तीन लँगोटिया यार
प्राण शर्मा
राजेंद्र ,राहुल और राकेश लँगोटिया यार हैं. तीनों के नाम " र " अक्षर से शुरू होते हैं. ज़ाहिर है कि उनकी राशि तुला है. कहते हैं कि जिन लोगों की राशि एक होती है उनमें बहुत समानताएँ पायी जाती हैं. राजेंद्र,राहुल और राकेश में भी बहुत समानताएँ हैं. ये दीगर बात है कि राम और रावण की राशि भी एक थी यानी तुला थी, फिर भी दोनो में असमानताएं थीं. राम में गुण ही गुण थे और रावण में अवगुण ही अवगुण. एक उद्धारक था और दूसरा संहारक. एक रक्षक था और दूसरा भक्षक. यदि राजेन्द्र, राहुल और राकेश में समानताएँ हैं तो कोई चाहने पर भी उन्हें असमानताओं में तबदील नहीं कर सकता है. सभी का मानना है कि उनमें समानताएँ हैं तो जीवन भर समानताएँ ही रहेंगी. इस बात की पुष्टि कुछ साल पहले चंडीगढ़ के जाने-माने ज्योतिषाचार्य महेश चन्द्र ने भी की थी. राजेंद्र, राहुल और राकेश के माथों की रेखाओं को देखते ही उन्होंने कहा था- "कितनी अभिन्नता है तुम तीनों में! भाग्यशाली हो कि विचार ,व्यवहार और स्वभाव में तुम तीनों ही एक जैसे हो..जाओ बेटो, तुम तीनों की मित्रता अटूट रहेगी. सब के लिए उदाहरण बनेगी तुम तीनों की मित्रता."
राजेंद्र, राहुल और राकेश की अटूट मित्रता के बारे में ज्योतिषाचार्य महेश चन्द्र के भविष्यवाणी करने या नहीं करने से कोई अंतर नहीं पड़ता था क्योंकि उनकी मित्रता के चर्चे पहले से ही घर-घर में हो रहे हैं. मोहल्ले के सभी माँ-बाप अपनी-अपनी संतान को राजेंद्र,राहुल और राकेश के नाम ले-लेकर अच्छा बनने की नसीहत देते हैं, समझाते हैं-"अच्छा इंसान बनना है तो राजेंद्र,राहुल और राकेश जैसा मिल-जुलकर रहो. उन जैसा बनो और उन जैसे विचार पैदा करो. किसीसे दोस्ती हो तो उन जैसी."
राजेंद्र ,राहुल और राकेश एक ही स्कूल और एक ही कॉलिज में पढ़े. साथ-साथ एक ही बेंच पर बैठे. बीस की उम्र पार कर जाने के बाद भी वे साथ-साथ उठते-बैठते हैं.हर जगह साथ-साथ आते-जाते हैं. कन्धा से कन्धा मिलाकर चलते हैं. मुस्कराहटें बिखेरते हैं.रास्ते में किसीको राम-राम और किसी को जय माता की कहते हैं. बचपन जैसी मौज-मस्ती अब भी बरकरार है उनमें. कभी किसीकी तोड़-फोड़ नहीं करते हैं वे. मोहल्ले के सभी बुजुर्ग लोग उनसे खुश हैं. किसीको कोई शिकायत नहीं है उनसे. मोहल्ले भर की सबसे ज़्यादा चहेती मौसी आनंदी का तो कहना है- "कलयुग में ऐसे होनहार और शांतिप्रिय बच्चे, विश्वास नहीं होता है . है आजकल के युवकों में उन के जैसी खूबियाँ? आजकल के युवकों को समझाओ तो आँखें दिखाते हैं. पढ़ाई न लिखाई और शर्म भी है उन्होंने बेच खाई. माँ-बाप की नसीहत के बावजूद मोहल्ले के कुछेक लड़के शरारतें करने से बाज़ नहीं आते हैं. ऊधम मचाना उनका रोज़ का काम है . जब से राजेन्द्र,राहुल और राकेश की अटूट मित्रता के सुगंध घर-घर में फैली है तब से उनके गिरोह का का पहला मकसद है उनकी मित्रता की अटूटता को छिन्न-भिन्न करना. इसके लिए उन्होंने कई हथकंडे अपनाए हैं. लेकिन हर हथकंडे में उनको असफलता का सामना करना पड़ा है. फिर भी वे निराश नहीं हुए हैं.उनके हथकंडे जारी हैं.
चूँकि राजेंद्र, राहुल और राकेश की चमड़ियों के रंगों में असमानता है यानि राजेंद्र का रंग गोरा है ,राहुल का रंग भूरा है और राकेश का रंग काला है, इसलिए इन शरारती लड़कों को उनके रंगों को लेकर उन्हें आपस में लड़वाने की सूझी है. तीनो को आपस में लड़वाने का काम गिरोह के मुखिया सरोज को सौंपा गया है. ऐसे मामलों में वो एक्सपर्ट माना जाता है.
