हम और हमारा समय
धर्म , परंपरा , बाजारवाद और भ्रष्टाचार
रूपसिंह चन्देल
पिछले तीस वर्षों में और विशेषरूप से एन.डी.ए. सरकार के दौरान धर्म और परंपरा के नाम पर बाजारवाद ने तेजी से पैर फैलाए जिससे साधारणजन भी अप्रभावित नहीं रहा . पहले उपहारों का आदान-प्रदान सम्पन्न लोगों के चोंचले माने जाते थे , लेकिन आज हर व्यक्ति 'गिफ्ट' खरीदने के लिए पंक्ति में खड़ा दिखाई देता है भले ही उसे कर्ज लेना पड़ा हो . इस बाजारवाद ने अमीर-गरीब के बीच की खाई और चौड़ी की है . कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि जब उत्पादन बढ़ता है तब रोजगार के अवसर भी उपलब्ध होते हैं , लेकिन उत्पादन बढ़ने से मजदूर की जेब का वजन नहीं बढता . हां , उत्पादक और उसे बेचने वाले का खजाना अवश्य बढ़ रहा होता है . यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि दुकानों में काम करने वाले सेल्स ब्वॉय को एक हजार से लेकर ढाई हजार रुयए तक ही वेतन मिलता है , और यह यदि कानपुर-पटना की हकीकत है तो यही हकीकत दिल्ली -मुम्बई की भी है . लाला अपनी तोंद पर हाथ फेरता रहता है और लेबर सुबह आठ बजे से रात नौ बजे तक एक पैर पर खड़ा काम करता रहता है . फैक्ट्रियों में काम करने वालों को पांच-छ: हजार से अधिक वेतन नहीं मिलता , जबकि उद्योगपति के खातों में करोड़ों जुड़ते जाते हैं .
बाजारवाद ने परंपराओं को भी विकृत किया है . पहले होली-दीवाली और दशहरा में लोग एक-दूसरे से प्रेमपूर्वक मिलते थे . आज लोग उपहार लादे रिश्तेदारों , मित्रों और परिचितों के यहां जाते हैं और उपहार पकड़ा (यदि उसे फेकना कहा जाए तो अधिक उपयुक्त होगा और अब प्राय: यह काम नौकरों को सौंप दिया गया है ) उल्टे पांव लौट लेते हैं . वास्तविकता यह है कि उपहार देने की परंपरा बढ़ी है , प्रेम घटा है . गरीबों की संख्या बढ़ी है तो अमीरों की संख्या में भी अप्रत्याशित वृध्दि हुई है . इसने धार्मिक पाखंडियों के बाजार को भी गर्माया है . गली , चौराहों और नुक्कड़ों पर ऐसे लोगों की दुकानें सज गई हैं जो न केवल भविष्य विचारते हैं बल्कि पूजा-पाठ द्वारा लोगों की समस्याओं के समाधान भी सुझाते हैं . कल तक जो राहजनी , छेड़छाड़ करते थे आज वे तिलक लगाकर भविष्यवक्ता बन बैठे हैं . इन पोंगा-पंडितों ने लोगों मेें इस कदर धर्मभीरुता पैदा कर दी है कि हर दूसरा व्यक्ति अपनी जन्म कुण्डली थामें उनकी चौखट पर मत्था टेक रहा होता है . इनके द्वारा बताए गए अनुष्ठानों के परिणामस्वरूप टनों कचरा यमुना-गंगा के हवाले होता रहता है और सरकारों से लेकर विश्वसंस्थाएं उनकी सफाई के लिए करोड़ों रुयए खर्च करती रहती हैं , लेकिन गंगा-यमुना का गंदा होना बदस्तूर जारी है . इसका मुख्य कारण यह है कि इनकी सफाई के लिए मिलने वाली राशि केवल कागजों में ही खर्च होती है . वह धन जाता कहां है यह बात नेता और अफसर ही बता सकते हैं .
