सोमवार, 23 जून 2008

कहानी


चित्र : डॉ० अवधेश मिश्र


पाषाण-गाथा

हिमांशु जोशी



नदी पार करने के पश्चात हल्की-सी चढ़ाई थी और उसके बाद यह दूसरी दुनिया. घने वनों के बीच बिछी हरी चादरें-- ओर-छोर का कहीं पता ही न चल पाता.

अभी गर्मी आरम्भ नहीं हुई थी, फिर भी गेहूं के बित्ते-भर ऊंचे पौधे हवा में लहलहा रहे थे. किसी ने बतलाया - ये नई किस्म के पौधे हैं, इससे ऊंचे नहीं जाते. जितना लम्बा डंठल है, उतनी ही लम्बी बाल भी लगती है.

उस पार आसमान की ओर उभरी एक नीली धुंधली रेखा साफ दिखलाई दे रही थी -- पर्वतों की माला.

सामने कतार में झोंपड़ीनुमा कच्चे घर थे-- घास-फूस के. अब याद नहीं, उनकी छतें टीन की चादरों से ढंकी थीं या घास-पयालासे. इतने लंबे वक्फे में तो बहुत-सी बातें यों ही धुंधला जाती हैं.

हां, जब हम वहां पहुंचे तो अनीब-सा लग रहा था. एक ऊंचा-सा काला शेड दाहिनी तरफ खड़ा था-- वर्कशाप जैसा. काले कपड़े पहने कुछ मजदूर काम पर जुटे थे. कहीं भट्टी में गरम लोहा तप रहा था. घन की भरपूर चोट से तपते लोहे को निश्चित आकार दिया जा रहा था. कुछ मजदूर लोहे के भारी शहतीर को उठाने का असफल प्रयास कर रहे थे. वहां शोरगुल कुछ अधिक था. धुंए के साथ-साथ धूल थी. उड़ती हुई रेत इतनी अधिक कि देर तक ठहर पाना कठिन लग रहा था.

तभी सामने अधेड़ उम्र का एक आदमी आया. उसकी घनी मूंछें डरावनी लग रही थीं. भौंह के काले बाल गुच्छे की तरह गुंथे हुए.

"फारम का काम आने वाला औजार हम अपनेई ठीककै लेइत हैं." उसने कहा.

"कब से यैं यहां ?" मैंने पूछा.

"तिन साल येहि चैत मा पूरा होई जाई."

"रहने वाले कहां के हैं?"

"सुलतानपुर कै."

बगल में खड़े अधिकारी ने मेरे कान के पास मुंह ले जाकर फुसफुसाते हुए कुछ कहा-- इतने धीमे स्वर में कि सामने खड़ा व्यक्ति न सुन सके. फिर भी पता नहीं, किस तरह वह भांप गया. बोला, "हमहु भी सजा आफता अहि--मुजरिक----."

"किस अपराध में?"

"दफा रीन सौ दोई-- उमर कइद."

मुझे आघात-सा लगा.

"जुर्म?"

"क-तल." उसने सहजभाव से कहा.

पर मेरा मुंह तनिक खुल-सा आया.

"यहां सभी कैदी लगभग ऎसे ही हैं." अधिकारी ने बतलाया, "अधिकतर दफा तीन सौ दो के हैं-- आजन्म कारावास वाले."

आस-पास खड़े अन्य व्यक्तियों को भी उन्होंने इशारे से पास बुलाया.

हत्या ! मार-पीट ! डकैती !

सुबह तड़के जब यहां के लिए रवाना हुए, तब कुछ-कुछ सर्दी थी. किन्तु इस समय दोपहर की धूप कहीं चुभ -सी रही थी.

समीप ही पेड़ के नीचे धूल से ढंकी, काठ की टूटी हुई दो-तीन पुरानी कुर्सियां पड़ी थीं. रूमाल से उन्हें साफ कर किसी तरह बैठ गए.

साथा आए सज्जन चाय की व्यवस्था करने चले गए.

कुछ देर पश्चात पुलिस अधिकारी के पिछे-पीछे एक नाटा-सा व्यक्ति केतली और लोहे के गिलास थामे, लम्बे-लम्बे डग भरता चला आ रहा था. उसकी सामने वाली जेब कुछ उभरी हुई थी-- बिस्कुट के छोटे पैकेट का ऊपरी हिस्सा साफ दिखलाई दे रहा था.

चाय लाने वाला भी कोई कैदी था, बनाने वाला भी.

