हम और हमारा समय
बलात्कार की ही तरह तेजाबी हमला भी लैंगिक शोषण का एक अक्षम्य अपराध है, जो इसकी शिकार को जीवन भर के लिए शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक रूप से ध्वस्त कर देता है. अपने चेहरे पर वे ताजिंदगी एक असह्य दाग लेकर समाज और दुनिया के सामने हीन भावना से ग्रस्त रहती हैं. उनके पुनर्वसन या सामान्य रूप से जीने और आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए कोई प्रावधान नहीं है. हमलावर पकड़ा भी जाये तो उसकी सज़ा अपर्याप्त है. दृष्टि हीनता और चेहरे की विरूपता की शिकार ताउम्र इस सदमे से पीड़ित रहती है, जबकि अपराधी अपनी नियत सज़ा कुछ सालों तक काटने के बाद समाज में उसी रसूख और बिना किसी अपराध बोध के घूमता है! कई अर्थों में यह हत्या से भी बड़ा अपराध है पर सज़ा और जुरमाना अपर्याप्त है! समाज में चल रहे ये अपराध क्या हमारे साहित्यकारों और पत्रकारों की चिंता और सरोकार का विषय नहीं होने चाहिए?
इस बार इस स्तंभ के अंतर्गत प्रस्तुत है वरिष्ठ कथाकार सुधा अरोड़ा का आलेख - 'तेजाबी हमला
-- एक संगीन अपराध और नाकाफी सज़ा. साथ ही प्रस्तुत है सुधा अरोड़ा जी की कविता और कहानी. आशा है यह पोस्ट आपको पसंद आएगी. आपकी बेबाक प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी.
स्त्री मुद्दा
तेजाबी हमला
-- एक संगीन अपराध और नाकाफी सज़ा
सुधा अरोड़ा
तेजाबी हमले की शिकार प्रीति राठी,पूरे
एक महीने, जि़न्दगी और मौत के बीच जूझते
हुए,आखिर मौत से हार गयी|
दामिनी की तरह क्या यह लड़की भी भारतीय न्याय व्यवस्था
के लिये एक चुनौती, एक
सबक बनेगी? हमारी लचर न्याय प्रणाली के
चलते अपराधियों की हिम्मत इतनी बढ़ जाती है कि वे एक जि़न्दगी से जीने का अधिकार छीन
लेते हैं! क्या तेजाबी हमला,हत्या
जितना ही संगीन अपराध नहीं है? इस
मौत ने हमारे संविधान और न्याय प्रणाली पर एक बार फिर बहुत सारे सवाल खड़े कर दिये
हैं|
0
अक्सर जीवन में ऐसे अन्तर्विरोध सामने आते हैं
कि यह समझ पाना मुश्किल होता है कि इस दुनिया को किस नजरिये से देखा जाये|
ये अन्तर्विरोध दो दुनियाओं के फर्क को बड़ी बेरहमी
से हमारे सामने ले आते हैं और नये सिरे से सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या सारी स्त्रियां
पुरुष सत्ता या वर्चस्व की शिकार हैं या उनका एक खास हिस्सा ही इससे पीडि़त है?
कहीं स्त्रियां पुरुष उत्पीड़न की सीधे शिकार है तो
कहीं वह पुरुष वर्ग की आकांक्षाओं के अनुरूप विमर्श की सामग्री तैयार करती हुई पुरुषवादी
एजेंडे को ही मजबूत बनाने की कवायद में लगी है|
आज की दो घटनाओं के मद्देनज़र इस पर एक बार फिर विचार
करने की ज़रूरत है|
3 मई
2013 की सुबह के अखबार के पहले पन्ने की एक खबर पढ़कर मन
उचाट हो गया| बांद्रा टर्मिनस पर दिल्ली
से गरीब रथ एक्सप्रेस से मुंबई में पहली बार उतरी प्रीति राठी के ऊपर एक व्यक्ति ने
एसिड फेंक दिया| हमलावर
ने उसके कंधे पर पीछे से हाथ रखा और जैसे ही लड़की ने पीछे घूम कर देखा उसके चेहरे
पर एसिड फेंक कर वह भाग गया| इतनी
भीड़ वाले इलाके में भी कोई उसे रोक या पकड़ नहीं
कर पाया और वह एक जिंदगी बर्बाद कर फरार हो गया|
न सिर्फ
प्रीति का चेहरा और एक आंख झुलस गई, एसिड उसके हलक से नीचे भी पहुंच गया।
दो घंटे उसे कोई चिकित्सा नहीं मिल पाई।
22
साल की बेहद मासूम सी दिखती लड़की प्रीति राठी ने सैनिक
अस्पताल अश्विनी में नर्स की नियुक्ति के लिए बहुत सारे सपनों के साथ पहली बार मुंबई
शहर में कदम रखा था| उसके
हस्तलिखित पत्रों की भाषा जिस तरह से हताशा और चिंता से भरी हुई थी,
वह न केवल दिल दहलाने वाली थी बल्कि एक स्त्री के जीवन
में आजीविका के समानांतर किसी और विकल्प के गैरजरूरी होने का भी सबूत देती थी|
वह लिख रही थी क्योंकि वह बोल नहीं सकती थी। वह
लिख रही थी क्योंकि वह देख नहीं सकती थी। वह लिख रही थी क्योंकि उसके पास कई
सारे सवाल थे पर उसका जवाब कोई दे नहीं पा रहा था। एक लड़की अस्पताल में जीवन और मृत्यु
से जूझ रही है लेकिन जब भी उसे होश आता वह
अपनी नौकरी के बचने और छोटी बहनों के सुरक्षित रहने की चिंता व्यक्त करती है, माता
पिता को टेंशन न पालने की हिम्मत देती है और हत्यारे के पकड़े जाने की खबर के बारे में पूछती
है| अस्पताल में वह लिख-लिख अपने पिता तक अपनी बात
पहुंचाते हुए उसका आखिरी नोट यह था कि उसे महंगे अस्पताल में न डालें, खर्च बहुत
हो जायेगा। मसीना अस्पताल से बॉम्बे हॉस्पिटल पहुंचने तक वह कोमा में जा चुकी
थी। उसके फेफड़े
एसिड के असर से झुलस चुके थे।
मीडिया का स्त्री
विरोधी रूझान
एक महीना पहले यह दिल दिमाग
को सुन्न कर देने वाली खबर थी| 3 मई
को, कुछ ही घंटों बाद दिल्ली से
प्रकाशित हिंदी की एक रंगीन महिला पत्रिका की रिपोर्टर का फोन आया|
नाम पूछा तो कहा
-- प्रीति! सुबह
की प्रीति राठी अभी एक सदमे की तरह मुझ पर हावी थी|
तब तक इस पत्रकार प्रीति ने फोन करके अपने अगले अंक
की परिचर्चा पर सवाल पूछा - आपकी
उम्र क्या है? मैंने
उम्र बताई - छियासठ|
अगला सवाल-क्या
आपको मेनोपॉज़ हो गया है?
मैंने अपनी उम्र दोहराई|
बोली-ओह
सॉरी, मैंने सुना-छियालीस|
हम कुछ सेलिबि्रटीज़ से पूछ रहे हैं कि मेनोपॉज़ के
बाद औरतों में सेक्स इच्छा कम हो जाती है क्या?
सुनकर दिमाग चकरा गया|
मैंने उसे कहा-इतनी
समस्याओं से जूझ रही हैं औरतें और आपको सेक्स पर बात करना सूझ रहा है,कोई
गंभीर मुद्दा
नहीं मिला आपको? हँसते
हुए जवाब मिला-हमने मार्च अंक में गंभीर
मुद्दे भी उठाये थे पर वो कोई पसंद नहीं करता!
हाल ही में बाज़ार में लॉन्च
हुई इस गृहिणीप्रधान महिला पत्रिका को बेचने के लिये हर अंक में सिर्फ सेक्स की ही
ज़रूरत क्यों पड़ती है? कौन
सी महिलायें हैं जो उत्तर मेनोपॉज
स्त्री की कामभावना के ज्ञान से अपने दिमाग को तरोताजा बनाये रखना चाहती हैं?
क्या महिलाओं का नया पाठक वर्ग अपने समय और उसके सवालों
से पूरी तरह कट गया है और वे किसी गंभीर मुद्दे पर प्रकाशित कोई सामग्री नहीं पढ़ते?
