट प्रोफेशनल समाज की मानसिकता को अभिव्यक्त किया गया है. माता-पिता अपने युवा पुत्रियों को स्वालंबी और महत्वकांक्षी तो बनाना चाहते हैं पर वे उन्हें जीवन के साथ प्रयोग करने की छूट नहीं देना चाहते हैं जो उन्हें निडर साहसी और आत्मविश्वास से युक्त बनाए. तान्या की पीढ़ी इंटेलिजेंट है यह पीढ़ी किसी न किसी तरह हदें पार करने के लिए सड़ी-गली और अनावश्यक मान्यताओं की बेड़ियाँ तोड़ती है कभी प्यार से, कभी विद्रोह से, कभी छल बल से.

मुट्ठी भर उजियारा में एक स्वार्थी और इररिस्पांसिबल पति गीता, रामयण, और वेद के सुने सुनाए अँशों को उधृत करके अपने विलासी और पुरुषवर्चस्ववादी व्यवहार को सही ठहराता हुआ पत्नी से अपेक्षा करता है कि वह उसकी अनैतिकता को स्वीकार्यता प्रदान करे. कहानी भारत से आए किशोर बच्चों की बदलती मानसिकता के साथ जीवन की कई बिषमताओं और विसंगतियों को भी रेखांकित करती है. स्कूलों में पढ़ाने के साथ सोशलवर्क करते हुए मुझे पता चला कि मिनी कैबिंग, एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर मून लाइटिंग (टैक्स की हेरा फेरी), डोलमनी (बेकारी भत्ता) अवैध नागरिकता आदि इमिग्रैंट कम्यूनिटी में बहुत प्रचलित हैं. हमारे अपने देसी भाई ब्रिटेन में मिली वेलफेयर स्टेट के निःशुल्क सेवाओं और उदार कानून का दुरुपयोग करने में माहिर है. मुट्ठी भर उजियारा की शन्नों औसद दर्ज़े की जुझारू और सजग महिला है जो नए भविष्य के लिए आगत का सहजता से स्वागत करती है.

कहानी प्रवास में ब्रिटेन के इंस्टीट्यूशनल रेसिज़्म की ओर संकेत करते हुए, इमिग्रैंट समुदाय की स्वार्थी, संकुचित और अकर्मण्य मनोवृति का खुलासा करती है. मैंने कुछ वर्ष ब्रिटिश सिविल सर्विस में भी काम किया है और वहाँ कई ऐसे इंडियन सिविल सर्वेंट्स को भी देखा है जो अपनी प्रतिभा और लगन के कारण पदोन्नति पाते चले गएँ और कुछ ऐसे एम्प्लाइज को भी देखा जो अकर्मण्यता   और तुक्ष मनोवृति के कारण तरक्की नहीं कर पाते तो जलन-हसद के कारण अपने उन साथियो को अँग्रेज़ों का पिट्टू कह कर अपनी भड़ास निकालते थें. प्रवास मेंका नायक शशांक मुझे वहीं कहीं दिखा था जो उन महत्वकांक्षी, इंटेलिजेंट, टैलेंटेड और उत्साही इमिग्रैंट्स को रिप्रेज़ेंट करता है जो जानते हैं सफलता के लिए पॉज़िटव एटिट्यूड और काबिलियत ज़रूरी है. शशांक पहाड़ की चोटी पर चढ़ने की कला जानता है पर फिर भी वह लुढ़क जाता है. उसका पतन होता है. क्या कारण है? असावधानी, दंभ, पद का मद, लालच. क्या शशांक ने अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया? क्या प्रतिभा की गुण ग्राहक ब्रिटिश सत्ता सचमुच शशांक के प्रतिभा-मंडल से भयभीत हो उठी थी? क्या शशांक के साथ वास्तव में अन्याय हुआ?

चुनौतीआज के महत्वकांक्षी, कॉम्पिटिटिव समाज को रिप्रेज़ेंट करता है. जहाँ हर क़दम पर चुनौती है.  माँ बाप ने बच्चों के भविष्य के लिए एक ख़ाका तैयार कर रखा है. अपनी महत्वकांक्षाओं और संतान को उन्नत भविष्य देने को लिए वे अब एक बच्चा पैदा करते हैं. बच्चे के पैदा होने से पहले ही उसके भविष्य के बारे में सोचना शुरू कर देते है. किसी के पास समय नहीं है कि रुक कर, ज़रा बच्चे के मन को भी टटोलें. सत्तर-अस्सी के दशक में इमिग्रैंट परिवारों में किशोरों के साथ हो रही भावनात्मक ज्यादतियाँ (कहानी चुनौती, रुख़साना आदि) उन दिनों मीडिया में रेखांकित हो रही थीं.

इमिग्रैंट परिवारों में बढ़ती एजुकेशनल रैट रेस वाली समस्या अक्सर मुझे परेशान करती. शिक्षक होने के नाते मैं यह बहुत अच्छी तरह समझती हूँ कि हर बच्चा प्रोफेशनल नहीं बन सकता है. घर गृहस्थी भी बच्चों का चुनाव हो सकता है. स्कूलों में शिक्षण कार्य करते हुए मेरा इंट्रैक्शन खुले सत्र में अभिवावको से होता था. उन्हीं में से एक है चुनौती की नायिका युवा पढ़ाई में सक्षम होते हुए भी घर गृहस्थी के कामों में रुचि रखती थी. माँ-बाप उसके इस कौशल की   प्रसंशा न कर उसे प्रताड़ित करते थें.  युवा, माँ-बाप के पढ़ो पढ़ो के प्रेशर में आ कर पढाई से विमुख हो जातीं. ऐसे में इस तरह की नाग़वार सख़्ती से परेशान हो घर के माहौल और माता-पिता से विद्रोह करती हैं, शायद बदला लेती हैं किशोरियाँ इस तरह.

ब्रिटेन का वेलफेयर एसेटेट याने यहाँ की मिनिस्ट्री ऑफ सोशल सेक्यूरिटी मेरी कहानियों में बार बार आता है. मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि मैं ब्रिटेन के वेलफेयर सिस्टम से प्रभावित हूँ. कोई भी ब्रिटिश नागरिक अपने को वेलफेयर सिस्टम से अलग रख ही नहीं सकता. ब्रिटेन के वेलफेयर सिस्टम में व्यक्ति जन्म से मृत्यु तक इंश्योर्ड है. 

