हम
और हमारा समय
बाल-साहिiय
की वतïमान स्थितियों के लिए बाल-साहिiयकार
भी जिम्मेदार
रूपसिंह
चन्देल
विगत
तीस वर्षों में हिन्दी बाल-साहिiय परिदृvय
में अप्रत्याशित परिवर्तन हुआ है. १९९० या उससे कुछ दिन बाद तक बाल-साहित्य की पत्रिकाएं
थीं—समाचार पत्रों के रविवासरीय परिशिष्टों से लेकर साप्ताहिक हिन्दुस्तान और धर्मयुग
जैसी अनेक पत्रिकाएं बाल-साहित्य के लिए स्थान सुरक्षित रखती थी. लेकिन व्यावसायिक
कारणों से अनेक बाल पत्रिकाएं बन्द हो गयीं और समाचार पत्रों ने बाल साहित्य ही नहीं साहित्य से ही अपना पल्ला झाड़ लिया. केवल और केवल
जनसत्ता अपने प्रारंभ से लेकर आज भी साहित्य के प्रति अपनी गंभीरता को बरकरार रखे हुए
है. बाल-साहित्य लिखने वालों को जब मंच ही मिलना बंद हो गया तब उनका लेखन के प्रति
उदासीन होना स्वाभाविक था.
प्रकाशकों
की स्थिति पहले से ही खराब थी. बाल-साहित्य के रचनाकारों को वे कभी भी गंभीरता से नहीं
लेते रहे और लेते भी कैसे जब स्वयं स्थापित-फन्ने खां बाल-साहित्यकार थैले में पाण्डुलिपियों
के पुलन्दे लादकर उनके दरबार में हाजिरी देते थे और मैंने स्वयं अपनी आंखों दो सौ पचास रुपयों से लेकर पांच सौ रुपयों में पाण्डुलिपियों
का सौदा होते देखा था. थोक का भाव लिखने वाले व्यथित हृदय और कमल शुक्ल जैसे लेखकों
के कारण दूसरे लेखकों को अनचाहे ऎसे सौदे करने पड़ते थे. १९८२ में करोल बाग के एक प्रकाशक
ने व्यथित हृदय के विषय में मुझसे कहा था कि उनकी १५० पाण्डुलिपियां उसके पास प्रकाशनार्थ
लंबित थीं. ऎसी स्थिति में प्रकाशक चाहे तो लेखक के नाम से पाण्डुलिपि प्रकाशित करे
या स्वयं अपने नाम से उसे कौन रोक सकता था. कितने ही प्रकाशक
ऎसे लेखकों की खरीदी पाण्दुलिपियों के बलपर लेखक बन बैठे. बन ही नहीं बैठे बाल-साहिiय के पुरस्कार तक पाने
लगे.
मैंने
गंभीरता से यह अनुभव किया कि हिन्दी बाल-साहित्यकार पढ़ता कम और लिखता अधिक रहा. कुछ
ही ऎसे बाल-साहित्यकार रहे जिन्होंने दूसरी भाषाओं के लेखकों को पढा और अपनी कमजोरियां
समझने का प्रयास किया. यही नहीं बाल-मनोविज्ञान को समझे बिना ही वे लेखन करते रहे और
अक्कड़-बक्कड़ बम्बो बो----की तर्ज पर रचनाएं लिखते रहे. बच्चों को क्या चाहिए इसकी परवाह
न करने का परिणाम यह रहा कि बच्चों ने उनकी रचनाओं को नकार दिया. आज हिन्दी बाल-साहित्य
की स्थिति बहुत ही दयनीय है. मंच नहीं और न ही साहित्यकारों में समर्पण का भाव है जो
पुरानी पीढ़ी में हुआ करता था. हम पुरानी पीढ़ी के साहित्य पर गर्व करते हैं और आज की
स्थितियों पर अफसोस के अतिरिक्त हमारे पास कहने के लिए कुछ भी नहीं. हिन्दी बाल-साहिiय
की दुदïशा के लिए अlय
बातों के अतिरिYत xवयं
बाल-साहिiयकार भी जिम्मेदार हैं.
योगेन्द्र
कुमार लल्ला पुरानी पीढ़ी के एक सशक्त बाल-साहित्यकार ही नहीं बल्कि एक कुशल सम्पादक भी थे. धर्मयुग,रविवार, दिनमान
टाइम्स जैसी बड़ी पत्रिकाओं से जुड़े रहने के बावजूद उन्होंने अपने अन्दर के बाल-साहित्यकार
को कभी छीजने नहीं दिया और उनका बाल-साहिiयकार
मन पुनि-पुनि उड़ि बाल-साहिiय के जहाज पर लौटने को विकल होता
रहा. धमïयुग जैसी हिन्दी की उकृष्ट पत्रिका
को केवल बाल-साहिiय के पëति
अपने लगाव के कारण छोड़कर वह ’मेला’ के सम्पादक बने. जहां भी रहे बाल-साहित्य की अभिवृद्धि
के लिए सतत पëयiनशील
रहे. वातायन का यह अंक उन पर केन्द्रित है. उन पर मेरे संxमरण
के अतिरिYत पëस्तुत
हैं उनकी कविताएं और बाल-साहित्य पर केन्द्रित शमशेर अहमद खान की उनसे की गई बातचीत
के कुछ पëमुख अंश.
आशा
है पëस्तुति आपको पसंद आएगी.
(लल्ला जी और मैं - २६.०४.२०१३)
संस्मरण
कुशल सम्पादक-समर्पित
बाल-साहिiयकार
रूपसिंह चन्देल
१९८७ में एक कहानी लिखी –’भेड़िए’. यह
एक युवती के सात बार बिकने और आठवीं बार बिकने से बचने के लिए पुलिस की शरण जाने और
पुलिस वालों द्वारा उसके साथ सामूहिक बलात्कार की मार्मिक कथा है जो वास्तविकता पर
आधारित है. कहानी लिखकर सोचता रहा कि उसे प्रकाशनार्थ कहां भेजूं. उन दिनों पत्रिकाओं
की कमी न थी…कम से कम आज जैसी स्थिति तो नहीं ही थी. व्यावसायिक पत्रिकाओं से अधिक
मैं लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित होता था, लेकिन अधिकांश लघुपत्रिकाएं त्रैमासिक थीं.
उनमें कहानी भेजने का अर्थ लंबे समय तक प्रतीक्षा करना था. मैंने ’भेड़िए’ को रविवार
को भेजने का निर्णय किया. मुझे तब तक नहीं मालूम था कि वहां साहित्य कौन देखता था.
