शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

कहानी

वरिष्ठ कथाकार हरिसुमन बिष्ट की कहानी

कौसानी में जैली फिश

सुबह की पहली चाय आनन्द विहार बस अड्डे पर पीने के बाद, बस से हल्द्वानी को चल पड़ा।
दो बजे हल्द्वानी पहुंचा। कौसानी की बस एक बजे चली गयी थी। वह कौसानी-बागेश्वर की आखिरी बस थी। अब जीप ही एकमात्र विकल्प साधन था। पहाड़ों पर उनसे यात्रा जितनी सुविधाजनक थी, उतनी ही खतरनाक भी। फिर भी बिना किसी भय के लोग उनकी सुविधाओं का लाभ उठाने को खड़े थे।
सुबह आठ बजे एक हादसा हो चुका था। हल्द्वानी से रानीखेत जा रही बस भवाली के समीप गहरी खायी में गिर गयी थी। अठारह यात्री मारे गये थे। हल्द्वानी शहर हिला हुआ था। किन्तु जीप ड्राइवर इस घटना की सूचना से जरा भी विचलित नहीं थे। उनके लिए यह कोई नयी घटना न होकर सामान्य थी। उनके चेहरे के भावों को पढ़कर मैंनें भी सायास अपने मन में बैठे भय को बाहर धकेला और कौसानी तक का किराया पूछ डाला।

