सोमवार, 31 दिसंबर 2012

वातायन-जनवरी,२०१३


नए वर्ष में महिलाओं के प्रति सम्मान का संकल्प करें

हम और हमारा समय

पहचानें युवा शक्ति को

रूपसिंह चन्देल

एक  अंतरार्ष्ट्रीय सर्वे के अनुसार बलात्कार के अपराध के मामले में भारत आष्ट्रेलिया और स्वीडन के बाद तीसरे स्थान पर है. जिस देश में प्रत्येक बीस मिनट में एक बलात्कार की घटना घटती है वह तीसरे स्थान पर हो सहज विश्वास नहीं होता. और बीस मिनट के आंकड़े में वे घटनाएं शामिल नहीं हैं जो संज्ञान में नहीं आ पातीं या जिन्हें घर/गांव पंचायत द्वारा दबा दिया जाता है. आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि दिल्ली गैंगरेप की घटना के बाद उफने जनाक्रोश के बावजूद दिल्ली में ही ऎसी घटनाओं पर विराम नहीं लग पा रहा. केवल दिल्ली में ही नवम्बर,२०१२ तक ५८० बलात्कार के मामले दर्ज हो चुके थे. 


१६ दिसम्बर की रात दामिनी दरिन्दों की जिस बर्बरता का शिकार हुई उसने जनता को सड़कों पर उतरने और सत्ताधीशों को लाल पत्थरों की दीवारों के पीछे दुबक जाने के लिए विवश किया. देश की आजादी में पहली बार बिना किसी पार्टी के आव्हान के जनता ने स्वयं सड़कों की ओर रुख किया. अधिसंख्य युवक और युवतियां थे. साथ स्त्रियां,बच्चे और वृद्ध भी थे. उनमें व्यवस्था के प्रति आक्रोश था. स्त्री अस्मिता खतरे में है. वे शांतपूर्ण ढंग से ’हमें न्याय चाहिए’ (We want justice) के नारे लगा रहे थे, लेकिन उन्हें मिली लाठियां, कड़कती ठंड में पानी की तेज बौछारें और आंसू गैस…आंसू गैस के जो गोले उनकी ओर उछाले गए वे तीन-चार वर्ष पुराने थे.

कड़कती ठंड में देश की युवा शक्ति पिट रही थी, लहू-लुहान हो रही थी लेकिन  टस से मस होने को तैयार नहीं थी. उनके इरादे बुलंद थे. और युवाशक्ति से घबड़ायी सत्ता मूकदर्शी थी. उसने प्रदर्शनकारियों के अपने तक  न पहुंचने देने की व्यवस्था कर ली थी. वे सुख की नींद सो सकते थे…क्योंकि असुरक्षित-चिन्तित जनता की उन्हें अभी परवाह करने की आवश्यकता नहीं थी. परवाह करने में कई महीनॊं का वक्त शेष जो है. उन्होंने मान लिया कि हर विरोध कुछ समय पश्चात अपनी मौत स्वयं मर जाता है और इसका परिणाम भी वही होगा. नहीं मरेगा तो अन्ना आन्दोलन की भांति उसे मार देने की जुगत उन्हें आती है. लेकिन इस आन्दोलन को न अन्ना ने खड़ा किया था और न बाबा रामदेव और अरविन्द केजरीवाल ने. यह स्वतः स्फूर्त है. लेकिन इसकी भूमिका अन्ना आन्दोलन द्वारा ही लिखी गयी थी. उस आन्दोलन ने जनता में जाग्रति पैदा करने का काम तो किया ही था. सड़कों पर युवाओं का इसप्रकार उतर आना मैं  उस जाग्रति की आगे की कड़ी मानता हूं.

