’द पैन लीग’ के सदस्य चार घनिष्ठ मित्र,१९२०
बाएं से: नसीब आरिदा, खलील जिब्रान,
अब्द अल-मसीह हद्दाद और मिखाइल नियामी
जन्म-पूर्व
की राजनीतिक परिस्थितियाँ एवं भौगोलिक पर्यावरण
बलराम अग्रवाल
भ्रष्ट हो चुकी राजनीतिक
परिस्थितियों से त्रस्त लोगों का जिब्रान के जन्म से सैकड़ों वर्ष पहले सीरिया और
लेबनान छोड़कर भागने का सिलसिला शुरू हो चुका था। उनमें से कुछ मिस्र में जा बसे, कुछ
अमेरिका में तो कुछ यूरोप में। वे, जो न तो भाग-निकलने का
सौभाग्य पा सके और न देश-निकाले की सज़ा का, उन्हें
सुल्तान के खिलाफ विद्रोह करने के दण्ड-स्वरूप शहर के मुख्य चौराहे पर फाँसी पर
लटका दिया गया ताकि बाकी बलवाई उन्हें देखकर सबक ले सकें। जिब्रान के जन्म से लगभग
350 वर्ष पहले, सन् 1537 के शुरू में तुर्की ने सीरिया पर विजय पा ली थी। लेबनान की पहाड़ियाँ
तुर्क-सेना के लिए अगम थीं। इसलिए उन्होंने लेबनान के पहाड़ी इलाकों को छोड़कर
बन्दरगाहों और मैदानी इलाकों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। पहाड़ी इलाकों और उनके
जिद्दी बाशिन्दों को इस शर्त के साथ कि वे वहाँ रहने के एवज़ में सुल्तान के खजाने
में टैक्स का भुगतान करते रहेंगे, तुर्कों ने स्वयं
द्वारा नियुक्त एक पर्यवेक्षक की निगरानी में उन्हें उनके अपने शासकों के अधीन
छोड़ दिया था।
जिब्रान के जन्म
से लगभग सौ साल पहले, सन् 1789 में हुई
फ्रांस-क्रांति का परिणाम यह रहा कि फ्रांस से कैथोलिक पादरियों का सफाया हो गया।
इनमें से बहुत-से पादरियों को लेबनान में शरण मिल गई।
तुर्की का शुमार
किसी समय दुनिया के महाशक्तिशाली देशों में किया जाता था। पूरा अरब, उत्तरी
अफ्रीका और यूरोप का बड़ा हिस्सा इसके अधीन था। कानून के अनुसार सुल्तान सारे
साम्राज्य का मालिक था। साम्राज्य के समस्त खनिज स्रोतों पर उस अकेले का आधिपत्य
होता था। वह अपनी मर्जी से जिसे, जब, जितनी चाहे जागीरें बख्श कर उपकृत कर सकता था। इस छूट ने साम्राज्य को
जागीरदारी प्रथा की ओर धकेल दिया। सुल्तान वादे तो खूब करता था, लेकिन जनता की आर्थिक मदद बिल्कुल नहीं करता था। उसके मुँहलगे दलाल
राज्यभर से खूबसूरत लड़कियों को उठा-उठाकर महल में सप्लाई करने के धन्धे में लगे
रहते थे। जो लड़की सुल्तान को पसन्द न आती, वह वज़ीर या
उससे छोटे ओहदे वालों का निवाला बनती। वह अगर उनको भी नापसन्द होती या किसी को भी
खुश करने में असफल रहती तो हाथ-पाँव बाँधकर गहरे समुद्र में दफन कर दी जाती थी।
साम्राज्य के
लिए कर वसूलने वाले लोग राज्य-कर्मचारी नहीं होते थे। इस काम को ठेकेदार सम्पन्न
करते थे। प्रति व्यक्ति आय का दस प्रतिशत कर देना होता था लेकिन ताकत के बल पर
ठेकेदार इससे कहीं ज्यादा कर वसूल करते थे। खेत में खड़ी फसल का मूल्य उसके वास्तविक बाज़ार-मूल्य से
कहीं अधिक आँक कर उस पर कर निर्धारित किया जाता था, जबकि कोई किसान अगर आकलन से
पहले फसल काट लेता तो उस पर फसल चोरी का मुकदमा चलता था। कर अदा न करने के
दण्डस्वरूप ठेकेदार लोगों के घरों से अक्सर आम जरूरत की चीजें उठा ले जाते थे।
अपने नागरिकों को लेशमात्र भी सुविधा दिए बिना तुर्की उन दिनों दुनिया का सर्वाधिक
कर वसूलने वाला देश था।
इस सबने जिब्रान
की जिन्दगी को कितना प्रभावित किया?
