अनिलप्रभा कुमार की तीन कविताएं
१.वारिस
मैं दिन-भर हंसता
हूं
दूसरों को भी हंसाता
हूं
श्याम-पट पर लिखे
शब्द और आँकड़े
सब समझता हूं
विद्यार्थी हूं न।
वह एक झपाटे से
मिटा देता है सब-कुछ,
सिर्फ़ धुंधली-सी
सफ़ेदी
रह जाती है
मेरी ज़िन्दगी की
तरह।
शाम को फिर से शुरु
करता हूं
जीने का दूसरा दौर,
दिन की हंसी की क़ीमत
भी तो चुकानी है।
कोई कहता है
कितना प्यारा गड्डा
पड़ता है
तुम्हारे गाल पर।
मैं चौंक कर
छिटक जाता हूं
जैसे किसी ने
दाग़ दिया हो जलती
सलाख से।
मिटाना चाहता हूं
इसे
मुझे जन्म देने वाली
की
यह निशानी है,
और मुझे नफ़रत है
इस तरह के निशान
से।
रात गए लौटता हूं
अपने निशानों की
इसी दुनिया में।
एक बेगाना देश
एक अजनबी शहर
लैम्प की रोशनी परछाईयां
बनाती है
छत पर, दीवारों पर।
और मैं अकेला लेट
कर
सोचता हूं
यह कौन-सी छत है
यह किस की दीवार
है?
डरने पर आवाज़ दे
सकूं
वह मेरी जननी कहां
है?
जिसे थामकर खड़ा रह
सकूं
उस जनक का
कंधा कहां है?
मैं अकेला
जूझता हुआ
रोज़मर्रा की ज़िन्दगी
के थपेड़ों से
मुखौटे बदल –बदल
कर
अभिनय करते –करते
थक गया हूं।
पस्त होकर ढूंढता
हूं
अपने-आप को।
मैं कौन हूं ?
मैं कहां हूं?
मुझे याद आता है
एक घर
जिसे सिर्फ़ तोड़ा
ही नही गया
नोच-नोच कर
चिन्दी- चिन्दी करके
ध्वंस किया है
उसी के रहने वालों
ने।
फिर वह उड़ गए
अलग-अलग दिशाओं मे
अपना- अपना
नया घर बनाने।
मैं
उसी घर की
राख का तिलक लगाए
प्रेत सा भटकता हूं
इस बेगाने देश में
इस अजनबी शहर में
जहां कोई नहीं जानता
कि मैं वारिस हूं
उसी टूटे घर का।
२. उजाले की क़सम
वो बेशुमार औरतें
सदियों से
उस बन्द गड्ढे में
रहती हैं।
पत्थरों की छत से
फूट न जाए सर
कंधे झुका कर चलती
हैं।
चारों तरफ़ सांपो
की जीभें
लपलपाती हैं,
डर से न वो बोलती
हैं
न कुछ बताती हैं।
एक दिन किसी ने
पत्थर में सूराख
करके
सूरज को देख लिया,
उजाले की क़सम खाई
उसे लाना होगा।
धीरे -धीरे,
औरतो का वो झुंड
मशाल उठाए
गड्ढे से ऊपर उठता
है
और आगे बढ़ता है।
दलदल में गिरती हैं
ज़्यादातर,
कुछ आगे बढ़ती हैं
पीढ़ियों से वह सरक
रहीं हैं,
घायल टूटी हुईं
सूरज को देखती हुईं।
मैने आगे बढ़कर
थाम ली है गिरती
मशाल
अपनी मां के कांपते
हाथों से।
वह मुस्कराती है
फिर घबराती है
देखो जल न जाना।
जानती हूं
जलना तो होगा ही।
अपनी पीढ़ियों का
क़र्ज़ है मुझ पर
सूरज को लाना तो
होगा ही
मैं न सही
मेरी अगली पीढ़ी ही
सही,
उजाले की क़सम जो
खाई है।
३. अकेलापन
एक बड़े शहर की सड़कों पर
आदमी को निगलता हुआ
भीड़ का सैलाब।
सभी अजनबी चेहरे,
धक्के पर धक्का
पांव पर पांव।
ज़मीन के नीचे रेंगती मैट्रो
तेज़ क़दमों की होड़,
चढ़ती हुई सांसें
अन्धेरा और सीलन,
चीत्कारता हुआ शोर।
थके -हारे क़दमों को
घसीटता,
घर लौटता
कोई आदमी।
चुपचाप, खाना डाल
कभी कम्पयूटर में डूबता है
और कभी
दूरदर्शन के पात्रों में
ढूंढता है साथ।
कोई बींधती सी
बे-आवाज़ सिसकी
आंखों के खारे पानी से
गटक कर/ सोचता है,
इस भीड़ के सागर में
अपने-अपने,
एकांत टापू पर खड़ा,
कितना अकेला
कितना उदास है आदमी।
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परिचय
डॉ अनिल प्रभा कुमार
शिक्षा: "हिन्दी के सामाजिक नाटकों में युगबोध"
विषय पर शोध।
लेखन:
'झानोदय' के 'नई कलम विशेषांक में 'खाली दायरे' कहानी पर प्रथम पुरस्कार |
कुछ रचनाएँ 'धर्मयुग' 'आवेश', 'झानोदय' और 'संचेतना' में भी
छ्पीं।
न्यूयॉर्क के स्थानीय
दूरदर्शन पर कहानियों का प्रसारण। पिछले कुछ वर्षों से कहानियां और कविताएं लिखने में
रत। कुछ कहानियां वर्त्तमान - साहित्य के प्रवासी महाविशेषांक में भी छपी है।
हंस,
अन्यथा, कथादेश, हिन्दी चेतना, गर्भनाल, लमही,शोध-दिशा और वर्त्तमान– साहित्य पत्रिकाओं
के अलावा, “अभिव्यक्ति”के कथा महोत्सव-२००८ में “फिर से कहानी पुरस्कृत हुई।
“बहता पानी” कहानी
संग्रह भावना प्रकाशन से प्रकाशित।
नया कविता- संग्रह प्रकाशन के लिए लगभग तैयार।
संप्रति: विलियम पैट्रसन यूनिवर्सिटी, न्यू जर्सी में हिन्दी
भाषा और साहित्य का प्राध्यापन और लेखन।
संपर्क: aksk414@hotmail.com
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