बुधवार, 1 अगस्त 2012

कविताएं





कवयित्री विजया सती की कविताएं






स्मृतियां

एक

किस एक स्मृति से है मन की संपन्नता का नाता ?
पूछती हूँ अपने–आप से.
कितना संपन्न था पहले यह मन
चांदनीचौक की तंग गलियों में घूमता पिता के साथ
दो अक्तूबर से शुरू होती थी खादी पर छूट 
और हम चुनते थे उनके साथ छोटे-छोटे रंगीन टुकड़े 
कुछ न कुछ बना ही देती थी मां -
मेरी सुन्दर सी फ़्राक, कुर्सी की गद्दी का खोल या फिर मेजपोश ही.
थकता कहाँ था यह मन 
ऊंची पहाड़ी के मंदिर तक उड़े चले जाता था
स्वस्थ पिता की उंगलियां थाम नवरात्र के मेले में
फतेहपुरी के भीड़ भरे बाज़ार की हलचल के बीच
खील-बताशे खरीदता दिवाली के आसपास !
उस सम्पन्नता का है कहीं सानी ?
जब झड़ते थे प्रश्न बेहिसाब
बचपन की फ़ैली आँखों से
उत्तर सब थे पिता के पास
और था कहानियों से भरा बस्ता
जिसमें झांकते थे -
टाम काका वेनिस का सौदागर और पात्र पंचतंत्र के.

यमुना किनारे की रेत से कभी बटोरते हम कांस फूल
नंगे पाँव ही हो आते थे उनके साथ
छोटी सी क्यारी में बोए मक्का तोड़ने
या उलझी लता से खींचते थे साथ मिलकर
नरम हरी तोरियाँ !
सुबह जागती-सी नींद में गूंजता स्वर
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय ..
संध्या वेला को त्र्यम्बकं यजामहे का विशुद्ध अटूट क्रम
यह है पिता के साथ की समृद्ध दुनिया अब भी मेरे भीतर.

बहुत बढ़-चढ़ तो गई ही है बाहर भी सब ओर
मेरे आस-पास की दुनिया 
सूना रहता ही कहाँ है
कामकाजी अभिनय से भरा जीवन-मंच?
मुश्किल से मिले निपट अकेले क्षणों में कभी
याद करना बीते हुए मां-पिता की दुनिया में अपनी व्याप्ति
और खो देना समूची रिक्तता 
लगता नहीं 
है कहीं इस सम्पन्नता का कोई सानी !

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दो

जिंदगी को गणित के सवालों सा हल करना
मुझे कभी नहीं आया.
कभी भाया ही नहीं जमा-घटा-गुणा-भाग.
बचपन से ही
कविता के आसपास रहती आई जिंदगी मेरी. 
रसोई में बर्तनों की खटपट के बीच मां गुनगुनाती -
गूंजते थे कानों में वे घुँघरू शब्द
जिन्हें पगों में बाँध नाचती थी मीरा !
बाहर खुले बरामदे में बैठ हम सुनते
पिता का सधा कंठस्वर
सुबह के उजाले को साथ लाता -
नागेन्द्र हाराय  त्रिलोचनाय ...अतुलित बलधामं हेम शैलाभ देहं
फिर कस्तूरबा आश्रम की दिनचर्या में भी तो तय था
सुबह शाम की प्रार्थना सभा का समय
जब आश्रम भजनावली से चुने भजनों का समवेत स्वर
धीमे से ऊंचा उठाती थी मैं भी
छात्रावास की सहेलियों के साथ -
वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाने रे ...
अब इस तरह के सवाल क्यों
जिनका कोई हासिल न हो?
मेरे अंत: को निर्मल बना रहे हैं जब तक रहीम रसखान भर्तृहरि
कबीर का अक्खड़ दोहा बल दे जाता है मुझे
जब तक
अज्ञेय का मौन और भवानी के कमल के फूल झरते हैं आसपास
शून्य हो जाने दूं जीवन का उल्लास 
व्यर्थ की जोड़ तोड़ करते ! ?