वैसे भी यह सरोकार मेरा कभी नहीं रहा. लगभग
दो माह पश्चात योगेन्द्र कुमार लल्ला जी का छोटा-सा पत्र आया कहानी स्वीकृति का. मैं गदगद. कुछ दिनों
बाद कहानी प्रकाशित हुई और आशानुकूल चर्चित रही. कहानी प्रकाशित होने के पश्चात कई
बार लल्ला जी से बात करने के विषय में सोचा लेकिन किया नहीं. सितम्बर,१९८७
में लंबी कहानी ’पापी’ लिखी गयी. उस कहानी की भी एक कहानी है. उसे हंस को डाक
से भेजा. तीन माह पश्चात पता किया तो ज्ञात हुआ कि कहानी वहां पहुंची ही नहीं. राजेन्द्र जी ने पुनः देने के लिए कहा. सप्ताह के
अंदर ही दे आया. दिसम्बर,१९८७ के शुरूआत की बात थी. कहानी एक माह के अंदर वापस लौट
आयी. अब! लंबी कहानी ---कौन प्रकाशित करेगा..सोचता रहा. अंततः रविवार को भेजने का निर्णय
किया. आश्चर्यजनक रूप से भेजने के पन्द्रह दिनों के अंदर लल्ला जी का स्वीकृति पत्र
मिला. इसे आज मैं अपना बचकाना उत्साह ही कहूंगा---वह पत्र जेब में डाल शनिवार मैं हंस
कार्यालय में हाजिर था. ’पापी’ की चर्चा छेड़ते हुए पूछा, “राजेन्द्र जी पापी आपको पसंद
नहीं आयी थी?”
“यह बात नहीं चन्देल….वह कहानी कहीं भी प्रकाशित हो सकती है.”
राजेन्द्र जी ने कहा. उनकी वह भावमुद्रा मुझे आज भी याद है. मैं उनके सामने बाईं ओर
की कुर्सी पर बैठा हुआ था.
“फिर वह हंस में क्यों नहीं छप सकती
---?“ मैंने पूछा.
“बहुत-सी बातें ऎसी होती हैं जो बतायी
नहीं जा सकती हैं.”
’राजेन्द्र जी की कोई विवशता रही होगी
कि पसंद होते हुए भी वह ’पापी’ को हंस में प्रकाशित नहीं कर पाए” मैंने सोचा था. कुछ देर की चुप्पी के बाद मैंने उन्हें सूचित किया
कि हंस से लौटने के अगले ही दिन मैंने उसे रविवार को भेजा और पन्द्रह दिनों में ही
स्वीकृति पत्र आ गया. सुनकर राजेन्द्र जी चुप रहे थे. लेकिन वह कहानी रविवार में भी प्रकाशित नहीं हो
पायी. रविवार प्रतिवर्ष दीपावली के अवसर पर साहित्य विशेषांक निकालता था. मेरी कहानी
आने वाले विशेषांक में प्रकाशित होने के लिए कंपोज हो चुकी थी, लेकिन अंक के प्रिण्ट
आर्डर से ठीक पहले पत्रिका के प्रबन्धकों ने रविवार बंद करने का निर्णय किया. रविवार
बंद होने का समाचार पढ़-सुनकर मैंने लल्ला जी को फोन किया और कहानी के विषय में पूछा. लल्ला जी से मेरा वह पहला संवाद था.
“रविवार बंद हो चुका है---कहानी आप कहीं
अन्यत्र भेज सकते हैं.” लल्ला जी ने संक्षेप में केवल इतना ही कहा. शायद इससे अधिक
बात हमारी नहीं हुई थी.
कहानी कहां भेजूं कहां नहीं यह द्विविधा
लंबे समय तक बनी रही. हंस फिर रविवार ---- लंबा समय बीत चुका था. कई माह बीत गए तभी
ज्ञात हुआ कि लल्ला जी ने दिनमान ज्वाइन कर लिया था. दिनमान तब ’दिनमान टाइम्स’ हो
चुका था. पहली बार मैं लल्ला जी से १०, दरियागंज में दिनमान कार्यालय में मिला. सांवले,
कुछ लंबोतरे चेहरे वाले, मध्यम कद-काठी के लल्ला जी बहुत ही आत्मीय भाव से मिले. बातचीत
में सुमधुर मुस्कान… संक्षिप्त लेकिन सार्थक संभाषण…बातचीत के साथ काम पर भी ध्यान---सहयोगियों
को सलाहें---सब एक साथ. इस पहली मुलाकात से मैं उनसे इतना प्रभावित हुआ कि वह प्रभाव
आज तक बना हुआ है. उस दिन मैंने ’पापी’ को दिनमान टाइम्स में प्रकाशित करने का आग्रह
किया. उन्होंने पत्र की सीमा बताते हुए कहा, “यदि तुम्हारी लंबी कहानी प्रकाशित करूंगा,
जो कि दो अंकों से भी अधिक होगी, तब कोई लेखक अपना उपन्यास पकड़ा जाएगा और मेरे लिए
संकट की स्थिति बन जाएगी.”
मैंने उनके संकट को समझा और उनसे सलाह
मांगी. उन्होंने कहा कि मैं अवधनारायण मुद्गल जी से बात करूं. उसी दिन मैंने मुद्गल
जी से बात की और ’पापी’ सारिका के मई,१९९० अंक में ’उपन्यासिका’ के रूप में प्रकाशित
हुई. लेकिन उसके एक-दो अंकों बाद ही सारिका बंद हो गयी थी.
दिनमान टाइम्स में लल्ला जी से हुई मुलाकात
के पश्चात मैं निरन्तर उनके निकट होता गया.
दिनमान में एक कहानी के अतिरिक्त मैंने प्रकाशनार्थ कुछ भी नहीं दिया. दिनमान
टाइम्स के बंद होने के पश्चात लल्ला जी स्वतंत्र भारत में लखनऊ चले गए. स्वतंत्र भारत
के बाद वह अमर उजाला के संयुक्त सम्पादक होकर मेरठ आए . इन दोनों ही पत्रों में लिखने
के लिए वह मुझे प्रेरित करते रहे और उनके वहां रहते मैं वहां लिखता रहा. लगभग प्रति सप्ताह सोमवार की सुबह दफ्तर पहुंचते
ही मैं उन्हें फोन किया करता, विशेषकर जब वह अमर उजाला में थे, और बातचीत का समय लंबा
होने लगा था. एक बार बात-बात में मैंने उन्हें सूचित किया कि मैंने शीघ्र ही नौकरी
से त्यागपत्र देने का निर्णय किया है. एक अभिभावक की भांति उन्होंने कहा कि नौकरी न
छोड़ूं----पुनः विचार करूं. उनकी और एक-दो अन्य मित्रों की सलाह पर मैं अपने को दो
साल से अधिक नहीं रोक पाया और अंततः नवंबर,२००४ में नौकरी से मुक्त हो गया था. नौकरी
से मुक्त होने के पश्चात मैं कुछ ऎसे साहित्यिक कामों में व्यस्त हुआ कि अमर उजाला
में ही नहीं किसी भी दैनिक में लिखना पीछे छूटता गया और उसी के साथ छूट गया लल्ला जी
के साथ सम्पर्क.
