हम और हमारा समय
इस बार वातायन लघुकथा
केन्द्रित है. मैंने १९८५ में ’प्रकारान्तर’ नाम से एक लघुकथा संकलन सम्पादित किया
था, जो अनेक परिवर्तन-परिवर्धन के पश्चात १९९१ में प्रकाशित हुआ था. उस संकलन से कैन्यालाल
मिश्र प्रभाकर, रावी, रमेश बतरा, बलराम, फ़जल इमाम मलिक और श्यामसुन्दर चौधरी की लघुकथाएं
यहां प्रस्तुत कर रहा हूं. साथ ही प्रस्तुत हैं सुभाष नीरव और बलराम अग्रवाल की ताजी
लघुकथाएं और मेरा आलेख.
स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी लघुकथा
रूपसिंह चन्देल
लघुकथा गद्य की वह कथात्मक विधा
है, जो आकार में सीमित होते हुए भी समझ और अनुभव की संभवतः सर्वाधिक संश्लिष्ट अभिव्यक्ति
कर सकने में सक्षम है. स्व. डॉ. रत्नलाल शर्मा के अनुसार, “लघुकथा में पात्रों की स्वभावगत
संश्लिष्टता, बहुरूपता एवं उसके बहुविध किर्याकलाप नहीं होते, बल्कि उसमें अशांश होता
है. इसमें कथा का विस्तार नहीं होता, विवरण नहीं होते, अपितु कथांश की विवृति होती
है.” (लघुकथा की पहचान और समय-संदर्भ)
हिन्दी लघुकथा आज भी विवादों की
परिधि में है और ये विवाद उसकी विधात्मक स्थापना, शिल्प, यात्रा आदि के विषय में हैं.
विवाद किसी भी साहित्यिक विधा में विकास को गति देते हैं, लेकिन यह इस बात पर निर्भर
करता है कि कितने सक्षम, प्रतिभाशाली और समर्पित रचनाकार उस विधा में अपनी रचनात्मक
क्षमता का उपयोग कर रहे हैं. जब हम स्वातंन्त्र्योत्तर हिन्दी लघुकथा पर दृष्टिपात
करते हैं तब लेखकों की एक लंबी श्रृखंला पाते हैं, जिनके समर्पित योगदान ने न केवल
हिन्दी लघुकथा को महत्ता प्रदान की, प्रत्युत स्थापना भी दी है. अपने स्वरूप और प्रकृति
के कारण हिन्दी लघुकथा ने विगत चार दशकों में जो यात्रा तय की, वह इसलिए अत्यन्त महत्वपूर्ण
है कि इसके स्थायित्व, स्थापना और विकास के लिए चिन्तित निराशावादी आलोचकों और साहित्यकारों
को इसके विषय में पुनर्विचार करने के लिए विवश होना पड़ा है.
यद्यपि हिन्दी लघुकथा को आधुनिक
विधा के रूप में अभिहित किया जाता है, तथापि इसके सूत्र उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध
से जुड़ते हैं. जिसप्रकार हिन्दी की अधिकांश विधाओं के उद्भव का श्रेय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
को जाता है उसी प्रकार लघुकथा के प्रादुर्भाव का श्रेय भी उन्हें ही जाता है. यह एक
अलग बात है कि उनकी जिन रचनाओं को हम लघुकथा स्वीकार कर रहे हैं उन्हें लिखते समय
’लघुकथा’ जैसी कोई कल्पना उनके जेहन में नहीं रही होगी. कुछ लोग माखनलाल चतुर्वेदी की लघुकथा ’बिल्ली और बुखार’ को हिन्दी की प्रथम लघुकथा स्वीकार करते
हैं, जो १९०० के आसपास लिखी गयी थी और इस तथ्य से अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि माखन
लाल चतुर्वेदी के लेखन का प्रारंभ लघुकथा जैसी छोटी कथा रचनाओं से ही हुआ था, लेकिन
वे हिन्दी के प्रथम लघुकथाकार नहीं थे. चतुर्वेदी जी के जन्म से पूर्व १८७६ में भारतेन्दु
हरिश्चन्द्र की पुस्तक ’परिहासिनी’ का प्रकाशन हुआ
था. अड़तीस पृष्ठीय इस पुस्तक में कविता, व्यंग्य तथा कुछ लघुकथाएं हमें प्राप्त होती
हैं, जिनमें ’अंगहीन’, ’अद्भुत संवाद’ और ’होनहार बिरवान के
होत चीकने पात’ रचनाएं ऎसी हैं, जिनमें कथा की लक्ष्य केन्द्रीयता, भाषा की कसावट और आकारीय लघुता के वे
सभी रूप विद्यमान हैं; जो किसी भी लघुकथा की विशिष्टता होते हैं. भारतेन्दु की अन्य
रचनाएं ’मेहमान’, ’ज्ञान चरचा’ और ’दुआ मांगना’ भी
महत्वपूर्ण हैं.
भारतेन्दु के पश्चात पं. माखनलाल
चतुर्वेदी का आविर्भाव हिन्दी लघुकथा के लिए उल्लेखनीय कहा जाएगा. उनकी ’बिल्ली और बुखार’
और ’अधिकार पाकर’ लघुकथाएं इस विधा के लिए दिशा निर्देशक सिद्ध हुई.
उस युग के अनेक बड़े रचनाकारों ने यह नहीं सोचा होगा कि कालान्तर में उनकी वे रचनाएं
लघुकथा के रूप में पहचानी जायेंगी. ’राष्ट्र का सेवक’, ’कश्मीरी
सेव’ (प्रेमचन्द), ’पत्थर की पुकार’ (जयशंकर प्रसाद), ’शहीद बकरी’, ’घमण्ड कब तक’,
’एक समान’ (अयोध्या प्रसाद गोयलीय), ’घासवाली’ (रामवृक्ष बेनीपुरी), ’विमाता’ (छब्बेलाल
गोस्वामी), ’बन्धनों के रक्षक’ (आनन्द मोहन अवस्थी), ’झलमला’ (पद्मलाल पुन्नालाल बख्शी)
आदि रचनाओं और रचनाकारों का इस विधा के विकास में उल्लेखनीय योगदान रहा. इसके अतिरिक्त
अन्य जिन रचनाकारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है उनमें आचार्य
जानकी वल्लभ शास्त्री, आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र, कामता प्रसाद सिंह ’काम’ और ’माधव
राव सप्रे’ प्रमुख हैं. चौथी शताब्दी में कुछ रचनाकारों ने लघुकथा को ’छोटी
कहानी’ के रूप में अभिहित किया. लेकिन एक विधा के रूप में स्वीकार कर इसमें गंभीरता
से काम करने वालों में ’रावी’, विष्णु प्रभाकर और कन्हैयालाल
मिश्र प्रभाकर प्रमुखतः और बालकृष्ण बलदुआ जैसे कुछ लेखकों का अंशतः योगदान
उल्लेखनीय कहा जाएगा. विष्णु प्रभाकर और कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर जहां अन्य विधाओं
के साथ लघुकथाएं भी लिख रहे थे, वहीं ’रावी’ पूर्णतया लघुकथा के लिए समर्पित थे.
स्वतन्त्रता के पश्चात साहित्य में
तीव्रता से परिवर्तन हुए. हिन्दी कहानी में आन्दोलनों का युग प्रारंभ हुआ और कहानी
की परम्परागतता के विरुद्ध विद्रोह प्रखर हुआ. कहानी के क्षेत्र मे आविर्भूत युवाकथाकारों
ने कथा की नयी जमीन तैयार करनी प्रारंभ की. परिणामतः ’नयी कहानी’ का जन्म हुआ. उसके
पश्चात दो दशकों का दौर ’नयी कहानी’, ’आंचलिक कहानी’, ’सचेतन कहानी’, ’अकहानी’, आदि
के खाते में दर्ज हुए और लघुकथा की दिशा में
छुट-पुट लेखन तो होता रहा, लेकिन उसकी ओर किसी की दृष्टि नहीं गयी.