ये सारे सवाल उस भयावहता की तरफ दिल-दिमाग को बार-बार
ले जाते हैं, जो स्त्री के खिलाफ एक फिनोमिना
तैयार करते हैं और तब हम पाते हैं कि केवल पुलिस और अदालतें ही नहीं,
मीडिया भी बहुत कुछ स्त्री-विरोधी रुझानों से संचालित
है| लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ कहलाने
वाला मीडिया इन प्रवृत्तियों से लड़ने और उन पर सवाल खड़ा करने की जगह,स्त्री
को एक
कमोडिटी की तरह ही पेश कर रहा है|
स्त्रियों के लिए लगातार भयावह
होती जा रही इस दुनिया के बारे में गंभीरता से सोचना आज का सबसे जरूरी सवाल है-ऐसी
घटनाओं को बार-बार
दोहराया क्यों जा रहा है और कानून की सख्ती के बावजूद अपराधी बेलगाम क्यों हुये जा
रहे हैं? क्या कारण है बलात्कार और हत्या
की हर घटना के देशव्यापी विरोध के बाद हम आशावादी होकर सोचते हैं-अब
ऐसी घटना न होगी और अभी सांस ठीक से ले भी नहीं पाते कि एक और घटना हमारी संवेदना के
चिथड़े उड़ा देती है|
इनकार से उपजी प्रतिहिंसा
अपने
देश के स्त्री-विरोधी पर्यावरण के वर्तमान से हमें अतीत के दरवाजे तक जाना होगा| एसिड अटैक
की अधिकतर घटनाओं के पीछे प्रेम एक बुनियादी कारण होता है| सदियों से
प्रेम हर समाज में मौजूद रहा है लेकिन एसिड अटैक का इतने भयानक रूप से प्रचलित प्रतिशोध
इससे पहले कभी नहीं था| प्रेम में हजारों दिल टूटते हैं और उनकी उदासी
हताशा में बदल जाती है,लेकिन ऐसा हिंस्र वातावरण पहले कभी नहीं था| तब भी नहीं,जब हमारा
समाज आज की तुलना में अधिक दकियानूसी और भेदभावपूर्ण माना जाता था| आज स्थितियां
बिलकुल विपरीत हो गई हैं| आज उस समय की प्लेटोनिकता तो दुर्लभ है ही,उसकी जगह
दूसरी कुंठाओं ने भी ले ली है| अधिकतर मामलों में प्रेम एकतरफा होता है| दो विपरीत
स्थितियों को हम एक साथ देख सकते हैं| सहशिक्षा बढ़ने और जीवन शैली में आधुनिकता का
बोलबाला होने के साथ ही हम देख सकते हैं कि आम लड़कियों में जहां अपने जीवन और उसके
निर्णयों के प्रति जागरूकता बढ़ी है , उसके ठीक समानान्तर लड़कों में उनके वज़ूद को लेकर एक नकार की भावना पनप रही है| आज जहां लड़कियां
हर क्षेत्र में अपनी योग्यता का परचम लहरा रही हैं,वहीं लड़कों
के मन उनके प्रति असहिष्णुता और दुर्भावना का एक अनुत्तरित भंडार हैं| लड़कियां
केरियर, प्रेम और शादी जैसे मसले पर स्वयं निर्णय लेने और नापसंदगी
को ज़ाहिर करने में अपनी झिझक से बाहर आ रही हैं और लड़कों को उनका यही रवैया सबसे
नागवार गुजर रहा है| अगर थोड़ा पीछे जाएँ तो आज से पच्चीस-तीस साल
पहले तक ऐसे अटैक लड़कियों पर नहीं हुआ करते थे,फिर आज ये
इस कदर क्यों बढ़ गए हैं? क्योंकि यह असहिष्णुता से उपजा प्रतिकार है,हिंसा है| लड़कों को
लड़कियों से ''ना'' सुनने की आदत नहीं है| लड़की होकर
इनकार करने की हिम्मत कैसे हुई उसकी? इसे प्रेम निवेदन या सेक्स निवेदन करने वाला
लड़का या किसी भी उम्र का मर्द अपनी हेठी समझता है और प्रतिहिंसा के लिए उतावला हो
उठता है| जब तक लडकियों में ना कहने का साहस नहीं था,समाज
अपनी यथास्थिति बनाये रखते हुए खुश था। सारी आधुनिकता और शिक्षा के बावजूद एक
पुरूष के लिये उसके प्रेम को नकारा जाना उसकी जिन्दगी की
सबसे शर्मनाक और अपमानजनक स्थिति है जिसे वह आसानी से स्वीकार नहीं करता।
लैंगिक असमानता
कुछ महीने पहले पाकिस्तान में
तेजाब हमले की शिकार लड़कियों की त्रासदी पर आधारित एक वृत्तचित्र-'सेविंग
फेस' चर्चा में था,जिसे
ऑस्कर मिला था| तेजाब
का हमला हत्या से कमतर अपराध नहीं है| यह
एक लड़की को जीवन भर के लिये विरूपित कर उसे हीनभावना से ग्रस्त कर देता है|
ऐसी लड़कियों की अनगिनत कहानियां हैं और ये सभी पुरुष-वर्चस्व,
पितृसत्ता और भारतीय पिछड़े पूंजीवाद के गर्भ से पैदा
हुई हैं| ये कहानियाँ सिर्फ तथ्य नहीं
हैं| ये हमारे समाज की उस बीमारी
के कैंसर होते जाने की दास्तां हैं जो संवैधानिक रूप से हमें लोकतन्त्र और बराबरी का
दर्जा मिलने के बावजूद इतनी गंभीरता से हमारे जीवन को खोखला करती रही हैं कि इसके चलते
सोच-संस्कृति और व्यवहार में हम लिंग,जाति,धर्म
और क्षेत्र से बाहर एक मनुष्य की तरह सोच ही नहीं पाते|
मनुष्य के रूप में हम कायदे से भारतीय भी नहीं हो पाये,विश्व-मानव
बनना तो बहुत दूर का सपना है|
भारत में आम जनता पर सिनेमा
का कितना प्रभाव रहा है और किस तरह सिनेमा आम वर्ग की मानसिकता का निर्माण करता है,
इसे भूलना नहीं चाहिये|
नब्बे का दशक उदारीकरण और मुक्त बाज़ार का दौर रहा|
इस दशक की शुरुआत में हॉलीवुड में कुछ ऐसी फिल्में आती
हैं जिसमें एक डरी हुई औरत हमारे भीतर उत्तेजना और सनसनी फैलाती है|
''स्लीपिंग विथ द एनिमी''
में जूलिया रॉबर्ट्रस का चरित्र हिंदी सिनेमा को इतना
रास आया कि इस प्रवृत्ति पर कई अनुगामी फिल्मों की कतार लग गई और उनमें से अधिकांश
ने बॉक्स ऑफिस पर झंडे गाड़े| इन
सभी फिल्मों में उत्सर्ग और त्याग,समर्पण
और विसर्जन की भावनाओं की जगह अधिकार,कब्जा
जताना और हासिल करना बुनियादी विशेषतायें थीं|
इस एंटी हीरो ने खलनायक के सारे दुर्गुणों के प्रति
स्वीकार्यता और समर्थन का माहौल बनाया| शाहरुख
खान की कई फिल्मों-बाजीगर,डर,अंजाम,अग्निसाक्षी
आदि ने प्रेम को हिंसा में बदलने वाले जार्गन का विस्तार किया और एक खलनायक की सारी
बुराइयों के बावजूद दर्शकों की पूरी सहानुभूति को बटोरा|
बेशक अंत में उसे मरते हुए दिखाया गया पर उसकी मौत ने
दर्शकों के मन में टीस पैदा की| मौत
को भी महिमामंडित किया गया| दिल
एक मंदिर और देवदास जैसी फिल्मों के भावनात्मक प्रेम की यहां कोई जगह नहीं थी|
फिल्मों से भारतीय मानस का एक बड़ा वर्ग प्रभावित होता
है और वह हुआ| युवा
पीढ़ी के जीवन में ये खलनायकी प्रवृत्तियां बग़ैर किसी अपराध बोध के शामिल हो गईं|
उसके लिये किसी तर्क की ज़रूरत नहीं थी|
अगर शाहरुख खान जूही चावला को दहशत के चरम पर पहुंचाकर
अपने प्रेम की ऊंचाई और गहराई का परिचय देता है और हिंसक होने के बावजूद नायक से ज्यादा
तालियां और सहानुभूति बटोरकर ले जाता है तो आम प्रेमी ऐसा क्यों नहीं कर सकता|
टी शर्ट पर
''आय हैव किलर इंस्टिंक्ट''
और ''कीप
काम एंड रेप देम'' जैसे
नेगेटिव जुमले फहराने वालों की जमात में इजाफा हुआ|
यह जानना भी ज़रूरी है कि स्त्री
के संबंध में हमारा सामाजिक पर्यावरण कैसा है और उसमें लोकतन्त्र् की सभी संस्थाएं,विधायिका,न्यायपालिका
और कार्यपालिका स्त्री के प्रति व्यवहार की कैसी नज़ीर पेश कर रही हैं?