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मुझे यह जानकारी थी कि नौकरी से मुक्त
होने के पश्चात लल्ला जी नोएडा में कहीं रह रहे हैं, लेकिन कहां यह बताने वाला कोई
नहीं मिला. लल्ला जी के परम मित्र और मेरे
मित्र-प्रकाशक श्रीकृष्ण कब का चुपके से जा चुके थे, जिनकी मृत्यु की सूचना एक दिन
अकस्मात बलराम अग्रवाल से मिली थी. वह एक सूत्र थे जिनसे लल्ला जी के विषय में जानकारी
मिल जाया करती थी, लेकिन उनसे जब अंतिम बात हुई थी तब वह यह बता पाने में असमर्थ थे
कि लल्ला जी नोएडा में कहां रह रहे थे. श्रीकृष्ण
जी के जाने की जितनी पीड़ा मुझ जैसे कुछ उन लेखकों को हुई होगी जो पराग प्रकाशन (बाद
में अभिरुचि) से जुड़े हुए थे, उससे कितने ही गुना अधिक पीड़ा लल्ला जी को हुई होगी.
लेकिन बिना मिले उनकी उस पीड़ा को बांटा नहीं जा सकता था. मैंने अपने कुछ मित्रों से चर्चा की, लेकिन किसी
को भी उनकी रिहाइश की जानकारी नहीं थी. और तभी करिश्मा हुआ. पिछले दिनों निठल्ला मैं
फेसबुक में अधिक समय गुजारने लगा और तभी अकस्मात लल्ला जी के चित्र पर मेरी दृष्टि
पड़ी…साथ में लिखा था मित्र के रूप में जोड़ें. मैंने समय नष्ट न कर मित्रता का अनुरोध
भेज दिया और दो-तीन दिनों में लल्ला जी ने मेरे अनुरोध को स्वीकार कर लिया. मित्र सूची
में जुड़ते ही मैंने उनका फोन नं. मांगा और संपर्क का मार्ग खुल गया. लल्ला जी से मिलने के लिए मन छटपटाने लगा. बलराम
अग्रवाल भी मिलना चाहते थे. दिन समय तय हुआ और हम २६ अप्रैल,२०१३ को शायं पांच बजे
वैशाली (गाजियाबाद) स्थित लल्ला जी के निवास पर हाजिर थे.
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एक बाल साहित्यकार के रूप में लल्ला
जी के योगदान के विषय में न केवल सुना था बल्कि उनकी अनेक बाल कविताएं भी पढ़ीं थीं,
लेकिन वह किस हद तक बाल साहित्य के प्रति गंभीर थे और आत्माराम एण्ड सन्स से लेकर
’केन्द्र’ (मासिक), धर्मयुग,’मेला’, रविवार
आदि में साहित्यिक पृष्ठों को देखते हुए भी बाल साहित्य के प्रति उनका समर्पण कभी नहीं
छीजा यह उस दिन पहली बार उनकी जुबानी जाना.
मेरठ के पास मवाना नामक कस्बे से मेरठ
कॉलेज पढ़ने आए युवक लल्ला पढ़ने में बहुत होशियार नहीं थे. आर्ट में रुचि थी----चित्र
बनाने का शौक---अतः सहज विषय सोच आर्ट –ड्राइंग विषय से ग्रेजुएशन करने का निर्णय किया.
लेकिन प्रारंभिक छः माह में वह उसका कुछ भी नहीं समझ पाए और प्राध्यापकों ने उन पर
वह विषय छोड़कर कोई अन्य विषय लेने का दबाव बनाया. लेकिन उन्होंने उसे
न छोड़ने का निर्णय प्राध्यापकों को सुना दिया. बाद में कठिन श्रम किया और कॉलेज में
उस विषय में प्रथम आए. अंतिम वर्ष विश्वविद्यालय में प्रथम. हाथ ऎसा खुला कि पत्र-पत्रिकाओं
से लेकर प्रकाशकों के लिए काम करने लगे. उसी विषय से एम.ए. करने का निर्णय लिया. लेकिन तभी
अंबाला की एक कंपनी में नौकरी मिल गयी. वहां
के एक सांध्य कॉलेज में एम.ए. में प्रवेश ले लिया. पांच बजे के बाद कॉलेज. लेकिन कुछ
विवाद के चलते नौकरी छोड़ मेरठ वापस. उन दिनों
आत्माराम एण्ड संस के लिए काम कर रहे थे. आठ-दस दिन में वह मेरठ से दिल्ली आते और काम
ले जाते…यह सिलसिला कुछ समय तक चलता रहा. उनके मित्र श्रीकृष्ण (पराग प्रकाशन) पहले
से ही वहां कार्यरत थे. लल्ला जी ने बताया कि एक दिन आत्माराम के मालिक पुरी जी ने
उनसे कहा कि वह उनके यहां नौकरी क्यों नहीं कर लेते. हफ्ते-दस दिन में मेरठ-दिल्ली
आने-जाने से मुक्ति मिल जाएगी. यह १९५७ की बात है. वेतन की चर्चा चली तो पुरी साहब
ने पूछा कि वह कितना चाहते हैं, लल्ला जी अंबाला में दो सौ पचास रुपए मासिक वेतनले
रहे थे. बोले, “तीन सौ.” “ठीक है---कल से काम पर आ जाओ.” पुरी साहब ने कहा.
यह सब बताते हुए लल्ला जी ने ठहाका लगाया
और आगे बोले, “और उसके बाद मैं दिल्ली आ गया. मेरे काम से पुरी जी बहुत ही संतुष्ट
थे. मैंने अनेक नई योजनाएं बनाईं---मौलिक सुझाव दिए. प्रकाशन को पारम्परिक ढांचे से
बाहर निकाला. हर क्षण मेरे मस्तिष्क में नवीन योजनाएं जन्म लेती रहती थीं. व्यक्तिगत
संबन्धों के आधार पर कितने ही प्रतिष्ठित लेखकों को प्रकाशन से जोड़ा. ऎसी ही एक योजना पत्रकारिता संबन्धी आलेखों की मैंने पुरी जी समक्ष
प्रस्तुत की. पुरी जी उछल पड़े. कार्य प्रारंभ हुआ. मैंने धर्मवीर भारती से लेकर अनेक
पत्रकारों को पत्र लिखे. सहयोग मिलना प्रारंभ हुआ. कई बड़े पत्रकारों ने योजना को सराहा.
तब तक ऎसी कोई पुस्तक न थी. उन दिनों बनारसी
दास चतुर्वेदी की एक पुस्तक पर कार्य चल रहा था. चतुर्वेदी जी प्रकाशन में आते तो आध
घण्टा पुरी जी के पास बैठते शेष समय मेरे पास रहते, क्योंकि उनकी पुस्तक पर काम मेरे
अधीन ही हो रहा था. एक दिन पुरी जी ने कहा कि पत्रकारिता वाली पुस्तक में सम्पादक के
रूप में बनारसी दास चतुर्वेदी का नाम देना सही होगा. पुरी जी की बात सुन मैं हत्प्रभ
रह गया. बोला कि काम तो मैं कर रहा हूं और सम्पादक के रूप में नाम भी मेरा ही जाएगा.
