संस्मरण
’कथाबिंब’
को अपनी तीसरी पुत्री मानते थे ’अरविन्द जी’
रूपसिंह
चन्देल
1988
की बात है. एक दिन स्व.कथाकार विजय ने कहा, “तुम डॉ.माधव सक्सेना ’अरविन्द’ की पत्रिका
’कथाबिंब’ को कोई कहानी क्यों नहीं भेजते!”
“मेरा
उनसे परिचय नहीं है.”
“जिन
पत्रिकाओं में छपे उनके सम्पादकों से पहले से परिचित थे?”
“नहीं.”
“फिर
कथाबिंब के सम्पादक से परिचय की क्या बात. वह एक भले सम्पादक हैं. तुम्हारी कहानी उन्हें
पसंद आएगी तब उसे अवश्य प्रकाशित करेंगे.”
उन दिनों
विजय प्रायः हिन्दुस्तान बिल्डिंग में लोगों से मिलने जाते थे. मैं भी महीने में एक
और कभी-कभी दो बार वहां जाने लगा था. हम पहले ही तय कर लेते कि अमुक समय वहां या कॉफी
होम में मिलेंगे.
“आप मुझे
उनका पता दे दीजिएगा. मैं अपनी नयी कहानी कथाबिंब को भेज दूंगा.” मैंने कहा.
विजय
जी डीआरडीओ में वैज्ञानिक थे और लगभग हर दिन लंच के समय फोन पर हम दोनों बातें करते.
उनसे पता लेकर मैंने माधव सक्सेना जी को कहानी भेजा. कहानी स्वीकृत हुई और अगले ही
अंक में प्रकाशित भी. इस प्रकार कथाबिंब में प्रकाशित होने का सिलसिला प्रारंभ हुआ.
यह याद नहीं कि कथाबिंब में प्रकाशित होने वाली मेरी पहली कहानी कौन-सी थी और वह किस
अंक में प्रकाशित हुई थी. इतना अवश्य याद है कि मेरी कहानियां प्रकाशित करने में वे
अधिक विलंब नहीं करते थे. त्रैमासिक पत्रिका होने पर कुछ विलंब स्वाभाविक था. अपना
दूसरा उपन्यास ’रमला बहू’ मैंने जुलाई 1990 में लिखना प्रारंभ किया था. उपन्यास
1993 के प्रारंभ में समाप्त हुआ. नौकरी,परिवार और लेखन में ताल-मेल बैठाना आसान न था.
बच्चों के देखभाल की समस्या थी. ’रमला बहू’ लिखने के लिए मैं कभी एक सप्ताह तो कभी
दो सप्ताह का अवकाश लेता, जितना लिखा जाता उसे अगले अवकाश से पहले संशोधित करता रहता.
सबसे पहला अंश ’छिद्दा सिंह’ मैंने कथाबिंब को भेजा. 20 फरवरी,1991 का अरविन्द जी का
पत्र मुझे मिला:
“प्रिय भाई,
आज ही आपका पत्र मिला. आपका उपन्यास अंश
काफी पहले मिल गया था. बस पत्रोत्तर नहीं दे सका. क्षमा करें. ’कथाबिंब’ का प्रकाशन
नियमित होने लगा है किंतु पहले का इतना कुछ है जिसे समेटते-समेटते बहुत समय निकलता
जा रहा है. आगे के लिए भी सारा कर्य योजनाबद्ध ढंग से होता रहे इस ओर भी ध्यान दे रहा
हूं. ऑफिस में भी बहुत काम है. तबियत भी ऊपर-नीचे लगी रहती है. ’छिद्दा सिंह’ अप्रैल-जून
अथवा जुलाई-सितंबर अंक में जाएगा. अभी निश्चित नहीं कर सका हूं. आपको यथा-समय सूचना
दूंगा.
इधर कुछ नया नहीं लिख सका हूं. काफी अफसोस
होता रहता है.
शेष शुभ है.
कृपा बनाए रखें,
आपका-
अरविन्द”
पत्रिका निकालना कितना कठिन होता है यह
लघु-पत्रिकाएं निकालने वाले सम्पादक ही जानते हैं. ’कथाबिंब’ का पहला अंक 1979 में
प्रकाशित हुआ था. तब से अंक 160 तक (अक्टूबर-दिसम्बर,2022) तक अरविन्द जी ने जिस मनोयोग
से पत्रिका प्रकाशित की उसे लघु-पत्रिकाओं के इतिहास में उनका अविस्मरणीय योगदान कहा
जाएगा. पारिवार,नौकरी आदि की चिंताओं के साथ अहर्निश पत्रिका उनके जेहन में रहती और
यह बात उनकी चिन्ता का विषय होता कि उसे किस प्रकार बेहतर बनाएं. जनवरी,1992 में उन्होंने
पत्रिका के दो अंक कहानी विशेषांक के रूप में प्रकाशित करने की योजना बनायी जिसके लिए
उन्होंने लेखकों को एक प्रपत्र भेजा. तब तक अरविन्द जी और मेरे संबन्ध बहुत ही प्रगाढ़
हो चुके थे. हालांकि हमारी मुलाकात बहुत बाद में हुई, लेकिन सम्बन्धों की प्रगाढ़ता
का अनुमान उनके पत्रों से लगाया जा सकता है. (उनके 17 पत्र मेरी पत्रों की पुस्तक
’समय की लकीरें’ (2020, श्री साहित्य प्रकाशन, दिल्ली) में संकलित हैं.)
