वरिष्ठ कथाकार और
कवयित्री सुधा अरोड़ा की कविता
तुममें एक पूरे इतिहास को जिंदा होना है !
दामिनी !
जीना चाहती थी तुम
कहा भी था तुमने बार बार
दरिंदों से चींथी हुई देह से जूझते हुए
मौत से लडती रही बारह दिन
कोमा में बार बार जाती
लौट लौट आती
कि शायद साँसे संभल जाएँ .......
आखिर हत्यारे जीते
तुम्हारा जीवट थम गया
और तुम चली गयी दामिनी !
लेकिन तुम कहीं नहीं गयी दामिनी
अब तुम हमेशा रहोगी
सत्ता के लिए चुनौती बनकर ,
कानून के लिए नई इबारत बनकर ,
स्त्री के लिए बहादुरी की मिसाल बनकर ,
कलंकित हुई इंसानियत पर सवाल बनकर ,
सदियों से कुचली जा रही स्त्रियों का सम्मान बनकर !
तुम एक जीता जागता सुबूत हो दामिनी
कि अभी मरा नहीं है देश
कि अब भी खड़ा हो सकता है यह
दरिंदगी और बलात्कार के खिलाफ
जहाँ लोकतंत्र की दो तिहाई सदी
बीतने के बाद भी सुनी नहीं जाती
आधी दुनिया की आवाज !
तुम हर उस युवा में होगी
जो वहशीपन के खिलाफ
खड़े होते दिख जायेंगे आज भी
देश के हर छोटे बड़े गाँव कस्बे में
ऐसा नहीं कि वह दिल्ली का इंडिया गेट ही हो
या हो मुंबई का आज़ाद मैदान !
अब तुममें जिंदा होगी
1979 की गढचिरोली की मथुरा
चौदह से सोलह के बीच की वह आदिवासी लड़की ,
जिसे अपनी उम्र तक ठीक से मालूम नहीं थी
लॉक अप में जिसके साथ हुआ बलात्कार
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट का बदला फैसला --
गणपत और तुकाराम बाइज्ज़त बरी कर दिए गए
सारे महिला आन्दोलन और नुक्कड़ नाटक धरे रह गए !
अब तुममें जिंदा होगी
पति के साथ रात का शो देख कर लौटती
हैदराबाद की रमज़ा बी
कि जिसे पुलिस ने पकड़ा और सारी रात भोगा
कहा --'' पर्दा नहीं किया था
मुंह खुला था , हमने सोचा वेश्या होगी !''
इसी पुलिस ने दूसरे दिन की उसके पति की हत्या
और रमजा बी करार दी गयी वेश्या !
अब तुममें जिंदा होगी माया त्यागी
मुरादाबाद की किसनवती
मेरठ की उषा धीमान
राजस्थान के भटेरी गाँव की भंवरी ,
जिसके आरोपियों को सुसज्जित मंच पर
फूलमालाओं से नवाज़ा गया और लगाये गए नारे --
मूंछ कटी किसकी , नाक कटी किसकी , इज्ज़त लुटी किसकी
राजस्थान के भटेरी गाँव की !
महिला कार्यकर्ताएं फिर अपने नारे बटोरतीं ,
कटे बालों वाली होने का तमगा लिए घर लौट गयीं !
सुनो दामिनी ,
इस बीच बीते पंद्रह साल
लेकिन हमारे पास गिनती नहीं
कि कितनी लाख बेटियां और बहनें हुईं हलाल
दूर नहीं , अब लौटो पिछले साल
अब तुममें जिंदा होगी
मालवणी मलाड की 14 साल की अस्मां ,
जिसे उठा ले गए पांच दरिन्दे
खाने के नाम पर देते रहे उसे एक वडा पाव
और भोगते रहे उस मरती देह को लगातार
बाल दिवस 14 नवम्बर 2011 को
अपने बालिका होने का क़र्ज़ चुकाती
ली उसने आखिरी सांस !
मरने के बाद जिसके पेट से निकलीं
वडा पाव लिपटे अखबार की लुगदी
मिटटी , पत्थर और कपडे की चिन्दियाँ !
अब तुममें जिंदा होगी
वे तमाम मथुरा , माया , उषा ,किसनवती
मनोरमा , भंवरी , अस्मां ....
दूध के दांत भी टूते नहीं थे जिनके
वे बच्चियां
जिन्हें अपने लड़की होने की सज़ा का अहसास तक नहीं था ...
वे तमाम नाबालिग लड़कियां
जिन्हें दुलारने वाले पिता चाचा भाई के हाथ ही
उनके लिए हथौड़ा बन गए
किलकारियां चीखों में बदल गयीं !
हम आखिर करें भी तो क्या करें दामिनी ,
चीखें तो इस समाज में कोई सुनना ही नहीं चाहता
रौंदी गयीं , कुचली गयीं बच्चियों की चीखें
नहीं चाहिए इस सभ्य समाज को
यह सभ्य समाज डिस्को में झूमता है
सेल्युलायड के परदे पर लहराता है
युवा स्त्री देहों के जुलूस फहराता है
मुन्नी बदनाम हुई पर ठुमके लगाता है
शीला की जवानी पर इतरा कर दोहरा हुआ जाता है
आखिर औरत की देह एक नुमाइश की चीज़ ही तो है !
हम उसी बेशर्म देश के बाशिंदे हैं दामिनी
जहाँ संस्कृति के सबसे असरदार माध्यम में
स्त्री एक आइटम है महज़
और आइटम सॉंग पर झूमती हैं पीढियां !!
दामिनी !
उन लाखों हलाल की गयी बच्चियों में
तुम्हारा नाम महज एक संख्या बनकर नहीं रहेगा अब !
