राधेश्याम तिवारी की दो कविताएं
(१)
लौटकर जब आएंगे
लौटकर जब आएंगे
तो यही नहीं रहेंगे
उस समय हमारे बाल
कुछ सफेद हो चुके होंगे
गालों की लाली भी
कुछ कम हो चुकी होगी
और चलने की गति में भी
कुछ परिवर्तन हो चुका होगा
लेकिन यह परिवर्तन
इस बात पर भी निर्भर करेगा
कि तब तक हमारे घुटने
और दिल का दर्द कैसा है
लौटकर जब आएंगे
तो यह भी बतलाएंगे
कि चिकित्सक के निर्देशानुसार
हम भोजन में नमक और चीनी
कितनी मात्रा में ले रहे हैं
लेकिन यह इस बात पर भी
निर्भर करेगा कि तब तक
मधुमेह और रक्तचाप की
क्या स्थिति है
लैटकर जब आएंगे
तो जरूरी नहीं कि
आप मुझे देखकर
इसी तरह मुस्कराएंगे
यह इस बात पर भी
निर्भर करेगा कि
तब तक आपके पास
खुशी कितनी बची हुई है
लौटकर जब आएंगे
तो उस समय तक
घर के सामने खाली प्लाटों में
बहुत से प्रियजनों के मकान
बन चुके होंगे
उन बड़े-बड़े मकानों में
टेलीफोन भी लग चुके होंगे
लेकिन संवाद इस बात पर
निर्भर करेगा कि तब तक
उनके पास प्रेम की पूंजी
कितनी बची हुई है .
(२)
जूते की यात्रा
(एक)
मेरे बाएं पांव का जूता
रास्ते में ही कहीं रह गया है
वह थक गया था चलते-चलते
कि उसकी नजर
एक भूखे-नंगे
और निहत्थे आदमी पर पड़ी
वह आदमी गुस्से से कांप रहा था
ठीक उसी समय जूता
मेरे पांव से निकलकर
चुपके से उसके पास
चला गया
यह जूते की
साहसिक यात्रा थी
कि वह पांव से निकलकर
हाथ तक पहुंच गया .
(दो)
अब मेरे एक ही पांव में
बचा है जूता
क्या करूं इस एक जूते का
जो पूरी तरह नंगे हैं
वे भी यह देखकर हंसेंगे
कि मेरा एक ही पांव नंगा है
सोचा , पूछ लेता हूं जूते से ही
कि अब क्या करना चाहिए ?
जूते ने कहा-
’शैतान नहीं , सामाजिक हूं मैं
इसलिए अपने जोड़ीदार से
नहीं रह सकता अलग .’
(तीन)
मेरे एक पांव का जूता
जब कहीं छूट गया
तो दूसरे ने भी
पांव में रहने से
मना कर दिया
मैंने कहा -
‘हूं न मैं तुम्हारे साथ
पड़े रहो पांव में चुपचाप’
जूते ने अपनी नजर
टेढ़ी कर कहा -
‘इतना ही प्रेम है अगर
तो क्यों नहीं रख लेते
मुझे सिर पर’
यह जूते की
सबसे आक्रामक
यात्रा थी .
*****
युवा कवि-पत्रकार राधेश्याम तिवारी का जन्म देवरिया जनपद (उत्तर प्रदेश) के ग्राम परसौनी में मजदूर दिवस अर्थात १ मई, १९६३ को हुआ।अब तक दो कविता संग्रह - 'सागर प्रश्न' और 'बारिश के बाद' प्रकाशित. हिन्दी की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।सम्पादन - 'पृथ्वी के पक्ष में' (प्रकृति से जुड़ी हिन्दी कविताएं)पुरस्कार : राष्ट्रीय अज्ञेय शिखर सम्मान एवं नई धारा साहित्य सम्मान .संपर्क : एफ-119/1, फ़ेज -2,अंकुर एनक्लेवकरावल नगर,दिल्ली-110094मो० न० – 09313565061
8 टिप्पणियां:
दोनों ही कविताएँ बहुत आकर्षित करती हैं। इनमें भी, 'जूते की यात्रा' ने मन को मोह लिया, इतना ज्यादा कि जूते को केन्द्र में रखकर लिखी गई अपनी कुछ पंक्तियाँ बरबस ही याद हो आईं।
लौटकर जब आएंगे - एक सच्ची कविता !
