अपनी बात
२०१३ का एक दिन. मौसम करवट ले
रहा था. गुलाबी ठंड कनखियों से निहारती जाने के लिए वापस मुड़ चुकी थी. दिन के लगभग
ग्यारह बजे का समय था. मोबाइल बजा. एक स्त्री आवाज, लेकिन साफ कुछ सुनाई दे रहा था.
मैं दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में था पत्नी की आंख के चेक अप के लिए. मैं
नाम भी नहीं सुन पाया, केवल इतना ही कहा कि मैं इस समय अस्पताल में हूं, घर पहुंचकर
फोन करूंगा.
घर पहुंचकर फोन किया. “मैं आरती”
हूं. उधर से आवाज आयी. परिचय नहीं था. उन्होंने परिचय दिया. अपनी पत्रिका ’समय के साखी’
का उल्लेख किया. पत्रिका के लिए अनुवाद मांगा. बताया कि ’हिन्दी समय’ में मेरे अनुवाद पढ़कर वह प्रभावित
हुई और ’समय के साखी’ के आगामी अंक के लिए कुछ चाहती हैं. मैंने हां कह दी. ’समय के
साखी’ तब तक मैंने देखी न थी. उन दिनों मैं लियो तोल्स्तोय
पर उनके परिवार जनों, मित्रों, लेखकों, रंगकर्मियों आदि के ३० संस्मरणों के अपने अनुवाद ’लियो तोल्स्तोय का अंतरंग संसार’ को अंतिम स्पर्श
दे रहा था (२०१४ में ’संवाद’ प्रकाशन से प्रकाशित). मैंने मैक्सिम गोर्की का लंबा
पत्र, जिसे तोल्स्तोय के संबन्ध में उन्होंने अपने एक मित्र को लिखा था, ’समय के साखी’
को भेज दिया. दो अंको में पत्र प्रकाशित हुआ. कई साहित्यकारों के फोन मुझे आए. आरती
जी ने भी बताया कि वह पत्र बेहद चर्चित हुआ था. उसके पश्चात पत्रिका नियमित मुझे मिलने
लगी. पत्रिका के सम्पादकीय आरती के अध्ययनशीलता और सम-सामयिक सरोकारों को रेखांकित
करते महत्वपूर्ण दस्तावेज होते हैं. एक संवेदनशील
कवयित्री के रूप में समकालीन काव्य जगत में उन्होंने अपनी एक पृथक पहचान बनायी है.
वातायन में आरती के तीन आलेख
प्रकाशित करते हुए मुझे प्रसन्नता हो रही है.
युवा कवयित्री और लेखिका आरती मिश्रा के तीन आलेख
असली व्यवस्था परिवर्तन की बात : परदे पर
एलिस वॉकर
की कविता ‘लोकतांत्रिक महिलावाद’ की कुछ पंक्तियाँ-
मैं एक
असली/व्यवस्था परिवर्तन की बात कर रही हूँ
जिसमें
औरतें/एक साथ उठें
इस धरती के
कमजोर और नाकाम जहाज का नियंत्रण अपने हाथों में लेने के लिए
एलिस की बात को संदर्भ से
जोड़ते हुए पहले प्रश्न की तरह देखें तो दो बिन्दु एक साथ उठेंगे, पहला- इस दुनियावी जहाज का एक चप्पू पिछली कई सदियों से ज़ंग खाया पड़ा है और
दूसरा कि उस ज़ंग को खुरचकर चमकदार बना पाने के पीछे की व्यवस्था का परिवर्तन होना
चाहिए। यहाँ ‘व्यक्ति’
नहीं ‘व्यवस्था’
की बात की जा रही है। वैसे पूरी दुनिया का यह एक मात्र
सुधारवादी बिन्दु है जहाँ प्रश्न,
संदर्भ,
विषय और निष्कर्ष सब गड्डमड्ड हो जाते हैं। अलग-अलग करना
बेहद जटिल होता है।
तो ऐसे पहलुओं पर आवाज़ें
उठती रही हैं। कुछ हद तक क्रांति के रूप में भी। कुछ माँगा गया। कुछ छीना गया
जबरिया। बहरहाल,
यहाँ मुख्य बिन्दु था कि साहित्य के मंचों से तो इस
व्यवस्था परिवर्तन और दुनिया की आधी आबादी को अपने अस्तित्व-अस्मिता के लिए सोचने, संघर्ष करने के रास्ते की ओर उँगली करके जब तब बताया जाता रहा है। थोड़ा परिवर्तन
देखने में आ भी रहा है। अपनी पहचान, नाम और अधिकारों को लेकर
वह ‘महिला’
(अभी ‘वाद’
पर चर्चा नहीं करते वरन् रुख ही परिवर्तित हो जाएगा) थोड़ी
लोकतांत्रिक हुई है। कमोबेश पिछले छ: दशकों में घटी घटनाएँ और बदलती तस्वीर ऐसा
दिखा पा रही हंै। लेकिन विडंबना कि हमारी बालीबुडिया फिल्मों की नायिका वहीं रही।
थोड़ा परिवर्तन हुआ तो बाज़ार ने बोल्ड सेे बोल्डतर कर दिया। अर्धनग्न से लगभग
नग्न दिखने लगी। देह प्रदर्शन का दौर जो राजकपूर की नायिकाओं से शुरू हुआ- वह ‘आइटम’
की पराकाष्ठा तक पहुँच चुका है।
प्रश्न यह कि क्या फिल्मों
का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन है? या करोड़ों-अरबों कमाना? सिनेमा भी एक रचनात्मक विधा है। उसकी भूमिका समाज के लिए साहित्य की तरह ही
होनी चाहिए। यहाँ दर्शक अपने समय की इबारतों को, घटनाओं
को देखने-समझने की इच्छा रखता है। यह मामला केवल ‘इंटरटेनमेंट, इंटरटेनमेंट और इंटरटेनमेंट’...
तक सीमित नहीं है। फिल्मों की भूमिका भी अपने समय के समाज
को विश्लेषित करने,
प्रश्नों को पूरी शिद्दत के साथ उठाने, जवाब खोज लाने के साथ साथ उसे दिग्दर्शित करने की भी होती है।
हमारी हिन्दी फिल्मों का
एक बड़ा हिस्सा देखने के बाद कई सवाल उठ खड़े होते हैं कि आखिर इनके बनने के पीछे
कौन सी मानसिकता काम करती है?
निर्देशक दर्शकों को क्या दिखाना चाहता है? विश्व क्लासिक में अपनी भूमिका को लेकर उसके पास क्या सोच है? यदि फिल्में केवल मनोरंजन नहीं तो फिर दर्शकों को सिनेमाघरों तक कौन सी चीज खींच
ले जाती है। ग्लैमर,
संगीत,
गीत,
पटकथा या तकनीक?
सफल और अच्छी फिल्मों के
बीच एक बहुत ही बारीक अंतर है। यश चौपड़ा बैनर की काल्पनिक रूमानियत से भरी
फिल्में,
दबंग और सन ऑफ सरदार जैसी फिल्में (एक सीमित समय के लिए)
सफलता की बहुमान्य परिभाषा को दोहराती हैं तो प्रश्न उठता है कि क्या फिल्में
वित्त और तकनीक के आधार पर ही सफल या असफल होती हैं। खासकर ऐसी फिल्मों के
करोड़पति क्लब दौड़ की परंपरा के बाद। लेकिन सौ वर्षों की हिन्दी फिल्मों का
इतिहास इस प्रश्न का उत्तर ‘ना’
में देता है। फिल्मों की सफलता सही अर्थों में उनकी गहरी
दृष्टि संवेदना और सरोकारों से तय होती है। अरसे बाद भी सत्यजीत रे, विमल राव,
श्याम बेनेगल, गोपाल कृष्णन, जॉन बरुआ की फिल्मों को याद किया जाना, उन्हें
सराहा जाना इस बात का पुख्ता प्रमाण है।
हिन्दी फिल्मों के सौ
सालों में से 95 साल बाहर निकालकर यहाँ केवल पिछले पाँच सालों का उल्लेख करना चाहूँगी। वैसे
भी शुरुआत के पाँच-छ: दशकों की फिल्मों की बातें तो प्राय: होती रहती हैं और 2014 में (हिन्दी सिनेमा के सौ वर्ष पूरे होने पर) साल भर लगातार उन तमाम चीजों का
दोहराव-तिहराव होता रहा।
पिछले पाँच सालों में कुछ ऐसी
फिल्में आई जिनमें ‘स्त्री’
अपनी अस्मिता के अहसास के साथ परदे पर उतरी। 2012 में
बनी ‘इंग्लिश विंग्लिश’
गौरी शिन्दे द्वारा निर्देशित फिल्म एक है। स्वयं गौरी
शिन्दे ने ही पटकथा लिखी। मध्यवर्ग की घरेलू महिला का फर्राटेदार अंग्रेजी न बोल
पाने,
पति बच्चों की सोसायटी में पिछड़ते जाने, घरेलू होने के अपमान को हर रोज, हर पल, नए नए जुमलों में सहने की अनकही वेदना का चित्राकार इस फिल्म ने किया है।
लेकिन यहाँ परदे पर जो स्त्री तस्वीर पेश की गई वह हर बार दुत्कारे जाने पर केवल
आँसू नहीं बहाती वरन् मौका मिलने पर दो स्थितियों के बीच की दूरी को तय करती है।
वह अंग्रेजी सीखकर,
बोलकर उन्हें अपने अपमान का अहसास कराती है। यहाँ कोई
क्रांति नहीं,
भाषणबाजी नहीं, जुमले-फिकरे नहीं फिर भी
दिमाग को मथ देने की क्षमता पटकथा और रूपांकन में है। फिल्म के माध्यम से सिनेमा
जगत की एक क्रांति जिसमें नायिका किसी भी प्रकार से ग्लैमर रहित है। मध्यमवर्गीय, अधेड़ उम्र की साधारण शक्लोसूरत वाली। यहाँ आकर्षण नायिका की खूबसूरती नहीं, मांसलता नहीं,
वस्त्राभूषण भी नहीं, उसकी
संवेदनाएँ हैं। पीड़ा है और उन सबका उपाय है।
यहाँ भाषा का चमत्कार और
संवाद नहीं मौन चित्र ही अनकहा कह सकने में समर्थ होते हैं। यहाँ नायक दंभ से आम
पति की तरह ही कहता है- ‘मेरी पत्नी लड्डू बनाने के लिए ही पैदा हुई है।’ जैसा
कि मान्यता रही है,
स्त्रियों का काम सेक्सपूर्ति, बच्चे
पैदा करने,
उन्हें पालने पोसने (लड्डू बनाने) से अधिक और कुछ नहीं।
महाकवि तुलसीदास ने भी तो ‘तीन ही गुन’
बताए हंै बाकी तो अवगुणों की खान है स्त्री। ऐसे में संवाद
बनकर आई फिल्म ‘इंग्लिश विंग्लिश’
आज भी सोशल सामंतवाद के आगे सिर झुकाए खड़े समाज के खंभों, छप्परों,
दीवारों को उस नींव के बारे में सोचने के लिए विवश करती है।
दूसरी कड़ी में है फिल्म ‘क्वीन’। अनुराग कश्यप ने बनाई और विकास बहल ने निर्देशित की है। पटकथा भी विकास बहस
