वरिष्ठ कथाकार-कवि सुभाष नीरव हिंदी में अपने मौलिक लेखन – कहानी, लघुकथा और कविता के लिए जितने जाने जाते है, उतनी ही इन्हें एक सफल अनुवादक रूप में भी प्रतिष्ठा हासिल है। गत तीसेक वर्षों से वह पंजाबी से अनुवाद कार्य से सम्बद्ध रहे हैं और अब तक तीन सौ से अधिक पंजाबी कहानियों, कई उपन्यासों, आत्मकथा, लघुकथा की पुस्तकें हिंदी में अनुवाद कर चुके हैं। हिंदी की प्रमुख कथा पत्रिका “कथादेश” के पंजाबी कहानी विशेषांक में भी इनके महती योगदान की देशभर में प्रशंसा और सराहना हुई। अपने मौलिक लेखन के साथ साथ वह आज भी अनुवाद कर्म में पूरे उत्साह और ऊर्जा से सक्रिय और श्रमरत हैं। इनके अनुवादक पक्ष को लेकर युवा कवयित्री सुश्री अंजना बख्शी ने एक बातचीत अपने पी एचडी के सन्दर्भ में की थी। यहाँ प्रस्तुत है उसी बातचीत का प्रमुख अंश…
“मैं अनुवाद को भी मौलिक सृजनात्मकता का एक हिस्सा मानता हूँ…”-सुभाष नीरव
अंजना बख्शी : आपने अनुवाद के क्षेत्र में पहला कदम कब रखा ? किस कृति अथवा कहानी का अनुवाद आपने सर्वप्रथम किया ?
सुभाष नीरव : जून 1976 में मुझे भारत सरकार के एक मंत्रालय में नौकरी मिली थी। मैं मुरादनगर रहता था और नौकरी के लिए ट्रेन द्वारा दिल्ली आता-जाता था। सुबह-शाम के रेल के सफर में लगभग चार घंटे का समय लगता था। मैं इस समय को पुस्तकें पढ़ कर व्यतीत करता। पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने वाली दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी का मैं सदस्य बन गया था जहां हिन्दी- पंजाबी का प्रचुर साहित्य उपलब्ध है . पंजाबी साहित्य से मेरा वास्ता इन्हीं दिनों पड़ा। कहानी, कविता, उपन्यास मैं ढूंढ़-ढूंढ़ कर पढ़ता। जो रचना मुझे अच्छी लगती उसे मैं हिन्दी में अनुवाद भी करता। इन्हीं दिनों मैंने महिन्दर सिंह सरना की एक कहानी(मटर पुलाव) का अनुवाद किया जो एक रिटायर्ड जज को लेकर लिखी गई खूबसूरत कहानी थी। मैंने उसे उस समय की हिन्दी की चर्चित कथा पत्रिका ''सारिका'' में प्रकाशन के लिए भेजा। कुछ ही दिनों बाद रमेश बत्तरा जी का पत्र मिला। पत्र में मुझे तुरन्त मिलने की बात कही गई थी। मैं बेहद उत्साहित सा उनसे मिलने दरियागंज स्थित ''सारिका'' के कार्यालय में अगले शनिवार को पहुंच गया। किसी भी पत्रिका के कार्यालय में जाने का यह मेरा पहला अवसर था। रमेश बत्तरा हिन्दी के चर्चित और प्रतिभाशाली कथाकार थे। पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद भी करते थे। वह बड़ी सहजता और प्यार से मुझसे मिले। उन्होंने मेरे अनुवाद की प्रशंसा की लेकिन साथ ही सरना जी की उस कहानी को प्रकाशित करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। उन्होंने मुझे निरुत्साहित न होने के लिए कहा और पंजाबी कथाकार भीखी की एक कहानी मुझे ''सारिका'' के लिए अनुवाद करने को दी। उस कहानी को हिन्दी में अनुवाद करने में मुझे काफी दिक्कत पेश आई क्योंकि उसमें बहुत से आंचलिक शब्द थे जिनसे मैं नावाकिफ़ था। पर मैंने हिम्मत नहीं हारी और मैंने शब्दों को लेकर अपने माता-पिता से, पंजाबी के कुछ मित्रों से और शब्दकोषों से सहायता ली और कहानी अनुवाद करके बत्तरा जी को थमा दी। बत्तरा जी ने उसमें थोड़ा-बहुत संशोधन किया और उसे ''सारिका'' में प्रकाशित किया। कहीं भी प्रकाशित होने वाला यह मेरा पहला अनुवाद था।
अंजना बख्शी: आपके अनुवाद करने के क्या मापदंड हैं ? अनुवाद करते समय आप कौन-कौन सी बातों का ध्यान रखते हैं ? एक अनुवादक को किन बातों का ध्यान खासकर रखना चाहिए ?