वह रात कहानी की कथा-वस्तु 15 वर्ष मेरे ज़ेहन में घर किए रही. उन दिनों मैं एक ऐसे स्कूल में पढ़ा रही थी जिसमें काउँसिल स्टेट के बच्चे आते थें. इनमें वे लोग बसाए गए थें जिनकी तनख्वाहें कम थीं, या जो कुँआरी माँ का परिवार था या वे इमिग्रैंट थे जिन्होंने पोलिटिकल-असाइलम माँग ली थी. यह एक ऐसा कठिन स्कूल था जहाँ टीचर को सोशल-वर्क और पैरेंट-काउँसिलिंग भी करनी पड़ती थी. इनमें अँग्रेज़ और इंडियन इमिग्रैंट भी थें. इन घरों के लड़के-लड़कियाँ तेज़ मिजाज़, हर वक्त लड़ने-झगड़ने के मूड में रहते. गाँजा-चरस और अन्य नशीले पदार्थों का सेवन करते-करते वे तंग अवैध गलियों में कुछ इस तरह गुम हो जाते जहाँ से निकलना मुश्किल हो जाता. वह रात की माँ मुझे वहीं मिली. दोस्तों से उधारी लेते-लेते वह बदले में उन्हें तन देने लगी. पैसों की कमी, अभावों, असावधनियों और लापरवाहियों के बावजूद उस परिवार में एक ऐसा भावनात्मक जुड़ाव था कि एक संस्कारी परिवार में भी ऐसा जुड़ाव देखने को शायद नहीं मिलता है. यही वह बिंदु था जिसने मुझसे यह लंबी कहानी लिखवा डाली. इस कहानी को मैंने आठ बार लिखा दसियों बार तो इसका अंत बदला, तब कहीं जा कर मेरे मनोनुकूल ढंग की कहानी बनी.

डैडी कहानी की पृष्टभूमि भी कुछ इसी तरह शुरू हुई कि मेरी एक साथी शिक्षक जो तलाकशुदा इंडियन थी. उसके एक बेटी भी थी. साथ का एक अँग्रेज़ टीचर, पीटर उसे पसंद करता था. वह अक्सर उसकी बेटी के साथ खेलता था. रिचर्ड ने इस तलाकशुदा मित्र से शादी की. दूसरे बच्चे की ख़्वाहिश नहीं की. बड़े होने पर बच्ची के मन में अपने जैविक पिता से मिलने तीव्र आकांक्षा उठी. पीटर उसे अपने जैविक पिता से मिलवाने ले गया. पर लड़की अपने जैविक पिता से मिल कर बहुत निराश हुई..... इस तरह की घटनाएँ अक्सर मेरे संवेदनशील मन को छू जातीं. मेरा रचनाकार विषय पाते ही सक्रिय हो उठता. इस कहानी को भी वर्तमान स्वरूप देने में दस ग्यारह ड्राफ्ट बनें.

मेरे अपने कहानी मेरी स्कॉटिश दोस्त फ़ियोना के जीवन की वास्तविक कहानी है. प्लॉट के लिए मुझे कोई मेहनत नहीं करनी पड़ी. फ़ियोना ने स्वयं अपनी कहानी मुझे सुनाई थी और उसे लिखने के लिए प्रेरित भी किया था. अधिकांश संवाद भी उसके हैं. मेरी तरह फियोना का भी मानना था कि मनुष्य अपने अनुवाशिक गुणों को लेकर पैदा होता तथा परिवेश का असर उस पर पड़ता है पर जन्मजात गुण बदलते नहीं है.

वस्तुतः रचना-प्रक्रिया एक आंतरिक प्रक्रिया है. यद्यपि यहाँ कुछ कहानियों का संदर्भ देकर मैंने स्थूल ढंग से अपनी रचना-प्रक्रिया को स्पष्ट करने का प्रयास किया है. लिखते समय कभी-कभी स्थिति बहुत तनावपूर्ण हो जाती है और फिर कभी-कभी बहुत संपादित करने के बाद भी कोई रचना संतोषजनक नहीं होती है तो वह फाइल में पड़ी रहती है.
-0-0-0-


 

 

हैदराबाद विश्वविद्यालय में स्त्री लेखन से जुड़े विषयों पर शोधरत कल्पना पंत की उषा राजे सक्सेना सेबातचीत. 

कल्पना पंत-          स्त्री शोषण का सबसे प्रमुख कारण आप किसे मानती हैं?
उषा राजे सक्सेना-   कल्पना जी, स्त्री शोषण का सबसे बड़ा कारण है पितृसत्तात्मक समाज एवं सामंती सत्ता का अर्थ तंत्र पर नियंत्रण  के साथ स्त्री को शिक्षा से वंचित कर आश्रिता, भोग्या एवं वस्तु के रूप में स्थापित कर देना..... यदि स्त्री शोषण के इतिहास का विश्लेषण किया जाए तो हम पाएँगे कि मानव सभ्यता और समाज के इतिहास को तीन मुख्य चरणों में बाटा जा सकता है. कृषि, उद्योग और प्रौद्यौगिकी. संक्षेप में सभ्यता और समाज की यह यात्रा कृषि व्यवस्था के साथ आरंभ हुई. घर बने, साथ ही स्त्री और पुरुष के बीच श्रम का विभाजन हुआ. समाज में वर्ग भेद की  व्यवस्था के साथ लैंगिक असमानता की नींव जटिल हुई. जब उद्योग आरंभ हुए, रोज़गार का जिम्मा पुरुषों पर और घर-गृहस्थी के दायित्वों के साथ शारीरिक श्रम स्त्रियों के हिस्से में आया. गर्भधारण करने की बारंबरता ने स्त्री के स्वास्थ्य पर असर डाला. गर्भ की निरंतरता से संलग्न अस्वस्था के कारण मनुष्य समाज में उसकी आपेक्षित स्थिति को कमज़ोर और अशोभनीय (वीकर सेक्स और शुचिता) बनाया. और फिर  सामंती सत्ता ने वर्ग आधारित समाज बनाने में देर नहीं लगाई.
कल्पना पंत-  क्या आपको नहीं लगता कि स्त्री की शारीरिक कमज़ोरी को पुरुष सत्ता ने  उसके शोषण का प्रमुख हथियार बना लिया है, जो सदियों से आज तक उसी रूप में जारी है. इस पुरुष मानसिकता को किस प्रकार बदला जा सकता है?