पुरी जी ने कहा, “तुम्हें पत्रकारिता की दुनिया में जानता कौन है. चतुर्वेदी जी का
नाम ऊपर होगा और तुम्हारा नीचे…उनके नाम से पुस्तक बिक जाएगी. तुम्हारे नाम से कौन
खरीदेगा.”
पुरी जी की बात लल्ला जी को चुभ गयी.
बोले,” जितना काम हुआ है वह मैं चतुर्वेदी जी को दे देता हूं. आगे का काम वह कर लें.”
पुरी जी न लल्ला जी को छोड़ना चाहते थे और न
उस योजना को. उन्हीं दिनों रामजस कॉलेज के विज्ञान के एक प्राध्यापक की कोई पुस्तक
वहां से प्रकाशित हो रही थी. उसके चित्र लल्ला
जी बना रहे थे. प्राध्यापक को व्यंग्य लिखने का शौक था, लेकिन ढेरों लिखने के बाद भी
एक भी व्यंग्य किसी पत्र-पत्रिका में प्रकाशित नहीं हुआ था. उसने अपनी पीड़ा लल्ला जी
को बताई. लल्ला जी ने एक पत्रिका प्रारंभ करने का सुझाव दिया, जिसमें प्रतिमाह उनके
व्यंग्य प्रकाशित हो सकते थे. योजना बनी और लल्ला जी पांच सौ रुपए मासिक वेतन पर आत्माराम
छोड़कर ’केन्द्र’ पत्रिका के सम्पादक बनकर प्राध्यापक के दरियागंज के फ्लैट में बैठने
लगे. ’केन्द्र’ के अनेक अंक लल्ला जी ने दिखाए. हिन्दी का शायद ही कोई स्थापित रचनाकार
होगा जो उसमें प्रकाशित नहीं हुआ था. हर अंक में लल्ला जी एक नए रचनाकार की कहानी प्रकाशित
करते थे. पत्रिका की बिक्री एक वर्ष में तीन हजार पार कर गयी थी. प्राध्यापक महोदय
से तय हुआ था कि एक वर्ष बाद वह लेखकों को
पारिश्रमिक देंगे, जो कि बहुत अधिक न होगा. एक वर्ष बीतते ही लल्ला जी ने अपनी बात
उन्हें याद दिलाई. प्राध्यापक ने इस पर आनाकानी की तो उन्होंने पत्रिका छोड़ दी. पुरी
जी को ज्ञात हुआ तो प्रेम से डांटकर उन्हें पुनः अपने प्रकाशन खींच ले गए. इस बार पांच
सौ रुपए मासिक वेतन पर.
आत्माराम में रहते हुए लल्ला जी के जिन
अनेक लेखकों से संपर्क-संबन्ध बन चुके थे, उनमें धर्मवीर भारती भी थे. १९६२ में धर्मयुग
में उप-सम्पादक की वेकेन्सी निकली तो लल्ला जी ने भी आवेदन दिया. उन दिनों साक्षात्कार
के लिए बुलाए जाने पर आने-जाने का खर्च मिलता था. लल्ला जी को बुलाया गया, लेकिन चयन
नहीं हुआ. फिर १९६५ में बुलाया गया, लेकिन बात वेतन पर अटक गयी. लल्ला जी पांच सौ रुपए
मासिक वेतन के साथ तीन इन्क्रीमेण्ट अतिरिक्त मांग रहे थे. उसके बाद फिर वहां जाना
हुआ और उस बार उन्होंने छः इन्क्रीमेण्ट अतिरिक्त मांगे. बात नहीं बनी. लेकिन १९६८
में भारती जी ने उन्हें पत्र लिखकर कहा, “तुम्हारा स्थान आत्माराम एण्ड संस नहीं, बल्कि
धर्मयुग में है----यहां आ जाओ.” लल्ला जी गए और इस बार उन्होंने पांस सौ रुपए मासिक
वेतन के साथ अतिरिक्त नौ इन्क्रीमेण्ट मांगे. लंबी खींचतान के बाद कुछ शर्तों पर वह सब तय हुआ और लल्ला जी
ने धर्मयुग ज्वाइन किया. भारती जी ने उन्हें साहित्य के चार पृष्ठ दिए. लल्ला जी ने एक पृष्ठ और मांगा. भारती जी ने पूछा, “कौन-सा?”
“बाल साहित्य का” लल्ला जी ने उत्तर दिया. भारती जी ने बाल साहित्य के प्रति उनके समर्पण
को समझा और वह पृष्ठ भी उन्हें दे दिया.
“धर्मयुग में रहते हुए व्यक्तिगत पत्र
लिखकर मैं स्थापित रचनाकारों से लिखने का आग्रह करता था. नए रचनाकारों की अच्छी कहानी
कभी वापस नहीं की. कितने ही नए रचनाकारों की पहली कहानी धर्मयुग ने प्रकाशित की और
बाद में अच्छे कहानीकार के रूप में वे स्थापित
हुए.”
जब लल्ला जी यह कह रहे थे मैं सोच रहा
था कि उन सम्पादकों से कितना अलग है यह व्यक्ति
जो यह कहते घूमते हैं कि उन्होंने अपनी पत्रिका के माध्यम से चालीस-पचास नए
लेखक तैयार किए. क्या कोई सम्पादक लेखक तैयार कर सकता है! पूरी मुलाकात में लल्ला जी
ने एक बार भी यह नहीं कहा कि उन्होंने एक भी नया लेखक तैयार किया. उन्होंने हर बार
यही कहा कि वह नए रचनाकारों की अच्छी रचनाओं को प्रकाशित करते थे और उन्हें आगे और
अच्छी रचना भेजने का आग्रह करते थे. उन्होंने धर्मवीर भारती की कही एक बात का उल्लेख
किया कि सम्पादक का कार्य आई रचनाओं को पढ़कर प्रकाशित कर देना मात्रा नहीं है. उसका
कार्य नई-नई योजनाएं बनाना और लेखकों के माध्यम से उन योजनाओं को कार्यान्वित करना
होता है. अच्छे सम्पादक को सदैव अच्छे लेखक की तलाश रहनी चाहिए.
