रविवार, 6 मई 2012

वातायन-मई,२०१२









हम और हमारा समय

आलोचना और हिन्दी साहित्य
रूपसिंह चन्देल

माना जाता है कि आलोचक साहित्यकार और पाठक के बीच सेतु का कार्य करता है. इस मान्यता के पीछे ठोस आधार हैं. कबीर कभी परिचय के मोहताज नहीं रहे. हर काल-पीढ़ी उनसे परिचित थी. जन-जन में वह समाए रहे, लेकिन एक बड़ा वर्ग ऎसा भी था—बौद्धिकों का बड़ा वर्ग जो उनकी उपेक्षा किए हुए था. डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर पर जो कार्य किया, कबीर के प्रति उदासीन उस बौद्धिक वर्ग की नींद टूटी और आम-जन के बीच कबीर की महत्ता जहां और जैसी थी वैसी ही रही, लेकिन उनके प्रति उपेक्षित-उदासीन भाव रखने वाला वह बौद्धिक वर्ग आज उनके पीछे दीवाना हो रहा है. डॉ. द्विवेदी ने उस उदासीन बौद्धिक वर्ग को जगाने के लिए कबीर पर कार्य नहीं किया था. उन्होंने एक ईमानदार आलोचक का कर्तव्य निर्वाह किया था. आज सबसे अहम प्रश्न यही है कि उन जैसे कितने आलोचक अपने दायित्व के प्रति ईमानदार हैं?

बात १९९९ की है. कमलेश्वर के घर उनसे साहित्य, समाज, राजनीति आदि विभिन्न विषयों पर लंबी बातचीत हो रही थी. आलोचकों की चर्चा आते ही उन्होंने कहा, “आज आलोचना है कहां? आलोचक मुंहदेखी आलोचना करते हैं.”

कमलेश्वर का यह कथन उन रचनाकारों  का सच है जो आलोचकों द्वारा चर्चित लेखकों से कमतर नहीं लिख रहे---बल्कि कुछ का लेखन उनसे कहीं अधिक उल्लेखनीय है. लेकिन न वे इनकम टैक्स या सेल्स टैक्स में बड़े पदों पर होते हैं और न ही बड़े उपहार और बड़ी दावतें देने की स्थिति में. यहां केवल दो उदाहरण देना पर्याप्त समझता हूं. दोनों ही लेखक समकालीन थे. मैंने पहले भी इन दोनों लेखकों की चर्चा की है.ये थे जगदीश चन्द्र और द्रोणवीर कोहली. जगदीश चन्द्र के उपन्यासों की ट्रिलॉजी –’धरती धन न अपना’, ’नरक कुंड में बास’ और ’यह जमीन तो अपनी थी’ में जिस गंभीरता और वास्तविकता से दलित जीवन को उद्घाटित किया गया है वह अतुलनीय है. लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण सच यह है कि विनोद शाही के अतिरिक्त दूसरे आलोचकों की कृपा दृष्टि उन तक नहीं पहुंची. वे उन रचनाओं की चर्चा में अपनी ऊर्जा लगाते रहे जिनमें अवास्तविकता के साथ जीवन और समाज चित्रित हुआ था.  ऎसा ही व्यवहार उन्होंने कोहली के साथ किया जिन्होंने ’वाह कैंप’,”तकसीम’ और ’ध्रुवसत्य’ जैसे महत्वपूर्ण उपन्यास लिखे.  मेरी पीढ़ी के कितने ही सशक्त कथाकारों के हिस्से की चर्चा वे रचनाकार लूटते रहे जो आलोचकों को प्रभावित करने में सक्षम थे.

२० मार्च, २०१२ को मुलाकात के दौरान ऎसी ही चर्चा पर वरिष्ठतम लेखिका मन्नू भंडारी ने साड़ी, शॉल और मिठाई जैसे उपहारों से लादकर अपनी रचनाओं की चर्चा करवाने वाली एक लेखिका का उल्लेख किया था. स्थिति जब इतनी विद्रूप हो चुकी हो कि उन्हीं की रचनाओं की चर्चा की जाती हो जो मोटे उपहार देने की स्थिति में हों, लाभ पहुंचाने वाले बड़े पदों पर हों या जिनके पति-परिवार के लोग ऊंचे पदों पर रहते हुए बड़ी दावतें दे सकते हों तब वह लेखक क्या करे जो ऎसा कर सकने की स्थिति में नहीं है. निश्चित ही ऎसे प्रतिबद्ध और समर्पित रचनाकारों की रचनाओं की चर्चा प्रायः कम ही होती है, लेकिन प्रायोजित चर्चा करवाने वाले इस बात से हत्प्रभ होते हैं कि चर्चा के मोर्चे पर शतक वे बना रहे होते हैं फिर भी दूसरों की पुस्तकें और रचनाएं छप भी रही होती हैं और बिक भी रही होती हैं.

