शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

वातायन - मार्च, २००९


हम और हमारा समय

चौदहवीं लोक सभा का कार्यकाल समाप्त हो गया. मीडिया रपटों के अनुसार संसद से बाहर जाते हुए अधिकांश सांसदों के चेहरे उतरे हुए थे और वे हसरत भरी निगाहों से संसद भवन को निहार रहे थे. सबको जनता के आदेश की चिन्ता थी. पता नहीं दोबारा लौट भी पायेंगे या नहीं. जिस जनता को पांच सालों तक वे भूले रहे अब पुनः उसके दरबार में जाना होगा. जनता का फैसला क्या होगा यही रही होगी उनकी चिन्ता. जनता उनके लिए मात्र वोटबैंक है, जिसकी याद उन्हें हर पांच वर्ष में आती है.

हम सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं, लेकिन यहां का लोकतंत्र भ्रष्ट नेताओं और अफसरों के हाथों बंधक है. आज उत्तर प्रदेश और बिहार की स्थिति भयानक रूप से दयनीय है. इस स्थिति के लिए केवल और केवल राजनीति जिम्मेदार है.मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव मायावती को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं. उन मायावती को जिनके जन्मदिन के लिए उनके विधायकों को अनिवार्य रूप से चंदा देना होता है. नेता अपनी जेब से चंदा क्यों देने लगे! वे अपने यहां के व्यापारियों और अफसरों से उसकी उगाही करते हैं और व्यापारी और अफसर जनता की जेब काटते हैं. करात साहब उन मायावती को प्रधानमंत्री बना देखना चाहते हैं जिनके पास करोड़ों की चल अचल सम्पति है. यदि ऎसा हुआ तो यह देश के लिए दुर्भाग्य की बात होगी.

मेरा विश्वास है कि देश की जनता पूरे देश को ’उत्तर प्रदेश’ बनता नहीं देखना चाहेगी. उसे अवसर-वादी राजनीतिज्ञों को सबक सिखाना ही चाहिए.

********
वातायन के इस अंक में बाबा नागार्जुन पर मेरा संस्मरण, राधेश्याम तिवारी की कविता और हरिसुमन बिष्ट की कहानी प्रस्तुत है. आशा है पिछले अंको की भांति पाठक इस अंक का भी स्वागत करेंगे.

कोई टिप्पणी नहीं: