हिन्दी लेखक ऒर बँटवारा
दिविक रमेश
यूं तो 2011 काफ़ी हलचलों से भरा रहा हॆ ऒर कुछ प्रश्नों से भी लेकिन जाते-जाते हिन्दी साहित्य जगत में एक ऎसा प्रश्न
भी छोड़ गया हॆ जिस पर अवश्य विचार किया जाएगा या किया जाना चाहिए । प्रश्न उठा कि विदेशों में रह रहे अथवा बस गए साहित्यकारों को प्रवासी विशेषण देकर क्यों अलग-थलग किया जाए ? कब तक यह बँटवारा चलेगा ? वस्तुत: सुप्रसिद्ध साहित्य्कार राजेन्द्र यादव की उपस्थिति में य़ू०के० में रह रहे भारतीय कथाकार तेजेन्द्र शर्मा ने मर्माहत होकर खुद को ऒर विदेशों में रह रहे अथवा बस गए साहित्यकारों के लेखन को प्रवासी विशेषण दिए जाने पर आपत्ति दर्ज करायी ऒर प्रश्न उठाया । मुझे यह प्रश्न अपने बहुत करीब लगा क्योंकि मॆं भी इस तर्ज पर सोचता रहा हूं ।
हम सब जानते हॆं कि पिछले कुछ वर्षों में प्रवासी लेखन काफ़ी चर्चा मेंआ चुका हॆ । प्रवासी लेखकों की कितनी ही पुस्तकें भारत के कितने ही प्रकाशकों जिनमें दिग्गज प्रकाशक भी सम्मिलित हॆं के द्वारा प्रकाशित हो चुकी हॆं। हंस ऒर दूसरी महत्त्वपूर्ण पत्रिकाएं उन्हें ससम्मान छाप रही हॆं । विदेशों से भी हिन्दी साहित्य की अनेक पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हॆं जिनमें भारत में रह रहे रचनाकारों की रचनाएं भी प्रकाशित हो रही हॆं । वेबजाल ने भी साहित्य की पहुंच को दूरियों से परे कर दिया हॆ भले ही इस पर उपल्ब्ध साहित्य की उत्कृष्टता को लेकर कुछ लोग सकीर्ण दृष्टि भी क्यों न रखते हों। ऒर यह भी कि प्रवासी लेखकों मे बहुत से भारत में ही जन्में हॆं । कुछ तो प्रवासी होने से पहले भारत में ही प्रसिद्ध हो चुके थे । मसलन उषा प्रियंवदा । तो हिन्दी लेखन में प्रवासी, गॆर प्रवासी आदि के आधार पर बाँटकर देखने वाली प्रवृत्ति पर अब प्रश्न लगाने की आवश्यकता हॆ बल्कि उसे गहराई से समझने की जरूरत हॆ । प्रवासी ही क्यों भारत में रह रहे कुछ हिन्दी रचनाकारों के संदर्भ में भी यह प्रश्न उठाया जा सकता हॆ । हमारे यहाँ कितने ही समर्थ हिन्दी-रचनाकार हिन्दीतर प्रदेशों अथवा हिन्दीतर
मातृभाषा के होने के कारण हिंदीतर अहिन्दी भाषी हिन्दी लेखक कहलाते हॆं । कितने ही उदाहरण दिए जा सकते हॆं । अरविंदाक्षन ऎसे ही रचनाकारों में आते हॆं । यह बात अलग हॆ कि अन्यथा सोचने वालों ऒर अपने को ही मानक मानने वाले उपेक्षाधारियों की भी कमी नहीं हॆ । ऎसे भी उदाहरण हॆं जिनके अनुसार विदेशी रचनाकारों ने भी मूलत: हिन्दी में ही कविताएं आदि लिखी हॆं । मसलन पूर्व के देश चॆकोस्लोवेकिया के ओदोनल स्मेकल । उदारता ऒर सांत्वना के नाम पर ऎसी स्थितियों को पुख्ता करने के लिए प्रवासी लेखकों ऒर हिन्दीतर अथवा अहिन्दी भाषी हिन्दी रचनाकारों के लिए अनेक संस्थाओं के द्वारा अलग से पुरस्कार आरक्षित किए गए हॆं । गनीमत हॆ कि हिन्दी लेखकों को उजागर रूप से अभी बोलियों ऒर प्रदेशों के नाम पर बिहारी हिन्दी लेखक, हरियाणवी हिन्दी लेखक इत्यादि के रूप में अलग-थलग नहीं किया गया हॆ।