वास्तव में लघुकथा को वास्तविक पहचान
मिली आठवें दशक में. यह वह काल था जब ’आम आदमी’ को केन्द्रस्थ कर कहानी के क्षेत्र
में एक नया रचनात्मक आन्दोलन प्रारम्भ हुआ, जो
’समान्तर कहानी’ के रूप में पहचाना गया. लेकिन इसके
समानान्तर एक और आन्दोलन प्रारंभ हुआ, और वह था ’हिन्दी लघुकथा आन्दोलन’. वास्तव
में आन्दोलन जैसा वहां कुछ नहीं था---था कुछ युवा लेखकों का गंभीर चिन्तन और समर्पण,
जिसने दशकों से शिथिल और मन्थर गति से अग्रसर लघुकथा को अकस्मात शीर्ष पर पहुंचाने
का प्रयत्न किया था. उन्हीं दिनों कथाकार रमेश बतरा के सम्पादन में ’तारिका’ (अंबाला)
के लघुकथा विशेषांक ने तत्कालीन युवा पीढ़ी को आकर्षित किया और इस दिशा में सक्रिय होने
की प्रेरणा दी. ’तारिका’ की पहल का ही परिणाम था कि उस समय की महत्वपूर्ण कथा पत्रिका
’सारिका’ में लघुकथा के प्रकाशन पर विशेष ध्यान दिया गया और हिन्दी लघुकथा अपनी निर्णायक
यात्रा पर अग्रसर हुई. भविष्य में स्थितियां लघुकथा के इतना अनुकूल होती गयीं कि ’सारिका’
ने कई लघुकथा विशेषांक प्रकाशित किए. लघु पत्रिकाओं के लघुकथा विशेषांकों की संख्या
बता पाना कठिन है. इस दौरान अनेक ऎसी लघुकथा पत्रिकाएं प्रकाश में आयीं जो पूर्णरूप
से लघुकथा पत्रिका रहीं और उन्होंने लघुकथा के विकास में ऎतिहासिक और उल्लेखनीय कार्य
किए.
साहित्य की छोटी विधा होने के कारण
जहां इसकी कुछ चुनौतियां थीं, वहीं इसके खतरे भी कम न थे. लेखकों का एक वर्ग ऎसा था
जो कहानी, उपन्यास तथा अन्य विधाओं के साथ लघुकथा में भी अपनी सक्रियता बनाए हुए था.
यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र, रमाकान्त, असगर वजाहत, बलराम,
रमेश बतरा, ज्ञानप्रकाश विवेक, रूपसिंह चन्देल, सुभाष नीरव, महेश दर्पण,
सुनील कौशिश, सुमति अय्यर, बलराम अग्रवाल, सतीश दुबे आदि ऎसे ही
रचनाकार थे. दूसरे रचनाकार केवल लघुकथा
को समृद्ध कर रहे थे . उनमें फ़जल इमाम मलिक, विक्रम सोनी,
सतीशराज पुष्करणा, जगदीश कश्यप, पृथ्वीराज अरोड़ा, भगीरथ, भवती प्रसाद द्विवेदी, कमल
चोपड़ा, चित्रेश, पवन शर्मा, कमल चोपड़ा, अशोक भाटिया आदि थे. लेकिन इन दोनों वर्गों के मध्य एक ऎसा वर्ग भी आ बैठा था जिसके
पास न तो दृष्टि थी और न ही सघन रचनात्मक क्षमता.
ऎसे लोगों की संख्या पर्याप्त थी. ये लोग सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने के
लिए किसी भी छोटी रचना को लघुकथा के रूप में व्याख्यायित कर लघुकथाकार कहलाने के मोह
का शिकार हो लघुकथा को पर्याप्त क्षति पहुंचाने लगे थे और आज भी पहुंचा रहे हैं. उनमें
से कुछ अब हाइकू भी लिखने लगे हैं. ऎसे लघुकथाकारों
पर टिप्पणी करते हुए बलराम कहते हैं, “कई बार लोक कथाओं को लघुकथा बनाकर प्रस्तुत किया
जाता है और कई बार बोध और नीति कथाओं को. और
तो और, कई बार चुटकलों और लतीफों को लघुकथा बनते मैंने देखा है. इनका अंतर स्पष्ट है,
इनकी रचना प्रक्रिया भिन्न है. किन्तु लघुकथा की रचना प्रक्रिया पर अभी ज्यादा विचार-विमर्श
नहीं हुआ है और यहां काफी धांधली नजर आ रही है.”
अतीत में तो इस धांधली ने लघुकथा को क्षति पहुंचाई ही आज भी कुछ
कुंठित और अपने को लघुकथाकार मानने वाले लोग इसे क्षति पहुंचा रहे हैं. पिछले दिनों देश-विदेश की हिन्दी पत्रिकाओं के प्रकाशित
लघुकथा विशेषांक यह सिद्ध करते हैं. हाल
ही में डॉ. बलराम अग्रवाल के अतिथि सम्पादन में प्रकाशित ’अविराम साहित्यिकी’ (सम्पादक-डॉ.
उमेश महादोषी) का लघुकथा विशेषांक ही आधुनिक लघुकथा के प्रति एक गंभीर प्रयास का प्रतिफलन
प्रतीत हुआ. लेकिन
इसमें भी ’मेरी लघुकथा यात्रा’ में कुछ रचनाकारों ने विषय से हटकर जो कहा वह लघुकथा
के प्रति उनकी गंभीरता पर ही प्रश्नचिन्ह लगाता है. कतिपय कमियों के बावजूद
एक लंबे अंतराल के बाद किसी पत्रिका का यह एक गंभीर और उल्लेखनीय प्रयास है और ऎसे
प्रयास उसके सम्पादकों की दृष्टि को स्पष्ट करते हैं.
आठवें दशक को लघुकथा का यदि पुनर्जागरण
काल और नवें को विकास काल कहा जाए तो अधिक उपयुक्त होगा. इस काल में लेखकों की बड़ी
संख्या इस दिशा में अपनी रचनात्मक सार्थकता सिद्ध कर रही थी. मधु़दीप, मधुकांत, कुमार नरेन्द्र, कमलेश भारतीय, कमल गुप्त,
अंजना अनिल, अशोक जैन, नंदल हितैषी, मनीष राय, कुलदीप जैन, कृष्णकांत दुबे, कृष्ण शंकर
भटनागर, जगवीर सिंह वर्मा, महेश दर्पण, स्वर्ण किरण, बालेन्दु शेखर तिवारी, रमेश बतरा, सतीश राठी, सतीश दुबे, सूर्यकान्त नागर, फ़जल इमाम
मलिम, काली चरण प्रेमी, श्रीराम मीना, माधव नागदा, जया नर्गिस, सुकेश साहनी, सुरेन्द्र मंथन, सुरेन्द्र
सुकुमार, शाहंशाह आलम, बलराम, बलराम अग्रवाल, सुभाष नीरव, शकुन्तला किरन, श्रीनिवास
जोशी, गंभीर सिंह पालनी, मालती महावर, दामोदर खड़से, शंकर पुणतांबेकर, प्रबोध कुमार
गोविल, शान्ति मेहरोत्रा आदि ने हिन्दी लघुकथा के उत्थान और विकास में उल्लेखनीय योगदान
दिया है.
लेकिन अंतिम दश के उत्तरार्द्ध में
हिन्दी लघुकथा में एक व्यतिक्रम दिखाई दे रहा
था. इसके अनेक कारण थे. लघुकथा प्रकाशित करने वाली कथा पत्रिकाओं का साहित्य पटल से
तिरोहित होते जाना इसका प्रमुख कारण था. जो लघुकथाकार सृजनरत थे उनमें रचनाओं के प्रकाशन
के अवसर के अभाव की छटपटाहट स्पष्ट थी. कुछ दैनिक पत्रों और हंस जैसी पत्रिकाओं की
सीमाएं हैं. लघुकथा पर केन्द्रित अनेक पत्रिकाएं बंद हो चुकी थीं. लेकिन लेखकों के
निजी संग्रह और सम्पादित संकलनों का प्रकाशन जारी था और इसप्रकार लघुकथा की यात्रा
भी जारी थी. इस दौरान अशोक वर्मा, कमल चोपड़ा, बलराम अग्रवाल, बलराम, सुकेश साहनी, महेश
दर्पण, पवन शर्मा और सुभाष नीरव और इन पंक्तियों के लेखक के संग्रह/संकलन प्रकाशित
हुए. बलराम ने हिन्दी लघुकथा कोश से लेकर विश्वलघुकथा कोश तक का सम्पादन कर इस विधा
के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया.