उषा राजे सक्सेना-  कल्पना, जिसे आप शारीरिक कमज़ोरी कह रही हैं वह स्त्री की शक्ति है. स्त्री में निर्माण की रचनात्मक शक्ति है. वह सृजक है. यदि पितृसत्तात्मक व्यवस्था और सामंती समाज अपने को सत्ता के केंद्र में रख स्त्री की कोख की शुचिता के लिए निर्मम और अपमानजनक स्त्री आचार-संहिता बनाकर उसे आश्रिता, भोग्या, देवदासी और अपवित्र हो जाने की हीन ग्रंथि न देता तो वह आज विश्व की सबसे बड़ी क्रिएटिव पावर होती.
पितृसत्ता, सामंती संस्कृति एवं पूंजीवाद तीनों का अस्तित्व दास प्रथा पर आधारित है. इसीलिए आज भी विश्व में लैंगिक और जातिगत असमानताएँ बदस्तूर जारी है. पितृसत्ता, और सामंती संस्कृति द्वारा बनाई, धर्म की रूढ़ियों ने स्त्री को अपने आधीन रखने के लिए तरह तरह के अर्थहीन प्रपंचों (अबला, आश्रिता, कन्यादान, दहेज, पुरुष केंद्रित विवाह पद्धति, पर्दा, शुचिता (लज्जा), दासी (बेचना-खरीदना हार-जीत का सौदा) अबला (weaker sex), झूठे मान मर्यादा की वाहिनी (honour killing)- आदि) का जाल बुन उसे दास और भाग्यवादी मानसिकता से इस तरह कन्डिशन्ड कर दिया कि वह समाज और परिवार में मात्र उपयोग और उपभोग की वस्तु बन कर रह गई. समाज के इस सामंती सोच और अमानवीय शोषण की मानसिकता को स्त्री हित में परिवर्तित करने के लिए संपूर्ण भारतीय समाज की शिक्षा नीति के साथ शिक्षा पद्धति और पुरुषवर्चस्ववादी मानसिकता में बदलाव लाना होगा.
1.यदि भारत में समान शिक्षा और समान अवसर (equality) के साथ आर्थिक स्वालंबन स्त्री को मिले तो स्त्री शोषण तंत्रों को पहचान, उसका निष्कासन कर स्वयं को सक्षम और सबल प्रमाणित कर लेंगी. आज आवश्यकता है महिला सशक्तिकरण, महिला एकता और सहयोग की भावना की नेटवर्किंग की. नेट वर्किंग से जब महिलाओं में युग चेतना आएगी तो वे स्वयं लज्जा, कन्यादान, दहेज आदि जैसी पुरानी सड़ी-गली मान्यताओं को योजनाबद्ध ढंग से निष्कासित करेंगी.
2.यदि बेटी और बेटों में अंतर न कर उसे समान अवसर, समान शिक्षा, समान आचार-संहिता जन्म से दिया (सिखाया) जाए तो स्त्री जाति पुरुष के समान उन्नत (tuff) होगी और समाज में बदलाव आएगा. व्यक्ति से ही समाज बनता है. यदि व्यक्ति का मनोविज्ञान बदलेगा, तो समाज की सोच भी बदलेगी.
3.‘अरेंज मैरिजकी अवधारणा एवं विवाह संस्था में बदलाव के साथ सदियों से चली आ रही परिपाटी में संशोधन. विवाह के उन तमाम रीति-रिवाज़ों और परंपराओं (बाल विवाह, बेमेल विवाह, कन्या के सहमति के बिना विवाह आदि) के साथ उन पौराणिक कथाओं, शास्त्रों, मुहावरों, शब्दों, वाक्यों आदि को बहिष्कृत और निष्कासित करना होगा जो स्त्री जाति को हेय और अशक्त और बुद्धिहीन साबित कर, समाज को स्त्री शोषण की मानसिकता और वर्चस्व प्रदान करते है.
3.लैंगिक सामानता की अवधारणा की क्रियान्वान, एवं स्त्रियों सुरक्षा और विकास के लिए बने कानून/विधायकों पर अमल न करनेवाले अराजक तत्वों को शीघ्र और कठोर कानूनी सज़ा.
4 संसद में एक निश्चित संख्या में स्त्रियों का प्रतिनिधित्व तुरंत प्रभाव से अनिवार्य किया जाए. सभी जानते हैं कि राजनेताओं के पुरुषवर्चस्ववदी चरित्र के कारण यह विधेयक आज तक पास नहीं हो सका है.  
कल्पना पंत-    स्त्री मुक्ति विचारक सेक्स और जेंडर को एक नहीं मानते हैं वे स्त्री यानी जेंडर की अवधारणा  से मुक्ति के पक्षधर है. इस पर आपकी क्या राय है.

उषा राजे सक्सेना-  लिंग प्रकृति की देन है. किंतु लिंग का बोध संस्कृति और समाज कराता है. पितृसत्तात्मक समाज और सामांतवाद पुरुष लिंग को श्रेष्ठ मानता है. स्त्री लिंग (femail) के साथ पितृसत्तात्मक समाज और सामंतवादी प्रवृतियों ने कई दैविक और सांस्कृतिक भ्रांतियाँ से जोड़ कर उसे पाप की सीढ़ी की संज्ञा दी हैं जो सदियों से चले आने के कारण परंपरा से जुड़ कर रुढ़ हो चली हैं. लिंग को नहीं बदला जा सकता है किंतु उसका सशक्तिकरण मेडिकल साइंस और मनोविज्ञान से हो सकता है. कालांतर में पौराणिक कथाओं, मुहावरों, तथा पुरुष सत्ता द्वारा गढ़े गए स्त्री आचार-संहिता ने स्त्री को तुच्छ, ढोर, गवाँर और ताड़ना का अधिकारी बनाने के साथ उसे मूक और बधिर होने की संज्ञा भी दी जिसे आज की शिक्षित, स्वालंबी, अर्थ सम्पन्न महिला समाज, नए मूल्यों और उदाहरणों से तोड़ने का प्रयास कर रही है.

आज भारत की कुछ सबल और शिक्षित महिलाएँ उस मानसिक कडिशनिंग से मुक्त होने का प्रयास कर रही है जो उसे दास, दुर्बल एवं दोयम दर्ज़े के बेड़ियों में जकड़ती है. वैज्ञानिक शिक्षा, आर्थिक स्वालंबन, आत्मबल, महिला सशक्तिकरण (बहनापा), पितृ और सामंती समाज द्वारा लादे गए मिथकीय परंपराओं को तोड़ कर यदि स्त्री अपने गुणों (ऊर्जा), अपनी क्षमताओं और आवश्यकताओं को पहचान, नई पीढ़ी के लिए नए मूल्य स्थापित करतीं हैं तो भविष्य में सक्षम और आत्मसम्मान से युक्त स्वस्थ्य समाज की नींव पड़ेगी. जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों ही बराबर के हकदार होंगे. इन संदर्भों में मेरी कहानियाँ क्लिक (वाकिंग पार्टनर), राधा कृष्ण प्रकाशन- दिल्ली वजूद (वजूद), रिश्ते(वह रात और अन्य कहानियाँ) सामयिक प्रकाशन- दिल्ली, रुख़साना (वाकिंग पार्टनर)  एलोरा (वह रात और अन्य कहानियाँ)  चुनौती (वह रात और अन्य कहानिया) ऑटोप्रिन्योर (हँस- जुलाई 2013) इंटरनेडेटिंग पुरवाई एवं अभिव्यक्ति इंटरनेट पत्रिका, यात्रा में,शन्नों (प्रवास में)- प्रभात प्रकाशन- ज्ञान गंगा प्रकाशन- दिल्ली और उषा वर्मा की सलमा, तथा दिव्या माथुर की कहानी बचाव  आदि पढ़ी जानी चाहिए हैं.जेंडर से मुक्ति, एक स्लोगन सा बन गया है. जिसका उपयोग और दुरुपयोग दोनों ही संक्रमण काल (ट्रांज़िटरी पीरियड) में होगा और हो रहा है. और इसका परिणाम सुखद भी होगा और दुःखद भी होगा. यह सुख-दुख व्यक्ति और समाज के अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोंण पर आधारित होगा. स्त्री जब बिना किसी मानसिक भय और दबाव के अपनी शर्तों पर जीना सीख लेगी साथ ही जब जेंडर में समानता और सह अस्तित्व में ठहराव आएगा तो वह सेक्स और जेंडर का एक दूसरा और बेहतरीन परिदृश्य होगा. 