इससे हमारे युवा किस तरह की सीख ले रहे हैं?
इसे हम कुछ सामान्य उदाहरणों के माध्यम से समझ सकते
हैं| कार्यस्थल पर यौन-शोषण और दुर्व्यवहार
भारत में एक जाना-पहचाना मामला है| आमतौर
पर स्त्रियां इससे बचती हुई अपनी आजीविका को बचाने की जुगत में लगी हैं|
अमूमन वे या तो चुप्पी साध लेती हैं या समझौता करते
हुये वहाँ बनी रहती हैं| लेकिन
जो इस मामले के खिलाफ खड़ी होती हैं और इसे बाहर ले जाने का साहस करती हैं उन्हें सबसे
अधिक खामियाजा सामाजिक रूप से भोगना पड़ता है|
चरित्र-हत्या और कुप्रचार के सहारे उन्हें इतना कमजोर
कर दिया जाता है कि वे अक्सर अपनी लड़ाई अधूरी छोड़ देती
हैं या बीच में ही थक कर बैठ जाती हैं| इसका
सबसे नकारात्मक असर यह है कि जन-सामान्य,स्त्री
के प्रति हुये अन्याय के खिलाफ खड़े होने की जगह,अपनी
धारणा में उसे 'चालू'
मान लेता है|
यही धारणा लगातार विकसित होती रहती है जो अपने जघन्य
रूप में स्त्री के प्रति अपराध को रोज़मर्रा की एक सामान्य सी घटना बना देती है|
ऐसी स्थिति में पत्रकारिता
अपना दायित्व कितना निभा रही है या सबकुछ बाज़ार की भेंट चढ़ गया है|
मांग पूर्ति के नाम पर कुछ भी परोसा जा रहा है|
जैसे छोटे परदे पर सास बहू और विवाहेतर संबंधों और कुटिल
स्त्रियों के महिमामंडित चरित्र दिखाकर यह कहा जाता है कि टी.आर.पी. की मांग यही है,वैसे
ही महिला पत्रिकाएं अपनी साठ पन्नों की पत्रिका में छह पन्ने भी स्त्री की त्रासदी
के प्रति घरेलू गृहिणियों को जागरुक बनाने के लिये यह कहकर नहीं देतीं कि घरेलू औरतों
की इन सबमें कहां कोई दिलचस्पी है| स्त्रियों
के लिये ऐसी भयावह स्थितियों के बीच, हमारी
रंगीन महिला पत्रिकाएं अपना नैतिक दायित्व भूलकर कब तक सेक्सी दिखने के तौर तरीके ही
बाजार के नाम पर उस समाज के बीच परोसती रहेंगी जहाँ हर दिन बच्चियों पर बलात्कार और
युवा लड़कियों पर तेजाबी हमले हो रहे हैं|
इन दो दुनियाओं में इतनी बड़ी खाई क्यों है और इसे पाटने
का क्या कोई रास्ता है?
पुलिस थानों और अदालतों में
स्त्री के संबंध में संवेदनहीन रवैया मौजूद होना आम बात है|
अपराधी वहाँ अपने पैसे और प्रभाव के बल पर पुलिस और
क़ानून को अपने प्रति सहृदय बनाने की कोशिश करता है और अक्सर स्त्री को झूठी साबित
कर दिया जाता है| हमारी
युवा पीढ़ी में पैसे और प्रभाव का बोलबाला बढ़ा है|
बेशक यह सब ऊपर से नीचे लगातार प्रसरण करता रहता है|
लिहाजा कानून का उसे डर नहीं|
जहाँ हर चीज़ पैसे से खरीदी जा सकती हो,वहां
पुलिस,न्याय व्यवस्था सब कुछ अपनी
मुट्ठी में नज़र आता है,फिर
डर किसका? कई समृद्ध, रसूख
वाले पूंजीपति या राजनेताओं के अपराध के मामलों को जिस तरह पैसे के बूते दबा दिया जाता
है और गवाहों को खरीद लिया जाता है, उसके
बाद इस वर्ग की मनमानी और बढ़ जाती है|
एसिड अटैक की इन घटनाओं की
क्रमवार श्रृंखला से निजात पाने के लिए जनता का एक बड़ा वर्ग कड़े कानून की मांग कर
रहा है लेकिन हमें इस विषय पर गंभीरता से विचार करना होगा कि अगर हमारी राजनीति और
अर्थव्यवस्था सामाजिक-सांस्कृतिक
स्तर पर हरसंभव पशुता को ही बढ़ावा दे रही है तो मात्र कानून इस प्रवृत्ति से छुटकारा
नहीं दिला सकता| हमें
उस बिंदु तक पहुंचना होगा जहां से ये सारी चीजें संचालित और नियंत्रित हो रही हैं|
अगर सत्ता के करीबी वर्ग में जड़ जमा चुकी गड़बडि़याँ,
नीचे और हाशियाई वर्गों में फैलेंगी तो उसका परिणाम
भयावह होगा ही| निश्चित
ही लड़कियां हर कहीं इन स्थितियों की सबसे आसान शिकार
(सॉफ्ट टारगेट)
है|
जुर्म के
मुकाबले अपर्याप्त सजा
हत्या के सभी औजारों में सबसे सस्ता, घातक
और आसानी से उपलब्ध हथियार है-एसिड। तीस रूपये में एक बोतल मिल जाती है और आम तौर
पर ऐसे तेजाबी हमला झेलने वालों की जिन्दगी की भयावहता और बाकी की त्रासद जिन्दगी
के लिये लगातार हीनभावना,घुटन में जीने के बावजूद हमला करने वाले को हत्यारे की
श्रेणी में नहीं रखा जाता। ज्यादा से ज्यादा दस साल की सजा और दस लाख तक के
जुर्माने का प्रावधान है जबकि तेजाबी हमले से विरूपित चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी
का खर्च तीस लाख से ज्यादा होता है। जब एसिट अटैक का शिकार अपनी पूरी जिंदगी एक विरूपित चेहरे, दैहिक तकलीफ, मानसिक
यातना, समाज से उपेक्षा को झेलते हुए जीता है, हत्यारा कुछ सालों की जेल और अपनी
हैसियत भर जुर्माना भरकर बाकी की जिन्दगी को सामान्य तरीके से गुजारने के लिये
स्वतंत्र छोड् दिया जाता है।
सबसे पहले जरूरी
है कि एसिड की खुली बिक्री पर फौरन प्रतिबंध लगाया जाये। किसी भी लड़की
को दैहिक, मानसिक और सामाजिक यातना से ताउम्र जूझने के लिये बाध्य करने वाले इस
अपराध को क्रूरतम अपराध की श्रेणी में ही रखा जाना चाहिये। सभी एशियाई देशों में कड़े कदम उठाये जा चुके हैं।
बांग्लादेश में
सन् 2002 में Acid Control Act 2002 और Acid Crime Prevention Acts 2002 के तहत एसिड की बिक्री
पर प्रतिबंध लगाने के बाद तेजाबी हमलों का प्रतिशत एक चौथाई रह गया है। भारत इसमें
पीछे है। यहां अब तक तेजाबी हमले को हत्या जैसे एक संगीन अपराध की श्रेणी में
नहीं रखा गया है जबकि यह हत्या से कहीं ज्यादा संगीन अपराध है।
हमारे देश की न्याय व्यवस्था, इन तेजाबी
हमलों और इसके साथ अपना सबकुछ गंवाती लडकियों के कितने आंकडों के बाद एक सख्त कदम
उठाने की दिशा में कदम बढायेगी?
-0-0-0-0-
सुधा अरोड़ा की कविता
सदियों के खिलाफ़ तैयार हो रहा है एक
मोर्चा -
बाज़ार भरा है नये से नये यंत्रचालित उपकरणो से
लेकिन कुछ भी नहीं है आधुनिक
कुछ भी नहीं है नया
न आय पाड , न थ्री डी होम थिएटर , न टैब्लेट कम्प्यूटर !