धर्मयुग में सहायक सम्पादक के पद पर
पहुंचकर लल्ला जी ने बालसाहित्य के लिए कुछ कर गुजरने की भावना से प्रेरित होकर ’मेला’
का सम्पादक होना स्वीकार किया. भारती जी नाराज हुए, लेकिन ’मेला’ ने उन्हें खींच लिया
और उन्होंने उसके अनेक महत्वपूर्ण अंक निकाले. विष्णुप्रभाकर , कमलेश्वर, सर्वेश्वर
दयाल सक्सेना आदि से साग्रह लिखवाया और बाल-साहित्यकारों की एक बड़ी दुनिया तो थी ही
उनके साथ. ’मेला’ से वह रविवार में संयुक्त सम्पादक बनकर गए. जीवन के इस लंबी यात्रा में उन्होंने अनेक उतार
चढ़ाव देखे. दिल्ली,मेरठ, गाजियाबाद आदि कई स्थानों में प्लॉट, फ्लैट लिए लेकिन एक को
भी भविष्य के लिए रोका नहीं. उदाहरण स्वरूप दिलशाद कॉलोनी में पांच सौ रुपयों में पांच
सौ गज प्लॉट लिया, लेकिन धर्मयुग ज्वाइन करने जाते समय आत्माराम एण्ड सन्स के पुरी
जी को उतने में ही उन्हें बेच दिया. उसी प्रकार विश्वासनगर में तीन हजार में दो सौ
गज का प्लॉट किसी को उतने में ही दे दिया. और भी बहुत कुछ----यह सब जानकर अनुभव किया
कि उन्होंने जिन्दगी भर भले ही पत्रकारिता में गुजारे लेकिन मन और आत्मा से वह हैं
विशुद्ध साहित्यकार—बालसाहित्यकार---जीवन के गणित से अनभिज्ञ. जिसने जीवन भर साहित्यिक
दुनिया को दिया ही दिया----कुछ लिया नहीं—चाहा नहीं.
जब हम विदा हुए लल्ला जी हमें लिफ्ट
तक छोड़ने आए और उस क्षण उनके चेहरे पर विलक्षण मधुर मुस्कान खिली हुई थी . लिफ्ट से
उतरते हुए मुझे लल्ला जी पर लिखी सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की मेला में प्रकाशित बहुचर्चित
कविता याद आयी.
मेले में लल्ला
कलकत्ते में खो गए लल्ला
कहीं अगाड़ी, कहीं पुछल्ला.
घर
में बैठे वे चुपचाप
करते
रामनाम का जाप.
भागे सुन मेले का हल्ला
कहीं अगाड़ी, कहीं पुछल्ला.
कलकत्ते में खो गए लल्ला
मेले
में थे हाथी-घोड़े
थोड़े
जोड़े, शेष निगोड़े.
इतनी भीड़ कि अल्ला-अल्ला
कहीं अगाड़ी, कहीं पुछल्ला.
कलकत्ते में खो गए लल्ला
इधर
तमाशा उधर रमाशा
रंग-बिरंगा
शी-शी-शा-शा.
बहु बाजार औ’ आगरतल्ला
कलकत्ते में खो गए लल्ला.
कहीं अगाड़ी, कहीं पुछल्ला
चौरंगी
पर खा नारंगी
चले
बोलकर जय बजरंगी.
हक्के-बक्के
साथ न संगी
भूल गए वह मानिक तल्ला
कलकत्ते में खो गए लल्ला.
कहीं अगाड़ी, कहीं पुछल्ला
-0-0-0-
योगेन्द्र कुमार लल्ला की पांच बाल कविताएं
हल्ला-गुल्ला
एक
आम का पेड़, लगा था
उस
पर बहुत बड़ा रसगुल्ला,
उसे
तोड़ने को सब बच्चे
मचा
रहे थे हल्ला-गुल्ला
पर
मेरी ही किस्मत में था
उसको
पाना, उसको खाना.
मैंने
देखा स्वप्न सुहाना.
सारे
बच्चे इम्तहान के दिन
बैठे
थे अपने घर पर,
खुली
किताबें रखीं सामने
सभी
पास हो गए नक़ल कर
पर
मेरी ही किस्मत में था
सब
बच्चों में अव्वल आना
मैंने
देखा स्वप्न सुहाना.
ओलम्पिक
के खेल हो रहे,
भारत
के ही किसी नागर में,
बच्चा-बच्चा
खेल रहा था
घर-आँगन
में डगर-डगर में
पर
मेरी ही किस्मत में था
सारे
पदक जीत कर लाना
मैंने
देखा स्वप्न सुहाना.
तोते जी
तोते
जी, ओ तोते जी!
पिंजरे
में क्यों रोते जी
तुम
तो कभी न शाळा जाते,
टीचर
जी की डांट न खाते
तुम्हें
न रोज नहाना पड़ता,
ठीक
समय पर खाना पड़ता
अपनी
मर्जी से जगते हो
जब
इच्छा हो, सोते जी!
तोते
जी, ओ तोते जी!
तुम्हें
न पापा मार लगाते,
तुम्हें
न कड़वी दवा पिलाते
तुम्हें
न मम्मी आंख दिखाती
तुम्हें
न दीदी कभी चिढाती
खूब
उछालते, खूब कूदते,
कभी
नहीं चुप होते जी!
तोते
जी, ओ तोते जी!
आओ,
तुम बाहर आ जाओ
मुझ
जैसे बच्चा बन जाओ
सबसे
मेरे लिया झगडना
पर
दादी से नहीं बिगाडना
तुम
ही मेरी बुढिया दादी-
के
बन जाओ पोते जी!
तोते
जी, ओ तोते जी!
मेला
आओ
मामा, आओ मामा!
मेला
हमें दिखाओ मामा!
सबसे
पहले उधर चलेंगे
जिधर
घूमते उड़न खटोले,
आप
जरा कहियेगा उससे
मुझे
झुलाए हौले-हौले!
अगर
गिर गया, फट जाएगा,
मेरा
नया-निकोर पजामा.
कठपुतली
का खेल देखकर
दो
धड की औरत देखेंगे,
सर्कस
में जब तोप चलेगी
कानों
में उंगली रखेंगे
देखेंगे
जादू के करतब,
तिब्बत
से आए हैं लामा!
फिर
खाएंगे चाट-पकौड़ी
पानी
के चटपटे बताशे,
बच
जाएंगे फिर भी कितने
दूर-दूर
से आए तमाशे,
जल्दी
अगर न वापस लौटे,
मम्मी
कर देंगी हंगामा!#
(#
साभार - नंदन, जून १९९२)
कमाल
दुनिया
में कुछ करूँ कमाल,
पर
कैसे, यह बड़ा सवाल!
एक
उगाऊं ऐसा पेड़
जिसमें
पत्ते हों दो-चार,
लेकिन
उस पर चढ़कर बच्चे
देख
सके सारा संसार
बड़े
लोग कोशिश कर देखें
चढ़ने
की, पर गले न दाल!
एक
बनाऊँ ऐसी रेल
जिसमें
पहिए हों दो-चार,
बिन
पटरी, बिन सिग्नल दौड़े
फिर
भी बड़ी तेज रफ़्तार
बटन
दबाते ही जा पहुंचे
कलकत्ता
से नैनीताल!
एक
बनाऊँ ऐसी झील
जिसमें
नाव चलें दो-चार
पानी
घुटने-घुटने हों पर
बच्चे
तैरें पांच हजार
खिलें
कमल की तरह टाफियां
ना
खाएं तो रहे मलाल!##
(##
साभार - नंदन, जुलाई २००५, २०)
कर दो हड़ताल
कर
दो जी, कर दो हड़ताल
पढ़ने-लिखने
की हो टाल
बच्चे
घर पर मौज उडाएं
पापा-मम्मी
पढ़ने जाएं.