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तीन  

उनके जीवन के साथ
उनके दुख भी गये
वे किसी  को कोई दुख न दे गये
न किसी का कुछ  ले गये 
बहुत कम जो भी जोड़ा था
तन की मेहनत से
 मन की लगन से
उसी से था घर भरा-भरा
उनके जाने के बाद भी.
कई दिनों तक रहेगा
रसोई के भण्डार में
नमक तेल चीनी के साथ
और भी बहुत कुछ उनसे जुड़ा.

कोई ऋण बाकी न रहा उन पर
क्या उऋण  हो सकेगी संतान?

करेगी वह सभी के साथ
पिता और मां जैसा निस्वार्थ
और बिना शर्त प्यार?

इसीलिए तो
इतना अभावग्रस्त कर  देने वाला है
पिता के बाद मां का भी चले जाना !

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चार

 बारीक सा एक धागा जरूर टूट जाता  है
बाहर से
अटूट बना रह सकता है
भीतर ही भीतर
मां और पिता के साथ संतान का नाता
आजन्म !

जितना ही उनके जीवन के सच और त्याग
और आदर्श के निकट होंगे हम
उतना ही गहरे जुड़े रह सकेंगे
पिता और मां से हम
अपने जीते जी !

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पांच

पहले ही दिन से
महसूस नहीं हुआ कि
अपने देश और परिचित परिवेश से
बहुत दूर चली आई हूँ !
शायद यह भाषा ही थी जिसने मुझे
सबसे पहले थामा ! 
एक नई पहचान के साथ
केवल भाषा ही नहीं यहाँ तो जैसे
पूरा परिवेश भी मेरे साथ चला आया है !
बर्फ़ से ढकी इन पहाडियों में मिलती हूँ अपने नैनीताल से,
यह जो हलचल से भरा पुल है न,
लोहे का वही पुराना पुल है जमनापार वाला !
मारिया में पाती हूँ मीरा की झलक,
क्रिस्तीना में कृष्णा
और ओर्शी ..मुझे उर्वशी ही तो लगी.
शायद नहीं
यह सचमुच भाषा तो थी ही
और भी था कई तरह का अपनापन
जिसने मुझे इस अनजाने विस्तार में
पहले ही दिन से अकेला नहीं होने दिया !

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विजया सती
 

पहली कविता कॉलेज के प्रथम वर्ष में कॉलेज की ही वार्षिक पत्रिका में प्रकाशित.
कालान्तर में कल्पना, नया प्रतीक, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, संचेतना, दीर्घा आदि में कविताएँ.

एक सहयोगी काव्य संग्रह के अतिरिक्त दो शोध पुस्तकों का प्रकाशन. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आलेख निरंतर प्रकाशित.

दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.ए. और एम.ए. हिन्दी – सर्वश्रेष्ठ छात्रा होने के नाते पुरस्कृत. वहीं से पीएचडी.

एसोसिएट प्रोफ़ेसर हिन्दू कॉलेज दिल्ली विश्वविद्यालय.
वर्तमान में – विज़िटिंग प्रोफेसर – भारोपीय अध्ययन विभाग,बुदापैश्त.

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6 टिप्‍पणियां:

सुभाष नीरव ने कहा…

विजया सती की कविताएं अपनी सघन संवेदना के कारण मन को छूती हैं। इनकी कुछ और कविताएं (छोटी छोटी ) हों तो मुझे भी देना, 'गवाक्ष' के किसी अंक के लिए…

Sanjiv Nigam ने कहा…

Vijaya sati ji ki kavitaayen padhin aur man apni bhi bachapn ki smritiyon me ghoom gaya. Gehri samvednaayen liye ye kavitaayen man ko annayaas chhoo jaati hain.

ashok andrey ने कहा…

Vijya jee kii vaise sabhi kavitaen bahut kuchh keh jaati hai ,phir bhee unki dusree tatha teesri kavita ne behad aakarshit kiya hai.bahut kuchh sochne ko majboor kartii hain,sundar.