कल्पना पंत-  भारत में स्त्री लेखन तो लगातार हो रहा है किंतु स्त्री मुक्ति आंदोलन    जैसा कोई   स्वतंत्र  इतिहास हमारे पास उपलब्ध नहीं है. ऐसा क्यों? इसके क्या कारण है?
उषा राजे सक्सेना-  यह सच है कि पश्चिम में हुए स्त्री मुक्ति आंदोलन जैसा कोई स्वतंत्र इतिहास भारत में उपलब्ध नहीं है. मुक्ति संगठनों के साथ लेखिकाएँ नहीं जुड़ीं. इसके बहुत ही विषम सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और सांप्रदायिक कारण हैं. दोहरे मानसिकता वाले आदर्श भारतीय समाज में पश्चिम में हुए इन आंदोलनों के प्रतिक्रिया स्वरूप आंदोलन तो नहीं हुए परंतु उससे प्रेरित भारत में स्त्री विमर्श और दलित विमर्श की पहचान धीरे धीरे अस्सी और नब्बे के दशकों में उपन्यासों, पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से संपादकीय आलेखों, कहानियों और कविताओं द्वारा हिंदी साहित्य में आया. महाराष्ट्र और केरल में इसकी तेज़ आवाज़ उठी और बृहद स्तर पर काम भी हुआ. पश्चिम का अनुकरण करते हुए हिंदी बेल्ट में दिल्ली जैसे शहरों में स्त्रीयाँ झंडे लेकर सड़क पर निकल तो पड़ीं थी परंतु इसका असर कुछ नारेबाजी जैसा ही रहा. यद्यपि रमणिका गुप्ता, मैत्रेयी पुष्पा और चित्रा मुद्गल जैसी मुट्ठीभर कुछ लेखिकाएँ ऐसी अपवाद हैं जो आज भी मुक्ति संगठनों के साथ काम करते हुए स्त्री और दलित विमर्श को लेकर उत्कृष्ट लेखन कर रही हैं. भारत जैसे आदर्शवादी देश में वैचारिक क्रांति के रूप में शब्दों की जुगाली अधिक हुई, काम बहुत कम हुआ.

इस संदर्भ में चिंतक, आलोचक और कथाकार रोहिणी अग्रवाल के कुछ वाक्य उद्धृत करना चाहुँगी, भारतीय हिंदी साहित्य में "स्त्री विमर्श, स्त्री प्रश्नों पर एक अविराम बहस का आयोजन है. चूँकि स्त्री स्वयं सर्जक हुई है, इसलिए परंपरागत छवियों को छिन्न-भिन्न कर वह अपने अंतस के सत्य को स्वयं कह पाने में समर्थ हुई है. स्त्री विमर्श हर संवेदनशील प्राणी द्वारा अपनी मानवीय स्मिता की तलाशने की एक क्रमिक प्रक्रिया है जो स्त्री पुरुष दोनों को रुढ़ छवियो में सीमित (रिड्यूस) कर देने वाली पितृसत्तात्मक व्यवस्था के षड़यंत्रों से अपने अनुभवों, संघर्षों और संकल्पों के साथ टकराता है. ज़ाहिर है ज़रूरतों के मुताबिक अपने सैद्धांतिकी भी वह स्वयं गढ़ता है. बाज़ार में बिकाउ, रेडीमेड पैकेज की दलाली उसका (स्त्री लेखन) लक्ष्य नहीं है."       

कल्पना पंत-  आज 21वीं सदी में भी स्त्री आत्म निर्भर होने के बाबावजूद आत्मनिर्णय लेने की स्थिति में नहीं पहुँच पाई है. इसका मूल कारण क्या है?
उषा राजे सक्सेना-  भारतीय मूल की महिलाएँ उच्च शिक्षा और आर्थिक स्वालंबन के बाद भी मानसिक दासता ( slave mentality-) से उबर नहीं पाती है क्योंकि उनकी शिक्षा आज भी पितृसत्ता और सामती संस्कृति के नियमानुकूल हो रही है. अकादमिक शिक्षा देने के बावजूद शिक्षण ससंस्थाएँ छात्रों के अंदर निरंतर डरऔर लज्जा की हीन भावनाएँ पैठाती है. अतः वे सामना (confrontation) करने और बड़े निर्णय लेने से घबराती हैं. स्त्रियाँ समर्थ होते हुए भी मुक्त नहीं हैं. समाज के भय से पितृसत्ता द्वारा निर्मित लज्जाके हीन भावना (स्त्री होने के अपराध की भावना..  इन्फिरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स) से ग्रसित है. स्त्रियाँ आज भी पितृसत्ता के कारण अपनी शर्तों पर जी पाने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं.. डॉक्टर, वकील, प्रोफेसर, और व्यापारी लड़कियाँ भी घर और समाज में मानसिक संत्रास के साथ यौन और शारीरिक हिंसा की यातना भुगतती है. उनका आत्मबल आमतौर पर शारीरिक अत्याचार और मानसिक संत्रास से तोड़ा जाता है. समाज और परिवार में स्त्रियों के द्वारा किए गए महत्वपूर्ण कार्यों एवं दिए गए आर्थिक संबल को अनदेखा कर उसे महत्वहीन और तुक्ष प्रमाणित करने की प्रक्रिया आज भी जारी है.
कल्पना पंत-  दलित स्त्री और सवर्ण स्त्री का जीवन संघर्ष क्या एक जैसा है? उसमें कितनी समानता या विभेद है?

उषा राजे सक्सेना-  पितृसत्ता और सामंती संस्कृति दोनों ही स्त्री को मनुष्य नहीं वस्तु और देह मानते है. सवर्ण और दलित दोनों ही समाज में स्त्री, पुरुष की संपत्ति है. वह आमोद की वस्तु है उसकी देह क्रीड़ा स्थली है. वह व्यापार की वस्तु है. उसके देह को नीलाम किया जा सकता है. पितृसत्ता के लाभ के लिए उसका आदान प्रदान होता है. हार-जीत के लिए उसे दाँव पर लगाया जाता है, उसका व्यापार किया जाता है, मोक्ष और पुण्य के लिए उसे दान (कन्यादान) में दिया जाता है, वह अर्द्धांगिनी है इसलिए पति के मृत्यु पर उसे जीवित अग्नि में जलाया जाता है. वह संपत्ति है उसका बटवारा होता है, परंतु चल-अचल संपत्ति में कानून के बन जाने के बावजूद भी पितृसत्ता उसे संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं देती है. भारत के बृहद समाज में आज भी स्त्री का कोई वजूद नहीं है, अस्मिता नहीं है, उसकी कोई जाति नहीं है, वह स्थांतरित होती रहती है और मान सम्मान के लिए उसकी honour killing  भी होती है.