धर्मभीरुता का विद्रूप उदाहरण इससे बड़ा क्या हो सकता है कि एक नेता ने बावन करोड़ का सोने का छत्र तिरुपति मंदिर को और अभी हाल में आंध्र के किसी व्यापारी ने नौ किलो सोना किसी मंदिर को दान किया . आयकर विभाग ने इनके खिलाफ क्या कार्यवाई की यह तो पता नहीं , लेकिन क्या यह उचित नहीं होता कि जिस देश में गरीबों के बच्चों को उचित शिक्षा नहीं मिल पा रही इस धन का उपयोग उस कार्य के लिए किया जाता . यदि देश के समस्त मंदिरों के अकूत धन को अधिग्रहीतकर सरकारें ईमानदारी से उसका उपयोग शिक्षा के लिए करें तो शायद हम दुनिया में अपने वास्तविक विकास के झण्डे अवश्य गाड़ सकने में सफल हो सकते हैं ; लेकिन अपने हितार्थ पंडितों-पाखंडियों ने लोगों को इतना धर्मभीरु बना दिया है कि उनके पूजा-पाठ के बिना लोग एक कदम बढ़ना नहीं चाहते . जिन्हें बिग बी के नाम जाना जाता है उन्होंने जनता के सामने जो उदाहरण प्रस्तुत किया वह अफसोसजनक ही कहा जाएगा . मैं उनसे जानना चाहता हूं कि जो लोग प्रेम विवाह करते हैं और पंडितों के पाखंड में नहीं पड़ते उनमें कितनों के जीवन तबाह हुए और जिनके होने होते हैं उन्हें पंडितों के धर्मान्ध पाखण्ड कभी नहीं बचा सकते . ऐसा लगता है कि हम पुन: मध्यकाल की ओर लौट रहे हैं जब किसी विदेशी आक्रमण का सामना करने के लिए राजा अपने बाम्हण आमात्य और राजपुरोहित के पीछे चलता था . अपनी शक्ति की देवी के आव्हान में घण्टों पूजा करने के बाद जब तक वह युध्द के लिए प्रस्थान करता था शत्रु उसके चौखट पर उपस्थित होता था . जैसे कि आज चीन चारों ओर से हमें घेरता जा रहा है और पंडितों-पाखण्डियों और धर्म गुरुओं ने सभी को पाखंड और परम्पराओं के ऐसे नशे में डुबा दिया है कि छोटे से लेकर बड़े तक केवल अपने लिए भयभीत है . जिन कुछ को देश की चिन्ता है वे अधिक कुछ कर नहीं पा रहे या उन्हें करने नहीं दिया जा रहा . इन्हीं के मध्य एक और वर्ग पनप रहा है जो न धर्म के विषय में सोचता है न देश के विषय में . ये वे नेता और ब्यूरोक्रेट हैं जो बेफिक्र होकर देश को लूट रहे हैं . अत: पाखंडियों - पंडितों , धर्मगुरुओं , भ्रष्ट नेताओं और ब्यूरोक्रेट्स के बीच लुट और पिस आम जनता ही रही है . वर्तमान हालात यह संकेत दे रहे हैं कि यह सिलसिला आगे दशकों तक बंद होने वाला नहीं है और इस स्थिति में विकास की दौड़ में हम कहां खड़े होगें यह सोचा जा सकता है .
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वातायन के इस अंक में प्रस्तुत है वरिष्ठ गज़लकार - कथाकार प्राण शर्मा की कहानी; वरिष्ठ गीतकार-गज़लकार महावीर शर्मा की कविताएं और मेरे द्वारा अनूदित और ’संवाद प्रकाशन’ मुम्बई/मेरठ से शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ’लियो तोल्स्तोय का अंतरंग संसार’ से तोल्स्तोय पर उनके मित्र आई.आई.मेक्नीकोव का संस्मरण.
आशा है अंक आपको पसंद आएगा.
आशा है अंक आपको पसंद आएगा.
9 टिप्पणियां:
' वातायन ' की जितनी भी प्रशंसा करूँ , वह कम होगी....बस यूँ कहूँगी कि मैं भी इससे जुड़ना चाहूँगी
शुभकामनायें .
भाई चंदेल जी,आप ने बहुत ही सार्थक प्रश्न उठाये हैं.किसी भी जिन्दा समाज की पहचान ऐसे ही सवाल होते हैंऔर हम निरंतर इनसे कट कर चलते हैं.अंध विश्वास किसी भी समाज का और राष्ट्र का दुर्भाग्य होता है.आप को धन्यवाद.
बहुत बढ़िया और सठिक लिखा है आपने! आपकी लेखनी को सलाम! इस बेहतरीन पोस्ट के लिए बधाई!
भाई चन्देल, यूँ तो तुम्हारा हर सम्पादकीय कुछ प्रश्नों को लेकर दमदार तरीके से अपनी बात कहता है पर "वातायन" के इस अंक में तो तुमने कमाल कर दिखाया। बधाई !
priya chandel tumhaara sampaadkiya padaa tumne usme kaaphee achchhe mudde oothae hain jin par har vyktee ko apne samaajik mulyon ke saath apne avdano ko nye seere se vishleshit karnaa hogaa tabhee samaj kee is pakhandee soch ko dharashaaee karne mai saksham ho payenge yeh chintaa sirph tumhaaree hee nahee balki poore samaaj kee honee chahye tabhee sadandh chhodti vayaysthaa kaa nirakaran ho payegaa mai tumhaaree ischintaa ko samajh saktaa hoon lekin pehlaa kadam is dishaa kee taraph koun oothaaegaa yahee mukhya sawaal hai aaj jo ham sabhee jo udvelit kartaa hai
mai tumhe badhai detaa hoon aakhir tum is dishaa kee aur sawaal to oothaa rahe ho
ashok andrey
AAPKE SAMPAADKIY LEKH MEIN SADAA
SMAAJ AUR DESH KE NAAM KOEE N KOEE
VICHARNIY BAAT HOTEE HAI.AAJ
PAKHANDIYON ,PONGA PANDITON ,
DHARMGURUON AUR BHRASHT RAJNETAAON
KAA BOLBAALAA HAI.KOEE RAHBAR NAHIN
HAI .KISEE NE SACH HEE KAHAA THA-
JAESA RAJA VAESEE PRAJA.