बेनामी ने कहा…

रमाकांत सिंह चन्देल ने कहा:

वातायन में “स्मृतियाँ” शीर्षक से संकलित आपकी सभी
कविताएं मुझे पसंद आईं तथा ऐसा लगा की ये कविताएं शुद्ध अन्तःकरण में
विद्यमान निश्छल भावों का प्रतिनिधित्व करती हैं। वैसे, जीवन के लम्बे
पथ पर चलते हुए मनुष्य के मानस-पटल पर स्मृतियों की अनेक रेखाओं का अंकन
तो होता ही है: किन्तु उन रेखाओं को अकृत्रिम ढंग से जनमानस को
सम्प्रेषित करने की कला ही पाठकों में सम्मान पाती है। आपकी ये कविताएं
मुझे इसी कोटि की लगीं, जिनमें बनावटीपन या कृत्रिमता का लेशमात्र भी पुट
नहीं है।

मुझे इन कविताओं में एक सुन्दर बात यह लगी की हमारे संस्कृत/हिन्दी
वाङ्मय के साथ-साथ हमारे आस्थामूलक एवं ऋषि-प्रणीत स्तोत्रों
यथा–शिवपंचाक्षरस्तोत्र, महामृत्युंजयमन्त्र, श्रीहनुमत्-स्तवन
(अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं, दनुजवनकृशानुम् ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।
सकलगुणनिधानम् वानराणामधीशं, रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥–आदि के
प्रति एक आस्थामय अनुराग देखने को मिला, जोकी मानव-जीवन को धन्यता प्रदान
करती हैं तथा जीवन में एक बहुत बड़े सम्बल की भूमिका निभाती हैं।

बचपन की स्मृतियाँ तो वाकई जीवनपर्यन्त साथ रहती हैं। तभी तो सुदर्शन
फाकिर ने लिखा–
“ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो। भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी।
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी॥“

आपकी कविताओं में भी बचपन के दिनों से सम्बंधित ऐसे ही सुनहरे पलों की
झाँकी मैंने अपने अन्तश्चक्षुओं द्वारा देखी। साथ-ही माता व पिता के
निश्छल प्रेम की स्मृतियाँ भी महाभारत के यक्षयुधिष्‍ठिर-संवाद की यह बात
याद दिलाती हैं कि–
“माता गुरुतरा भूमे: पितरोच्चतरं च खात् ।“
(अर्थात्, माता पृथ्वी से भारी है तथा पिता का स्थान आकाश से भी ऊँचा है)।

अस्तु, मुझे ये सभी कविताएं प्रिय हैं।

Ramakant Singh Chandel
N.T.P.C. Limited
(A government of India Enterprise)
Sipat Super Thermal Power Project
PO. Ujwalnagar
Distt. Bilaspur (Chattisgarh)
PIN : 495555
Mobile: (+91) 9425190064
E-mail Id:
ramakantsingh06@gmail.com

अनिल प्रभा कुमार ने कहा…

विजया जी की कविताएं अपने भावों की गहनता को इतनी सादगी से प्रस्तुत करती हैं कि सीधे मन को छू जाती हैं। इन कविताओं में कोई वाग्जाल नहीं, चौंकाने वाला शिल्प नहीं। ये सहज सरल अनुभूतियों की विनम्र अभिव्यक्ति है और शायद अपनी सादगी की वजह से ही यह एक सुखद झोंके सी प्रतीत होती हैं। बधाई, विजया जी।

डॉ॰ विजया सती ने कहा…

मैं आप सभी के प्रति कृतज्ञ हूँ जिन्होंने कवितायेँ पढी और सराही !