मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

वातायन-जनवरी,२०११

चित्र - जी मनोहर

हम और हमारा समय

प्रगति पर भ्रष्टाचार की छाया

रूपसिंह चन्देल

इक्कीसवीं सदी का पहला दशक बीत गया. लेकिन नई सदी के इन बीते वर्षों में देश ने जितना विकास किया उससे अधिक भ्रष्टाचार और अपराधों में वृद्धि हुई. ऎसा नहीं कि बीती सदी में यह सब नहीं था. चारा घोटाला, बोफर्स कांड, हर्षद मेहता - सुखराम प्रकरण आदि वे घोटाले थे जिन्हें आम जनता जान सकी थी, जबकि कितने ही ऎसे घोटाले थे जो सरकारी फाइलों में दफ्न कर दिए गए थे. लेकिन ऎसा प्रतीत होता है कि आज की अपेक्षा तब के घोटाले छोटे थे. कॉमनवेल्थ गेम्स, टू जी एक्स्पेक्ट्रम, आदर्श सोसाइटी-----इन दश वर्षों में घटित ऎसे तमाम घोटालों की संख्या अनंत है. एक समय था जब लोग कहते थे कि रक्षा विभाग एक मात्र ऎसा विभाग है जहां भ्रष्टाचार नहीं है, लेकिन तब भी यह सच नहीं था . वहां भी बड़े-बड़े घोटाले होते हैं ----और वे छोटे नहीं होते. एक सर्वेक्षण के अनुसार इस देश का कोई भी विभाग ऎसा नहीं है जहां भ्रष्टाचार नहीं है. किसी विद्वान का कहना है कि रिश्वतखोरी को सरकारी स्वीकृति प्रदान कर दी जानी चाहिए. अब तो न्याय के मंदिर भी इससे अछूते नहीं रहे. परिणामस्वरूप एक वर्ग रातों-रात गलत ढंग से कमाए गए धन से मालामाल हो रहा है और दूसरा वर्ग एक किलो प्याज खरीदने के विषय में सोचने को विवश है. मंत्री महोदय की शह हो तो क्यों न जमाखोर सक्रिय हों. हमे १९४२ का बंगाल का दुर्भिक्ष नहीं भूलना चाहिए. अंग्रेजों ने लाखों लोगों को भूखों मार दिया था. आनाज गोदामों से बाहर नहीं निकाला गया था और जनता कलकत्ता की सड़कों पर कंकाल हुए जानवरों को मारकर कच्चा ही खाने के लिए अभिशप्त हो गई थी. तब सत्ता में अंग्रेज थे और आज सत्ता में एन.सी.पी. के शरद पवार कृषिमंत्री हैं . वह सदैव जमाखोरों की भाषा बोलते हैं और क्यों बोलते हैं यह आमजन समझता है, लेकिन वह विवश है. विवश इसलिए क्योंकि उसके पास सही नेतृत्व का अभाव है. आमजन की बात कहने वाले विनायक सेन जैसे ईमानदार व्यक्ति को सीखचों के पीछे भेज दिया जाता है.

एक तीसरा वर्ग और है और इस वर्ग की संख्या निरंतर बढ़ती ही जा रही है. यह वर्ग है गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों का. रात-दिन कड़ी मसक्कत करने के बावजूद यह वर्ग आधा पेट रहने और फटे-चीथड़े पहनने के लिए अभिशप्त है. एक ओर नितिन गडकरी अपने पुत्र के विवाह के लिए निमंत्रण पत्र छपवाने में ही एक करोड़ रुपए खर्च कर देते हैं – शेष खर्च का अनुमान लगाया जा सकता है तो दूसरी ओर गरीब कड़ाके की ठंड में खुले आसमान के नीचे सोने के लिए अभिशप्त है. बढ़ते आर्थिक अंतर से जहां महानगरों में अपराध बढ़े वहीं केवल मौज-मस्ती के लिए कुछ लोग अपराध की दुनिया में प्रविष्ट हुए. दिल्ली जैसे महानगर अपराधियों के गढ़ बनते जा रहे हैं. गृहमंत्री चिदम्बर का यह कथन कि दूसरे राज्यों से आए लोग ऎसे काम करते हैं को राजनीतिक हंगामे का रूप भले ही दिया गया हो, लेकिन यह एक कटु सचाई है, भले ही आंशिक. लगता नहीं है कि आगे के दिनों में भ्रष्टाचार और अपराध कम होगें. विशेषज्ञों की मानें तो यह बढ़ेगा ही. आज एक लाख छिहत्तर हजार करोड़ रुपए का घोटाला हुआ है-----कल क्या होगा कहना कठिन है.
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इस बार वातायन में प्रस्तुत है ’अहा ज़िन्दगी’ में बहादुरशाह ज़फर पर प्रकाशित मेरा आलेख और डॉ. मधु सन्धु की लघुकथाएं.

नववर्ष की शुभकामनाओं सहित यह अंक आपकी सेवा में प्रस्तुत है. आशा है आपको पसंद आएगा.
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2 टिप्‍पणियां:

सुभाष नीरव ने कहा…

मुझे लगता है, घोटाले तो पहले भी हुआ करते थे, परन्तु तब प्रकाश में नहीं आते थे। अब मीडिया के चलते और बढ़ती शिक्षा जागरुकता के कारण जल्द पकड़ में आ जाते हैं और जग-जाहिर हो जाते हैं।

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

आपका कहना सच है।
विचारणीय है।
नव वर्ष 2011 की हार्दिक शुभकामनाएं!