गुरुवार, 16 जुलाई 2020

वातायन - १६ जुलाई,२०२०

संस्मरण

बालकृष्ण बलदुवा

कानपुर की सिरकी मोहाल की पतली गली. संभवतः पन्द्रह फुट चौडी. जब हम घंटाघर की ओर से बिरहनारोड की ओर जाते हैं  नयागंज चौक पड़ता है. उन दिनों चौक के सीधे टक्कर पर एक हलवाई की दुकान हुआ करती थी, शायद आज भी हो. चौक से सीधे जाने पर बिरहनारोड की चौड़ी सड़क, सड़क के दोनों ओर भव्य भवनों की कतार है, चौक से बायीं ओर की गली सिरकी मोहाल को जाती है. उस गली में मुड़ते ही बाईं ओर एक और हलवाई की दुकान थी. उक्त दोनों ही दुकानों में दिनभर बड़े कड़ाहों में दूध गर्म होता रहता. वे कुल्हड़ों में गर्म मलाई वाला दूध देते. ऎसी ही दुकानें घण्टाघर से नयागंज के शुरूआत में भी हैं. उनकी लस्सी भी स्वादिष्ट होती है.  पहले भी सिरकी मोहाल की उस गली से साइकिल से निकला था, लेकिन उस दिन मैं पैदल था. यह १९८० की बात है, कब की आज याद नहीं.  उन दिनों मैं बाबू प्रतापनारायण श्रीवास्तव के जीवन परिचय के लिए उनके समय के हर बुजुर्ग साहित्यकार से मिलने पहुंच रहा था, इस आशा में कि संभव है उनसे उनका कुछ संबन्ध रहा हो और वह उनके जीवन पर कुछ प्रकाश डाल सकें. इसी आशा में मैं उस दिन बुजुर्ग साहित्यकार बालकृष्ण बलदुवा के घर जा रहा था.

बलदुवा जी का घर चौक से कुछ दूर पर दायीं ओर था.  लगभग दो सौ वर्गगज में बना हुआ कई मंजिल का मकान जो अपनी भव्यता खो चुका था. जब मैं मकान में प्रविष्ट हुआ, चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था. समझ नहीं आ रहा था कि मकान में कोई था भी या नहीं. देर तक मैं मकान के प्रांगण में खड़ा रहा, तभी कोई दिखाई पड़ा और मैंने उससे बलदुवा जी के विषय में पूछा. ज्ञात हुआ कि वह पहली मंजिल में रहते हैं. पहली मंजिल के नीम अंधेरे कमरे में बूढ़ी काया, सांवले, दुबले-पतले, मध्यम कद--- पचहत्तर पार के सज्जन मिले. वही बलदुवा जी थे. सामने सिंगल सोफे पर बैठने का इशारा किया उन्होंने. सिरकी मोहाल की उस गली के दोनों ओर ऊंची अट्टालिकाओं वाले मकान हैं, इसलिए नीचे सूरज का प्रकाश वहां कभी नहीं पहुंचता. संभव है  मकानों की छतों पर उसके दर्शन होते हों. बलदुआ जी का कमरा सड़क की ओर था, जिसे मैं गली कह रहा हूं. कमरे के साथ पतली-सी बालकनी और नीचे घर का छोटा-सा प्रांगण. वहां से छनकर जो प्रकाश हम तक पहुंच रहा था वह पर्याप्त न था. लेकिन इतना था कि हम एक-दूसरे की शक्लें देख पा रहे थे. 