कहानी विशेषांक के लिए लेखकों को भेजा
पत्र उन्होंने मुझे भी भेजा. प्रपत्र के अंत में पुनश्च हिस्सा ध्यान देने योग्य है—
“10 जनवरी,1992 (बंबई)
प्रिय रूपसिंह जी,
’कथाबिंब’ नियमित प्रकाशन के चौदहवें वर्ष
में प्रवेश कर रही है. कहीं न कहीं, इस यात्रा के दौरान आपके सामने भी पत्रिका का एक
न एक अंक अवश्य आया होगा. परिस्थितियों के अनुकूल-प्रतिकूल बहाव में भी यदि ’कथाबिंब’
ने अपना बुनियादी रास्ता नहीं छोड़ा, तो इसके पार्श्व में सिर्फ और सिर्फ आप जैसे नामों
का परोक्ष अथवा अपरोक्ष सान्निध्य ही है.
अपने अब तक सहेजे-कमाए आत्मविश्वास के
आधार पर हमने एक कहानी-विशेषांक की योजना बनायी है. यह विशेषांक दो खंडों में लगभग
चालीस कथाकारों को लेकर विचाराधीन है.
संभवतः आपको जानकारी हो कि ’कथाबिंब’ ने
पुस्तकाकार रूप में ’समकालीन कविता’ और ’लघुकथा:दशा और दिशा’ विशेषांकों का एक सिलसिला
पहले भी पूरा किया था. इन विशेषांकों को साहित्यिक हलकों में मिला प्रतिसाद आज कथाबिंब
की मिल्कियत का हिस्सा है.
हमारे सामने आज कई खतरे हैं, चुनौतियां
हैं. सीमित साधनों के बावजूद भी ’कथाबिंब’ ने हिन्दी पाठकों को सदा ही बेहतर सामग्री
देने की कोशिश की है. बड़ी पत्रिकाएं, पारिश्रमिक देकर रंगीन पृष्ठों पर कहानियां सजाती
हैं. लेकिन हमे तो आज की कहानी का बिंब थाल भर पानी में संजोना है. सजाने और संजोने
का यह फर्क ही आपकी ताज़ा कहानी मांगने को हमें उकसा रहा है.
विशेषांक का पहला खंड मई-जून,93 तक प्रकाशित
होगा. कृपया अपनी रचनाधर्मिता को रेखांकित करती हुई एक प्रतिनिधि कहानी जल्दी से जल्दी
हमें भेज दें.
नव वर्ष की शुभकामनाओं के साथ,
उत्तर की प्रतीक्षा में,
आपका-
अरविन्द
पुनश्च: प्रिय भाई, आपको यह औपचारिक प्रपत्र भेजते
हुए अच्छा नहीं लग रहा है. हम लोगों के आपसी संबन्ध कहीं अधिक प्रगाढ़ हैं. मैं चाहता
हूं, विशेषांक के दोनों खंड काफी जोरदार निकलें. इसीलिए इतना पहले लिख रहा हूं कि बढ़िया-सी
कहानी फरवरी अंत तक भेज पाओ तो अच्छा रहेगा.
शेष शुभ है.
अरविन्द”
उपरोक्त प्रपत्र मेरे प्रति उनके प्रेम
को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है. कथाबिंब के लिए वह कितना समर्पित थे यह निम्न पत्र
से स्पष्ट है. वह बहुत अच्छे कथाकार थे, लेकिन कथाबिंब और ऑफिस उनका इतना अधिक समय
ले लेता कि उनका मौलिक लेखन लगभग बंद हो चुका था. उनके केवल दो कहानी संग्रह ही प्रकाशित
हुए. पहला बहुत पहले स्व. मधुदीप के ’दिशा प्रकाशन’ से और
दूसरा 2022 में ’इंडिया नेटबुक्स प्रा.लि. नोएडा’ से. अपनी व्यस्तता और न लिख पाने
की पीड़ा को व्यक्त करते हुए उन्होंने मुझे 4 अप्रैल,1993 को लिखा :
“प्रिय रूपसिंह जी,
पत्र आपका प्राप्त किया. आपकी कहानी की
बाबत मैंने एक पत्र डाला था किसी कारण से आपको मिला नहीं. विशेषांक के प्रथम खंड में
’फूहड़’ कहानी जाएगी,निश्चिंत रहें. अभी तक 5-6 कहानियां आयी हैं. इस माह के अंत तक
कुछ रचनाकारों ने वायदा किया है. यह खंड जून में ही आ पाएगा. उससे पहले ’कथाबिंब’ के
दो सामान्य अंक निकलने हैं. अंकों में विलंब हो जाने से सभी लोग सोचने लगते हैं कि
कहीं पत्रिका बंद तो नहीं हो गयी? पर फिलहाल ऎसी स्थिति नहीं आयी है. दंगों के कारण
ही विलंब पैदा हुआ है. इस समय एक अंक इलाहाबाद में और दूसरा भाई सुनील कौशिश द्वारा
कानपुर में छप रहा है.