सनातन काल से सत्ता पुरुषों के हाथ रही और स्त्री देह के रूप में उसकी संपत्ति रही है. स्त्री शोषण का मुख्य कारण देह है जो दलित और सवर्ण दोनों के पास एक जैसा है. दोनों पर शारीरिक हिंसा, यौन हिंसा,  (बलात्कार) मानसिक संत्रास, देह को लेकर एक जैसा ही होता है. दलितों में शारीरिक अत्याचार अधिक है तो सवर्णों में मानसिक अत्याचार अधिक है. 

कल्पना पंत- विमर्श की तमाम बौधिक बहस के बीच ग्रामीण स्त्रियाँ, आदिवासी स्त्रियाँ और मुस्लिम स्त्रियाँ क्यों फिट नहीं बैठ पा रही है? इस पर आप क्या कहेंगी? इस स्थिति के सुधार हेतु क्या उपाय किए जा सकते हैं?
उषा राजे सक्सेना-  21वीं सदी में होते हुए भी भारतीय समाज विभिन्न सदियों, विभिन्न स्तरों, बटी हुई जातियों और संस्कृतियों में जी रहा है. एक ओर जहाँ महानगरों की धनी बस्तियाँ 21वीं सदी में जी रही हैं तो वही छोटे शहरों, कस्बों, गाँवों और जंगलों में रहने वाली जातियाँ प्रजातियाँ 19वीं (यू.पी, विहार) और 16वीं (बस्तर आदि में भूमिगत रहनेवाले आदिवासी) और आदि काल में जीवन यापन कर रहे है.
इन स्थितियों के सुधार के लिए जंग लगी भेद-भाव की रूढ़ियों तोड़ कर स्वस्थ्य, समान अवसर वाली इमांदार विकासशील शिक्षा और सुधारवादी परंपराओं के साथ सही अर्थ व्यवस्था की आवश्यकता है. महानगर और उससे जुड़े शहरों में वैचारिक क्रांति के बीज तो अंकुरित होने लगे है परंतु आंदोलन और सुगठित क्रांति की तीव्र आवश्यकता है. भारत जैसे पुरातनपंथी, पुरुषवर्चस्व और दोहरी मानसिकतावाले देश के विकास कछुए की चाल से होती है.  

कल्पना पंत-  आजकल स्त्री विमर्श संदर्भ में यह भी कहा जाने लगा है कि यह देहवादी विमर्श बन कर रह गया है. और यह भी कि स्त्री लेखिकाएँ मात्र यौन मुक्तता की ही बात कर रही हैं. आप इस संदर्भ में क्या कहना चाहेंगी?

उषा राजे सक्सेना-  स्त्री विमर्श को भारत में स्त्रीवादी विमर्श के रूप में लिया जाता है. आज भारतीय परिवेश में, स्त्री विमर्श, विमेन लिबरेशन का परिष्कृत रूप है. यह स्त्रीवादी विमर्श स्त्री-पुरुष संबंध, घरेलू संघर्ष, लैंगिक अन्याय, वैचारिक स्वतंत्रता, कानूनी संबंधो, सांस्कृतिक प्रथाओं और लैंगिक समानताओं से संबंधित है.

स्त्री लेखिकाओं ने स्त्रीवादी विमर्श के विषयों का चुनाव, फैशनपरस्ती या सस्ती लोकप्रियता के लिए नहीं बल्कि नारी के द्वंद्वगत स्थिति तथा स्त्री मानस ग्रंथियों को पर्त दर पर्त खोलने की कोशिश में किया है. इस प्रक्रिया में देह को लेकर परंपरागत मान्यताओं और वर्जनाओं से भी उन्होंने कड़ी टक्कर ली है. विडंबना यह रही है कि अपनी ज़मीन छिनते देख कर प्रगतिशील पुरुष ने इसे देह विमर्श का नाम दिया ताकि इसे मनोरंजन, उपहास और व्यंग्य का विषय बनाया जा सके. यह जेनुइन स्त्री लेखन की सबलता को तोड़ने की साज़िश है. आज की प्रगतिशील कहानियों में स्त्री की पारंपरिक छवि से भिन्न एक नई छवि उभरकर आती है जो इंटेलिजेंट है, स्वतंत्र व्यक्तित्व रखती है जिसमें निर्णय लेने और फिर उसे कार्यान्वित करने के साथ उत्तरदायित्व का बोध भी है. इस संदर्भ में मेरी कहानी ऑंटोप्रेन्योर- हँस- जुलाई 2013 पढ़ी जानी चाहिए. आज की विकासशील महिलाएँ, रोने के बजाए संघर्ष करना उचित समझती है. इसी संदर्भ में ऐटलांटिक पत्रिका की संपादक का कहना है, आज के युग में स्त्रियाँ उत्कृष्ट होती जा रही हैं, पुरुष पिछड़ रहे हैं. उधर ब्रिटेन की हन्ना रोशिन कहतीं हैं, आज पुरुष को एहसास हो रहा है कि जेंडर का इश्यू पुरुषों के लिए मुसीबत खड़ा कर रहा है. परिवारों की आय में स्त्रियों का योगदान पुरुषों की अपेक्षा अधिक है. मिस रोशिन या हन्ना यह बात हवा में नहीं कर रहीं हैं उन्होंने यूरोप और अमेरिकन देशों के बदलते परिवेश की स्टडी करने के बाद ही यह यह स्टेटमेंट दिया. स्त्रियाँ अपना महत्व समझ रही है. वे अपने जीवन के फैसले स्वयं कर रही हैं. अपने भविष्य (भाग्य) की जिम्मेदारी ले रही हैं.  इसलिए आज के लेखन में नारी चरित्र मात्र एक देह या वस्तु नहीं है बल्कि आत्मबोध से युक्त एक इंटेलिजेन्ट उत्तरदायित्व से पूर्ण मानवी है जो गल्तियाँ कर उसे सुधार सकती है. 
 
कल्पना पंत-  हिंदी साहित्य के लंबे परिपेक्ष्य पर यदि दृष्टिपात किया जाए तो स्त्रियों की गहन चुप्पी दीर्घकाल तक बनी रही. भक्तिकाल में आकर मीरा और आधुनिक काल में महादेवी वर्मा ने धीरे धीरे इस चुप्पी को तोड़ा. इतने लंबे समय तक स्त्रियों की इस चुप्पी का आखिर क्या कारण था?

उषा राजे सक्सेना- स्त्री शिक्षा के अभाव के कारण सदियों से लेखनी पुरुषों के हाथ रही. हिंदी साहित्य में नारी विमर्श जैसा कोई सचेत ट्रेंड नहीं रहा. देखा जाए तो रीतिकाल में स्त्री मात्र भोग की वस्तु रही. भक्ति काल में मीराबाई ताड़न की अधिकारी रही, भारतेंदु युग में नारी ममतामयी समपर्ण की देवी रही, द्विवेदी युग में पुरुष लेखकों द्वारा स्त्री त्याग के साथ दायित्व, भावुक समर्पण और देवित्व के भाव से महिमा मंडित होती रही साथ ही उस युग में जो स्त्री लेखन हुआ वह कहीं भी रेखांकित नहीं हुआ. 1942 मे प्रकाशित महादेवी वर्मा की श्रंखला की कड़ियाँ से आगे चल कर स्त्रीवादी लेखन की नींव पड़ी जिसमें शोषण की पीड़ा के साथ स्त्री अस्मिता की भी अभिव्यक्ति हुई. महादेवी के समकालीन पुरुष लेखकों में प्रेमचँद, जैनेन्द्र, यशपाल, अज्ञेय ने स्त्री अस्मिता को अपने दृष्टिकोण से अभिव्यक्त किया.