बलदुवा जी ने बताया कि उनका परिचय श्रीवास्तव जी से नहीं था. मैं लगभग एक घण्टा उनके पास बैठा और अधिकांश समय वह अपने साहित्यिक संस्मरण सुनाते रहे थे. वह लघुकथाएं लिखते थे और उन्हें पॉकेट बुक्स साइज में स्वयं ही प्रकाशित करवाते थे. अफसोस यह है कि कानपुर ने उन्हें भुला दिया है और लघुकथाकारों को उनकी जानकारी नहीं. जानकारी होते हुए भी रावी को लघुकथा के इतिहास में याद नहीं किया जाता, जबकि सातवें दशक में उनकी खासी चर्चा थी. ऎसी स्थिति में बलदुवा जी को कौन याद करता जो अपनी दुनिया में सीमित रहते थे. दूसरी बार मैं बलदुवा जी से १९८३ में कभी मिला था.  दोनों ही अवसरों पर उन्होंने अपनी बेटी डॉ. ममता बलदुवा का उल्लेख गर्व से किया था, जो उन दिनों जबलपुर में किसी डिग्री कॉलेज में अंग्रेजी लेक्चरर थीं. ममता बलदुवा  कानपुर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में गोल्ड मेडलिस्ट थीं और शायद जबलपुर में पढ़ाते हुए पी-एच.डी. की थी.  लेकिन १९८१ में एक हादसा में उनकी मृत्यु हो गयी थी. बलदुवा जी द्वारा २८.१.८२ को मुझे लिखे गए पत्र में इस ओर अस्पष्ट संकेत मिलता है. उन दिनों अक्सर स्टोव से आग लगने से महिलाओं की मृत्यु के समाचार अखबारों में छपते थे. डॉ. ममता बलदुवा की मृत्यु उसी प्रकार हुई बतायी गयी थी. डॉ. ममता बलदुवा की शादी भवानी शंकर से हुई थी. समाचार पत्रों ने लगातार उनकी मृत्यु के समाचार प्रकाशित किए थे. कुछ ने खुलकर उनकी मृत्यु का जिम्मेदार उनके पति को बताया था और यह लिखा था कि किसी अन्य महिला से उनका प्रेम प्रसंग ममता बलदुवा की मृत्यु का कारण बना था.  मैं यहां बलदुवा जी का वह पत्र उद्धृत कर रहा हूं. 

५७/१५०, सिरकी मुहाल, कानपुर-१

फोन ५२६३८

दिनांक २८.१.८२ – प्रातः ७ बजे

प्रियवर चन्देल जी,

आपकी सान्त्वना यथासमय मिल गई थी और मेरे घाव पर मरहम करने में उसने भी अपना योग प्रदान किया. आशा तो बंध चली है कि अब घाव नासूर बनने से बच जाएगा---वैसे नासूर भी अपने कहे को भुगतने ही पड़ते हैं अपने-अपने जीवन में.

ममता की असामयिक मृत्यु में कोई विसंगति नहीं है. होनी थी. किसी बहाने हो गई. अन्यथा, सिनेमा देखकर लौटकर बच्चों को दूध पिलाकर सुलाने के बाद स्वयम पति-पत्नी के खाना खाने को बैठने पर ठंडा साग गरमाने आकर स्टोव पर, पल्लू में आग क्यों लग जाती और वह भी ऎसी कि मौत का कारण बने. 

होनी टलती नहीं और जो हो गया, वह अनहोना नहीं. इसकी जानकारी रखते हुए भी जीवन में कुछ क्षण ऎसे आते ही हैं प्रायः अधिकांश के, जब भावुकता की बाढ़ में ज्ञान होश खो बैठता है और परिणामस्वरूम मन बेहाल और अस्तव्यस्त हो उठता है. समय की औषधि देर-सबेर ज्ञान को फिर संज्ञा देती है अवश्य, किन्तु कभी-कभी मन का घाव बिना भरा ही रह जाता है, जो टीसता रहता है. कुछ ऎसा ही हो रहा है इस समय मेरे साथ मेरे में. इसी कारण  आपको उत्तर देने में देर हुई. बाह्य संतुलन कायम रखने में सफलता-प्राप्ति की कीमत एकांत में और मन में चुकानी पड़ रही है, इसका कोई गिला नहीं है मुझे, पर इतना तो अभी कुछ समय के लिए हो ही गया समझिए कि समय से शायद ही कोई काम हो पाता है. 

आप सदृश कई बंधुओं की तरुणाई से जो प्रकाश मिल रहा है, उसकी ऊर्जा निश्चय ही मन को गर्माकर स्वस्थ बना देगी, ऎसा विश्वास है मेरा.

कानपुर आने पर दर्शन मिलेंगे ही आपके. तब और भी मन की बातें करेंगे –आप भी और मैं भी.

सस्नेह

बा.कृ.बलदुवा

जब मैं दूसरी बार बलदुवा जी से मिला तब तक वह काफी सामान्य हो चुके थे, लेकिन शरीर से पहले की अपेक्षा कहीं अधिक कमजोर—एक प्रकार से जर्जर. पिछली मुलाकात में बेटी की गर्वित प्रशंसा के समय जो प्रसन्नता उनके चेहरे से टपक रही थी दूसरी मुलाकात के समय वहां उदासी थी, क्योंकि बेटी की यादें ही वहां शेष थीं और थी सामने दीवार पर फ्रेम में लटकता  डॉ. ममता बलदुवा का चित्र जिसमें वह अपने कन्वोकेशन के समय अपनी डिग्री थामें हुई थीं. 