-पत्रिका संबन्धी पत्र-व्यवहार ही काफी
समय ले लेता है. अपना लिखने के लिए काफी फुर्सत चाहिए. पिछले साल दो कहानियां लिखी
थीं. पर यह काफी नहीं है—यह जानता हूं. बहुत सी चीजों से समझौता करना पड़ता है. उन्हीं
में यह भी एक है.; बहरहाल, जैसा है ठीक ही है.
आपका-
अरविन्द”
कथाबिंब के कारण अरविन्द जी के परिचय का
दायरा बहुत विस्तृत था. आवश्यकता पड़ने पर वह लोगों की सहायता भी करते. ’कथानक’ के सम्पादक
सुनील कौशिश उनके घनिष्ट मित्र थे. मधुमेह के कारण सुनील का स्वास्थ्य बहुत खराब था.
आंखों से नहीं बराबर दिखाई देता था. मधुमेह ने
केवल उनकी आंखों को ही प्रभावित नहीं किया था, किडनी तथा अन्य समस्याएं भी पैदा
की थीं. अक्टूबर 1994 में उपचार के लिए सुनील कौशिश मुम्बई गए और लगभग एक माह तक अरविन्द
जी के यहां रहे. अंततः 4 जनवरी,95 को मुम्बई के किसी अस्पताल में ऑपरेशन के बाद कौशिश
की मृत्यु हो गयी थी. इस बारे में अरविन्द जी ने 10 जनवरी,1995 के पत्र द्वारा मुझे
सूचित किया. कौशिश मेरे भी अच्छे मित्र थे. कानपुर में मेरे बड़े भाई साहब के निवास
के निकट ही उनका घर था. अरविन्द जी ने कथाबिंब के लिए उन पर संस्मरण लिखने के लिए कहा,
लेकिन उनसे पहले ’सम्बोधन’ के सम्पादक क़मर मेवाड़ी जी मुझे कह चुके थे. दोनों ही मेरे
घनिष्ट थे. क़मर भाई को मैं वचन दे चुका था. संस्मरण मैंने उन्हें दिया. इस बात की शिकायत
अरविन्द जी ने शिष्टतापूर्वक पत्र द्वारा दर्ज करवायी थी.
कथाबिंब के प्रत्येक अंक में वह एक साहित्यकार
का साक्षात्कार प्रकाशित करते थे. उनके कहने
पर मैंने हिमांशु जोशी और शिवप्रसाद सिंह के साक्षात्कार किए. शिवप्रसाद सिंह
का साक्षात्कार लंबा था, जिसका एक अंश मैंने कथाबिंब को दिया था. उन्होंने कमलेश्वर
जी का साक्षात्कार करने के लिए कहा. उन दिनों तक कमलेश्वर जी से मेरा परिचय मात्र इतना
था कि मैंने उनके कहानी संग्रह की समीक्षा ’जनसत्ता’ के लिए लिखा था जिसके प्रकाशन
के बाद मैंने उसकी फोटो प्रति उन्हें भेजा. उत्तर में कमलेश्वर जी का पत्र आया था,
जिसमें उन्होंने मुझे समीक्षाएं लिखने से बचने की सलाह दी थी. कमलेश्वर जी से मेरा
संपर्क 1996 में हुआ जो उनके अंतिम दिनों तक रहा और बहुत अच्छा रहा था. 2 अक्टूबर,2000
मैंने कमलेश्वर जी का लंबा साक्षात्कार किया, जिसका एक अंश कथाबिंब में प्रकाशित हुआ
था. साक्षात्कार के अतिरिक्त कथाबिंब में आत्म-कथ्य का एक स्तंभ है, जिसके लिए उन्होंने
मुझसे मेरा आत्मकथ्य लिखवाया था.
कथाबिंब के अतिरिक्त वह एक अन्य पत्रिका
’वैज्ञानिक’ के सम्पादन से भी जुड़े हुए थे. उन्हें हर दिन रचनाएं और समीक्षार्थ पुस्तकें
मिलतीं. हर लेखक की यह अपेक्षा रहती है कि सम्पादक उसकी रचना पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया
दे. 24 अप्रैल,1998 के पत्र में उन्होंने अपनी इस उलझन को साझा किया था. मेरे ’पाथर टीला’ उपन्यास का एक अंश पत्रिका में
प्रकाशनार्थ पड़ा हुआ था, जिसके प्रकाशन के बारे में वह मुझे लिख चुके थे. लेकिन दो
अन्य लेखकों ने भी उन्हें उपन्यास अंश भेजे. वह द्विविधा में थे.