एक दिन रास्ते में राजेंद्र मिला तो सरोज ने मुस्कराहट बिखेरते हुए उसे गले से लगा लिया. दोनो में बातों का सिलसिला शुरू हो गया. इधर-उधर की कई बातें हुई उनमें. अंत में बड़ी आत्मीयता और शालीनता से सरोज बोला -"अरे भईया ,तुम दूध की तरह गोरे - चिट्टे हो. किन भूरे-काले से दोस्ती किये बैठे हो ? तुम्हारी दोस्ती उनसे रत्ती भर नहीं मिलती है. आओ हमारी संगत में. फायदे में रहोगे." जवाब में राजेंद्र ने अपनी आँखें ही तरेरी थीं. सरोज मुँह लटका कर मुड़ गया था. जब राहुल और राकेश को इस बात का पता राजेंद्र से लगा तो तीनो ही झूमकर एक सुर में गा उठे--"आँधियों के चलने से क्या पहाड़ भी डोलते हैं?"
शायद ही ऐसी शाम होती जब राजेंद्र,राहुल और राकेश की महफ़िल नहीं जमती. शायद ही ऐसे शाम होती जब तीनों मिलकर अपने- अपने नेत्र शीतल नहीं करते. शाम के छे बजे नहीं कि वे नमूदार हुए नहीं. गर्मियों में रोज गार्डेन और सर्दियों में फ्रेंड्स कॉर्नर रेस्टोरंट में. घंटों ही साथ-साथ बैठकर बतियाना उनकी आदत में शुमार है. कहकहों और ठहाकों के बीच कोई ऐसा विषय नहीं होता है जो उनसे अछूता रहता हो. उनके नज़रिए में वो विषय ही क्या जो बोरिंग हो और जो खट्टा,मीठा और चटपटा न हो.
आज के दैनिक समाचार पत्र " नयी सुबह" में समलिंगी संबंधों पर प्रसिद्ध लेखक रोहित यति का एक लंबा लेख है. काफी विचारोत्तेजक है. राजेंद्र ,राहुल और राकेश ने उसे रस ले-लेकर पढा है. उन्होंने सबसे पहले इसी विषय पर बोलना बेहतर समझा है.
"जून के गर्म-गर्म महीने में ऐसा गर्म विषय होना ही चाहिए डिस्कस करने के लिए.मैं कहीं गलत तो नहीं कह रहा हूँ?" राजेंद्र के इस कथन से सहमत होता राकेश कहता है- " तुम ठीक कहते हो. ये मैटर, ये सब्जेक्ट हर व्यक्ति को डिस्कस करना चाहिए. लेख आँखें खोलने वाला है . उसमें कोई ऐसी बात नहीं जिससे किसीको एतराज़ हो. सच तो ये है कि इस प्रक्रिया से कौन नहीं गुज़रता है ? मैं हैरान होता हूँ आत्मकथाओं को लिखने वालों पर कि वे किस चतुराई से इस सत्य को छिपा जाते हैं. क्या कोई आत्मकथा लिखने वाला इस प्रक्रिया से नहीं गुज़रता है? अरे,उनसे तो वे लोग सच्चे और ईमानदार हैं जो सरेआम कबूल करते हैं कि वे समलिंगी सम्बन्ध रखते हैं." राकेश अपनी राय को इस ढंग से पेश करता है कि राजेंद्र और राहुल के ठहाकों से आकाश गूँज उठता है. आस-पास के बेंचों पर बैठे हुए लोग उनकी ओर देखने लगते हैं लेकिन राजेंद्र,राहुल और राकेश के ठहाके जारी रहते हैं. ठहाकों में राहुल याद दिलाता है -" तुम दोनो को क्या वो दिन याद है जिस दिन हम तीनों नंगे-धड़ंगे बाथरूम में घुस गये थे. घंटों एक -दूसरे पर पानी भर-भरकर पिचकारियाँ चलाते रहे थे. कभी किसी अंग पर और कभे किसी अंग पर. ऊपर से लेकर नीचे तक कोई हिस्सा नहीं छोड़ा था हमने. कितने बेशर्म हो गये थे हम. क्या-क्या छेड़खानी नहीं की थी हमने उस समय!"
" सब याद है प्यारे राहुल जी . पानी में छेड़खानी का मज़ा ही कुछ और होता है. "राकेश जवाब में रोमांचित होता हुआ राहुल का हाथ चूमकर कहता है.