जिब्रान के जन्म
से 14 वर्ष पहले साम्राज्ञी यूजीनी और उसके सम्राट पति नेपोलियन तृतीय के
जहाज ने पोर्ट सईद नामक बन्दरगाह पर लंगर डाला। ऐन उस वक्त जब सम्राट, नवाब और उच्चाधिकारी नाच-गाने का आनन्द ले रहे थे, कारवाँ में शामिल भारत, अरब, सीरिया, लेबनान, तुर्की,
यहाँ तक कि मिस्र मूल के भी लोगों के सफाए का बिगुल बज उठा।
लाखों लोग जो घोडे़ और ऊँट खरीदने-बेचने का कारोबार करते थे, सराय चलाते थे, सामूहिक यात्राओं का इंतजाम
करते थे, जो पूरब और यूरोप के बीच व्यापार की कड़ी थे,
बरबाद हो गए। ‘इस घर को आग लग गई घर के
चिराग़ से’ जैसा माहौल था। अरबी मुहावरे का प्रयोग करें
तो यों समझ लीजिए कि ‘कमर पर लदे भूसे ने ही ऊँट की कमर
तोड़कर रख दी थी’। अरब संसार आज तक भी उस विपदा के बाद
संभल नहीं सका है। कितने ही सीरियाई और लेबनानी अफ्रीका की शरण में चले गए। कितनों
ही ने बेरूत में जहाज को किनारे लगा दिया। आस्ट्रेलिया, दक्षिण
अमेरिका, न्यूयॉर्क या बोस्टन-कितने ही लोग अनिच्छापूर्वक
वहाँ बस गए जहाँ उनका जहाज जा खड़ा हुआ।
जिब्रान की यात्राएँ
भूगोल और इतिहास के बारे
में जिब्रान का ज्ञान अपने शहर या स्कूली किताबों तक सीमित नहीं था। मध्य-पूर्व के
स्थानों, घटनाओं, रिवाज़ों और इतिहास के उनके वर्णन को
पढ़ने से पता चलता है कि इन स्थानों की उन्होंने यात्रा की थी। बारह वर्ष की उम्र
में वे अमेरिका आ गये थे। दो वर्ष तक बोस्टन में पढ़ने के बाद अपनी आगे की पढ़ाई
पूरी करने के लिए वे लेबनान वापस चले गए। गर्मी की छुट्टियों में पिता ने उन्हें
पूरा लेबनान, सीरिया और फिलिस्तीन घुमाया। चार साल तक
अरबी पढ़ने के बाद उच्चशिक्षा के लिए वे
ग्रीस, रोम, स्पेन और पेरिस गए।
दो साल पेरिस में पढ़ाई करके वे बोस्टन लौट गए। जिब्रान जहाँ-जहाँ घूमे उनमें
नजारथ, बैथ्लेहम, येरूशलम,
ताहिरा, त्रिपोली, बालबेक, दमिश्क, अलिप्पो
और पाल्मिरा प्रमुख हैं। दुनिया के नक्शे पर इन स्थानों की हैसियत कुछेक बिन्दुओं
से अधिक नहीं है, लेकिन ये वे स्थान हैं जिन्होंने
जिब्रान के विचारों को, लेखन को और दार्शनिकता को उच्च
आयाम प्रदान किए। बालबेक गोरों का दुनियाभर में सबसे बड़ा धार्मिक केन्द्र है।
दमिश्क को दुनिया का सबसे पुराना बसा नगर माना जाता है। इस्लाम के स्वर्णकाल की वह
राजधानी था जबकि यूरोप अभी ‘डार्क एज़’ (अनभिज्ञता) में ही था। दमिश्क की गलियों और मस्जिदों में घूमते हुए
जिब्रान ने अरब के महान लोगों के चित्रों को वहाँ से नदारद पाया। इसका कारण इस्लाम
में ‘चित्र’ प्रदर्शन का
प्रतिबन्धित होना था। सोलह साल का होते-होते जिब्रान ने अरब दार्शनिकों और कवियों
का गहरा अध्ययन कर लिया था। ताहिरा और सूडान जिब्रान के जन्मस्थान के आसपास ही थे।
ग्रीस की सभ्यता यहीं से पनपी।