24 अप्रैल,1998
“प्रिय रूपसिंह जी,
कई नावों पर एक साथ पैर रखने जैसी स्थिति
है मेरी. आपके पत्र मिलते रहते हैं---उपन्यास अंश भी है. इसके साथ ही तीन अन्य लोगों
के उपन्यास अंश आए हुए हैं. ’कथाबिंब’ के अलावा मैं एक अन्य पत्रिका ’वैज्ञानिक’ से भी जुड़ा हुआ हूं. उसके प्रकाशन में भी बहुत समय
जाता है. कई-कई बार प्रूफ रीडिंग से लेकर हर पृष्ठ का ले आउट (दोनों त्रैमासिक पत्रिकाओं
का) मैं ही बनाता हूं—ऎसे दिनों में मात्र सामान्य पत्र-व्यवहार ही हो पाता है. औसतन
पांच पत्र रोज, एक पत्रिका और सप्ताह में एक पुस्तक आती है---हर व्यक्ति चाहता है कि
रचना पर सम्मति भी दी जाए—ऎसे में कुछ व्यक्ति जो करीब हैं और जिन्हें यूं ही निबटाया
नहीं जा सकता उनके पत्रों को अलग रख लेता हूं. पलाश विश्वास 11 पृष्ठों के पत्र भेजते
हैं और 32 टाइप किए पृष्ठों की कहानी---पत्रिका को लेकर काम दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है---अपेक्षाएं भी बढ़ी हैं.
मैं एक सहयोगी/सहायक तलाश कर रहा हूं जो रूटीन काम कर ले—थोड़े कुछ पैसे भी ले ले. अन्यथा
आप जैसे मित्र कटते जाएगें. एक अंक तैयार हो रहा है और दो अंकों की रचनाएं स्वीकृत
हैं. आप बताएं कि उपन्यास अंशों (तीन) का मैं क्या करूं?
मेरी बेचारगी पर तरस खाएगें.
शुभकामनाओं के साथ,
अरविन्द”
अरविन्द जी से मेरी पहली मुलाकात 2000
के आसपास नई दिल्ली में उनके भांजे के घर हुई, जो किसी सरकारी विभाग में डाक्टर थे
और साहित्य अकादमी के निकट एक सरकारी बंगले में रहते थे. उस समय घर से बाहर निकलकर
हम देर तक बातें करते रहे थे. अरविन्द जी टेनिस के अच्छे खिलाड़ी थे और प्रतिदिन शाम
के समय टेनिस खेलते थे बावजूद इसके कि उन्हें घुटने की समस्या थी. अंतिम दिनों उनकी
यह समस्या काफी गंभीर हो चुकी थी.
12 मई, 2006 का अरविन्द जी का हस्तलिखित
अंतिम पत्र था, जिसमें उन्होंने अपने अवकाश ग्रहण करने की सूचना दी थी.
“प्रिय रूपसिंह जी,
मैं सोच ही रहा था कि आपको कहानी के लिए
लिखूं, पर इस बीच आपने स्वयं कहानी भेज दी. बहुत-बहुत आभार. कहानी बढ़िया है और यह अप्रैल-जून2006
अंक में जा रही है. इससे पहले वाला अंक भी लगभग तैयार है. मैं बता दूं कि 31 मार्च
को मैं भाभा परमाणु केन्द्र की 40-1/2 वर्षों की नौकरी के बाद सेवा-निवृत्त हो गया
हूं. अब पत्रिका के लिए और अपने लेखन के लिए अधिक समय दे पाऊंगा. ऎसा फिलहाल लग रहा
है.
शेष सामान्य है,
आपका-
अरविन्द”
27 जनवरी,2007 (शनिवार) की सुबह अरविन्द
जी का फोन आया कि वह दिल्ली में हैं. किसी
विवाह समारोह में सम्मिलित होने के लिए वह मंजुश्री जी के साथ आए थे और दक्षिण दिल्ली
के किसी होटल में ठहरे हुए थे. हमने शाम 3
बजे कॉफी होम, कनॉट प्लेस में मिलने का तय किया. अरविन्द जी ने विजय जी को बुलाने के
लिए कहा. ठीक तीन बजे हम मिले. हॉल में बैठने का स्थान न मिलने के कारण हम बाहर खुले
में लगभग दो घण्टे बैठे और साहित्य तथा साहित्येतर विषयों पर बातें करते रहे. अगले
दिन सुबह साढ़े सात बजे मैं छत पर अखबार पढ़ रहा था कि सुरेश सलिल ने फोन करके बताया
कि 27 की रात कमलेश्वर जी का देहावसान हो गया था. वह समाचार की सत्यता जानना चाहते
थे. मुझे इसलिए फोन किया था क्योंकि उन्हें मालूम था कि मैं कमलेश्वर जी के काफी निकट
था. मैंने अरविन्द जी को फोन किया. वह उस समय कमलेश्वर जी के निवास पर थे. समाचार सही
था. रात नौ बजे के लगभग मयूर विहार में अपने किसी प्रवासी मित्र से मिलकर कमलेश्वर
जी गायत्री जी के साथ घर लौट रहे थे कि रास्ते में उन्हें हार्ट अटैक हो गया था.
अरविन्द जी से तीसरी मुलाकात भावना प्रकाशन
में हुई थी. मेरे साथ बलराम अग्रवाल भी थे. इस मुलाकात की तिथि याद नहीं, लेकिन एक
अनुमान के अनुसार यह मुलाकात 2012-13 में कभी हुई थी.