सुभाष नीरव : आरंभ में मैंने कोई मापदंड नहीं बनाए थे। जैसे-जैसे अनुवाद की ओर मेरा रुझान बढ़ने लगा, मैं अनुवाद को लेकर गंभीर होने लगा। मैंने अपना पहला मापदंड यह सुनिश्चित किया कि पंजाबी की केवल उसी कहानी का मैं अनुवाद करुंगा जो मुझे बेहतरीन लगेगी। चाहे वह किसी बड़े लेखक की कहानी हो या बिलकुल नए लेखक की। मुझे किसी लेखक के नाम से प्रभावित नहीं होना है, उसकी रचना से प्रभावित होना है। जब तक वह रचना मुझे प्रभावित नहीं करेगी मैं उसका अनुवाद नहीं करुंगा। अनुवाद करते समय मेरी यह हर संभव कोशिश रहती है कि रचना के मूल कटेंट को ज़रा भी क्षति न पहुंचे और अनूदित रचना में मूल भाषा की सोंधी महक भी बनी रहे। एक अनुवादक से मैं ऐसी ही अपेक्षा रखता हूँ।
अंजना बख्शी: आपने विभाजन पर आधारित कौन-कौन सी कहानियों का हिंदी में अनुवाद किया है और इन कहानियों का अनुवाद करते समय आपको किन-किन समस्याओं का सामना करना पड़ा ?
सुभाष नीरव : भारत-पाक विभाजन पर आधारित जिन कहानियों ने मुझे बेहद प्रभावित किया और जिनका मैंने हिन्दी में अनुवाद किया, वे इस प्रकार हैं :- महिन्दर सिंह सरना की कहानी ''छवियाँ दी रुत'', कुलवंत सिंह विर्क की कहानी ''खब्बल'', गुरदेव सिंह रुपाणा की कहानी ''शीशा'', मोहन भंडारी की कहानी ''पाड़''। विभाजन की त्रासदी पर लिखी गई ये कहानियाँ कभी न भुलाई जाने वाली बेहद गंभीर कहानियाँ हैं। इन कहानियों के लेखकों ने इस त्रासदी पर चलताऊ और कामचलाऊ ढंग से नहीं लिखा है बल्कि समस्या की तह तक जाकर बहुत ही कलात्मक और सृजनात्मक ढंग से अपनी बात कही है और ये कहानियां न केवल अपने विषय, वरन अपनी प्रस्तुति, अपनी भाषा-शैली और सरंचना में कालजयी कहानियां हैं जो विश्वस्तर की किसी भी बेजोड़ कहानी की टक्कर लेने में सक्षम हैं। ऐसी क्लासिक कहानियों का अनुवाद करते समय मुझ जैसे अनुवादक को यह भय हमेशा बना रहा कि क्या मैं इनके साथ न्याय कर पाऊँगा। ज़रा सी भी छेड़छाड़ अथवा छूट की गुंजाइश इन कहानियों में नहीं है। मुझे उतनी ही जीवन्त भाषा और मुहावरे में मूल कहानी को हिन्दी में प्रस्तुत करना था जितनी के लिए वे हकदार थीं। छवियों की रुत, खब्बल और पाड़ कहानियों ने मुझसे बहुत मेहनत करवाई। एक-एक शब्द, एक-एक पंक्ति की आत्मा में मुझे उतरना पड़ा।
अंजना बख्शी : क्या आपने इन कहानियों का अनुवाद करते समय कुछ जोड़ा-तोड़ा भी है। यदि हाँ तो कहाँ-कहाँ ? कृपया बताएं।