सिर्फ लड़कियों का सिर उठाना है नया
सिर्फ उनका इनकार है नया !
सदियों की चुप्पी के खिलाफ़ बोलना उनका
जबरन कहला ली गई ''हां'' के खिलाफ़
उनका ''नहीं'' है नया !
तुम अपनी हिंस्त्र कामुकता को
लपेटकर प्रेम की चासनी में
अपनी आंखों की लिप्सा में आतुरता सजाकर
रचते हो प्रेम का सब्जबाग़ उनके लिये !
तुमने यही सीखा सहस्त्राब्दियों तक !
ठोकर मार देना एक लड़की का
तुम्हारे प्रस्ताव को
एकदम नया है !
तुम पचा नहीं पाते जब इस इनकार को
तो असलियत पर उतर आते हो
अपने चेहरे पर नकाब बांधे
फेंकते हो उसके मुंह पर तेजाब पीछे से
सामने आकर लड़ने का हौसला नहीं तुममें !
लेकिन कुछ भी नहीं है आधुनिक
कुछ भी नहीं है नया
न आय पाड , न थ्री डी होम थिएटर , न टैब्लेट कम्प्यूटर !
सिर्फ लड़कियों का सिर उठाना है नया
सिर्फ उनका इनकार है नया !
सदियों की चुप्पी के खिलाफ़ बोलना उनका
जबरन कहला ली गई ''हां'' के खिलाफ़
उनका ''नहीं'' है नया !
तुम अपनी हिंस्त्र कामुकता को
लपेटकर प्रेम की चासनी में
अपनी आंखों की लिप्सा में आतुरता सजाकर
रचते हो प्रेम का सब्जबाग़ उनके लिये !
तुमने यही सीखा सहस्त्राब्दियों तक !
ठोकर मार देना एक लड़की का
तुम्हारे प्रस्ताव को
एकदम नया है !
तुम पचा नहीं पाते जब इस इनकार को
तो असलियत पर उतर आते हो
अपने चेहरे पर नकाब बांधे
फेंकते हो उसके मुंह पर तेजाब पीछे से
सामने आकर लड़ने का हौसला नहीं तुममें !
तुम अपनी आतुरता अपनी हिंसा
अपने प्रतिशोध के साथ खड़े रहो वहीं
जहां सदियों से खड़े हो !
क्योंकि जिन्दा इंसान ही चला करते हैं आगे
रचा करते हैं कुछ नया.
तुम्हारी बर्बरता के खिलाफ लड़कियों का
अपने लिए एक मुकाम बनाना है बिल्कुल नया!
सुधा अरोड़ा की कहानी
कांसे
का गिलास
पूरे रसोई घर में फैली कांच की किरचें साफ
की जा चुकी थीं पर वह थी कि बुक्का फाड़कर रोये जा रही थी। वह यानी चिल्की। छह साल
की चिल्की। मेरी पोती।
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- बस्स! अब चुप्प!
बहुत हो गया! काफी देर प्यार से समझा
चुकने के बाद मैंने अपने स्वर में आए डांट डपट के भाव को बेरोकटोक उस तक पहुंचने
दिया।
- पहले शोभाताई को
डांटो, उसने मेरा गिलास
क्यों तोड़ा! रसोई में काम करती शोभा तक ले चलने के लिए वह मेरा हाथ पकड़कर खींचने
लगी।
- पहले तो तेरे पापा
को न डाटूं जिसने इतना महंगा गिलास तुझे लाकर दिया? मैंने उसके पापा और
अपने बेटे निखिल के प्रति अपनी नाराज़गी जतायी।
उसकी रुलाई एकाएक और तीखी होकर कानों को
अखरने लगी।
- उफ़ ! अब क्या हो
गया। मेरा धीरज जवाब दे रहा था।
- पापा ने नहीं, वह सुबकने लगी।
सुबकती रही। फिर धीरे से बोली, यह ममा ने लाकर दिया था।
ममा यानी नेहा। मेरी बहू। मैं सकते में आ
गई। वह जिसके नाम से हम सब अपना पल्ला बचाकर चलते थे, जैसे वह अछूत हो, इसी तरह जब-तब
हमारे ठहरे हुए संसार को तहस नहस करने चली आती थी।
0 0
नेहा को इस घर से गए एक साल होने को आया
था पर चिल्की उसे भूलती नहीं थी। कभी लाल हेअर क्लिप, कभी जयपुरी जूतियां, कभी टपरवेअर का
टिफिन बाक्स, कभी डोनल्ड डक की
मूठ वाली छतरी,
कभी बालों पर टंगा
सनग्लास-चिल्की के सामने किसी न किसी बहाने से उसकी प्यारी ’ममा‘ आकर ठहर जातीं और
हमारे ’हुश हुश‘ करने के बावजूद ओझल
होने का नाम नहीं लेती।
अब चिल्की पर नाराज़ होना संभव नहीं था।
उसका ध्यान गिलास से हटाना अब दूसरे नम्बर पर चला गया था ।सुबकती हुई चिल्की को
मैंने अपनी बांहों की ओट में ले लिया।चिल्की मेरे करीब सिमट आई और बड़ों की तरह
रुलाई रोकने की कोशिश में उसकी हिचकियां तेज़ हो गईं।
- सुन बेटा! एक कहानी
सुनाऊं तुझे? सुनेगी? चिल्की को बहलाने
का अमोघ अस्त्र था यह!
- पहले मेरा
वो....सुंदर वाला ब्ल्यू गिलास.....चिल्की गिलास से हटने को तैयार नहीं थी।
एकाएक वह कांच का गिलास दुबारा टूटा और
उसकी जगह एक चमकते हुए कांसे के गिलास ने ले ली - संकरी पेंदी और चौड़े मुंह वाला
एक लंबा सा कांसे का गिलास.....गिलास न हो, फूलदान हो जैसे।
- अरे बेटा, गिलास की ही कहानी
तो सुना रही हूं तुझे। सुनेगी नहीं, रानी बेटी?
- बोलो, उसने जैसे मुझ पर
एहसान किया और सिर हिलाकर हामी भर दी।
- तब मैं तेरी ही तरह
छह साल की थी। इत्ती छोटी। चिल्की जैसी।
\- हुंह, झूठ! वह सिसकी
तोड़ती बोली, आप इत्ते छोटे कैसे हो सकते हो?
- तो क्या मैं पचास
साल की ही पैदा हुई थी-इत्ती बड़ी? अच्छा चल, मैं छह की नहीं, सोलह साल की थी, ठीक? मैं ठहाका मारकर
हंस दी।
मैं अपने बचपन में पहुंच गयी जहां निवाड़
वाली मंजियों के बीच खडि़या से आंगन में इक्का-दुक्का आंक कर मैं शटापू (टप्पे
वाला खेल) खेलती थी। मुझे हंसी आ गई।
वह मेरी पीठ पर धपाधप धौल जमाने लगी - हंसो मत! कहानी
सुनाओ।
वह होंठों को एक कोने पर जरा सा खींचकर
मुस्कुरायी। बिल्कुल अपनी मां की तरह। उसके चेहरे पर नेहा दिखाई देने
लगी।
0 0
हां तो मैं छोटी थी, चिल्की जितनी नहीं, थोड़ी बड़ी। घर में
मैं थी, मेरे ढेर सारे बड़े
भाई बहन थे, मां और बाऊ
जी थे। बाऊ जी की मां भी थीं। यानी मेरी दादी। बहुत बहुत बूढ़ी थीं वो, पता है कितने साल
की?
- कितने....?
- नब्बे से ऊपर।
- नब्बे से ऊपर
मतलब?
- मतलब अबव नाइन्टी।
बहुत ही गोरी चिट्टी। लंबी ऊंची। सेहतमंद। पठानों
जैसी.....गोरी इतनी कि उंगली गाल पे रखो तो लाली दब के फैल जाए.....पर थीं बिल्कुल
सींक सलाई। चलती थीं तो ऐसे जैसे हवा में सूखा पत्ता उड़ता है। चलती क्या थीं, दौड़ती थीं जैसे
पैरों में स्प्रिंग फिट किए हों.....
- ये तो आप मेरी बात
कर रहे हो!....नहीं सुननी मुझे कहानी.....