ने ही लिखी। साधारण मध्यमवर्गीय परिवार की (अभिनेत्री कंगना रनौत) गलती न होने पर
भी ‘सॉरी’
बोलनेवाली लड़कियों में से एक है नायिका। नौकरी करके जो भी
अभी तक बचाया था,
उस बचत को खतम करके हनीमून के लिए टिकट और अन्य प्रबंध करती
है। उसका सपना है पेरिस जाना,
अपने हमदम के साथ ‘आयफा
टॉवर’
देखना।
इन कस्बाई लड़कियों के पास
ढेर सारे सपने होते हैं। और सपनों में जिंदा वे पूरा जीवन संघर्ष करके निकाल देती
हैं। एक सपना पूरा होने पर दूसरा देखती हैं और पूरा न हो तो वही सपने अगली पीढ़ी
के लिए देखने लगती हैं। ‘प्रेम’
भी इन्हीं छोटे-छोटे सपनों में से एक होता है, जिसकी कीमत भी उतनी ही बड़ी चुकानी पड़ती है। दरअसल वे यहाँ लडक़ी होने की कीमत
ही चुकाती हैं। फिल्म के एक दृश्य में वह हँसते हँसते अपनी दोस्त से कहती है- ‘इंडिया में तो लड़कियों को डकार लेना भी मना होता है।’ फिल्म
के दृश्य देखकर हँसी आती है कि कैसे वह अपनी थोड़े दिनों की स्वतंत्रता में
स्वतंत्र होने का आनंद लेती है। बड़ी-बड़ी डकारंे मारने की कोशिश करती है। लेकिन
दृश्य के साथ-साथ,
हर उस वर्ग की, गाँव, कस्बे की लडक़ी को याद आती हैं वे नसीहतें-अकेले बाहर मत जाना। छोटे भाई को साथ
ले लो (फिल्म में भी नायिका के साथ छोटा भाई हमेशा ही रहता है)। थोड़ा धीरे हँसो, धीरे चलो,
नीची नजरें करके? ऐसे अनगिनत वाक्य और
इन्हें सुनने की आदत इस वर्ग की लड़कियों को नोजरिंग, इयररिंग, चूड़ी अँगूठी की तरह ही हो जाती है। बहुत सी चीजें तो उन्हें बुरी भी नहीं
लगती। अपनी दासता की तरह। औरतों को दासता भोगने में आनन्द आता है? शायद सदियों की आदत उन्हें अहसास ही नहीं होने देती। बाकायदा वह शोषण का स्वाद
लेने लगती है। फै्रन्च उपन्यास ‘कहानी ओ की’
(पॉलाँ रीगे का लिखा) नायिका ‘ओ’ के सामने नायक ट्रे में बाकायदा करीने से रखे कोड़े, हंटर, चाबुक पेश करके पूछता है कि वह किसका ‘स्वाद’ लेना पसंद करेगी। और वह इधारे से बताती है। यह कहानियों के पीछे की कहानी है।
जो आत्मपीडऩ को आनन्द का नाम देने की भत्र्सना भी करती है। भारतीय समाज इसी
आत्मपीडऩ को त्याग का नाम देता है। सुख में पीछे और दुख में आगे खड़े होने का अभ्यास
इस ‘स्त्री’
सिस्टम के नस-नस में समाया है। सदियों की सुपर कंडीसनिंग
में सत्य का अहसास भी उसे त्रासद लगता है। वह स्वतंत्रता के खतरे उठाने के लिए भी
तैयार नहीं। ऐसी व्यवस्थाओं के बीच किसी लडक़ी के भीतर आत्मविश्वास कैसे आएगा।
लेकिन इस फिल्म की नायिका भोलेपन के साथ कोशिश करती है। अकेले हनीमून पर जाने
(शादी तोड़ देने पर) की जिद के साथ। अपने छोटे-छोटे काम करती है- जैसे सडक़ पार
करना,
होटल में पहली बार अकेले रात गुजारना। यह सब करते हुए वह
आत्मविश्वास जो बड़े-बड़े लेख पढऩे के बाद भी नहीं आता, वह
उसमें आता है। वापस लौटकर शिकायत का एक शब्द भी नहीं दुहराते हुए ‘सगाई की अँगूठी’
वापस कर देती है। उलाहनों के बिना, मुस्कुराते
हुए। डायलागबाजी कमजोरी की निशानी है। जब व्यक्ति में साहस और कुछ कर सकने की
क्षमता का उदय होता है तब वह बोलता कम, करता ज्यादा है। एक बात
ध्यान देने लायक है- इधर की फिल्मों में डायलॉग कम होते जा रहे हैं। वे मौन में
ज्यादा कह सकने में समर्थ हुई हैं। कुछ दिनों का आत्मविश्वास पूर्ण वातावरण एक
लडक़ी के दब्बूपने को आत्मविश्वास में बदल देता है। वस्तु का व्यक्ति में रूपांतरण
होता है। स्वतंत्रता की चेतना के एक बूँद की कहानी है यह फिल्म। और व्यवस्था
परिवर्तन का संकेत भी।
एक और फिल्म ‘एन एच-10’
पर कुछ बिन्दुओं को लेकर बात करना प्रासंगिक है। लीड
अभिनेत्री और निर्माता हैं अनुष्का शर्मा एवं फिल्म को निर्देशित किया है नवदीप
सिंह ने। यह क्राइम थ्रिलर फिल्म है जो ब्रिटिश फिल्म ‘इडेन
लेक’
2008 की याद दिलाती है। यहाँ मुख्य भूमिका में नायिका है। फिल्म
में स्त्री के प्रति समाज की मानसिकता-कि रात में बाहर निकलना, वह भी अकेली,
ड्राइविंग करना, जैसी बातें घटनाओं के जरिए
उजागर होती हैं। फिल्म खाप पंचायतों के अमानवीय कृत्यों, रक्त
संबंधों की शुद्धता जैसे बिन्दुओं को उभारकर सामने लाती है। कहानी के पीछे की
कहानी का विदू्रप चेहरा दिखा पाने में फिल्म एक हद तक सफल रही है। जबरन आ पड़ी
परिस्थितियों में साहस दिखाती,
दौड़ती भागती खुद की और पति की जान बचाने में जुटी नायिका।
आपराधिक कालीरात में साँस रोक रखनेवाले दृश्यों के बीच, नायिका
का नया रूप और आखिर में बदला,
बिल्कुल उसी तरह, विलेन की ही तर्ज में।
यहाँ अपराध का बदला आपराधिक कदम,
हत्या के बदले में हत्या जैसे प्रश्न उठते हैं? व्यवस्था जो व्यक्ति को पाशविक बनाती है उसका क्या होगा? वह तो वहीं रहीं?
जैसे प्रश्न फिल्म की नब्ज़ को कुरेदते हैं। लेकिन इन सबसे
अलग हटके,
फिल्म उस स्त्री विरोधी मानसिकता के भाषाई तेवर को बड़ी
शिद्दत से उठाती है। जो अमानवीय परिस्थितियों की जड़ में समायी है। स्त्री के
प्रति भाषा में अपमान,
उसकी हैसियत लैंगिक गालियाँ छोटे-छोटे शब्दों में तय करती
रहती है। यहाँ भाषा सबसे तेज धारदार हथियार होती है। वहाँ एक व्यक्ति दूसरे का
अपमान कर,
खुद सम्मान जैसा महसूस करता है।
कारपोरेट सेमिनार हाल से
लेकर रेलों,
बस अड्डों के टायलेटों पर स्त्री के लिए प्रयोग किए गए ‘शब्दों’
ने हमेशा दुर्गासप्तसती की धूलभरी तस्वीर को झाड़ पोंछकर
साफ किया है। स्त्री के लिए प्रयोग किए जाने वाले शब्द, मुहावरे, जुमले अपरोक्ष गालियाँ ही होती हैं। इस भाषा प्रयोग को हम गँवई और शहरी खांचों
में बाँटकर देख सकते हैं। शहरी-महानगरीय खाते में कुछ नए शब्द आएँगे जैसे कि- सेक्सी, मस्त
आइटम,
माल,
और देहात के हिस्से में आएंगी ठस और ठोस गालियाँ। फिल्म में
नायिका ढाबे के शौचालय में लिखे ‘रंडी’
शब्द को देखकर काँप जाती है। लेकिन अनदेखा करके आगे नहीं
निकलती वरन अपने रूमाल से पोंछकर साफ करती है। कहानी कमोबेश भाषा से कुछ ऐसे विकृत
शब्द मिटाने की पहल तो करती है। कठघरे में तो साहित्य भी कम नहीं। स्त्री के
सौंदर्य वर्णन में तो पूरे एक काल का प्रयोग किया गया। यहाँ बड़ी ही मधुर भाषा का
प्रयोग हुआ है। दूसरा चेहरा- लोक के नाम पर गालियों का महिमामंडन कर रहा है। क्या
कभी प्रयोगकर्ताओं ने सोचा कि वे लोक रिवायतों को नहीं लिंगीय, अहंवादी,
कुपढ़ और हिंसक मानसिकता को इसके बहाने पोस रहे हैं। कथाजगत
पिछले चालीस सालों में ऐसी भाषा की प्रयोगशाला रहा है। यहाँ प्रयोगिक का अर्थ
यथार्थवादी,
लोकोन्मुख बताया जाता है। पता नहीं प्रेमचंद की आँखों से
ऐसा यथार्थ कैसे छुपा रहा। न ही ‘रेणु’
किसी ऐसे अंचल का वर्णन कर पाए। जहाँ गालियों से एक दूसरे
का अभिवादन किया जाता रहा हो। भाषाविदों का कहना है कि भाषा उत्पादक गतिविधियों के
साथ ही मनुष्य के सारे क्रियाकलापों से जुड़ी होती है। यानी स्त्री के प्रति भाषा
का रवैया उसकी दोयम हैसियत को दर्ज करता है। गालियों के आईने में देखा जाय तो
हमारी भाषा का लिंग चरित्र ही बलात्कार, हिंसा की संस्कृतियों को
जन्म देता है। काश यहाँ स्त्री के दिमाग, हुनर के लिए भी कुछ शब्दों
का प्रयोग किया गया होता तो आज फास्ट ट्रैक अदालतों की आवश्यकता नहीं पड़ती।
पिछले आधे दशक की फिल्में
एक आशा की किरण जगाती हैं। जिनमें अभी हालिया आई ‘मसान’ प्रेम को महसूस कर सकने की हिम्मत जुटा पाई ‘हमारी
अधूरी कहानी’
की नायिका ‘हाइवे’,
‘जोर लगाके हईशा’, ‘लागा चुनती में दाग’, जैसी फिल्में हैं। यदि भारी व्यावसायिक दबावों, अंधी
प्रतियोगिता के बीच कुछ प्रश्नों को फलक पर खड़ा कर सकने की हिम्मत ये फिल्म के
बाद एक कर पा रही हैं तो निश्चय ही प्रशंसनीय है। हम सिनेजगत की नई आवाज़ों से
उम्मीद कर सकते हैं कि वे दृश्य पटल पर स्त्री के सम्मान में कुछ दृश्यों को जोड़
पाने में जरूर सफल होंगी। एक व्यक्ति की तरह का सम्मान। कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘ए लडक़ी’
की अम्मा की तरह।
अंत में...