" मज़ा तो असल में हमें नहाने के बाद आया था , राजेंद्र राकेश से मुखातिब होकर बोलता है," जब तुम्हारी मम्मी ने धनिये और पनीर के परांठे खिलाये थे हमको . क्या लज्ज़तदार परांठे थे ! उनकी सुगंध अब भी मेरे मन में समायी हुई है. याद है कि घर के दस जनों के परांठे हम तीनों ही खा गये थे. सब के सब इसी ताक में बैठे रहे कि कब हम उठें और कब वे खाने के लिए बैठे . बेचारों की हालत देखते ही बनती थी ".
" उनके पेटों में चूहे जो दौड़ रहे थे , भईया ,भूख की मारे मोटे-मोटे चूहे ." राहुल के संवाद में कुछ इस तरह की नाटकीयता थी कि राजेंद्र और राकेश की हँसी के फव्वारे फूट पड़ते हैं. " उस दोपहर हम घोड़े बेचकर क्या सोये थे कि चार बजे के बाद जागे थे . गुल्ली- डंडे का मैच खेलने नहीं जा सके थे हम. अपना- अपना माथा पीटकर रह गये थे." रुआंसा होकर राकेश कहता है " बचपन के दिन भी क्या खूब थे !" घरवालों के चहेते थे हम . पूरी छूट थी हमको . कभी किसी की मार नहीं थी. किसीकी प्रताड़ना नहीं थी. पंछियों की तरह आजाद थे हम ." राजेंद्र की इस बात का प्रतिवाद करता है राहुल- "माना कि आप पर किसी की मार नहीं थी, किसी की प्रताड़ना नहीं थी लेकिन आप दोनो ही जानते हैं कि मेरे चाचा की मुझपर मार भी थी और प्रताड़ना भी. छोटा होने के नाते पिता जी उनको भाई से ज्यादा बेटा मानते हैं और वे पिता जी के प्यार का नाजायज फायदा उठाते हैं. उनके गुस्से का नजला मुझपर ही गिरता है . एक बात मैंने आपको कभी नहीं बताई. आज बताता हूँ.
एक दिन मेरे चाचा ने मुझे इतना पीटा कि मैं अधमरा हो गया. हुआ यूँ कि उन्होंने अपने एक मित्र को एक कौन्फिडेन्शल लेटर भेजा मेरे हाथ. उनके मित्र का दफ्तर घर से दूर था.तपती दोपहर थी. मैं भागा-भागा उनके दफ्तर पहुंचा. मेरे पहुँचने से पहले मेरे चाचा का मित्र किसी काम के सिलसिले में कहीं और जा चुका था. सोच में पड़ गया कि मैं अब क्या करूँ? पत्र वापस ले जाऊं या चाचा के दोस्त के दफ्तर में छोड़ दूं? आखिर मैं पत्र छोड़कर लौट आया".
" फिर क्या हुआ?" राजेंद्र और राकेश ने जिज्ञासा में पूछा.
" फिर वही हुआ जिसकी मुझे आशंका थी. ये जानकार कि मैं कौन्फिडेन्शल लेटर किसी और के हाथ थमा आया हूँ ,चाचा की आँखें लाल-पीली हो गयीं. वे मुझपर बरस पड़े. एक तो कहर की गर्मी थी, उस पर उनकी डंडों की मार . मेरी दुर्गति कर दी उन्होंने. घर में बचाने वाला कोई नहीं था.छोटा भाई खेलने के लिए गया हुआ था.पिता जी काम पर थे और माँ किसी सहेली के घर में गपशप मारने के लिए गयी हुई थीं."
" आह! " राजेंद्र और राकेश की आँखों में आंसू छलक जाते हैं.
"कल की बात सुन लीजिये. आप जानते ही हैं कि मेरे चाचा नास्तिक हैं आजकल वे इसी कोशिश में हैं कि मैं भी किसी तरह नास्तिक बन जाऊं. मुझे समझाने लगे -" भतीजे,मनुष्य का धर्म ईश्वर को पूजना नहीं है. ईश्वर का अस्तित्व है ही कहाँ कि उसको पूजा जाए. पूजना है तो अपने शरीर को पूज. इस हाड़-मांस की देखभाल करेगा तो स्वस्थ रहेगा. स्वस्थ रहेगा तो तू लम्बी उम्र पायेगा. मेरी बात समझे कि नहीं समझे? ले,तुझे एक तपस्वी की आप बीती सुनाता हूँ उसे सुनकर तेरे विचार अवश्य बदलेंगे, मुझे पूरा विश्वास है".