इस बात से अस्वीकार नहीं किया जा
सकता कि कथा की इस सूक्ष्म विधा में जीवन को पकड़ने और अभिव्यक्त करने की अद्भुत क्षमता
है और अल्पावधि में पाठकों के मन में उतरकर उसे आन्दोलित करने की विशेषता भी है. लेकिन
एक सत्य यह भी है कि साहित्य में सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली विधा उपन्यास ही है; क्योंकि
जीवन के क्षणांश की अभिव्यक्ति पाठकों को आन्दोलित भले ही करती हो उसे तुष्ट नहीं कर
पाती. वह जीवन को सम्पूर्णता में जानना चाहता है. अस्तु लघुकथा की सीमाएं निश्चित मानी
जानी चाहिए और उन सीमाओं को स्वीकार करते हुए उसे कथा साहित्य की एक उपविधा के रूप
में स्वीकार किया जाना चाहिए.
अंत में यह कहते हुए प्रसन्नता हो
रही है कि बलराम अग्रवाल, बलराम, फ़जल इमाम मलिक, सुभाष नीरव आदि कुछ समकालीन
रचनाकार आज भी उतनी ही गंभीरता से इस विधा को अपना सृजनात्मक योगदान दे रहे हैं वहीं
अनेक नए रचनाकारों की सक्रियता भी हमें आश्वस्ति प्रदान करती है.
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सूचना
वरिष्ठ कथाकार बलराम
अग्रवाल को पिछले दिनों मेरठ विश्वविद्यालय ने पी-एच.डी की उपाधि प्रदान की. उनका शोध
विषय था : ’समकालीन हिन्दी लघुकथा का मनोविश्लेशणात्मक अध्ययन”
बलराम अग्रवाल को ’वातायन’ की ओर से हार्दिक बधाई.
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कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर की दो लघुकथाएं
सेठ जी
“महात्मा गांधी आ रहे हैं, उनके
फंड के लिए कुछ आप भी दीजिए सेथ जी---!”
“बाबू जी, आपके पीछे हर समय खुफिया
लगी रहती है, कोई हमारी रिपोर्ट कर देगा, इसलिए हम इस झ़गड़े में नहीं पड़ते.”
“मैं रात-दिन चंदा मांग रहा हूं,
जब मुझे ही पुलिस न पा सकी तो रेपोर्ट आपका क्या कर लेगी?”
जरा सोचकर हाथ जोड़ते हुए बोले,
“अजी, आपकी बात और है. हम कलक्टर साहब से डरते हैं. आपसे तो उल्टा कलक्टर ही डरता है.
“
पसन्नता से मैंने कहा, “तो आप ही
डरने वालों में क्यों रहते हैं? कांग्रेस में नाम लिखा लीजिए, फिर कलक्टर आपसे भी डरने
लगेगा.”
सेठ जी ने दांत निकालकर जो मुद्रा
बनाई, उसकी ध्वनि थी—हें, हें, हें.
शत्रु या भोजन
पार्क में सड़कों के किनारे, दोनों
ओर विभिन्न वृक्षों की पंक्तियां हैं और उनके आसपास फूलों की क्यारियां. इन्हें सींचने
के लिए उभरी हुई नालियां हैं जिनमें ट्यूबवेल से पानी आता है.
रात हो गई है, पर बिजली की मामूली
रोशनी पार्क में है. एक सफेद बहुत सुन्दर बिल्ली नाली में चली आ रही है. पैरों में
सावधानी, कानों में सतर्कता—कभी-कभी इसी नाली में उसे रसगुल्ला-सा मीठा कोई चूहा मिल
जाता है.
एक्दम वह रुकी—उससे लगभग दो फुट,
नाली की बाईं पटरी पर यह काला-काला क्या है, कोई दो-अढ़ाई इंच उभरा हुआ? रोम-रोम की
शक्ति आंखों में समेटे उसने देखा.
चूहा! उसका रोम-रोम पुलक उठा. तनी
हुई देह जरा ढीली पड़ गई और उसने अपनी जीभ होंठों पर फेरी, पर न भागने का प्रयत्न, एक्दम
स्थित, यह कैसा चूहा है? वह फ्र तन गई और कुछ ही क्षणों में फिर ढीली हो चली.
“ठीक मेरी आंखों को धोखा; जैसे मैं
आपको बिना पहचाने यों ही आगे निकल जाऊंगी! जाने चूहों के कितने नाटक मैं देख चुकी—तुम्हारी
जाति की सब बदमाशियों से परिचित हूं मैं! अच्छा, आओ, अब तुम्हारा नाश्ता किया जाए.”
उसने यह सब सोचा और एक कदम बढ़ी.
बढ़ी कि एक्दम सन्न! अगर यह सांप हो?
याद आ गया उसे. उस दिन उसकी मां
ने चूहा समझकर सांप को छेड़ दिया. पल-भर में वह उसकी प्सालियों में लिपट गया और तब उतरा
जब वह मिट्टी का ढेर हो गई. मां की कराह में कितना दर्द था और उसके मुंह से नीले-नीले
कैसे झाग निकल रहे थे!
कई मिनट वह तनी खड़ी रही. समय ने
उसे साहस दिया. वह एक पग आगे बढ़ी—“वह सांप नहीं है, चूहा है. ओह, कितना धूर्त!”
एक पग उसने और बढ़ाया, पूरी तरह उसे
देखा और झपाटे के साथ उस पर पंजा चलाया. उसके पंजे में कुछ लिपट गया—गीला-तीला, ठण्डा-ठण्डा.
पल मारते वह चारों पैर समेटे, धनुष-सी
उछली और अपनी जगह गई. अपनी जगह आई कि एक्दम सीधी तनकर खड़ी हो गई. और आगे-पीछे पूंछ
उठी हुई, गरदन ज़रा झुकाए, सिर सधा और दायां पंजा आगे किए आक्रमण के लिए प्रस्तुत. शत्रु
की ओर से, पर उसे कोई चैलेंज न मिला.
उसने देखा- शत्रु की ऊंचाई पंजे
के पहले ही वार में बिखरकर आधी रह गईं है. कुछ क्षण वह इसी मुद्रा में ठहरी, पर उसका
दिमाग अपना काम करता रहा. अब वह धीरे-धीरे आगे बढ़ी-शत्रु की एक्दम सीध तक.
“क्या है यह?” पंजे को सूंघकर वह
आश्वासन पा गई थी. फिर भी एक बार उसने सोचा और बहुत सावधानी से, अपना दाहिना पंजा साधे
सिर बढ़ाकर, उसने उसे सूंघ लिया. शरीर का तनाव ढीला पड़ गया और अपने पंजे की चार पांच
चोटों से उसने उसे जमीन में मिला दिया.
वह गीली मिट्टी का एक ढेला था!
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रावी की दो लघुकथाएं
डुगडुगी
सड़के के तिराहे पर खड़े एक डुगडुगी
वाले ने डुगडुगी बजाई और राह चलते लोग उसके पास जमा हो गए.
चार वर्ष का एक बालक अपनी मां का
हाथ खींचता हुआ उस भीड़ के समीप आ गया. “मां, डुगडुगी सुनेंगे. बढ़िया है.”
सात वर्ष की उसकी बड़ी बहन भी उत्सुक
थि, ’अब यह कोई गाना भी गाएगा.” उसने कहा.
“धत! गाना नहीं, झोले में से निकालकर
यह जादू के खेल दिखलाएगा.” ग्यारह वर्षीय उनके भाई ने कहा.
“जी नहीं, यह जादूगर नहीं है. झोले
में इसके पास बेचने को कुछ दवाइयां होंगी, उन्हें बेचेगा. चलो, क्या देखना है. सड़क
पर घूमने निकले इस शिक्षित परिवार के प्रमुख, बच्चों के पिता ने कहा.
“देखिए तो सही, इसके डुगडुगी बजाने
और हस्तासंचालन में कितनी असाधारण कला है. जैसे महाराज का ही कोई---. थोड़ा रुक लीजिए.”
नृत्यसंगीत की पारखी, अनेक ललित कलाओं की विदुषी, बच्चों की मां ने पति से अनुरोध किया.
“डुगडुगी नहीं बहन जी, डमरू!” पास
खड़े एक अपरिचित युवक ने इस महिला को लक्ष्य कर कहा, “क्या यह संभव नहीं कि स्वयं शिव
ही इस वेश में अपना डमरू लेकर यहां आए हों और अपने किसी नए तांडव-नृत्य द्वारा संसार
को नया मोड़ देने जा रहे हों? इस डमरू वाले की भंवों के बीच आप तीसरे नेत्र का चिन्ह-सा
नहीं देख रही हैं क्या?”
और इस कथा के पाठक आप उस अपरिचित
नवयुवक की बात में कोई अवगाहन योग्य अमृतगर्भा गहराई का अनुमान लगा सकते हैं क्या?