प्रिय एलिस जी,
साहित्य में शायद पहली दफा
प्रयोग हुआ शब्द है ‘लोकतांत्रिक महिलावाद’। वादों के एक लंबे क्रम में यथा अध्यात्मवाद रहस्यवाद, दर्शनवाद,
अस्तित्ववाद, माक्र्सवाद भरे पूरे
वादभंडारों के बाद भी यह ‘वाद’
(महिलावाद,
नारीवाद) पूरे इतिहास को भडक़ा देने के लिए काफी है। तो क्या
लोकतंत्र शब्द उसे सही सही परिभाषित कर पाने में सक्षम होगा? इस महिलावाद (‘स्त्री अस्मिता’
के मामले) के संदर्भ में लोकतंत्र की भूमिका क्या एक ‘जुलोटा से कम’
है?
वह ‘जुलोट’
स्त्री का शोषण दूर खड़ा देखता है बाद में पुकारे जाने पर
सहारा देने आ खड़ा होता है। जब व्यवस्था ही नहीं बदल रही तो फिर चेहरे बदलने के
पीछे का तर्क?
ऐसे तंत्र या किसी और से भी क्या आशाएँ? वैसे भी पुरुषों के गढ़े शब्दों-चित्रों से धरती का कोना-कोना, भरा पड़ा है। वही अंतिम श्रेष्ठ है। तुम्हारे लिए भी (स्त्री) संवेदनशील
कविता-कहानी (तुमसे अधिक) उन्होंने कब का लिख दीं। अब तुम कूची-कलम लिए आँगन
बुहारो... और क्या....।
विकास बैंक की ई.एम.आई- याँ
क्या किसी बहुराष्ट्रीय
निवेशक कंपनी के मामले विदेश मंत्रालय के मामले होंगे? वे
विदेश नीति को प्रभावित करेंगे?
एनडीए के दौर में, अमेरिकी राजदूत राबर्ट ब्लैकविल ने प्रधानमंत्री के खास सलाहकार ब्रजेश मिश्रा
के सामने कोकाकोला की परेशानी को रखा। अमेरिकी चिंताओं को (कोकाकोला के प्रति)
जाहिर किया कि- सबसे बड़ी पूँजी निवेशक कंपनी की मदद सरकार को करनी चाहिए।
स्थानीय लोगों, पर्यावरणविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के खासे विरोध के बाद भी देश में 57 प्लांट कोकाकोला के लगाए जा चुके हैं। अभी 2011-12 में उत्तराखंड में देहरादून की विकासनगर तहसील के गाँव छबरा में 57वें प्लांट को मंजूरी मिली। यह 600 करोड़ रुपए का प्लांट है।
कंपनी ने दावा किया कि वह एक हजार लोगों को रोजगार देगी।
कुछ विरोध-दास्तानों पर एक
नजर-उत्तरप्रदेश में वाराणसी जिले के पास मेंहदीपुर में 1999 से
विरोध हो रहा है। जब प्लांट लगना शुरू हुआ था। अब कंपनी 50 हजार
घन मीटर से बढ़ाकर ढाई लाख घन मीटर पानी की माँग का प्रस्ताव सरकार से कर रही है।
केरल के प्लाचीमाडा प्लांट
में माइनिंग के अनुसार कोकाकोला कंपनी रोज 15 लाख
लीटर पानी निकालती थी। खेती और पारिस्थितिकी लगभग तबाह हो चुकी थी। लेकिन केरल का
इतिहास अन्य राज्यों से थोड़ा अलग है। हाईकोर्ट ने दखल दिया और कहा कि पानी न तो
कोकाकोला का है न ही सरकार का जो प्लांट लगाने की मंजूरी देती है। कंपनी ने भारी
मुआवजा दिया। प्लांट भी बंद हो गया।
लेकिन तब तक सब कुछ बर्बाद
हो चुका था। प्राकृतिक संसाधनों की लूट, 15 लाख लीटर पानी हर रोज
निकालना यानी धरती को खाली कर देना। इस कीमत पर हमारे देशवासी कोकाकोला और पेप्सी
के चार दर्जन से अधिक प्रोडक्ट इस्तेमाल करने के आदी होते जा रहे हैं। कुछ प्रतिशत
लोग अपने कंठों को तर कर रहे हैं और इन प्लांटों के आसपास रहनेवाले लोगों के कंठ
सूखते जा रहे हैं। ये स्थितियाँ पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु,
राजस्थान,
उत्तरप्रदेश सभी जगह समान हैं। सभी जगह स्थानीय लोगों और
स्वयंसेवियों द्वारा विरोध किया जाता है और कंपनी और उसकी हिमायती राज्य सरकारें, उन स्वरों को दबा देती हैं।
पानी की समस्या के साथ ही
इन प्लांटों से कई और नुकसान हैं। यहाँ से क्रोमियम, लैड, कैडमियम जैसे पदार्थों का तय सीमा से अधिक मात्रा में रिसाव होता है। कई
स्वतंत्र जाँचों और सेंटरग्राउंड वाटरबोर्ड (केन्द्र सरकार) के आंकड़े भी भू जल
दोहन और पारिस्थितिकी के सवालों को खड़ा करते हैं।
19वीं
सदी के अंत में अमेरिका के अटलांटा में सेवानिवृत्त फौजी जॉन पामबर्टन ने सिरदर्द
और थकान से निज़ात पाने के लिए एक दवा की खोज की- कोकाकोला सॉफ्टड्रिंक। यह पेय 1886 में बाजार में दवा के रूप में ही आया। यह वही प्रतीक वर्ष था जब अमेरिका के
न्यूयार्क में ‘स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी’
(स्वतंत्रता का प्रतीक) का निर्माण किया जा रहा था। एक और
प्रतीक तभी जॉन पामबर्टन ने रचा। 1956 में यह कंपनी भारत आई। उस
समय देश में विनिमय कानून नहीं था। तब उसके पास अपना सौ प्रतिशत स्वामित्व था। 1974 में व्यापार विनिमय कानून बना और कोक को 40 फीसदी
के साथ रहने का आदेश दिया गया। वह नहीं मानी और 1971 में
वह चली गई। लेकिन नब्बे के दशक में, नवउदारवाद के दौर में
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुनाफे में आड़े आनेवाले कानूनों को ही र$फा द$फा कर दिया गया। 51 फीसदी विदेशी स्वामित्व का कानून बना। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को और भी
रियायतें मिलीं। सब्सिडी वाली जमीन, बिजली, पानी। दुनिया का सबसे लोकप्रिय ब्रांड कोकाकोला 1993 में
वापस लौटा। पूरे जोश $खरोश और आक्रामकता के साथ।
नवउदारीकरण के बाद यानी 90 के बाद,
भारत समेत तीसरी दुनिया के देशों की कमोबेश हालात एक सी
हैं। विकास और निवेश की बहसों के पीछे जन सरोकार के प्रश्नों को पीछे धकेल दिया
जाता है। कोई आवाज यदि उठी भी तो उसे दबाने के अनेक उपाय भी हैं। आज हमारे देश की
तरक्की का ढाँचा यही बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ निश्चित कर रही हैं। सभी दल तरक्कीपसंद
हैं। निवेश के किसी भी अवसर को किसी भी कीमत और मुआवज़े के साथ सरकारें निगल जाने
की हड़बड़ाहट में दिखती हैं। 12-13 साल की उमर के उत्तराखंड का उदाहरण देखें- यह प्रदेश जो प्राकृतिक भूजल का
भंडार है। नदियों,
पहाड़ों,
वनों का प्रदेश है। अब निवेशकों की पहली पसंद बना हुआ है।
इन 12 सालों में उत्तराखंड में सात मुख्यमंत्री रहे। अलग-अलग सरकारें आती जाती रहीं
पर ऊर्जा परियोजनाओं और अन्य निवेशों पर सभी की राय लगभग एक थी। श्रीनगर जल
परियोजना जिसका निर्माण उत्तराखंड में हो रहा है। यह परियोजना अपने अमलीजामे में
गंगा नदी को 30 किमी लंबे सड़ांध भरे जलाशय में बदल देगी। पूरे पूर्वोत्तर भारत में आठ
प्रांतों में 157 पन बिजली परियोजनाएँ चल रही हैं। इनमें 30 राज्य
सरकारों,
13 केन्द्र सरकार और 114
परियोजनाएँ निजी (विदेशी-स्वदेशी) कंपनियों द्वारा संचालित हैं (द हिंदू : 2 जून 2012 के अनुसार)। विश्वस्त सूत्रों की एक खबर यह कि उत्तराखंड
में 500 से अधिक पन बिजली परियोजनाओं के बारे में सरकार सोच रही है। भागीरथी, मंदाकिनी,
भीलांगना,
विष्णुगंगा, धौली (पूर्वी पश्चिमी), गौरी,
सरयू,
टौन्स कोई भी नदी इन परियोजनाओं के निशाने से नहीं बची।
रैणी के जिस जंगल को गौरा देवी और उनकी बहिनों ने 1974 में
कटने से बचा लिया था,
वही घाटी आज सबसे अधिक उपभोग का शिकार बन गई।
निरंतर विवादों से घिरे
टिहरी बाँध को ही देखें तो सिंधु,
तीस्ता,
अलकनंदा,
भागीरथी,