थोड़ी देर के लिए अपनी बात को विश्राम देकर राहुल कहना शुरू करता है- "चाचा ने जबरन मुझे अपने पास बिठाकर तपस्वी की आपबीती सुनायी. वे सुनाने लगे-" भतीजे, एक तपस्वी था. तप करते-करते वो सूखकर कांटा हो गया था. एक राहगीर ने उसे झंझोड़ कर उससे पूछा- प्रभु,आप ये क्या कर रहे हैं?
" तपस्या कर रहा हूँ. आत्मा और परमात्मा को एक करने में लगा हुआ हूँ.". तपस्वी ने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया.
" प्रभु, अपने शरीर की ओर तनिक ध्यान दीजिये. देखिये,सूखकर काँटा हो गया है. लगता है कि आप कुछ दिनों के ही महमान हैं इस संसार के. ईश्वर का तप करना छोड़िये और अपने शरीर की देखभाल कीजिये."
तपस्वी ने अपने शरीर को देखा. वाकई उसका हृष्ट-पुष्ट शरीर सूखकर काँटा हो गया था. उसने तप करना छोड़ दिया. वो जान गया कि ईश्वर होता उसका शरीर यूँ दुबला-पतला नहीं होता, हृष्ट-पुष्ट ही रहता. भतीजे, इंसान समेत धरती पर जितनी जातियाँ हैं ,चाहे वो मनुष्य जाति हो या पशु जाति ,किसी की भी उत्पत्ति ईश्वर ने नहीं की है. हरेक की उत्पत्ति कुदरती तरीकों से ही मुमकिन हुई है. हमारा रूप ,हमारा आकार और हमारा शरीर सब कुछ कुदरत की देन है,ईश्वर की नहीं."
" सभी नास्तिक ऐसे ही उल्टी-सीधी बातें करके औरों को नास्तिक बनाते हैं," राजेंद्र बोल पड़ता है, " तुम्हारे चाचा ने फिर कभी ईश्वर के प्रति तुम्हारी आस्था को ठेस पहुंचाने की कोशिश की तो उन्हें ये प्रसंग जरूर सुनाना- " चाचा,आप जैसा ही एक नास्तिक था. ईश्वर है कि नहीं ,ये जांच करने के लिए वो जंगल के पेड़ पर चढ़कर बैठ गया, भूखा ही. ये सोचकर कि अगर ईश्वर है तो वो अवश्य ही उसकी भूख मिटाने को आएगा. नास्तिक देर तक भूखा बैठा रहा. उसे रोटी खिलाने के लिए ईश्वर नहीं आया. उसने सोचा कि वो आयेगा भी कैसे?उ सका अस्तित्व हो तब न? अचानक नास्तिक ने देखा कि डाकुओं का एक गिरोह उसके पेड़ के नीचे आकर लूट का मालवाल आपस में बांटने लगा है.मालवाल बाँट लेने के बाद डाकुओं को भूख लगी,जोर की. कोई राहगीर अन्न की पोटली भूल से पेड़ के नीचे छोड़ गया था. उनकी नज़रें पोटली पर पड़ीं.पोटली में भोजन था. उनके चेहरों पर खुशियों की लहर दौड़ गयी. वे भोजन पर टूट पड़े. अनायास एक डाकू चिल्ला उठा-" ठहरो,ये भोजन हमें नहीं खाना चाहिए. मुमकिन है कि इसमें विष मिला हो और हमारी हत्या करने को किसीने साजिश रची हो. अपने साथी की बात सुनकर अन्य डाकुओं में भी शंका जाग उठी. सभी इधर-उधर और ऊपर-नीचे देखने लगे..एक डाकू को पेड़ की घनी डाली पर बैठा एक व्यक्ति नज़र आया. वो चिल्ला उठा-" देखो,देखो,वो इंसान छिप कर बैठा है. सभी डाकुओं की नज़र ऊपर उठ गयीं. सभीको एक घनी डाली पर बैठा एक व्यक्ति दिखाई दिया. सभी का शक विश्वास में तब्दील हो गया कि यही धूर्त है कि जिसने भोजन में विष मिलाया है. सभी शेर की तरह गर्जन कर उठे-" कौन है तू? ऊपर बैठा क्या कर रहा है?"
" मैं नास्तिक हूँ . यहाँ बैठकर मैं ईश्वर के होने न होने की जांच कर रहा हूँ, भूखा रहकर. मैं ये देखना चाहता हूँ कि अगर संसार में ईश्वर है तो वो मुझ भूखे को कुछ न कुछ खिलाने के लिए अवश्य आयेगा यहाँ."
नास्तिक ने सच -सच कहा लेकिन डाकू उसका विश्वास कैसे कर लेते ? वे चिल्लाने लगे-" झूठे,पाखंडी और धूर्त. नीचे उतर ."