सुभाष नीरव : जी नहीं। मैंने विभाजन से जुड़ी उक्त कहानियों के अनुवाद में जोड़ने-तोड़ने की छूट बिलकुल नहीं ली क्योंकि जैसा कि मैंने ऊपर कहा है, ये कहानियाँ अपनी मूल संरचना में इतनी क्लासिक हैं कि ज़रा सी छेड़छाड़ पूरी कहानी की आत्मा को क्षति पहुंचा सकती है। हाँ, विभाजन विषय से हटकर मैंने जो अब तक लगभग 300 कहानियों का हिन्दी में अनुवाद समय समय पर किया है, उनमें मैं ऐसी छूट लेता रहा हूँ लेकिन जोड़ना-तोड़ना सिर्फ उस सीमा तक ही कि मूल कहानी की आत्मा और उसकी खुशबू क्षतिग्रस्त न होने पाए।
अंजना बख्शी : आपने पंजाबी से हिंदी में अनुवाद करते समय कुछ शब्दों को 'ज्यों का त्यों' रहने दिया है, इस संबंध में कुछ बताएं। क्या समतुल्य शब्दों को भी रखा जा सकता था ? मुहावरेदार भाषा के अनुवाद में आप कैसे ताल-मेल बैठाते हैं ?
सुभाष नीरव : जी हाँ। अगर कुछ शब्दों को मैंने ज्यो का त्यों रहने दिया है तो उसके कुछ कारण रहे हैं। पंजाबी के अनेक शब्द हिन्दी भाषी बखूबी समझते-जानते हैं और बोलते भी हैं। ऐसे शब्दों का अनुवाद करना मैं उचित नहीं समझता और उनको हू-ब-हू हिन्दी में ले लेता हूँ। ये शब्द जब हिन्दी में हू ब-हू आते हैं तो वे अपनी भाषा की महक के साथ आते हैं और दूसरी भाषा को और अधिक समृद्ध बनाते हैं। पंजाबी की ग्रामीण अंचल से सम्बद्ध अनेकों कहानियों में एक शब्द 'फिरनी' आता है, शुरुआती दौर में मैं इस शब्द को हू-ब-हू प्रस्तुत करते समय फुटनोट दिया करता था, परन्तु बाद में मैंने ऐसा करना बन्द कर दिया। ऐसा ही एक शब्द 'पग वट' है। 'सांझ', 'खाल', 'खब्बल' शब्द भी हैं। इनके समतुल्य शब्दों को रखा जा सकता है पर उनके प्रयोग से वह खूबसूरती नहीं आती जो मूल शब्दों को ज्यों का त्यों रख देने में रचना में आती है। आंचलिक शब्दों और मुहावरों का अनुवाद करना सबसे कठिन और दुष्कर कार्य है। ऐसे समय में मैं इस बात पर अधिक ध्यान देता हूँ कि मूल भाषा में कही गई बात अगर मुझे स्वयं हिंदी में कहनी हो और वह भी मुहावरे में कहनी हो तो किस प्रकार कहूँगा। प्रयत्न करने पर रास्ता निकल आता है।
अंजना बख्शी : विभाजन पर आधारित कहानियाँ आपने मूल पंजाबी में पढ़ी हैं अथवा हिन्दी में अनूदित ? दोनों में आपको क्या फर्क नज़र आया?
सुभाष नीरव : मैंने विभाजन से जुड़ी जिन कहानियों का आरंभ में जिक्र किया है, उन्हें मैंने मूल पंजाबी में ही पढ़ा है।
अंजना बख्शी : 'विभाजन का अर्थ संस्कृति का विभाजन नहीं है' इस बात से आप कहाँ तक सहमत हैं ?