सतलज-सुवर्णगिरी हर नदी इसकी गिरफ्त
में आ चुकी हैं। कई जनांदोलनों के भारी विरोध के बाद भी 2006 में
फेस-एक बनकर तैयार हो गया।
जनमत बनाने के प्रचार
अभियान में कहा गया कि 2400 मेगावाट बिजली बनकर तैयार होगी लेकिन 300
मेगावाट ही असलियत में बन पाई। कम वर्षा में उत्पादन और भी कम हो जाता है। खेती की
जो भी थोड़ी सी जमीन इस राज्य के पास थी उसका बड़ा हिस्सा डूब में आ गया। और बड़ी
जमीन,
बड़ा विस्थापन, पारिस्थितिकी हानि झेलने
के बाद रोजगार के आँकड़े ऐसे नहीं कि इन सबकी भरपाई (कमोबेश सरकार की भाषा में) हो
सके।
निजीकरण की माँग और
राजनैतिक-प्रशासनिक स्वार्थों के इस दौर में प्राकृतिक संसाधनों को बचाने में नहीं
संसदीय दिलचस्पी उन्हें बेचने में है। सरकार के पास सर्व जनहितकारी दृष्टिकोण को
समझने के विकल्प हैं लेकिन वे उन पर बात नहीं करना चाहते। लोकतांत्रिक ढाँचे की
जिसमें सभी को अपनी बात कहने का पूरा हक है। विरोध करने का भी हक है। लेकिन ऐसी
योजनाओं-परियोजनाओं के विरोध में उतरे लोगों के साथ कैसी बदसलूकी की जाती है, इसके एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। बुंदेलखण्ड में अभी हाल में ही लोगों ने नर्मदा
नदी बाँध परियोजना के विरोध में जल सत्याग्रह किया। सरकार ने उनकी चिंताओं का
निराकरण न करके,
सप्ताह-दस दिन तो उनकी ओर ध्यान ही नहीं दिया। और जब
प्रशासन को लगा कि स्थिति खतरनाक हो जाएगी। किसी की मृत्यु भी हो सकती है तो
उन्हें जबरन हटाया गया। जेलों में डाला गया। एकाध अखबारों ने दो एक दिन यह खबर 9-10 नंबर के पेज पर छापी। सपाट बयानी या यूँ कहे सूखी खबर की तरह। उत्तराखंड में
भी,
गढ़वाल में भरत झुनझुनावाला और उनके साथियों के ऊपर नियोजित
हमला 22 जून 2012 को किया गया। यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें व्यक्ति को अपनी बात कहने का हक
नहीं! जो लोग इन परियोजनाओं के समर्थन में अपनी दलीलें और विज्ञापन दे रहे हैं, उन्हें अपनी बात कहने दी जा रही है तो फिर विरोध क्यों नहीं? जनमत संग्रह क्यों नहीं कराया जाता कि जनता की राय इन विकास कार्यों को लेकर
क्या है?
इसी बीच एक और खास उदाहरण सामने आया। उत्तराखंड में एक कवि, एक जाने माने पत्रकार और एक एन.जी.ओ. के मालिक ने मिलकर बाँधों के समर्थन का
बीड़ा उठाया। इसकी भाषा शासन की भाषा थी।
इन्होंने अपने ‘पद्मश्री’
सम्मान छोडऩे और भूख हड़ताल में बैठने की घोषणा भी की। इसी
बीच भरत झुनझुनावाला पर हमला करने वाले चार व्यक्तियों को सम्मानित किया गया।
उत्तराखंड सरकार के तत्कालीन एक मंत्री ने बाँध अधिकारों की सुरक्षा के मामलों को
लेकर दिल्ली में केन्द्र सरकार के सामने अनशन भी किया। उत्तराखंड की जमीन किसी
फिल्म का टेलर लग रही है। जहाँ कॉमेडी, ट्रेजडी, एक्शन,
ड्रामा,
नायक-खलनायक सब रहे। आखिर में यहाँ भी जीत विकास के दलालों
की हुई। कोई धर्म,
पुण्य,
अच्छाई की नहीं। गंगा-गंगा का जाप करने वाले साधु-सन्यासी, पूरी भौगोलिकता,
पारिस्थितिकी को समझने वाले वैज्ञानिक, बौद्धिक सब एक साथ हो लिए। जिस तरह से विदेशी निवेश की आड़ में विकास की
विनाशकारी गतिविधियाँ बढ़ रही है ठीक उसी मात्रा में हमारी दुनिया-देश-प्रदेश में
सरकार-समाज मीडिया में दलालों की संख्या बढ़ रही है। मीडिया जिस प्रकार गलत खबरें, आँकड़े और अवैज्ञानिक सोच परोसता है उसी का नतीजा है कि सही तथ्यों की ओर
सरकार को सोचने की जरूरत नहीं महसूस होती। बात यदि बिजली की है, विकास की है तो भरत झुनझुनावाला और अनेक वैज्ञानिक, पर्यावरणविदों
की राय पर सरकार को ध्यान देना चाहिए। उनके अनुसार जलविद्युत परियोजनाओं के
वर्तमान डिजायन में बदलाव होना चाहिए। पूरी नदी में बाँध बनाने की जगह, नदी के प्रवाह के एक हिस्से को ही रोककर, इसी
हिस्से से बिजली तैयार करनी चाहिए। बाकी का पानी बहता रहेगा। जिससे तलौंछ
(सेंडिमेंट,
मछलियों का भोज्य पदार्थ है। यह तटीय क्षेत्र में पोषक
तत्वों को बढ़ाता है) का प्रवाह बना रहेगा और मछलियाँ भी। ये दोनों ही चीजें
नदियों के जीवन के लिए बेहद जरूरी हैं। इस प्रकार से बिजली की कीमत चार रुपए से
बढक़र पाँच रुपए हो जाएगी लेकिन नदियों का जीवन, पर्वतों
का,
पूरे पर्यावरण और मनुष्य का भी जो 90 फीसदी
खतरे में है,
वह सुरक्षित हो जाएगा। ऐसी रियायत वाली कई योजनाएँ सक्रिय
हैं जैसे-हरियाणा में यमुना पर,
अलास्का की ताजीमीनिया जलविद्युत परियोजना और भी कई हैं जो
पर्यावरण को नुकसान पहुँचाए बिना बिजली पैदा कर सकती हैं। भरत झुनझुनावाला ने अपनी
किताब जिसमें सारे नफे-नुकसान,
उपाय विस्तार से हैं, उसे
भारत सरकार,
उत्तराखंड सरकार के सभी संबंधित उपक्रमों, आयोगों को भेजी लेकिन उस पर कोई चर्चा नहीं की गई। वज़ह कि सरकारें अपने निजी
स्वार्थ भरे अनुबंध कंपनियों से कर चुकी होती हैं। बस एक ही टैगलाइनें कि उन्हें
उन मतों,
उस जनता के जीवन की, उस
पर्यावरण की जिसमें वे खुद भी रह रहे हैं, बिल्कुल
परवाह नहीं। बिल्कुल किसी तानाशाह की तरह। अभी मध्यप्रदेश के उज्जैन में सिंहस्थ
मेले का आयोजन होने जा रहा है। केन्द्र सरकार ने 200 करोड़
रुपए व्यवस्था के लिए राज्य सरकार को दिए। उनका अपना भी एक अलग ही बजट है। क्या
यहाँ उज्जैन की विलुप्तप्राय क्षिप्रा नदी पर चर्चा होगी? कई
प्रदेशों को साँसें देने वाली नर्मदा नदी में बढ़ते प्रदूषण, बाँधों के बाद के दुस्प्रभाव को लेकर चर्चा होगी? ऐसा
कुछ भी नहीं होगा। आज हमारे साधु-सन्यासियों की कथित बौद्धिक, धार्मिक मान्यता में पत्थर,
मूर्तियाँ ही बची हैं। प्रकृति और परमात्मा में से परमात्मा
ही शेष है (जिसे वे कभी जान भी नहीं सकते) प्रकृति नदारत है। वरना इनकी ही संख्या
काफी है नदियों को बचाने के लिए। यह सब सिंहस्थ, कुंभ
और गंगा बचाओ,
नर्मदा बचाओ अभियान या गंगा स्पर्श अभियान जैसे तमाम प्रपंच
और तमाशे केवल शासन और प्रशासन के कर्ताधर्ताओं के लिए जेबें भरने का मौका है और
माननीय साधु-संतों के लिए अपनी कीर्ति फैलाने का सुनहरा अवसर। ये सब नदियों को
बचाने,
बचाए रखने के प्रयोजन बिल्कुल भी नहीं हैं।
देश की सबसे बड़ी, गहरी और सबसे अधिक राज्यों को समृद्ध एवं जीवन देने वाली गंगा नदी की शुद्धता, पवित्रता को बनाए रखने के लिए पिछले 30-35 सालों
से प्रयास चल रहे हैं। 1995 में ‘केन्द्रीय गंगा प्राधिकरण’
की स्थापना की गई। 1986 ‘गंगा
कार्य योजना’
जिसे 2009 में ‘गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण’
कहा गया। पहले यह जिम्मेदारी (1979 तक) ‘केन्द्रीय जल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड’ करता
था। गंगा प्राधिकरण को पहले चरण में 350 करोड़ रुपए का बजट दिया
गया था। फिर दूसरे चरण में 615 करोड़ रुपए दिए। अभी भी वर्तमान केन्द्र सरकार ने सत्ता संभालते ही गंगा...