मेरी हस्कल का पोट्रेट,१९१०
प्रारम्भिक जीवन और शिक्षा
जिब्रान खलील जिब्रान बिन
मिखाइल बिन साद। पारम्परिक रूप से खलील जिब्रान का यही पूरा नाम है। उनका जन्म
तुर्क वंश (यह वंश 13वीं शताब्दी से लेकर प्रथम विश्वयुद्ध में अपने
समापन तक वहाँ काबिज रहा) द्वारा शासित ओटोमन सीरिया में माउंट लेबनान मुत्सरीफात
के बिशेरी (वर्तमान रिपब्लिक ऑफ लेबनान) नामक स्थान में हुआ था। ‘खलील जिब्रान: हिज़ लाइफ एंड वर्ल्ड’ के
लेखकद्वय जीन जिब्रान और खलील जिब्रान ने लिखा है—‘खलील
जिब्रान ने एक बार कहा था कि मेरी जन्मतिथि का ठीक-ठीक पता नहीं है। दरअसल लेबनान
के बिशेरी जैसे पिछड़े हुए गाँव में उन दिनों जीना और मरना मौसम के या बाकी दूसरे
मौकों के आने-जाने जैसा ही सामान्य था। किसी लिखित प्रमाण की बजाय लोग याददाश्त के
आधार पर ही जन्मतिथि बताते थे।’ आधिकारिक जन्मतिथि को
लेकर जो उहापोह मची हुई थी, उसका निराकरण खलील जिब्रान ने
अपनी लेबनानी मित्र मे ज़ैदी को लिखे एक पत्र में किया है। उन्होंने लिखा है-“...एक वाक़या तुम्हें बताता हूँ मे, और तुम्हें
इस पर हँसी आएगी। ‘नसीब आरिदा’ ‘अ
टीअर एंड अ स्माइल’ के लेखों को संग्रहीत करके एक पुस्तक
संपादित करना चाहता था। ‘माय बर्थडे’ शीर्षक लेख के साथ वह निश्चित जन्मतिथि देना चाहता था। मैं क्योंकि उन
दिनों न्यूयॉर्क में नहीं था, उसने खुद ही मेरी जन्मतिथि
को खँगालना शुरू कर दिया। वह एक जुनूनी आदमी है, लगा रहा
और उसने ‘कानून-अल-अव्वल 6’ को ‘जनवरी 6’ में अनूदित कर दिया। इस तरह उसने
मेरी जि़न्दगी को क़रीबन एक साल कम कर दिया और मेरे जन्म की असल तारीख को एक माह
आगे खिसका दिया। बस, ‘अ टीअर एंड अ स्माइल’ के प्रकाशन से लेकर आज तक मैं हर साल दो जन्मदिन मना रहा हूँ।”
(अरबी में कानून-अल-अव्वल का मतलब
है—दिसम्बर माह; जनवरी को ‘कानू्न-अल-थानी’ कहा जाता है। इस स्पष्टीकरण
के आधार पर खलील जिब्रान की सही जन्मतिथि 6 दिसम्बर 1883 सिद्ध होती है।)
खलील जिब्रान की
माँ का नाम कामिला रहामी था। उनके जन्म के समय कामिला की उम्र 30 वर्ष
थी। वह उनके तीसरे पति की पहली सन्तान थे।
उनके जन्म के बाद कामिला के दो कन्याएँ और उत्पन्न हुई—1885 में मरियाना तथा 1887 में सुलताना। बादशाही को दिए जाने वाले हिसाब से कर के गबन
की एक शिकायत के मामले में 1891 में जिब्रान के पिता को, उनकी सारी चल-अचल सम्पत्ति
ज़ब्त करके, जेल में डाल दिया गया था। जिन्दगी में आए इस
अचानक तूफान ने कामिला को हिलाकर रख दिया। उससे भी अधिक भयावह दुर्घटना यह हुई कि
उसका नाम गांव के ही एक व्यक्ति यूसुफ गीगी के साथ जोड़ा जाने लगा। गाँवभर में
बदनामी से आहत होकर एक दिन उन्होंने अपने बेटे जिब्रान को गोद में बैठाकर कहा था—“अब लोगों की जुबान बंद करने का बेहतर तरीका यही है कि दुनियादारी