सुभाष नीरव : पूर्णत: सहमत हूँ। किसी देश या प्रान्त का विभाजन सीमाओं से जुड़ा भौगोलिक विभाजन होता है। नि:संदेह धरती पर खींची गई लकीरें जनमानस के दिलों पर भी गहरी खरोंचे पैदा करती हैं और उनका दर्द बरसों नहीं जाता। परन्तु, किसी देश की संस्कृति को विभाजित करना इतना सरल कार्य नहीं है।
अंजना बख्शी : अनुवाद के महत्व के बारे में आपके विचार।
सुभाष नीरव : कोई भी व्यक्ति अधिक से अधिक दो या तीन भाषाओं की जानकारी रख सकता है। ऐसी स्थिति में अन्य भारतीय भाषाओं अथवा विश्व की भाषाओं में लिखे जा रहे साहित्य से वह पूर्णत: वंचित रह जाएगा यदि अनुवाद की सुविधा मुहैया न हो। दो भाषाओं के बीच अनुवाद एक महत्वपूर्ण सेतु का कार्य करता है। इसी सेतु से होकर भाषाओं का आदान-प्रदान होता है और वे और अधिक समृद्धवान और शक्तिशाली बनती है और उनके साहित्य के प्रचार-प्रसार में वृध्दि होती है। इस लिहाज से अनुवाद कार्य एक बेहद महत्वपूर्ण कार्य है। कुछ लोग इसे दोयम दर्जे का सृजन मानते हैं किन्तु मैं इसे अपनी मौलिक सृजनात्मकता का ही एक प्रमुख हिस्सा मानता हूँ। शब्द की शक्ति और उसकी उपयोगिता की सही जानकारी आपको अनुवाद करते समय ही ज्ञात होती है। इससे आपका अपना मौलिक लेखन और भी अधिक प्रभावकारी बनता है, ऐसा मेरा मानना है।
अंजना बख्शी : क्या वर्तमान में विभाजन पर जो कहानियाँ लिखी जा रही है, वे उसकी प्रामाणिकता व उसके गहरे दर्द को शिद्दत से उकेरने में सफल हुई हैं ?
सुभाष नीरव : विभाजन विषय पर हाल फिहलाल में लिखी कोई कहानी मेरी नज़र से नहीं गुजरी है, न हिन्दी में और न ही पंजाबी में जो विभाजन की त्रासदी को सम्पूर्णता में रेखांकित करती हों। हाँ, इस त्रासदी का जिक्र कुछ कहानियों में टुकड़ों में मिलता है। अपने समय और समाज से जुड़ा कोई भी लेखक अपने आप को पूरी तरह अतीत से काट कर अलग नहीं रख सकता। अतीत की घटनाएं जो इतिहास में दर्ज हो जाती हैं, वे भी उसे समय समय पर अपनी ओर खींचती हैं और वह अपने ढंग से उन्हें अपनी रचनाओं में अभिव्यक्ति देने का प्रयास भी करता है। 'विभाजन' 'पंजाब संकट' हमारे अतीत से जुड़े ऐसे ही विषय हैं जो समय समय पर अभी भी हमें कुरेदते और लहुलूहान करते रहते हैं। चूंकि हमारी वर्तमान स्थितियों के तार हमारे अतीत से भी जुड़े होते हैं, अत: ये विषय किसी न किसी रूप में हमारे वर्तमान लेखन में भी आ ही जाते हैं।
अंजना बख्शी : बंटवारे का आप पर क्या साहित्यिक प्रभाव पड़ा ?