सड़कों पर प्रदर्शन होते रहे. कई दिनों बाद एक-दो मंत्रियों ने आश्वासन का लालीपॉप थमाने का प्रयास किया. लेकिन युवाशक्ति को फुसलाया नहीं जा सका. दामिनी के बलात्कारियों के लिए मृत्युदंड से कम की सजा उन्हें स्वीकार नहीं. गहरी नींद से सत्ता ने अंगड़ाई ली और  सख्त सजा की बात सामने आई. आनन फानन में दो कमीटियां बनाई गईं. युवाशक्ति को भरोसा नहीं हुआ. उनका प्रदर्शन जारी है. इस बीच दामिनी को सिंगापुर भेजा गया, जहां २९.१२.१२ को उसकी मृत्यु हो गयी और कल अर्थात ३० दिसम्बर,२०१२ को शाम सात बजे गुपचुप तरीके से उसकी अत्येंष्टि कर दी गई. उसकी अंत्येष्टि के समाचार ने मुझमें भगतसिंह की अंत्येष्टि की याद ताजा कर दी. तब ब्रिटिश शासन भी इसीप्रकार हिला हुआ था और उसे भय था कि यदि भगतसिंह की लाश अंत्येष्टि के लिए जनता को सौंपी गयी तो जनाक्रोश को संभालना कठिन होगा. तो भारत सरकार भी क्या ब्रिटिश हुकूमत जैसा व्यवहार कर रही थी. बच्चों के शांतिपूर्ण प्रदर्शन के साथ इंडियागेट और रायसिना हिल्स जाते हुए जो कुछ होता दिखा उसने उस दौर की याद भी ताजा की. इतना सब होने के बाद भी युवाशक्ति की मांग पर गंभीरता से विचार करने के लिए  सरकार तैयार नहीं है.    
युवाओं की मांग है कि कानून में  बलात्कारियों के लिए मृत्युदंड का प्रावधान हो. लेकिन हो यह रहा है कि बलात्कार के लिए बने जस्टिस जे.एस.वर्मा कमीटी के समक्ष संस्थाएं जो ड्राफ्ट प्रस्तुत करने वाली हैं उसमें बलात्कारियों के लिए अधिकतम सजा के तौर पर आजीवन कारावास की मांग की जा रही है. कांग्रेस ने भी जो ड्राफ्ट तैयार किया है उसमें बधियाकरण आर्थात नपुंसक करने या अधिकतम ३० वर्ष की सजा की मांग है. मेरा मानना है कि बधियाकरण बलात्कारी में एक अलग  प्रकार की मानसिक विकृति पैदा करेगा. हर बलात्कारी एक मानसिक विकृति का शिकार होता है. सजा के रूप में उसे नपुंसक बना देने से उसमें जो दूसरी प्रकार की मानसिक विकृति पैदा होगी उसके वशीभूत जेल से बाहर आने के बाद वह अन्य प्रकार के जघन्य अपराध कर सकता है.

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी लड़की/महिला के साथ बलात्कार हत्या से भी अधिक जघन्य अपराध है. बलात्कृत लड़की न जीवित में होती है न मरने में. ऎसी स्थिति में बलात्कारी को फांसी से कम सजा नहीं दी जानी चाहिए. फांसी की सजा के विरुद्ध बोलने वालों का तर्क है कि इससे सुबूत मिटाने के लिए बलात्कारी बलात्कृत की हत्या कर देगा. जब इस सजा का प्रावधान नहीं है तब भी अपराधी ऎसा कर रहे हैं. बलात्कार स्वयं में जघन्य अपराध है---उसे अलग श्रेणी में व्याख्यायित नहीं किया जाना चाहिए. बलात्कार का हर मामला Rarest of the rare माना जाना चाहिए और उसके लिए मृत्युदंड से कम कुछ भी स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए.

लेकिन हम यह भी जानते हैं कि कितने ही नेताओं पर बलात्कार के मामले लंबित हैं और वे भी मृत्युदंड के दायरे में आ जाएगें इसलिए शायद ही कोई राजनैतिक दल सजा के इस प्रावधान के लिए तैयार होगा. भाजपा की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज भले ही अनेक बार इस प्रावधान की मांग संसद से लेकर सड़क तक कर चुकी हैं लेकिन उनकी पार्टी का रुख स्पष्ट नहीं है. स्पष्ट है कि यह उनकी निजी मांग है.