तालों में ताल भीमताल से होकर जाने में भय कम तो हुआ। यह रास्ता मैनें पहले कभी नहीं देखा था। भीमताल घने कोहरे में छिपा था - मन के कोने में छाए कोहरे से कम घना। दूर-दूर तक पहाड़ियों की पंक्तियां-सी दिख रही थीं किन्तु ताल में तैरती नौकाएं अपना पाल फैलाने के बावजूद हिल डुल नहीं रही थीं।
रह-रहकर बचपन के वे दिन याद आने लगे, जब ये नौकाएं निमित होती थीं और उद्देश्य भी, तब यहां रास्ता भवाली से होकर आता था। बोझिल और अजीब तरह के भय से अटा पड़ा रास्ता। पंत के शब्दों में कहूं- ''लिपटे भू के जघनों से घन/ प्राणों की ज्वाला जन-मादन/ नाभि-गर्त में घूम भंवर-सी करे मर्म आकांक्षा नर्तन।''
श्रृंगार के रंगों में डूबे हुए इस चित्र के यहां होने की सार्थकता पर आपत्तिा नहीं हो सकती। क्योंकि भावावेश में जिन दिनों को स्मृति पर समेटने का प्रयास कर रहा था-- उनमें यह सब प्रसंग बरबस याद आना स्वाभाविक था। आज स्थिति एकदम भिन्न थी- न निमित वह न उद्देश्य। बस घने कोहरे में एकदम लिपटे ताल के ऊपर मैं हवाई जहाज से नहीं,
जीप से यात्रा कर रहा था। दृश्य मनोरम जरूर था, दूर-दूर तक भटकाव का अंदेशा भी नहीं था।
पहाड़ में जीवन जीने के विकट रास्ते दिखने लगे। उन रास्तों से गुजरना ही जीवन का होना था। पहाड़ के इस छोर से उस छोर तक सैंकड़ों घूम। हर घूम में छिपा एक भूत रहता था। इसमें तर्क नहीं भाव की प्रधानता थी। एक ओर गहरी खाई और उसमें कल-कल, छल-छल बहती कोसी की जलधारा तो, दूसरे घूम पर एक नया दृश्य और नया जीवन होने की जिज्ञासा। . . .
पहाड़ होते ही हैं इतने जीवंत। पहाड़ न होते तो जीवन न होता। पहाड़ न होते तो मानव का विकास न होता। पहाड़ न होते तो पंत न होते-प्रकृति की सुकुमारिता उन्हेंं न मिलती।
पंत का जीवन पहाड़ सदृश्य था। जहां हर घूम की अबूज पहेली आज भी है। बांझ-बुरांश और देवदार के घने जंगल, चारों ओर फैली पर्वतमालाएं - उनमें गूंजती गिरि कोयल की बोली। प्रकृति से साहचर्य और निसर्ग से तादात्म्य करता पंत का व्यक्तित्व।
दूर-दूर तक फैली सोमेश्वर घाटी। घाटी में लहलहाते धान के खेत, खेतों में गूंजते हुड़कियां बौल और दूर से आती किसी मन चले की बांसुरी का स्वर। दरअसल बचपन से ही थिरकते थे पांव पंत के - शायद पालने से। यहां का हर जीव गुनगुनाता, लोरियां सुनाता या फिर कविता-सा करता हुआ। कविता के बोल ज्यों-ज्यों आकार लेते गए, कुंतल केशों की लट खुलती गयी-प्रकृति के हर खोह से नए-नए अर्थ प्रतिध्वनित होते गए। विरागनाओं की घाटी का उत्स कमजोर पड़ता गया, कुआंरी प्रकृति का सुकुमार जीवन एकरसता की भेंट चढ़ता गया, कोई कहता है - प्रकृति में सभी रस यहां मौजूद हैं - कभी रहें होंगे। अब खेत बंजर हैं, जंगल की घनी छाया में उजास है - कुआरी बाला का शरीर छिंदा-विंदा है, रस-रास की ठौर पर विरह-वेदना मुखर है . . .
कभी लौटकर नहीं आए पंत, प्रकृति का सुकुमार कवि। अधूरा रहा श्रंगार प्रकृति का। एक दिन को आए थे बापू, मुग्ध होकर चौदह दिन तक यहां ठहर गए
, वे भी श्रंगार पूरा कर न सके-अधूरा रहा। पंत नहीं हो सकता मैं - बापू भी नहीं - कोई भी नहीं - हो भी नहीं सकता कोई। मन की उडान दूर तक टोह लेती, आंखें हिमालय के एक सौ अस्सी किलोमीटर फैली लम्बी बाहों को निहारतीं- कुछ नहीं दिखता साफ-साफ-।
हिमालय भी शर्म से पीला था। उसका पीला रंग आंखों को खूब भा रहा था। जगह-जगह पीयूली खिली थी, पुष्प संक्रांति का पर्व भी हो सकता था। गांव की हर देहली पर चढते वे पुष्प। गांव में जन्में शिशुओं का हिसाब लगाते हुए कि कितनों ने पांव रखा है इस पावन भूमि पर। नयी टोकरी बनी होगी किसी की, ऐंपड में रची गयी होंगी विहंगम दृश्य की बारीक लकीरें। और उन्हीं फूलों से भर दी गयी होगी वह टोकरी . . .
गहरे घने बादलों की परत दर परत चादर पर लिपटा था हिमालय। फिर भी उसकी गूजती आवाज पहाड़ियों से प्रतिध्वनि हो रही थी - कहां हो प्रकति पुत्र ! कहां है वह सुकुमार कवि !! क्या कवि का होना ही कौसानी का होना है या फिर कौसानी का होना ही कवि का होना है। . . .
देश भर से बीसियों कवि पहुंच चुके थे। जीतू होटल का हर कमरा और अनाशक्ति आश्रम की हर फिजां में कविता की रस बयार बह रही थी। कण-कण और तृण-तृण में कविता गूंज रही थी
, हर कण्ठ सरस और मधुर। भले ही रसभरियों का मौसम नहीं था यह - हर शब्द में रस जरूर भरा था। अधूरा था तो काव्यकलश; यत्र-तत्र छलकती कविता की बूंदें गाम्भीर्य लेश मात्र भी नहीं।
कवितामय वातावरण, प्रभा-विभा, संगीत, ताल, छंद और लय - सब का एक अद्भुत सामंजस्य, सभी प्राय एक दूसरे के। एकांत में था मेरा मन - अजीब तरह की बेचैनी से भरा-भरा-सा। नहीं, ऐसा सोचना व्यर्थ नहीं हो सकता - हठीला मन उसकी दास्तान पूछने से नहीं चूका-आंखें सामने टिक गयीं। नजर एक हो गयी थी।
''यह सुमधुर कण्ठ तुम्हारा है -''
''जी-
''
''आयी कहां से हो ?''
''बता चुकी हूं-रात में-''
''किस समय-''
''आए थे जब, बैग उठाया था मैंने-''
''क्यों-''
''न मालूम क्यों प्रतीत हुआ था कोई आ चुका है, जिसकी प्रतीक्षा थी मुझे। बस-फिर तो आत्मीयता का कलश बरबस छलछला आया-''
''ओह, तो ये बात है-अजीब सा प्रतीत हो रहा है यह सुनकर - मुझे भी। तो, हम पहले भी मिले है''
''संभवत: बचपन में तब से प्रतीक्षारत - सूर्य की पहली किरण देखने का मन था-देख ली मैनें।
''नहीं , ऐसा मत कहो यहां देखने को है भी क्या ?''
''जिसे देख रही हूं -''
''वह सच नहीं है -''
''सच पर पंख नहीं होते-सच वही होता है जिसे आंखें देख रही होती हैं -