हमें यह समझ लेना चाहिए, ऒर इस बात की ओर मॆं कुछ ही वर्ष पूर्व दिल्ली में अयोजित एक अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी समारोह में प्रस्तुत
अपने एक लेख "समकालीन साहित्य परिदृश्य: हिन्दी कविता" में इंगित कर चुका हूं, कि तथाकथित अहिन्दी भाषी हिन्दी
रचनाकारों का ही नहीं अपितु कितने ही प्रवासी रचनाकारों का भी साहित्य-सृजन इस हद तक अच्छा हॆ कि उसे सहज ही हिन्दी
लेखन की केन्द्रीय धारा में सम्मिलित किया जा सकता हॆ । न केवल सम्मिलित किया जा सकता हॆ बल्कि उसका आकलन भी किया
जा सकता हॆ । वह भी बिना किसी रियायत के अथवा आरक्षण सुलभ विशेष कृपा के । प्रवासी या अहिन्दी जॆसे शब्द भीतर ही
भीतर, कहीं न कहीं प्रवासी ऒर अहिन्दी हिन्दी लेखन को "हिन्दी लेखन’ की तुलना में कमतर ऒर केन्द्रीय हिन्दी साहित्य से परे होने का एहसास कराने लगते हॆं । उसे दया ऒर सांत्वना के घेरे में लाकर प्रोत्साहन प्राप्त करने का पात्र बनाने की कोशिश की जाती हॆ।
शायद इसीलिए यह प्रश्न उभर कर आया कि जिसका लेखन हिन्दी में हुआ हॆ उसे मात्र ’हिन्दी लेखक’ के रूप में ही पहचान क्यों
न मिले । वस्तुत: आज समय आ गया हॆ कि हिन्दी साहित्य के परिदृश्य में हमें बिना अतिरिक्त संज्ञाओं या विशेषणों के उन सबके
हिन्दी लेखन को समान भाव से समेटते चलना चाहिए जिन्होंने मूलत: हिन्दी में रचना की हॆ। अर्थात जिन्होंने हिन्दी को इस हद तक अर्जित कर लिया हॆ कि वे हिन्दी में मात्र अभिव्यक्त ऒर संप्रेषित ही नहीं कर सकते बल्कि सोच भी सकते हॆं ऒर अनुभव
भी कर सकते हॆं । प्रोत्साहन आदि की बात हिन्दी भाषा के सीखने-सिखाने ऒर उस पर अधिकार प्राप्त करने तक ही सीमित रहनी चाहिए । विदेशों में भी हिन्दी शिक्षण की ओर ऒर मज़बूती लाने के लिए प्रोत्साहन भरी कोशिशें की जानी चाहिए । अधिकार प्राप्त
करने के बाद, हिन्दी में रचनारत होने के बाद, उनकी आवश्यकता नहीं रहती। यह बात विशेषकर हमारे आलोचकों, सम्पादकों, हिन्दी साहित्य से जुड़ी पुरस्कार आदि देने वाली संस्थाओं को अच्छे से समझ ऒर स्वीकार लेनी चाहिए । तब जाकर हिन्दी साहित्य के वास्तविक वृत को
दर्शाया जा सकेगा । ऒर नि:संदेह उस पर हमें गर्व भी होगा । ऒर एक ही परिवार होने की अनुभूति का आनन्द भी लिया जा
सकेगा । बिना विस्तार में जाए मॆं यह भी ज़ोर देकर कहना चाहूंगा कि हिन्दी लेखन की बात करते समय हिन्दी बाल लेखन
