हम और हमारा समय
उत्सवप्रिय देश की विडबंना
रूपसिंह चन्देल
भारत केवल कृषि प्रधान ही नहीं उत्सव प्रधान देश भी है । अनेक जातियों, धर्मों और सम्प्रदायों के इस देश में उत्सवों के अनगिनत अवसर उपलब्ध हैं। एक प्रकार से पूरे वर्ष ही यहां उत्सव होते रहते हैं। तेंतीस करोड़ देवाताओं वाले इस देश में कितने ही देवताओं की जयंतियां मनाई जाती हैं ..... हनुमान जयंती से लेकर गणेशोत्सव तक…जगन्नाथ रथ-यात्रा निकलती है तो राम रथ-यात्रा क्यों न निकले ! वाल्मीकि जयंती है तो महावीर जयंती भी है। महात्मागांधी जयंतीं है तो आम्बेडकर जयंती भी है। हर धर्म -सम्प्रदाय के त्यौहार हैं तो चार माह तक चलने वाले महाकुंभ भी … जब कुंभ नहीं तब भी पुष्कर से लेकर प्रयाग तक कितने ही घाटों में जनसमुदाय वर्ष में कितनी ही बार दूषित जल में डुबकी लगा पाप-प्रक्षालन की आशा करते हुए परलोक सुधरने का भ्रम पालता है। सूची बहुत लंबी है। दुनिया में भारत ही एक मात्र देश है जहां पूरे वर्ष उत्सव होते रहते हैं। यह सिध्द करता है कि देश की आबादी का बड़ा भाग दीन-दुनिया से बेखबर है। इसके अतिरिक्त आबादी का एक बड़ा भाग तथाकथित महात्माओं और आसारामों जैसे ढोंगी संतों के हवाले है। कुछ को पाखंडी पंडितों ने अपने छद्म जाल में फंसा लिया है और रात्रि जागरण और रामचरित मानस के अखंड पाठ द्वारा उनके लोक-परलोक सुधरने का उन्हें दिवास्वप्न दिखाते रहते हैं।
हकीकत यह है कि यहां सभी अपने लिए जी रहे हैं। रिक्शावाले से लेकर प्रोफेसर तक … चपरासी से लेकर सेक्रेटरी तक और संत्री से लेकर मंत्री तक। देश के लिए कौन जी रहा है यह बता पाना कठिन है। जो देश के लिए जिए उन्हें कृतघ्नतावश हमने भुला दिया। चूंकि सब अपने लिए जी रहे हैं इसलिए राष्ट्रीय भावना छीज चुकी है। जब राष्ट्रीय भावना ही नहीं शेष तब राष्ट्रभाषा की बात कौन करे! जब गुजरात हाईकोर्ट ने देश की राष्ट्रभाषा पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया तब कुछ हलचल हुई लेकिन जहां यह हलचल होनी चाहिए थी वहां सन्नाटा व्याप्त है।
सुरेश कछाड़िया की जनहित याचिका (जिसमें कछाड़िया ने वस्तुओं की पैकिगं पर वस्तु के मूल्य, उत्पादन तिथि आदि के विवरण हिन्दी में भी लिखे जाने की मांग की थी) का निस्तारण करते हुए गुजरात हाई कोर्ट के मुख्य नयायाधीश एस.जे. मुखोपाध्याय और जस्टिस ए.एस. दवे की बेंच ने स्पष्ट कहा कि हिन्दी को सरकारी भाषा के रूप में ही स्वीकार किया हैं, उसके राष्ट्रभाषा होने का नोटीफिकेशन सरकार ने कभी जारी नहीं किया। अत: हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं है। आज तक हममें से अधिकांश… संभव है सभी… इसी मुगालते में थे कि हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है। किसी देश के लिए इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि उसकी अपनी कोई राष्ट्रभाषा ही न हो। पूरा विश्व जानता है कि हिन्दी करोड़ों लोगो द्वारा बोली, लिखी-पढ़ी जाने वाली भाषा है… चीनी, अंग्रेजी के बाद हिन्दी भाषियों की संख्या है। उसके जानकार पूरे विश्व में फैले हुए हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ में उसकी स्वीकृति के लिए हमारे राजनीतज्ञों में छटपटाहट है, लेकिन राजनैतिक दबावों के कारण आजादी के बासठ वर्षों बाद भी उसे राष्ट्रभाषा का दर्जा दिए जाने की उदासीनता उनमें व्याप्त है। लेकिन तमाम सरकारी उत्सवों की भांति हिन्दी का उत्सव मनाने की परम्परा में कोई बाधा नहीं है।