- अमरेन्द्र
SUNDAR AUR SAHAJ BHAVABHIVYAKTI KE
LIYE KAVI KO BADHAAEE.
राधेश्याम तिवारी की दोनों कविताओं ने प्रभावित किया। राधेश्याम तिवारी की कविताएं पहले भी पढ़ चुका हूँ। उनकी कविताओं के भीतर की संवेदना हमेशा स्पर्श करती रही है। हाँ, एक बात तुमसे कहनी है कि कविताओं को इतने सपाट ढ़ंग से प्रस्तुत नहीं करना चाहिए। खास कर लम्बी कविताओं को। कविताओं की पंक्तियों के बीच गैप भी बहुत अनिवार्य है। यह गैप भी कविता में बोला करता है। अब तिवारी जी की पहली कविता को ही लो। एक के बाद एक कविता पंक्ति आती चली गई है। जब कि ऐसा नहीं होना चाहिए था। उदाहरण के लिए निम्न पंक्तियों के बाद गैप अनिवार्य था-
लौटकर जब आएंगे
तो यही नहीं रहेंगे
उस समय हमारे बाल
कुछ सफेद हो चुके होंगे
गालों की लाली भी
कुछ कम हो चुकी होगी
और चलने की गति में भी
कुछ परिवर्तन हो चुका होगा
लेकिन यह परिवर्तन
इस बात पर भी निर्भर करेगा
कि तब तक हमारे घुटने
और दिल का दर्द कैसा है
इसी प्रकार आगे की पंक्तियों में भी इसकी ज़रूरत महसूस होती है।
प्रिय सुभाष
तुम्हारी बात से सहमत हूं . कविता की पंक्तियों के बीच अपेक्षित गैप होना चाहिए और इन कविताओं में भी गैप उसी रूप में दिया गया था जिस रूप में तिवारी जी ने मुझे कविताएं उपलब्ध करवाई थीं. पोस्टिंग के समय सब ठीक था लेकिन बाद में देखा तो पंक्तियां आपस में जुड़ी हुई थीं. ऎसा पहली बार नहीं पहले भी होता रहा है. होता यह है कि कविताएं पोस्ट करते समय ही वे गद्य का रूप ले लेती है. उन्हें मूल से देखकर दुरस्त करना होता है लेकिन पोस्टिग के बाद पंक्तियां आपसे में जुड़ जाती हैं. शायद मेरे कंप्यूटर में कुछ ऎसा होता हो़गा.
तुम्हे याद होगा सुशील कुमार इसीलिए नारात हो गए थे और उनके निर्देश पर मुझे रचना समय से उनकी कविताएं हटानी पड़ी थीं. यह समस्या मुझे कविताएं प्रकाशित करने से हतोत्साहित करती है. लेकिन विधा के प्रति आकर्षण खींचता है और रचनाकारों की नाराजगी के बावजूद मैं कविताएं प्रकाशित करने के अपने मोह को त्याग नहीं पा रहा हूं.
चन्देल
भाई चन्देल तुम्हारा उत्तर पढ़ा। इसका अर्ध है कि ऐसा किसी तकनीकी कारणों से हो रहा है। वे क्या कारण हैं, शायद तुम्हें हमें समझ न आएं। कोई कम्प्यूटर ज्ञानी ही इस समस्या का हल बता सकता है।
दोनों ही कविताएँ बहुत अच्छी, सच्ची.
बधाई.
kavitain padee bahut prabhavshalee hain badhaai
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