की कतई उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए । आज यह भी अपनी पूरी पहचान के साथ अपनी उपस्थित दर्ज कराता चल रहा हॆ। यहाँ यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि मॊजू प्रश्न को जन्मी या जन्म लेते रहने वाली किसी साहित्यिक प्रवृत्ति ऒर विधा से न टकरा कर देखा जाए । मसलन ’दलित विमर्श’ या स्त्री विमर्श’ आदि पर अलग ढ़ंग से बात करनी होगी, हांलाकि गति उनकी भी अन्तत: केन्द्रीय हिदी साहित्य के रूप में पहचान पाकर ही होगी । अर्थात समग्रता में । फिलहाल बात इतनी सी हॆ कि भॊगोलिक ऒर भाषायी कारणों से हिन्दी में सोचने अथवा अनुभव करने ऒर अभिव्यक्त करने वाले हिन्दी लेखकों को बाँट कर न देखा जाए । उन्हें तरह-तरह की बॆसाखियाँ न थमायी जाएँ । पढ़ने ऒर आकलन की दृष्टि से सबको समकक्षता का दर्जा दिया जाए । ऒर यह सब लिखते हुए मॆं इस तथ्य से भी अपरिचित नहीं हूं कि तथाकथित ’प्रवासी" आदि हिन्दी लेखकों में कुछ लेखक ऎसे भी जरूर हॆं जो ’बाँटने वाली प्रवॄत्ति को बरकारार रखने वाली हवा देते रहना चाहते हॆं । शायद इसलिए कि यश आदि लाभ प्राप्त करने का उनका रास्ता छोटा हो जाए । पर हम जानते हॆं कि साहित्य में छोटे रास्ते अथवा ’शार्ट कट’ अन्तत: कितने खतरनाक हुआ करते हॆं ऒर आत्मघाती भी । बँटवारे की राजनीति कम से कम साहित्य में नहीं होनी चाहिए ।
-०-०-०-०-
दिविक रमेश (वास्तविक नाम: रमेश शर्मा) ।
जन्म : 1946, गांव किराड़ी, दिल्ली।
शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी), पी-एच.डी. (दिल्ली विश्वविद्यालय)
: प्राचार्य, मोतीलाल नेहरू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के पद से मुक्त ।
पुरस्कार-सम्मान: गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार, 1997
’ सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, 1984
’ दिल्ली हिन्दी अकादमी का साहित्यिक कृति पुरस्कार, 1983
’ दिल्ली हिन्दी अकादमी का साहित्यकार सम्मान 2003-2004
एन.सी.ई.आर.टी. का राष्ट्रीय बाल-साहित्य पुरस्कार, 1989
’ दिल्ली हिन्दी अकादमी का बाल-साहित्य पुरस्कार, 1987
’ भारतीय बाल-कल्याण संस्थान, कानपुर का सम्मान 1991
’ बालकनजी बारी इंटरनेशनल का राष्ट्रीय नेहरू बाल साहित्य एवार्ड 1992
’ इंडो-रशियन लिटरेरी कल्ब, नई दिल्ली का सम्मान 1995
’ कोरियाई दूतावास से प्रशंसा-पत्र 2001
द्विवागीश पुरस्कार, भारतीय अनुवाद परिषद, 2009
श्रीमती रत्न शर्मा बाल साहित्य पुरस्कार, 2009
बंग नागरी प्राचारिणी सभा का पत्रकार शिरोमणि सम्मान 1976 में।
प्रकाशित कृतियां :कविता संग्रह : ‘रास्ते के बीच’, ‘खुली आंखों में आकाश’, ‘हल्दी-चावल और अन्य कविताएं’, ‘छोटा-सा हस्तक्षेप’, ‘फूल तब भी खिला होता’ (कविता-संग्रह)। ‘खण्ड-खण्ड अग्नि’ (काव्य-नाटक)। ‘फेदर’ (अंग्रेजी में अनूदित कविताएं)। ‘से दल अइ ग्योल होन’ (कोरियाई भाषा में अनूदित कविताएं)। ‘अष्टावक्र’ (मराठी में अनूदित कविताएं)। ‘गेहूँ घर आया है’ (चुनी हुई कविताएँ, चयनः अशोक वाजपेयी)।
आलोचना एवं शोधः नये कवियों के काव्य-शिल्प सिद्धान्त, ‘कविता के बीच से’, ‘साक्षात् त्रिलोचन’, ‘संवाद भी विवाद भी’।