मिट
जाए जी का जंजाल.
जो
न हमारी माने बात,
उसके
बांधों कस कर हाथ
कर
दो उसको घोतम घोट
पहनाकर
केवल लंगोट
भेजो
उसको नैनीताल
राशन
में भी करो सुधार
रसगुल्लों
की हो भरमार
दो
दिन में कम से कम एक
मिले
बड़ा-सा मीठा केक
लड्डू
हों जैसे फ़ुटबाल
कर
दो जी, कर दो हड़ताल.
-0-0-0-
(बाएं से : योगेन्द्र कुमार लल्ला,बलराम अग्रवाल,रूपसिंह चन्देल और रमेश तैलंग - २६-०४-२०१३)
योगेन्द्र कुमार लल्ला से शमशेर अहमद खान की बातचीत
बाल
साहित्य के सृजन, संवर्द्धन एवं प्रचार-प्रसार के लिए अनन्य रूप से समर्पित योगेन्द्र
कुमार लल्ला ने प्रभूत मौलिक लेखन किया है. राष्ट्रीय स्तर के प्रकाशनों एवं पत्र-पत्रिकाओं
का संपादन कर इनके माध्यम से बाल साहित्य को दिशा देने के लिए वह सजग रहे हैं. लल्ला
जी ने संपादन के साथ-साथ अपने मौलिक लेखन द्वारा भी बाल साहित्य के भंडार में प्रशंसनीय
अभिवृद्धि की है. उनकी प्रमुख बाल कृतियां हैं – सारे जहां से अच्छा हिन्तोस्तां हमारा,
खेल भी विज्ञान भी, मक्खी और मच्छर की कहानी, तोते जी, स्म्रुति चित्रण, हड़ताल करो,
टिंगटिंग, कंजूस जमींदार, मन बहलाएं आदि. बाल साहित्य की प्रायः सभी विधाओं – कविता,
कहानी, विज्ञान आदि में उन्होंने सृजन इया है. उनके द्वारा संपादित पुस्तकों के नाम हैं—प्रतिनिधि बाल एकांकी, राष्ट्रीय
हास्य एकांकी, पुरस्कृत एकांकी (भाग दो), प्रतिनिधि सामूहिक गान, प्रतिनिधि बाल सामूहिम
गान, बाल उपहार माला (दस पुस्तकें), शुशुगीत (चार भाग), विज्ञान की कहानियां आदि) उन्होंने
अनादीराम और उसके साथी (उपन्यास) का अनुवाद भी किया है. यह उपन्यास भी बालकों में लोकप्रिय
है. लल्ला जी की कई पुस्तकें केन्द्र सरकार, विज्ञान परिषद, इलाहाबाद तथा अन्य संस्थाओं
द्वारा पुरस्कृत हुई हैं. पुरस्कृत पुस्तकों में सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा,
खेल खेल में विज्ञान भी, तोते जी उल्लेखनीय हैं.
प्रस्तुत है लल्ला जी शमशेर खान की बातचीत के प्रमुख अंश–
पूरी शताब्दी के बाल साहित्य के परिदृश्य का आकलन आप कैसे करेंगे?
बीसवीं
शताब्दी में लगभग आधी शताब्दी हम परतम्त्र रहे. उस समय की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियां
भिन्न थीं, इसलिए साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियां भी उनसे प्रभावित रहीं. बाल साहित्य
के सृजन की शुरूआत भी बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में ही हो गई थीं. पंचतंत्र कथासरित्सागर
और शतक कथाओं की परंपरागत कथाओं के साथ-साथ बच्चों के लिए मौलिक कहानियां और कविताएं
भी लिखी जा रही थीं, लेकिन पौराणिक, धार्मिक और ऎतिहासिक चरित्रों तथा आदर्शों और परंपरागत
मूल्यों व मान्यताओं पर आधारित बाल साहित्य को अधिक महत्व दिया जा रहा था. इसका कारण
भी था. ग्रिम और एंडरसन की परीकथाएं, अलिफलैला व ईसप की कहानियां, राबिंसन क्रूसो,
सिंदबाद व गुलीवर की यात्राएं तेजी से हिन्दी में प्रकाशित हो रही थीं. संभवतः बाल
साहित्यकारों की दृष्टि यह रही हो कि पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति का प्रभाव भारतीय
बच्चों की मानसिकता पर हावी न हो जाए इसलिए भारत के गौरवपूर्ण अतीत और महान विभूतियों
के जीवन चरित्रों से उन्हें परिचित कराना उनका दायित्व है.
आजादी
की लड़ाई जैसे-जैस व्यापक होती गई, देशभक्ति , उत्सर्ग, बलिदान आदि बाल साहित्य का विषय
बनने लगे. यह समय की मांग थी, लेकिन आजादी के बाद भी बाल साहित्य कोई नई जमीन नहीं
तोड़ सका. एक स्वतंत्ग्र देश के बच्चों के भविष्य और विकास की दृष्टि से जितने गंभीर
चिंतन-मनन की आवश्यकता थी, वह बाल साहित्य में दृष्टिगोचर नहीं हुआ. बाल साहित्य बनी
बनाई पुरानी लीक पर चलता रहा. आजादी के पहले कुछ बड़े साहित्यकारों ने भी बच्चों के
लिए खूब लिखा था, लेकिन आजादी के बाद प्रितिष्ठित लेखक बच्चों के लेखन को बचकाना साहित्य
मानने लगे. दस-पन्द्रह साल तक बाल साहित्य सृजन की कोई सार्थक दिशा और दृष्टि सामने
नहीं आ पाई.
सातवें
दशक से विचार-मंथन शुरू हुआ. बाल लेखकों की एक नई पीढ़ी ने, जिनका बचपन छूटे अभी बहुत
समय नहीं हुआ था, इस उत्तरदायित्व को गंभीरता से निभाने का संकल्प लिया. बच्चों की
रुचियों, भावनाओं, कल्पनाओं और आवश्यकताओं के अनुसार साहित्य सृजन का प्रयास प्रारंभ
हुआ. नए-नए विषयों पर नए प्रयोग करते हुए नई शैली में रचनाएं लिखी जाने लगीं. बाल साहित्य
को लेकर गोष्ठियां, सेमीनार और सम्मेलन आयोजित किए गए. सातवें, आठवें और नौवें दशक
में पर्याप्त सक्रियता रही. अनेक बाल साहित्यकारों ने समर्पित भाव से बच्चों के मनोविज्ञान
और उनकी आवशकताओं के अनुरूप सृजन कर बाल साहित्य की अभिवृद्धि की. मुद्रण की गुणवत्ता
में भी उल्लेखनीय विकास हुआ और हिन्दी बाल साहित्य अब विश्व के बाल साहित्य से होड़
लेने लगा है.