'इस धारा सा ही जग का क्रम/ शाश्वत इस जीवन का उद्गम/ शाश्वत है गति शाश्वत संगम।'
''नही, नहीं मैंने कहा न यह झूठ है-आज आसमान में बदली है, कल भी ऐसा ही रहा होगा - परसों भी ऐसा ही . . .। आसमान नहीं खुला अभी उसके खुलने की प्रतीक्षा है सभी को-''
''अच्छा, तो तुम्ही बता दो कब खुलेगा आसमान''उसने गम्भीरता से प्रश्न किया।
''जब फूआर बरसेगी, देवदारू जंगल जंगल खिल खिलाएेंगी, उनकी फुनगियां नाचेंगी गायेंगी, सोमेश्वर घाटी गूंज उठेगी
, कल-कल, छल का स्वरनाद करती कोसी का घटवार जलमग्न हो जाएगा - एकदम विहंगम दृश्य - जलप्लावन और कटती जमीन का कोना कोसी की जलधारा को गैरिक रंग में रंग देगा, प्रकृति के अप्रतिम सौंदर्य के साथ-साथ कई भयावह दृश्य भी - ।''
''ओह, मुझे डरा रहे हो -''
''नहीं, स्वयं तुम -''
''ऐसा कैसे हो सकता है - मैं ऐसा कैसे कर सकती हूं भला। ऐसा करूंगी भी क्यों? अब तुम आए हो, आत्मीयता का एक नया संसार आया है, न मालूम तुम्हें देखकर-''
यकायक उसका हाथ मेरे शरीर को स्पर्श कर गया।
छुईमुई नहीं था मैं, हो भी नहीं सकता था, पर कुछ ऐसा था उसकी छुअन भर से संकुचाया था। उसकी तरफ दृष्टि गयी -सोचा, कहीं अंगुलियां जख्मी तो नहीं हुई, या शहर की गर्द ओ गुबार का रंग तो नहीं चढ गया अंगुलियों पर। गौर से देखा तो ऐसा कुछ भी नहीं लगा। सिर्फ उनका गुलाबी रंग सुर्ख हो गया था। सहमा-सहमा सा मन। और शब्द उलीच दिए -''ठिठौली करने को मन कर रहा है क्या ?''
''कुछ-कुछ'' स्निग्ध मुस्कान बिखेर कर उसने कहा,
''मन भर कर हंसोगी नहीं ?''
''नहीं चिर यौवना हंसती नहीं कभी -''
''अजीब उपमा है''
''उपमेय भी -''
'ओह-आ चुका न मैं''
''तुम आ गए-आ गए तुम पूर्ण रूप में -''
''कैसा पूर्ण रूप -समझा नहीं मैं, अधूरा मैं था ही कब -''
''पूर्ण पुरुष को प्राप्त करने का उल्लास था मुझ में - मगर -''
''मगर क्या -''
''जिसके लिए मन उमड़ पड़ा था उसे अदृश्य भय ने खामोश कर दिया - पल भर के लिए-''
सच कह रही है यह, ऐसा ही महसूस हुआ था मुझे, जब पल भर की खामोशी के बाद विचलित मन चिहुंका तो मेरे भीतर कुछ झरने लगा- उसकी और मेरी फिर एक बार नजर एक हुई। गहरी झील सी आंखों में तैरने को मन हुआ। मेरे हाथ उसकी तरफ बढे, अंजुली भर चेहरे को पढ़ने का प्रयास करने से पहले ही मेरी हथेलियां फिसल गयीं और शब्द भी -
''हंसी नहीं -''
''नहीं आनन्द की अनुभूति''
''
स्पर्श नहीं''
''नहीं-सिर्फ अनुभूति -''
''कुण्ठित मन का विरास है यह -''
''और कुछ -''
''चिर यौवना रहने का शाप''
''पुरुष ग्रंथि का उत्सर्जन है यह -''
''यही सच है जैसा कुछ बुदबुदाया- वह मेरे शब्दों को सुन नहीं सकी, हो सकता है उसने सुनने की जरूरत नहीं समझी हो। मैंने हर ओर से उसे टटोलने का प्रयास किया। उसे मैं सड़कर बजबजाए हुए शरीर में एक पुतला भर लगा। मेरी बातों से उब हुई और उबकाई-भी। यदि ऐसा नहीं होता तो वह अपना स्पर्श जरूर देती। पर उसे मेरी सांस और शरीर बू मारते लगे। मैनें कहा
,
''जरा करीब नहीं बैठोगी''
''नहीं सोच रही हूं-पिंजडे में बन्द पाखी को मुक्त कर दूं-''
''सोच क्या रही हो ? कर दो न - ऐसा कर सकोगी !!''
''चुनौती-चुनौती मत दो मुझे - हरेक बस अपने लिए सोचता है।''