संपादित:‘निषेध के बाद’ (कविताएं), ‘हिन्दी कहानी का समकालीन परिवेश’ (कहानियां और लेख), ‘कथा-पड़ाव’ (कहानियां एवं उन पर समीक्षात्मक लेख), ‘आंसांबल’ (कविताएं, उनके अंग्रेजी अनुवाद और ग्राफ्क्सि), ‘दूसरा दिविक’ आदि का संपादन।
अनूदित:‘कोरियाई कविता-यात्रा’ (हिन्दी में अनूदित कविताएं)। ‘द डे ब्रक्स ओ इंडिया’ (कोरियाई कवयित्री किम यांग शिक की कविताओं के हिंदी अनूवाद) । ‘सुनो अफ्रीका’।
बाल-साहित्य: ‘जोकर मुझे बना दो जी’, ‘हंसे जानवर हो हो हो’, ‘कबूतरों की रेल’, ‘छतरी से गपशप’, ‘अगर खेलता हाथी होली’, ‘तस्वीर और मुन्ना’, ‘मधुर गीत भाग 3 और 4’, ‘अगर पेड़ भी चलते होते’, ‘खुशी लौटाते हैं त्यौहार’, ‘मेघ हंसेंगे ज़ोर-ज़ोर से’ (चुनी हुई बाल कविताएँ, चयनः प्रकाश मनु)। ‘धूर्त साधु और किसान’, ‘सबसे बड़ा दानी’, ‘शेर की पीठ पर’, ‘बादलों के दरवाजे’, ‘घमण्ड की हार’, ‘ओह पापा’, ‘बोलती डिबिया’, ‘ज्ञान परी’, ‘सच्चा दोस्त’, (कहानियां)। ‘और पेड़ गूंगे हो गए’, (विश्व की लोककथाएँ), ‘फूल भी और फल भी’ (लेखकों से संबद्ध साक्षात् आत्मीय संस्मरण)। ‘कोरियाई बाल कविताएं’। ‘कोरियाई लोक कथाएं’। ‘कोरियाई कथाएँ’,
‘और पेड़ गूंगे हो गए’, ‘सच्चा दोस्त’ (लोक कथाएं)।
अन्य : ‘बल्लू हाथी का बाल घर’ (बाल-नाटक)।
‘खण्ड-खण्ड अग्नि’ के मराठी, गुजराती और अंग्रेजी अनुवाद।
अनेक भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में रचनाएं अनूदित हो चुकी हैं। रचनाएं पाठयक्रमों में निर्धारित।
संपर्क : 295, सेक्टर-20, नोएडा-201301 (यू.पी.), भारत। फोनः $91-120-4216586
ई-मेल: divik_ramesh@yahoo.com
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यूं तो 2011 काफ़ी हलचलों से भरा रहा हॆ ऒर कुछ प्रश्नों से भी लेकिन जाते-जाते हिन्दी साहित्य जगत में एक ऎसा प्रश्न
भी छोड़ गया हॆ जिस पर अवश्य विचार किया जाएगा या किया जाना चाहिए । प्रश्न उठा कि विदेशों में रह रहे अथवा बस गए साहित्यकारों को प्रवासी विशेषण देकर क्यों अलग-थलग किया जाए ? कब तक यह बँटवारा चलेगा ? वस्तुत: सुप्रसिद्ध साहित्य्कार राजेन्द्र यादव की उपस्थिति में य़ू०के० में रह रहे भारतीय कथाकार तेजेन्द्र शर्मा ने मर्माहत होकर खुद को ऒर विदेशों में रह रहे अथवा बस गए साहित्यकारों के लेखन को प्रवासी विशेषण दिए जाने पर आपत्ति दर्ज करायी ऒर प्रश्न उठाया । मुझे यह प्रश्न अपने बहुत करीब लगा क्योंकि मॆं भी इस तर्ज पर सोचता रहा हूं ।
हम सब जानते हॆं कि पिछले कुछ वर्षों में प्रवासी लेखन काफ़ी चर्चा मेंआ चुका हॆ । प्रवासी लेखकों की कितनी ही पुस्तकें भारत के कितने ही प्रकाशकों जिनमें दिग्गज प्रकाशक भी सम्मिलित हॆं के द्वारा प्रकाशित हो चुकी हॆं। हंस ऒर दूसरी महत्त्वपूर्ण पत्रिकाएं उन्हें ससम्मान छाप रही हॆं । विदेशों से भी हिन्दी साहित्य की अनेक पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हॆं जिनमें