आजादी के बाद के बाल साहित्य और वर्तमान बाल साहित्य की रचना प्रक्रिया
में क्या मूलभूत अंतर है?
आजादी
मिलने पर भारत को एक नई पहचान मिली. देश को प्रगति पथ पर आगे बढ़ाने के लिए सभी क्षेत्रों
में विकास की योजनाएं बनीं. नई राहें, नई आकांक्षाएं, नए आयाम सामने आए. लेकिन प्रारंभिक
वर्षों में छिटपुट प्रयासों को छोड़कर बाल साहित्य सृजन में कोई मूलभूत अंतर नहीं आया.
बच्चों को नैतिक शिक्शा देकर उन्हें आदर्श नागरिक बनाने की प्रवृत्ति विकसित होने से
बाल साहित्य भी प्रभावित हुआ. वीरता, साहस और राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत रचनाओं
से बाल साहित्य का भंडार भरने लगा. परंपरागत मूल्यों और मान्यताओं के प्रति आग्रह और
बढ़ा. बच्चे देश के भावी निर्माता हैं, इसलिए उनकी विशेष महत्ता है, यह तो सब मानते
थे, लेकिन बच्चों का भी स्वतंत्र अस्तित्व है, उनकी मानसिकता, उनकी रुचियां, उनकी जरूरतें
बड़ों से लग हैं, यह स्वीकार नहीं किया गया.
जैसा मैंने पहले कहा, आधुनिक विचार प्रक्रिया प्रारंभ हुई सातवें दशक से. तभी से रचना
प्रक्रिया में भी परिवर्तन आया. बाल साहित्य में नीति और उपदेश के बजाय मनोरंजन को
महत्व दिया जाने लगा. समय, समाज और परिवेश को ध्यान में रखकर सृजन की चुनौतियों को
निष्ठावान बाल साहित्यकारों ने स्वीकार किया और बाल मनोविज्ञान पर आधारित यथार्थ से
जुड़ी रचनाएं देकर बाल साहित्य को समृद्ध करने का बीड़ा उठाया. वैज्ञानिक दृष्टिकोण और
आधुनिक भावबोध का समावेश होने से बाल साहित्य को नई दिशा मिली. परीकथाएं रोचक वैज्ञानिक
तत्वों के आधार पर लिखी गईं. राजा-रानी की कहानियों के स्थान पर आधुनिक परिवेश और जीवन
मूल्यों के संदर्भों की कहानियों का सृजन हुआ. कविताओं में नए विषयों की तलाश होने
लगी. उपमाएं और प्रतिमान बदल गए. आयुवर्ग के अनुसार बच्चों की रचनात्मक प्रवृत्तियों
को प्रोत्साहित करने वाली रचनाएं सामने आईं. जो विधाएं या विषय उपेक्षित थे, उन पर भी रचनाकर्म
प्रारंभ हुआ. इस तरह बाल साहित्य की रचना प्रक्रिया में मूलभूत अंतर आ गया.
लेकिन
बीसवीं शताब्दी के समाप्त होते-होते मुझे फिर यह आभास होने लगा है कि प्रगति कुछ ठहर-सी
गई है. अब बाल साहित्यकारों की एक और नई पीढ़ी सामने है, लेकिन नई पीढ़ी में नई जमीन
तोड़ने की ललक कुछ घटती प्रतीत हो रही है. फिर से बनी बनाई लीक पर चलने से ही नए बाल
साहित्यकार अपनी सार्थकता समझते हैं.
एक साहित्यकार और सम्पादक के रूप में आपने बाल साहित्य के उन्नयन में किस
तरह योगदान दिया.
आज
से चालीस साल पहले जब दिल्ली के एक प्रकाशक के यहां हिन्दी सम्पादक के रूप में मेरी नियुक्ति हुई, तब मैं बाल
साहित्य के संपर्क में आया. एक जिम्मेदार पद पर बैठकर जिम्मेदारी का एहसास होना स्वाभाविक
है. बच्चों को श्रेष्ठ साहित्य देने के लिए मैंने स्वयं बाल मनोइज्ञान का अध्ययन किया.
बच्चों के मन को, उनके स्वभाव को, रुचियों को, उनकी प्रवृत्तियों और जरूरतों को पहचानने
की कोशिश की. मैंने जाना कि बच्चों को बड़ों के आदर्शों, आकांक्षाओं, मान्यताओं में
रुचि नहीं है. वह अपना रास्ता खुद चुनना पसंद करता है. वह कल्पनाशील है, पर अविश्वसनीय
चीजों पर प्रश्नचिन्ह लगाने में देर नहीं करता. उसे बड़ों का प्यार और अपनत्व तो चाहिए,
पर आदेश या उपदेश बिल्कुल नहीं. वह ज्ञान अर्जित करने को उत्सुक रहता है, पर अपनी जिज्ञासाओं
के समीचीन उत्तर भी उसे चाहिए. मोहक और मनोरंजक चीजों के प्रति वह सहज आकर्षण महसूस
करता है. चटपटी और अटपटी बातों में वह खूब रस लेता है. निर्मम व्यवहार या उपेक्षा से
मर्माहत हो वह विद्रोह भी करता है, पर जब उसे अपनत्व या सहानुभूति मिलती है तो सब कुछ
भूलकर वह प्यार लुटाता है, बड़ों को सम्मान देता है.
बच्चों
की इसी मानसिकता से प्रेरित होकर मैंने बाल साहित्य प्रकाशन की नई-नई योजनाएं बनाईं.
जिन विधाओं में बाल साहित्य का अभाव था, उन पर विशेष ध्यान दिया. उन्हीं दिनों मैंने
प्रतिनिधि बाल एकांकी तथा प्रतिनिधि बाल सामूहिक गान के दो बड़े संकलन सम्पादित किए.
बच्चों को जन्मदिन और अन्य शुभ अवसरों पर भेंट देने के लिए बाल उपहार माला के नाम से
दस पुस्तकों की श्रृखंला और चार शिशु गीतों के संकलनों का सम्पादन किया.
लेकिन
पुस्तकों के प्रकाशन या प्रचार-प्रसार की सीमा है. जितने व्यापक स्तर पर बाल साहित्य
की आवश्यकता है, वह पुस्तकों से पूरी नहीं हो सकती. इसके लिए आवश्यक है बाल पत्रिकाओं
और समाचार पत्रों में बाल साहित्य के निरंतर प्रकाशन की.