नहीं , तुम्हें संख्या बनने नहीं देंगे हम !
तुममें एक पूरे इतिहास को जिंदा होना है !
वह इतिहास जिस पर तेज़ रफ़्तार मेट्रो रेल दौड़ रही है
वह इतिहास जिसे चमकते फ्लाई ओवर के नीचे दफन कर दिया गया है !
इससे पहले कि जनता भूल जाये सोलह दिसम्बर की रात ,
इससे पहले कि तुम्हारा जाना बन जाये एक हादसे की बात
इससे पहले कि सोनी सोरी की चीखें इतिहास बन जाएँ
इससे पहले कि चिनगारियां बुझ जाएँ .....
हवा में झूलते अपने हाथो से तुम्हें देते हुए विदा
और सौंपते हुए इन आँखों की थोड़ी सी नमी
ज्वालामुखी के लावे सी उभर आई
इस देश की आत्मा की आवाज के साथ
अहद लेते हैं हम
कि चुप नहीं बैठेंगे अब
इस दबे ढके इतिहास के काले पन्ने फिर खोलेंगे
अब हम आंसुओं से नहीं , अपनी आँख के लहू से बोलेंगे !
हत्यारों और कातिलों की शिनाख्त से मुंह नहीं फेरेंगे !
अपने नारों को समेट सिरहाना नहीं बनायेंगे अब ,
नए साल की आवभगत में गाना नहीं गायेंगे !
बस , अब और नहीं , और नहीं , और नहीं .........
जैसे जारी है यह जंग , जारी रहेगी !
11 टिप्पणियां:
दिल को दहला देने वाली मार्मिक अभिव्यक्ति को पढ़ कर आँखें भर आईं ।
अवसादपूर्ण मनस्थिति निर्वाक् कर गई ।
सुधा जी,
आपकी यह कविता ह्रृदय को छूती ही नहीं उसमें एक शिगाफ़ डालती है। आँखों में आंसू तो लाती ही है, लहू भी खौलाती है। काश!, हैवानों को इंसानियत का पाठ पढ़ना आ जाए। काश अब देश की सरकारें, देश की पुलिस, देश की पूरी जनता यह निश्चय कर ले कि हमारी कोई बहन, कोई माँ, कोई बेटी अब से दामिनी नहीं बनेगी।
महेन्द्र दवेसर
सुधा जी,
आपकी यह कविता ह्रृदय को छूती ही नहीं उसमें एक शिगाफ़ डालती है। आँखों में आंसू तो लाती ही है, लहू भी खौलाती है। काश!, हैवानों को इंसानियत का पाठ पढ़ना आ जाए। काश अब देश की सरकारें, देश की पुलिस, देश की पूरी जनता यह निश्चय कर ले कि हमारी कोई बहन, कोई माँ, कोई बेटी अब से दामिनी नहीं बनेगी।
महेन्द्र दवेसर
सुधा जी,
आपकी यह कविता ह्रृदय को छूती ही नहीं उसमें एक शिगाफ़ डालती है। आँखों में आंसू तो लाती ही है, लहू भी खौलाती है। काश!, हैवानों को इंसानियत का पाठ पढ़ना आ जाए। काश अब देश की सरकारें, देश की पुलिस, देश की पूरी जनता यह निश्चय कर ले कि हमारी कोई बहन, कोई माँ, कोई बेटी अब से दामिनी नहीं बनेगी।
महेन्द्र दवेसर
सुधा जी,
आपकी यह कविता ह्रृदय को छूती ही नहीं उसमें एक शिगाफ़ डालती है। आँखों में आंसू तो लाती ही है, लहू भी खौलाती है। काश!, हैवानों को इंसानियत का पाठ पढ़ना आ जाए। काश अब देश की सरकारें, देश की पुलिस, देश की पूरी जनता यह निश्चय कर ले कि हमारी कोई बहन, कोई माँ, कोई बेटी अब से दामिनी नहीं बनेगी।
महेन्द्र दवेसर
सुधा जी,
आपकी यह कविता ह्रृदय को छूती ही नहीं उसमें एक शिगाफ़ डालती है। आँखों में आंसू तो लाती ही है, लहू भी खौलाती है। काश!, हैवानों को इंसानियत का पाठ पढ़ना आ जाए। काश अब देश की सरकारें, देश की पुलिस, देश की पूरी जनता यह निश्चय कर ले कि हमारी कोई बहन, कोई माँ, कोई बेटी अब से दामिनी नहीं बनेगी।
महेन्द्र दवेसर
सुधा जी ,
आपकी इस कविता में सचमुच स्त्री उत्पीडन का इतिहास ज़िंदा हो गया है | यह कविता भी एक दस्तावेज बन गई है |
सादर
इला
सुधा अरोड़ा जी की यह कविता वर्तमान समय में कितनी प्रासंगिक है ! एक हिला कर रख देने वाली कविता! इस प्रसंग पर बहुत सी कविताएं इधर पढ़ने को मिलीं, पर सुधा जी की यह कविता एक उत्पीड़ित स्त्री के दर्द को जिस ढंग से सामने लाती है, वह नि:संदेह इस कविता को अन्य कविताओं से अलग करता है।
दामिनी प्रकरण पर 'वातायन' का यह अंक नि:संदेह ध्यान खींचने वाला अंक है। तुम्हारे सम्पादकीय की आग और सुधाजी की कविता ने इस अंक को बेहद जानदार बना दिया है।
Sudha jee kii yeh kavita hriday ko jhakjhor jaati hai vakeii halat kitne kharab hain.iske hal dhondhne hii honge poore samaj ko.
बहुत ही मार्मिक, हृदयस्पर्शी कविता
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