पता नहीं चाय क्यों इतनी बेस्वाद लगी. एक अनीब-सी गंध आ रही थी. पानी ही ऎसा होगा, मैंने मान लिया था.

इस खुली जेल के बारे में कुछ विशेश जानकारी हासिल करने के लिए मैं यहां आया था. इन विकट अपराधियों को, इस तरह मुक्तभाव से विचरण करते देख , मुझे अजीब-सा लगा रहा था-- एक विचित्र-सी दहशत. ये भागते नहीं होगें? आपस में ही कभी फिर कत्ल!

"अभी आपको कैदियों के फार्म की ओर भी जाना है. गेहूं की यह फसल इन्हीं कैदियों ने उगाई है. यहां पहले बियाबान जंगल था. इन्हीं लोगों ने उसे साफ किया था." खाकी कपड़े पहने एक व्यक्ति पास आकर बोला.

कुछ क्षण विश्राम करने के पश्चात हम फिर आगे बढे़-- खोतों की तरफ.

यहां परती धरती तोड़ी जा रही थी. दो-तीन ट्रैक्टर धूं-धूं करते हुए, ढेर सारी धूल एक साथ उड़ रहे थे. ट्रैक्टरों के पीछे-पीछे कुछ लोग नंगे पांव दौड़ से रहे थे -- जो भी पत्थर सामने दीखता, उथाकर एक ओर जमा करते चले जाते.

जहां ट्रैक्टर चल चुके थे, वहाम टोलियों में बिखरे लोग घास-फुस इकट्ठी करके जला रहे थे. जगह-जगह घास की ढेरियों के पास धुआं उठ रहा था. बुआई के लिए खेत यधाशीघ्र समतल हो जाएं, सब इसी प्रयत्न में जुटे दीख रहे थे.

सिर पर मोटे खद्दर की मैली-सी टोपी, उसी कपड़े की आधी बांह की बंडी, घुटने तक का वैसा ही पाजामानुमा कच्छा पहने कितने ही लोग यंत्रवत काम में जुटे थे. अलग-अलग दिशाओं में अनेक टोलियां फैली थीं.

घंटों तक पैदल इधर-उधर चलने के पश्चात अंत में हम उस सिरे पर पहुंचे, जहां कैदी मजदूरों ने अपने ही प्रयत्नों से एक नाले का बहाव रोककर , छोटी-सी कृत्रिम झील बना ली थी. बीच पानी में ई पेड़ आधे-आधे डूबे थे. किनारे की लाल कच्ची मिट्टी अभी तक भी गीली थी,जैसे अभी-अभी झील का निर्माण-कार्य समाप्त हुआ हो.

कुछ और आगे बढ़कर अंधेरे जंगल के सिरे पर पहुंचे तो वहां गीली जमीन पर शेर के पंजों के जैसे निशान दिखलाई दिए.

"यहीं पर कुछ दिन पहले शेर ने एक कैदी को मार डाला था----." पुलिस आधिकारी ने और आगे न बढ़ने के लिए चेतावनी-सी देते हुए कहा.

जब हम पीछे मुड़ने लगे तो सूरज फिसलता हुआ क्षितिज के समीप पहुंच चुका था.

फार्म की सीमा-रेखा के निकट, एक ऊंचे वृक्ष की शाखाओं पर, हवा में झूलती एक झोंपड़ी -सी अटकी थी-- इतनी छोटी कि एक व्यक्ति पांव फैलाकर सो भी न पाए.

"यह किसलिए----?"

"रात में पहरेदारी के लिए यह मचान बना रखा है कि कहीं कोई कैदी निकल न भागे."

"पहरेदारी कौन करता है ?"

"इन्हीं कैदियों में से----."

तभी सामने से गुज़रते कैदी को आवाज लगाई तो वह सहमता हुआ खड़ा हो गया.

"आजकल यही पहरेदारी कर रहा है."

’सारी रात इस जंगल में अकेले बैठे डर नहीं लगता?"

वह बोला कुछ नहीं-- बस, यों ही देखता रहा.

"कभी घर जाने को मन करता है ?"

उसनेमात्र सिर हिला दिया.

"अब कितने बरस बाकी हैं?"
"------"

"यहां की जिन्दगी बहुत कष्टकर है न!"

इस बार भी वह काठ-सा देखता रहा.

उसकी उदास आकृति पर राख-सी पुती थी. सूनी आंखें यंत्रवत खुली . घास-सी उगी दाढ़ी के बाल बेढंगे लग रहे थे.

