शुक्रवार, 27 जून 2008

कविता




विशेष

वरिष्ठ कवि, साहित्यकार और पत्रकार कन्हैयालाल नन्दन १ जुलाई, २००८ को अपने जीवन के पचहत्तर वर्ष पूरे कर रहे है. मेरे लिए यह सुखद अनुभूति है कि जिस ’भास्करानन्द इंटर कॉलेज, नरवल’(कानपुर) से उन्होंने हाईस्कूल किया था मैंने भी १९६७ में वहां से हाईस्कूल किया था. स्पष्ट है कि मुझसे लगभग १८ वर्ष पहले वह वहां के विद्यार्थी रहे थे. नन्दन जी का जन्म मेरे गांव(जिला -कानपुर) के पड़ोसी गांव परशदेपुर (जिला-फतेहपुर) में हुआ था. अपनी हाईस्कूल की पढ़ाई के दौरान मैं जिन दो लोगों की चर्चा सुना करता था वे रामावतार चेतन और कन्हैयालाल नन्दन थे और संयोग से दोनॊं एक ही गांव के रहने वाले थे. नन्दन जी से मेरी पहली मुलाकात १९७८ में हुई थी . तब वह सारिका के सम्पादक थे और मैं साहित्य की दुनिया में लड़खड़ाते हुए कदम रख रहा था. मैं उनसे जंगपुरा के उनके किराये के मकान में मिला था और लगभग चार घण्टे तक विभिन्न विषयों में उनसे बातें करता रहा था. हमारी बातों में बार -बार गांव आता रहा था और भाभी जी हमारी बातों में विशेष रुचि लेती रही थीं. उसके बाद उनसे मुलाकातें तो अनेकों हुई, लेकिन अल्पकालिक . तीन बार उनके दफ्तर (एक बार सारिका कार्यालय में , एक बार नवभारत टाइम्स और एक बार सण्डे मेल दफ्तर में) और शेष मुलाकातें किसी न किसी साहित्यिक कार्यक्रम में. लेकिन उनका स्नेह मुझे सदैव मिलता रहा . हाल में, लगभग तीन-चार महीने पहले शाम पांच बजे के लगभग उनका फोन आया. कुछ देर बातें करने के बाद एक क्षण वह ठहरे फिर बोले - "दरअसल तुम्हे प्यार करने का मन हुआ इसलिए फोन कर लिया " और ठहाका लगाकर हंस दिए. नन्दन जी मेरे गुरू राजेश्वर शुक्ल के सहपाठी रहे हैं और मैं शुक्ल जी से डरा करता था इसलिए नन्दन जी से भी डरता हूं , लेकिन यह डर बड़े भाई के सामने छोटे भाई वाला डर है. बड़ों के सामने विनयावनत रहना संस्कार में मिला , अतः इसे इस रूप में भी देख सकते हैं.

मैंने कमलेश्वर जी का लंबा साक्षात्कार किया था. नन्दन जी उन दिनों गगनांचल के सम्पादक थे. साक्षात्कार का एक अंश प्रकाशनार्थ वहां भेजेने के लिए नन्दन जी को फोन किया . सुनते ही बोले - " इसमें पूछने की क्या बात है! तुरन्त भेजो. न्यूयार्क विश्व हिन्दी सम्मेलन के समय प्रकाशित होने वाली स्मारिका का वह सम्पादन कर रहे थे. डॉ० शिवप्रसाद सिंह के उपन्यास - ’अलग-अलग वैतरिणी’ पर आलेख मांगा . समय दिया केवल २० दिनों का. मैं उन दिनों अपनी पुस्तक ’दॉस्तोएव्स्की के प्रेम’ में उलझा हुआ था. लिखा कि मेरे पास ’नीला चांद’ पर आलेख तैयार है. वह भेज सकता हूं. ’अलग-अलग वैतरिणी’ पुनः पढ़ना और उसपर इतने दिनों में लिख भेजना कठिन होगा. उनका पत्र आया कि आलेख मुझे ही लिखना है और वह भी ’अलग-अलग वैतरिणी’ पर ही . समय सीमा उन्होंने १० दिन और बढ़ा दी. मुझे नन्दन जी के आदेश को सिरोधार्य करना पड़ा और उनके पूर्व दिए समय सीमा के अंतर्गत मैंने आलेख लिख भेजा . इसके लिए एक सप्ताह मुझे ’दॉस्तोएव्स्की’ को स्थगित करना पड़ा था.