नास्तिक नीचे उतरा ही था कि उसकी शामत आ गयी.तमाचे पर तमाचा उसके गालों पर पड़ना शुरू हो गया. एक डाकू अपनी दायीं भुजा में उसकी गर्दन दबाकर उसे आतंकित करते हुए पूछने लगा-" बता,ये पोटली किसकी है? तू किसका जासूस है? किसने तुझे हमारी ह्त्या करने के लिए भेजा है?"
" ये मेरी पोटली नहीं है." नास्तिक गिड़ गिड़ाया. मेरा विश्वास कीजिये कि मैं किसीका जासूस नहीं हूँ . मैं आप सबके पाँव पड़ता हूँ . मैं निर्दोष हूँ. मुझपर दया कीजिये. मुझे छोड़ दीजिये ."
अगर ये भोजन तेरा नहीं है और तूने इसमें विष नहीं मिलाया है तो पहले तू इसे खायेगा..ले खा. " एक डाकू ने एक रोटी उसके मुँह में ठूंस दी.पलक झपकते ही नास्तिक अजगर की तरह उसे निगल गया. डाकुओं से छुटकारा पाकर नास्तिक भागकर सीधा मंदिर में गया. ईश्वर की मूर्ति के आगे नाक रगड़ कर दीनता भरे स्वर में बोला -" हे भगवन ,तेरी महिमा अपरम्पार है.तूने मेरी आँखों पर पड़े नास्तिकता के परदे को हटा दिया है. मेरी तौबा ,फिर कभी तेरी परीक्षा नहीं लूँगा."
" लेकिन राजेंद्र,ईश्वर के अस्तित्वहीन होने के बारे में मेरे चाचा की एक और दलील है. वो ये कि इस ब्रह्माण्ड का रचयिता अगर ईश्वर है तो उसका भी रचयिता कोई होगा. वो कौन है? वो दिखाई क्यों नहीं देता है?" राहुल ने गंभीरता में कहा .
" तुम अपने चाचा की ये बात रहने दो कि अगर ईश्वर है तो उसका भी रचयिता कोई होगा. शंका का कई शंकाओं को जन्म देती है. सीधी सी बात है कि धरती ,आकाश,बादल ,नदी,पहाड़.सागर,सूरज,चाँद,सितारे,पंछी,जानवर इतना सब कुछ किसी इंसान की उपज तो है नहीं. किसी अलौकिक शक्ति की उपज है. उस अलौकिक शक्ति का नाम ही ईश्वर है. रही बात कि वो दिखाई क्यों नहीं देता तो हवा और गंध भी दिखाई कहाँ देते हैं.? उनके अस्तित्व को नास्तिक क्यों नहीं नकारते हैं ? अरे भाई, इस संसार में कोई नास्तिक-वास्तिक नहीं है. संकट आने पर नास्तिक भी ईश्वर के नाम की माला अपने हाथ में ले लेता है . वो भी उसके रंग में रंगने लगता है. दोस्तो, ईश्वर के रंग में रंगने से मुझे याद आया है कि कल रात को मैं सपने में उसके रंग में रंग गया. सच्ची." " तुम उसके रंग में रंग गये? कैसे ? " राहुल और राकेश कौतूहल व्यक्त करते हैं.
" कल रात को मुझको सपना आया . मैंने देखा कि मेरे चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश था . वो प्रकाश था ईश्वर के रंग-रूप का. वाह,क्या रंग-रूप था ! गोरा -चिट्टा .मेरे जैसा ." बताते-बताते राजेंद्र के मुख पर मुस्कान फैल जाती है.
" गोरा-चिट्टा ,तुम्हारे जैसा ? राहुल प्रतिवाद करता है.
" सच कहता हूँ. ईश्वर रंग-रूप बिलकुल मेरे जैसा है. "
" अरे भाई, उसका रंग गोरा-चिट्टा नहीं है , भूरा है, मेरे जैसा..मेरे सपने में तो ईश्वर कई बार आ चुका है. मैंने हमेशा उसको भूरा देखा है. "
" तुम मान क्यों नहीं लेते कि वो गोरा-चिट्टा है.?"
" तुम भी क्यों नहीं मान लेते कि वो भूरा है?"
" गोरे-चिट्टे को भूरा कैसे मान लूं मैं ?"