गंगा... कुछ दिन जपे। आला नेताओं,
संतों,
अधिकारियों का फाइव स्टार होटलों में मीटिंग, सेमिनार के दौर चले और गंगा साफ हो गई। निर्मल हो गई। उमा भारती जैस संत
राजनेताओं का काम खत्म। फिर जब ओहदों के लिए, सत्ता
कमान के लिए जरूरत होगी,
जाप शुरू हो जाएगा। आर्थिक स्वार्थ, पद
लिप्सा से बड़ा न कोई सामाजिक कार्य होता है न सांस्कृतिक न आध्यात्मिक। ऐसे
मिशनों को जब तक जन सहयोग और जागरुक सोच का संगठित स्वर नहीं दिया जाएगा तब तक छिटपुट
विरोधों के ऊपर सत्ता की बेबुनियादी लिप्सा जीतती रहेगी। एक उदाहरण और जिसे अभी
हाल में मंजूरी मिली ‘जैतापुर परमाणु संयंत्र’
को लें। काफी मशक्कतों के बाद केन्द्र सरकार ने अमेरिका से
दोस्ती गहरी की और तोहफे में उसे यह संयंत्र मिला। (वैसे यह तोहफा अमेरिका का ही
है जिसे वह दक्षिण एशिया में साइलेंट परमाणु की तरह इस्तेमाल करेगी)। 9990 मेगावाट की यह भारी योजना परमाणु ऊर्जा का दुनिया का सबसे बड़ा संयंत्र है।
पर्यावरणविदों का कहना है कि-परमाणु कचरे और राख से पर्यावरणीय सौन्दर्य और जैव
विविधता (कोंकण और आसपास) नष्ट हो जाएगी। यहाँ से निकलने वाला अपशिष्ट पाँच लाख
लीटर पानी जो समुद्र में छोड़ा जाएगा, उससे समुद्र का तापमान बढ़
जाएगा। मछली व्यवसाय प्रभावित होगा। भूकंप
आने की संभावनाएँ और बढ़ेंगी। वैसे भी यह इलाका भूकंप प्रभाव के जोन चार
में आता है। अभी तक यहाँ नब्बे से अधिक छोटे-बड़े झटके आ चुके हैं। इस परमाणु
संयंत्र से निकलने वाले 300 टन परमाणु कचरे का डिस्पोज कैसे होगा? यह
प्रश्न पूरी दुनिया के सामने मुँह बाए खड़ा है। आज जबकि जर्मनी और जापान जैसे
देशों ने अपने परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को बंद करना शुरू कर दिया है। जर्मनी ने 17 में से 11 संयंत्रों को बंद कर दिया। 2022 तक वह सभी संयंत्रों को बंदकर ऊर्जा के अन्य विकल्पों के बारे में शोध कर रही
है। ऐसी स्थितियों में भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश में दुनिया के सबसे बड़े
संयंत्र को कार्यरूप देना चाहिए?
आज जबकि सौर ऊर्जा के उपयोग की सबसे अधिक जरूरत है ऐसे में
जन-जीव-पारिस्थितिकी को संकट में डालना? यूपीए सरकार के समय से इस
योजना पर चर्चा चल रही है तभी लोगों ने विरोध किया था और उन पर सरकार ने गोलियाँ
भी चलवाई थीं।
विकास और उत्पादन दोनों
प्रक्रियाएँ जरूरी हैं किंतु यहाँ मनुष्य को यह ज्ञान होना चाहिए कि कैसा विकास और
कितना उत्पादन?
आज पूरी पृथ्वी संकटग्रस्त है-मौसम परिवर्तन, समुद्र का अम्लीकरण,
ओजोन परत का क्षय, नाइट्रोजन एवं फास्फोरस
चक्र का संकट,
विलुप्त होती जैव प्रजातियाँ, रासायनिक
प्रदूषण आदि। ये बिगड़ते तंत्र हमें मजबूर करते हैं कि एक बार नए सिरे से पुन: हम
प्रकृति और मनुष्य के संबंधों को परिभाषित करें। उत्पादन और विकास यदि इन खाँचों
मं नहीं जम सका तो विकास नहीं विनाश होगा, जैसे
कि परिणाम सामने आ रहे हैं। पूँजीवाद की आलोचना इसीलिए सैध्यांतिक स्तर पर ही होनी
थी क्योंकि उसने प्रकृति का दोहन किया, निचोड़ लेने की हद तक
जाकर। माक्र्स के शब्दों में- ‘पूँजीवादी उत्पादन... मनुष्य और धरती के बीच नैसर्गिक अंतक्रिया को
अस्त-व्यस्त कर देता है अर्थात् भोजन और कपड़े के रूप में मनुष्य धरती के जिन
तत्वों का उपयोग करता है,
उन्हें वापस धरती में लौटने से रोकता है। उन शर्तों का
उल्लंघन करता है जो धरती के सदा उपजाऊ बने रहने के लिए आवश्यक हैं।’ यह तो केवल पूँजीवाद पद्धति को समझने की एक सरल पंक्ति थी। अब उत्तर पूँजीवाद
का दौर चल पड़ा है। पूँजीवाद अपने विध्वंसक रूप में। वह प्रकृति का न केवल दोहन
करता है,
दोहन से अधिक मौजूदा प्रकृति का नाश भी करता है। कोकाकोला
और पेप्सी जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ देश में 100 से
अधिक उत्पादन केन्द्र। यदि इनका एक केन्द्र 15 से 20 लाख लीटर पानी का उपयोग रोज करता है तो सोचिए एक दिन में भूजल का कितना दोहन
हुआ,
उत्तराखंड जैसे राज्य में 400 से
अधिक पन बिजली परियोजनाएँ होंगी तो केवल पूर्वी मध्य भारत में करीब 2000 योजनाओं की भविष्योगामी योजना है। ये सभी स्वस्थ नदियों को गंदे पानी के नाले
में बदल रही हैं। एक ‘जैतापुर परमाणु संयंत्र’
रोज समुद्र में पाँच लाख लीटर अपशिष्ट पानी मिलाएगा? कुल मिलाकर सारे कारक जल और पारिस्थितिकी संकट के वाहक है। जो आगे वायुमंडलीय
संकट को और भी गहरा करेंगे। हिमालय से निकलने वाली नदियों का बिगड़ा स्वरूप
वायुमंडलीय असंतुलन से पिघलते ग्लैसियर ही अभी हाल में हुई नेपाल की त्रासदी का
कारण है। प्रकृति अपने दोहन का बदला लेती है। कहाँ पर लेगी, कब और किस तरह,
यह सब उसकी मरज़ी पर निर्भर करता है। हमारे बनाए यंत्र
हमारी पूर्ण विजय नहीं है। ऊर्जा को बेचने-खरीदने का माध्यम बनाने की बजाय यदि
लघुस्तर पर ऊर्जा स्त्रोतों पर काम किया जाय तो बेहतर परिणाम होंगे। सौर ऊर्जा और
पवन ऊर्जा ही हमारे अगले विकल्प हैं। उन पर फोकस करना चाहिए। उत्पादन यदि
सामुदायिक लाभ पर केन्द्रित है तो विकास है। पूँजीवादी उत्पादन और विकास की पूरी
अवधारणा केवल लाभ पर केन्द्रित है। किसी भी स्तर पर लाभ। कोई भी कीमत देकर।
पिछले 30 सालों से भारत भी पूँजीवाद और हद तक उत्तर पूँजीवाद के खाँचे में सटीक बैठता
जा रहा है। जल,
जंगल,
जमीन तक में बहुराष्ट्रीय निगमों का निवेश अधिक से अधिक
सरकारों का उद्देश्य है। सरकारों का दोगला चरित्र-एक ओर वे पत्थर की मूर्तियों के
लिए जनसंहार करवा रही हैं दूसरी ओर समूचे देश को, एक-एक
चीज को गिरवी रखती जा रही रही हैं। जलवायु, पर्यावरण, कृषि जमीन,
जिन पर पूरी दुनिया का ही जीवन निर्भर है आश्चर्य तो यह कि
अब ये वैश्विक बहस के विषय नहीं रहे।
ऐसे दौर में हमारी सरकार
की मूलभूत चिंताएँ कोकाकोला,
पेप्सी और दर्जनभर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सहूलियतें ही
होंगी। जिन्हें वे किसी भी कीमत पर रोककर रखना चाहेंगी। हद दर्जे के बुर्जुआ
विकासवाद की लहर देश में फैलाई जा रही है।
पाब्लो
नेरूदा की ‘स्टैण्डर्ड ऑयल कंपनी’ शीर्षक से कविता है-
न्यूयार्क के उनके थुल थुल बादशाह लोग
सौम्य मुस्कुराते हत्यारे हैं/जो खरीदते हैं रेशम, नायलॉन सिगार
है छोटे मोटे आततायी और तानाशाह
वे खरीदते हैं देश, लोग, समंदर, पुलिस, विधानसभाएँ....
-0-0-0-0-
दुनिया के मजदूर-मजदूरनें एक हों...