भारत में रह रहे रचनाकारों की रचनाएं भी प्रकाशित हो रही हॆं । वेबजाल ने भी साहित्य की पहुंच को दूरियों से परे कर दिया हॆ भले ही इस पर उपल्ब्ध साहित्य की उत्कृष्टता को लेकर कुछ लोग सकीर्ण दृष्टि भी क्यों न रखते हों। ऒर यह भी कि प्रवासी लेखकों मे बहुत से भारत में ही जन्में हॆं । कुछ तो प्रवासी होने से पहले भारत में ही प्रसिद्ध हो चुके थे । मसलन उषा प्रियंवदा । तो हिन्दी लेखन में प्रवासी, गॆर प्रवासी आदि के आधार पर बाँटकर देखने वाली प्रवृत्ति पर अब प्रश्न लगाने की आवश्यकता हॆ बल्कि उसे गहराई से समझने की जरूरत हॆ । प्रवासी ही क्यों भारत में रह रहे कुछ हिन्दी रचनाकारों के संदर्भ में भी यह प्रश्न उठाया जा सकता हॆ । हमारे यहाँ कितने ही समर्थ हिन्दी-रचनाकार हिन्दीतर प्रदेशों अथवा हिन्दीतर
मातृभाषा के होने के कारण हिंदीतर अहिन्दी भाषी हिन्दी लेखक कहलाते हॆं । कितने ही उदाहरण दिए जा सकते हॆं । अरविंदाक्षन ऎसे ही रचनाकारों में आते हॆं । यह बात अलग हॆ कि अन्यथा सोचने वालों ऒर अपने को ही मानक मानने वाले उपेक्षाधारियों की भी कमी नहीं हॆ । ऎसे भी उदाहरण हॆं जिनके अनुसार विदेशी रचनाकारों ने भी मूलत: हिन्दी में ही कविताएं आदि लिखी हॆं । मसलन पूर्व के देश चॆकोस्लोवेकिया के ओदोनल स्मेकल । उदारता ऒर सांत्वना के नाम पर ऎसी स्थितियों को पुख्ता करने के लिए प्रवासी लेखकों ऒर हिन्दीतर अथवा अहिन्दी भाषी हिन्दी रचनाकारों के लिए अनेक संस्थाओं के द्वारा अलग से पुरस्कार आरक्षित किए गए हॆं । गनीमत हॆ कि हिन्दी लेखकों को उजागर रूप से अभी बोलियों ऒर प्रदेशों के नाम पर बिहारी हिन्दी लेखक, हरियाणवी हिन्दी लेखक इत्यादि के रूप में अलग-थलग नहीं किया गया हॆ।
हमें यह समझ लेना चाहिए, ऒर इस बात की ओर मॆं कुछ ही वर्ष पूर्व दिल्ली में अयोजित एक अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी समारोह में प्रस्तुत
अपने एक लेख "समकालीन साहित्य परिदृश्य: हिन्दी कविता" में इंगित कर चुका हूं, कि तथाकथित अहिन्दी भाषी हिन्दी
रचनाकारों का ही नहीं अपितु कितने ही प्रवासी रचनाकारों का भी साहित्य-सृजन इस हद तक अच्छा हॆ कि उसे सहज ही हिन्दी
लेखन की केन्द्रीय धारा में सम्मिलित किया जा सकता हॆ । न केवल सम्मिलित किया जा सकता हॆ बल्कि उसका आकलन भी किया
जा सकता हॆ । वह भी बिना किसी रियायत के अथवा आरक्षण सुलभ विशेष कृपा के । प्रवासी या अहिन्दी जॆसे शब्द भीतर ही
भीतर, कहीं न कहीं प्रवासी ऒर अहिन्दी हिन्दी लेखन को "हिन्दी लेखन’ की तुलना में कमतर ऒर केन्द्रीय हिन्दी साहित्य से परे होने का एहसास कराने लगते हॆं । उसे दया ऒर सांत्वना के घेरे में लाकर प्रोत्साहन प्राप्त करने का पात्र बनाने की कोशिश की जाती हॆ।
शायद इसीलिए यह प्रश्न उभर कर आया कि जिसका लेखन हिन्दी में हुआ हॆ उसे मात्र ’हिन्दी लेखक’ के रूप में ही पहचान क्यों