यह बात 2014 जनवरी की है. एक दिन अरविन्द
जी का फोन आया कि वह मेरे अतिथि सम्पादन में ’कथाबिंब’ का कहानी विशेषांक निकालना चाहते
हैं. जब मैंने उनसे उनके लेखकों की सूची मांगी, उन्होंने कहा, “आप पूरी तरह स्वतंत्र
हैं.” मैंने देश और विदेश के 34 रचनाकारों को मेल और पत्र लिखे. फोन किए. सभी ने रचनाएं
दीं. दो रचनाकारों की रचनाएं छोड़नी पड़ी थीं,क्योंकि उन्होंने पूर्व प्रकाशित कहानियां
भेजी थीं, जिनकी जानकारी समय रहते हो गयी थी. ’जनवरी-जून’ 2014 का 216 पृष्ठों का विशेषांक
बहुत चर्चित रहा था. आश्चर्यजनकरूप से इस महा-विशेषांक का मूल्य अरविन्द जी ने सामान्य
अंकों की भांति मात्र पचीस रुपए ही रखा था.
अरविन्द जी चाहते थे कि उन सभी कहानियों
को पुस्तकाकार प्रकाशित करवाया जाए. परिचित प्रकाशकों का तर्क था कि जब पचीस रुपए में
लोगों को अंक उपलब्ध हो चुका है तब पांच सौ रुपए की पुस्तक कौन खरीदेगा. उनका तर्क
सही था. फिर भी हमारा प्रयास जारी रहा. अमन प्रकाशन, कानपुर इसे प्रकाशित करने के लिए
तैयार हुए, लेकिन वह सभी लेखकों को नहीं छापना चाहते थे. पुस्तक के आकार को दृष्टिगत
रखते हुए तय हुआ कि उसे दो भागों-—’कथा पर्व’ और ’कथा समय’ नाम से प्रकाशित करवाया
जाए. विशेषांक के कुछ लेखकों की कहानियों के स्थान पर ’कथा समय’ में दूसरे लेखकों की
कहानियां देने का निर्णय हुआ. ’कथा पर्व’ में मन्नू भण्डारी जी की कहानी दी गयी. ’कथा
पर्व’ अमन प्रकाशन और ’कथा समय’ के.एल.पचौरी, गाजियाबाद ने प्रकाशित किए. ये दोनों
पुस्तकें 2020 विश्व पुस्तक मेला के दौरान
प्रकाशित हुई थीं.
थोड़ा पीछॆ लौटता हूं. ’अमन प्रकाशन’ कानपुर
के श्री अरविन्द बाजपेयी जी से मेरा परिचय 2015 के विश्व पुस्तक मेला में हुआ था.
2016 में ’चुनी हुई कहानियां’ श्रृखंला में वह मेरा कहनी संग्रह प्रकाशित कर चुके थे. 2017 में मैंने उन्हें अपनी पुस्तकों पर तब तक प्रकाशित समीक्षाएं और आलोचनात्मक
आलेख प्रकाशित करने के लिए प्रस्ताव दिया. बाजपेयी जी सहस्र तैयार हो गए. मुझसे पहले
वह एक-दो वरिष्ठ साहित्यकारों की ऎसी पुस्तक प्रकाशित कर चुके थे. प्रश्न पैदा हुआ
कि पुस्तक का सम्पादन कौन करेगा. बाजपेयी जी चाहते थे कि कोई वरिष्ठ साहित्यकार पुस्तक
का सम्पादन करें. बहुत सोचने के बाद मैंने डॉ. माधव सक्सेना ’अरविन्द’ जी से बात की.
वह तैयार ही नहीं हुए उन्होंने पूरा सहयोग
किया.
वर्षों
से ऎसा हो रहा था कि जब भी अरविन्द जी विदेश जाते, मुझे सूचित कर देते. हम प्रायः व्वाट्स
ऎप पर बातें करते रहते. अमेरिका में वह जहां भी घूमने जाते उसके चित्र मुझे व्वाट्स
ऎप पर भेजते. कितनी ही बार उन्होंने मुझे मुम्बई आने के लिए कहा लेकिन मैं जा नहीं
पाया. आज तक मुम्बई नहीं गया और अब यदि कभी भविष्य में जाना हुआ तब वहां अरविन्द जी
नहीं होंगे.
एक दिन
कथाबिंब के मेल से मंजुश्री जी की कहानी मिली. यह बात भी शायद 2017 की है. पहली बार
उनकी कहानी पढ़ रहा था. कहानी पढ़ने के बाद मैंने अरविन्द जी को फोन करके कहानी की प्रशंसा
की. बोले, “आजकल दिनभर लैपटॉप पर कुछ न कुछ लिखती रहती हैं.” फिर फोन मंजुश्री जी को
देते हुए बोले, “लो आप उन्हीं को बधाई दें.”
मंजुश्री
जी से बात हुई. पता चला कि तब तक वह कई कहानियां लिख चुकी थीं और छपने के लिए इधर-उधर
भेज चुकी थीं. कुछ दिनों बाद ही पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कहानियां प्रकाशित होने लगीं.