छोड़कर मैं नन बन जाऊँ।’’
स्थानीय समाज की
दृष्टि में पतित और आर्थिक बदहाली से त्रस्त कामिला के सामने वस्तुतः दो ही रास्ते
शेष थे-पहला यह कि वह हजारों दीन-हीन औरतों की तरह बिषेरी में ही सड़ती रहे और
दूसरा यह कि वह अनिश्चित भविष्य का खतरा उठाकर अपने चचेरे भाई के पास अमेरिका चली
जाय। यद्यपि तीन साल बाद 1894 में ही जिब्रान के पिता की रिहाई हो गई थी
तथापि भुखमरी और अपमान से त्रस्त कामिला ने अमेरिका में जा बसने का निश्चय किया।
अपने शराबी, जुआरी और गुस्सैल पति, जिब्रान के पिता को लेबनान में ही छोड़कर 25 जून 1895 को वह अपने पूर्व-पति हाना रहामी की सन्तान, बुतरस
पीटर को जो उम्र में खलील से 6 साल बड़ा था, खलील को व उनकी दो छोटी बहनों मरियाना और सुलताना को साथ लेकर अपने
चचेरे भाई के पास बोस्टन चली गईं। वहाँ पर
कामिला ने घर-घर जाकर छोटा-मोटा सामान बेचने वाली सेल्स-गर्ल किस्म का काम करके
परिवार को पालना शुरू कर दिया। बाद में, मामा की मदद से
पीटर भी वहाँ पर किराने का व्यापार करने लगा। मरियाना और सुलताना भी उसके काम में
हाथ बँटातीं जिससे परिवार का खर्च ठीक-ठाक चलने लगा।
जिब्रान जन्मजात
कलाकार थे। उनको शैशवकाल से ही चित्रकला से प्यार था। अगर उन्हें घर में कोई कागज
नहीं मिलता था तो वह घर से बाहर निकल जाते और ताजी बर्फ पर बैठकर घंटों विभिन्न
आकृतियाँ बनाते रहते। तीन साल की उम्र में वह अपने कपड़े उतार डालते और पहाड़ों को
झकझोर देने वाले तूफान में भाग जाते। चार साल की उम्र में उन्होंने इस उम्मीद में
कि आगामी गर्मियों में उन्हें काग़ज़ की भरपूर फसल मिल जायेगी, जमीन
में छेद करके उनमें कागज़ के छोटे-छोटे टुकड़े बो दिये थे। पाँच साल की उम्र में
उन्हें घर का एक कोना मिल गया था जिसमें उन्होंने साफ-सुथरे पत्थरों, चट्टानी-टुकड़ों, छल्लों, पौधों और रंगीन पेंसिलों को रखकर एक बेहतरीन दुकान खोल ली थी। अगर
काग़ज़ नहीं मिल पाता तो वे दीवारों पर चित्र बनाकर अपनी ख्वाहिश पूरी करते। छः
साल की उम्र में उनकी माँ ने लियोनार्दो द विंची की कुछ पुरानी पेंटिंग्स से उनका परिचय
करा दिया था।
पारिवारिक गरीबी
और रहने का निश्चित ठौर-ठिकाना न होने के कारण 12 वर्ष की उम्र तक जिब्रान
स्कूल नहीं जा सके। उनकी स्कूली शिक्षा 30 सितम्बर 1895 को शुरू हुई। प्रवासी बच्चों की षिक्षा के लिए खुले बोस्टन के क्विंसी
स्कूल में उन्हें प्रवेष दिलाया गया जहाँ वह 22 सितम्बर 1897 तक पढ़े।
कहा यह जाता है
कि स्कूल-प्रवेश के समय अध्यापिका द्वारा उनके नाम के हिज्जे ग़लत लिखे जाने के
कारण अंग्रेजी में उसे ‘Khalil’ के स्थान पर ‘Kahlil’ तथा जिब्रान को ‘Jibran’ के स्थान पर ‘Gibran’ लिखा जाता है; ये
हिज्जे शब्दों के लेबनानी उच्चारण के अनुरूप लिखे गये हो सकते हैं क्योंकि कामिला