जहां तक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं के प्रकाशन की बात है, मेरा मानना है कि प्रत्येक सम्पादक को कुछ अच्छी रचनाओं की तलाश रहती है. अतः प्रतिबद्ध, समर्पित और ईमानदार रचनाकर्मियों की रचनाओं के प्रकाशन का  आधार रचना की कसौटी ही होता है. यहां यह उल्लेख आवश्यक है कि ऎसी रचनाओं का एक व्यापक पाठक वर्ग होता है, जबकि आलोचकों द्वारा प्रशंसित रचनाकारों के मामले में पाठकों को कहते सुना गया है कि वे छले गए. समीक्षक-आलोचक ने रचना की जो प्रशंसा की उन रचनाओं को पढ़ने के बाद उन्हें बेहद निराशा हुई.

महान रूसी लेखक लियो तोल्स्तोय ने अपने एक मित्र से कहा था, “तुम्हें पता है कि प्रारंभ में रूस ही नहीं जर्मन के आलोचकों ने मेरी रचनाओं पर कितना हाय-तौबा मचाया था. यह अच्छी बात है कि बात अब उनकी समझ में आ गयी है.” उन्होंने आगे कहा था, “मैंने कभी आलोचकों की परवाह नहीं की.  सदैव अपने पाठकों के विषय में सोचा---क्योंकि वे ही लेखक को जीवित रखते हैं.” मैक्सिम गोर्की की एक कहानी सुनकर तोल्स्तोय ने उनसे कहा था, “किसके लिए लिखी यह कहानी? यह भाषा आम-जन की नहीं है. आम-जन ऎसे नहीं बोलता. उसके लिए लिखो---वही तुम्हें जिन्दा रखेगा.”

तोलस्तोय के ’युद्ध और शांति’ के प्रकाशन के बाद रूस और जर्मन के आलोचकों ने उसके विरुद्ध जमकर लिखा, लेकिन पाठकों ने उसे सिर माथे पर बैठाया और देश की सीमाएं लांघ वह अमेरिका सहित विश्व के अनेक देशों तक पहुंचा और अत्यधिक चर्चित हुआ. लेकिन अपने यहां के आलोचकों के दृष्टिकोण ने उन्हें पत्र-पत्रिकाओं से विमुख कर दिया. वे नित पाठकों के आने वाले ढेरों पत्रों के उत्तर डिक्टेट करवाते थे लेकिन डाक में आये पत्र-पत्रिकाओं को एक ओर खिसका देते थे. तोल्स्तोय ने वह लिखा जो वह लिखना चाहते थे और वह सब पाठकों के लिए लिखा. अतः किसी भी लेखक को यह समझ लेना चाहिए कि पाठकों के दरबार में पैठ बनाने में यदि वह असफल है तो आलोचकों की बैसाखी उसे दीर्घजीवी नहीं कर सकती.  

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वातायन के इस अंक में प्रस्तुत है अमेरिकी लेखिका अनिलप्रभा कुमार की कविताएं, कहानी और सद्यः प्रकाशित उनके कहानी संग्रह –’बहता पानी’ पर समीक्षात्मक आलेख. साथ ही एक जमाने में चर्चित रही लेखिका सुमति सक्सेना लाल की कहानी ’बेघर’. सुमति जी ने १९६९ में लिखना प्रारंभ किया था और १९७४ तक निरंतर लिखा, लेकिन बाद में तीस वर्षों तक वह खामोश रहीं. इतनी लंबी खामोशी के बाद किसी भी रचनाकार का पुनः लेखन की ओर प्रवृत्त होना प्रशंसा की बात है. मुझे विश्वास है उनका लेखन निरंतर जारी रहेगा और किसी हद तक वह तीस वर्षों के अंतराल की क्षतिपूर्ति कर सकेंगी. 
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4 टिप्‍पणियां:

PRAN SHARMA ने कहा…

HINDI MEIN IMAANDAAR AALOCHKON KAA
ABHAAV HAI . RAM CHANDRA SHUKLA AUR
HAZARI PRASAD DWIVEDI JAESE RATNA
AB KAHAAN ? AAPNE SAHEE LIKHA HAI KI
AAJKAL KE AALOCHKON DWAARAA PRASHANSIT PUSTKON SE PATHAK VARG
THAGAA JAATAA HAI .

PRAN SHARMA ने कहा…

ROOP SINGH JI , AB TO KAEE LEKHAK
BEE IMAANDAR NAHIN RAHE HAIN .
SAKSHAATKAR ( APNE VYAKTITV AUR
KRITITV KEE PRASHANSA MEIN ) KHUD HEE
LIKHTE HAIN AUR DOOSRE KE NAAM SE
CHHAPWATE HAIN .

बेनामी ने कहा…

PRAN SHARMA ने आपकी पोस्ट " वातायन-मई,२०१२ " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:

HINDI MEIN IMAANDAAR AALOCHKON KAA
ABHAAV HAI . RAM CHANDRA SHUKLA AUR
HAZARI PRASAD DWIVEDI JAESE RATNA
AB KAHAAN ? AAPNE SAHEE LIKHA HAI KI
AAJKAL KE AALOCHKON DWAARAA PRASHANSIT PUSTKON SE PATHAK VARG
THAGAA JAATAA HAI .

सुभाष नीरव ने कहा…

हमेशा की तरह फिर एक जानदर संपादकीय। तोल्स्ताय ने ठीक कहा था- लेखक को पाठक जिन्दा रखते हैं, आलोचक नहीं।