सुभाष नीरव : देखिए, मेरा जन्म भारत-पाक विभाजन के छह बरस बाद का जन्म है। इस त्रासदी को मैंने न देखा और न ही झेला है। लेकिन मैं उस परिवार में जन्मा हूँ जिसने इस त्रासदी को अपने तन और मन पर बहुत गहरे तक झेला था। मेरे माता-पिता, दादा, नानी, चाचा आदि पाकिस्तान में अपनी जमीन जायदाद, कारोबार आदि छोड़ कर पूरी तरह लुट-पिट कर अपनी देहों पर गहरे जख्मों के निशान लेकर हिन्दुस्तान पहुंचे थे और दर-दर की ठोकरें खाने के बाद उत्तर प्रदेश के एक बेहद छोटे से नगर - मुराद नगर में आ बसे थे क्योंकि यहाँ स्थित एक सरकारी फैक्टरी (आर्डिनेंस फैक्टरी) में उन दिनों मजूदरों की भर्ती हो रही थी। यहाँ जब मेरे पिता और मेरे चाचा को लेबर के रूप में नौकरी मिल गई और रहने को सर्वेन्ट क्वार्टर तो वे उसी में संतुष्ट हो गए। उन्होंने सरकार से कोई क्लेम नहीं किया। मेरे पिता प्राय: 80 वर्ष की उम्र में भी सोये-सोये डर जाते थे और 'न मारो, न मारो' 'बचाओ-बचाओ' की आवाजें लगाने लगते थे। टी. वी. पर भीष्म साहनी के उपन्यास पर आधारित ''तमस'' सीरियल को देखकर वे रो पड़ते थे। दादा के शरीर पर कोई ऐसा हिस्सा नहीं था, जहां कट न लगा हो। कुल्हाड़ियों-बर्छियों के घावों से दादा, चाचा और पिता का शरीर बिंधा पड़ा था पर किस्मत थी कि वे जिन्दा बच गए थे। जब मैं छोटा था, अपनी बहन के संग दादा, नानी, चाचा और पिता से रात को सोते समय विभाजन के किस्से सुना करता था। हमारी सांसें रुक जाती थीं और रोंगटे खड़े हो जाते थे उन किस्सों को सुनकर। ये किस्से आज भी मुझे उद्वेलित करते हैं। बहुत कुछ है जो इस विषय पर मुझे लिखने के लिए निरन्तर उकसाता रहता है। देखें, इसमें कब सफलता मिलती है।
अंजना बख्शी : इन दिनों आप क्या कर रहे हैं ? अभी तक आपने कितनी कृतियों का हिंदी में अनुवाद किया है ? ऐसी कोई कृति जिसका अनुवाद करते समय आपको दिक्कतें-परेशानियाँ आई हों ?
सुभाष नीरव : इन दिनों अपने मौलिक लेखन के साथ-साथ पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद कार्य नेट पर अपने ब्लॉगों के लिए कर रहा हूँ। अनुवाद से जुड़े मेरे दो ब्लॉग्स है- “सेतु साहित्य” और “कथा पंजाब”। “सेतु साहित्य” में जहाँ पंजाबी साहित्य के साथ देश और विश्व की अन्य भाषाओं के उत्कृष्ट साहित्य का अनुवाद प्रस्तुत होता है जिसमें पंजाबी रचनाओं का अधिकांश अनुवाद मैं स्वय करता हूँ। “कथा पंजाब” विशुद्ध रूप से पंजाबी कथा साहित्य के हिंदी अनुवाद से जुड़ा ब्लॉग है जिसकी परिकल्पना कुछ बड़े पैमाने पर की गई है। इसमें “पंजाबी कहानी : आज तक”, “पंजाबी लघुकथा : आज तक” “स्त्री कथा लेखन : चुनिंदा कहानियाँ” “उपन्यास” “आत्मकथा” “रेखा चित्र” और “लेखक से बातचीत” लम्बे समय तक चलने वाले स्तम्भ हैं जिनके लिए रचनाओं के चयन से लेकर उसके हिंदी अनुवाद तक का सारा कार्य मैं स्वयं करता हूँ। इन दिनों तीन उपन्यासों, एक आत्मकथा के साथ साथ युवा कथाकारों की कहानियों के अनुवाद में संलग्न हूँ।