" गलत. बिलकुल गलत. तुम दोनो ही गलत कहते हो." राकेश जो अब तक खामोश बैठा राजेंद्र और राहुल की बातें सुन रहा था भावावेश में आकर बोल उठता है ," तुम दोनो की बातों में रंगभेद की बू आ रही है. तुम मेरे रंग को तो खारिज ही कर रहे हो . मेरी बात भी सुनो. न तो वो गोरा है और न ही भूरा. वो तो काला है ,काला. बिलकुल मेरे रंग जैसा. मैं भी सपने में ईश्वर को कई बार देख चुका हूँ. अलबत्ता रोज ही उसको देखता हूँ . क्या तुम दोनों के पास उसके गोरे या भूरे होने का कोई प्रमाण है? नहीं है न? मेरे पास प्रमाण है उसके काले होने का . भगवान् कृष्ण काले थे. अगर ईश्वर गोरा या भूरा है तो तो कृष्ण को भी गोरा या भूरा होना चाहिए था. राकेश के बीच में पड़ने से मामला गरमा जाता है. तीनों की प्रतिष्ठा दांव पर लग जाती है. अपनी-अपनी बात पर तीनों अड़ जाते हैं. कोई तस से मस नहीं होता है. राजेंद्र राहुल का कंधा झकझोर कर कहता है- तुम गलत कहते हो " और राकेश दोनों के कंधे झकझोर कर कहता है- " तुम दोनो ही गलत कहते हो ."
ईश्वर का कोई रंग हो या ना हो लेकिन होनी अपना रंग दिखाना शुरू कर देती है. विनाश काले विपरीत बुद्धि . अज्ञान ज्ञान पर हावी हो जाता है. जोश का अजगर होश की मछली निगलने लगता है. राहुल ,राजेंद्र और राकेश की रक्त वाहिनियों में उबाल आ जाता है.देखते ही देखते तीनों का वाक् युद्ध हाथापाई में तब्दील हो जाता है. हाथापाई घूंसों में बदल जाती है. घूसों बरसने की भयानक गर्जना सुनकर आसपास के पेड़ों पर अभी-अभी लौटे परिंदे आतंकित होकर इधर-उधर उड़ जाते हैं. परिंदे तो उड़ जाते हैं लेकिन तमाशबीन ना जाने कहाँ-कहाँ से आकर इकठ्ठा हो जाते हैं . तमाशबीन राजेंद्र, राहुल और राकेश की ओर से बरसते घूसों का आनंद यूँ लेने लगते हैं जैसे मुर्गों की जंग हो. कई तमाशबीन तो आग में घी का काम करते हैं. अपने-अपने रंग के अनुरूप वे ईश्वर का रंग घोषित करके तीनों को भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं. शुक्र हो कुछ शरीफ लोगों का. उनके बीच में पड़ने से राजेंद्र ,राहुल और राकेश में युद्ध थमता है. तीनों ही लहूलुहान हैं. क्योंकि तीनों ही दोस्ती के लिए खून बहाने का कलेजा रखते हैं. लंगोटिए यार जो हैं .
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प्राण शर्मा का जन्म १३ जून १९३७ को वजीराबाद (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था. प्रारंभिक शिक्षा दिल्ली में. पंजाब विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिन्दी). १९५५ से लेखन . फिल्मी गीत गाते-गाते गीत , कविताएं और ग़ज़ले कहनी शुरू कीं.१९६५ से ब्रिटेन में.१९६१ में भाषा विभाग, पटियाला द्वारा आयोजित टैगोर निबंध प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार. १९८२ में कादम्बिनी द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार. १९८६ में ईस्ट मिडलैंड आर्ट्स, लेस्टर द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार.लेख - 'हिन्दी गज़ल बनाम उर्दू गज़ल" पुरवाई पत्रिका और अभिव्यक्ति वेबसाइट पर काफी सराहा गया. शीघ्र यह लेख पुस्तकाकार रूप में प्रकाश्य.२००६ में हिन्दी समिति, लन्दन द्वारा सम्मानित."गज़ल कहता हूं' और 'सुराही' - दो काव्य संग्रह प्रकाशित.Coventry CVESEB, UK3, Crakston Close, Stoke Hill Estate,E-mail : pransharma@talktalk.net
23 टिप्पणियां:
Pran Bhai sahab ki likhi kahanee lambee magar kayee naye rang liye lagee aur ant mei seekh bhee deti gayee -- humesha aapko padhna sukhad rehta hai --
sadar,
- lavanya
ek achchhi kahaanee padne ko milee iske liye mai bhai chandel tathaa apko (priya bhai pran jee ko)badhai detaa hoon
प्राण साहब का कहानी कहने का अंदाज़ सबसे निराला है...बड़ी सादगी से वो अपनी बात कह जाते हैं...कहानी कहने की ये कला जो पाठक को शुरू से अंत तक बाँध ले कोई उनसे सीखे...बहुत ही रोचक और ज्ञान वर्धक कहानी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद...