माक्र्स की सौंवीं बरसी पर
अमेरिका में हुए सेमिनार में,
कैथराइन ए. मैकनिनन ने माक्र्सवाद और नारीवादी चेतना के
वैचारिक पक्षों का सकारात्मक विश्लेषण करते हुए कहा- उस वक्तव्य के कुछ अंश देखिए-
‘कोई भी
वास्तविक नारीवाद प्रकृति के रूप में उत्तर माक्र्सवादी नहीं हो सकता। लेकिन इसके
साथ यह भी सचाई है कि दैनंदिनी जीवन के बारे में लैंगिक विभाजन को समझे बिना चर्चा
नहीं कर सकते। वर्चस्व का मर्म समझने के लिए हमें उसके मुख्य रूप, पुरुष प्रभुत्व को समझना होगा। यौनिकता का नारीवाद के लिए वही महत्व है जो
श्रम का माक्र्सवाद के लिए। (पूँजीवाद श्रम का मूल्य हड़प लेता है, इसलिए माक्र्सवाद उसकी आलोचना करता है। यौनिकता को स्त्री से छीने जाने के
खिलाफ नारीवाद विचारक आवाज उठाता है).... वर्ग श्रम की सामाजिक संरचना होती है, उत्पादनकारी प्रक्रिया होती है और पूँजी उसका संक्रेद्रित रूप है। नियंत्रण इस
पूरे कार्यव्यापार का केन्द्रीय मुद्दा है जिसके लिए संघर्ष होता है।...नारीवाद
में इसी का समानांतर तर्क निहित है।... यौनिकता समाज को दो भागों में बाँटकर
संगठित करती है। एक भाग स्त्रियों का दूसरा भाग पुरुष का।... यौन विभाजन उसकी
सामाजिक प्रक्रिया का नाम है। परिवर्तन उसका जमा हुआ संक्रेद्रित रूप है। यौन
भूमिका इसका गुण है जो दो सामाजिक व्यक्तियों में सामान्यीकृत हो जाती है और अंत
में प्रजनन या पुनरुत्पादन उसके परिणाम के रूप में सामने आता है।’
मैकनिनन का यह वक्तव्य एक
ऐसा बिन्दु है जहाँ से माक्र्सवाद और नारीवाद के संबंधों को एक नया आयाम मिलता है।
नारीवाद पर देहवादी विमर्श का आरोप लगाते हुए सिद्धांतशास्त्री (और माक्र्सवादी)
अक्सर यह भूल जाते हैं कि प्रजनन से पूर्व पुरुष को स्त्री के साथ सहवास करना
पड़ता है यहाँ स्त्री और पुरुष के बीच नियंत्रण केन्द्रीय मुद्दा बन जाता है जिस
प्रकार पूँजी और श्रम के बीच नियंत्रण केन्द्रीय मुद्दा होता है। माक्र्सवादी
सिद्धांतों में ‘मूल्य’
का जो स्थान है वही नारीवाद में ‘कामना’ का है। जिस प्रकार श्रम समाज की रचना में भूमिका निभाता है उसी प्रकार कामना
यौनिकता की रचना करते हुए समाज की संरचना करती है। इस प्रकार यौनिकता के प्रश्नों, संशयों को उठाए बिना नारीवाद पर चर्चा नहीं हो सकती। माक्र्स ने स्त्री
प्रश्नों को यथासमय उठाया किन्तु उन्हें कोई नई दिशा देने का माहौल माक्र्सवाद के
भीतर नहीं मिला। यहाँ हमें माक्र्सवाद और नारीवादी प्रश्नों की सही पड़ताल करने के
लिए अतीत में जाकर झाँकने और विश्लेषण की जरूरत है।
श्रम और वर्ग चेतना जैसे
महत्वपूर्ण प्रश्नों के साथ ही माक्र्सवादी स्त्रियों द्वारा लिंगभेद के प्रश्नों
को उठाया गया। यहाँ नारी मुक्ति के प्रति संवेदनात्मक दृष्टिकोण रखनेवाले पुरुषों
ने भी उनका साथ दिया। वर्षों आंदोलनों के भीतर आंदोलन सक्रिय होने के कारण
उन्नीसवीं सदी के चौथे दशक में माक्र्सवादी पार्टियों और उनके सिद्धांतकारों ने
यौन विभाजन को मान्यता देना शुरू किया। यहाँ यौन विभाजन को केवल मान्यता मिली।
उसका कोई विकास नहीं हुआ। माक्र्सवाद ने नारी प्रश्नों को लेकर अपने सिद्धांतों को
उलटने पलटने का,
उन्हें पुनव्र्यवस्थित करने का काम नहीं किया। स्त्री
प्रश्नों पर माक्र्सवाद यहीं रुका रहा। हाँ बल्कि स्त्री आंदोलन की संभावना को बेहद
गुपचुप तरीके से रोक दिया गया। यहाँ कामरेडों के भीतर सहस्त्राब्दियों से जड़ जमाए
बैठी पितृसत्ता स्त्री प्रश्नों को कई दशकों हाशिए पर धकेलती रही। माक्र्सवादी
आंदोलनों में,
धरना-प्रदर्शनों, जुलूसों में साथ दे रही
स्त्री घर की दहलीज पर कदम रखते ही कामरेड पुरुष को पूँजीपति में बदला पाती। घर के
भीतर स्त्री एक श्रमिक थी। यौन विभाजन को झेलने के लिए मजबूर क्योंकि माक्र्सवाद
के सिद्धांतों में घर के भीतर क्रांति की सैद्धांतिकी का अभाव था।
स्त्री को लेकर माक्र्स की
इच्छा थी कि वह श्रम करे। यदि वह श्रम (घर से बाहर) करेंगी तो नियंत्रित होने वाली
शक्ति से बदलकर नियंत्रणकारी शक्ति बन जाएगी। परिवार संस्था का पुनर्निमाण भी होगा
और स्त्री संबंधों को भी एक नया धरातल मिलेगा। माक्र्स के विचारों से प्रभावित
होकर कई महिलाएँ क्रांति के मैदान में उतरीं। नए संबंधों की व्याख्या करनी चाही।
यहाँ क्या महसूस किया?
इस संदर्भ में फ्रांसीसी महिला ज्याँ डेरियन का प्रसंग
जरूरी है- डेरियन अपने पुरुष साथियों के साथ बिखरी हुई मजदूर यूनियनों को इक_ाकर महासंघ बनाने की योजना पर काम कर रही थीं। वे ‘द
ओलीनियम डेम फेम्मे’
नारीवाद पत्र में नियमित स्तंभ भी लिखा करती थीं। एक दिन
पुलिस ने यूनियन के अन्य साथियों समेत उन्हें पकड़ लिया। मुकदमे से पहले वकील जो, उनसे मिलने आया ने जो कहा,
वह चौका देनेवाला था। वकील के अनुसार- ‘वे महासंघ बनाने में अपनी भूमिका का उल्लेख न करे अन्यथा यूनियनों को एकसूत्र
में पिरोने की योजना को अधिकारियों की स्वीकृति नहीं मिल पाएगी, क्योंकि वे एक नारीवादी हैं।’
यहाँ व्यवहार में माक्र्सवाद के भीतर, नारीवाद होना अश्पृश्य होने जैसा था। पुरुष के मुकाबले स्त्री के सामाजिक, वर्गीय योगदान पर भी एक बड़ा प्रश्नचिन्ह। यह घटना मजदूर, क्रांति के भीतर स्त्री को अपनी असली जगह दिखा देने के लिए पर्याप्त थी।
डेरियन ने सच के साथ समझौता इसलिए किया कि मजदूर महासंघ की योजना साकार हो सके। इस
घटना के बाद पेरिस कम्यून में महिला योद्धाओं के अनुभव भी आंदोलनों के भीतर लैंगिक
भेदभाव से भरेपूरे रहे। इन महिला योद्धाओं के साहस और कर्तव्यनिष्ठा की प्रशंसा
स्वयं कार्लमाक्र्स ने की थी। कम्यून में करीब आठ सौ स्त्रियाँ हथियार बंद होकर घर
से निकलीं। इन्होंने क्रांति के लिए ही जीवित रहने का संकल्प लिया। और तमाम रोड़ों
को पारकर,
शत्रुओं का निडरता के साथ सामना किया। तत्कालीन क्रांतिकारी
और पत्रकार आंद्रेलुई लिखती हैं कि- इन महिलाओं का संघर्ष दोतरफा था। एक ओर वे
वर्साई के शत्रुओं से लड़ रही थीं दूसरी ओर अपनी ही कतारों के पुरुषों की मानसिकता
से। इस आंदोलन के बाद भी वही हुआ। जिस क्रांति ने उन्हें निष्क्रियता के बाहर
निकाला,
उद्देश्य पूरा हो जाने पर क्रांतिकारी कतारों का यौन विभाजन, उनकी अधीनस्थ भूमिका पर शब्दाघात करता रहा। ये प्रहार उनकी उभरती भूमिका के
लिए हमेशा घातक सिद्ध हुए हैं। इसीलिए क्रांतियाँ सार्विक मुक्ति का दावा करने के
बाद भी पुरुष केन्द्रित रह जाती हैं और आधे-अधूरे प्रयास की बाहक भी। तेलंगाना में
पेरिस कम्यून के लगभग 175 वर्ष बाद चंद्र राजेश्वर राव ने एक स्त्री संगठन की आधारशिला रखी और ब्रिटिश
उपनिवेशवाद एवं निजाम के रजाकारों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष का ऐलान कर दिया।
तेलंगाना की इस क्रांति में मल्लू स्वराजमन और ब्रजरानी जेसी महिलाओं ने मिशाल
कायम की थी। लेकिन इसके बाद भी लिंगभेद की शिकार हुईं और पुरुषों की बराबरी का
दर्जा पाने में असमर्थ रहीं। राजेश्वर राव ने स्वयं स्वीकार किया कि- ‘जब स्त्रियाँ आईं तो हमने उन्हें हाथोंहाथ लिया लेकिन हमने उन्हें आगे बढऩे
हेतु प्रेरित करने के लिए कुछ नहीं किया। इन महिलाओं के साथ यदि सहयोग किया जाता, पार्टी के दरवाजे उनके लिए खोले जाते तो निश्चित उनके कार्यों का फायदा पार्टी
और विचारधारा दोनों को मिलता। इसके करीब पचास साल बाद शायद 1994-95 में माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय कमेटी की सदस्य वृंदा करात
ने अचानक अध्यक्ष मंडल को कमेटी से अपना इस्तीफा सौंप दिया। वे पार्टी के भीतर
लगातार स्त्रियों की उपेक्षा,
विशेषकर पार्टी में पर्याप्त प्रतिनिधित्व न मिलने से
असंतोष में थीं। हालाँकि इस घटना को तत्कालीन महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने सँभाल
लिया।’
ये घटनाएँ चाहे, ज्यां डेरियन की हों या पेरिस कम्यून या तेलंगाना संघर्ष या वृंदा करात के
इस्तीफे की इनमें समानता है। ये वे क्रांतिकारी स्त्रियाँ हैं जिन्होंने समाज के
हित,
कमजोर वर्ग के शोषण के खिलाफ लडऩे का साहस दिखाया। इन्होंने
‘दुनिया के मजदूरों एक हो’
के साथ ही ‘दुनिया की मजदूरिनें एक हो’ का
नारा दिया और संगठनों के सामने प्रस्ताव रखा कि माक्र्सवाद, शोषण और दमन की वर्गीय परिभाषा में लैंगिक दमन को भी शामिल करे। स्वयं माक्र्स
ने सर्वहारा स्त्री के शोषण के प्रश्नों को उठाया। उन्हें क्रांति में सम्मिलित
किया। फिर प्रश्न उठता है कि नारीवाद की जरूरत क्या है? या
क्यों पड़ी?
कि स्त्री के उठाए गए प्रश्नों को अलग थलग कर दिया गया।
माक्र्सवाद स्त्री को किस वर्ग में रखेगा? शोषक
या शोषित,
तो क्या कोख के भीतर मार दी जानेवाली कन्या शिशु, दहेज के लिए जला देनेवाली सामंत परिवारों की स्त्रियाँ, खाप पंचायतों द्वारा खुलेआम कत्ल हो रही प्रेम करनेवाली सवर्ण स्त्री, माक्र्सवाद के अध्ययन का विषय नहीं हैं?