शपथहीन
पहाड़ की तलहटी में बसा एक छोटा-सा
गांव था. भेड़ें और बकरियां ही उसके निवासियों की प्रमुख सम्पत्ति थीं.
किंवदंती प्रचलित थी: उस पहाड़ के
भीतर बीचोबीच एक छोटा-सा नगर है, जिसमें पूरे संसार का शासक राजा अपने राजपरिवार के
साथ रहता है. उस नगर के निवासी परम सुन्दर, शताब्दियों तक बूढ़े न होने वाले और सर्वसाधन-सम्पन्न
हैं.
इस गांव के एक निवासी ने घोषणा की
कि वह उस राजनगर को देख आया है और पर्वत के मध्य में बनी एक सुरंग की राह उस नगर में
पहुंचने का रास्ता है. लगनशील छह-छह व्यक्तियों के दल उस सुरंग की राह राजनगर में जाकर
मनचाही संपदाएं ला सकते हैं; पर दल के सभी सदस्यों का सम-सम्पत्ति होना आवश्यक है.
जिन छह व्यक्तियों को इस अभियान
के लिए चुना गया उन्हें गांव वालों ने पास से कुछ भेड़ें-बकरियां देकर सभी को सम-पशुधन
वाला बना दिया.
घोषणाकारी व्यक्ति के निर्देशानुसार
यह दल उस सुरंग में प्रविष्ट हुआ. गांववाले इस सुरंग से परिचित थे और इसे सौ पग गहरी,
एक चट्टान की पीठ पर समाप्त हो जाने वाली सुरंग के रूप में जानते थे.
तीसवें दिन यह दल गांव में लौट आया
और इसने पूर्व उद्घोषक के वक्तव्य की सम्पुष्टि की. गांवालों के उत्साह और उल्लास का
ठिकाना न रहा. उन्होंने इस दल के सम्मान में एक बड़ा प्रीतिभोज दिया. इस भोज में दल
के प्रवक्ता ने राजनगर एवं वहां के निवासियों के वैभव का विस्तृत विवरण देने के पश्चात
कहा:
“यह सब हम आपके सम्मुख कह रहे हैं,
पर शपथपूर्वक नहीं कह रहे हैं; और आप जानते ही हैं, बिना शपथ की बात पूर्णतया विश्वसनीय
नहीं होती.” गांववालों ने इस दल से अपने दिए विवरण की संपुष्टि शपथपूर्वक करने का अनुरोध
किया, पर इन छहों ने वैसा करने से इंकार कर दिया. कहा, “शपथपूर्वक संपुष्टि करके हम
आपको स्वयं-दर्शन और स्वयं-लाभ से वंचित नहीं करना चाहते. शपथपूर्वक ऎसी संपुष्टि राज-नियम
के विरुद्ध भी है.” उनकी इस हठधर्मिता पर
गांव वालों का रोष उमड़ा और उन्होंने उनकी
संपत्ति छीनकर उन्हें गांव से बाहर निकाल दिया.
निष्कासित व्यक्तियों का यह दल पर्वत
के उस पार की तलहटी के एक नए गांव में जा बसा. कहते हैं कि वह नया गांव देश-देशांतर
के गांवों-नगरों से बहिष्कृत ऎसे ही व्यक्तियों का उपनिवेश है; भेड़-बकरियां ही इनकी
भी सम्पत्ति हैं, पर इनकी भेड़ों पर सोने के बाल उगते हैं और बकरियां अमृत-मिश्रित दूध
देती हैं.
मित्रो, उस गांव के बहिष्कृत चह
व्यक्तियों में से ही एक मैं हूं. राजनगर के
निवासियों में से वीरभद्र, उज्ज्वल, रजनीगंधा, स्नेहशिखा, नीतरांग आदि का कुछ विस्तृत
विवरण मैंने भी दिया है. इस सबके साथ स्वर्ण-रोमा भेड़ और अमृतमया बकरियों की बात की
संपुष्टि मैं भी शपथपूर्वक आपके सम्मुख नहीं कर सकता, क्योंकि स्वयं-खोज, स्वयं-दर्शन
और स्वयं-लाभ से आपको वंचित करने का अधिकार मेरा भी नहीं है.
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रमेश बतरा की दो लघुकथाएं
मांएं और बच्चे
मां, रोटी दे दो.
रोटी अभी नहीं है बेटा.
कब होगी?
जब तेरे बाबा आएंगे.
बाबा तो कई दिनों से नहीं आए.
वह जरूर आएंगे मेरे बच्चे.
अच्छा तो तुम मुझे कोई चीज दे दो.
घर में कोई चीज नहीं है.
फिर पैसा ही दे दो.
पैसा भी नहीं है.
पर मुझे भूख लगी है.
तो मुझे खा ले राक्षस
कैसे?
नौकरी
बॉस का मूड सुबह से ही उखड़ा हुआ
था, वह बात-बात पर दांत पीस रहा था. और सिर्फ बाबू रामसहाय को छोड़कर मैनेजर से लेकर
चपरासी तक के साथ खासी डांट-डपट कर चुका था. सभी बौखलाए-से बैठे थे.
दोपहर के बाद बॉस ने बाबू रामसहाय
को भी बुलवा भेजा. सभी कटे-कटे से कान खड़े हो गए—कि अब उसकी शामत भी आ पहुंची है.
बाबू रामसहाय बॉस के केबिन में जाकर
बिना उसकी अनुमति के उसके सामने बैठ गया—दोपहर की राम-राम जनब.
“हां. तो क्या समाचार हैं आज आफिस
के?”
“जी, मैनेजर ने सरे-आम कहा कि बॉस
अहमक है, गलतियां खुद करता है और दोष हमें देता है---नालायक!”
“हूं…”
“अकाउण्टेंट—साला मुनीम—कह रहा था---बॉस
खुद खाता है तो हमें क्यों नहीं खाने देता? ज्यादा बनेगा तो सारी पोल खोल दूंगा. बच्चू
की.”
“हुम्म.”
“हेड क्लर्क कह रहा था—कमीना, आज
बीवी से लड़कर आया लगता है, इसलिए चिड़चिड़ा रहा है.”
“तुम्हारा क्या खयाल है?”
“जी दरअसल, छोटी उम्र में इतनी तरक्की
कर जाने की वजह से लोग आप से ईर्ष्या करते हैं.”
“ये सब कामचोर हैं. मेहनत करें तो
तरक्की क्यों न हो.”
“जी, एक दिन मैंने एस.डी.ओ. को ताना
मारा तो जने-जने को कहता फिरा कि आपकी तरक्की में आपकी पत्नी का बहुत बड़ा हाथ है.”
“उसकी यह मज़ाल! बास्टर्ड. नानी याद
करवा दूंगा उसे.”
“कमीने लोग हैं बॉस, इन्हें मुंह
लगाने में अपनी ही हेठी है---आप खुद समझदार हैं. दुनिया ने सीता माता को भी नहीं छोड़ा.”
“ठीक है. तुम जरा ध्यान रखा करो.”
वापस पहुंचने पर बाबू रामसहाय से
उसके साथियों ने पूछा, “क्यों भई, क्या रहा?”
“कुछ नहीं. बीच ब्राम्च में खड़े
बाबू रामसहाय ने बॉस के कमरे की ओर मुंह उठाकर कहा---हरामी सठिया गया है---मरेगा.”
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बलराम की दो लघुकथाएं
बेटी की समझ
नया साल आता तो बाजार में न जाने
क्या-क्या आ धमकता-नये कैलेंडर, नयी डायरियां नये-नये ग्रीटिंग कार्ड और पत्र-पत्रिकाओं
के नववर्ष विशेषांक. तरह-तरह के लोग, तरह-तरह की चीजें खरीदते, उसी तरह डिप्टी रेंजर
गोपालदास केबच्चे-बच्चियां भी. पर बड़ी लड़की गीता जो कुछ अधिक ही सयानी थी, सिर्फ एक
चीज खरीदती, गोपालदास की राशि वाली भविष्यवार्षिकी.
अपने प्रति अपनी पुत्री के इस अनुराग
से गोपालदास खुश तो होते, मगर एक बात जरूर कहते—“बेटी! मेरी भविष्यवार्षिकी खरीद लाती
है, यह तो ठीक है, कुन्तु अपनी भी खरीद लिया कर.”