लो, मेरी तो याददाश्त
ही कमजोर होती जा रही है। हां, साल भर की चिल्की ने भी जब चलना सीखा तो चलती नहीं, दौड़ती थी.....हम
उसे बताते थे कि चिल्की, तेरे पैरों में किसी ने स्प्रिंग फिट कर दिए हैं।
- हां, तो बुढ़ापे में भी
तो आदमी बच्चों जैसी हरकतें करने लगता है। हम उन्हें कहते - दादी । सोटी लाठी
लेकर चलो नहीं तो गिर जाओगी पर वो कहां सुननेवाली। सोटी लेकर चले तेरी सास, सोटी लेकर चले मेरे दुश्मन, मुझे सोटी की लोड
(जरूरत) नईं.....उन्हें सोटी लेकर चलने में शरम आती थी। था तो इतना लंबा कद पर पीठ
झुकी हुई नहीं थी। सीधी चलती थीं। चलती क्या थीं, उड़ती थीं। किसी की
बात नहीं सुनती थीं। फिर क्या होना था......
- हॉं.....गिर गईं? चिल्की की आंखों
में कौतूहल था।
- हां, गिरना ही था न! बच्चे
भी बात नहीं मानते तो चोट तो लगती है ना?
चिल्की ने सिर हिलाया-मैंने भी ममा की बात
नहीं मानी थी तो ये देखो.....
चिल्की के जेहन में अब भी जख्म ताज़ा थे।
उसने अपनी बांयीं आंख बंद कर पलक पर उंगली गड़ा दी। आंख के पर भौंह से लगे हुए छह टांकों के निशान
उभर आए
थे। हां, उस दिन निखिल के आफिस से घर में नया
फर्नीचर आया था। फर्नीचर, जो उसके आफिस के लिए पुराना हो चुका था और वहां के कर्मचारियों को औने
पौने भाव में बेचा जा रहा था। निखिल ने सोफा, दीवान और बीच की
मेज खरीद ली थी। बर्मा टीक की बड़ी खूबसूरत मेज थी। चिल्की ने ज्यों ही नया सोफा
देखा, लगी उसपर कूदने।
नेहा चिल्लाती रही कि मेज के कोने नुकीले हैं , उन्हें गोल करवाना
है, कूद मत नहीं तो
लगेगा आंख पे। उसने तीन बार टोका और तीनों बार चिल्की और जोर से सोफे के डनलप पर
कूदी। बस, पैर जरा सा मुड़ा
और सीधे जा गिरी मेज के कोने पर। चिल्की की बायीं आंख लहूलुहान। कमरे में खून ही
खून। नेहा ने देखा और लगी चीखने। कहा था न, सुनती तो है ही
नहीं। उसको उठाकर दौड़े अस्पताल। सबको लगा कि गई आंख इसकी। पर आंख बच गई थी। छह
टांके लगे। वह मेज उठाकर परछत्ती पर रखवा दिया। अब वहीं रहेगा जब तक यह बड़ी नहीं
हो जाती। निखिल बड़बड़ाता रहा और नेहा उसे कोसती रही-अपने दफ्तर का यह कूड़ा कचरा
उठाकर घर लाने की जरूरत क्या थी! जमीन पर गद्दे और गावतकिए थे तो सोफे के बगैर
भी घर कितना खुला खुला लगता था। अब कमरे में चलना मुहाल हो गया है। कहीं कुछ सस्ता
देखा नहीं कि उठाकर घर में डाल दो। घर न हुआ, स्टोररूम हो गया।
चिल्की तो उस दिन के बाद से कुछ संभलकर
चलने लगी। फिर कभी उसे टांके नहीं लगे। पर दादी तो एकबार गिरीं तो फिर नहीं उठीं।
कूल्हे की हड्डी
चटक गई थी। डेढ़ महीने टांग पर वज़न बंधा रहा। हड्डी की तरेड़ तो ठीक हो गई पर जब तक
हड्डी जुड़ती,
टांगे बिस्तर पर
पड़े पड़े सूख गई। अब टांगों ने उनका वज़न उठाने से इनकार कर दिया था।
- फिर?
- फिर क्या! बड़ी
मुसीबत! हमेशा उड़ती फिरती दादी बिस्तर से जा लगीं। पर से
उनकी जिद कि अब तो वजन उतर गया है, अब बिस्तर पर उनको पॉट नहीं चाहिए। उनके
लिए शहर से कुर्सी मंगवाई गई। एक पॉट वाली, एक पहिए वाली जिसपर
बिठा कर उन्हें दिन में एक बार अपने अमरूद और सीताफल
के पेड़ के पास जाना ही था-किस अमरूद को थैली लगानी है, कौन सा सीताफल पक
गया है, कौन सा अमरूद बंदर
आधा खा गया है,
सब की खोजखबर रखती
थीं वो......कौन चाची काकी कितने दिनों से हालचाल पूछने नहीं आयी....कौन आके बार
बार उनसे उनकी उमर पूछता है....
- कितने साल की थीं
वो?
- उन्हें अपनी ठीक
ठीक उम्र कहां मालूम थी.....वो तो ऐसे बताती थीं, जनरल डायर ने
गोलियां चलवाई थीं तो उन्होंने नाड़े वाली सलवार पहनना शुरु कर दिया था....पर कोई
उनसे कहता कि झाई जी, आप तो नब्बे टाप गए हो तो उन्हें बड़ा बुरा लगता, कहतीं-नहीं, अभी तीन महीने बाकी हैं। मैं नब्बे की हुई
नहीं और मुझे सब नब्बे की बताते हैं और हो भी गयी तो क्या, नब्बे से पर आदमी जीना बंद कर देता है क्या? कोई उमर पूछता तो
वो चिढ़ जातीं। एक बार तो एक रिश्तेदार से भिड़ गयीं। उन्होंने उमर पूछी तो बहुत
धीरे से उससे कहती हैं - पहले तू बता, तू कितने साल का है। उसे सुनाई नहीं दिया। उसने
कहा-क्या पूछा आपने? तो कहती है-अब तू मुझसे इतने ही आहिस्ते से पूछ। मैं तुझसे ज्यादा अच्छा
सुन लेती हूं,
मैं बिना चश्मा
लगाए जपुजी साहिब का पाठ कर लेती हूं फिर तू सत्तर का
हुआ तो क्या और मैं नब्बे की दहलीज़ पे पहुंची तो क्या। लोग जब खुद
ऊंचा सुनने लगते हैं तो सारी दुनिया
उन्हें बहरी दिखायी देती है।
चिल्की ने हंसना शुरु किया-आपकी दादी बहुत
जोक मारती थीं। हैं न?
- हां, बड़ी जि़न्दादिल
थीं वो। अपनी सेहत का इतना ख्याल रखती थीं कि पूछ मत! शाम की चाय के साथ कुछ नमकीन
खातीं जैसे चिवड़ा या निमकी या आगरे का दालमोठ-दालमोठ उनको बहुत पसंद था तो क्या
करतीं- हथेलियों पे जो तेल लगता, उसको सबकी नजरें बचाकर हाथों और पैरों में रगड़ लेतीं। एकबार हम बच्चों
ने उन्हें ऐसा करते देख लिया। छिः-छिः छिः-छिः, हमने कहा, दादी ये मिर्च
मसाले वाला तेल रगड़ते हो, गंदा नहीं लगता , जलन नहीं होती? उन्होंने हम बच्चों को पास बिठाया, बोलीं-अब कौन उठ के
हाथ धोए। इस तरह एक पंथ दो काज होते हैं। वो कैसे, झाई जी? हम पूछते तो
कहतीं-देखो, ये.....ये जो हमारे
हाथों पैरों में रोंएं हैं न, ये छोटे छोटे रोएं, ये हमारे शरीर के दीए हैं, दीपक हैं। जैसे दीओं को जलने के लिए तेल की जरुरत होती है न, वैसे ही इन्हें
जलाए रखना है तो इनमें तेल डालना पड़ेगा। तभी तो ये गरम रहते हैं, खुश हो जाते है।
देखो, ये चहक गए ना ! जब
ये दीए बुझ जाते हैं तो शरीर ठंडा हो जाता है और बंदा सफर पे
निकल जाता है। सफर पे.....यानी उनकी मतलब था मर जाता है....हमने कहा, पर ये नमकीन तेल
क्यों लगाते हो,
नहाते समय तेल की
मालिश किया करो तो कहती थीं, वो तो मैं तेरी मां से छुपाके करती हूं, कड़वे तेल की शीशी
रख छोड़ी है गुसलखाने में। मां मना करतीं हैं क्या? हम पूछते, तो कहतीं-नहीं, मजाल उसकी कि मुझे
मना करे पर देखेगी तो सोचेगी नहीं, बुड्ढी के पैर कबर में लटके हैं और शरीर के मल्हार हो रहे हैं।
- ममा भी मुझे हर
संडे को तेल की मालिश करके नहलाती थीं।ममा को तो मसाज वाली आंटी आके मसाज करती
थीं। ममा तो पूरी नंगू हो जाती थी.....चिल्की मुंह को हथेलियों की कुप्पी में दबा
कर हंसने लगी।
मैंने लंबी सांस भरी। इस लड़की ने कैसी
याददाश्त पाई है, नहीं तो बच्चे कहां इतना याद रखते हैं चार-पांच साल की उम्र होती क्या
है। मां की कितनी कितनी तस्वीरें इसके ज़ेहन में अक्स हैं।
एकाएक चिल्की का चेहरा बुझ गया-ममा अब कभी
मिलने नहीं आएगी, दादी?
