मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

लघुकथाएं

चित्र - अजयसिंह पील्वा



डॉ० मधु सन्धु की तीन लघुकथाएं

लिव इन

दोनों अपने अपने क्षेत्र में माहिर थे. आभिजात्य उनपर चारों तरफ से लिपटा हुया था. घर के बाहर दोनों एकदम मर्दाना होते और घर के अन्दर जनाना.

बाहर लम्बी गाडिया ड्राइव करते , कंप्यूटर पर बात कर प्रोजेक्ट बंकते, मीटिंग कर कर्मचारियों अधिकारियों को संबोधित करते , नित्य नए ट्रिप पर जाते, शाम को अलग अलग दोस्तों के साथ कैफे ,पिक्चर ,रेस्टोरेंट में घूमते.

अन्दर आते ही दोनों किचन में घुस जाते. वह आटा मलता, वह चपाती सेंक देती. वह दूध उबालता, वह फ्रिज की साफ़ सफाई में जुट जाती. वह बिखरी चीजे संभालता, वह कबेट में संबाल देती.

दोनों में पूरी अंडर स्टेंडिंग थी. दोनों खुश थे और इस जीवन से संतुष्ट भी . सास ननद के तानो तथा बीवी की हिदायतों की जगह हाई टेक संगीत चलता . सिन्दूर की जगह कंपनी की स्मार्ट ड्रेस और कैप ने तथा मंगलसूत्र की जगह गले में लटकते शिनाख्ती पत्र ने ले ली थी.

दोनों निजी कंपनियों में कार्यरत थे. लड़का चार और लड़की तीन कम्पनियां बदल चुके थे वेतन वृद्धि के इन्तजार की अपेक्षा उन्हें नई नोकरी ज्यादा सुविधा जनक लगती थी. लड़का इससे पहले हैदराबाद , मैसूर, गुडगाँव आदि में और लड़की बंगलौर नॉएडा वगैरह में रह चुकी थी. लिव -इन में रहना उन्हें अच्छा लगता था और सोभाग्य से उन्हें अच्छे साथी मिलते रहे थे . दोनों विदेश यात्राओं पर भी रहते. लड़का सिंगापुर आस्ट्रलिया और लड़की इटली, अमेरिका घूम चुके थे.

सब से बड़ी बात कि दोनों आज़ाद थे. गृहस्थ के कारावास, सात फेरों वाले अटूट बंधन और बंधी नोकरी की बासी रूटीन से दोनों बहुत आगे निकल चुके थे.

पहिया जाम

सीधे स्पष्ट नियम थे उसके. इस हाथ दे, उस हाथ ले. उसने आज के काम एक कागज़ पर लिखे , तरतीब दी और चल दिया . वह था तो एक मामूली क्लर्क, पर विभाग में उसका दर्जा अलादीन के चिराग सा था. बाद दोइअहर तीन से पांच तक का समय प्रबंधकीय ब्लाक में ही बीतता .

डॉ. सहगल के भांजे के एम. टेक. के परिक्षा परिणाम इरक करके उसने वहीं से फोने कर दिया- साहब जी रिजल्ट अभी अभी कंप्यूटर पर चढ़ा है .उसके अंक ४२,६६,८३ और ३० हैं . एक पेपर में रिअपीयर है . मैं आते आते रिअपीयर का फार्म लेता आऊंगा .

एक छात्र की माइग्रेशन फाइल गर्ग दबा कर बैठा था . उसने गर्ग को बेटे के पास होने की बधाई दी . विभाग के पिछले फंक्शन से बचे दो वी. आई. पी. पेन भेंट किये . दो मीठी दोस्ताना बातें की , एक आध चुटकला सुनाया और फाइल मूव करवा ली.

गुप्ता सर के तीन बिल आडिट में फंसे थे . वह झटपट पांचवें माले की सीढियां चढ़ गया . आडिट वालों का इंतजाम करके आया था. उसे सब रेट मालूम थे . बंद लिफाफा ही साहब के पेपरवेट के नीचे रखा और फाइल को पहिए लग गए . अभ वह फ्री था, सुर्खरू था.

काल गति, समय चक्र कब एक सा रहता है .जैसे सब के दिन फिरते हैं , वैसे इस पूरी दुनिया के दिन भी फिर गए .
अब वह निश्चिन्त बैठा था. न किसी का रिजल्ट लाने की चिंता थी, न आडिट का बिल पास करवाने की, न जुए-खाने का हर काम करने की, न विनम्रता बांटने की .

क्योंकि अब बॉस ने न केवल उसे रिश्वत/ मेहताना लेते रंगे हाथों पकड़ा था, बल्कि सस्पेंशन के आर्डर निकलवाने , प्रेस में खबर देने , लम्बी छुट्टी पर भेजने की भी धमकी दी थी .. किसी तरह पगड़ी उनके पाँव पर रख कर उसने अपनी इज्जत और नोकरी तो बचा ली , पर अब विभाग में पहिया जाम सा हो गया था . हर काम ठहर गया था, रुक गया था.

अवार्ड

एम. एस. सी. दस आठवें पेपर यानी प्रोजेक्ट के लिए उसे दिन रात एक करना पड़ा . वेब साईट से बहुत कुछ डाउन लोड किया, पढ़ा , समझा. लेब में बारह बारह घंटे की सिटिंग दी. जुनीयर्ज की चिरोरी करते उन्पाज एक्सपेरिमेंट्स किये. ढेरों प्रेजेंतेशंस बनाये . टाइपिंग , एडिटिंग -बस एक ही इच्छा थी- काम सुपर हो.

सीडी बनाई .डा गिल उसे अमेरिका भेज रहे हैं.... मेरे रिसर्च पेपर को.... ऐसा उद्वेलन . पहला नए डा गिल का, दुसरा मेरा यानी रिसर्चर का. जब डेढ़ वर्ष बाद पुस्तकालय में देखा तो पेपर तो वही था पर उस पर नाम गाइड डा गिल और अध्यक्ष डा राणा के थे. और जब अवार्ड की घोषणा हुई तो लेने डा राणा गए.
******
डा. मधु संधु, गुरु नानक देव विश्व विधालय , अमृतसर

2 टिप्‍पणियां:

बलराम अग्रवाल ने कहा…

डॉ॰ मधु संधु की पहली लघुकथा 'लिव इन', आज इस पर भले ही कोई लाख नाक-भौं सिकोड़े, निश्चित रूप से आने वाली सभ्यता की भविष्यवाणी है। 'पहिया जाम' का 'वह' 'इस हाथ दे, उस हाथ ले' का नियम अगर वैयक्तिक के बजाय सामाजिक यानी सामूहिक बनाता तो न तो उसे पग़ड़ी बॉस के पैरों में रखनी पड़ती और न ही पहिया जाम होता। 'अवार्ड' को तो लगभग समस्त रिसर्चर और अधीनस्थ भुगत रहे हैं, इस सत्य को डॉ मधु संधु ही नहीं और-भी बहुत से सत्य-शोधक जानते हैं। अच्छी, स्तरीय लघुकथाएँ हैं। बधाई।

सुभाष नीरव ने कहा…

अच्छी लघुकथाएं ! अन्तिम लघुकथा "अवार्ड" जैसी लघुकथाएं हिन्दी में पहले भी बहुत छप चुकी हैं।