रहामी के हिज्जे भी ‘Kamle Rahmeh’ लिखे जाते हैं और इसी तरह
अन्य नामों के भी। सचाई यह है कि स्कूल में उनका नाम जिब्रान खलील जिब्रान लिखाया
गया था, जिसमें अरबी परंपरा के अनुरूप प्रथम ‘जिब्रान’
उनका नाम था, मध्यम ‘खलील’ उनके पिता का तथा अंतिम ‘जिब्रान’ उनके दादा अथवा कुल का। इस नाम को
छोटा करने तथा Khalil को Kahlil हिज्जे देकर अमेरिकी लुक देने का करिश्मा समाजसेविका जेसी
फ्रीमोंट बीयले ने किया था। उनकी भावना को सम्मान देते हुए ही जिब्रान ने अपने
लेखकीय नाम के हिज्जे यही बरकरार रखे।
हुआ यों कि, क्विंसी
स्कूल में पढ़ते हुए जिब्रान ने चित्रों के माध्यम से अपनी अध्यापिका फ्लोरेंस
पीयर्स का ध्यान आकृष्ट किया। उन्हें इस लेबनानी लड़के में भावी चित्रकार नजर आया
और 1896 में उन्होंने समाजसेविका जेसी फ्रीमोंट बीयले से
उनकी कला की प्रशंसा की। बीयले ने यह पूछते हुए कि क्या वह इस लड़के की कुछ मदद कर
सकते हैं, अपने मित्र फ्रेड हॉलैंड डे को पत्र लिखा। डे
एक धनी व्यक्ति थे। वे चित्रकार बच्चों के बड़े मददगार थे। वह अपने समय के विशिष्ट
चित्रकार और फोटोग्राफर थे। उन्होंने जिब्रान को, उनकी
दोनों छोटी बहनों को, सौतेले भाई पीटर और माँ को अपनी
प्रतीकात्मक अर्द्ध-काम-सौंदर्यपरक ‘फाइन आर्ट’ फोटोग्राफी के मॉडल के तौर पर इस्तेमाल करना और आर्थिक मदद देना शुरू
कर दिया। जिब्रान को उन्होंने बेल्जियन प्रतीकवादी मौरिस मेटरलिंक के लेखन से
परिचित कराया। उन्नीसवीं सदी के राल्फ वाल्डो इमर्सन, वॉल्ट
व्हिटमैन, जॉन कीट्स और पर्सी बाइशी शैली जैसे धुरंधर
कवियों और सदी के अन्य अनेक ब्रिटिश,
अमेरिकी और अन्तर्राष्ट्रीय कवियों की रचनाओं से परिचित कराया। उन्होंने
जिब्रान को ग्रीक संस्कृति, विश्व साहित्य, समकालीन लेखन और फोटोग्राफी से परिचित कराया। डे ने जिब्रान के हृदय
में दबे उस आत्मविश्वास को जगाया जो विदेश-प्रवास और गरीबी के बोझ तले दब-कुचल कर
सो-सा गया था। आश्चर्य नहीं कि जिब्रान ने तेजी से विकास किया और डे को कभी निराश
नहीं किया। इस तरह उन्होंने बहुत कम उम्र में अपनी प्रतिभा के बल पर बोस्टेनियन
चित्रकारों के बीच सम्मानजनक जगह बना ली थी।
दो वर्ष बाद, 1897
में जिब्रान ने अपनी अरबी-भाषा की पढ़ाई को पूरा करने के लिए वापस लेबनान जाने का
मन बनाया। बेटे की रुचि और तीव्रबुद्धि को देखते हुए कामिला ने उसकी बात मान ली और
उन्हें बेरूत जाने की सहमति दे दी। 1897 में जिब्रान को
लेबनान के मेरोनाइट बिशप जोसेफ डेब्स द्वारा संस्थापित स्कूल मदरसात अल-हिकमः में
प्रवेश दिलाया गया। वहाँ वे पाँच साल तक देवदारों के साये में रहे और पढ़ाई के
साथ-साथ चित्रकला के अपने जन्मजात गुण को भी सँवारते रहे। कक्षा में पढ़ाने के