चिल्की का स्वर
रुंआंसा हो गया । चिल्की को इतनी देर तक कहानी सुना सुनाकर फुसलाना बेकार गया था।
- आएगी क्यों नहीं!
आएगी न!
- कब? चिल्की की आंखों की
नमी पर आंखें टिका पाना मुश्किल था- अब तो फोन भी नहीं करती
0 0
हां, पहले कर लिया करती
थी-दस पंद्रह दिन में एकबार। उस दिन निखिल ने ही डांट दिया-यहां से जाते समय नहीं
सोचा। उसे बार बार अपनी याद दिलाने से फायदा! अगर तुममें जरा भी बेटी के लिए माया
ममता बची रह गई है तो वह तुम्हें भूल सके, इसमें हमारी मदद
करो। सात समंदर पार से अपनी आवाज सुना सुनाकर उसे हलकान मत करो। निखिल की आवाज़
में कड़वाहट थी और नेहा को कड़वाहट पसंद नहीं थी। उसने फोन पटक
दिया और उसके बाद फिर कभी ब्लैंक कॉल तक नहीं आया। समय
के साथ साथ रिश्ते धुंधलाने की कोशिश में थे।
- अच्छा, वो गिलास की बात तो
रह ही गई, चिल्कू?
- अरे हां, चिल्की मेरे झांसे
में आकर वापस चहक उठी, वो गिलास की कहानी तो आपने सुनाई ही नहीं.....
- वो गिलास तो दादी
का था न बेटा,
इसलिए तुझे पहले
दादी की बात तो सुनानी थी न!
- नहीं नहीं, अब आप गिलास की
कहानी सुनाओ।
- हां, तो दादी के पास एक
गिलास था। कांसे का गिलास।
- कांसा क्या होता है, दादी?
मैंने आसपास नज़र दौड़ायी। कोने में एक
फूलदान था-कांसे का। देख, ऐसा होता है कांसा। इसके गिलास भी बनते हैं।
- वो गिर जाए तो
टूटता नहीं? चिल्की की आंखों
में लुभा लेने वाली मासूमियत थी।
- हां, नहीं टूटता।
0
0
रिश्तों को इस तरह मत तोड़ो नेहा! अभी
तुम्हारी उम्र ही क्या है। केरियर बनाने के बहुत सारे मौके आएंगे। निखिल नहीं
चाहता तो मत जाओ। साम-दाम-दंड-भेद हर तरह से समझाने की कोशिश की थी मैंने उसे-कम
से कम चिल्की के बारे में सोचो, वह मां के बगैर रह पाएगी?
- क्यों, बाप के बगैर नहीं
रहती क्या जब निखिल शिप पर चले जाते हैं-छः-छः महीने नहीं
लौटते, नेहा भड़क गई
थी-मैं बड़ी नहीं हुई क्या, मैंने तो मां को देखा तक नहीं। मेरे पापा और नानी ने ही मुझे बड़ा गया।
आपलोग मेरा साथ क्यों नहीं देते?.... बाद में पता चला, केरियर और जॉब का तो बहाना था, इसकी तह में नेहा
और निखिल की आपसी अनबन थी। नेहा गई तो चिल्की को गोद से उतारकर ऐसे रखा जैसे कोई
चाभी भरा प्लास्टिक का खिलौना ज़मीन पर धर देता है। बच्चों की छठी इंद्रिय बहुत
तेज़ होती है। गोद से उतरते ही चिल्की ने सिसकियां ले लेकर रोना शुरु कर दिया था।
सहसा चिल्की मुझे ज़मीन पर लौटा लाई-दादी, ये तो हमारे घर से
आया है ना?
- क्या? क्या आया है तेरे
घर से?
- ये। ये। ये- वह दौड़कर
फूलदान के पास जाकर खड़ी हो गई-ये दादी, ये तो हमारे घर में था।
मैं भीतर तक हिल गई। कितनी जल्दी दुनियावी
चीजें बच्चों को भी अपनी चपेट में ले लेती हैं।
मैंने अपने को फौरन समेटा-अच्छा हां। पर
ये घर भी तो तेरा है न। नहीं है?
- ये तो पापा का घर
है। चिल्की ने फतवा दिया।
- अच्छा बाबा, ठीक है। ये पापा का, वो तेरा। मेरा कोई
घर नहीं। मैंने रोनी सूरत बना ली।
- नहीं नहीं, अच्छी दादी, ये तो आपका घर है।
पापा का भी और.....उसने मेरे गले में बांहें डाल दीं-और मेरा भी। चिल्की अचानक
अपनी उम्र से बड़ी हो गई थी और चहक कर अब मुझे झांसा दे रही थी। मैं उसकी समझदारी
पर हतप्रभ थी। यह बच्चों की नयी पीढ़ी है। हमारे समय से कितनी अलग-व्यावहारिक और
डिप्लोमेट।
नेहा के जाने के बाद तीन चार महीने घर
वहीं बना रहा था। चिल्की को वही घर अच्छा लगता था क्योंकि वहां से उसका स्कूल
नज़दीक था और जब तब उसकी सहेलियां खेलने आ जाती थी। पर मेरे लिए दो घरों को चलाना
बहुत मुश्किल था और जिस तरह नेहा छोड़कर गई थी, उसके हृदय परिवर्तन
की गुंजाइश बहुत कम थी । देर सबेर उस घर को समेटना ही था, निखिल को फिर लंबे
दौरे पर जाना था इसलिए हमने उस घर को समेटने का फैसला लिया। चिल्की को उस घर से
आने के लिए राजी करना टेढ़ा काम था। उसका कमरा हमने वैसा का वैसा वहां से शिफ्ट कर
इस घर में हू ब हू तैयार कर दिया था पर चिल्की थी कि न अपना घर भूलती थी, न कमरा और न उसे
जिसने कमरा बड़े मन से बनाया था।
- पर दादी का भी एक
घर था। ठीक? मैंने कहानी के
छूटते जाते सिरे को थामा।
- हां, और उनका वो
गिलास.....चिल्की कहानी सुनने की मुद्रा में फिर बैठ गई।
- तो दादी उस गिलास
में ही सुबह पानी पीती थीं, फिर उसमें चाय, फिर नाश्ते के साथ गिलास भर दूध, फिर खाने के साथ
पानी, फिर शाम की चाय, फिर......
- क्यों, उनके घर में और
गिलास नहीं था?
चिल्की ने यह सवाल
बिल्कुल चिल्की की तरह ही किया।
- नहीं, गिलास तो बहुत थे
बेटा पर उनको वही गिलास पसंद था। हम सब बच्चे उसको पटियाला गिलास कहते थे। साइज
में इत्ता बड़ा था न इसलिए। गिलास का खूब मजाक भी उड़ाते
थे। कहते थे-दादी, आप गिलास को लेकर पर कैसे जाओगे?
- ही ही.....चिलकी
खिलखिलाकर हंस दी, फिर क्या बोला आपकी दादी ने?
- कहने लगीं-हट पागल, गिलास वाले तो पर
ही हैं, वहां गिलास क्या
करना ले जाकर।
इसे तो यहां वालों के लिए छोड़ जाना है
जैसे वो मेरे लिए छोड़ गए थे। हम बच्चे उनसे मजाक करते, पूछते- झाईजी आप
मरोगे कब? वो हंसतीं-तेरे घर
पोता होगा तब! उन्हें क्या पता था, मेरे घर पोता नहीं, पोती होगी- चिल्की जैसी......