देश में एक लाख से अधिक बलात्कार के मामले लंबित हैं. बलात्कृत को वर्षों-वर्षों से न्याय नहीं मिला. दामिनी के बाद देश के विभिन्न भागों से प्रतिदिन अनेकों ऎसी घटनाओं के समाचार आ रहे हैं. पटियाला, अहमदाबाद, पटना, पश्चिम बंगाल, थाणे, बंगलरू----अर्थात देश का कोई भी हिस्सा ऎसा नहीं है जहां महिलाएं/युवतियां महफूज हों. दामिनी के बाद दिल्ली और उसके आसपास कितनी ही घटनाएं घटित हो चुकी हैं और हो रही हैं. मृत्युदंड के प्रावधान के बाद उन पर बिल्कुल अंकुश लग जाएगा, यह कहना अतिशयोक्ति होगा, लेकिन नियंत्रण पाने में सफलता अवश्य मिलेगी. कानून में छेड़छाड़ के लिए ५ से १५ वर्ष की सजा और बलात्कार के लिए मृत्युदंड का प्रावधान किया जाना चाहिए. केवल किया ही नहीं जाना चाहिए बल्कि उसे तमाम माध्यमों--टी.वी.चैनलों, समाचार पत्रों में विज्ञापनों, गली-मोहल्लों में पोस्टरों द्वारा विज्ञापित भी किया जाना चाहिए. सरकार के साथ निजी संस्थाओं और समाज सेवकों को इसके लिए गंभीर पहल करने की आवश्यकता है. सरकार को सिंगापुर और हांगकांग से सीख लेना चाहिए जहां ऎसे अपराधों के लिए मृत्युदंड की सजा है.


दिल्ली गैंगरेप की चर्चा दुनिया के हर कोने में हो रही है. संयुक्त राष्ट्रसंघ ने इसे क्रूरतम अपराध माना है. देश की छवि दांव पर है. अतः व्यवस्था को सोचना होगा कि बलात्कार जैसे बर्बर कृत्य के लिए बर्बर सजा द्वारा ही नियंत्रण पाया जा सकता है.

युवाशक्ति की मांगों को नकारना एक भारी भूल न सिद्ध हो. यह वह शक्ति है जो सत्ताएं बदल देती है. मिश्र की मिसाल अभी ताजा है.
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वातायन में इस बार प्रस्तुत है वरिष्ठ कथाकार और कवयित्री सुधा अरोड़ा की कविता, कबीरदास का कटाक्ष और पाश की कविता.
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4 टिप्‍पणियां:

अर्चना ठाकुर ने कहा…


आपका लिखा जब भी नज़र में पड़ता है ,मेरे पढ़े बगैर नहीं जाता हूँ..अभी वातायन पढ़ा..क्या आपका ब्लॉग है..पता नहीं पर मेरे लिए तो ज्ञान का भंडार है...स्त्री समाज का तुच्छ प्राणी सदियों से रही है,,ये लंबी जंग है..और आगे भी अनवरत चलने वाली है...हम आप जैसे के सहयोग से ये जंग अब नहीं रुकेगी...

PRAN SHARMA ने कहा…

AAPKEE PRAKHAR LEKHNEE SE EK AUR ULLEKHNEEY LEKH .

Ila ने कहा…

रूप जी ,
आपका आलेख पढ़ा | जब देश की राजधानी दिल्ली का यह हाल है तो छोटे छोटे गाँव - कस्बों की बात कौन करे | फर्क इतना है कि दिल्ली में होने के कारण इस घटना की अनुगूंज पूरे विश्व में सुनाई पड़ी है जो स्त्रियों के पक्ष में वातावरण तैयार कर रहा है वरना स्त्री जीवन का इतिहास तो दबी हुई सिसकियों का इतिहास है |
अमेरिका में तीखी मिर्च पाउडर से बना पेपर स्प्रे - छह इंच की ट्यूब के रूप में - बहुतायत से उपयोग में आता है | कुछ ऐसी ही चीजों का उ पयोग भारत में आत्मरक्षा के लिए स्त्रियाँ करा सकती हैं |
सादर
इला

ashok andrey ने कहा…

chandel main Ila jee kii uprokt tippani se sehmat hoon,lekin inhen mrityudand kii bajae beech chouhrahon par khadaa karke patharon se maarna chahie,jab tak ki inki saans n ruk jaae.shayad tab esee ghatnaon se mukti mil sake.