नीरज
रूप सिंह चंदेल साहिब नमस्कार
आपके ब्लॉग पर श्री प्राण शर्मा साहिब की कहानी पढ़ने का
मौका मिला शुक्रिया
प्राण साहिब की एक कहानी में अनेक कहानिया छुपी हुई हैं
ऐसा महसूस होता है जैसे किसी फ़िल्मी पर्दे पर पञ्च तन्त्र
के पुराने और नए सीन आ जा रहे हों लेखन बहुत बेबाक है
कभी कबार खुल के बात कहना और कभी छुपा के इशारे से
बात कह जाने का हुनर प्राण साहिब जी के ही बस की बात है
लेखक पाठक को एकदम अपने साथ जोड़ कर चला लेता है
और पाठक लेखक की कहानी में घुलमिल जाता है
शुभकामनायें
चाँद शुक्ला हदियाबादी
डेनमार्क
कहानी अटूट मित्रता से आरम्भ होती है.........शांत,स्थिर......
हर आँधी-तूफ़ान में साथ रहनेवालों को तोड़ने के लिए जाने
कितने लोग कार्यरत रहते हैं , पर उनकी सफलता हमारे उस मानसिक-स्तर से
होती है,जहाँ हम खुद को विशिष्ट मानते हैं.....
और यही स्व प्रधानता ने उनको लहुलुहान कर दिया और उनकी मित्रता दम
तोड़ गयी........
लोग इस कहानी से बहुत कुछ सीख सकते हैं,यदि सीखना चाहें!
कहानी शुरू करते हे लगा था कि इसका कथानक दोस्ती पर आधारित है मगर जैसे जैसे कहानी आगे बढी उसे बडी खूबसूरती से कई भावों से जोड दिया गया कि कैसे लोग् या दुश्मन दोस्तों को लडाने के लिये ताक मे बैठे रहते हैं फिर आज कल जो सामप्रदायिक भेद भाव का माहौल है कैसे लोग उसे भडाकाते हैं ये भी संदेश मिलता है कि धर्म नस्ल रंग भेद के नाम पर कितनी आसानी से किसी को भडकाया जा सकता है। इसमे आस्तिक और नस्तिक प्रकृ्ति की उत्पति तक को कहानी मे बडी सूझ बूझ से व्यक्त् िया है कि पाठक को ये उपदेश नहीं लगती।कहानी की निरन्तरता पाठक को अपने साथ बहाये ले जाती है कथानक कथ्य,शैली और शिल्प सभी कुछ बहुत सुन्दर है ।एक कहानी मे अनेक संदेश। आ्रणीय प्राण भाई साहिब को बधाई और आपका धन्यवाद इस कहानी को पढवाने के लिये।
निजी स्वार्थ, स्वहित, स्वयम को सर्वश्रेष्ठ समझने की सन्कीर्ण मनोव्रित्ति किस तरह घनिष्ठ सम्बन्धो को आघात पहुचाती है, यह कहानी अत्यन्त सहज ढन्ग से रेखान्कित करती है.दोस्ती ही क्यो,एक परिवार मे पति पत्नी के बीच के बिगडते सम्बन्ध, पडोसियो के बीच आपस मे टूटते रिश्ते जैसे समाज मे तेजी से पनप रहे घुन के लिये भी केवल यही एक कारण जिम्मेदार है, कि हम सदैव स्वयम को दूसरो से बेहतर समझते है.
काश यह कहानी समाज के लिये एक प्रेरणा बन सके, ना केवल दोस्ती के क्षेत्रो मे अपितु सभी सामाजिक सम्बन्धो मे.
सुन्दर कहानी !
सादर
PRAAN SAHAB KI KAHAANI MEIN ROCHAKTA AUR VISHAY KI PAKAD MAJBOOTI SE BANI RAHTI HAI ... YE KAHAANI BHI AAJ KE SAMAAJIK PARIVESH KO SARTAK ROOP SE BAYAAN KARTI HAI ... TEENO MITR JINKO KABHI BHI LADWANA AASAAN NAHI THAA ...VO EK CHOTI SI BAAT PAR JO RANG BHED KE KAARAN UPJI, JUDA HO GAYE..... SAMAAJ MEIN AISE HI GAHRI JAD BANAA CHUKI BHRANTIYON KE CHALTE KITNA KUCH HO JAATA HAI ..... KAHAANI KE MAADHYAM SE SANDESH DIYA HAI PRAN JI NE AUR VO IS PRAYAAS MEIN SAFAL HAIN .......
शुक्रिया, प्राण जी | कहानी दिलचस्प है, और उद्बोधक भी ! बधाई !
RC Roopam
मुग्ध हूँ....
एकदम सादगी से कितनी गंभीर बात कह दी आपने इस कहानी के माध्यम से....कितना सार्थक सन्देश दिया है....वाह !!
एक ही ईश्वर की संतान जो एकदूसरे से पूर्णतः अभिन्न हैं,पर उसी ईश्वर के नाम पर एक दुसरे के शत्रु हो जाते हैं....