गोपालदास की इस बात को गीता हंसकर
काट देती, “पापा! आपकी ग्रहदशा ठीक रहे तो मेरी ग्रह-दशा अपने-आप ठीक रहेगी.”
गत वर्ष उन्होंने गीता की शादी कर
दी. वह कुछ दिन को ससुराल गई और चौथी के बाद लौट आई. नये वर्ष के आगमन पर गीता फिर
भविष्यवार्षिकी खरीद लाई. अपनी पत्नी के सामने गोपालदास ने बड़ी उत्सुकता से गीता के
हाथ से वह वार्षिकी छीन ली और उसका कवर देखकर ही चौंक गए. गीता की ओर देखते हुए बोले,
“बेटी! इस बार तू गलत वार्षिकी खरीद लाई है. मेरी राशि वृश्चिक कहां है?” लजाते हुए
गीता ने कहा, “पापा! यह आपके लिए नहीं, ’उनके’ लिए है. यह ’उनकी’ है.”
“बेटी, समझदार है.” कुछ पल की खामोशी
के बाद डिप्टी रेंजर गोपालदास ने अपनी पत्नी से कहा.
बहू का सवाल
रम्मू काका काफी देर
से घर लौटे तो काकी ने जरा तेज आवाज में पूछा, “कहां चलेंगे रहब, तुमका घर केरि तनकव
चुन्ता पिकिर नाई रहति हय.” तो कोट की जेब से हाथ निकालते हुए रम्मू काका ने विलंब
का कारण बताया, “जरा ज्योतिषी जी के घर लग चलेंगे रहन. बहू के बारे मा पूछवं का रहस्य.”
रम्मू काका का जवाब
सुनकर काकी का चेहरा खिल उठा, सूरज निकल आने पर खिल गए सुरजमुखी के फूल की तरह. तब
आशा-भरे स्वर में काकी ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की, “का बताओ हईनि?”
चारपाई पर बैठते हुए
रम्मू काका ने कपुआइन भाभी को भी अपने पास बुला लिया और बड़े धीरज से समझाते हुए उन्हें
बताया, “शादी के बाद आठ साल लग तुम्हरी कोखि पर शनीचर देउता क्यार असरु रहो, ज्योतिषीजी
बतावत रहयं. हवन-पूजन कराय कय अब उई शनीचर देउता का शांत करि दायहयं. तुम्हयं तब आठ
संतानन क्यार जोग हय. अगले मंगल का हवन-पूजन होई. हम ज्योतिषीजी ते कहि आए हन.” रम्मू काका एक ही सांस
में सारी बात कह गए.
कंपुआइन भाभी और भैया
चार दिन की छुट्टी पर कानपुर से गांव आए थे और सोमवार को उन्हें कानपुर पहुंच जाना
था. रम्मू काका की बात काटते हुए कंपुआइन भाभी ने कहा, “हमने बड़े-बड़े डाक्टरों से चेकअप
करवाया है और मैं कभी भी मां नहीं बन सकूंगईं.”
कंपुआइन भाभी का जवाब
सुनकर रम्मू काका सकते में आ गए और अपेक्षाकृत तेज आवाज में बोले, “तब फिरि हम अगले
साल बबुआ केरि दुसरि शादी करि देबे. अबहिन ओखेरि उमरहय का हय.”
रम्मू काका की यह बात
सुनते ही कंपुआइन भाभी को क्रोध आ गया तो उन्होंने बात उगल दी, “कमी मेरी कोख में नहीं,
आपके बबुआ के शरीर में है. मैं मां तो बन सकती हूं, पर वे बाप नहीं बन सकते. और अब,
यह जानने के बाद आप क्या मुझे शादी करने की अनुमति दे सकते हैं?”
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बलराम अग्रवाल की दो लघुकथाएं
सरसों के फूल
घूरने के उसके अंदाज़ से आभास हुआ कि वह मुझे पहचानने की कोशिश कर रहा है ।
लेकिन मुझे वह किसी भी तरह जाना–पहचाना नहीं लगाय न चेहरे–मोहरे से, न कद–काठी से और न ही हाव–भाव से । सो, उसकी ओर से ध्यान हटाकर मैं पुस्तक पढ़ने में मशगूल रहा ।
‘‘माफ कीजिए सर…’’ मन के आवेग से
परास्त वह कुछ देर बाद अपनी सीट से उठकर अन्तत: मेरे पास आ बैठा, बोला, ‘‘मुझे लगता है कि
आप डाक्टर शर्मा हैं ।’’
‘‘हाँ, लेकिन मैंने आपको नहीं पहचाना ।’’ मैं उससे बोला ।
‘‘आप मुझे कैसे पहचानेंगे सर ।’’
वह बोला,
‘‘अब से करीब तीस साल पहले, जब मैं सिर्फ नौ या दस बरस का छोकरा था, मिसेज शर्मा मुझे पढ़ाती थीं ।’’
मुझे आश्चर्य हुआ
कि नौ–दस बरस का एक बालक तीस साल बाद भी अपनी अध्यापिका को स्मृति
में बसाए हुए है!
‘‘आन्टी कैसी हैं सर ?’’ उसने पूछा ।
‘‘वह!’’ मैं धीरे से बोला, ‘‘तीस बरस पहले वह चालीस के आसपास थीं । शरीर अब उतना कहाँ जी
पाता है । वह तो वैसे भी नि%सतान होने का दबाव झेल रही थीं । पिछले साल––– ।’’
इस खबर से उसे किंचित् धक्का लगा । काफी देर तक वह चुप बैठा रहा । मैंने भी
किताब बन्द करके अपने घुटनों पर रख ली ।
‘‘किसी को गोद लिया सर ?’’ चुप्पी तोड़ते हुए उससे पूछा ।
‘‘नहीं ।’’ मैं बोला, ‘‘दरअसल, ऐसे चोंचलों में मुझे कभी विश्वास नहीं रहा । पिछले साल
उनके देहान्त के उपरान्त अपनी सारी सम्पत्ति मैंने एक ट्रस्ट के नाम वसीयत लिख दी
है ।’’
‘‘आपको शायद याद न हो सर ।’’
कुछ सोचते हुए उसने बोलना शुरू किया, ‘‘उन दिनों आन्टी
मुझे अपने पास रखना चाहती थीं, लेकिन मेरी माँ और आपकी अनिच्छा के कारण…। इन दिनों मैं अच्छा कमा लेता हूँ सर । पत्नी है, बच्चे हैं और थोड़ा–बहुत सोशल–स्टेटस भी, लेकिन…।’’ कहते–कहते वह रुक गया ।
मैंने नजरें उठाकर
दारुण हो उठे उसके चेहरे को देखा ।
‘‘माँ के बाद अनाथ जैसा रह गया हूँ । आपको देखकर आन्टी के
बारे में कुछ आशा जगी थी, सो वह भी… । आप तो सन्तान तक की इच्छा से विरक्त रहे हैं । अलीगढ़ का ही टिकट लिया होगा
न सर ।’’ वह कुछ सकुचाता–सा बोला, ‘‘वसीयत तो लिख ही दी है, छोड़िए वह सब । मेरे साथ खुर्जा उतर चलिए। प्लीज।’’
गाड़ी किसी गाँव के पास से गुजर रही थी। मैंने बाहर की ओर झाँकाµकुछ नंग–धड़ंग छोकरे कम
पानी वाली एक पोखर में किलोल कर रहे थे। गेहूँ की हरी बालियाँ और सरसों के कच्चे
फूल खेतों में लहलहा रहे थे। गरदन घुमाकर मैंने अपने से लगभग आधी उम्र वाले उस
नौजवान को देखा। मुझे वह बालकों, बालियों और फूलों जैसा ही निश्छल और सरल लगा । मैंने पुन:
बाहर ताका । गाँव बहुत पीछे छूट गया था । गाड़ी एक कृशकाय नदी के छोटे से पुल पर से
गुजर रही थी ।
लड़ाई
दूसरा पैग चढ़ाकर मैंने जैसे ही गिलास नीचे रखा, सामने बैठे नौजवान पर मेरी नजरें टिक गयीं । उसने भी मेरे
साथ ही अपना गिलास होंठों से हटाया था । मेरी मेज पर आ बैठने और पीना शुरू कर देने
की उसकी गुस्ताखी पर मुझे गुस्सा आया लेकिन बोतल जब बीच में रखी हो तो कोई भी छोटा, बड़ा या गुस्ताख