दौरान एक बार फादर फ्रांसिस मंसूर ने उनके हाथ में एक कागज़ देखा। उन्होंने उनसे
वह ले लिया। देखा-जिब्रान ने उस पर एक नग्न लड़की की तस्वीर बनाई हुई थी जो पादरी
के सामने घुटनों के बल बैठी थी। फादर मंसूर ने ‘बदमाश
लड़का’ कहते हुए जिब्रान के कान खींच डाले और स्कूल से
नाम काट देने की धमकी तक दे डाली। यहां रहते हुए अपने मित्र यूसुफ हवाइक के साथ
मिलकर उन्होंने एक पत्रिका ‘अल मनरः’ शुरू की। उसे संपादित करने के साथ-साथ वह चित्रों से भी सजाते थे।
डे की मदद से सन्
1898 में मात्र 15 वर्ष की आयु में जिब्रान के
चित्र पुस्तकों के कवर-पृष्ठ पर छपने शुरू हो गए थे।
1899 में
वे बोस्टन लौट आए लेकिन एक अमेरिकी परिवार के दुभाषिए के तौर पर 1902 में पुनः लेबनान लौट गये। परंतु कुछ ही समय बाद सुलताना के गंभीर रूप
से बीमार हो जाने की खबर पाकर उन्हें बोस्टन लौट आना पड़ा। अप्रैल 1902 में सुलताना की मृत्यु हो गई।
यह एक उल्लेखनीय
तथ्य है कि 1902 के प्रारम्भ में बेहतर आमदनी की तलाश में उनका भाई पीटर क्यूबा चला
गया था। उस दौरान किराने की दुकान सँभालने का जिम्मा जिब्रान के कंधों पर आ पड़ा।
सुलताना की मौत के सदमे से उबरने तथा घर का खर्च चलाने के लिए दुकान सँभालने की
जिम्मेदारी ने उन्हें रचनात्मक कार्यों से अलग-थलग कर दिया। इस कठिन काल में डे और जोसेफिन ने
बोस्टन में होने वाली कला-प्रदर्शनियों और मीटिंग्स में बुला-बुलाकर उन्हें मानसिक
तनाव से बाहर निकालने की लगातार कोशिश की।
शर्मीलापन छोड़कर उन्होंने उन्हें घर के मौत और बीमारी से भरे वातावरण से बाहर
निकलने को प्रेरित किया। कुछ ही महीनों में पीटर जानलेवा बीमारी लेकर क्यूबा से
बोस्टन लौट आया। 12 मार्च 1903
को उसका निधन हो गया। उसी वर्ष जून में उनकी माँ कामिला भी देह त्याग गईं। इससे वह
पूरी तरह टूट गए। मरियाना भी टी॰बी॰ की चपेट में आ गई थी। परिवार में दो ही
व्यक्ति बचे थे जो गहरे आर्थिक और मानसिक-संकट की स्थिति में पड़ गए थे। संभवतः
घोर आर्थिक बदहाली, हताशा और निराशा के क्षणों में ही ये
पंक्तियाँ लिखी गई होंगी जो उनके 1932 में प्रकाशित
संग्रह ‘सैंड एंड फोम’ में
संग्रहीत हैं—
(1) मुझे
शेर का निवाला बना दे हे ईश्वर! या फिर एक खरगोश मेरे पेट के लिए दे दे।
(2) नहीं,
हम व्यर्थ ही नहीं जिये। ऊँची-ऊँची इमारतें हमारी हड्डियों से ही
बनी हैं।
परिवार में एक
के बाद एक तीन मौत हो जाने और रचनात्मक कार्यों से पूरी तरह विलग होने से टूट चुके
जिब्रान ने किराने की दुकान को बेच दिया और अपने-आप को पूरी तरह अरबी और अंग्रेजी
लेखन में झोंक दिया। इस दोहरी-तिहरी जिम्मेदारी को ही उन्होंने अपने जीवन का
लक्ष्य निर्धारित कर लिया।
-0-0-0-0-0-
1 टिप्पणी:
bahut bahut dhanyavad.
प्रभात रंजन
एक टिप्पणी भेजें