बलदुवा जी का दूसरा पत्र मुझे २७ मार्च,१९८४ में मिला था. उसके बाद न मेरी मुलाकात हुई और न ही पत्राचार रहा. शायद कुछ समय पश्चात ही उनकी मृत्यु हो गयी थी.

प्रियवर रूपसिंह जी,

कृपा कार्ड यथा समय प्राप्त हो गया था. उसके दो-तीन दिन पहले राष्ट्रबंधु जी ने आपका संदेश मुझे पहुंचाया था. आपको उत्तर देने में देर हो गई. स्वास्थ्य और मन की अस्तव्यस्तता ही के कारण.

“सारिका का वह अंक तो मुझे देखने को मिला नहीं. वैसे मेरी लघु कथाएं अधिकांश में ’हिन्दू पंच’, मतवाला’ (कलकत्ता), महारथी (दिल्ली) आदि में ही प्रकाशित हुई हैं. इनकी फाइलें सुरक्षा के लिए रामगंज में एक पुस्तकायल में रखवा दी थीं, किन्तु एक ट्रस्टी (जो अब दिवंगत हैं) की कृपा से पुस्तकालय रातोंरात गायब हो गया और उनके भाई साहब का मकान वहां तैयार हुआ. अतएव पुरानी लघुकथाएं तो इन पत्रों की फाइलों में ही मिल सकेंगी.  इनमें से एक ’विश्वास पर’ (शायद) ’कथा-यात्रा’ (सम्पादक – कमलेश्वर) के किसी अंक में ’परम्परा’ स्तंभ में उद्धृत भी हुई है, जिसमें हिन्दू पंच का उल्लेख है. ये सब २५/३० ई. के आसपास प्रकाशित हुई थीं. अपनी रचनाओं की नोट बुकें काशी नागरी प्रचारिणी सभा को संरक्षणार्थ दे चुका हूं. ’मेरी यादें’ नाम से एक संस्मरण संग्रह शायद अप्रैल तक प्रकाशित हो जाएगा उसमें एक निबंध है ’हिन्दी जगत का तीसरा-चौथा दशक और मेरा साहित्यकार’. निबन्ध में याददाश्त के बल पर इन लघुकथाओं का भी जिक्र है. कुछ के नाम भी दिए हैं. 

बाद में (पांचवे दशक  के  बाद) प्रकाशित लघुकथाऒं में से कुछ मेरे रजिस्टर में चिपकी हुई हैं, अन्य रचनाओं के साथ---दीमकों की कृपा के कारण ऎसा करना पड़ा. दो चार शायद अप्रकाशित भी पड़ी हैं.
इस बार कानपुर आएं तो दर्शन देने का कष्ट करें. रजिस्टर में देख लीजिएगा.

प्रसन्नता की बात है कि प्रतापनारायण जी पर आपका शोध प्रबन्ध आपने वि.वि. में प्रस्तुत कर दिया है. आशा है शीघ्र ही आपके नामके आगे “डाक्टर” (दवाओं के नहीं) लगा देखने को मिलेगा.

शेष सब कुशल है. तन-मन दोनों अस्त-व्यस्त से रहते हैं इस समय, पर बीमारी-सहेलियां साधारण स्वागत सत्कार से ही संतुष्ट हो जाती हैं –शायद मंहगाई देखते हुए. 

यदि इतनी कृपा उसकी हुई कि मैं एक बार आगरा, दिल्ली, जबलपुर,लखनऊ,इलाहाबाद, वाराणसी आदि पुराने/नये साथियों के पास जा पाया (जाने के पहले) तो समझूंगा कि एक अच्छा (मन का) काम हो सका—देखिए-- संभव होता है या नहीं---कारण अकेले यात्रा कर पाना संभव नहीं है मेरे लिए और साथी समय पर मिल ही जाएगें साथ चलने वाले यह निश्चित नहीं कह सकता.

शेष सब कुशल है. पत्रोत्तर के साथ-साथ कभी-कभी अपनी गतिविधियों की सूचना देते रहें, तो मुझे प्रसन्नता देंगे. 

सस्नेह—

बा.कृ.बलदुवा    
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