चिल्की बड़ी बूढि़यों की तरह दोनों
हथेलियों की मुट्ठियां बांधे दोनों गालों पर टिकाए बैठी रही।
- उन्होंने अपने मरने
की पूरी तैयारी कर रखी थी। कहतीं-मेरी ये सोने की चूडि़यां मेरी बिट्टो को देना, बिट्टो मेरी बुआ का
नाम था। ये कान के बुंदे मेरी पोती को, ये सोने की चेन दूसरी पोती को, ये करधन....ये भी
बिट्टो को और ये मेरी आखिरी निशानी ये गिलास.....ये भी बिट्टो को.....मां और बाउजी
हंसते-सबकुछ तो आपने भैनजी को दे दिया, हमारे लिए भी कुछ रखा.....तो कहतीं-अच्छा, जो चीज़ उसे पसंद न
आए वो तू रख लेना।
- आपकी बुआ को बहुत
प्यार करती थीं वो?
- सब मांएं करतीं
हैं-मैं कहते कहते रुकी, फिर बात पलट दी-हां, तो वो हम बच्चों को पास बिठाकर कहतीं तुमलोग भगवान को बोलो-अब हमारा दादी
से जी भर गया है, अब उसे अपने पास बुला लो, वो अपना बोरिया बिस्तरा बांध के बैठी है, तुम्हारा रस्ता देख
रही है। पर दादी, आप मरना क्यों चाहते हो? हम बच्चे उनसे पूछते। वो कहतीं-मेरी दादी कहा करती थीं.......
- माय गॉड, उनकी एक और दादी
थीं?
- एक और मतलब? दादी की दादी नहीं
हो सकतीं?.....
जा, मैं नहीं सुनाती
कहानी।
- अच्छा, सॉरी सॉरी, क्या कहा दादी ने?
- उनकी दादी कहा करती
थीं....’’ टुरदा फिरदा लोया, बै गया ते गोया, लम्मा पया ते मोया।
’’
- इसका क्या मतलब
होता है दादी?
- हां, फिर वो मतलब
समझातीं-चलता फिरता आदमी लोहे जैसा मजबूत होता है, जो वो बैठ गया तो
गोबर गणेश और लेट गया तो मरे बराबर। कहतीं-मैं तो अब लेट गयी , अब उठने की उम्मीद
नहीं, तो मरे बराबर होने
से मरना बेहतर। है न? पर उनको और कोई तकलीफ तो थी नहीं। बस, टांगे सूख गयी तो
खड़े होने से रह गयीं। बाकी हाजमा उनका दुरुस्त, बदन पे झुर्रियां
नहीं, याददाश्त ऐसी कि
पचास साल पहले किसके घर क्या खाया, वो उनको याद और खाना बिल्कुल टाइम से खाना-बिना घड़ी देखे बोलती थीं-चाय
का वक्त हो गया,
अब खाना लगा दो।
आंगन में धूप की ढलती परछाईं से समय का अंदाजा लगा लेती थीं। उनकी नेवाड़ की मंजी
जरा ढीली होने लगती तो कहतीं-कस दो। कोई आता, झट उकड़ूं होकर
कुहनी के बल आधी उठ जातीं। उन्हें मना करते, भई, आप बैठे रहो, क्यों खटाक से उठ
जाते हो। कहतीं-लेटे-लेटे मेरी पीठ को गरमी लगती है। मेरी पीठ हवा
मांगती है।
- पीठ की कोई जबान
होती है फिर पीठ मांगती कैसे है? चिल्की हंसने लगी फिर बोली-पर दादी, आप गिलास को क्यों
भूल जाते हो बार बार?
ओफ! फिर आ गया गिलास! चिल्की गिलास की
कहानी के बगैर मुझे छोड़ने नहीं वाली थी! मैं उसे बार बार भुलावे में डालने की
कोशिश करती थीं पर वह मेरी उंगली पकड़ कर मुझे फिर गिलास तक ले आती थी।
- हां तो वे उसी
गिलास में सुबह से रात तक की हर पीने वाली चीज़ पीती थीं। पानी, चाय, दूध, लस्सी, शरबत, अटरम शटरम सब कुछ
उसी कांसे के गिलास में।
- फिर?
- फिर एक बार क्या
हुआ कि गिलास गुम गया। सुबह उठे तो गिलास मिला ही नहीं। मेरी मां ने उनको स्टील के
गिलास में चाय दे दी। वो अपना नियम से उठीं,मां ने चिलमची में
कुल्ला वुल्ला करवाया। जाप वाप करके वो चाय पीने बैठीं, हाथ में गिलास लिया, देखा तो दूसरा
गिलास, बोलीं-मैं नहीं
पीती, ये लश्कारे चमक
वाले गिलास में, मुझे तो मेरा वाला
गिलास दो।
- ही ही, जैसे चिल्की का
मेरा वाला गिलास.....दादी कोई बच्चा थीं? चिल्की को मजा आ रहा था।
- हां, बूढ़े बच्चे तो एक
ही जैसे होते हैं। अब उन्होंने जैसे जिद ठान ली-चाय पीनी है तो उसी गिलास में। चाय
पड़ी पड़ी ठंडी हो गई। पूरा घर छान मारा। कहीं गिलास का अता पता नहीं। ऐसे अलादीन
के जिन की तरह गायब हो गया।
- तो बोलना था, चिल्की ने हाथ लंबा
घुमाकर अभिनय के साथ कहा- खुल जा सिमसिम.....पर दादी, वो गिलास टूटता तो
नहीं था न।
- टूटता तो नहीं था
पर गुम तो हो जाता था न बच्चे। तो हम सब
बच्चे लग गए गिलास ढूंढने में। पर नीचे सारा घर खंगाल मारा।
कहीं भी गिलास नहीं।
उनको खाना दिया। मेरी मां ने मिन्नतें कीं
कि झाईजी, आप खाना शुरु तो
करो, पानी पीने तक गिलास
मिल जाएगा। खाना तो गिलास में नहीं खाते न! पर उनकी तो एक ही रट। मेरा गिलास, मेरा गिलास। बा जी ने उनको डांटा कि एक गिलास
के लिए सारा घर आसमान पे उठा रखा है, गिलास न हुआ कोई
कारुं का खजाना हो गया। अब तो वो लगीं रोने। पहली बार हमने उनको रोते देखा।
बोलीं-तुम लोगों के लिए वो एक पतरे का गिलास है। मेरे लिए तो
वो मेरा लाहौर है, मेरा वेड़ा (आंगन) है, मेरा पेका (मायका) है.....मैं अटकी-मेरा सबकुछ है।
- वो गिलास मिला फिर? चिल्की ने आंखें
गोल करके पूछा।
- नहीं। खाना भी वैसे
ही ढंका पड़ा रहा। उन्होंने हाथ नहीं लगाया। शाम तक गिलास मिला नहीं सो शाम की चाय
भी नहीं पी। बेहोश जैसी हो गईं। आंखें बंद होने लगीं। हम अंदर बाहर ढूंढते रहे। घर
के सारे बच्चे बड़े सब गिलास ढूंढने में लगे थे। आखिर गिलास मिला। पानी की पीतल की
कुंडी के तले में पड़ा था। किसी बच्चे के हाथ से गिर गया होगा। किसी को ख्याल ही
नहीं आया कि वहां भी हो सकता है। जैसे ही गिलास मुझे मिला, मैं चिल्लायी-झाईजी, आपका गिलास.....वो
एकदम कुहनी के बल उठ गई। फिर उनकी आंखों में ऐसी चमक आई कि पूछो मत। बोलीं-जल्दी
खाना लगाओ। बड़ी भूख लगी है। उनको खाना दिया तो उन्होंने बड़े तृप्त होकर खाया।
रात को एक रोटी खाती थीं। तीन रोटियां खाई। चटखारे ले लेकर सब्जियां खाई। हम सब
खुश। दादी का गिलास जो मिल गया था।
- बस, कहानी खतम? चिल्की ने पूछा, फिर क्या हुआ?
- सुबह हम बच्चे उठे
तो देखा-दादी एक हाथ में गिलास छाती से लगाए सो रही हैं और मुस्कुरा रही हैं। हम
सब उनके चारों ओर इकट्ठे हो गए-देखो, देखो, दादी नींद में हंस रही है। मां ने कहा-आज इतनी देर
तक कैसे सो रही हैं! सबने कहा-रात को खाना पेटभर कर खाया है न इसलिए
मजे की नींद ले रही हैं । तड़के सबसे पहले उठने वाली दादी अभी तक सो रही थीं। बा
जी ने आकर उन्हें हिलाया तो कांसे का गिलास नीचे गिर गया। दादी मर गयी थीं ।
-हॉं....चिल्की का मुंह
खुला का खुला रह गया - मर गयीं?
