जेल में कैद ज़िन्दगी
कमलेश जैन
न तो घर पर कोई है–वकील को रखने वाला और न ही किसी के पास
पैसा है‚ वकील को देने के लिए। इन्हीं वजह से‚ थोड़ी–थोड़ी गलती पर लोग जेलों में
जिंदगी बिता देते हैं। पीछे पूरा परिवार तबाही और शोषण का शिकार। इसी प्रकार‚
वकालत की शुरुआत ही में मैं जब अपने सीनियर नागेश्वर प्रसाद जी के साथ पटना लोअर
कोर्ट जाती तो देखती कोर्ट रूम के बगल वाले रूम में कैदी बैरक में बैठे होते।
मूत्रालय न होने की वजह से जो उसी बैरक में मूत्र त्याग करते। बदबू से परिसर
गच्चीत रहता। कोर्ट चलते रहते–पीठाधीश‚ वकील‚ मुवक्किल सब क्या करते ॽ
सन् 1945 की एक बात
है। दरभंगा के गांव का 16 वर्षीय एक लड़का बोका ठाकुर हत्या
के एक मामले में पकड़ा गया। उसके पास एक गाय थी जिसकी हत्या गला रेत कर रात में कर
दी गई थी पड़ोसी द्वारा। सुबह बोका जब सोकर उठ कर उसे देखने गया तो गाय का सिर धड़
से अलग था। हंसिया भी पास ही पड़ा था। पता लगा कि यह काम उसके पड़ोसी का था।
गाय को मातृवत प्यार करने वाला बोका शांत न रह सका और उसने
पड़ोसी का गला उसी हंसिए से काट डाला। बोका को पकड़ लिया गया। उसकी पैरवी करने
वाला कोई नहीं था। लिहाजा‚ वह इस जेल से उस जेल जाता रहा पर उसकी ट्रायल बिना
पैरवी के नहीं चलनी थी‚ सो नहीं चली। इतने में पता चला जाति से बढ़ई बोका अपने काम
में बड़ा माहिर था। उसे पागल घोषित कर कांके मेंटल हॉस्पिटल ले जाया गया जहां वह 07.09.1945 से रहने लगा। वहां वह ताबूत बनाने
लगा। उसके बनाए ताबूत अत्यंत महंगे दामों में बिकने लगे। इस तरह वह 37 वर्षों तक कांके मानसिक अस्पताल में रहा। उसे सोने की जगह नहीं दी जाती थी,
वह खड़े–खड़े सोता था और न ही पहनने को चप्पल दी जाती थी । वह
इशारों से अपनी बात कहता। मुझे उसने कहा–उसकी पत्नी भी थी। मैंने उसकी खबर अखबार
में पढ़ी। विश्व के उस सबसे पुराने अंडर ट्रायल कैदी को मैंने पटना हाई कोर्ट से
छुड़ाया। अच्छे चाल–चलन पर 14 वर्षों में उम्रकैद खत्म हो
जाती है लेकिन ये व्यक्ति उम्र कैद का ढाई गुणा ये भी ज्यादा यानी 37 साल जेल में रहा।
उसी समय खबरों में रुदल साह‚ उम्र 70 वर्ष‚ मुजफ्फरपुर के रहने वाले की खबर छपी कि वह 1947 से जेल में था। उसकी जेल से रिहाई 16 वर्षों बाद भी नहीं हुई थी। उस पर पत्नी की हत्या का मुकदमा था पर 21 वर्ष ट्रायल चलने के बाद उसकी रिहाई हो गई। उसके भी 16 वर्ष बाद 1982 में उसकी रिहाई मैंने पटना हाई कोर्ट से करवाई। दोनों मुकदमे विश्व के 26 देशों के अखबारों में पहले पेज पर बॉक्स में छपे। तो क्या हुआ ॽ ‘न्यायपालिका कसौटी पर’ मेरी पुस्तक छपी–पार्लियामेंट एनेक्सी में लाल कृष्ण आडवाणी और नीतीश कुमार द्वारा रिलीज की गई 2001 में। तो क्या हुआ ॽ आज भी जेलों के हालात जस के तस हैं।
जेलों में दिन भर का भोजन‚ नाश्ता 20 रुपये के भीतर बनता है। एक बैरक में रहना
पड़ता है। शौचालय अंदर से भीतर तक मल से भरे रहते हैं। जेलों की बाउंड्री वाल के
ईद–गिर्द हल्का होना पड़ता है। क्यू में लगे रहना पड़ता है। सबको सोने की जगह नहीं
मिलती‚ बिस्तर भी नहीं मिलता। तीन कंबलों में 2-3 कैदियों को
जाड़े की रात बितानी होती है। गंदा‚ अपचित खाना‚ मार खाना आम बात है और बिताने
पड़ते हैं वर्षों‚ दशकों का जीवन इस आशा में कि कब बाहर का सूरज देखेंगे‚ खुली हवा
में रहेंगे‚ परिवार शायद देखने को ही न मिले। महिला कैदियों को आवश्यक दिनों में
कपड़े नहीं मिलते‚ नहाने को नहीं मिलता‚ दवा नहीं मिलती। यह सब गरीबों‚
आदिवासियों‚ पिछड़ी जातियों का नसीब है। आज आदिवासी‚ अति संवेदनशील‚ भावुक महिला
राष्ट्रपति भी न्याय के दरवाजे पर‚ सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को यही कुछ कह
रही हैं–और गेंद जजेज के पाले में डाल कह रही है–अब सब आपके हाथों में है। पुलिस‚
जेल व्यवस्था‚ कानून‚ अदालत‚ वकील‚ न्यायाधीश चाहें तो कुछ भी कर सकते हैं–इस पार
या उस पार।
(कमलेश जैन सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील
हैं। ये उनके निजी विचार हैं)
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