लेकिन कथाबिंब में उन्होंने अपनी एक भी कहानी प्रकाशित नहीं करवायी. उसी दिन उन्होंने
बताया कि उनकी पहली कहानी 1972 में सारिका में कमलेश्वर जी ने प्रकाशित किया था. कमलेश्वर
जी उनके सगे ननदोई थे. सारिका के सम्पादक थे, लेकिन उसके बाद मंजुश्री जी ने उन्हें
कोई कहानी नहीं दी. देती तो तब जब लिखा होता. लगभग पचास वर्षों का अंतराल और जब उन्होंने
लिखना प्रारंभ किया तब कहानियों की बाढ़-सी आ गयी. अरविन्द जी प्रायः उनकी कहानियां
मुझे पढ़ने के लिए भेजते. वह मंजुश्री जी को लेखन के लिए निरंतर प्रिरित करते रहे.
31 दिसम्बर,22
को शाम मैंने अरविन्द जी को व्वाट्स पर आने वाले वर्ष के लिए शुभकामनाएं दीं और समाचार
पूछते हुए लिखा कि बहुत दिनों से बात नहीं हुई. दरअसल वह व्वाट्स ऎप पर बहुत सक्रिय
रहते थे लेकिन लंबे समय से उन्होंने कुछ नहीं भेजा था. 1 जनवरी,23 को सुबह उन्होंने
बेटा-बहू का एक चित्र भेजा. मैंने तुरंत ’हार्दिक शुभकामनाएं’ लिख भेजा. उसी समय उन्होंने
दोनों का दूसरा चित्र भेजते हुए मुझे नववर्ष की शुभकामनाएं भेजा. एक मिनट बाद ही मैंने
पूछा कि क्या दोनों बच्चे मुम्बई में हैं. उन्होंने लिखा. “16 (जनवरी) को आएंगे.
21 को बड़ी लड़की नूपुर की बड़ी लड़की अक्षता की शादी है.” उसीदिन फोन पर बात हुई तब उन्होंने
बताया कि माइनर अटैक पड़ा था इसलिए डाक्टरों ने बेड रेस्ट बताया है. इसलिए सारी गतिविधियां
बंद हैं.
एक माह
बाद 15 फरवरी को दोपहर उनका फोन आया, लेकिन बार-बार फोन कट रहा था. मैंने भी प्रयास
किया. अपरान्ह मैंने फिर फोन किया. लगभग एक
मिनट बात हुई. उन्होंने 16 फरवरी को शाम व्वाट्स
संदेश भेजते हुए लिखा, “कल फोन पर ठीक से बात नहीं हो पायी. वैसे तबियत ठीक है. कई
समस्याएं हैं. दाएं हाथ की उंगलियों से ठीक से लिखा नहीं जाता. मैं दूसरे फ्लोर पर
रहता हूं. लिफ्ट नहीं है. बाएं घुटने के कारण चढ़ना उतरना मुश्किल है. सहारे की जरूरत
होती है. वैसे समतल पर चलने में खास परेशानी नहीं होती. सुनने की क्षमता में भी थोड़ी
कमी है. इसी कारण कथाबिंब अब जयपुर से निकालेंगे. वे शुरू में मेरे साथ थे. हम दोनों
का नाम संस्थापक संपादक के रूप में जाएगा. स्वास्थ्य में धीरे-धीरे ही सुधार आएगा.
हर तरह का इलाज चल रहा है. अब जैसा है उसे तो स्वीकारना ही है.” कुछ विराम के बाद उन्होंने
फिर लिखा, “प्रबोध (गोविल) ने साहित्यिक जीवन बंबई से शुरू किया था.
17 फरवरी
को सुबह ग्यारह बजे मैंने अरविन्द जी को फोन किया. तीन मिनट चौतींस सेकण्ड बात हुई
थी. 13 मार्च को शाम जब मैं पार्क में टहल रहा था अरविन्द जी का फोन आया. उस समय सुन
नहीं पाया. कुछ देर बाद मोबाईल पर उनकी मिस्ड कॉल देख मैंने उन्हें फोन किया. देर तक
बात होती रही. यद्यपि आवाज बहुत धीमी थी, लेकिन उन्होंने कहा कि दवाओं से लाभ है और
वह स्वस्थ हो रहे हैं. उन्होंने एन.जी.ओ.ग्राफी करवा ली थी. उस दिन उन्होंने कथाबिंब
के बारे में कहा, “रूपसिंह जी मेरी तीन बेटियां थीं. दो को बहुत पहले शादी करके विदा
कर दिया था. दोनों अपने घरों में सुखी हैं. तीसरी बेटी अब विदा हुई है. मुझे राहत है.”
कथाबिंब को वह अपनी तीसरी पुत्री मानते थे.
17 मार्च
को अरविन्द जी का जन्म दिन था (वह 17 मार्च,1945 को फतेहगढ़,उ.प्र में जन्मे थे). मैंने उन्हें सुबह व्वाट्स ऎप पर बधाई संदेश दिया.