जहाँ तक पंजाबी से हिंदी में अब तक किए अनुवाद की बात है, सूची लम्बी है। फिर भी, संक्षेप में इतना कि मैं पंजाबी से हिंदी में एक दर्जन से अधिक पुस्तकों का अनुवाद कर चुका हूँ जिनमें से प्रमुख कृतियाँ हैं - पंजाब आतंक पर पंजाबी की चुनिंदा कहानियों का संग्रह ''काला दौर'', नेशनल बुक ट्रस्ट की दो पुस्तकें - ''कथा पंजाथ-2'' और '' कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियां'', पंजाबी लघुकथा की चार पीढ़ियों की लघुकथाओं की पुस्तक ''पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं'' जिन्दर का कहानी संग्रह ''तुम नहीं समझ सकते'', जतिन्दर सिंह हांस का कहानी संग्रह ''पाये से बंधा हुआ काल'', हरजीत अटवाल का बहुचर्चित उपन्यास ''रेत'' तथा बलबीर माधोपुरी द्वारा लिखित पंजाबी की पहली दलित आत्मकथा ''छांग्या रुक्ख'' आदि।
अनुवाद में सबसे अधिक दिक्कत बलबीर माधोपुरी की आत्मकथा ''छांग्या रुक्ख'' में आई। यह मेरे लिए एक चुनौती भरा काम था। पंजाब की ग्रामीण आंचलिक भाषा के चलते मुझे अनुवाद के कई ड्राफ्ट बनाने पड़े, लेखक को पास बिठा कर घंटों बहस करनी पड़ी, पंजाबी के कई विद्वानों-मित्रों से विचार-विमर्श करना पड़ा तब कहीं दो-ढाई वर्ष की मेहनत के बाद इस पुस्तक के अनुवाद को अन्तिम रूप दे सका। इस पुस्तक के अनुवाद में जिस सुख और आत्मतुष्टि का अहसास हुआ है, वैसा अहसास अभी तक किसी अन्य पुस्तक के अनुवाद में नहीं हुआ।
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जहाँ तक पंजाबी से हिंदी में अब तक किए अनुवाद की बात है, सूची लम्बी है। फिर भी, संक्षेप में इतना कि मैं पंजाबी से हिंदी में एक दर्जन से अधिक पुस्तकों का अनुवाद कर चुका हूँ जिनमें से प्रमुख कृतियाँ हैं - पंजाब आतंक पर पंजाबी की चुनिंदा कहानियों का संग्रह ''काला दौर'', नेशनल बुक ट्रस्ट की दो पुस्तकें - ''कथा पंजाथ-2'' और '' कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियां'', पंजाबी लघुकथा की चार पीढ़ियों की लघुकथाओं की पुस्तक ''पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं'' जिन्दर का कहानी संग्रह ''तुम नहीं समझ सकते'', जतिन्दर सिंह हांस का कहानी संग्रह ''पाये से बंधा हुआ काल'', हरजीत अटवाल का बहुचर्चित उपन्यास ''रेत'' तथा बलबीर माधोपुरी द्वारा लिखित पंजाबी की पहली दलित आत्मकथा ''छांग्या रुक्ख'' आदि।
अनुवाद में सबसे अधिक दिक्कत बलबीर माधोपुरी की आत्मकथा ''छांग्या रुक्ख'' में आई। यह मेरे लिए एक चुनौती भरा काम था। पंजाब की ग्रामीण आंचलिक भाषा के चलते मुझे अनुवाद के कई ड्राफ्ट बनाने पड़े, लेखक को पास बिठा कर घंटों बहस करनी पड़ी, पंजाबी के कई विद्वानों-मित्रों से विचार-विमर्श करना पड़ा तब कहीं दो-ढाई वर्ष की मेहनत के बाद इस पुस्तक के अनुवाद को अन्तिम रूप दे सका। इस पुस्तक के अनुवाद में जिस सुख और आत्मतुष्टि का अहसास हुआ है, वैसा अहसास अभी तक किसी अन्य पुस्तक के अनुवाद में नहीं हुआ।
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अंजना बख्शी
जन्म : 5 जुलाई 1974, दमोह(मध्य प्रदेश)
शिक्षा : एम. फिल. (हिन्दी अनुवाद), एम.सी.जे. (जनसंचार एवं पत्रकारिता)
प्रकाशन : कादम्बिनी, कथादेश, अक्षरा, जनसत्ता, राष्ट्रीय-सहारा तथा अनेक राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन। नेपाली, तेलेगू, उर्दू, उड़िया और पंजाबी में कविताएं अनूदित। “गुलाबी रंगोंवाली वो देह” पहला कविता संग्रह वर्ष 2008 में प्रकाशित।
सम्मान : ‘कादम्बिनी युवा कविता’ पुरस्कार, डॉ. अम्बेडकर फैलोशिप सम्मान।