नन्दन जी की निरन्तर सक्रियता आज की युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणास्रोत है. वातायन की ओर से हम उनके शतायु होने और सुखद सम्पन्न जीवन की कामना करते हैं. इस अवसर पर प्रस्तुत हैं उनकी पांच कविताएं :

एक


वसंत घर आ गया

अतसि नील गोटे की
सरसों सी पीली-पीली
पुण्य पीत साड़ी में वेष्टित
नवनीत गात कोंपलों- सी रक्ताभअधरों पर लिए हुए
तार झीनी बोली में
कोयल-सा गा गया।
क्षण क्षण बदलाती सौंदर्य की छायाओं-सा
जीवन के पतझड़ में
कोई मुस्का गया
वासंती छवि का समंदर लहरा गया
लगा कि जैसे वसंत घर आ गया।

दो

सूरज की पेशी

आंखों में
रंगीन

नज़ारे

सपने बड़े बडे़.
भरी धार लगता है
बालू बीच खड़े.
बहते हुए समन्दर
मन के ज्वार
निकाल रहे.
दरकी हुई शिलाओं में
खरापन डाल रहे
मूल्य पड़े हैं बिखरे
जैसे
शीशे के टुकड़े
नजरोंमकके ओछेपन
जब
इतिहास रचाते हैं
पिटे हुए मोहरे
पन्ना पन्ना भर जाते हैं
बैठाये जाते हैं
सच्चों पर
पहरे
तगड़े.
अंधकार की पंचायत में
सूरज की पेशी
किरणें
ऎसे करें गवाही
जैसे
परदेसी
सरेजाम
नीलम रोशनी
ऊंचे भाव चढ़े.
भरी धार लगता है
जैसे
बालू बीच खड़े.


तीन
बोगनबेलिया
ओ पिया
आग लगाए बोगनबेलिया!
पूनम के आसमान में
बादल छाया
मन का जैसे
सारा दर्द छितराया,
सिहर-सिहर उठता है
जिया मेरा,
ओ पिया!
लहरों की दीपों में
कांप रही यादें
मन करता है
कि
तुम्हे
सब कुछ बतला दें-
आकुल
हर क्षण को
कैसे जिया,
ओ पिया !
पछुआ की सांसों में
गंध के झकोरे
वर्जित मन लौट गए
कोरे के कोरे
आशा का
थर थरा उठा दिया!
ओ पिया!

चार

अंग अंग चन्दन

एक नाम अधरों पर आया
अंग-अंग
चन्दन
वन हो .
बोल हैं
कि वेद की रिचाएं?
सांसों में
सूरज उग आएं
रितुपति के छंद
तैरने लगे
मन सारा नील गगन हो गया.
गंध गुंथी बाहों का घेरा
जैसे
मधुमास का सवेरा
फूलों की भाषा में
देह बोलने लगी
पूजा का
एक जतन
हो गया.
पानी पर खींचकर लकीरें
काट नही सकते जंजीरे.
आसपास अजनबी अंधेरों के देरे हैं
अग्निबिन्दु
और सघन हो गया!
अंग-अंग
चन्दन वन हो गया!

पांच

ज़िन्दगी (चार कविताएं)

(१)
रूप की जब उजास लगती
ज़िन्दगी,
आसपास लगती है
तुमसे मिलने की चाह
कुछ ऎसे
जैसे खुशबू को
प्यास लगती है.

(२)

न कुछ कहना
न सुनना
मुस्कराना
और आंखों में ठहर जाना
कि जैसे
रौशनी कि
एक अपनी धमक होती है
वो इस अंदाज में
मन की तहों में
घुस गए
उन्हें मन की तहों ने
इस तरह अंबर पिरोया है
सुबह धूप जैसे
हार में
सबनम पिरोती है.

(३)
जैसे तारों के नर्म बिस्तर पर
खुशनुमा चांदनी
उतरती है
इस तरह ख्वाब के बगीचे में
ज़िन्दगी
अपने पांव धरती है
और फिर करीने से ताउम्र
सिर्फ
सपनों के
पर कुतरती है

(४) जिन्दगी की ये ज़िद है

ख्वाब बन के
उतरेगी.
नींद अपनी ज़िद पर है
-- इस जनम में न आएगी
दो ज़िदों के साहिल पर
मेरा आशियाना है
वो भी ज़िद पे आमादा
--ज़िन्दगी को
कैसे भी
अपने घर
बुलाना है.


डॉ० कन्हैयालाल नन्दन : जन्म सन १९३३ में, उ०प्र० के फतेहपुर जि़ले के गांव परसदेपुर में. आपने डी०ए०वी० कॉलेज कानपुर से बी०ए), प्रयाद वि०वि० से एम०ए० और भावनगर यूनिवर्सिटी से पी-एच०डी० की उपाधि ली. चार वर्ष तक मुंबई वि०वि० के कॉलेजों में हिन्दी अध्यापन के बाद १९६१ से १९७२ तक ’धर्मयुग’ में सहायक सम्पादक रहे; १९७२ से क्रमशः ’पराग’ ’ सारिका’ और ’दिनमान’ का संपादन. तीन वर्ष’ नवभारत टाइम्स में फीचर सम्पादक. छह वर्षत क हिन्दी ’संडे मेल’ के प्रधान संपादक रहे. तीस से अधिक पुस्तकें.

संपर्क : १३२ ए० कैलाश हिल्स कालोनी,

नई दिल्ली

E-mail: klnandan@yahoo.com

1 टिप्पणी:

seema gupta ने कहा…

आंखों में
रंगीन

नज़ारे

"wah bhut sunder poems, read all of them and liked them"
Regards