इन जैसे प्रश्नों से जूझती, माक्र्स के शोषण नियामक विचारों से प्रभावित स्त्रियों जैसे ज्यां डेरियन, मेरी वोल्स्टन क्राफ्ट,
सीमोन,
एलक्जेंडा कोलंताई, क्लारा
जेटकिन,
ओलाइव श्राइनर, (ये स्त्रियाँ वैचारिक व
सांगठनिक रूप से माक्र्सवादी क्रांतिकारी हैं) ने एक लंबी लड़ाई, संगठनों के भीतर लड़ते रहने के बाद अंतत: खुद को स्त्री हितों के लिए नारीवादी
स्वीकार किया। सीमोन ने एक लंबे समय बाद अंतत: स्वीकार किया कि वे नारीवादी हैं।
इसका एक दूसरा पहलू कि इन
स्त्रियों के साथ और हजारों स्त्रियों ने माक्र्सवाद के भीतर कि वह लैंगिक संघर्ष
के प्रति संवेदनशील बने,
क्रांति पुरुषकेन्द्रित होकर ना रह जाए, लंबे समय तक संघर्ष किया। इस प्रयास में पुरुष माक्र्सवादी सिद्धांतकारों
बेबेल,
एडवर्ड कारपेंटर, विलियम मारिस, हैवलॉक और स्वयं माक्र्स व लेनिन ने भी वैचारिक संरचना प्रस्तुत करने में मदद
की। इनके वैचारिक प्रयासों ने माक्र्सवाद के भीतर एकता और संघर्ष को जीवित रखा।
सर्वहारा के प्रश्नों को लेकर लड़ी गई लड़ाईयों में स्त्रियों ने बार-बार अपनी
भूमिका निभाई,
किन्तु उनके सहयोग को भुना लेने के बाद पुरुषकेन्द्रित
नेतृत्व ने उन्हें खारिज किया और वापस दहलीज के भीतर लौट जाने का निर्देश दिया।
यदि माक्र्सवाद का सर्तक अध्ययन किया जाय तो स्पष्ट होगा कि उसके बुनियादी
अस्तित्व में ही समाजवाद और नारीवाद के परस्पर संबंध की संभावनाएँ निहित हैं।
यद्यपि ध्यान देने की बात है कि माक्र्सवाद स्त्री शोषण खत्म होने के लिए साम्यवाद
का इंतजार करने को कहता है। दूसरी तरफ उसका संकेत क्रांति की ओर जाता है कि बगैर
क्रांति बदलाव संभव नहीं।। तो क्या साम्यवाद आने पर मुक्ति स्त्रियों को उपहार की
तरह मिल जाएगी?
लगभग यही धारणा उन्नीसवीं सदी के प्रारंभिक चरण तक प्रसिद्ध
नारीवादियों विलियम थाम्पसन,
मेरी वोल्स्टनक्राफ्ट, फ्लोरा
टिस्टन,
अन्ना विलहर आदि ने बना रखी थी। इस धारणा को तोडऩे में
बेवेल की पुस्तक ‘वूमेन एण्ड सोशलिज्म’
ने क्रांतिकारी भूमिका निभाई। एंगेल्स और बेवेल के विचारों
ने नारीवाद की मृत देह में हिम्मत जगाई। इस पुस्तक का ही प्रभाव था कि 1891 में जर्मनी की राजनैतिक पार्टियों में स्त्रियों की समानता को स्वीकृति मिली।
बेवेल ने स्त्रियों को आगाह किया कि- ‘जिस तरह मजदूरों को पूँजीपतियों से उम्मीद नहीं रखनी चाहिए
उसी तरह स्त्रियों को पुरुषों की तरफ कोई आशा नहीं बाँधनी चाहिए।’ बेवेल का कथन स्पष्ट करता है कि पूँजीपतियों की भाँति पुरुष (कामरेड पुरुष भी)
स्त्री के दमन और शोषण की अनुभूति के लिए तैयार नहीं हैं। उन्होंने जोर देकर कहा
कि माक्र्सवाद सिद्धांतकार यौनिकता, प्रजाति और वर्गभेद के
अंतर्विरोधों को हल करने के बजाय उन्हें छिपा देते हैं। यह प्रक्रिया नए समाज की
रचना में अवरोधक की भूमिका निभाती है। जबकि माक्र्स ने स्त्री की प्रगति को
सामाजिक प्रगति का सूचकांक माना है। स्त्री की प्रगति को समूचे समाज की प्रगति
मानते हुए भी उन्होंने यौन उत्पीडऩ को अपने अध्ययन का विषय नहीं बनाया। माक्र्स का
पूरा ध्यान श्रम और पूँजी पर ही केन्द्रित रहा। उत्पीडऩ के प्रश्नों को हल किए
बिना स्त्री विषय पर आगे नहीं जाया जा सकता। स्त्री वर्गसीमा से परे केवल श्रमिक
है,
शोषित है,
उत्पादनकर्ता है और यौन शोषण उसका अहम पहलू। वह दोतरफा शोषण
की शिकार है-पहला कि,
उसके श्रम का, घरेलू श्रम का कोई मूल्य
निश्चित नहीं। दूसरा,
यौनिक विभाजन और शोषण उसकी उत्पीडऩा का कारण है। माक्र्सवाद
ने इन प्रश्नों को टटोला,
सुलझाया नहीं बल्कि आगे जाकर दरकिनार किया जिसका परिणाम
नारीवाद का जन्म है।
नारीवाद भी प्राण वायु
माक्र्सवाद में निहित है,
यह सत्य है कि वह माक्र्स के चिंतन से पल्लवित, फलित है कि,
माक्र्स के चिंतन ने मानव इतिहास और समाज के सभी पहलुओं का
व्यापक विश्लेषण प्रस्तुत किया जिस आधारशिला ने आगे बढक़र श्रम, शोषण,
लिंगभेद,
वर्णभेद से जुड़ी क्रांति की अवधारणाओं को स्पष्ट परिभाषाएँ
दीं। बेवेल के विचारों को और खोलने का काम एंगेल्स की पुस्तक ‘परिवार,
निजी-संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति’ करती
है। इस पुस्तक में उन्होंने रोजगार को स्त्रियों की मुक्ति का प्रस्थान बिन्दु
बताया। एंगेल्स ने कहा कि वे (स्त्रियाँ) सार्वजनिक उद्यम में आएं। इसके पूर्व 1845 में ‘इंग्लैंड में मजदूर वर्ग की दशा’ पुस्तक में एंगेल्स ने
स्त्री मजदूरों की दयनीय स्थिति से संवेदित होकर रोजगार को औरतों से, उनके औरतपन के छीने जाने का कारण बताया था। जिसे सुधारकर उन्होंने माना कि
श्रम (घरेलू श्रम के अलावा) की दुनिया में कूदकर ही स्त्री अपने आपको और अपने
शोषणों को पहचान करेगी। आज नारीवाद की अवधारणा को देहवाद कहकर नाक-भौं सिकोडऩे
वाले,
वर्गीय क्रांति में स्त्री यौनिकता के प्रश्नों को आड़े
मानने वाले,
माक्र्स की प्रतिस्थापनाओं पर ध्यान दे। माक्र्स ने अपने
अध्ययनों में,
जैसे ‘इकोनोमिकल एण्ड फिलोसोफिकल मैन्यूस्क्रिप्ट’, ‘जर्मन
आइडियोलाजी’,
‘हॉली फैमिली’ से लेकर ‘दास कैपिटल’
तक लगातार स्त्री मुक्ति को श्रम से जोड़ा और कहा कि
उत्पादन में स्त्री के जुडऩे से तीन बड़े परिवर्तन होंगे। पहला, पुरुष और स्त्री के संबंध उच्चतर स्तर पर पहुँचेंगे, दूसरा-एक
नए तरीके से परिवार का जन्म होगा और तीसरा- श्रमिक स्त्री का अपने बाह्य जगत पर
नियंत्रण स्थापित होगा। साथ ही माक्र्स की स्थापनाओं से स्पष्ट होता है कि वे
उत्पादन के सामाजिक संबंधों के साथ ही प्रजनन के सामाजिक संबंधों के बदलने से
उत्पन्न शोषणमुक्त समाज की तस्वीर पेश करना चाहते हैं। माक्र्स और एंगेल्स के साथ
ही स्त्री अधिकारों के प्रश्नों के संदर्भ में अगस्त बेवेल की वैचारिकी, कार्यप्रणाली और उनके लेखन का विशेष योगदान है। उनकी पुस्तक नारी और समाजवाद
ने फर्दीनांद लॉसाल के प्रतिगामी विचारों को पनपने से रोका। उन्होंने स्वयं भी
सामने आकर लॉसाल पंथियों के पूर्वाग्रहों का विरोध किया। वे (लासालपंथियों)
रूसो-अरस्तु और उनके समर्थकों की तरह औरतों को जन्मजात ही पुरुषों से हीन मानते
थे। वे उनके किन्हीं भी राजनैतिक-सामाजिक अधिकारों के विरुद्ध थे। जिसका बेवेल, बेल्हेम और उनके समर्थकों ने पार्टी के भीतर ही संघर्ष करके पराजित किया। आज
नारीवादियों के अधिकारों के संरक्षण के लिए भी पार्टी और यूनियनों के भीतर ऐसे
विरोधों की जरूरत है। बेवल के समय में जो स्थिति जर्मनी में अत: वैचारिक टकराव की
थी वही स्थिति उसी समय में यूरोप और अमेरिका की सोशलिस्ट पार्टियों में भी थी। यह
समय रूस में समाजवादी क्रांति का था जिसका प्रभाव अन्य देशों पर भी पड़ा। लेनिन ने
इसी समय तीसरे कम्युनिस्ट अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन की घोषणा के साथ ही ‘अंतरराष्ट्रीय महिला आयोग’
के कार्यों का प्रारूप भी पेश किया। इस प्रारूप के अनुसार
सबसे महत्वपूर्ण बात थी कि,
लेनिन ने महिलाओं की गुलामी को समाप्त करने के लिए, कम्युनिस्टों को नारी आंदोलन को सर्वहारा के वर्ग-संघर्ष और क्रांति के साथ
जोडऩे की जरूरत पर बल दिया था।
लेनिन ने यह भी कहा कि-‘हमारी विचारधारात्मक अवधारणाओं से ही हमारे सांगठनिक विचार पैदा होते हैं। हम
कम्युनिस्ट महिलाओं का कोई अलग संगठन नहीं चाहते, महिला
कम्यूनिस्ट को पुरुष कम्यूनिस्ट की तरह ही पार्टी के अधिकार व कर्तव्य हासिल है।’ साथ ही लेनिन ने वर्किंग ग्रुप, आयोगों, समूहों,