20वीं  सदी के उत्तरार्ध में जैसे ही महिलाओं के हाथ में लेखनी आई, स्त्री ने अपने लेखन के द्वारा साहित्य में पुरुष रचित स्त्री छवि पर प्रश्न उठाने आरंभ कर दिए. आठवें-नवें दशक में मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, मृदुला गर्ग, पुष्पा मैत्रेयी, नासिरा शर्मा, प्रभा खेतान, कात्यानी, कुसुम अंसल, अलका सरावगी, सुधा अरोड़ा, रोहिणी अग्रवाल, अनामिका आदि अनेक लेखिकाओं ने नारी विमर्श पर सशक्त लेखन कर एक नया ट्रेंड स्थापित किया. बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में विरोध और विद्रोह के स्वर को प्रमुखता मिली. आज 21वीं सदी में, मनीषा कुलश्रेष्ठ, पंखुरी सिन्हा, नीलाक्षी सिंह, अल्पना मिश्र, जया जादवानी आदि आज के कारपोरेट जगत और मीडिया में काम करती महिलाओं की आधुनिक और बोल्ड छवि प्रस्तुत कर रही है साथ ही विदेशों में लेखन कर रही सुषम बेदी, दिव्या माथुर, सुधा ढींगरा, अनिल प्रभा, कादंबरी मेहरा उषा वर्मा, कविता वाचक्कनवीं  तथा स्वयं मैंने अपनी कहानियों में स्त्री के पारंपरिक छवि को तोड़ नई भूमि तलाशी है. 

कल्पना पंत-  भारत के स्त्री लेखन पर पश्चिम के स्त्री लेखन एवं विभिन्न भारतीय भाषाओं का विशेषरूप से मराठी स्त्री लेखन का विशेष प्रभाव रहा. इस संदर्भ में आपकी क्या राय है?

उषा राजे सक्सेना-  अमेरिका और इंग्लैंण्ड में आए 1920 का स्त्री मुक्ति आंदोलन विमेन लिबरेशन औरफेमिनिस्ट मूवमेंट नारीवाद या  नारी मुक्ति के नाम से भारत मे चर्चा का विषय आरंभ में  अवश्य रहा किंतु वह हमारे पुरातनपंथी और आदर्शवादी समाज में मुख्यतः घृणा और उपहास के केंद्र में  रहा. स्त्रियाँ भी आरंभ में समाज और परिवार के भय कारण मुक्त हो कर अपनी बात नहीं लिख सकीं. अमेरिका में यह आंदोलन स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों, (मतदान, समान वेतन, समान विधेयक, पारिवारिक श्रम, अत्याचारी सांस्कृतिक प्रथाओं, मूलभूत लैंगिक समानता,) के मुद्दों को लेकर उठा. यह मुक्ति आंदोलन सीमोन द वोउआ, फायर स्टोन, जर्मेन ग्रीयर, तथा जे मिलेट जैसे विचारकों की देन रही है. जिसकी लहर ब्रिटेन और यूरोप तक पहुँची. भारतीय महाद्वीप ने इस आंदोलन की खिल्ली उड़ाई. भारतीय पुरुषवर्चस्ववादी समाज आतंकित हुआ और स्त्री समाज हल्की सुगबुगाहट के साथ उद्वेलित हुआ. मुंशी प्रेमचंद ने प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की. कुछ पुरुष लेखकों ने इसे अपने दृष्टिकोंण से स्त्री विमर्श के रूप में अपनी रचनाओं में अभिव्यक्ति दी. गंभीर लेखकों को छोड़ स्त्री विमर्श अधिकांशतः पुरुषों का कौतुहलपूर्ण मनोरंजक विषय और भारतीय समाज एवं राजनीति में स्त्री विमर्श मात्र राजनीति, अर्थ व्यवस्था, उच्च शिक्षा, और विमेन्स वेलफेयर और संस्कृति में ऊपरी सतह तक ही सीमित रहा.

महाराष्ट्र (सावित्री फुल्ले), बंगाल (आशा पूर्णदेवी- स्वर्णलता) और केरल में स्त्री विमर्श की वैचारिक क्रांति के साथ जन जीवन में भी आंदोलन आया. एक बड़े स्तर पर समाज में रचनात्मक कार्य हुआ. हर मुहल्ले में हर स्तर पर बिना भेद भाव के संस्थाएँ और संगठन बने. सवर्ण और दलित लेखिकाएँ इन संगठनों से जुड़ी उन्होंने संघ बनाएँ और कामकाजी महिलाओं के साथ जुड़कर उनके हित के लिए लैंगिक अन्याय और बराबरी (जातिगत असमानताएँ) की लड़ाइयाँ लड़ने के साथ ही उनका इतिहास भी रचा. महाराष्ट्र में लेखन के साथ प्रैक्टिकल रचनात्मक कार्य भी किया गया जबकि हिंदी बेल्ट में नारेबाजी के साथ वैचारिक क्रांति (लेखन) अधिक हुआ. प्रैक्टिकल कार्य बहुत कम हुआ. हिंदी बेल्ट आज भी  पितृसत्तात्मक और सामंतवादी संस्कृति की जकड़ में है.

कल्पना पंत-  बाज़ारवाद के दौर में स्त्री एक नए प्रकार के शोषण का शिकार हुई है. विज्ञापन, फिल्मों और मीडिया की इस संदर्भ में स्त्री की भूमिका को आप किस तरह देखती है?

उषा राजे सक्सेना-  बाज़ारवाद के इस दौर में स्त्री की छवि ग्लैमराइज्ड हुई है. पूँजीपतियों के हाथ वह एक नए प्रकार के देह शोषण की शिकार होती हुई नज़र आती है किंतु इन सबके बीच उसने कई क्षेत्रों में अपनी बौधिकता का लोहा भी मनवाया है. आज राजनीति, एकेडेमिक, विज्ञान और व्यापार के क्षेत्र में स्त्रियों के रोलमाँडल, इंदिरा गाँधी, सुषमा स्वराज, सावित्री फुल्ले, चित्रा मुद्गल, कल्पना चावला, शबाना आज़मी, प्रभा खेतान, चँदा कोचर (आई. सी.सी. आई बैंक) वन्दना सक्सेना पोरिया (चेयर ब्रिटिश बिज़नेस ग्रूप) मिर्जा सानिया जैसी सैकड़ों ऐसे व्यक्तित्व हैं जो नई पीढ़ी को प्रेरित और पुरानी पीढ़ी को आशांवित करता है.