"कोई कैदी इस खुली जेल से कभी भागता तो नहीं ?" मैं पुलिस अधिकारी से पूछता हूं -- चलते-चलते.

"ऎसे वाकये कम ही होते है...."

सूरज धलने के साथ-साथ सभी कैदी-मजदूर डेरे की दिशा में लौट रहे थे-- हारे-थके-से. प्रायः सबके सिरों पर जलाने के लिए एकत्र की गई लम्बी-सूखी लकड़ियों का छोटा-सा गट्ठर था. सब बेजान-से लग रहे थे--- मशीन की तरह.

पूर्वी क्षेत्र में एक छोटा-सा हिस्सा अभी देखना बाकी था. जल्दी-जल्दी उसे देखकर लौटे तो आसमान पर ढकना-सा लग गया था, काले कंबल का, एकदम घुप्प अंधियारा.

अंग्रेजी के ’एल’ के आकार में बनी झॊंपड़ियों के आगे खुला-सा बंजर मैदान था-छोटा-सा , जिसमें बीसियों चूल्हे अलग-अलग जल रहे थे. अल्युमीनियम की पिचकी हुई काली पतीलियों पर चावल जैसा कुछ बुदबुद करता हुआ उबल रहा था. दिन-भर के श्र से थके सभी कैदी रात का भोजन बनाने में जुटे थे.

"राशन सरकार देती है ?"

"जी हां."

"पेट भर जाता है?"

"हां"

एक जवान कै़दी की ओर मुड़ता हूं, "घर से मिलने कभी कोई आता है ?"

"दूर के रिश्ते की एक बुआ थी. साल-छह महीने में कभी खाने-पीने का कुछ सामान बेचारी डाल जाती थी. पर इस वर्ष माघ महीने में वह मर गई----." उसका मासूम चेहरा एकाएक उदास हो आया था.

घर में और कोई नही.....?"

"न्नां....."

उसके चेहरे पर अजीब-सी व्यथा, अजीब-सी विवशता थी. उसे देखकर लगता नहीं था कि इससे इतना बड़ा अपराथ हुआ होगा, जिसकी ऎसी कठिन सजा भुगत रहा है.

कैदियों की झोपडियां भीतर से बैरकनुमा थीं-- खुली हुई. नीचे मिट्टी के कच्चे फर्श पर सूखा पयाल बिछा था, उसके ऊपर कॊई फटा कंबल या चटाई मात्र. किसी-किसी कैदी के पास chhotaaभीथा. कहीं पर जंग लगे टूटे कनस्तर में पिचका हुआ पुराना ताला भी लटक रहा था- शायद घर से भेजी वस्तुएं सुरक्षित रखने के लिए.

मैं सोचता रहा-- वस्तुएं भी क्या होंगी, इन अनिकेत विस्थापितों के पास ! तन के पकद़्ए, फटे कंबल, चावल, आटा, बीड़ी, गद़्अ ! इनके अलावा और क्या ?

आंगन की दाहिनी तरफ, एक कोने में मूर्ति का -सा जैसा एक ढांचा खड़ा था.

"यह मूर्ति किसी कैदी ने बनाई है ?" जिज्ञासा से मैंने पूछा.

"जी हां"

उसी के निकट जूल्हा जल रहा था. एक बूढ़ा कैदी गर्दन झुकाए , ऊंघता हुआ बैठा चावल उबाल रहा था. सैंवार की तरह उलझे बाल. कोटरों में धंसी निस्तेज आंखें ! झुर्रियों से ढंका चेहरा !

"इसी ने बनाई है ---- पहले बरेली सेन्ट्रल जेल में था. सुना है, वहां भी ऎसा ही कुछ करता रहता था." पुलिस अधिकारी ने बतलाया.

हमें पास देखते ही उसने उठ खड़े होने की कोशिश की. उसकी कमर धनुष की तरह झुकी थी -- अधखुली आंखों मेम जिज्ञासा का-सा जैसा भाव.

"बहुत अच्छी बनाई है." मूर्ति को मैंने हाथ से छूकर देखा-परखा.

वह संकोच से और चोटा हो आया - सिकुड़कर. मेरी ओर देखता हुआ बोला, "यों ही कुछ --- अब आंख से बहुत कम देख पाता हूं. हाथों में भी जान नहीं रही."

"यहां कैसे आ गए.....?"