न मिले । वस्तुत: आज समय आ गया हॆ कि हिन्दी साहित्य के परिदृश्य में हमें बिना अतिरिक्त संज्ञाओं या विशेषणों के उन सबके
हिन्दी लेखन को समान भाव से समेटते चलना चाहिए जिन्होंने मूलत: हिन्दी में रचना की हॆ। अर्थात जिन्होंने हिन्दी को इस हद तक अर्जित कर लिया हॆ कि वे हिन्दी में मात्र अभिव्यक्त ऒर संप्रेषित ही नहीं कर सकते बल्कि सोच भी सकते हॆं ऒर अनुभव
भी कर सकते हॆं । प्रोत्साहन आदि की बात हिन्दी भाषा के सीखने-सिखाने ऒर उस पर अधिकार प्राप्त करने तक ही सीमित रहनी चाहिए । विदेशों में भी हिन्दी शिक्षण की ओर ऒर मज़बूती लाने के लिए प्रोत्साहन भरी कोशिशें की जानी चाहिए । अधिकार प्राप्त
करने के बाद, हिन्दी में रचनारत होने के बाद, उनकी आवश्यकता नहीं रहती। यह बात विशेषकर हमारे आलोचकों, सम्पादकों, हिन्दी साहित्य से जुड़ी पुरस्कार आदि देने वाली संस्थाओं को अच्छे से समझ ऒर स्वीकार लेनी चाहिए । तब जाकर हिन्दी साहित्य के वास्तविक वृत को
दर्शाया जा सकेगा । ऒर नि:संदेह उस पर हमें गर्व भी होगा । ऒर एक ही परिवार होने की अनुभूति का आनन्द भी लिया जा
सकेगा । बिना विस्तार में जाए मॆं यह भी ज़ोर देकर कहना चाहूंगा कि हिन्दी लेखन की बात करते समय हिन्दी बाल लेखन
की कतई उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए । आज यह भी अपनी पूरी पहचान के साथ अपनी उपस्थित दर्ज कराता चल रहा हॆ। यहाँ यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि मॊजू प्रश्न को जन्मी या जन्म लेते रहने वाली किसी साहित्यिक प्रवृत्ति ऒर विधा से न टकरा कर देखा जाए । मसलन ’दलित विमर्श’ या स्त्री विमर्श’ आदि पर अलग ढ़ंग से बात करनी होगी, हांलाकि गति उनकी भी अन्तत: केन्द्रीय हिदी साहित्य के रूप में पहचान पाकर ही होगी । अर्थात समग्रता में । फिलहाल बात इतनी सी हॆ कि भॊगोलिक ऒर भाषायी कारणों से हिन्दी में सोचने अथवा अनुभव करने ऒर अभिव्यक्त करने वाले हिन्दी लेखकों को बाँट कर न देखा जाए । उन्हें तरह-तरह की बॆसाखियाँ न थमायी जाएँ । पढ़ने ऒर आकलन की दृष्टि से सबको समकक्षता का दर्जा दिया जाए । ऒर यह सब लिखते हुए मॆं इस तथ्य से भी अपरिचित नहीं हूं कि तथाकथित ’प्रवासी" आदि हिन्दी लेखकों में कुछ लेखक ऎसे भी जरूर हॆं जो ’बाँटने वाली प्रवॄत्ति को बरकारार रखने वाली हवा देते रहना चाहते हॆं । शायद इसलिए कि यश आदि लाभ प्राप्त करने का उनका रास्ता छोटा हो जाए । पर हम जानते हॆं कि साहित्य में छोटे रास्ते अथवा ’शार्ट कट’ अन्तत: कितने खतरनाक हुआ करते हॆं ऒर आत्मघाती भी । बँटवारे की राजनीति कम से कम साहित्य में नहीं होनी चाहिए ।
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दिविक रमेश (वास्तविक नाम: रमेश शर्मा) ।
जन्म : 1946, गांव किराड़ी, दिल्ली।
शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी), पी-एच.डी. (दिल्ली विश्वविद्यालय)