लेकिन उत्तर नहीं आया. तब मैंने 11.20 बजे उन्हें फोन किया, लेकिन तुरंत काट दिया.
मन नहीं माना तो एक मिनट बाद दोबारा किया. एकतीस सेकण्ड तक घण्टी बजती रही. उसके बाद
नहीं किया. अरविन्द जी से मेरी अंतिम बातचीत 13 मार्च को हुई थी. मैं यह मान रहा था
कि वह स्वस्थ हो रहे हैं. वैसे भी उन्होंने लिखा था कि उन्हें सुनने में भी परेशानी
है इसलिए वह मेरा फोन नहीं सुन पाए होंगे.
मन आश्वस्त था कि वह जल्दी ही स्वस्थ हो जाएंगे. लेकिन यह मेरा भ्रम था. 12 अप्रैल
को शाम सात बजे के लगभग पार्क में टहलते हुए
मैंने मंजुश्री जी को यह सूचित करने के लिए फोन किया कि उनकी भेजी दोनों पुस्तकें
(कहानी संग्रह और उपन्यास) मुझे मिल गयी हैं. कुछ देर बात करने के बाद उन्होंने बताया
कि वह फोर्टिस अस्पताल में हैं, क्योंकि अरविन्द जी की दिन में वहां एनजीओ प्लास्टी
हुई है. उन्हें सांस लेने में तकलीफ थी इसलिए सुबह वह उन्हें फोर्टिस लेकर गयी थीं.
डाक्टरों ने उसी दिन एनजीओप्लास्टी कर दिया था. मुम्बई में रहने वाली उनकी बड़ी बेटी
नूपुर उनके साथ थीं. फोर्टिस में तीन दिन रखने के बाद उन्हें भाभा रिसर्च सेण्टर के
अस्पताल शिफ्ट कर दिया गया था.
20 अप्रैल
को सुबह मंजुश्री जी का व्वाट्स ऎप संदेश मिला
कि 19 की शाम 5.45 बजे अरविन्द जी को गंभीर हृदयाघात हुआ और वह नही रहे. मैं शॉक्ड.
मंजुश्री जी को फोन करने का साहस नहीं जुटा पाया. व्वाट्स ऎप मेसेज किया. शाम को किसी
प्रकार साहस जुटाकर फोन किया. ज्ञात हुआ कि मृत्यु से कुछ देर पहले अरविन्द जी को व्वाट्स ऎप पर प्रबोध
गोविल से कथाबिंब के नए अंक की पीडीएफ मिली थी, जिसे देखकर वह बहुत प्रसन्न थे. लेकिन
वह प्रसन्नत क्षणिक थी. कुछ देर बाद उन्हें दो बार तेज खांसी आयी और दूसरी खांसी जानलेवा
साबित हुई थी.
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8 टिप्पणियां:
'कथा बिम्ब' के सम्पादक अरविन्दजी पर लिखा आपका क्रमागत-संस्मरण पढ़ गया।
हिन्दी में जो कुछ लोग अपने जुनून के तौर पर जिम्मेदारी से पत्रिका निकालते रहे,उनमें माधव सक्सेना 'अरविन्द' की प्रतिबद्धता व निष्ठा मुझ हमेशा अलग महसूस होती रही है। उनसे कोई संवाद-सम्पर्क तो कभी नहीं हुआ, पर 'कथा बिम्ब' के अंक जब-तब देखे-पढे़ हैं।
खुद के लेखन को दरकिनार करते बीमारियों से लड़ते,साथ ही परिवार की जिम्मेदारियाँ उठाते हुए हिन्दी में पत्रिका निकालना (जिस में एक तो शायद उनके सेवानियोजन वाले प्रतिष्ठान की थी) मामूली जि़गर की बात नहीं है।
आपके इस संस्मरण में ये सब भी आया ही है। अरविन्दजी की तरह यह संस्मरण की तरह यह संस्मरण भी स्मरणीय है।
बन्धु कुशावर्ती १२.००२७-६-२०२३
नमस्कार चंदेल सर ,कथाबिम्ब से मुझे जोड़ने में भी कथाकार आदरणीय विजय जी का हो हाथ था ,उनका बीटा इंदौर में रहता था वे तब इंदौर आये थे .हमने उन पर केन्द्रित एक आयोजन किया था वैज्ञानिक और कथाकार से मिलिए .फिर विजय जी सपत्निक मेरे घर लंच पर आये थे .तभी उन्होंने मेरी पुस्तक ली और कहा की इन्सी समीक्षा मैं कर के भेजता हूँ कथा बिम्ब को . आप उन्हें कहानी भेजिए .अरविन्द जी इसके पहले मेरी एक क्काहने कई साल पहले वापस कर चुके थे किसी टिपण्णी के साथ .मैंने उन्हें बताया तो वे बोले दूसरी कहानी भेजिए इस बार .कहानी भेजी छपी भी और कमलेश्वर सम्मान भी दिया /लेकिन उनसे मेरी बातचीत भोपल आकर शुरू हुई वे मंजुश्री जी के साथ मेरे जनसम्पर्क कार्यालय आये थे मेरे ही कैबिन में बैठे रहे .उनके कुछ काम थे जो मैंने वहीँ इ करवा दिए थे .