खूब हंसा में उसकी बात पर। मगर उसके चेहरे पर चढ़ते-उतरते भाव गहरे और गहरे होते लगे। उसे लगा चुनौती देकर चिढ़ा रहा हूं मैं उसे - हास्य- व्यंग्य का बज्र फैका है उस पर। भयानक विस्फोट का गर्जन करती वह बोली, ''किसी भी बंधन में नहीं रहना चाहती मैं -'' उसकी गम्भीरता को विचलित करते हुए मैंने कहा, ''
देखो, रंग बदल दिया क्षितिज ने - एकदम गैरिक रंग था उसका। नहीं, वह भी बदल रहा है अब ताम्रवर्णीयरंग में रंगा- अदभुत दृश्य अटठखेलियां करते वे बादल -नहीं, नहीं, नन्हें-नन्हें बच्चे है वहां बादलों के-
''विचित्र किस्म के हो - पहेलियां ही पहेलियां । कितना कुछ नहीं सोच देते पल भर में।''
''चलो कहां चलना है मुझे''
इस समय वह स्निग्ध मुस्कान को फिसलने से रोक न सकी। उसका मुस्कराना अब मुझे अच्छा नहीं लगा। गम्भीर होकर कहा - ''चढाई है, पांव फिसलने का डर - काई है जमीन पर - पक्की कोलतारी सड़क बनाने की जरूरत नही थी।''
''उम्र के इस पडाव पर हो अभी भी कच्चे फुटपाथ पर चलने की मंशा है क्या?''
''हां पहली सीढ़ी से चढने की चाह है मुझे- एकदम शिशु की भांति -''
''पक्के रास्ते की चाह नहीं -''
''पहाड़ों पर पक्के रास्ते अच्छे नहीं लगते - पगडंण्डिया सुन्दर दिखती हैं - उन पर चलने का आनन्द ही कुछ अलग है -''
''ऐसे क्यों देखने लगे मुझे कौसानी में बहुत कुछ है देखने को -।''
''तुमसे बढ़कर -''
''इस उम्र में दो राहे की सोचते हो -
''
''समझा नहीं मैं -''
''पंत का स्थान दिखाने आई थी मैं -''
''मैं भी-मगर रास्ता आसान नहीं-कठिन है।''
''डरते हो। पुरुष होकर भी -''
''पुरुष डरते नहीं कभी -''
''हां, दुनिया में ऐसा ही भ्रम है और उस भ्रम में जीता है पुरुष।''
''नहीं
, यह सच है, औरत डरती भी है डराती भी -''
''किसने कहा, ऐसा।''
''कच्चे रास्ते पर चलने का दुस्साहस न दिखाना।'' इसे दी गयी सीख नहीं कह सकते - अब लड़कपन नहीं रहा।'' एक औरत ने ही कहा था, ''पर अब तुम्हारा सान्निध्य मिला तो -''
''भटक गए -''
''नहीं,'' इस समय मेरे शब्द कमजोर और लिजलिजे पड़ गए - गोया उनकी तासीर को चतुर्मास की दीमक चाटने लगी थी। मेरी मन की बात अभी पूरी भी न हुई थी-वह पूछ बैठी -
''कौन है वो - सम्भवत:- तुम्हारी पत्नी -''
''वही समझ लो तुम्हे कैसे मालूम -''
''तुमने ही तो -''
''कब -''
''स्पर्श के स्ंपदन से भीतर की बात बाहर आने में देर नहीं लगती - मैं भी एक औरत हूं जो होठों से निकले शब्दों की बजाए आंखों की जबान ज्यादा समझती हूं। आंखें सब कुछ कह देती हैं। उन्हें संदेह होगा इसीलिए- संदेह बेबुनियाद नहीं होता है।
गहरा खमोशी। शब्द से कहीं अधिक मारक खामोशी। हम दोनों जैसे एक नई जिंदगी की कगार पर आ चुके थे। हमारी दोस्ती इतनी अंतरंग हो गई जैसे कि बाईस की उम्र के जोश में होता है। चौबीस घंटे से कम समय में भी हम इतने करीब हो गए जैसे बरसों से जानते हों-
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डॉ. हरिसुमन बिष्ट का जन्म १ जनवरी, १९५८ को उत्तराखण्ड में हुआ था. उन्होंने कुमांऊ वि.वि. से हिन्दी साहित्य में एम.ए. और 'स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कहानी में नारी स्वातंत्र्य की अवधारणा' विषय पर आगरा विश्वविद्यालय से पी-एच.डी की उपाधि प्राप्त की.
उनकी प्रकाशित कृतियां हैं : उपन्यास- (1) ममता (1980), (2) आसमान झुक रहा है (1980) , (३) होना पहाड़ (1999),(4) आछरी-माछरी (2006)