नहीं होता, अपने एक हमप्याला अजीज की यह बात मुझे याद हो आयी । इस बीच मैंने जब भी नजर
उठाई, उसे अपनी ओर घूरते पाया ।
‘‘अगर मैं तुमसे इस कदर बेहिसाब पीने की वजह पूछूँ तो तुम
बुरा नहीं मानोगे दोस्त।’’ मैं उससे बोला ।
‘‘गरीबी–––महँगाई–––चाहते हुए भी भ्रष्ट और बेपरवाह सिस्टम को न बदल पाने का
नपुंसक–आक्रोश, कोई भी आम–वजह समझ लो ।’’ वह बोला, ‘‘तुम सुनाओ ।’’
‘‘मैं!’’ मैं हिचका । इस बीच दो ‘नीट’ गटक चुका वह भयावह–सा हो उठा था । आँखें बाहर की ओर उबल आयी थीं और उनका बारीक
से बारीक रेशा भी इस कदर सुर्ख हो उठा था कि एक–एक को आसानी से गिना जा सके । मुझे लगा कि कुछ ही क्षणों
में बेहोश होकर वह मुँह के बल इस टेबल पर बिछ जाएगा ।
‘‘है कुछ बताने का मूड ?’’ वह फिर बोला । अचानक कड़वी डकार का कोई हिस्सा उसके दिमाग से
जा टकराया शायद । उसका सिर पूरी तरह झनझना उठा । हाथ खड़ा करके उसने सुरूर के उस
दौर के गुजर जाने तक मुझे चुप बैठने का इशारा किया और सिर थामकर आँखें बंद किए
बैठा रहा । नशा उस पर हावी होने की कोशिश में था और वह नशे पर, लेकिन गजब की ‘कैपेसिटी’ थी बन्दे में ।
सुरूर के इस झटके को बर्दाश्त करके कुछ ही देर में वह सीधा बैठ गया । कोई भी
बहादुर सिपाही प्रतिपक्षी के आगे आसानी से घुटने नहीं टेकता ।
‘‘मैं…एक हादसा तुम्हें
सुनाऊँगा…।’’ सीधे बैठकर उसने
सवालिया निगाह मुझ पर डाली तो मैंने बोलना शुरू किया, ‘‘लेकिन…उसका ताल्लुक मेरे पीने से नहीं है…हम तीन भाई हैं…तीनों शादीशुदा, बाल–बच्चों वाले…माँ कई साल पहले गुजर गयी थी…और बाप बुढ़ापे और …कमजोरी की वजह से…खाट में पड़ा है…कौड़ी–कौड़ी करके पुश्तैनी जायदाद को…उसने…पचास साठ लाख की हैसियत तक…बढ़ाया है लेकिन…तीनों में से कोई
भी भाई उस जायदाद का…अपनी मर्जी के
मुताबिक…इस्तेमाल नहीं कर
सकता…।’’
‘‘क्यों ?’’ मैंने महसूस किया कि वह पुन: नशे से लड़ रहा है । आँखें कुछ
और उबल आयी थीं और रेशे सुर्ख धारियों में तब्दील हो गए थे ।
‘‘बुढ्ढ़ा सोचता है कि …हम…बेवकूफ और अय्याश
हैं…शराब और जुए में…जाया कर देंगे जायदाद को…।’’ मैं कुछ कड़ुवाहट के साथ बोला,‘‘पैसा कमाना, बचाना और बढ़ाना…पुरखे भी यही करते रहे…न खुद खाया–पहना…न बच्चों को खाने पहनने दिया… बाकी दोनों भाई तो सन्तोषी निकले…लात मारकर चले गए साली प्रापर्टी को…लेकिन मैं…मैं इस हरामजादे के मरने का इन्तजार कर रहा हूँ…’’
‘‘तू…ऽ…’’ मेरी कुटिलता पर
वह एकदम आपे से बाहर हो उठा, ‘‘बाप को गालियाँ बकता है…कुत्ते!… लानत है…लानत है तुझ जैसी
निकम्मी औलाद पर…।’’
क्रोधपूर्वक वह मेरे गिरेबान पर झपट पड़ा । मैं भी भला क्यों चुप बैठता ।
फुर्ती के साथ नीचे गिराकर मैं उसकी छाती पर चढ़ बैठा और एक–दो–तीन… तड़ातड़ न जाने कितने घूँसे मैंने उसकी थूथड़ी पर बजा डाले ।
इस मारधाड़ में मेज पर रखी बोलतें, गिलास, प्लेटµनीचे गिरकर सब टूट–फूट गये। नशे को न झेल पाने के कारण अखिरकार मैं बेहोश हो
गिर पड़ा।
होश आया तो अपने आपको मैंने बिस्तर पर पड़ा पाया। हाथों पर पट्टियाँ बँधी हुई थीं
और माथे पर रुई के फाहे–सा धूप का एक टुकड़ा आ टिका था।
‘‘कैसे हो ?’’ आँखें खोलीं तो सिरहाने बैठकर मेरे बालों में अपनी उंगलियाँ
घुमा रही पत्नी ने पूछा।
‘‘ये पट्टियाँ!’’ दोनों हाथ ऊपर उठाकर उसे दिखाते हुए मैंने पूछा।
‘‘इसीलिए पीने से रोकती हूँ मैं।’’ वह बोली, ‘‘ड्रेसिंग टेबल और
उसका मिरर तोड़ डाला, सो कोई बात नहीं, लेकिन गालियों का यह हाल कि बच्चों को बाहर भगा देना पड़ा… रात को ही पट्टी न होती तो सुबह तक कितना खून वह जाता… पता है?’’
मुझे रात का मंजर
याद हो आया। आँखें अभी तक बोझिल थीं।
‘‘वाश–बेसिन पर ले चलकर मेरा मुँह और आँखें साफ कर दो।’’ मैं पत्नी से बोला
और बिस्तर से उठ बैठा।
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सुभाष नीरव की दो लघुकथाएँ
जानवर
बीच पर भीड़ निरंतर बढ़ती जा रही थी। सूरज समुद्र में बस डुबकी लगाने ही वाला था। वे दोनों हाथ में हाथ थामे समुद्र किनारे रेत पर टहलने लगे। पानी की लहरें तेजी से आतीं और लड़की के पैरों को चूम लौट जातीं। लड़की को अच्छा लगता। वह लड़के का हाथ खींच पानी की ओर दौड़ती, दायें हाथ से लड़के पर पानी फेंकती और खिलखिलाकर
हँसती। लड़का भी प्रत्युत्तर
में ऐसा ही करता। उसे लड़की का इस तरह उन्मुक्त होकर हँसना, खिलखिलाना
अच्छा लग रहा था। अवसर पाकर वह लड़की को अपनी बांहों में कस लेता और तेजी से उनकी ओर बढ़ती ऊँची लहरों का इंतजार करता। लहरें दोनों को घुटनों तक भिगो कर वापस लौट जातीं। लहरों और उनके बीच एक खेल चल रहा था -छुअन छुआई का।
लड़का खुश था लेकिन भीतर कहीं बेचैन भी था। वह बार बार अस्त होते सूरज की ओर देखता था। अंधेरा धीरे धीरे उजाले को लील रहा था। फिर, दूर क्षितिज में थका-हारा सूर्य समुद्र में डूब गया।
लड़के की बेचैनी कम हो गई। उसे जैसे इसी अंधेरे का इंतज़ार था। लड़का लड़की का हाथ थामे भीड़ को पीछे छोड़ समुद्र के किनारे किनारे चलकर बहुत दूर निकल आया। यहां एकान्त था, सन्नाटा था, किनारे पर काली चट्टानें थीं, जिन पर टकराती लहरों का शोर बीच बीच में उभरता था। वह लड़की को लेकर एक चट्टान पर बैठ गया। सामने विशाल अंधेरे में डूबा काला जल... दूर कहीं कहीं किसी जहाज की बत्तियाँ टिमटिमा रही थीं।
''ये कहाँ ले आए तुम मुझे ?'' लड़की ने एकाएक प्रश्न किया।
''भीड़ में तो हम अक्सर मिलते रहते हैं...कभी...''
''पर मुझे डर लगता है। देखो यहाँ कितना अंधेरा है...'' लड़की के चेहरे पर सचमुच एक भय तैर रहा था।
''किससे ? अंधेरे से ?''
''अंधेरे से नहीं, जानवर से...''