विकास का यह संक्रमणकाल है. भारत अभी रैडिकल परिवर्तनों के लिए तैयार नहीं है. शिक्षण नीतियाँ और शिक्षण संस्थान अभी भी पितृसत्तात्मक शक्तियों और नीतियों के आधीन है. छात्रों को अकादमिक शिक्षा तो मिल रही है किंतु उनकी मानसिक दासताएँ, कुँठाएँ और जकड़न वहीं की वहीं है. पुत्रों को पुरुषवर्चस्ववादी, सामंतवादी शिक्षा और पुत्रियों को दबने, नर्म और आधीन रहने की शिक्षा अभी भी शैक्षिक संस्थानों में दी जा रही है. स्त्रियों की बौधिकता, साहस और निर्भयता को भारतीय समाज अभी भी स्वीकार नहीं कर पा रहा है. पुरुष व्यक्तिगत और सामाजिकरूप से स्त्रियों के शासन और स्वामित्व में काम करने में अपना अपमान  समझ उसे यौन, बलात्कार और हिंसा से प्रताड़ित करता है. आज भी निर्भीक और बौधिक स्त्रियों की निम्नकोटि की आलोचना कर उसे अपमानित, पद्च्यूत और अनदेखा करने का प्रयास जारी है.  

कल्पना पंत-  वैश्विक परिदृश्य में भारतीय स्त्रियों की स्थिति को लेकर आप क्या कहेंगी?

उषा राजे सक्सेना- वैश्विक परिदृश्य में भारतीय स्त्री की छवि अभी भी संकोची, लज्जाशील और पिछड़ी हुई स्त्री के रूप में है. मुट्ठी भर प्रगतिशील अथवा शिखर पर पहुँची महिलाएँ संपूर्ण भारत का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती है. भारत की कर्मिक महिलाओं में वह स्वतंत्र सोच, आत्मबल, निडरता, और निर्णय लेने की प्रवृति नहीं विकसित हो पाई है जो पश्चिम की स्त्रियों में अब जन्मजात गुण बन चुकी है..

जब पश्चिम के औद्यौगिकी समाज में पुरुष और नारी के बीच का समीकरण बदला तो औरत और मर्द के बीच समानता की अवधारणा कस कर उभरी. लिंग आधारित श्रम विभाजन पर ढेरों धारदार प्रश्न उठने लगें. स्त्री और पुरुष का संपर्क पूरक होने के बजाए योगात्मक होने लगा. स्त्री शिक्षा का प्रादुर्भाव हुआ. स्त्रियों का कर्मक्षेत्र बदला वे घर की चाहरदीवारी से बाहर भी प्रतिष्ठित होने लगी फिर पारस्परिक निर्भरशीलता की बाध्यता में कमी आई.

यहाँ रेखांकित करना चाहुँगी, औद्यौगिकी समाज में प्रौद्यौगिकी आधारित समाज के संक्रमण से 19वीं सदी के उत्तरार्ध में जो वांछनीय क्रांति आई वह विशेषकर रसोई गैस और गर्भनिरोधक उपकरणों से आई.

गैस ने स्त्री के शारीरिक श्रम को कम कर, घर की व्यवस्था को सहज और सुगम और कुशल बनाया तो गर्भनिरोधक उपकरण ने उसे उसके अनियमित एवं अनियंत्रित प्रसव चक्र और अवांछनीय लज्जा से काफी हद तक मुक्त किया. इन दो प्रौद्धौगिकी ने औरतों को अपनी दशा और दिशा पर ध्यान दे पाने के लिए समय, सुविधा एवं अवसर की उपलब्दधता दी और साथ में मिली उसे शिक्षित होने के लिए समय और सुविधा. वह ऊर्जावान हो उठी. इन दो प्रमुख अविष्कारों के कारण 50 हज़ार सालों से स्थापित पुरुष और सामंतवादी तंत्र को स्त्रियों ने सहज ही चुनौती दे डाली.      


कल्पना पंत-   आज स्त्री को मुख्यतः किन समस्याओं से मुक्ति चाहिए? स्त्री मुक्ति के तहत सबसे ज्वलंत प्रश्न कौन से है ?

उषा राजे सक्सेना-  स्त्री को सबसे पहले सदियों से मिली मानसिक दासता से मुक्ति चाहिए जो मात्र अकादेमिक शिक्षा और आर्थिक स्वालंबन से नहीं आ पा रही है. इसके लिए पितृ सत्तात्मक समाज और सामंती प्रथाओं का बहिष्कार कर, जेंडर की संकीर्णता से दूर कर एक स्वस्थ्य समाज का ढांचा तैयार करना होगा जिसमें स्त्री पुरुष दोनों का दायित्व व दर्ज़ा योग्यता के अनुसार घर और बाहर हर क्षेत्र में समान हो.....

कल्पना पंत-  समकालीन स्त्री लेखन पर आपके क्या विचार हैं? आप इसे किस रूप में देखती है?

उषा राजे सक्सेना-  समकालीन हिंदी साहित्य संभावनाओं से भरपूर है. महिला लेखकों की नई पीढ़ी के अनुभव का क्षेत्र विविध और विस्तृत, समकालीन, बौधिक, और बोल्ड है. आज के समकालीन स्त्री लेखन में स्त्री के पारंपरिक छवि से भिन्न एक नई उन्मुक्त, स्वतंत्र, आत्मविश्वास से युक्त वाकपट्टु किशोरियों और महिलाओं की छवि उभर कर आ रही है जो इंटेलिजेंट, स्वतंत्र, कूटनीतिक और महत्वकांक्षी व्यक्तित्व रखती है जिनमें निर्णय लेने और फिर उसे कार्यान्वित करने की क्षमता के साथ उत्तरदायित्व का बोध भी है. वह रोने के बजाए संघर्ष करने और विषम परिस्थितियों में विकल्प खोजने को अधिक युक्ति संगत समझती है. आज के महिला लेखन में, भूमंडलीकरण, उदारीकरण, राजनीति, क्रांति, इतिहास, ज्ञान-विज्ञान, युद्ध, कारपोरेट जगत, देश विदेश में हो रही उथलपुथल गहन अध्यन के साथ उभर कर आ रही है. संक्षेप में स्त्रियाँ उन विषयों पर भी कलम चला रही है जो अभी तक मात्र पुरुषों के अनुभव क्षेत्र थे. 

कल्पना पंत-  आजकल आप क्या लिख रही है.
उषाराजे सक्सेना -आज कल मै अपने नए कथा संग्रह ऑटोप्रेन्योर और अधूरे उपन्यास बैक पैकर को पूरा करने में संलग्न हूँ.