जब
मैं धर्मयुग में के सम्पादकीय विभाग से जुड़ा तो मैंने बाल पृष्ठों का अतिरिक्त भार
स्वतः ग्रहण किया. यहां मेरा प्रयास रहा कि धर्मयुग के बाल पृष्ठ बच्चों के दोस्त की
भूमिका निभाएं. वे उसके शिक्षक या अभिभावक न बनें. मेला, दिनमान टाइम्स, स्वतंत्र भारत
और अमर उजाला में भी मेरा यही प्रयास रहा. पिछले चालीस वर्षों से बाल साहित्य के वरिष्ठ
और उदीयमान रचनाकारों से मेरा पत्र-व्यवहार होता रहा है. मैंने यही चाहा है कि बाल साहित्य को लीक से हटाकर कुछ नई पगडंडियों
के निर्माण में सभी का सक्रिय रचनात्मक सहयोग मिले. जिनके पास भाषा है, कौशल, बच्चे
की मानसिकता और मनोविज्ञान को समझने की द्रुष्टि है, उनका यह दायित्व भी है कि वे स्च्चे
अर्थों में निष्ठापूर्वक बाल साहित्य को अपने आधुनिक रचनाकर्म से समृद्ध करें.
बाल-पत्रिकाओं की अकाल मृत्यु का कारण क्या है?
बालसखा,
शुशु, बालक, बानर, मनमोहन, मेला और पराग जैसी
उत्कृष्ट बाल पत्रिकाएं आज बंद हो चुकी हैं. ये ऎसी पत्रिकाएं थीं, जिन्होंने
अपने-अपने समय से बाल साहित्य को एक दिशा दी और उसे समृद्धिशाली बनाने के लिए अतुलनीय
कार्य करते हुए अनेक बाल साहित्यकारों का निर्माण किया. अपनी ऎतिहासिक भूमिका के बावजूद
इनका अवसान हुआ. इसके अतिरिक्त और बहुत-सी बाल पत्रिकाएं समय-समय पर बंद होती रही हैं
और बाल साहित्य के प्रकाशन के विकल्प कम होते गए हैं. बाल-पत्रिकाओं के बंद होने के
कई कारण रहे हैं.
पहला
कारण तो यही है कि भारतीय समाज में बच्चों की रुचियों और जरूरतों को कोई महत्व नहीं
दिया जाता. बच्चों को बाल-पत्रिकाएं खरीदने का न तो अधिकार है, न उनके पास पैसा है.
यह तय करना अभी तक अभिभावकों का काम माना जाता है कि बच्चों को क्या करना चाहिए और
क्या नहीं. बच्चों की प्रगति और उनके विकास का रास्ता अभिभावक ही तय करते रहे हैं.बाल-पत्रिकाएं
खरीदने की बात करते ही वे स्कूल के बस्ते का बोझ बढ़ते जाने की बात करने लगते हैं. उनकी
मान्यता है कि पाढ्य पुस्तकें, होम वर्क करने और मनोरंजन के लिए टी.वी. देखने के बाद
बच्चे के पास पत्रिकाएं पढ़ने का समय ही नहीं है. वे इसकी आवश्यकता ही नहीं समझते.
दूसरा
प्रमुख कारण व्यावसायिक है. बाल-पत्रिकाओं की सम्यक साज-सज्जा के कारण उनकी लागत अन्य
पत्रिकाओं की अपेक्षा अधिक आती है, लेकिन मूल्य बच्चों को दृष्टी में रखकर कम रखना
पड़ता है. विज्ञापन भी बच्चों की पत्रिकाओं को कम मिलते हैं. सीमा से अधिक प्रसार संख्या
होने पर भी घाटा बढ़ता है, क्योंकि दुनिया भर में अखबार या पत्र-पत्रिकाएं ही ऎसा उत्पाद
हैं जो अपनी लागत से भी काफी कम कीमत पर बाजार में बेचा जाता है. मालिक लंबे समय तक
घाटा बर्दाश्त नहीं कर पाते और पत्रिका का प्रकाशन स्थगित कर देते हैं. उत्कृष्ट बाल
साहित्य को प्रकाशित करने वाली कई महत्वपूर्ण पत्रिकाओं ने इसी व्यावसायिक मनोवृत्ति
के कारण दम तोड़ा है.
-0-0-0-
आजकल : नवंबर,२००० से साभार
6 टिप्पणियां:
बहुत अच्छी लगी ...पठनीय ॥॥
SHRI YOGENDRA KUMAR LALLA KE SAHITYA PAR KENDRIT VAATAYAN KA YAH
ANK KHOOB BAN PADAA HAI . SABSE
BADEE KHOOBEE LALLA JI PAR LIKHA
AAPKAA SANSMARAN HAI . UNKEE BAAL
KAVITAAYEN BHEE MAN KO CHHOTEE HAIN
APNEE SEEDHEE - SAADEE BHAVABHIVYAKTI KE KAARAN .
आदरणीय चंदेल जी.
लल्ला जी पर केंद्रित अंक पढ़ गया. प्रस्तुति सुंदर और संस्मरण बेहद आत्मीयता से लिखा गया है. उनसे जुडी हुई आपकी यादें रोचक और पठनीय हैं. लल्लाजी की बाल कविताएं और शमशेर अहमद खान द्वारा लिया गया साक्षात्कार, उनके लिए, जो लल्ला जी को नज़दीक से नहीं जानते, पठनीय और संग्रहणीय है. तस्वीरें तो यादगार हैं ही.. मैं अभी लल्लाजी के यहां नहीं जा पाया पर शीघ्र ही जाने की कोशीश करूंगा. उनके मेला के अंक भी लौटाने हैं.
आपके ब्लोग्स के जरिये अब आपकी कई रचनाओं को पढ़ने का भी मौका मिलेगा और आपसे यदा-कड़ा मिलने पर चर्चा भी होती रहेगी. मेरे लिए इसससे अच्छी बात और क्या होगी.
आदर सहित,
रमेश तैलंग -9211688748
alla ji ke bare men samagri dekar aapney bahut achcha kaam kiya hai. main unke saath kaam kar chuka hoon aur unmen ek kushal sampadak dekh chuka hoon. mela men unhone meri do bal kavitayen prakashit bhi ki thin. unka saral swabhav aur jabardast mehnat karney ka jazba mere liye prerna ka vishay hai. delhi se jaaney ke bad unsey na mil pane ka afsos bhi hota hai.
महेश दर्पण
महेश जी,
लल्ला जी इन दिनों अपने बेटे के पास वैशाली (गाजियाबाद) में रह रहे हैं. उनका फोन नं. 0120-4563863 है. आपने उन पर मेरा संस्मरण पढ़ लिया होता तो यह जानकारी आपको हो गयी होती.
रूपसिंह चन्देल
यार चन्देल, तुम्हारा लल्ला जी पर संस्मरण तो ग़ज़ब का है। बिलकुल सधा हुआ। जानकारी से भरपूर और एक कर्मठ व्यक्ति के स्वाभिमान और उसकी मेहनत-लगन को रेखांकित करता। लल्ला जी को एक जमाने में जब धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, नंदन, दिनमान टाइम्स पत्रिकाएं हुआ करती थीं, पढ़ता रहा हूँ। वातायन में उनकी बाल कविताएं तो उनके बाल-लेखन की बानगी हैं। 'वातायन' का यह अंक वाकई संग्रहणीय बन गया है- लल्ला जी के कारण्। बधाई !
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