प्रतिवर्ष 14 सितम्बर का दिन हिन्दी दिवसोत्सव के लिए सुरक्षित कर दिया गया है। यह भी कितनी बड़ी विडम्बना है कि करोड़ों लोगों की भाषा को कामकाज की भाषा बनाने के प्रयत्न में इन बासठ वर्षों में अरबों रुपए पानी की तरह बहा दिए गए और हिन्दी में कामकाज दो प्रतिशत ही आगे बढ़ा। इसके लिए ब्यूराक्रेट्स जितना दोषी हैं, मंत्री -नेता उससे कम दोषी नहीं हैं। सरकारों में इच्छाशक्ति का अभाव रहा है और आज भी है, क्योंकि उसके मंत्री-नेता अंग्रेजी मानसिकता से बाहर नहीं निकल पाए। अंग्रजों की शासन प्रणाली उन पर हावी है। जब जनता के नुमाइन्दे बहुजन की भाषा के विषय में नहीं सोचते तब ब्यूरोक्रेट्स, जिन्हें ब्राउन अंग्रेज कहा जाता है, क्यों सोचने लगे ! वे अंग्रेंजो के मानस-पुत्र जो हैं। उनकी हर नीति हिन्दी विरोधी होती है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रभाषा के विषय में कौन सोचे!
बांग्लादेश सरकार ने आजादी के कुछ वर्षों बाद 'बांग्ला भाषा' को राष्ट्रभाषा घोषित करते हुए अपने अफसरों-कर्मचारियों के लिए समय सीमा निश्चित कर दी थी कि यदि अमुक समय-सीमा में वे बांग्ला भाषा में काम करना नहीं सीख पाए तब उन्हें नौकरी से त्याग-पत्र देना होगा। सरकार की राजनैतिक इच्छाशक्ति के समक्ष नोकरशाहों को झुकना पड़ा था। चीन दो हजार भाषाओं का देश है, लेकिन वहां चीनी राष्ट्रभाषा है। अपनी भाषा के रथ पर सवार चीन आज दुनिया की दूसरी आर्थिक महाशक्ति है। परमाणु-शक्ति तो वह है ही और भारत के लिए हर दृष्टि से चुनौती बनता जा रहा है।
इस देश के अधिसंख्य लोगों को पांखंडों, कर्मकांडों, उत्सवों, आदि में व्यस्त रखने का इसलिए षडयंत्र रचा जाता है जिससे एक सीमित वर्ग सत्ता सुख भोगता रह सके। यह सीमित वर्ग राजनेताओं और ब्यूरोक्रेट्स का है।
हिन्दी की परवाह करने वाले कुछ लोग, जिनमें साहित्यकार और पत्रकार भी हैं, आपसी राजनीति और उठा-पटक में इतना निमग्न हैं कि कभी-कभी ही इनमें से कोई सोते से हल्का-सा जाग कुछ बुदबुदा देता है और फिर सो जाता है। इस मुद्दे को संस्थागतरूप से आन्दोलनात्मक ढंग से कभी नहीं उठाया गया। 14 सितम्बर के आसपास कुछेक आलेख छप-छपाकर इतिश्री हो लेती है और राजनीतिज्ञों और ब्यूरोक्रेट्स का नापाक खेल जारी है। यदि हम बात करें विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों की तो उन्हें इस बात के लिए फुर्सत कहां है! उनका ध्यान इस गंभीर मुद्दे से कहीं अधिक इस बात पर केन्द्रित रहता है कि उनकी स्वतंत्रता में कोई बाधा न पड़ने पाए। हाजिरी की बॉयोमेट्रिक व्यवस्था के विरोध में दिल्ली विश्वविद्यालय के आठ हजार शिक्षक लामबध्द हो सकते हैं और कुछ ऐसे ही अन्य मुद्दों पर देश के सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के शिक्षक हड़ताल पर जा सकते हैं और सरकार को घुटने टेकने के लिए विवश कर सकते हैं, लेकिन देश की अस्मिता से जुड़े राष्ट्रभाषा के संवेदनशील प्रश्न पर उनके कान पर जूं तक नहीं रेंगती।
आखिर इस अहम विषय पर दुनिया के समक्ष देश कब तक शर्मसार होता रहेगा ! यह अब हर जागरूक और संवेदनशील नागरिक के सोचने का विषय है।
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वातायन के इस अंक में प्रस्तुत हैं चर्चित कथाकार और कवयित्री इला प्रसाद की पांच कविताएं और वरिष्ठ कथाकार कृष्णबिहारी की कहानी ’बाहरी’.