-0-0-0-
                                                  (वेस्टमिनिस्टर ब्रिज पर)

 उषा राजे सक्सेना
गोरखपुर (उ.प्र.) में जन्मः22 नवंबर 1943 को जन्मी उषा राजे सक्सेना ने गोरखपुर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में स्नाकोत्तर किया, ई.एस.एल- लंदन- यू.के.
ब्रिटेन में आगमनः 1967

प्रतिष्ठित कथाकार उषा राजे सक्सेना दशकों से, कहानियों के साथ-साथकविताओं, ग़ज़लो, निबंधों एवं समकालीन रपटों के लिए भी चर्चित हैं। उषा जी महज़ एक कहानीकार नहीं, प्रवासी साहित्य को उदात्त उँचाइयों तक ले जानेवाली एक आंदोलनकारी कार्यकर्ता हैं जिनमें अपने को रेशा-रेशा अभिव्यक्त करने की पारदर्शिता है लीक से हट कर.....वे एक ऐसी एक्सप्लोरर कहानीकार हैं जिन्हें पढ़ना दो संस्कृतियों के आपसी सामंजस्य के बाद की उदात्त मानवीय अनुभूति से आप्लावित होना है। उषा जी की रचनाओं का मूल स्त्रोत ब्रिटेन भूमि पर बसे भारतियों की विडंबनाओं और उनकी बदलती मानसिकताओं की अभिव्यक्ति है।

यू.के की प्रसिद्ध हिंदी पत्रिकापुरवाईकी सह-संपादिका, यू.के हिंदी समिति की उपाध्यक्ष, साउथ लंदन विमेंस गिल्ड ऑफ हिंदी राइटर्स की संस्थापक-संरक्षक उषाराजे सक्सेना यू.के में होनेवाले लगभग सभी राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक कार्यक्रमों की धूरी रही हैं।

आपकी कविताएँ ओसाका विश्वविद्यालय- जापान के पाठ्यक्रम में सम्मिलित है। पुस्तक मिट्टी की सुगंध,एवं वाकिंग पार्टनरपर कुरुक्षेत्र और महिर्षि दयानंद विश्वविद्यलय- रोहतक के छात्रों ने एम.फिल किया। कहानी वह रात मेरठ के चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय और कहानी संग्रह वह रात और अन्य कहानियाँ महिर्षि दयानंद विश्वविद्यालय- रोहतक के पाठ्यक्रम में सम्मिलित है। आपकी  कहानियों का अनुवाद पंजाबी, गुजराती, तमिल और अँग्रेज़ी में हो चुकी है। प्रसिद्ध गायिका मिथिलेश तिवारी ने आपकी ग़ज़लों को धुन में बाँध कर, कोई संदेसा न आयाके नाम से सी.डी को दिल्ली के अक्षरम संस्था के कार्यक्रम में लॉच किया।  
सम्मान एवं पुरस्कारःकहानी विरासत युवा लेखन पुरस्कार-1962, नॉट सो साइलेंट- 1995यू.के लब्द्धप्रतिष्ठित महिला सम्मान।

विदेशों में हिंदी साहित्य-सेवा- प्रचारप्रसार सम्मान उत्तर-प्रदेश, हिंदी-संस्थान- लखनऊ-2004, बाबू गुलाब राय-पुरस्कार, ताज-महोत्सव- आगरा, डॉ. हरिवंश राय बच्चन पुरस्कार- भारतीय उच्चायोग- लंदन. चेतना साहित्य परिषद सम्मान- लखनऊ, एवं महिला लेखिका संघ- लखनऊ, बरेली, भोपाल, एवं अन्य

प्रकाशित कृतियाः1.इंद्रधनुष की तलाश में ( कविता संग्रह, रस वर्षा सम्मान- बनारस)- 2.विश्वास की रजत सीपियाँ(कविता संग्रह) 3.क्या फिर वही होगा- (कविता संग्रह)4. प्रवास में, (कहानी संग्रह) 5.वाकिंग पार्टनर’ (कहानी संग्रह- पद्मानंद साहित्य सम्मान-कथा यू.के.)6.वह रात और अन्य कहानियाँ-कहानी संग्रह, 7.ब्रिटेन में हिंदी- (प्रवासी सम्मान-मध्यप्रदेश।)8.मिट्टी की सुगंध- कहानी संग्रह, संपादन।9.देशांतर काव्य संग्रह- संपादन. 10. Deepak the Basket man- Children’s Book 4 Pt,तथा 11.Translation of borough of Merton’s Syllabus
कहानी क्लिक का टैली-फिल्म, मुंबई दूरदर्शन,इंडियन क्लैसिकल श्रंखला में सम्मिलित।

संप्रतिः शिक्षक अवकाशप्राप्त, स्वतंत्र-लेखन।
संपर्क-
54. Hill Road, Mitcham, Surrey.
CR4 2HQ. UK
ई-मेलःusharajesaxena@gmail.com
दूरभाषः 00 44 208 640 8328           
मोबाइलः 00 44 7871582399
भारत:00 91 9960260771
 -0-0-0-


कल्पना पंत : हैदराबाद विश्वविद्यालय में स्त्री लेखन से जुड़े विषयों पर शोधरत कल्पना पंत की उषा राजे सक्सेना सेबातचीत.  कल्पना पंत के स्त्री सरोकार से संबंधित कई शोधपूर्ण आलेख समकालीन भारतीय साहित्य, कथाक्रम, संवाद, समकालीन जनमत, मीडिया विमर्श, पंचशील, शोध, समीक्षा, इस्पातिका, नागफनी, आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं.

3 टिप्‍पणियां:

धर्मेन्द्र कुमार सिंह ने कहा…

इस अंक में प्रस्तुत सुधा अरोड़ा जी के आलेख 'साहित्य के बाज़ार में पुरूष विमर्श का नया झुनझुना',उषा राजे सक्सेना की कहानी 'मेरा अपराध !' एवं उषा राजे सक्सेना का कल्पना पंत के द्वारा लिया गया साक्षात्कार प्रसंशनीय है.स्त्री-लेखन से जुड़े साक्षात्कार उन कई सारे मुद्दों का समाधान प्रस्तुत करता है जिसको लेकर प्रायः पाठक या शोधार्थी परेशान रहता है.

ashok andrey ने कहा…

वातायन में सुधा जी का आलेख बहुत ही गंभीर विषय को केंद्र में रख कर प्रस्तुत किया है तथा हमें सोचने के लिए मजबूर करता है.सदियों से नारी जाति को और उसकी सोच को दबाया गया. उसको प्रताड़ित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी.कई बार इसके लिए घर की बड़ी-बूढीयाँ भी जिम्मेदार रही है.यह एक गंभीर सच्चाई है जिसे हम नकार नहीं सकते.इसके इतर पुरुष समाज इससे पल्ला झाड़ता रहा है.
उषा राजे की कहानी भी प्रभावित करती है तथा उनसे लिए गये साक्षात्कार में कल्पना पंत ने बहुत अच्छे सवाल उठाये हैं जिन पर उषा जी ने सटीक उत्तर दिए हैं.उनकी रचना प्रक्रिया के साथ अपने समय को समझने में पाठक को मदद मिलती है.

प्यार की कहानी ने कहा…

Ek Achhi Kahani Ka Prastutikaran Aapke Dwara. Thank You For Sharing.

प्यार की स्टोरी हिंदी में