७ नवम्बर को 'प्रथम शिक्षण संस्था' का कार्यक्रम था, हम उस के द्वारा अपने शहर से ही $२५०,००० इकट्ठे करके देतें हैं और पूरे अमेरिका से जो पैसा इकठ्ठा होता है उससे ३४ मिलियन बच्चे पढ़ते हैं...आप सोचेंगे कि मैं यह क्या बात लिख रही हूँ और क्यों लिख रही हूँ ? यह सब बताने का क्या औचित्य है ? रूप जी, आप के सम्पादकीय (आलेख ) में जो मुद्दे ,जो बातें उठाई गईं वहाँ भी उठाई गईं..हम यहाँ से जब पैसा भेजते हैं तो कहीं न कहीं अपने खर्चों पर कट लगाते हैं तभी भेज पाते हैं.क्योंकि हम सोचते हैं कि शिक्षा के बल पर ही हम विदेश में आकर कुछ कर पाए, भारत में कुछ परिवारों को सुखी कर पाए--तो क्यों न उन बच्चों को पढ़ादें जो लिख- पढ़ नहीं सकते ,ताकि नई सोच और तरक्की के द्वार खुल सकें पर भारत में जिन्हें सोचना चाहिए वे बावन करोड़ का सोने का छत्र और नौ किलो सोना किसी मंदिर को दान दे सकते हैं और हर इन्सान और बच्चे में स्वयं भगवान बसता है उस तरफ ध्यान नहीं दिया जाता. आप के आलेख की तक़रीबन सभी बातें वहाँ उठाई गईं और अंत में यही सोचा कि हम जो कर सकते हैं करें -दूर बैठे यही कर सकते हैं अपने देश के लिए..आप का आलेख बहुत पढ़ा और सराहा गया है ---बधाई.
आपके सम्पादकीय में जो प्रश्न उठाएं हैं, बड़े सधे, स्पष्ट और सशक्त शब्दों में लिखे हैं. धर्म, परंपरा, बाजारवाद, उपहार, भ्रष्ट नेता गण, ब्यूरोक्रेसी आदि ज्वलंत प्रश्नों को जिस प्रकार से सामने लायें हैं, आँखें खोलने में सक्षम हैं. हम आतंकवाद की बातें करते हैं, यदि सोचें तो ये पोंगा पंडित, नेता आदि असली आंतकवादी हैं जिनके कार्यों ने परोक्ष रूप से अधिकाँश समाज को आतंकित कर दिया है.
भाई चंदेल जी, आपके सम्पादकीय से प्रेरित हो कर यहाँ अपनी ग़ज़ल देने से रहा नहीं गया:
धर्म के नाम पर.....
धर्मात्मा बन लूटते हैं धर्म ही के नाम पर
शैतान भी हंसने लगा है आदमी के नाम पर
ऐसे घिनौने कत्ल भी अब धर्म कहलाने लगे
ज़िंदा चिता में झोंक दी विधवा, सती के नाम पर
ये मन्त्रों के जाप से उपचार का दावा करें
सब खोखले अल्फ़ाज़ हैं संजीवनी के नाम पर
बाबा चमत्कारी मदारी की कला में कम नहीं
अब तो विदेशी गाड़ियां हैं स्वामी जी के नाम पर
बस राख माथे पर लगा दी,रोग के उपचार में
ये ज़िन्दगी से खेलते हैं ज़िन्दगी के नाम पर
नकली दवा बिकती रहे, बीमार की पर्वाह किसे
बिकने लगी है मौत भी अब ज़िन्दगी के नाम पर
कोई जगह ऐसी नहीं आतंक से महरूम हो
आतंक की बुनियाद भी है धर्म ही के नाम पर
मासूम बच्चों के लबों से मुस्कुराहट छीन ली
क्यों जान लेते हो ख़ुदा की बन्दगी के नाम पर ?
जब आदमी हैवानियत की गोद में पलने लगा
इनसानियत रोने लगी है बेकसी के नाम पर
महावीर शर्मा
हम वस्तुत: धर्मभीरु भी नहीं, धर्मभ्रष्ट हैं। यों तो पूरा ही लेख विचारणीय है लेकिन आपका यह पैरा विशेष रूप से उद्धृत करना चाहूँगा--'आज चीन चारों ओर से हमें घेरता जा रहा है और पंडितों-पाखण्डियों और धर्मगुरुओं ने सभी को पाखंड और परम्पराओं के ऐसे नशे में डुबा दिया है कि छोटे से लेकर बड़े तक केवल अपने लिए भयभीत है। जिन कुछ को देश की चिन्ता है वे अधिक कुछ कर नहीं पा रह या उन्हें करने नहीं दिया जा रहा। इन्हीं के मध्य एक और वर्ग पनप रहा है जो न धर्म के विषय में सोचता है न देश के विषय में।' वर्तमान भारत में धर्म वस्तुत:व्यवसाय बन चुका है। जब तक इसकी गति को नहीं सुधारा जायगा--किसी की भी गति में सुधार सम्भव नहीं है।
Balram Agarwal
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