- हां।
- सो सैड, है न दादी! उनको
गिलास नहीं देते तो नहीं मरतीं न? चिल्की की आंखें भीगी थीं।
-शायद....मैंने अपनी
दादी की वह मुस्कान याद करते हुए कहा। पर मैं कहना चाहती थी-मरतीं तो वो तब भी पर
तब उनके चेहरे पर मुस्कुराहट नहीं होती।
- वो गिलास अब कहां
है, दादी?
- दादी ने कहा था, मेरी बिट्टो को दे
देना। सो मेरी मां ने दे दिया था वो गिलास बुआ को।
- तो उनके पास है?
- होना तो चाहिए।
- मुझे दिखाओगे दादी?
- अच्छा, मिल गया तो तुझे
दिखाउंगी।
0 0
मिलना कहां था वो गिलास।
चिल्की को पूरी कहानी सुनाते हुए एक बात
मैने छिपा ली थी कि दरअसल वह कांसे का एन्टीक गिलास दादा जी का नहीं था, दादी की मां का था।
उसमें उन्हें अपनी मां, अपना मायका, अपना लाहौर दिखता था। चिल्की को मैंने बहला दिया था पर मुझे पता था कि
बुआ अपनी बेटियों के पास अमेरिका गयीं तो पुराने बर्तन-भांडे यहीं छोड़ गयीं।
पुराने पीतल के बर्तनों के साथ वह कांसे का गिलास भी कोई कबाड़ी आकर ले गया होगा, क्या पता ।
चिल्की ने ठीक कहा था-कांसे का गिलास
टूटता नहीं था पर......पर वो गिलास खो गया था, इसमें शक नहीं।
-0-0-0-0-
जन्म - अविभाजित
लाहौर ( अब पश्चिमी
पाकिस्तान ) में 4 अक्टूबर 1946 को
जन्म हुआ ।
1947 में लाहौर से कलकत्ता
आना हुआ और
फिर स्कूल से
लेकर एम.ए.
तक की शिक्षा
कलकत्ता में ही
हुई ।शिक्षा - 1962 में श्री शिक्षायतन स्कूल से प्रथम श्रेणी में हायर सेकेण्डरी पास की । 1965 में श्री शिक्षायतन कॉलेज से बी.ए.ऑनर्स और 1967 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी साहित्य ) किया। दोनों बार गोल्ड मेडलिस्ट। पहली लिखित कहानी ‘एक सेंटीमेंटल डायरी की मौत‘ सारिका मार्च 1966 में प्रकाशित। पहली प्रकाशित कहानी ‘मरी हुई चीज़’ ज्ञानोदय सितम्बर 1965 में ।
1967 में छात्र जीवन में ही प्रथम कहानी संग्रह ‘ बगैर तराशे हुए ’ का प्रकाशन हुआ।
कार्यक्षेत्र -
1965 -1967 तक कलकत्ता विश्वविद्यालय की पत्रिका ‘‘प्रक्रिया’’ का संपादन .
1969 से 1971 तक कलकत्ता के दो डिग्री कॉलेजों -- श्री शिक्षायतन और आशुतोश कॉलेज के प्रातःकालीन महिला विभाग जोगमाया देवी कॉलेज में अध्यापन .
1977 - 1978 के दौरान कमलेश्वर के संपादन में कथायात्रा में संपादन सहयोग.
1993 - 1999 तक महिला संगठन ‘‘हेल्प’’ से संबद्ध.
कहानी संग्रह -
*बगैर तराशे हुए (1967)
*यु़द्धविराम (1977) - छह लंबी कहानियां
*महानगर की मैथिली ( 1987 )
*काला शुक्रवार ( 2004 )
*कांसे का गिलास ( 2004 ) - पांच लंबी कहानियां
*मेरी तेरह कहानियां ( 2005 )
*रहोगी तुम वही ( 2007 )
*21 श्रेष्ठ कहानियां ( 2009 )
*एक औरत: तीन बटा चार ( 2011 )
उपन्यास
यहीं कहीं था घर (2010)
स्त्री विमर्श
* आम औरत: ज़िन्दा सवाल ‘ (2008)
* एक औरत की नोटबुक (2010)
* औरत की दुनिया: जंग जारी है .... आत्मसंघर्ष कथाएं ( शीघ्र प्रकाश्य )
* औरत की दुनिया: हमारी विरासत: पिछली पीढ़ी की औरतें ..........
कविता संकलन -
* रचेंगे हम साझा इतिहास ( 2012 )
एकांकी
ऑड मैन आउट उर्फ बिरादरी बाहर (2011)
संपादन -
* औरत की कहानी (2008)
* भारतीय महिला कलाकारों के आत्मकथ्यों के दो संकलन-‘दहलीज़ को लांघते हुए‘ और ’पंखों की उड़ान‘.
* मन्नू भंडारी: सृजन के शिखर ( 2010 )
* मन्नू भंडारी का रचनात्मक अवदान ( 2012 )
अनुवाद -
* कहानियां लगभग सभी भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी, फ्रेंच, पोलिश, चेक, जापानी, डच, जर्मन, इतालवी तथा ताजिकी भाषाओं में अनूदित और इन भाषाओं के संकलनों में प्रकाशित ।
* रहोगी तुम वही ( 2008 - उर्दू भाषा में )
* उंबरठ्याच्या अल्याड पल्याड ( 2012 -स्त्री विमर्श पर आलेखों का संकलन मराठी भाषा में )
टेलीफिल्म -
‘युद्धविराम’, ‘दहलीज़ पर संवाद’, ‘इतिहास दोहराता है’ तथा ‘जानकीनामा’ पर दूरदर्शन द्वारा लघु फिल्में निर्मित. दूरदर्शन के ‘समांतर’ कार्यक्रम के लिए कुछ लघु फिल्मों का निर्माण. फिल्म पटकथाओं (पटकथा-बवंडर), टी. वी. धारावाहिक और कई रेडियो नाटकों का लेखन।
साक्षात्कार -
उर्दू की प्रख्यात लेखिका इस्मत चुग़ताई, बंाग्ला की सम्मानित लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी (नलिनी सिंह के कार्यक्रम ‘सच की परछाइयां ’ के लिए) हिन्दी की प्रतिष्ठित लेखिका मन्नू भंडारी, लेखक भीष्म साहनी, राजेंद्र यादव, नाटककार लक्ष्मीनारायण लाल आदि रचनाकारों का कोलकाता दूरदर्शन के लिए साक्षात्कार।
स्तंभ लेखन -
* सन् 1977-78 में पाक्षिक ‘सारिका’ में ‘आम आदमी: जिन्दा सवाल’ का नियमित लेखन
* सन् 1996-97 में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर एक वर्ष दैनिक अखबार ’जनसत्ता‘ में साप्ताहिक कॉलम ’वामा ‘ महिलाओं के बीच काफी लोकप्रिय रहा।
* मार्च सन् 2004 से मार्च 2009 तक मासिक पत्रिका ‘कथादेश’ में ‘औरत की दुनिया’ स्तंभ बहुचर्चित।
सम्मान -
उत्तार प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा 1978 में विशेष पुरस्कार से सम्मानित।
सन् 2008 का साहित्य क्षेत्र का भारत निर्माण सम्मान , प्रियदर्शिनी सम्मान तथा अन्य ।
सम्पर्क: 1702 ,सॉलिटेअर, हीरानंदानी गार्डेन्स, पवई, मुंबई - 400 076.
फोन नं. 022 4005 7872 / 097574 94505
E- mail : sudhaarora@gmail.com / sudhaaroraa@gmail.com
1 टिप्पणी:
सुधा अरोड़ा जी की लेखनी का मैं मुरीद हूँ . वे जितनी अच्छी
गद्य लेखिका हैं उतनी ही अच्छी पद्य लेखिका भी . वातायन के जून
अंक में स्त्री विषय पर उनका लेख ` तेज़ाबी हमला ------- ` उनकी
कविता ` एक मोर्चा ` और कहानी ` कांस का गिलास ` देख - पढ़ कर
हार्दिक प्रसन्नता हुई है . सौभाग्य से उनकी इस ज़ोरदार कहानी को
मैंने न जाने कितनी बार पढ़ा है ! लेख और कविता में स्त्री विषय पर
उनके विचार सराहनीय ही नहीं , उल्लेखनीय भी हैं .
विचारशील वातायन किसी प्रबुद्ध पत्रिका से कम नहीं है .
इसकी बेबाक़ सोच का मैं तरफदार ही नहीं , क़ायल भी हूँ .
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