सम्प्रति : जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में शोधरत।
संपर्क : 207, साबरमती हॉस्टल,जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी,नई दिल्ली–110067
दूरभाष : 09868615422
ईमेल : anjanajnu5@yahoo.co.in
जन्म : 5 जुलाई 1974, दमोह(मध्य प्रदेश)
शिक्षा : एम. फिल. (हिन्दी अनुवाद), एम.सी.जे. (जनसंचार एवं पत्रकारिता)
प्रकाशन : कादम्बिनी, कथादेश, अक्षरा, जनसत्ता, राष्ट्रीय-सहारा तथा अनेक राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन। नेपाली, तेलेगू, उर्दू, उड़िया और पंजाबी में कविताएं अनूदित। “गुलाबी रंगोंवाली वो देह” पहला कविता संग्रह वर्ष 2008 में प्रकाशित।
सम्मान : ‘कादम्बिनी युवा कविता’ पुरस्कार, डॉ. अम्बेडकर फैलोशिप सम्मान।
सम्प्रति : जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में शोधरत।
संपर्क : 207, साबरमती हॉस्टल,जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी,नई दिल्ली–110067
दूरभाष : 09868615422
ईमेल : anjanajnu5@yahoo.co.in
9 टिप्पणियां:
अंजना बख्शी द्वारा लिया गया भाई सुभाष नीरव का साक्षात्कार बहुत अच्छा और अनुवाद विषयक बहुत सारी विशेषताओं को प्रस्तुत करता
है।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
अनुवाद की प्रकृति को समझने के लिए भी यह एक महत्वपूर्ण बातचीत है। सुभाष ने स्वाभाविक सहजता से अंजना बख्शी के सवालों के जवाब दिये हैं। अनुवाद को रचनात्मक कार्य माननेवाली उनकी बात मूल लेखक के अहं को चोट पहुँचानेवाली महसूस हो सकती है। हर लेखक इस इच्छा के बावजूद भी कि उसकी रचनाएँ अनुवाद के जरिए व्यापक पाठक समुदाय तक पहुँचें, अनुवादक की रचनात्मक-शक्ति की प्रशंसा करने से कतराता है; जबकि अनेक अनुवादों के बारे में तो नि:संकोच कहा जा सकता है वे मूल रचना की तुलना में कहीं बेहतर रचना बन सके हैं।
कुल मिलाकर, अनुवाद पर और सुभाष की अनुवाद-प्रक्रिया पर उल्लेखनीय बातचीत प्रस्तुत करने के लिए अंजना बख्शी व वातायन दोनों को साधुवाद।
CHUNKI SUBHASH NEERAV BAHUT BADHIYA
ANUVAADAK AUR PUNJABI SAHITYA KAA
UNKA ANUWAD MUJHE MAULIK RACHNA
JAESA AUR KABHEE-KABHEE US SE BHEE
BADH KAR LAGAA HAI ISLIYE ANUWAD KE
BAARE MEIN UNKAA KATHAN DIL KO
CHHOOTAA HAI.
अंजना बक्शी ने सहज प्रश्न किये हैं अनुवाद के विषय में नीरव जी ने उत्तर भी सहज दिए जो अनुभव से उपजे हुए आनंदित करते हैं.नव वर्ष के अवसर पर अंजना बक्शी और नीरव जी कोबधाई.
अंजना बक्षी जी ने अनुवाद के सम्बन्ध में बहुत ही सार्थक प्रश्न किये हैं.इन प्रश्नों में गहरी जिज्ञासा झलकती है,जो इस साक्षात्कार की शक्ति है.नीरव जी के उत्तर भी सहज हैं अनुवादक वही अच्छा होता है जो सहजताओं को पहचानता है.नीरव के अनुवाद में रचना सी सृजनात्मकता इसी के कारण है .मैं अंजना बक्षी एवं नीरव जी ,दोनों को हार्दिक बधाई देताहूँ.9818032913
ाँजना बख्शी जी दुयारा श्री सुभाश निरव जी का साक्षात्कार बहुत अच्छा लगा धन्यवाद्
साक्षात्कार अच्छा लगा, बढ़िया प्रश्न और सधे हुए उत्तर ...
bahut hi badhiyaa saakshatkaar
achchhi baatacheet. badhai!
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