वे भोपाल किसी शादी में आये थे .फिर उनसे बातचीत होती रही ,मैं उन दिनों अमेरिका जानेवाले थी .वे भी जा रहे थे हमने बच्चो के नंबर आपस में दिए लिए .अमेरिका में मुलाकात तो नहीं हुई पर बात होती रही .फिर कई सालो से कोई संपर्क नहीं हुआ ,अंतिम कहानी आपक्वे सम्पादन वाले अंक में हीआई थी .आपकी पोस्ट से उनके देवलोक गमन का पता चला .अत्यंत दुखद खबर ,वे साहित्य के लिए समर्पत व्यक्ति थे .उनका जाना हम सब की क्षति है .उन्हें मेरा सादर नमन .श्रधा सुमन .स्वाति तिवारी
नमस्कार चंदेल सर ,कथाबिम्ब से मुझे जोड़ने में भी कथाकार आदरणीय विजय जी का हो हाथ था ,उनका बीटा इंदौर में रहता था वे तब इंदौर आये थे .हमने उन पर केन्द्रित एक आयोजन किया था वैज्ञानिक और कथाकार से मिलिए .फिर विजय जी सपत्निक मेरे घर लंच पर आये थे .तभी उन्होंने मेरी पुस्तक ली और कहा की इन्सी समीक्षा मैं कर के भेजता हूँ कथा बिम्ब को . आप उन्हें कहानी भेजिए .अरविन्द जी इसके पहले मेरी एक क्काहने कई साल पहले वापस कर चुके थे किसी टिपण्णी के साथ .मैंने उन्हें बताया तो वे बोले दूसरी कहानी भेजिए इस बार .कहानी भेजी छपी भी और कमलेश्वर सम्मान भी दिया /लेकिन उनसे मेरी बातचीत भोपल आकर शुरू हुई वे मंजुश्री जी के साथ मेरे जनसम्पर्क कार्यालय आये थे मेरे ही कैबिन में बैठे रहे .उनके कुछ काम थे जो मैंने वहीँ इ करवा दिए थे .वे भोपाल किसी शादी में आये थे .फिर उनसे बातचीत होती रही ,मैं उन दिनों अमेरिका जानेवाले थी .वे भी जा रहे थे हमने बच्चो के नंबर आपस में दिए लिए .अमेरिका में मुलाकात तो नहीं हुई पर बात होती रही .फिर कई सालो से कोई संपर्क नहीं हुआ ,अंतिम कहानी आपक्वे सम्पादन वाले अंक में हीआई थी .आपकी पोस्ट से उनके देवलोक गमन का पता चला .अत्यंत दुखद खबर ,वे साहित्य के लिए समर्पत व्यक्ति थे .उनका जाना हम सब की क्षति है .उन्हें मेरा सादर नमन .श्रधा सुमन .स्वाति तिवारी
एकदम इतिहास सरीखा जीवंत संस्मरण। कई स्थलों ने काफी भावुक कर दिया, विशेषकर तीसरी बेटी वाले प्रकरण ने। चलिए, उनकी तीसरी बेटी भी उनके रहते सुरक्षित हाथों में पहुँच गयी। वे भी इसे अपनी बेटी की तरह ही लाड़ से रखेंगे, विश्वास है।
एकदम इतिहास सरीखा जीवंत संस्मरण। कई स्थलों ने काफी भावुक कर दिया, विशेषकर तीसरी बेटी वाले प्रकरण ने। चलिए, उनकी तीसरी बेटी भी उनके रहते सुरक्षित हाथों में पहुँच गयी। वे भी इसे अपनी बेटी की तरह ही लाड़ से रखेंगे, विश्वास है।
टिप्पणी करने वाले सभी मित्रो का हार्दिक आभार
नमस्कार रूप जी
अभी संस्मरण पढ़ा। मन व्यथित हो गया। बेहद मार्मिक यादों का सिलसिला। कहते
हैं न - केवल यादें ही रह जाती हैं।
अरविन्द जी ने कथाबिंब में एक बार मुझे भी प्रकाशित किया था। उस कहानी का
बाद में मराठी अनुवाद भी हुआ। हिन्दी को समृद्ध करने के लिए उनका हर
प्रयास हिन्दी जगत पर उनका आशीर्वाद बन कर रहेगा। अरविन्द जी और उनके
प्रयास को मेरा नमन। अश्रुपूरित श्रद्धांजलि।
आप बेहद जीवंत संस्मरण लिखते हैं। आपको हार्दिक बधाई।
सादर
रिया शर्मा
आदरणीय नमस्कार!
आपके एवं अरविंद जी के बीच पत्राचार पढ़ा। यह समझ में आया कि आपके और उनके बीच अत्यंत मधुर संबंध थे। यह भी समझ में आया कि अरविंद जी के अंदर संपादकीय अहंकार बिलकुल नहीं था। संपादक को सहृदय और समझदार होना ही चाहिए। उनकी मृत्यु से दुख हुआ। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।
पंकज साहा
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