''जानवर से ? यहाँ कोई जानवर नहीं है।'' लड़का लड़की से सटकर बैठता हुआ बोला।
''है...अंधेरे और एकांत का फायदा उठाकर अभी तुम्हारे भीतर से बाहर निकल आएगा।''
लड़का ज़ोर से हँस पड़ा।
''यह जानवर ही तो आदमी को मर्द बनाता है।'' कहकर लड़का लड़की की देह से खेलने लगा।
''मैं चलती हूँ...।'' लड़की उठ खड़ी हुई।
लड़के ने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया।
''देखो, तुम्हारे अंदर का जानवर बाहर निकल रहा है... मुझे जाने दो।''
सचमुच लड़के के भीतर का जानवर बाहर निकला और लड़की की पूरी देह को झिंझोड़ने-
नोचने लगा। लड़की ने अपने अंदर एक ताकत बटोरी और ज़ोर लगाकर उस जानवर को पीछे धकेला। जानवर लड़खड़ा गया। वह तेज़ी से बीच की ओर भागी, जहाँ टयूब लाइटों का उजाला छितरा हुआ था।
लड़का दौड़कर लड़की के पास आया, ''सॉरी, प्यार में ये तो होता ही है...।''
''देखो, मैं तुमसे प्यार करती हूँ, तुम्हारे अंदर के जानवर से नहीं।'' और वह चुपचाप सड़क की ओर बढ़ गई। बीच पीछे छूट गया, लड़का भी।
---
बर्फी
वह दिल्ली एअरपोर्ट पर उतरा। बाहर निकलकर पहले मोबाइल पर किसी से बात की और फिर नज़दीक के ही एक होटल के लिए टैक्सी पकड़ ली। वह अक्सर ऐसा ही करता है। जब भी इंडिया दस-पंद्रह दिन के लिए आता है, न्यूयार्क
से दिल्ली की फ्लाइट लेता है। दिल्ली एक रात स्टे करके अगले दिन मुंबई के लिए दूसरी फ्लाइट पकड़ता है। मुंबई में उसका घर है। माता-पिता है, पत्नी है, छोटी बहन है जो अलग रहती है।
होटल के अपने कमरे में जब पहुँचा, रात के आठ बज रहे थे। वह नहा -धोकर फ्रैश हो लेना चाहता था कि तभी बेल हुई। दरवाज़ा खोला। सामने नज़र पड़ते ही उसके माथे पर पसीने की बूँदें चुहचुहा आईं। आगंतुक लड़की ने भी अपनी घबराहट को तुरन्त झटका।
''देखा पकड़ लिया न। मैंने आपको होटल में घुसते और इस कमरे में आते देख लिया था। सोचा पीछा करती हूँ।''
''शिखा ! तुम यहाँ ?''
''हूँ... चौंकते क्यों हैं ? कल मुंबई-दिल्ली की चार बजे वाली फ्लाइट से उतरी थी। आज रात की फ्लाइट से वापस मुंबई। अक्सर इसी होटल में रुकना होता है, अगली डयूटी पर जाने तक।''
''अरे मैं तो भूल ही गया कि तुम दो साल से एअर लाइन्स में जॉब कर रही हो।'' उसने अपने आप को सामान्य करते हुए कहा।
''पर आप कभी बता कर इंडिया नहीं आते। कोई फोन ही कर दिया करो।''
''मुझे सरप्राइज़ देने की आदत है न। चल छोड़, घर पर सब ठीक हैं न ? जाती रहती हो न मम्मी-पापा से मिलने ?''
''महीने-दो महीने में एक-दो बार तो चली ही जाती हूँ। आप बताओ, कैसा चल रहा है यूएसए में। और कब बुला रहे हो भाभी को अपने पास ?''
''ठीक है, ग्रीन कार्ड मिल जाए तो बुला लूँगा उसे भी।''
''मम्मी-पापा के पास कब पहुँच रहे हो ?''
''कल दिन में यहाँ कुछ काम है, इसलिए यहाँ रुकना पड़ा। कल शाम की फ्लाइट से मैं मुंबई पहुँच रहा हूँ।
''अच्छा भैया चलती हूँ... रात दस बजे की मेरी फ्लाइट है।''
''ओ.के. बाय...।''
''बाय!''
शिखा के जाते ही उसने मोबाइल पर फोन मिलाया।
''सर! क्या बर्फी पहुँची नहीं अभी तक।'' उधर से आवाज़ आई।
''ये तुमने ...
?'' वह भन्नाया।
''क्या हुआ सर! पसंद नहीं आई ? दूसरी भेजता हूँ।''
''नहीं रहने दो अब।... इंडिया से लौटते समय देखूँगा।'' उसने झटके से फोन बंद किया और फ्रैश होने के लिए बाथरूम में घुस गया।
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दूरभाष : 09810534373
फ़जल इमाम मलिक और रूपसिंह चन्देल (फरवरी,२०१२)
फ़जल इमाम मलिक की दो लघुकथाएं
भूख की भूख
कक्षा में मास्टर साहब ने सभी को भूख पर लेख लिखने को कहा. थोड़ी देर बाद
रामू को छोड़कर सभी ने मास्टर साहब को लेख दिखा दिया. रामू के लेख न लिखने पर मास्टर
साहब आश्चर्यचकित थे—वह क्लास का सबसे तेज लड़का था. अपनी जिज्ञासा को वह दबा नहीं पाए—“
रामू, तुमने भूख पर लेख नहीं लिखा?”
“लिखा है सर!”
“तो दिखाओ.”
वह अपनी सीट से उठा और मास्टर साहब के सामने आकर अपने पेट को नंगर कर
दिया.
भेड़िया
जंगल का सारा माहौल ’भेड़िया आया---भेड़िया आया’ से गूंज उठा. गांव के लोग
उस आवाज की ओर दौड़ पड़े—जनदीक पहुंचे, कुछ नहीं था—भेड़ें इत्मीनान से चर रही थीं और
चरवाहा दूर खड़ा उन पर कहकहे लगा रहा था—वे वापस लौट गए—
और फिर उस रात गांव वालों ने सलाह की और दूसरे दिन सारा गांव बिना किसी
आवाज के ही वहां जा पहुंचा…
और उस रात गांव के हर घर से भेड़ों के लहू की गंध निकल कर चारों ओर फैलकर
कह रही थी---’आदमी आया---आदमी आया---आदमी आया…’
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श्यामसुन्दर चौधरी की दो लघुकथाएं
पिता
एक छोटे से कमरे का सौ रुपये किराया. रहना तो था ही. सो वह बूढ़े-बुढ़िया
उसी में रहते थे. पेंशन का एक बड़ा हिसा उसी में निकल जाता. जीवन जैसे-तैसे कट रहा था.
वह बुढडा जिस कारखाने से रिटायर हो चुका था, उसी में अब उसका लड़का अच्छे पद पर था.
बड़ा-सा सरकारी इवार्टर मिला हुआ था. फैशनपरस्त खूबसूरत पत्नी थी. दोनों बच्चे पब्लिक
स्कूल में पढ़ते थे. टी.वी., फ्रिज, टेप रिकार्डर वगैरह सब कुछ था.
उसके आसपास के लोगों ने और मित्रों ने कर्तव्य याद दिलाते हुए उसे अपने मां-बाप के साथ में रखने की सलाह दी. उसका
उत्तर था—“ यार, मैं तो खुद भी यही चाहता हूं. लेकिन देखो न, इतना सारा सामान है. इन
दो कमरों में तो हमें भी पूरा नहीं पड़ता है.”
कुछ दिनों बाद वह कारखाने में हजारों रुपये के औजारों की चोरी के इल्जाम
में पकड़ा गया. उसे सस्पेंड कर दिया गया. बात पिता के कानों में पहुंची.
अगले दिन पिता अधिकारी के पैरों पर गिरकर गिड़गिड़ाते हुए स्वर में बोला,
“साहब, इस बार इसे छोड़ दीजिए. अपने जिन्दा रहते हुए मैं उसे बर्बाद होते नहीं देख सकता.
आखिर वह मेरा बेटा है साहब---मेरा अपना बेटा.”
समझौता
वह भीड़ को जल्दी निपटाने की कोशिश में मशीन की गति से टिकटें बांटता आ
रहा था. उसकी निगाह सामने ’क्यू’ पर भी लगी थी. कोई भी बगैर लाइन टिकट लेने आता उसे
वह साफ मना कर देता. पर एकाएक वह कान्सिटेबल (जो बाहर तैनात था) बिना पंक्ति के आया
और रुपयों को खिड़की के अंदर करते हुए बोला, “जरा चार टिकट फैमिली के देना.”