अभूतपूर्व लेखन कला...मैं नतमस्तक हूँ आपके लेखनी और पवित्र भावों के प्रति.....
प्राण शर्मा जी की कहानी बड़ी सादगी से बड़ी बात कहती है और समसामयिक सन्देश देती है.आप बधाई के पात्र हैं. sureshyadav55
halaki inhe main gazal pitamah kahke pukarata hun , inki kuchh laghu kathaayen main pahale bhi padh chukaa hun,... kamaal ki baten karte hain magar aaj jab yah kahaani padhaa to bachapa jaise mere aankho ke samane pasarta chalaa gayaa sard mausam ki gunguni subah ki tarah... in tino mitro ki kahaani me jo hame paath milta hai wo sadesh apne aap me mishaal kayam karne waali hai ... inki gazal vidha par to logon ne lohaa mana hi hai ab inki gadh lekhan ka bhi log loha manate hain ... bas apni chhoti jabaan se yahi kahunga ke maa saraswati ka inki lekhani pe asim kripa hai... jis tarah se ye hindi ki seva kar rahe hain wo apne aap me ham naye lekhako ke liye ek sandesh hai... salaam inko tathaa inki lekhani ko....
arsh
सीख देती इस कहानी का मकसद...सादगी भरा लेख और प्रवाह बहुत पसन्द आया ....एक कहानी के अन्दर कई कहानियों को समेटने की आपकी कला भी पसन्द आयी...कहीं भी ये नहीं लगा कि इसे बीच में ही बिना पढे अधूरा छोड़ देना चाहिए...इसके लिए प्राण साहब को बहुत-बहुत बधाई
बहुत ही सुंदर, रोचक, दिलचस्प और ज्ञानवर्धक कहानी लिखा है आपने ! पढ़कर बहुत अच्छा लगा! इसे ही कहते हैं दोस्ती !
प्राण जी
धर्मान्धता पर चोट करती एक पठनीय कहानी.
चन्देल
nice
आदरणीय प्राण जी की कहानी की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि यह शुरु से अंत तक पाठक को बांधे रखती है। मनुष्य का आत्मकेंद्रित दृष्टिकोण मजबूत से मजबूत रिश्ते में भी दरार डाल जाता है। और समाज में विघटनकारी शक्तियां हैं तो दूसरी ओर अच्छे लोग भी हैं जो इन विषम परिस्थितियों में मानवता को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। इन सब तथ्यों का बखूबी प्रतिपादन हुआ है इस कहानी में। कहानी के लिये आदरणीय प्राण जी को बधाई।
कहानी देर से पढ़ी। किस्सागोई शैली में लिखी इस कहानी में व्यंग्य भी छिपा है।
अपनी व्यस्तता के कारण देर से आप के ब्लाग पर आ पाई, क्षमा प्रार्थी हूँ कि अपने ही भाई साहब की कहानी को देर से पढ़ा. सुभाष जी ने सही कहा है कि किस्सागोई शैली में लिखी कहानी में व्यंग्य
छिपा है और कई बातें इशारों में कह दी गई हैं...
कथ्य का नयापन आकर्षक है। प्राण साब की लेखनी से उपजा एक और कमाल...
आदरणीय प्राण जी कि कथा में धर्म, जाती व् रंग को लेकर जो स्तम्भ कहानी में दर्शय है वह विचार योजक है. बहुत ही अछी उर्जा के साथ कहानी का आगाज़
हुआ फिर समय और सोच कि डरकर एक महाजाल बिच देती है. येः षड्यंता भी मन का रचा हुआ है..हर घर में, हर समाज में, हर मानव मन में समोहित है. कुछ पल के लिए उस्रंग के अहम् कि रौ में बह गया चिंतन, पर युद्घ थम जाना एक एक सकारात्मक संकेत है जो सोचने पर मजबूर करता है कि किस नींव पर रिश्ते कायम राह सकते हैं? कहानी में एक नया दृष्टिकोण है..
देवी नागरानी
'तीन लंगोटिया यार' एक सार्थक और सटीक कहानी है जो कथावस्तु, चरित्रचित्रण, वातावरण, उद्देश्य और शैली की दृष्टि से प्रभावशाली कहानी है. कहानी इतनी रोचक है कि शुरू करते ही पाठक की रूचि अंत तक बनी रहती है. कहानी के अंत तक कहानी को ऐसा मोड़ दिया है पाठक दंग रह जाता है और अंत में ही उद्देश्य और शिक्षा का पता चलता है. प्राण जी, कहानी के लिए आपको बधाई.
sharmaji,
vaatayan par aapki kahani padhi. bahut dinon baad ek tarkik kahani padhne ka avsar mila. badhayee.
Krishnabihari
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