: प्राचार्य, मोतीलाल नेहरू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के पद से मुक्त ।
पुरस्कार-सम्मान: गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार, 1997
’ सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, 1984
’ दिल्ली हिन्दी अकादमी का साहित्यिक कृति पुरस्कार, 1983
’ दिल्ली हिन्दी अकादमी का साहित्यकार सम्मान 2003-2004
एन.सी.ई.आर.टी. का राष्ट्रीय बाल-साहित्य पुरस्कार, 1989
’ दिल्ली हिन्दी अकादमी का बाल-साहित्य पुरस्कार, 1987
’ भारतीय बाल-कल्याण संस्थान, कानपुर का सम्मान 1991
’ बालकनजी बारी इंटरनेशनल का राष्ट्रीय नेहरू बाल साहित्य एवार्ड 1992
’ इंडो-रशियन लिटरेरी कल्ब, नई दिल्ली का सम्मान 1995
’ कोरियाई दूतावास से प्रशंसा-पत्र 2001
द्विवागीश पुरस्कार, भारतीय अनुवाद परिषद, 2009
श्रीमती रत्न शर्मा बाल साहित्य पुरस्कार, 2009
बंग नागरी प्राचारिणी सभा का पत्रकार शिरोमणि सम्मान 1976 में।
प्रकाशित कृतियां :कविता संग्रह : ‘रास्ते के बीच’, ‘खुली आंखों में आकाश’, ‘हल्दी-चावल और अन्य कविताएं’, ‘छोटा-सा हस्तक्षेप’, ‘फूल तब भी खिला होता’ (कविता-संग्रह)। ‘खण्ड-खण्ड अग्नि’ (काव्य-नाटक)। ‘फेदर’ (अंग्रेजी में अनूदित कविताएं)। ‘से दल अइ ग्योल होन’ (कोरियाई भाषा में अनूदित कविताएं)। ‘अष्टावक्र’ (मराठी में अनूदित कविताएं)। ‘गेहूँ घर आया है’ (चुनी हुई कविताएँ, चयनः अशोक वाजपेयी)।
आलोचना एवं शोधः नये कवियों के काव्य-शिल्प सिद्धान्त, ‘कविता के बीच से’, ‘साक्षात् त्रिलोचन’, ‘संवाद भी विवाद भी’।
संपादित:‘निषेध के बाद’ (कविताएं), ‘हिन्दी कहानी का समकालीन परिवेश’ (कहानियां और लेख), ‘कथा-पड़ाव’ (कहानियां एवं उन पर समीक्षात्मक लेख), ‘आंसांबल’ (कविताएं, उनके अंग्रेजी अनुवाद और ग्राफ्क्सि), ‘दूसरा दिविक’ आदि का संपादन।
अनूदित:‘कोरियाई कविता-यात्रा’ (हिन्दी में अनूदित कविताएं)। ‘द डे ब्रक्स ओ इंडिया’ (कोरियाई कवयित्री किम यांग शिक की कविताओं के हिंदी अनूवाद) । ‘सुनो अफ्रीका’।
बाल-साहित्य: ‘जोकर मुझे बना दो जी’, ‘हंसे जानवर हो हो हो’, ‘कबूतरों की रेल’, ‘छतरी से गपशप’, ‘अगर खेलता हाथी होली’, ‘तस्वीर और मुन्ना’, ‘मधुर गीत भाग 3 और 4’, ‘अगर पेड़ भी चलते होते’, ‘खुशी लौटाते हैं त्यौहार’, ‘मेघ हंसेंगे ज़ोर-ज़ोर से’ (चुनी हुई बाल कविताएँ, चयनः प्रकाश मनु)। ‘धूर्त साधु और किसान’, ‘सबसे बड़ा दानी’, ‘शेर की पीठ पर’, ‘बादलों के दरवाजे’, ‘घमण्ड की हार’, ‘ओह पापा’, ‘बोलती डिबिया’, ‘ज्ञान परी’, ‘सच्चा दोस्त’, (कहानियां)। ‘और पेड़ गूंगे हो गए’, (विश्व की लोककथाएँ), ‘फूल भी और फल भी’ (लेखकों से संबद्ध साक्षात् आत्मीय संस्मरण)। ‘कोरियाई बाल कविताएं’। ‘कोरियाई लोक कथाएं’। ‘कोरियाई कथाएँ’,
‘और पेड़ गूंगे हो गए’, ‘सच्चा दोस्त’ (लोक कथाएं)।