उसे बड़ा गुस्सा आया. उसने साफ शब्दों में टिकट देने से मना कर दिया. साथ
ही लाइन में आने की सलाह दी. कान्सिटेबल खिसियाते हुए चला गया. बाहर खड़े लोग उसकी प्रशंसा
करने लगे. किंतु थोड़ी ही देर में उसको बुलवा भेजा गया. वह मैनेजर के कमरे में पहुंचा
तो उसी कांन्सिटेबल को मैनेजर के साथ चाय और समोसे उड़ाते देखा. उसे देखते ही मैनेजर
ने आव देखा न ताव, उसे डांटना शुरू कर दिया, “तुम जानते हो अगर पुलिस डिपार्टमेण्ट
हमारे साथ सहयोग न करे तो सिनेमा हाल चलाना भारी पड़ जाए. तुम्हारी उम्र के लोगों में
यही कमी है. समझौता कर नहीं सकते. विद्रोह तुम्हारी नाक पे धरा होता है. एक फैशन की
तरह.” और फिर कान्सिटेबल की तरफ इशारा करते हुए कहा, “अच्छा जाओ, इसके लिए चार टिकटें
भेज दो. और हां, यहां के अन्दरूनी तौर-तरीके से वाकिफ होना सीखो. आगे से ध्यान रखना.”
वह बाहर निकला तो पैरों में अजीब कंपकंपी हो रही थी. शीशे के दरवाजे से
बाहर ’क्यू’ उसे दिखाई दे रही थी. थोड़ी देर बाद लगा, ’क्यू’ एक भगदड़ में बदल गई. सारे
ही बेतरतीबी से खिड़की पर टूट रहे थे. पर वह कुछ नहीं कर सकता था सिवाय सब कुछ देखते
रहने के.
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एच-६१/४, साहनी कॉलोनी,
टैगोर रोड, कैंट
कानपुर-२०८००४
7 टिप्पणियां:
LAGHU KATHA PAR LEKH AUR LAGHU
KATHAAYEN SAB UCHCH STARIY HAI .
JAANKAR ATI PRASANNTA HUEE HAI KI
` SAMKAALEEN HINDI LAGHU KATHA KAA
MANOVISHLESHAATMAK ADHYAAY ` PAR
MEERUT VISHWA VIDYAALAY NE PRASIDDH
KAHANIKAAR BALRAM AGRAWAL KO UPADHI
PRADAAN KEE HAI . UNHEN DHERON
BADHAAEEYAN AUR SHUBH KAMNAAYEN .
भाई रूप सिंह चदेल जी ,आप ने' हम और हमारा समय 'के अंतर्गत लघु कथा के सन्दर्भ में सार्थक लेख लिखा .बहुत अच्छा लगा .लघुकथाओं का चुनाव भी प्रशंशनीय है .मुझे जो लघुकथाएं विशेष रूप से पसंद आयीं उनका उल्लेख कर रहा हूँ --
कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर ---सेठ जी ,,
रमेश बतरा ------माएं और बच्चे
बलराम -------बहू का सबाल
बलराम अग्रवाल ---लडाई
सुभाष नीरव ----जानवर
फज़ल इमाम मालिक ----भेड़िया
श्याम सुन्दर चौधरी ------पिता
हार्दिक धन्यवाद और बधाई
भाई रूप सिंह चदेल जी ,आप ने' हम और हमारा समय 'के अंतर्गत लघु कथा के सन्दर्भ में सार्थक लेख लिखा .बहुत अच्छा लगा .लघुकथाओं का चुनाव भी प्रशंशनीय है .मुझे जो लघुकथाएं विशेष रूप से पसंद आयीं उनका उल्लेख कर रहा हूँ --
कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर ---सेठ जी ,,
रमेश बतरा ------माएं और बच्चे
बलराम -------बहू का सबाल
बलराम अग्रवाल ---लडाई
सुभाष नीरव ----जानवर
फज़ल इमाम मालिक ----भेड़िया
श्याम सुन्दर चौधरी ------पिता
हार्दिक धन्यवाद और बधाई
लघुकथा पर तुम्हारा आलेख बहुत अच्छा है, बेशक पुराना है और तुमने इसे अपडेट किया है। कुछ चीजें पुरानी नहीं हुआ करतीं। लघुकथाएं भी तुमने अच्छी चुनी हैं। अच्छा हुआ तुमने मेरी नई लिखी लघुकथाओं को ही तरजीह दी। 'जानवर' अभी तक अप्रकाशित है और वेब पर पहली बार जा रही है। दूसरी लघुकथा 'बर्फ़ी' बलराम अग्रवाल द्वारा संपादित 'अविराम' के लघुकथा विशेषांक में छ्पी है।
समकालीन लघुकथा पर केन्द्रित 'वातायन' का यह अंक चमत्कृत करता है। मुझे लग रहा है कि कम से कम मेरे लिए तो २०१२ बहुत ही शुभ रहा है। आपका लेख उल्लेखनीय है और शोधार्थियों के बहुत काम आयेगा। 'हिन्दी की पहली लघुकथा' के बारे में मैं अपने ही एक लेख का अंश 'लघुकथा-वार्ता' के लिंक समेत यहाँ दे रहा हूँ। उम्मीद है इस सुधीजन इस पर भी चर्चा करने का प्रयास करेंगे:http://wwwlaghukatha-varta.blogspot.in/2009/01/1.html
अब तक जिन लघ्वाकारीय गद्य कथा-रचनाओं को पहली लघुकथा होने की दौड़ में गिना जाना चाहिए, वे प्रमुखत: निम्नप्रकार हो सकती हैं:-
1 अंगहीन धनी(परिहासिनी, 1876) भारतेंदु हरिश्चन्द्र
2 अद्भुत संवाद(परिहासिनी, 1876) भारतेंदु हरिश्चन्द्र
3 बिल्ली और बुखार(प्रामाणिकता अप्राप्य) माखनलाल चतुर्वेदी
4 एक टोकरीभर मिट्टी(छ्त्तीसगढ़ मित्र, 1901) माधवराव सप्रे
5 विमाता(सरस्वती, 1915) छ्बीलेलाल गोस्वामी
6 झलमला(सरस्वती, 1916) पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी
7 बूढ़ा व्यापारी(1919) जगदीशचन्द्र मिश्र
8 प्रसाद (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
9 गूदड़ साईं (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
10 गुदड़ी में लाल(प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
11 पत्थर की पुकार(प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
12 उस पार का योगी(प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
13 करुणा की विजय(प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
14 खण्डहर की लिपि(प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
15 कलावती की शिक्षा(प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
16 चक्रवर्ती का स्तम्भ(प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
17 बाबाजी का भोग(प्रेम प्रतिमा, 1926) प्रेमचंद
18 वैरागी(आकाशदीप, 1929) जयशंकर प्रसाद
19 सेठजी(1929) कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’
अगर इनमें प्रेमचंद की उन लघ्वाकारीय कहानियों को भी विचारार्थ स्वीकार करना चाहें जो मूलत: उर्दू में काफी पहले प्रकाशित हो चुकी थीं, परन्तु उनका रूपांतर/लिप्यांतर काफी बाद में, यहाँ तक कि उनकी मृत्यु के भी वर्षों बाद प्रकाश में आया, तो वे निम्नप्रकार हैं:-
1 बाँसुरी(उर्दू कहकशाँ, जनवरी 1920; हिन्दी रूपान्तर गुप्तधन-1, 1962 में)
2 राष्ट्र का सेवक(उर्दू पत्रिका ‘अलनाजिर’ के जनवरी 1917 अंक में तथा उर्दू शीर्षक ‘क़ौम का खदिम’ से प्रेम चालीसी, 1930 में; हिन्दी रूपान्तर गुप्तधन-2, 1962 में)
3 बंद दरवाज़ा(उर्दू प्रेम चालीसी, 1930 में)
4 दरवाज़ा(उर्दू पत्रिका ‘अलनाजिर’ के जनवरी 1930 अंक में; हिन्दी लिप्यान्तर ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’, 1988 में)
लघुकथा पर आपके लेख से लेकर सारी कथायें एक बैठक में पढ़ गई.विभिन्न विषयों पर संक्षिप्त किन्तु संवेदनाएं जगाते बिन्दु प्रभावी रहे -बहुत कुछ कहते से.जानवर ,बेटी कीसमझ,डुगडुगी,नौकरी ,बहू का सवाल,बर्फ़ी विशेष रूप से.
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