मंगलवार, 31 जनवरी 2012
कविताएं
इला प्रसाद की चार कविताएं
सुरक्षा
पेड़ वस्त्र उतार रहे हैं
नन्हॊं , नवजातों के लिए
सूखे पत्ते बन गए हैं ढाल
आगामी हिमपात के विरुद्ध।
हवा ने बिछाया है उन्हें,
एहतियात से,
छॊटे- छॊटे पौधों की जड़ॊं में ;
सदा की संगिनी जो ठहरी !
खुले आकाश तले
गर्व से सिर उठाए
अब घॊषणा करते हैं वे, निर्वस्त्र
अगली पीढ़ी सुरक्षित है!
-०-०-०
ठंढ
उसने बोगन वेलिया से कहा
ठंढ तो है ,
लेकिन तुम्हे परेशानी नहीं होगी
तुम्हारी शाखें
पहुँचती हैं
धूप तक
जैसे मैं
थाम लेती हूँ
अपने नन्हे बच्चे की
नाजुक, नम उंगली
और भूल जाती हूँ
वे तमाम चोटें
जो जिन्दगी देती है!
-०-०-०-
बाजार
आजकल अक्सर मुझे बहुत डर लगता है
बची तो रहेंगी न
वे वनस्पतियाँ , पेड़ , जंगल
जिनसे बनती है मेरी
दवा
इतनी तेजी से कटते जा
रहे हैं पेड़
नष्ट हो रही हैं वनस्पतियाँ
कैसे स्वस्थ रहूंगी
मैं !
मुझे डर लगता है
कोई तो बचा रहेगा न
जो मेरी भाषा में बोलेगा?
समझ सकेगा मेरी बात?
इतनी तेजी से बदल रही
है भाषा ,
लुप्त हो रहे हैं मेरी
भाषा के शब्द, शब्दों के अर्थ !
मेरे अंत तक
बचा तो रहेगा न एक आदमी
जिसमे बची रहेंगी
मानवीय संवेदनाये
इतनी तेजी से ख़त्म
होती जा रही है
मनुष्यता !
क्या होगा मेरे जैसे
लोगों का
जो बाजार का हिस्सा
नहीं बन सकते
क्या वो भी मेरी ही
तरह
डरे हुए हैं !
पृथ्वी
मैं कहाँ जानती थी
तुमको
लेकिन जब तुमसे बँध
गई
तो जुड़ना चाहा
और इस जुड़ाव का सच
जानोगे?
तुम सूरज हुए या
नहीं, तुम्हें पता होगा
लेकिन तुम्हारे इर्द-गिर्द
घूमती
दुख-सुख भोगती
अपमान- अहंकार झेलती
सबकुछ सहती
मैं सचमुच पृथ्वी
हो गई हूँ!
-०-०-०-०
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5 टिप्पणियां:
इला प्रसाद की चारों कविताएं प्रभावित करने की शक्ति रखती हैं। 'सुरक्षा' कविता पेड़ों से झड़े पत्तों का नये पत्तों को स्थान देना यह सिद्ध करता है कि नई पीढ़ी के आगमन और उसे सुरक्षित रखने के लिए पुरानी पीढ़ी को अपना त्याग करना ही पड़ता है। 'बाजार' कविता में जो चिंताएं मुखर होकर हमारे सामने आती हैं, वे हम सब की चिंताएं हैं। 'पृथ्वी' और 'ठंड' कविता भी अपनी संवेदना में हमे भीतर तक छूती हैं।
ILA PRASAD KEE KAVITAAYEN PADHNA
ACHCHHA LAGAA HAI . SEEDHEE - SADEE
BASHA MEIN BHAAV MAN KO CHHOTE HAIN.
इला प्रसाद जी की सभी कविताएं एक से बढ़ कर एक हैं... उनकी रचनाएँ अच्छे साहित्य की भूख रखने वालों के लिए स्वादिष्ट व्यंजन के समान है... मुझे व्यक्तिगत तौर पर बाजार और पृथ्वी इन दो रचनाओं ने बहुत प्रभावित किया. बाजार कविता की संवेदना हम सबकी सांझी है... शायद हमारी पीढ़ी के बहुत से लोग इस डर के साथ जी रहे हैं.. पृथ्वी कविता की संवेदना हर युग की स्त्री की संवेदना है, जो सदा से ऐसी ही है... और शायद ऐसी ही रहेगी
सादर
मंजु
Ila jee ki kavitaen pad kar achchha laga,badhai.
इला जी की सारी कविताएं गहन भावबोध से परिपूर्ण हैं। पृथ्वी कविता तो बहुत ही उदात्त है । भाष पर अच्छी पकड़ है।
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