कुछ देर वह वैसा ही देखता रहा -- निर्निमेष. फिर धीरे-से बुदबुदाता हुआ बोला, "हत्या और बलात्कार का जुरम लगा है साब...."

अब आग के और निकट होने के कारण उसका सूखे खजूर-सा चेहरा और भी पीला लग रहा था. मकड़ी के जाले-जैसी अनगिनत रेखाओं से ढंकी आकृति पर एक साथ कितने ही भाव आ-जा रहे थे--- पानी पर डोलते प्रतिबिम्ब की तरह.

"कैसे हो गया यह सब....?"

"किस्मत में यही लिखा था, हुजूर ! उसकी लिखी को कौन टाल सकता है ?"

ठंडी हवा से उसके तन पर लटके चीथड़े ही नहीं, उसका सारा बूढ़ा शरीर सूखे पत्ते की तरह कांप रहा था. अपनी कुहनियों की बगल में दोनों नम्गे हाथों को सर्दी से बचाने के लिए, चिपाने का असफल प्रयास कर रहा था.

"कैदियों के साथ इतनी लंबी उम्र गुजारने के बाद मैम इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि कॊई भी आदमी ’बेसिकली’ बुरा नहीम होता. आवेश के किसी क्षण में कभी-कभी कुछ-का कुछ हो जाता है." पुलिस अधिकारी ने दार्शनिक अंदज में कहा.

हम लोग थोड़ी देर यों ही खड़े रहे. एक-एक पल भारी लग रहा था -- एकदम बोझिल . चूल्हे की धंधली आग के उजाले में मूर्ति का धांचा अब और भी साफ दीख रहा था.

भरी मन से हम लौटने लगे. अभी कुछ ही कदम अंधेरे में रास्ता टटोलते हुए आगे बढे़ तो फिछे से किसी के आने की आहट हुई.

मुड़कर देखा - वह फिर सामने खड़ा था -- तनिक हांफता हुआ.

"आपका मफलर रह गया था. जमीन पर गिरा था." उसने मफलर मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा.

जब मैं मूर्ति को टटोल रहा था, तब कंधे पर से शायद नीचे गिर पड़ा हो.

"आप ही रख लीजिए." मैंने पता नहीं क्या सोचकर कहा.

"नहीं-नहीं." वह और कसरा आया.

"अरे भाई,हम कह रहे हैं. रख भी लीजिए. क्या फर्क पड़ता है!"

मैंने मफलर उसके हाथ में दिया, तो वह ठगा-सा खड़ा देखता रहा.

"आप और भी अच्छी-अच्छी मूर्तियां बनाएं, हमारी शुभकामनाएं हैं...." मफलर अभी तक भी उसके हाथ में यों ही धरा था.

कुछ सोचता हुआ बोला, "मैंने कुछ और भी मूर्तियां बनाई हैं--- मिट्टी की. दिन की रोशनी में आप आते तो देखलाता. आपके चेहरे के भावों से लगता है, आप कला के अच्छे पारखी हैं----." कहते-कहते वह सहसा चुप हो आया. फिर तनिक रुककर बोला - "आपको भी यही लगता है कि मैंने हत्या की है?"

"........"

उस अंधकार में मैं महसूस कर रहा था, वह अपलक मेरी ही ओर देख रहा है.

"किसी से कहिएगा तो नहीं--- ", वह मुझे पुलिस- अधिकारी से कुछ दूर एकान्त में ले जाता हुआ बोला, "यह भूल --- यह भूल मुझसे नहीं, मेरे बेटे से हुई थी. भरी जवानी में उसे फांसी के तख्ते पर झूलते या उमरकैद की सजा काटते मैं कैसे देख सकता था ? इसलिए जुर्म मैंने खुद ओढ़ लिया . .... यों मुह्हे अब जीना ही कितना है --- हद-से हद साल-चह महीने बस---." उसका सर भारी हो आया.

"बच्चे कभी मिलने आते हैं?" मैंने असह्य मौन तोड़ते हुए कहा.

वह कुछ भी बोल न पाया-- प्रत्युत्तर में.

"चिट्ठी-पत्री आती है....?’

"न्नां....!" कहीं खोया-खोया-सा वह बोला, "कौन लिखेगा मुझे चिट्ठी--- सब मुझसे घृणा करते हैं . यही समझते हैम कि यह सब बुढ़ापे में मैंने ही किया. सगे-संबंधी कतराते हैं. पत्नी मेरा मुंह तक नहीं देखना चाहती----. जिस बेटे के लिए मैंने यह सब किया, वह मुझे कब का मरा मान चुका है..... ये सारे कैदी, जिनकी चादरें मुझसे भी अधिक मैली हैं , मुझ पर थूकते हैं.... किन्तु मुझे इस सबसे दुःख नहीं होता. मेरे बच्चे सुख से रह रहे हैं--- इससे अधिक मुह्हे और क्या चाहिए ?"