कमेटियों के रूप में पार्टी के अलग अंग बनाने की जरूरत पर
भी जोर डाला था ताकि वे स्वतंत्र रूप से स्त्री सर्वहारा के हितों पर ध्यान दे
सकें। जिस समय लेनिन अपने विचार रख रहे थे उस समय रूस में भी पार्टी और यूनियनों
में महिलाओं की संस्था बहुत कम थी। साथ ही उनके विचारों का पार्टी के भीतर के
शुद्धतावादी पुरुषों ने विरोध किया। ध्यान देने की बात है कि लेनिन ने यहाँ कामगार, किसान महिलाओं के साथ ही वे महिलाएँ जो संपत्ति रखती हैं यानी उच्चवर्ग की
महिलाओं को भी शामिल किया। मेरी एलाइस की पुस्तक ‘फेमीनिज्म
एण्ड द मार्कसिस्ट मूवमेन्ट’
में लेनिन के कार्यों की सराहना की गई है। उन्होंने
कम्यूनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में कामगार महिलाओं के जन आंदोलन को सक्रिय करने की
जरूरत पर बल दिया। साथ ही सारी दुनिया में समाजवादी नारी आंदोलन को विकसित किया
जाय इस हक में क्लारा जेटकिन के प्रस्ताव अंतरराष्ट्रीय कांगे्रस को बुलाने के
प्रस्ताव को भी समर्थन दिया। तीसरी कांग्रेस में महिलाओं के विषय में एक प्रस्ताव, पास किया गया- ‘महिलाओं के बीच प्रचार कार्य की थिसिस’ जिसमें
कहा गया कि यदि कम्यूनिस्ट क्रांति के पक्ष में महिलाओं को लामबंद नहीं कर पाते तो प्रतिक्रियावादी
शक्तियाँ उन्हें क्रांति के विरुद्ध संगठित करने की कोशिश करेगी। यहाँ महिलाओं को
इक_ा करने के कई प्रस्ताव भी पेश किए गए थे। चौथी कांग्रेस अधिवेशन 1922 में,
तीसरी कांग्रेस के इस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी गई। लेनिन
से पूर्व माक्र्स ने भी ‘अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर संघ’
की स्थापना के समय स्त्री प्रश्नों के समाधान की जरूरतों को
समझते हुए उसकी महिला शाखा की स्थापना की पेशकश की थीं और ब्रिटेन की मजदूर नेता
हेनरिश लॉ को संघ का सदस्य बनाया था।
इन प्रयासों में एक नाम
एंलेक्जेन्द्रा कोलोन्ताई का और आता है जिसने अपने नारीवादी विचारों को
माक्र्सवादी विचारधारा और क्रांति से जोडक़र हमेशा देखा। वे पहली महिला थी जो 1917 की अक्टूबर क्रांति के बाद सोवियत सरकार में समाज कल्याण मंत्री बनी।
उन्होंने स्त्रियों के पक्ष में विवाह के भीतर के भीतर कानूनी स्वतंत्रता व समानता, गर्भपात का कानूनी अधिकार एवं समान वेतन के सिद्धांत को सोवियत सरकार में लागू
करवाया। उन्होंने मातृत्व के प्रश्न को स्त्री की इच्छा पर निर्भर होने एवं
मातृत्व की जिम्मेदारी समाज की जिम्मेदारी है, जैसे
प्रश्नों और परिवर्तनों की बात उठाई। माक्र्सवादी नारीवाद दृष्टिकोण को आगे बढ़ाने
की जरूरत पर जोर देते हुए कोलोन्ताई ने कहा कि सिर्फ आर्थिक ढाँचा बदल जाने से
सांस्कृतिक अधिकार में स्वत: कोई परिवर्तन नहीं आएगा।
इस प्रकार देखा जाय तो
माक्र्सवाद के पास नारीवादी प्रश्नों को उठाने और क्रांति में सहयोग देने की पूरी
विरासत मौजूद है। इसका सकारात्मक पक्ष था कि रूस में पृथक साम्यवादी सत्ता स्थापित
होने पर लेनिन ने इन प्रश्नों को सुलझाने की पहल की जो, पूर्व
नारीवादियों ने उठाए थे जिन्हें माक्र्स का भी समर्थन प्राप्त था। यह सच है कि
माक्र्सवादी विचारधारा के पास ही ऐसी अंतर्दृष्टि है जो स्त्री प्रश्नों पर
सुनियोजित काम करने में सहयोगी होगी। क्योंकि स्त्री के उत्पीडऩ का मामला इतना विसंगतियों
से भरपूर है कि उसका उपाय सरल और तात्कालिक नहीं हो सकता। अन्य सामाजिक समस्याओं
के साथ-साथ,
विशेषकर,
मजदूर,
किसानों,
दलितों,
आदिवासियों के प्रश्नों के साथ-साथ वैचारिक प्रतिबद्धताओं
के आइने में शनै: शनै: प्रश्नों से जूझने की आवश्यकता महसूस करता है। केवल
माक्र्सवाद ही वह धरातल हो सकता है जो क्रांति (सामाजिक एवं ऐतिहासिक) के बीज को
पनपने का अनुकूल माहौल बनाता है। यह मानव इतिहास और समाज का व्यापक विश्लेषण
करनेवाली विचारधारा है। लेकिन,
जैसा कि पूरे विश्लेषण में जरूरत महसूस की गई कि आज के
माक्र्सवाद के भीतर वह माहौल बनाने की आवश्यकता है जहाँ, क्रांति
के बीज फलफूल सके। पुनर्विचार की आवश्यकता है यहाँ ताकि संगठन शक्तियाँ और सुदृढ़
हों।
भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी
के वरिष्ठ नेता विनोद मिश्र के बारे में जनसत्ता में एक लेख प्रकाशित हुआ था
जिसमें खास बात थी कि वे मृत्यु से पहले, अंतर्राष्ट्रीय पूँजी के
बदलते चरित्र के बरक्स नई ‘दास कैपिटल’
लिखने की आवश्यकता महसूस कर रहे हैं। यह जरूरत वाजिब भी है
किन्तु यही नेतागण विचारधारा में स्त्री प्रश्नों को शामिल करने, पुनर्विचार करने,
का आहवान कभी नहीं करते बल्कि ठोस जमीन पर टिके स्त्री
प्रश्नों को हासिए में धकेलने के लिए उस पर प्रति वैचारिकी का आरोप मढ़ देते हैं।
स्त्री प्रश्नों को विचारधारा और क्रांति की संभावनाओं के लिए साजिश के रूप में
देखते हैं,
ऐसी परिस्थितियों में क्या आश्चर्य कि नारीवादियों ने अपनी
ढपली अपने राग अलापे। प्रारंभ में ही मैकनिन के वक्तव्य को उठाया गया था जो, स्वस्थ प्रयासों और नारीवाद को समझने की संभावनाओं का वाहक हो सकता है। विनोद
मिश्र की तरह ही आज दास कैपिटल के साथ ही माक्र्सवाद के भीतर स्त्री प्रश्नों के
लिए पर्याप्त स्पेस और ‘नए घोषणा पत्र’
की भी जरूरत है जो बदलती पूँजी के छल-छद्म, उपनिवेशवादी चरित्र के साथ-साथ यौन विभाजन की तमाम विसंगतियों को अपने खाके
में शामिल करे जिसने दुनिया की आधी आबादी को दरकिनार किया है। प्रतिक्रांति की
आशंका स्त्री प्रश्नों को हासिए पर धकेले जाने से उभरती है ना कि उन्हें शामिल कर
पुनर्विचार की संभावनाओं को खुला आसमान मुहैया कराने से।
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डॉ. आरती
२४ अक्टूबर १९७७, रीवा (मध्य प्रदेश) के एक
कस्बे गोविन्दगढ़ में जन्म. हिन्दी साहित्य से स्तानतकोत्तर एवं पी-एच.डी. की. प्रिंट
एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया के कई उपक्रमों में सम्पादन कार्य. ’समय के साखी’ साहित्यिक
मासिक पत्रिका का पिछले सात वर्षों से सम्पादन. कविता संग्रह ’मायालोक से बाहर’ एवं
आलोचना पुस्तक ’समकालीन कविता में स्त्री जीवन’ शीघ्र प्रकाश्य. आकंठ, रचना समय, वागर्थ,
वर्तमान साहित्य, राग भोपाली, लोकस्वामी, हिन्दी समय (वेबसाइट), ब्लॉगों में कविता-आलेख
प्रकाशित.
509, जीवन विहार,
पीएंडटी
चौराहे के पास, भोपाल
मो. 9713035330
4 टिप्पणियां:
आरती के लेख और कविताएँ भी मैं समय समय पर पढ़ता रहा हूँ । इन में वैचारिक प्रतिबद्धता स्पष्ट दिखाई देती है । आरती के पास वैज्ञानिक दृष्टि से भरपूर चितन है ।
आरती के प्रस्तुत आलेख विचारोत्तेजक हैँ
इ नमें प्रतिबद्ध ता दिखती है और समय समाज को वै ज्ञ अ
Bharpoor jankariyaan liye Aarti Ji Ke Teenon Lekh Pasand Aayen Hain .
Lekhika KE vibhinn vishyon ke Gyaan Par Tareef Mein `Wah` Kahne Ko
Ji Kar Rahaa Hai .
यार चन्देल, इस बार वातायन का अंक तुमने आरती मिश्रा पर केन्द्रित करके बहुत अच्छा कार्य किया। जो चुपचाप अपना कार्य पूरी निष्ठा और कर्मठता से करते हैं, आरती जी उनमें से एक हैं। उनकी पत्रिका 'समय के साखी' एक महत्वपूर्ण पत्रिका है और इस पत्रिका से आरती जी की प्रतिभा का आकलन सहज ही किया जा सकता है। ऐसी शख्सियत पर 'वातायन' का अंक निकालकर तुमने 'वातायन' को और ऊंचाई दे दी है। बधाई !
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