आशा है अंक आपको पसंद आएगा . आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी.
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4 टिप्पणियां:
हिन्दी को सरकारी भाषा के रूप में ही स्वीकार किया हैं, उसके राष्ट्रभाषा होने का नोटीफिकेशन सरकार ने कभी जारी नहीं किया। अत: हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं है।
ये तो मेरे लिये नई जानकारी है । और शर्मसार कर देने वाली भी। क्या हमारे देश के राज नेता इतने कर्महीन हो चुके हैं कि इस बात पर कभी गम्भीरता से सोचा हे नहीं किसी देश की अपनी राष्ट्र भाषा का ना होना उस देश का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है। हिन्दी प्रेमियों को सरकार पर दवाब बनाना चाहिये। धन्यवाद आपने एक जागरुक नागरिक की तरह इसे लोगों के समक्ष रखा
Roop jee,aapne apne sampaadkiy
aalekh mein karee-kharee baat kee
hai.Hindi kee chinta aap jaese
chand log hee kar rahe hain.Shesh
sabhee hmaam mein nange hain.Desh
ho yaa videsh ho hmare sabhee
neta -abhinetaa angrezee mein bolne
mein garv mahsoos karte hain.Jaesa
raja vaesee praja.Praja ka yah
haal hai ki ve apne bachchon ko angrezee maadhyam skoolon mein
bhejne par vivash hai.Hindi yaa
hamaaree prantiy bhashayen rozee-
rotee kaa zariya hotee to aesa
kabhee nahin hota.Aawaz paida honee
chahiye-- " hamaaree bhasha rozee-
rotee kee bhasha ho."
Ye sabhee hindi diwas
manaanaa band hone chahiye.Duniya
ke kisee desh mein Hindi ke alaava
kisee bhasha kaa diwas nahin manaya jaataa hai.
सत्ता पर काबिज लोगों में कठोर निर्णय लेने की क्षमता शुरू से ही नहीं रही। गोरे अंग्रेजों से काले अंग्रेजों को सत्ता आम भारतीय को सड़क पर उतारकर मिली। इसलिए ये उस आम आदमी के पुन: सड़क पर उतर आने की धमकीभर से डर जाते हैं कि कहीं सत्ता हाथ से न खिसक जाए। यही कारण है कि हिन्दी अपना वह स्थान नहीं पा सकी जो अपेक्षित था। नेहरूजी की बदौलत हिन्दी के अंक सरकारी कामकाज से गायब हैं ही, वर्तमान सत्ताधारियों की बदौलत देवनागरी अक्षर भी पूरी तरह गायब हो जायें तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए। हिन्दी पखवाड़ा या हिन्दी सप्ताह कुछ भांड किस्म के कवियों के पेट और वैसे ही कुछ ब्यूरोक्रेट्स की पेटियाँ भरने का उत्सव बनकर रह गये हैं। हिन्दी के नाम पर ये नाटक तुरंत बन्द होने चाहिएँ।
भारत के सम्विधान की आधी अधूरी जानकारी रखने वाले आम जन यदि ऐसा कहें तो समझ में आता है, किन्तु.....|हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित कर ही भारत को आजादी मिली थी | हाँ, बाद में जरूर इसे स्थगित किया गया और आरम्भ में यह अवधि केवल 5 सालों की थी | वे पांच साल यदि आज तक नहीं बीते तो उसकी वजह भी यही लोग हैं जो आज हिंदी को राष्ट्र भाषा स्वीकारना ही नहीं चाहते | तब भी इस के विरुद्ध याचिका तो दायर की ही जा सकती है | देखें की हमारे विद्वान न्यायाधीश क्या कहते हैं|
इला
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