अन्य : ‘बल्लू हाथी का बाल घर’ (बाल-नाटक)।
‘खण्ड-खण्ड अग्नि’ के मराठी, गुजराती और अंग्रेजी अनुवाद।
अनेक भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में रचनाएं अनूदित हो चुकी हैं। रचनाएं पाठयक्रमों में निर्धारित।
संपर्क : 295, सेक्टर-20, नोएडा-201301 (यू.पी.), भारत। फोनः $91-120-4216586
ई-मेल: divik_ramesh@yahoo.com
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4 टिप्पणियां:
Bahut hi viastaar mein janne ko mila hai pravsi sahity ki halchal ka vivaran
Hindi Lekhak aur batwara-shri Divik Ramesh ka likha hua alekh sach ke saamane aaina rakh paya hai. Is silsile mein Vatayan par pahle bhi charcha hui hai, shri Pransharma ji ne pahal ki thi. Ab to Delhi mein hui press release bhi isi baat ko lekar hui..Yeh Halchal zaroor rang Layegi..
Ila ji ki Pustak ki sameeksha Likhte hue Subhash Ji ne khoob insaaf kiya hai.
दिविक जी का यह आलेख मैंने जनसत्ता में पढ़ा था। एक महत्वपूर्ण आलेख है और बड़ी बेबाकी से लिखा गया है। इसके प्रत्युत्तर में डा0 कमलकिशोर गोयनका जी का आलेख भी 'जनसत्ता' में छपा था। मुझे उनके तर्क समझ से परे लगे। तुमने इस आलेख तो नेट पर अपने ब्लॉग के माध्यम से उन हजारों-लाखों पाठकों तक पहुंचा दिया जो जनसत्ता नहीं पढ़ते या उन्हें 'जनसत्ता'उपलब्ध नहीं होता। नेट हमारे लिखे शब्द को बहुत अधिक विस्तार देता है, जो आज के समय में बेहद ज़रूरी भी है।
प्रिय रूप जी ,
मेरी इस टिप्पणी को वातायन पर लगा दीजियेगा -
श्री दिविक जी के आलेख की मैं तारीफ़ करता हूँ . उन्हें
मेरी ओर से हुभ कामनाएँ . हिंदी साहित्य से जुड़ रहे ` प्रवासी `
शब्द के उन्मूलन के प्रयास में श्री रूप सिंह चंदेल को श्रेय जाना
चाहिए . वे अब तक इस मुहिम को कर्मठता से चला रहे हैं . वे इसके
विरोध में कुछ न कुछ लिखते रहते हैं , कभी अपने ब्लॉग पर , कभी
किसी के ब्लॉग पर और कभी किसी पत्रिका में . उनके इस मुहिम से
हर कोई परिचित है . जनाब सुभाष नीरव और इला प्रसाद का
योगदान भी उल्लेखनीय है . उनकी आवाज़ इस मामले में बुलंद है .
उन ` साहित्यकारों ` पर नज़र रखनी आवश्यक हैं जो
" गंगा गये तो गंगादास , यमुना गये तो यमुनादास ` बन जाते हैं .
यूँ भी ऐसे ` साहित्यकार ` अब बेनक़ाब हो चुके हैं . मेरे एक शेर पर
गौर फरमाईयेगा ----
हो गए हैं लोग वाकिफ़ उनकी रग - रंग से कि अब
सामने वे नकली चेहरे ले के आ सकते नहीं
प्राण शर्मा
रूप जी ,
श्री दिविक रमेश जी के आलेख में व्यक्त विचारों से सहमत हूँ। यह आलेख वर्तमान समस्याओं पर ही विचार नहीं करता,भविष्य के खतरों से भी आगाह करता है। हिन्दी साहित्य का दुर्भाग्य है कि इसे खानों में बाँटने वाले अपना दृष्टिकोण बदलना ही नहीं चाह्ते।
सादर
इला
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