कहानी संग्रहः (१) सफेद दाग (1983) (२) आग और अन्य कहानियां (1987) (३) मछरंगा (1995) (४) बिजुका (2003)

यात्रा वृतांत : अन्तर्यात्रा (1998)

संपादन : विक्तोरिया तोकरेवा की कहानियां 'अपनी जुबान कुछ कहो' (1983)
भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में कहानियां प्रकाशित। तथा पत्र-पत्रिकाओं में समान रूप से लेखन .
पुरस्कार एवं सम्मान : 1993 में 'अराधक श्री' सम्मान।

1995 में अखिल भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा 'डाॅ0 अम्बेडकर सेवाश्री' सम्मान।
1995 में अखिल भारतीय 'रामवृक्ष बेनीपुरी सम्मान' हजारी बाग झारखण्ड से सम्मानित।
राष्ट्रीय हिन्दी सेवी सहस्त्राब्दी सम्मान वर्ष 2000 ।
लोक साहित्य परिषद दिल्ली द्वारा वर्ष 2000 में निष्काम मानव सेवा सम्मान। अनेक स्थानीय सामाजिक एवं साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
संप्रति : हिन्दी अकादमी, दिल्ली (रा'ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली सरकार) में उप सचिव।
सम्पर्क: ए-३४७, सेक्टर ३१, नोएडा: २०१३०३ (उ.प्र.)
मोबाईल नं.०९८६८९६१०१७

3 टिप्‍पणियां:

बलराम अग्रवाल ने कहा…

विष्ट जी की यह कहानी यात्रा, संस्मरण,रेखाचित्र सभी-कुछ को अपनी छोटी-सी काया में समेटे हुए है। कहानी के रूप मैं जैसे पंतजी की कविता ही पढ़ता रहा; हल्द्वानी के बाद तो लगा ही नहीं कि मैं यात्रा में नहीं हूँ। पता नहीं क्यों, पहाड़ मुझे अपनी ओर खींचता-सा लगता है और इसीलिए उससे जुड़ी ऐसी काव्यपरक कहानी पढ़ने को मिल जाए तो खिंचाव कुछ ज्यादा ही महसूस होता है।

ashok andrey ने कहा…

visht jee ki kahani kafi samay ke bad padne ko mili mujhe almora tatha kousani ke pahad saqsat dikhne lage tatha kahani me khota chala gaya ek achhi kahani ke liye me visht jee ko tatha aapko badhai deta hoon

बेनामी ने कहा…

mujhe bishtji ki kahaani bahut acche lage man ko bhaa gaye.mai alhmora nainital aur ranikhet ki yatra kar chuki hu. is kahaane mai mere yatra ko ek bari fir dhauhra diya. aapko badhi.

SNIGDHA