उसकी आवाज़ भीग आई थी. किन्तु वह अपनी रौ में बोलता रहा, "यहां मजदूरी से मुझे साढ़े चार रुपए रोज मिलते हैं . अब तक मेरे खाते में जितने भी रुपए जमा हैं, सब मैंने उनके नाम करवा दिए हैं. मेरे मरने के बाद उन्हें अच्छी रकमे मिल जाएगी---- बहुत अच्छी...." उसकी लड़खड़ाती आवाज में कहीं अपरिमित संतोष का-सा भाव उभर रहा था. इससे अधिक वह कुछ बोल न पाया.

उस सघन अंधकार में धूल उड़ाती हुई हमारी जीप जब लौटने लगी, तब मैंने सहसा मुड़कर देखा --- वह वैसा ही पाषाणवत खड़ा था.

******

ग्रणी कथाकार एवं पत्रकार हिमांशु जोशी का जन्म ४ मई १९३५ को उत्तर प्रदेश (अब उत्तरांचल० में हुआ था. लगभग २९ वर्ष देश की अग्रणी पत्रिका ’साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में वरिष्ठ पत्रकार. कोलकाता से प्रकाशित साहित्यिक मासिक पत्रिका ’वागर्थ’ के सम्पादक रहे.
* जोशी जी की प्रमुख प्रकाशित कृतियों में अरण्य, महासागर , छाया मत छूना मत, कगार की आग, समय साक्षी है, तुम्हारे लिए तथा सु-राज (सभी उपन्यास०, अन्ततः तथा अन्य कहानियां, मनुष्य-चिन्ह तथा अन्य कहानियां, जलते हुए डैने तथा अन्य कहानियां, रथचक्र , तपस्या तथा अन्य कहानियां, गंधर्व-गाथा, इस बार फिर बर्फ गिरी तो , नंगे पांवो के निशान सहित अठारह कहानी संग्रह, तीन कविता संग्रह, दो वैचारिक संस्मरण-संकलन, साक्षात्कार, यात्रा-वृत्तान्त, जीवनी तथा खोज, रेडियो नाटक और बाल साहित्य की नौ पुस्तकें प्रकाशित.

*लगभग ३५ शोधार्थियों ने साहित्य पर शोध कर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की. कई विश्वविद्यालयों में रचनाएं पाठ्यक्रम में.
* अनेक भारतीय भाषाओं , अंग्रेजी, नेपाली, वर्मी, चीनी, जापानी , इटालियन, नार्वेजियन सहित लगभग २४ भाषाओं में साहित्य अनूदित.
* उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, हिन्दी अकादमी, दिल्ली, तथा राजभाषा विभाग बिहार सरकार द्वारा पुरस्कृत. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग का सर्वोच्च समान ’साहित्य वाचस्पति’ . नार्वे का साहित्य के लिए ’अंतरराष्ट्रीय हेनरिक सम्मन’ वर्ष २००७ .

* अनेक संगठनों एवं संस्थानों से संबद्ध. भारत सरकार की हिन्दी-सलाहकार समितियों मे.
* अमेरिक, नार्वे, स्वीडन , डेनमार्क, जर्मनी, फ्रांस, नेपाल, ब्रिटेन, मारीशस, त्रिनिदाद, थाईलैण्ड, सूरानाम, नीदरलैण्ड, जापान, कोरिया, आदि अनेक देशों की यात्राएं.
* सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन. नार्वे से प्रकाशित पत्रिका ’शांतिदूत’ के विशेष सलाहकार.

*संपर्क : ७/सी-२, हिन्दुस्तान टाइम्स अपार्टमेण्टस,
मयूर विहार, फ़ेज-एक, दिल्ली - ११००९१
फॊन : ०११-२२७५२३३० , मोबाइल : ०९८९९३११९३२

आगामी अंक

आगामी अंक में ’हम और हमारा समय’ के अंतर्गत युवा कवि- कथाकार इला प्रसाद का आलेख और वरिष्ठ कथाकार-पत्रकार सुरेश उनियाल की कहानी तथा अन्य सामग्री.

कोई टिप्पणी नहीं: